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20231101.hi_54668_29
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मिश्रातु
(13) मैग्नेलियम (Magnalium) - इसमें ऐल्युमिनियम 95-70 प्रतिशत तथा मैग्नीशियम 5-30 प्रतिशत तक होता है। यह मिश्रधातु हल्की होती है। इसका उपयोग विज्ञान संबंधी यंत्रों तथा तुलादंड बनाने में होता है।
0.5
5,011.497835
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मिश्रातु
(14) नाइक्रोम (Nichrome) - इसमें निकल 80-54, क्रोमियम 10-22, लोहा 4.8-27 प्रतिशत तक होते हैं। ऊँचे ताप पर इसका संक्षारण नहीं होता तथा इसका वैद्युत प्रतिरोध अधिक होता है। इसका उपयोग ऊष्मक (heater) बनाने में होता है।
0.5
5,011.497835
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मिश्रातु
(15) पालौ (Palau) - इसमें सोना 80 तथा पैलेडियम 20 प्रतिशत होते हैं। मूषा (crucibles) और थाली बनाने में प्लैटिनम के स्थान पर इसका उपयोग किया जाता है।
0.5
5,011.497835
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मिश्रातु
(16) पर्मलॉय (Permalloy) - इसमें निकल 78, लोहा 21, कोबल्ट 0.4 प्रतिशत तथा शेष मैगनीज, ताँबा, कार्बन, गंधक और सिलीकन होते हैं। इससे टेलीफोन के तार बनाए जाते हैं।
0.5
5,011.497835
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
इस्लाम का मूल मंत्र "लॉ इलाह इल्ल , अल्लाह , मुहम्मद उर रसूल अल्लाह" है, अर्थात् अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके आखरी रसूल (पैगम्बर)हैं।
0.5
5,003.114597
20231101.hi_4867_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
इस्लाम में मुसलमानों को खड़े खुले में पेशाब(इस्तीनज़ा) करने की इजाज़त नहीं क्योंकि इससे इंसान नापाक होता है और नमाज़ पढ़ने के लायक नहीं रहता इसलिए इस्लाम में बैठके पेशाब करने को कहा गया है और उसके बाद पानी से शर्मगाह को धोने की हुक्म दिया गया है।
0.5
5,003.114597
20231101.hi_4867_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
इस्लाम में 5 वक़्त की नामाज़ मुक़र्रर की गई है और हर नम्र फ़र्ज़ है।इस्लाम में रमज़ान एक पाक महीना है जो कि 30 दिनों का होता है और 30 दिनों तक रोज़ रखना फ़र्ज़ है जिसकी उम्र 12 या 12 से ज़्यादा हो।12 से कम उम्र पे रोज़ फ़र्ज़ नहीं।सेहत खराब की हालत में भी रोज़ फ़र्ज़ नहीं लेकिन रोज़े के बदले ज़कात देना फ़र्ज़ है।वैसा शख्स जो रोज़ा न रख सके किसी भी वजह से तो उसको उसके बदले ग़रीबो को खाना खिलाने और उसे पैसे देने या उस गरीब की जायज़ ख्वाइश पूरा करना लाज़मी है।
0.5
5,003.114597
20231101.hi_4867_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
वेद के अनुसार हर व्यक्ति ईश्वर का अंश है। परमेश्वर एक ही है। वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है कि वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे हैं। हिंदू धर्म ईश्वर को दोनों अर्थात् साकार तथा निराकार रूप में देखता है।इस के अनुसार जो ईश्वर सब चीजों को साकार रूप देता है,वो खुद भी साकार तथा निराकार रूप धारण कर सकता है।सनातन धर्म (लोकपरिचित हिंदू धर्म) आत्मा (ईश्वर का अंश)को जीवन को आधार मानता है। हिंदू धर्म मानव को किसी पाप समलित होने आज्ञा नहीं देता।इसके अनुसार जीव को मानव जन्म में सद्कर्म तथा मानवता आचरण करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी न किसी उद्देश्य से हुआ है। ईश्वर अनंत है , अजन्म है। हिंदू धर्म में आदिशक्ति मां को श्रृष्टि का आधार बताया गया। ब्रह्मा को श्रृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालनहार तथा महेश को श्रृष्टि का विनाशक बताया गया है।
0.5
5,003.114597
20231101.hi_4867_11
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
जैन धर्म में तीर्थंकर एक धार्मिक मार्ग का आध्यात्मिक शिक्षक होता है जिसे जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र पर विजय प्राप्त किया हुआ माना जाता है; जिनकी धार्मिक विचारधारा को जैन धर्म के सभी भक्त निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करने के लिए पालन करते हैं। जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड के समय का चक्र दो हिस्सों में बांटा गया है। आरोही समय चक्र को उत्सर्पिनी कहा जाता है और अवरोही समय चक्र को अवसरपिनी कहा जाता है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हैं जिन्हें उनके आध्यात्मिक शिक्षक और सफल उद्धारक माना जाता है।  ऋषभ देव जैन धर्म के संस्थापक और पहले तीर्थंकर हैं। महावीर जैन धर्म के अंतिम यानी चौबीसवें तीर्थंकर थे। भगवान महावीर के अन्य नाम वीर, अतिवीर, सनमती, महावीर और वर्धमान हैं।
1
5,003.114597
20231101.hi_4867_12
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के आधार पर कई परंपराओं और प्रथाओं का पालन किया जाता है। बौद्ध धर्म की स्थापना 2600 साल पहले, एक भारतीय तत्ववेत्ता और धार्मिक शिक्षक सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के द्वारा की गई थी। गौतम बुद्ध ने देवताओं को संसार के समान चक्र में फंसे हुए प्राणियों के रूप में देखा है। उन्होंने केवल भगवान की अवधारणा को भगवान के अस्तित्व के बारे में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए बिना एक तरफ रख दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए देवताओं पर विश्वास करना जरूरी नहीं है। गौतम बुद्ध का मानना था कि "भगवान अन्य सभी प्राणियों की तरह पुनर्जन्म के चक्र में शामिल हैं और आखिरकार, वे गायब हो जाएंगे। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए 'ईश्वर में विश्वास' आवश्यक नहीं है।"
0.5
5,003.114597
20231101.hi_4867_13
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
15 वीं शताब्दी में स्थापित सिख धर्म दुनिया के चार प्रमुख धर्मों में से एक है। सिक्ख धर्म की स्थापना गुरु नानक (ई.स. 1469-1539) जी द्वारा की गई थी। सिख धर्म का मुख्य उद्देश्य लोगों को भगवान के सच्चे नाम (सतनाम) से जोड़ना है। सिक्खों का पवित्र ग्रंथ "गुरु ग्रंथ साहिब" है। सिक्ख मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मानव जीवन में एक गुरु होना चाहिए और बाकी सभी से ऊपर एक परमात्मा है। गुरु नानक देव, सिख धर्म के संस्थापक ने हमें गुरु ग्रंथ साहेब में कई संकेत दिए हैं कि हम केवल  सद्गुरु / तत्त्वदर्शी गुरु की शरण में जाने से ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सद्गुरु मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।  विभिन्न मूल भाषाओं में भगवान का वास्तविक नाम कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषा में), हक्का कबीर (पृष्ठ संख्या 721 पर गुरु ग्रंथ साहिब में पंजाबी भाषा में) है। सिक्ख धर्म के लोग वाहेगुरु को सच्चा मंत्र जान कर उसका जाप करते हैं जबकि वास्तविकता में 'वाहेगुरु' एक शब्द है जिसे ईश्वर, परम पुरुष या सभी के निर्माता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। कबीर साहेब का अर्थ परमात्मा से है कुछ लोग कबीर शब्द को महात्मा कबीर दास से जोड़ देते है जो की गलत है कबीर दास जी कोई भगवान नही थे बल्कि वो खुद परमात्मा के निराकार रूप के भक्त थे। वाहेगुरु शब्द सतलोक में भगवान के रूप में देखने के बाद, श्री नानक जी के मुख से "वाहेगुरु" शब्द निकला था। गुरु नानक जी ने एकेश्वरवाद के विचार पर जोर देने के लिए ओंकार शब्द के पहले "इक"(ੴ) का उपसर्ग दिया।
0.5
5,003.114597
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
अर्थात् यहां केवल एक ही परम पुरुष है, शास्वत सच, हमारा रचनहार, भय और दोष से रहित, अविनाशी, अजन्मा, स्वयंभू परमात्मा। जिसकी जानकारी कृपापात्र भगत को पूर्ण गुरु से प्राप्त होती है।
