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मुद्रास्फीति
ढांचागत विकास में कमी या दोष से प्रति इकाई लागत मूल्य बढ़ता हैं जो कि सामान्य कीमत में वृद्धि कर देता हैं।
0.5
4,916.577667
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मुद्रास्फीति
प्रशासित मूल्य में वृद्धि जैसे खाद्यान्न के न्यूनतम समर्थन मूल्य या पेट्रोल तथा अन्य उत्पादों के मूल्य जिन्हें सरकार स्वेच्छा से निर्धारित करती हैं क्योंकि वे आम आदमी के बजट का एक बड़ा भाग होते हैं।
0.5
4,916.577667
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मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति के किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक क्षेत्र तथा अनार्थिक क्षेत्र पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते है-
0.5
4,916.577667
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जैवप्रौद्योगिकी
नैदानिक ​​मुद्दों. क्षमताओं और डाक्टरों की सीमाओं और अन्य स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं, आनुवंशिक स्थितियों के साथ की पहचान लोगों को और आनुवंशिक जानकारी से निपटने के लिए आम जनता पर ये केंद्र.
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
सामाजिक संस्थाओं पर प्रभाव. आनुवंशिक परीक्षण के व्यक्तियों और उनके परिवारों के बारे में जानकारी प्रकट करते हैं। इस प्रकार, परीक्षा परिणाम सामाजिक संस्थाओं, विशेष रूप से परिवार के भीतर की गतिशीलता को प्रभावित कर सकते हैं।
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
वैचारिक और दार्शनिक निहितार्थ मानव जिम्मेदारी के बारे में, मुक्त तुलना-जाएगा एक आनुवंशिक नियतत्ववाद तुलना और स्वास्थ्य और रोग की अवधारणाओं-.
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
जीन एक adenovirus सदिश का उपयोग चिकित्सा. एक नए जीन एक adenovirus वेक्टर, जो एक मानव कोशिका में डीएनए संशोधित पेश किया जाता है में डाला जाता है। यदि उपचार सफल होता है, नए जीन एक कार्यात्मक प्रोटीन कर देगा।
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
जीन थेरेपी इलाज, या यहाँ तक कि इलाज, सामान्य जीन का उपयोग करने के लिए पूरक या दोषपूर्ण जीन की जगह या करने के लिए प्रतिरक्षा के रूप में एक सामान्य समारोह सिलेंडर से कैंसर और एड्स जैसी बीमारियों के आनुवांशिक और अधिग्रहण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। यह करने के लिए (यानी, शरीर) दैहिक या (यानी, अंडे और शुक्राणु) gametes की कोशिकाओं को लक्षित किया जा सकता. दैहिक जीन थेरेपी में, प्राप्तकर्ता का जीनोम बदल रहा है, लेकिन इस बदलाव के साथ अगली पीढ़ी को पारित नहीं है। इसके विपरीत, germline जीन थेरेपी में, माता पिता के अंडे और शुक्राणु कोशिकाओं अपनी संतानों के लिए परिवर्तन पर पारित करने के प्रयोजन के लिए बदल रहे हैं।
1
4,915.009028
20231101.hi_5591_43
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जैवप्रौद्योगिकी
पूर्व vivo, जो "शरीर से बाहर" का अर्थ है - रोगी के रक्त या अस्थि मज्जा की कोशिकाएं निकाल रहे हैं और प्रयोगशाला में हो। वे तो एक वांछित जीन ले वायरस के संपर्क में हैं। वायरस कोशिकाओं में प्रवेश करती है और वांछित जीन कोशिकाओं के डीएनए का हिस्सा बन जाता है। कोशिकाओं को इंजेक्शन द्वारा किया जा रहा एक नस में रोगी को लौट से पहले प्रयोगशाला में बढ़ने की अनुमति है।
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
कोई कोशिकाओं रोगी के शरीर से हटा रहे हैं - vivo, जो "शरीर के अंदर 'का अर्थ में. इसके बजाय, वैक्टर करने के लिए रोगी के शरीर में कोशिकाओं को वांछित जीन वितरित किया जाता है।
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
जून 2001 के रूप में, 500 से अधिक नैदानिक ​​जीन थेरेपी के बारे में 3,500 मरीजों को शामिल परीक्षण दुनिया भर में पहचान की गई है। इन के 78% के लगभग संयुक्त राज्य अमेरिका में यूरोप 18% होने के साथ हैं। इन परीक्षणों के कैंसर के विभिन्न प्रकारों पर ध्यान देते हैं, हालांकि अन्य multigenic रोगों के रूप में अच्छी तरह से अध्ययन किया जा रहा है। हाल ही में, दो गंभीर संयुक्त इम्यूनो विकार ("SCID") के साथ पैदा हुए बच्चों के लिए किया जा रहा अनुवांशिक इंजीनियर कोशिकाओं के बाद दी इलाज किया गया है सूचित किया गया।
0.5
4,915.009028
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जैवप्रौद्योगिकी
. जीन थेरेपी कई बाधाओं का सामना करने से पहले यह बीमारी के इलाज के लिए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण हो सकता है [13] कम से कम इन बाधाओं के चार प्रकार हैं:
0.5
4,915.009028
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बीकानेर
बीकानेर जिले का कुल क्षेत्रफल 27,244 वर्ग कि॰मी॰ है और 2011 जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 2367745 है।
0.5
4,902