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5,003.114597
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0
ईश्वर
नास्तिक लोग और नास्तिक दर्शन ईश्वर को झूठ मानते हैं। परन्तु ईश्वर है या नहीं इस पर कोई ठोस तर्क नहीं दे सकता।
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5,003.114597
20231101.hi_2923_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतः यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं। अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं।
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4,966.030361
20231101.hi_2923_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
रंगोली धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है। अल्पना जीवन दर्शन की प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्फ पूजागृह तक सीमित नहीं रह गई है। स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं। यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की भावना का प्रतीक भी है। रंगोली में बनाए जाने वाले चिह्न जैसे स्वस्तिक, कमल का फूल, लक्ष्मीजी के पग (पगलिए) इत्यादि समृद्धि और मंगलकामना के सूचक समझे जाते हैं। आज कई घरों, देवालयों के आगे नित्य रंगोली बनाई जाती है। रीति-रिवाजों को सहेजती-सँवारती यह कला आधुनिक परिवारों का भी अंग बन गई है। शिल्प कौशल और विविधतायुक्त कलात्मक अभिरुचि के परिचय से गृह-सज्जा के लिए बनाए जाने वाले कुछ माँडणों को छोड़कर प्रायः सभी माँडणे किसी मानवीय भावना के प्रतीक होते हैं। और इस प्रकार ये हमारी सांस्कृतिक भावनाओं को साकार करने में महत्त्वपूर्ण साधन माने जाते हैं। हर्ष और प्रसन्नता का प्रतीक रंगोली रंगमयी अभिव्यक्ति है।
0.5
4,966.030361
20231101.hi_2923_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में 'अदूपना', कुमाऊँ में लिखथाप या थापा, तो केरल में कोलम। इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके। भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है। दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के 'कोलम' में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है। सूखे चावल के आटे को अँगूठे व तर्जनी के बीच रखकर एक निश्चित साँचे में गिराया जाता है। राजस्थान का मांडना जो मंडन शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मांडने को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है। कुमाऊँ के'लिख थाप' या थापा में अनेक प्रकार के आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों का प्रयोग किया जाता है। लिखथाप में समाज के अलग-अलग वर्गों द्वारा अलग-अलग चिह्नों और कला माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। आमतौर पर दक्षिण भारतीय रंगोली ज्यामितीय आकारों पर आधारित होती है जबकि उत्तर भारत की शुभ चिह्नों पर।
0.5
4,966.030361
20231101.hi_2923_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
रंगोली भारत के किसी भी प्रांत की हो, वह लोक कला है, अतः इसके तत्व भी लोक से लिए गए हैं और सामान्य हैं। रंगोली का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व उत्सवधर्मिता है। इसके लिए शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। इस प्रकार के प्रतीक पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं - और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। नई पीढी पारंपरिक रूप से इस कला को सीखती है और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को कायम रखती है। रंगोली के प्रमुख प्रतीकों में कमल का फूल, इसकी पत्तियाँ, आम, मंगल कलश, मछलियाँ, अलग अलग तरह की चिड़ियाँ, तोते, हंस, मोर, मानव आकृतियाँ और बेलबूटे लगभग संपूर्ण भारत की रंगोलियों में पाए जाते हैं। विशेष अवसरों पर बनाई जाने वाली रंगोलियों में कुछ विशेष आकृतियाँ भी जुड़ जाती हैं जैसे दीपावली की रंगोली में दीप, गणेश या लक्ष्मी। रंगोली का दूसरा प्रमुख तत्त्व प्रयोग आने वाली सामग्री है। इसमें वही सामग्री प्रयुक्त होती है जो आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला अमीर-गरीब सभी के घरों में प्रचलित है। सामान्य रूप से रंगोली बनाने की प्रमुख सामग्री है- पिसे हुए चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी, लकड़ी का बुरादा आदि। रंगोली का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पृष्ठभूमि है। रंगोली की पृष्ठभूमि के लिए साफ़ या लीपी हुई ज़मीन या दीवार का प्रयोग किया जाता है। रंगोली आँगन के मध्य में, कोनों पर, या बेल के रूप में चारों ओर बनाई जाती है। मुख्यद्वार की देहरी पर भी रंगोली बनाने की परंपरा है। भगवान के आसन, दीप के आधार, पूजा की चौकी और यज्ञ की वेदी पर भी रंगोली सजाने की परंपरा है। समय के साथ रंगोली कला में नवीन कल्पनाओं एवं नए विचारों का भी समावेश हुआ है। अतिथि सत्कार और पर्यटन पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और इसका व्यावसायिक रूप भी विकसित हुआ है। इसके कारण इसे होटलों जैसे स्थानों पर सुविधाजनक रंगों से भी बनाया जाने लगा है पर इसका पारंपरिक आकर्षण, कलात्मकता और महत्त्व अभी भी बने हुए हैं।
0.5
4,966.030361
20231101.hi_2923_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
रंगोली दो प्रकार से बनाई जाती है। सूखी और गीली। दोनों में एक मुक्तहस्त से और दूसरी बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाती है। बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाने वाली रंगोली के लिए पहले सफेद रंग से जमीन पर किसी विशेष आकार में निश्चित बिंदु बनाए जाते हैं फिर उन बिंदुओं को मिलाते हुए एक सुंदर आकृति आकार ले लेती है। आकृति बनाने के बाद उसमें मनचाहे रंग भरे जाते हैं। मुक्तहस्त रंगोली में सीधे जमीन पर ही आकृति बनाई जाती है। पारंपरिक मांडना बनाने में गेरू और सफ़ेद खड़ी का प्रयोग किया जाता है। बाज़ार में मिलने वाले रंगोली के रंगों से रंगोली को रंग बिरंगा बनाया जा सकता है। रंगोली बनाने के झंझट से मुक्ति चाहने वालों के लिए अपनी घर की देहरी को सजाने के लिए 'रेडिमेड रंगोली' स्टिकर भी बाज़ार में मिलते हैं, जिन्हें मनचाहे स्थान पर चिपकाकर रंगोली के नमूने बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बाजार में प्लास्टिक पर बिंदुओं के रूप में उभरी हुई आकृतियाँ भी मिलती हैं, जिसे जमीन पर रखकर उसके ऊपर रंग डालने से जमीन पर सुंदर आकृति उभरकर सामने आती है। अगर रंगोली बनाने का अभ्यास नहीं है तो इन वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ साँचे ऐसे भी मिलते हैं जिनमें आटा या रंग का पाउडर भरा जा सकता है। इसमें नमूने के अनुसार छोटे छेद होते हैं। इन्हें ज़मीन से हल्का सा टकराते ही निश्चित स्थानों पर रंग झरता है और सुंदर नमूना प्रकट हो जाता है। रंगोली बनाने के लिए प्लास्टिक के स्टेंसिल्स का प्रयोग भी किया जाता है। गीली रंगोली चावल को पीसकर उसमें पानी मिलाकर तैयार की जाती है। इस घोल को ऐपण, ऐपन या पिठार कहा जाता है। इसे रंगीन बनाने के लिए हल्दी का प्रयोग भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त रंगीन रंगोली बाज़ार में मिलने वाले पोस्टर, क्रेयॉन, फ़ेब्रिक और एक्रिलिक रंगों से भी बनाई जाती हैं।
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4,966.030361
20231101.hi_2923_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
आजकल रंगोली के लिए कलाकारों ने पानी को भी माध्यम बना लिया है। इसके लिए एक टब या टैंक में पानी को लेकर स्थिर व समतल क्षेत्र में पानी को डाल दिया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि पानी को हवा या किसी अन्य तरह के संवेग से वास्ता न पड़े। इसके बाद चारकोल के पावडर को छिड़क दिया जाता है। इस पर कलाकार अन्य सामग्रियों के साथ रंगोली सजाते हैं। इस तरह की रंगोली भव्य नजर आती है। भरे हुए पानी पर फूलों की पंखुडियों और दियों की सहायता से भी रंगोली बनाई जाती है। पानी सतह पर रंगों को रोकने के लिए चारकोल की जगह, डिस्टेंपर या पिघले हुए मोम का भी प्रयोग किया जाता है। कुछ रंगोलियाँ पानी के भीतर भी बनाई जाती हैं। इसके लिए एक कम गहरे बर्तन में पानी भरा जाता है फिर एक तश्तरी या ट्रे पर अच्छी तरह से तेल लगाकर रंगोली बनाई जाती है। बाद में इसपर हल्का सा तेल स्प्रे कर के धीरे से पानी के बर्तन की तली में रख दिया जाता है। तेल लगा होने के कारण रंगोली पानी में फैलती नहीं। महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली वंदना जोशी को रंगोली बनाने में महारत हासिल है। वह पानी के ऊपर रंगोली बनाने वाली विश्व की पहली महिला हैं और वह ७ फरवरी २००४ को दुनिया की सबसे बड़ी रंगोली बनाकर गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं। पानी पर रंगोली बनाने वाले दूसरे प्रमुख कलाकार राजकुमार चन्दन हैं। वे देवास में मीता ताल के १७ एकड़ जल पर विशालकाय रंगोली बनाने का अद्भुत काम कर चुके हैं।
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4,966.030361
20231101.hi_2923_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
रंगोली
तमिल नाडु में यह मिथक प्रचलित है कि मारकाड़ी के महीने में देवी आंडाल ने भगवान तिरुमाल से विवाह की विनती की। लम्बी साधना के बाद वो भगवान तिरुमाल में विलीन हो गईं। इसलिए इस महीने में अविवाहित लड़कियाँ सूर्योदय से पहले उठकर भगवान तिरुमाल के स्वागत के लिए रंगोली सजाती हैं। रंगोली के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय ग्रंथ 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है- एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया। ब्रह्मा ने राजा से कहा कि वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना या रंगोली की शुरुआत हुई। इसी सन्दर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति रंगोली का प्रथम रूप है। रंगोली के संबंध में और भी पौराणिक सन्दर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी रंगोली का उल्लेख है। दक्षिण में रंगोली का सांस्कृतिक विकास चोल शासकों के युग में हुआ। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे यह मान्यता है कि चींटी को खाना खिलाना चाहिए। यहाँ यह माना जाता है कि कोलम के बहाने अन्य जीव जन्तु को भोजन मिलता है जिससे प्राकृतिक चक्र की रक्षा होती है। रंगोली को झाडू या पैरों से नहीं हटाया जाता है बल्कि इन्हें पानी के फव्वारों या कीचड़ सने हाथों से हटाया जाता है। मिथिलांचल में ऐसा कोई पर्व-त्योहार या (उपनयन-विवाह जैसा कोई) समारोह नहीं जब घर की दीवारों और आंगन में चित्रकारी नहीं की जाती हो। प्रत्येक अवसर के लिए अलग ढँग से "अरिपन" बनाया जाता है जिसके अलग-अलग आध्यात्मिक अर्थ होते हैं। विवाह के अवसर पर वर-वधू के कक्ष में दीवारों पर बनाए जाने वाले "कोहबर" और "नैना जोगिन" जैसे चित्र, जो वास्तव में तंत्र पर आधारित होते हैं, चित्रकला की बारीकियों के प्रतिमान हैं।
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रंगोली
रंगोली भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में सबसे प्राचीन लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के तीन प्रमुख रूप मिलते हैं- भूमि रेखांकन, भित्ति चित्र और कागज़ तथा वस्त्रों पर चित्रांकन। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भूमि रेखांकन हैं, जिन्हें अल्पना या रंगोली के रूप में जाना जाता है। भित्ति चित्रों के लिए बिहार का मधुबनी और महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली नामक स्थान प्रसिद्ध है। इनकी रचना शैली और रचनात्मक सामग्री रंगोली के समान ही होती है। इसमें विभिन्न अवसरों पर शुभ चिह्नों के साथ अनेक प्रकार के चित्रों से दीवारों की सजावट की जाती है। तीसरे प्रकार के चित्रांकन कागज़ों अथवा कपड़ों पर होते हैं। कुमाऊँ में इसे ज्यूँति, राजस्थान में फड़ या पड़क्यें कहा जाता है। ज्यूँति में जहाँ जीवमातृकाओं और देवताओं के चित्र बने होते हैं वहीं फड़ में राजाओं और लोकदेवताओं की वंशावली चित्रित होती है। आंध्र-प्रदेश की कलमकारी और उड़ीसा के पट्टचित्र भी इसी लोक कला के उदाहरण हैं इससे पता चलता है कि लोक संस्कृति हाथ से चित्रित करने की यह परंपरा अत्यंत व्यापक और प्राचीन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के मूल में कितनी कलात्मकता और लालित्य निहित है।
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रंगोली
यह कलात्मकता और लालित्य आज भी रूप बदलकर शुभ अवसरों पर दिखाई पड़ता है। सम्पन्नता के विकास के साथ आजकल इसे सजाने के लिए शुभ अवसरों के आने की प्रतीक्षा नहीं की जाती बल्कि किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को रंगोली सजाकर शुभ बना लिया जाता है। चाहे किसी चीज का लोकार्पण हो या होटलों के प्रचार-प्रसार की बात हो, रंगोली की सजावट आवश्यक समझी जाती है। इसके अतिरिक्त आजकल कलाकारों ने रंगोली प्रर्दशनी और रंगोली प्रतियोगिताएँ भी शुरू कर दी है। कुछ रंगोलियाँ ऐसी भी होती हैं जो देखने में एक कलाकृति की भाँति दिखाई देती हैं। इनमें आधुनिकता और परंपरा का समावेश आसानी से लक्षित किया जा सकता है। रंगोली बनाने की प्रतियोगिताएँ और रेकार्डों का भी अद्भुत क्रम शुरू हुआ है। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड तक रंगोली पहुँचाने वाली पहली महिला विजय लक्ष्मी मोहन थीं, जिन्होंने सिंगापुर में ३ अगस्त २००३ को यह रेकार्ड बनाया। २००९ तक यह रेकार्ड हर साल टूटता रहा है। इसके अतिरिक्त पानी पर रंगोली बनाने के रेकार्ड भी गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल हो चुके हैं।
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स्वराज
स्वराज का शाब्दिक अर्थ है - ‘स्वशासन’ या "अपना राज्य"। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के समय प्रचलित यह शब्द आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता की मांग पर बल देता था। स्वराज शब्द का पहला प्रयोग स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया था। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों (उदारवादियों) ने स्वाधीनता को दूरगामी लक्ष्य मानते हुए ‘स्वशासन’ के स्थान पर ‘अच्छी सरकार’ (ब्रिटिश सरकार) के लक्ष्य को वरीयता दी। तत्पश्चात् उग्रवादी काल में यह शब्द लोकप्रिय हुआ, इसके बाद इस शब्द का प्रयोग गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा 1905 ईस्वी में किया गया फिर यह पहली बार आधिकारिक तौर से इसे दादा भाई नौरोजी द्वारा 1906 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में मांग रखा गया यह तब और ज्यादा सुर्खियों में आया जब बाल गंगाधर तिलक ने 1916 में होमरुल लिंग की स्थापना के समय यह उद्घोषणा की कि ‘‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’’ महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम 1920 में कहा कि ‘‘मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा। गांधी का मत था स्वराज का अर्थ है जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो जन-आवश्यकताओं तथा जन-आकांक्षाओं के अनुरूप हो।’’ वस्तुत: गांधीजी का स्वराज का विचार ब्रिटेन के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, नौकरशाही, कानूनी, सैनिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार करने का आन्दोलन था। पूर्ण स्वराज की मांग पहली बार कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन 1929 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया।
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स्वराज
यद्यपि गांधीजी का स्वराज का सपना पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया जा सका फिर भी उनके द्वारा स्थापित अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में काफी प्रयास किए।
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स्वराज
गाँधी के 'स्वराज' की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी शासन से स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसमें सांस्कृतिक व नैतिक स्वाधीनता का विचार भी निहित है। यह राष्ट्र निर्माण में परस्पर सहयोग व मेल-मिलाप पर बल देता है। शासन के स्तर पर यह ‘सच्चे लोकतंत्र का पर्याय’ है। गाँधी का स्वराज ‘निर्धन का स्वराज’ है, जो दीन-दुखियों के उद्धार के लिए प्रेरित करता है। यह आत्म-सयंम, ग्राम-राज्य व सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है। गाँधी ने ‘सर्वोदय’ अर्थात् सर्व-कल्याण का समर्थन किया। अहिसांत्मक समाजःगाँधी की दृष्टि में आदर्श समाज-व्यवस्था वही हो सकती है, जो पूर्णतः अहिंसात्मक हो। जहाँ हिंसा का विचार ही लुप्त हो जाएगा, वहाँ ‘दण्ड’ या ‘बल-प्रयोग’ की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी अर्थात् आदर्श समाज में राजनीतिक शक्ति या राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी। गाँधी हिंसा तथा शोषण पर आधारित वर्तमान राजनीतिक ढाँचे को समाप्त करके, उसके स्थान पर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जो व्यक्ति की सहमति पर आधारित हो तथा जिसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीकों से जन-कल्याण में योगदान देना हो।
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स्वराज
गाँधी के अनुसार अहिंसात्मक समाज राज्यविहीन होगा। वह राज्य का विरोध इस आधार पर करते हैं, कि न तो यह स्वाभाविक संस्था है और न ही आवश्यक है। उन्होंने दार्शनिक अराजकतावादी की भाँति इस आधार पर राज्य को अस्वीकार किया-
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स्वराज
गाँधी के अनुसार राजनीतिक शक्ति साध्य नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में लोगों के विकास में सहयोग देने का साधन है। यह राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करती है। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना परिपूर्ण हो जाए कि आत्मनियमित हो जाऐं तो किसी भी प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपना शासक स्वयं है। वह स्वयं पर इस प्रकार शासन करता है, कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा नहीं बनता। ऐसी आदर्श स्थिति में राजनीतिक शक्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नहीं होता। गाँधी ने उसे ‘‘प्रबुद्ध अराजकता की स्थिति’’ कहा है। यही ‘राम राज्य’ है। टॉलस्टॉय ने इसे ‘‘पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य’’ कहा है।
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स्वराज
गाँधी का राज्याविहीन, वर्गविहीन समाज अनेक स्व-शासित तथा आत्मनिर्भर ग्राम-समुदायों में विभक्त होगा। प्रत्येक ग्राम-समुदाय का प्रशासन पाँच व्यक्तियों की पंचायत चलाएगी, जो ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होगी। ग्राम पंचायतों को विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त होंगी। ग्राम पंचायतों के ऊपर मंडलों की, उनके ऊपर जिलों की तथा जिलों के ऊपर प्रान्तों की पंचायते होंगी। सबसे ऊपर सारे राष्ट्र के लिए केन्द्रीय (संघीय) पंचायत होगी। प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलम्बी होगा। सैनिक-शक्ति व पुलिस नहीं होगी। बड़े नगर, कानूनी अदालतें, कारागार तथा भारी उद्योग नहीं होंगे। सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रत्येक गाँव स्वयंसेवी रूप से संघ से सम्बद्ध होगा। गांधी ने इसे ‘वास्तविक स्वराज्य’ कहा है।
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स्वराज
गाँधी का मानना था कि इस प्रकार के संघ के प्रबन्ध व संपोषण के लिए सरकार आवश्यक होगी। अतः एक आधुनिक आलोचक का मत है कि गाँधी का आदर्श समाज से तात्पर्य मुख्यतः अहिंसक राज्य था, न कि अहिंसात्मक, राज्यविहीन समाज। दूसरी ओर आबिद हुसैन का मत है कि गाँधी का राम राज्य पूर्ण अराजकतावादी राज्यविहीन समाज है, जो नैतिक कानून द्वारा शासित है। इस प्रकार के अहिंसक समाज में शान्ति-व्यवस्था प्रेम की शक्ति या सत्याग्रह के रूप में आत्मबल द्वारा स्थापित होगी। गाँधी के अनुसार सत्याग्रह व्यक्तियों, वर्गों तथा राष्ट्रों के मध्य शोषण तथा दमन का प्रतिरोध करने का प्रभावपूर्ण यंत्र है।
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स्वराज
गाँधी का मत था कि राज्यविहीन तथा वर्गविहीन अहिंसक समाज की स्थापना का लक्ष्य सहज रूप से प्राप्त नहीं होगा। अतः राज्य को तत्काल समाप्त करना ठीक है। फलतः उनका लक्ष्य राज्य को अहिंसा के सिद्धांतो के अनुरूप ढालना है। अहिंसक राज्य में सामाजिक व्यवहार को नियमित करने हेतु एक प्रकार की सरकार तथा राजनीतिक सत्ता होगी, किन्तु वह कम से कम शासन करेगी, क्योंकि सामाजिक जीवन आत्म नियमित होगा। व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होगी। अधिकांश कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्पन्न होंगे। गाँधी के ये विचार रसेल, जी0डी0एच0 कोल जैसे गिल्ड समाजवादियों से मिलते-जुलते हैं।
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स्वराज
गाँधी का जनतांत्रिक समाज एक समाजवादी राज्य होगा। भागवत पुराण से प्रभावित होने के कारण उनका मत था कि -
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%AE
सोडियम
सोडियम धातु का उपयोग अपचायक के रूप में होता है। सोडियम परऑक्साइड (Na2O2), सोडियम सायनाइड (NaCN) और सोडेमाइड (NaNH2) के निर्माण में इसका उपयोग होता है। कार्बनिक क्रियाओं में भी यह उपयोगी है। लेड टेट्राएथिल [Pb(C2H5)4] के उत्पादन से सोडियम-सीस मिश्रधातु उपयोगी है। सोडियम में प्रकाशवैद्युत (Photo-electric) गुण है। इसलिए इसको प्रकाश वैद्युत सेल बनाने के काम में लाते हैं। कुछ समय से परमाणु ऊर्जा द्वारा विद्युत उत्पादन में सोडियम धातु का बृहद् उपयोग होने लगा है। परमाणु रिऐक्टर (Atomic reactor) द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को तरल सोडियम के चक्रण (Circulation) द्वारा जल वाष्प बनाने के काम में आते हैं और उत्पन्न वाष्प द्वारा टरबाइन चलने पर विद्युत का उत्पादन होता है।
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सोडियम
सोडियम के अनेक यौगिक चिकित्सा में काम आते हैं। आज के औद्योगिक युग में सोडियम तथा उसके यौगिकों का प्रमुख स्थान है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%AE
सोडियम
सोडियम के दो ऑक्साइड ज्ञात हैं Na2O और Na2O2। सोडियम धातु पर ३०० डिग्री सें. पर वायु प्रवाहित करने में सोडियम परऑक्साइड बनेगा। यह शुष्क वायु में स्थायी होता है और जल में शीघ्र अपघटित हो सोडियम हाइड्रॉक्साइड में परिणत हो जाता है। यह सुविधानुसार ऑक्सीकारक (oxidant) तथा अपचायक (reductant) दोनों का ही कार्य कर सकता है। यह कार्बन मोनोआक्साइड (CO) और कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) दोनों से मिलकर सोडियम कार्बोनेट बनाता है। कार्बन डाइऑक्साइड से क्रिया के फलस्वरूप ऑक्सिजन मुक्त होता है। इस क्रिया का उपयोग बंद स्थानों (जैसे पनडुब्बी नावों) में ऑक्सिजन निर्माण में हुआ है।
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सोडियम
सोडियम और हाइड्रोजन का यौगिक सोडियम हाइड्राइड (NaH) एक क्रिस्टलीय पदार्थ है। इसके वैद्युत अपघटन पर हाइड्रोजन गैस धनाग्र पर मुक्त होती है। सोडियम हाइड्राइड सूखी वायु में गर्म करने पर जल जाता है और जलयुक्त वायु में अपघटित हो जाता है।
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सोडियम
सोडियम कार्बोनेट (Na2CO3) अनार्द्र तथा जलयोजित दोनों दशाओं में मिलता है। इसे घरेलू उपयोग में कपड़े तथा अन्य वस्तुओं के साफ करने के काम में लाते हैं। चिकित्साकार्य में भी यह उपयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO3) भी रसायनिक क्रियाओं तथा दवाइयों में काम आता है।
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सोडियम
अनेक संरचना के सोडियम सिलिकेट ज्ञात हैं। इनमें विलेय सोडा काँच (Soda glass) सबसे मुख्य है। सिलिका को सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NaOH) विलयन के साथ उच्च दाब पर गर्म करने से यह तैयार होता है। यह पारदर्शी रंगरहित पदार्थ है जो उबलते पानी में घुल जाता है। कुछ छापेखाने के उद्योगों में इसका उपयोग होता है। पत्थरों तथा अन्य वस्तुओं के जोड़ने में भी इसका उपयोग हुआ है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%AE
सोडियम
सोडियम कार्बोनेट, सोडियम टार्टरेट, सोडियम ब्रोमाइड, सोडियम सेलिसिलेट, सोडियम क्लोराइड आदि यौगिक का चिकित्सा निदान में उपयोग होता है।
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सोडियम
किसी कारण से शरीर में जल की मात्रा कम होने पर सोडियम क्लोराइड अथवा साधारण नमक के विलयन को इंजेक्शन द्वारा रक्तनाड़ी में प्रविष्ट करते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%AE
सोडियम
अनेक प्राकृतिक झरनों में सोडियम यौगिक पाए गए हैं। इन झरनों का जल गठिया तथा पेट और चर्मरोगों में लाभकारी माना जाता है।
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मुंहासे
पुस्टुल्स एक्ने (Pustules Acne) – इसे मॉडरेट (मध्यम) मुंहासे कहा जाता है। इस मुंहासे की स्थिति में पिंपल हल्की सूजन दिखाई देती है और हल्का पस भी जम जाता है।
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मुंहासे
नोड्यूल्स एक्ने (Nodules Acne) – मुंहासे के इस प्रकार को काफी गंभीर माना जाता है। इस स्थिति में एक्ने में सूजन हो जाती है और उनमें पीले रंग का पस भर जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%87
मुंहासे
ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मुंहासों का कारण होता है - वसा ग्रन्थियों (सिबेसियस ग्लैंड्स) से निकलने वाले स्राव का रुक जाना। यह स्राव त्वचा को स्निग्ध रखने के लिए रोम छिद्रों से निकलता रहता है। यदि यह रुक जाए तो फुंसी के रूप में त्वचा के नीचे इकट्ठा हो जाता है और कठोर हो जाने पर मुंहासा बन जाता है। इसे 'एक्ने वल्गेरिस' कहते हैं। इसमें पस पड़ जाए तो इसे कील यानी पिम्पल कहते हैं। पस निकल जाने पर ही यह ठीक होते हैं।
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मुंहासे
ज्यादा मीठा, चाय-कॉफी, मिर्च मसाले भी कब्ज पैदा करते हैं, जिससे मुंहासे होते हैं। अत: इनका सेवन न करें।
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मुंहासे
मुल्तानी मिट्टी में नींबू व टमाटर का रस मिलाकर लगाएं, सुखने पर धो डालें। मुल्तानी मिट्टी में चंदन पाउडर व गुलाब जल मिलाकर भी लगाया जा सकता है। यह पैक त्वचा में कसाव उत्पन्न करता है व रोमछिद्रों को सिकोड़ देता है।
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मुंहासे
मसूर की दाल का पाउडर बना लें, अब दो चम्मच पाउडर में चुटकी भर हल्दी, नींबू की कुछ बूंदें, दही मिलाकर लेप बनायें व चेहरे पर लगायें, सूखने पर गुनगुने पानी से चेहरा धो लें।
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मुंहासे
एक बड़ा चम्मच तुलसी के पत्तों का पाउडर, एक चम्मच नीम के पत्तों का पाउडर और एक चम्मच हल्दी पाउडर मिला लें। थोड़ा सा मुल्तानी मिट्टी का पाउडर भी मिला लें। जब भी प्रयोग करना हो, इसका पेस्ट बनाकर सप्ताह में दो बार चेहरे पर लगाएं। चेहरा कोमल व साफ बनेगा।
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मुंहासे
नीम के पत्तों को बारीक पीसकर उसका पेस्ट तैयार करें, फिर इसको मुँहासे बाली जगह पर लगाये कुछ ही दिन में मुँहासे जड़ से खत्म हो जायेंगे
0.5
4,949.221378
20231101.hi_98107_11
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%87
मुंहासे
चेहरे को धोकर गर्म पानी से भाप लें, ब्लैक हैड रिमूवर से कील दबाकर निकाल दें, अब रूई से कील वाले स्थान पर स्किन टोनर लगाएं। बाद में ठंडे पानी से मुँह धो लें व फेस पैक लगा लें।
0.5
4,949.221378
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आशुलिपि
पालिटेक्निक कालेजो में एम.ओ.एम (आधुनिक कार्यालय प्रबंधन या मॉडर्न ऑफिस मैनेजमेंट) के रूप में उपलब्ध है। इसमे आशुलिपि के अलावा कम्प्यूटर, टंकण एवं लेखा (Account) से सम्बन्धित कोर्स करवाये जाते हैं।
0.5
4,943.627328
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आशुलिपि
भारतीय तकनीकी संस्थानो- औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थाओ (आई.टी.आई) में भी यह कोर्स करवाया जाता है। जिसकी अवधि १ वर्ष की होती है। इसमें आशुलिपि के अलावा अन्य सहायक विषय एवं टंकण कोर्स भी महत्वपूर्ण होते हैं। इन सन्स्थाओ में १०० एवं ८० शब्द प्रति मिनट की गति से परीक्षाएँ ली जाती है।
0.5
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आशुलिपि
स्टेनोग्राफर (आशुलिपिक) बनने के लिए १०० शब्द प्रति मिनट की गति उत्तीर्ण करना आवश्यक होता है। स्टेनोग्राफर का पद हर राज्यों के शासकीय कार्यालयों में, मन्त्रालयों में, रेल्वे विभागो में होते हैं। हर साल स्टेनोग्राफरो की भर्ती से सम्बन्धित विज्ञापन पर्याप्त मात्रा में निकलते हैं। एक कुशल स्टेनोग्राफर बनने के लिए उसे उस विषय की भाषा का, व्याकरण का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। स्टेनोग्राफर के पद का वेतनमान भी आकर्षक होता है। स्टेनोग्राफर पर अपने कार्यालय/संस्था के गोपनीय दस्तावेजों को सम्भालने का दायित्व रहता है। यह अपने अधिकारी के प्रति विश्वसनीय पद है, इस पद पर काम करना एक गरिमापूर्ण व चुनोतीपूर्ण कार्य है।
0.5
4,943.627328
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आशुलिपि
हिंदी भाषा और अन्य भारतीय भाषाओं में त्वरालेखन का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। वास्तव में विदेशी शासन के अधीन होने के कारण हमारे देश की न तो कोई राजभाषा थी और न कोई प्रांतीय भाषा भी अपने प्रांत में सरकारी कामकाज में विशेष महत्त्व प्राप्त कर सकी थी। इसलिये हिंदी टंकण की तरह, हिंदी त्वरालेखन की मूल प्रेरणा अंग्रेजी शार्टहैंड से ही प्राप्त हुई।
0.5
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आशुलिपि
भारत में त्वरालेखन के विकास की एक कथा है कि जब वेदव्यास महाभारत लिखने के लिये बैठे तब उनके संमुख यह समस्या उपस्थित हुई कि इस विशाल महाभारत को कौन लिपिबद्ध करेगा। निदान गणेश जी इस दुष्कर कार्य के लिये कटिबद्ध हुए। भगवान वेदव्यास धाराप्रवाह बोलते जाते और गणेश जी उसे लिपिबद्ध करते जाते थे। किंतु यह हुई पौराणिक बात त्वरालेखन की।
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आशुलिपि
संसार की भाषाओं में त्वरालेखन का प्रयास प्राय: रोम साम्राज्य में ईसा पूर्व ६३ में हुआ। रोम के सीनेट में सिसरो आदि के भाषणों को नोट करने के लिये मार्कस टुलियस टिरो (Marcus Tullius Tiro) ने त्वरा लेखन की एक प्रणाली का आविष्कार किया, जिसे 'टिरोनियन नोट' कहा जाता था। इस प्रणाली का प्रचलन रोम साम्राज्य के पतन के पश्चात् कई शताब्दियों बाद तक रहा। इसके साथ ही ईसा की चौथी शताब्दी में ग्रीस में त्वरालेखन का आविष्कार हुआ जिसका प्रचलन आठवीं शताब्दी तक रहा।
0.5
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आशुलिपि
वर्तमान त्वरालेखन का जन्मस्थान इंगलैंड है। रानी एलीजाबेथ के समय में 'ब्राइट्स सिस्टम' (Brights System) नामक शार्टहैंड का आविष्कार हुआ। फिर सन् १६३० ईo में टामस शेलटन ने त्वरालेखन पर एक पुस्तक प्रकाशित कराई। इसके पश्चात् सन् १७३७ ईo में डॉo जान बायरन ने त्वरालेखन की 'यूनिवर्सल इंगलिश शार्ट हैंड' नामक एक पुस्तक प्रकाशित कराई। किंतु इन सभी पद्धतियों में लघुप्राण अक्षरों को हटाकर तथा कुछ अन्य अक्षरों को शब्दों के बीच में से निकालकर संक्षिप्त किया जाता था, इससे वक्ता के भाषण को नोट करने में सहूलियत हो जाती थी। लेकिन इसके साथ ही ध्वनि के आधार पर लिखने का भी प्रयास होता रहा।
0.5
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आशुलिपि
ध्वनि पद्धति (Phonetic System) : सर आइजक पिटमैन की पुस्तक 'स्टेनोग्राफिक साउंड हैंड' (Stenographic Sound hand) सन् १८३७ ईo में प्रकाशित हुई। इस पद्धति में स्वर और व्यंजनों को अलग अलग चिह्नों से निर्धारित किया गया। साथ ही संक्षिप्त करने का भी एक नियम बनाया गया। इस पद्धति का विकास होता गया और आगे चलकर यह प्रणाली बहुत ही उपादेय सिद्ध हुई। अंग्रेजी में पिटमैन्स प्रणाली का ही विशेष प्रचलन है।
0.5
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आशुलिपि
हिंदी त्वरालेखन आर्थिक दृष्टि से लाभजनक न होने तथा ब्रिटिश भारत में हिंदी का महत्वपूर्ण स्थान, सरकारी कार्यालयों में न होने के कारण त्वरालेखन के अन्वेषण के विषय में प्रयास अपेक्षाकृत काफी विलंब से हुआ। किंतु फिर भी त्वरालेखन के आविष्कार के लिये यदाकदा प्रयत्न होते रहे। स्वाधीनताप्राप्ति के लिये किए जानेवाले आंदोलनों के समय, हिंदी में हुए नेताओं के भाषणों को ब्रिटिश भारत की सरकार नोट कराती थी, जिससे वह सरकार के विरुद्ध प्रकट किए गये आपत्तिजनक विचारों के लिए नेताओं को उत्तरदायी ठहरा सके। उस समय अंग्रेजी के पिटमैन शार्टहैंड के ही आधार पर, अभ्यास के बल पर, भाषणों के नोट लिए जाते थे, किंतु साथ ही हिंदी के त्वरालेखन की नींव पड़ गई थी। सन् १९०७ ईo में काशी नागरीप्रचारिणी सभा ने श्री निष्कामेश्वर मिश्र, बीo एo, एलo टीo की 'हिंदी' शार्टहैंड नामक पुस्तक प्रकाशित की, जो हिंदी त्वरालेखन में अपने विषय की सर्वप्रथम महत्वपूर्ण पुस्तक है। श्री मिश्र महोदय ने बड़े परिश्रम से हिंदी शार्टहैंड की जो पुस्तक तैयार की, वह उनकी अभूतपूर्व सूझ का परिणाम तो थी ही, साथ ही उससे हिंदी त्वरालेखन सीखनेवालों के लिये एक समुचित मार्ग मिल गया। इसके पहले हिंदुस्तानी भाषा को नोट करने के लिये उर्दू त्वरालेखन की जो पद्धति प्रचलित हुई थी उसमें कठिन परिश्रम के पश्चात् साल डेढ़ साल में एक सौ शब्द प्रति मिनट की गति से लिखा जा सकता था। लेकिन श्री मिश्र जी की निष्कामेश्वर प्रणाली से पाँच-सात महीने के अभ्यास से ही सौ शब्द प्रति मिनट की गति से लिखा जाने लगा।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
पोंगल (तमिळ - பொங்கல்) तमिल हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह प्रति वर्ष 14-15 जनवरी को मनाया जाता है। इसकी तुलना नवान्न से की जा सकती है जो फसल की कटाई का उत्सव होता है (शस्योत्सव)। पोंगल का तमिल में अर्थ उफान या विप्लव होता है। पारम्परिक रूप से ये सम्पन्नता को समर्पित त्यौहार है जिसमें समृद्धि लाने के लिए वर्षा, धूप तथा खेतिहर मवेशियों की आराधना की जाती है।
0.5
4,939.410389
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
इस पर्व का इतिहास कम से कम 1000 साल पुराना है तथा इसे तमिलनाडु के अलावा देश के अन्य भागों, श्रीलंका, मलेशिया, मॉरिशस, अमेरिका, कनाडा, सिंगापुर तथा अन्य कई स्थानों पर रहने वाले तमिलों द्वारा उत्साह से मनाया जाता है। तमिलनाडु के प्रायः सभी सरकारी संस्थानों में इस दिन अवकाश रहता है। हालाकि पोंगल जैसे किसी त्योहार का वर्णन हमारे शास्त्रों में नही मिलता।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
14 जनवरी का दिन उत्तर भारत में मकर संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है जिसका महत्व सूर्य के मकर रेखा की तरफ़ प्रस्थान करने को लेकर है। इसे गुजरात तथा महाराष्ट्र में उत्तरायन कहते हैं, जबकिll यही दिन आन्ध्र प्रदेश, केरल तथा कर्नाटक (ये तीनों राज्य तमिल नाडु से जुड़े हैं) में संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है। पंजाब में इसे लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है। दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में पोंगल का त्यौहार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का स्वागत कुछ अलग ही अंदाज में किया जाता है। सूर्य को अन्न धन का दाता मान कर चार दिनों तक उत्सव मानाया जाता है और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित किया जाता है। विषय की गहराई में जाकर देखें तो यह त्यौहार कृषि एवं फसल से सम्बन्धित देवताओं को समर्पित है।
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4,939.410389
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
इस त्यौहार का नाम पोंगल इसलिए है क्योंकि इस दिन सूर्य देव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है वह पगल कहलता है। तमिल भाषा में पोंगल का एक अन्य अर्थ निकलता हैअच्छी तरह उबालना। दोनों ही रूप में देखा जाए तो बात निकल कर यह आती है कि अच्छी तरह उबाल कर सूर्य देवता को प्रसाद भोग लगाना। पोंगल का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह तमिल महीने की पहली तारीख को आरम्भ होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
इस पर्व के महत्व का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यह चार दिनों तक चलता है। हर दिन के पोंगल का अलग अलग नाम होता है। यह जनवरी से शुरू होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
पहली पोंगल को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र का समर्पित हैं। इसे भोगी पोंगल इसलिए कहते हैं क्योंकि देवराज इन्द्र भोग विलास में मस्त रहने वाले देवता माने जाते हैं। इस दिन संध्या समय में लोग अपने अपने घर से पुराने वस्त्र कूड़े आदि लाकर एक जगह इकट्ठा करते हैं और उसे जलाते हैं। यह ईश्वर के प्रति सम्मान एवं बुराईयों के अंत की भावना को दर्शाता है। इस अग्नि के इर्द गिर्द युवा रात भर भोगी कोट्टम बजाते हैं जो भैस की सिंग का बना एक प्रकार का ढ़ोल होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
दूसरी पोंगल को सूर्य पोंगल कहते हैं। यह भगवान सूर्य को निवेदित होता है। इसदिन पोंगल नामक एक विशेष प्रकार की खीर बनाई जाती है जो मिट्टी के बर्तन में नये धान से तैयार चावल, मूंग दाल और गुड से बनती है। पोंगल तैयार होनेके बाद सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है और उन्हें प्रसाद रूप में यह पोंगल व गन्ना अर्पण किया जाता है और फसल देने के लिए कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। तीसरे पोंगल को मट्टू पोगल कहा जाता है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
तमिल मान्यताओं के अनुसार माट्टु भगवान शंकर काबैल है जिसे एक भूल के कारण भगवान शंकर ने पृथ्वी पर रहकर मानव के लिए अन्न पैदा करने के लिए कहा और तब से पृथ्वी पर रहकर कृषि कार्य में मानव की सहायता कर रहा है। इस दिन किसान अपने बैलों को स्नान कराते हैं। उनके सिंगों में तेल लगाते हैं एवं अन्य प्रकार से बैलों को सजाते है। बालों को सजाने के बाद उनकी पूजा की जाती है। बैल के साथ ही इस दिन गाय और बछड़ों की भी पूजा की जाती है। कही कहीं लोग इसे कनु पोंगल के नाम से भी जानते हैं, जिसमें बहनें अपने भाईयों की खुशहाली के लिए पूजा करती है और भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2
पोंगल
चार दिनों के इस त्यौहार के अंतिम दिन कानुम पोंगल मनाया जाता है जिसे तिरूवल्लूर के नाम से भी लोग पुकारते हैं। इस दिन घर को सजाया जाता है। आम के पलल्व और नारियल के पत्ते से दरवाजे पर तोरण बनाया जाता है। महिलाएं इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर कोलम यानी रंगोली बनाती हैं। इसदिन पोंगल बहुत ही धूम धाम के साथ मनाया जाता है लोग नये वस्त्र पहनते है और दूसरे के यहां पोंगल और मिठाई वयना के तौर पर भेजते हैं। इस पोंगल के दिन ही बैलों की लड़ाई होती है जो काफी प्रसिद्ध है। रात्रि के समय लोगसामुदिक भोजन का आयोजन करते हैं और एक दूसरे को मंगलमय वर्ष की शुभकामना देते हैं।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
इस वर्गीकरण का मुख्य आधार पृथ्वी का आकार है। जिस सर्वेक्षण में पृथ्वी के आकार को गोलाभ (spheroid) मानकर, उसकी सतह पर लिए गए नापों का प्रयोग करने से पहले पृथ्वी की वक्रता के लिए शोधन करते हैं, उसे भूगणितीय सर्वेक्षण कहते हैं। यह कठिन प्रक्रिया होती है। मगर पृथ्वी की गोल या वक्र सतह पर नापी दूरियाँ यदि अधिक लंबी न हों, तो उन्हें वक्र न मानकर ऋजु (सीधा) ही मान लिया जाए, तो कोई विशेष त्रुटि नहीं होगी। उदाहरणार्थ, पृथ्वी की वक्र सतह पर 11.5 मील लंबी रेखा नापने पर उसमें पृथ्वी के कारण केवल 0.05 फुट की त्रुटि होगी। इसी प्रकार पृथ्वी की सतह पर किन्हीं भी तीन बिंदुओं द्वारा 75 वर्ग मील क्षेत्रफल के त्रिभुज को समतल सतह पर सीधी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाए, तो उसके कोणों के योग और उसी त्रिभुज की वक्र सतह पर बने कोणों के योग में केवल एक सेकंड का अंतर होगा। इस कारण यदि छोटे-छोटे क्षेत्रों के नक्शे तैयार किए जाएँ, तो पृथ्वी की सतह पर ली गई नाप को सीधी रेखाओं में सतल पर प्रदर्शित करने से कोई खटकनेवाली गलती नहीं होगी। इसलिए पृथ्वी के छोटे क्षेत्र को समतल मानकर, उस पर ली गई नापों को बिना वक्रता के शोधन के किसी पैमाने पर समतल कागज पर अंकित कर दिया जाता है। इस प्रकार के सर्वेक्षण को पट्ट सर्वेक्षण कहते हैं।
0.5
4,926.47626
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
सामान्य व्यवहार में आनेवाले सर्वेक्षण समतलीय सर्वेक्षण ही होते हैं। भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि के लिए सर्वेक्षणों की प्रक्रिया, उपकरण, पैमाना आदि में भी कुछ अंतर पैदा हो जाता है। इन कारणों से पट्ट सर्वेक्षण के भी कई वर्ग बन गए हैं :
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
(1) पैमाने के आधार पर 1:50,000; 1:25,000 1:5,000; 1:1,000 सर्वेक्षण (इस प्रकार से बताए पैमाने का अर्थ है कि मानचित्र पर एक इकाई लंबी रेखा भूमि पर क्रमश: 50,000; 25,000; 5,000 1,000 इकाई लंबाई के बराबर होग),
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4,926.47626
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
(2) किसी मंतव्य या कार्य विशेष के लिए किया गया सर्वेक्षण, जैसे स्थलाकृतिक (topographical) सर्वेक्षण, इंजीनियरी सर्वेक्षण, राजस्व (revenue) सर्वेक्षण तथा खनिज (mineral) सर्वेक्षण, तथा
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4,926.47626
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
यदि ऐसे समतलीय सर्वेक्षणों से भारत जैसे विस्तृत देश या महाद्वीप के मानचित्र संकलित (compile) किए जा सकें, तो पट्ट सर्वेक्षणों का महत्व आशातीत बढ़ जाता है। यह तभी संभव होगा, जब पट्ट सर्वेक्षणों की आधारशिला भूगणितीय सर्वेक्षण पर हो। आधारशिला का उल्लेख तभी ग्राह्य हो सकेगा, जब उसकी कुछ संक्षिप्त व्याख्या कर दी जाए।
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सर्वेक्षण
सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धान्त बड़े ही सरल हैं। पृथ्वी की सतह पर बड़ी सरलता से दो ऐसे बिंदु चुने जा सकते हैं जो एक दूसरे की स्थिति से देखें जा सकें और उनके बीच की दूरी नापी जा सके। इन्हें किसी भी वांछित पैमाने पर कागज पर ऐसे लगाया जा सकता है कि उनके निकटवर्ती क्षेत्र का सर्वेक्षण कागज पर समा सके। इसके बाद इन दो बिंदुओं से किसी भी तीसरे बिंदु की दूरी नापकर उसी पैमाने से कागज पर उसकी सापेक्ष स्थिति अंकित कर सकते हैं। इस प्रकार अंकित किन्हीं भी दो बिंदुओं से किसी तीसरे अज्ञात बिंदु की दूरी निकालकर तथा क्रमानुगत अंकित करके, पूरे क्षेत्र का मानचित्र बनाया जा सकता है।
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सर्वेक्षण
दूसरे शब्दों में, सर्वेक्षण की विधि, त्रिभुज की रचना है। ऊपर तो त्रिभुज की एक ही रचना का उल्लेख किया गया है, जिसमें त्रिभुज की तीनों भुजाओं की लंबाइयाँ ज्ञात है। त्रिभुज की अन्य रचना विधियाँ भी सर्वेक्षण में प्रयुक्त होती हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
ठीक भौगोलिक स्थिति में भू आकृति के रूपांकन के लिये मानचित्र के क्षेत्र के अंदर ऐसे प्रमुख नियंत्रण बिंदुओं के जाल के प्रथम आवश्यकता है जिनके ग्रीनविच के सापेक्ष सही सही अक्षांश और देशांतर अथवा औसत समुद्रतल से ऊँचाई ज्ञात हो। महान्‌ त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण ने भारत के अधिकांश मानचित्रों के निर्माण में यह कर लिया है। सार रूप में यह चौरस भूमि पर इन्वार (invar) धातु के तार या फीते से सावधानी से नापी हुई लगभग 10 मील लंबी जमीन होती है जिसे 'आधार' कहते हैं।
0.5
4,926.47626
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3
सर्वेक्षण
आधार की स्थापना के बाद उसपर एक के बाद एक उपयुक्त भुजा और कोण के त्रिभुजों की माला रची जाती है। त्रिभुजों के कोणों का निरीक्षण कर भुजा तथा बिंदुओं के नियामकों की गणना कर ली जाती है। इसे त्रिकोणीय सर्वेक्षण कहते हैं। त्रिभुजों का जाल सर्वेक्षण में सर्वत्र फैला होता है। मुख्य उपकरण काच चाप थियोडोलाइट है जिसमें ऊर्ध्वाधर तथा क्षैतिज कोणों को चाप के एक सेकंड अंश या इससे भी कम तक सही पढ़ने की क्षमता होती है। ये बिंदु काफी दूर दूर होते हैं। अत: विस्तृत सर्वेक्षण संभव नहीं। इसके लिए यह आवश्यक है कि महान्‌ त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण के बड़े त्रिभुजों को तोड़कर छोटे छोटे त्रिभुजों का जाल बनाकर सारी जमीन को कुछ मील के अंतर पर स्थित बिंदुओं की माला में परिणत कर दिया जाए।
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परामर्श
1. परामर्श प्रक्रिया को संचालित करने हेतु वातावरण का अनुकूलन इसके अतिरिक्त वातावरण में गोपनीयता भी होनी चाहिये जिससे कि प्रार्थी सहज अनुभव करें और सूचनायें प्रदान करें।
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परामर्श
2. परामर्श की प्रक्रिया में जब तक विद्यार्थी स्वयं इच्छा सें भाग नहीं लेता, सफल नहीं हो पाता है। प्रार्थी की स्वयं की इच्छा उसे पूरा सहयोग प्रदान करने हेतु प्रेरित करती है।
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परामर्श
3. परामर्शदाता के लिये आवश्यक है वह उपयुक्त प्रशिक्षण अनुभव व व्यक्तिगत दृष्टिकोण वाला हो इसके साथ ही वह इस प्रक्रिया के प्रति रूचि रखने वाला और समर्पित हो जिससे वह प्रार्थी के साथ सहजता पूर्वक सम्बन्ध स्थापित कर निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करते हुये समस्या समाधान करने में सहायता दें।
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परामर्श
4. परामर्श ऐसा सम्बन्ध प्रदान करें जो तात्कालिक व दीर्घकालिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। परामर्श उस समय उपलब्ध हो जब उसकी आवश्यकता हो।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6
परामर्श
निश्चित है कि परामर्शक अनुभवयुक्त तथा परामर्श की प्रक्रिया से अवगत रहता है। उसकी श्रेष्ठता परामर्शेच्छु अथवा सेवार्थी पर स्वतः सिद्ध होती है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए सन् 1954 ई॰ में वेलबर्ग ने परामर्श एवं साक्षात्कार में समानता सिद्ध करने का प्रयास किया और कहा कि परामर्श एक प्रकार का साक्षात्कार ही है जिसमें सेवार्थी को ऐसी सहायता दी जाती है कि वह अपने को अधिक से अधिक ढंग से समझ सके और अपनी कठिनाइयों से समायोजन स्थापित कर सके। मायर्स ने परामर्श के प्रत्यय को व्यापक बनाने का प्रयास किया है जिसका निहितार्थ यह है कि मात्र व्यवसाय के लिए नहीं वरन् जीवन की किसी भी समस्या के समाधान हेतु जो वैचारिक सहायता दी जाती है वह परामर्श होती है।
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परामर्श
परामर्श अथवा उपबोधन की प्रक्रिया एक विशिष्ट प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने से पूर्व इसकी प्रक्रिया के प्रमुख अंगों का ज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है। कोई भी प्रक्रिया किसी न किसी दिशा में एक अथवा अनेक उद्धेश्यों को प्राप्त करने के लिये ही सम्पन्न की जाती है। अत: लक्ष्य अथवा उद्धेश्य किसी प्रक्रिया का प्रमुख बिन्दु माना जाता है। इस लक्ष्य को अपने समक्ष रखकर ही प्रयासकर्ता विशिष्ट कार्यो का सम्पादन करता है।
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परामर्श
परामर्श एक प्रक्रिया है। एक परामर्शदाता के लिए यह समझना आवश्यक है कि परामर्श एक मंदगति से चलने वाली प्रक्रिया है। इस तथ्य को न समझ पाने के कारण परामर्शदाता तथा प्रार्थी दोनों में ही निराशा का भाव उत्पन्न हो सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6
परामर्श
परामर्श प्रत्येक व्यक्ति के लिए है। विद्यालय स्तर पर परामर्श केवल बाधाओं तथा विभिन्न प्रकार के आर्थिक, सामाजिक व अन्य समस्याओं से जूझने वाले बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि प्रत्येक बच्चे के लिए आवश्यक है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6
परामर्श
परामर्श प्रक्रिया का अर्थ केवल परामर्श देना ही नहीं है बल्कि प्रार्थी के साथ उसकी परिस्थितियों के साथ प्रत्येक कदम पर चलने वाली सोच तथा मार्गदर्शन है। परामर्श प्रक्रिया प्रार्थी को न्यायपूर्ण सोच के योग्य बनाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
इस राइफल में निशाने लेने में आसानी हेतु एक लोहे का गेज पीछे की तरफ लगा होता है, राइफल के अगले सिरे पे भी निश्हना लगाने में सहोलियत देने के लिए गेज लगा होता है, इनको समायोजित करने के उपरांत प्रयोगकर्ता २५० मीटर तक निशाना आसानी से लगा सकता है इसके अंदरूनी भागो जैसे गैस चेम्बर, बोर आदी पर क्रोमियम की प्लेटिंग की जाती है जिस से इस राइफल की जिन्दगी बढ़ जाती है और इसमे जंग नहीं लगती है, आधुनिक काल के ज्यादातर कारतूसों के प्राइमर में पारे के अंश रहते हैं जो किसी हथियार को जंग लागाने और गलने में सहयोग देते है
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4,917.1458
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
इस राइफल को ब्रस्ट और आटोमेटिक दोनों तरीकों से चलाया जा सकता है इस गैस आप्रेताद राइफल में रीकोइल तकनीक से पुराने कार्तोस गिरते जाते अहि और इसके झटके से नए कारतूस आ जाते है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
इस राइफल को बड़ी सरलता से विघटित किया जा सकता है इसके संचालन और विघटन करने की तकनी आप संधर्ब में दिए गए मैन्युअल में देख सकते है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
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इस राइफल में 7.62×39 मिलीमीटर के कारतूस आते है जो 710 मीटर प्रति स्कैन्ड की गति से जाते है ये अधिकतम ४०० मीटर की दूरी पर जाते है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
कटशॉ, चार्ली; शीलिन, वैलेरी. Legends and Reality of the AK: A Behind-the-Scenes Look at the History, Design, and Impact of the Kalashnikov Family of Weapons. बॉल्डर, कम्पनी: पैलाडिन प्रेस, 2000 (पेपरबैक, ISBN 1-58160-069-0).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
होज़ेज़, माइकल. AK47: the Story of the People's Gun. लन्दन: स्केपटर, 2007 (हार्डकवर, ISBN 0-340-92104-8).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
कैहेनेर, लैरी. AK-47: The Weapon that Changed the Face of War. होबोकेन, न्यू जर्सी: विली पब्लिकेशन्स, 2006 (हार्डकवर, ISBN 0-471-72641-9).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
कलाश्निकोव, मिखाइल. The Gun that Changed the World. कैम्ब्रिज़: पोलिटी प्रेस, 2006 (हार्डकवर, ISBN 0-7456-3691-8; पेपरबैक, ISBN 0-7456-3692-6).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8747
एके47
वाल्टर, जॉन. कलाश्निकोव (ग्रीनहिल मिलिट्री मैनुअल्स). लन्दन: ग्रीनहिल बुक्स, 1999 (हार्डकवर, ISBN 1-85367-364-1).
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति का माप मुद्रास्फीति दर (inflation rate) से करा जाता है, यानि एक वर्ष से दूसरे वर्ष के बीच मूल्य वृद्धि का प्रतिशत। उदाहरण के लिएः 1990 में एक सौ रुपए में जितना सामान आता था, अगर 2000 में उसे खरीदने के लिए दो सौ रुपए व्यय करने पड़े है तो माना जाएगा कि मुद्रा स्फीति शत-प्रतिशत बढ़ गई। अधिक मुद्रास्फीति का जनता पर बुरा असर पड़ता है क्योंकि उनकी क्रय शक्ति कम होने से उनकी आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर में गिरावट आती है। भारत में मुद्रा स्फीति का मापन थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) तथा औद्योगिक श्रमिक हेतु उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index) से होता है।
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मुद्रास्फीति
मांग कारक माल सेवा की मांग में वृद्धि से पैदा होते हैं जबकि मूल्य वृद्धि कारक स्पष्टतः मूल्य वृद्धि अथवा माल सेवा की आपूर्ति में कमी से उत्पन्न होते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
मुद्रास्फीति
बढ़ता सरकारी व्यय - जो की विगत कई सालों से बढ़ रहा हो जिस से सामान्य जनता के हाथों में अधिक धन आ जाता हैं जो उनकी खरीद क्षमता को बढाता है। यह मुख्य रूप से गैर योजना व्यय (Unplanned expenditure) है जो की अनुत्पादक प्रकृति का होता है तथा केवल क्रय क्षमता में तथा मांग में वृद्धि करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
मुद्रास्फीति
घाटे की पूर्ति तथा मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि से बढ़ते सरकारी व्यय की पूर्ति, घाटे के बजट (Deficit Budget) से तथा नई मुद्रा छाप कर की जाती हैं जो मुद्रा स्फीति तथा आपूर्ति दोनों में वृद्धि कर देते हैं।.....
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
मुद्रास्फीति
उत्पादन-आपूर्ति में उतार चढ़ाव: जब कभी उत्पादन में अत्याधिक उतार चढ़ाव आता हैं या प्राप्त उत्पादन को मुनाफा कमाने वाले लोग जमा कर लेते हैं।
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20231101.hi_8418_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
मुद्रास्फीति
उत्पादकता से अधिक वेतन वृद्धि लागत मूल्य को बढ़ाते हैं जो नतीजतन मूल्य में वृद्धि कर देते हैं, साथ ही मांग तथा क्रय क्षमता में भी वृद्धि होती हैं जो पहले वाले शीर्षक के अंतर्गत वृद्धि कर देती हैं।
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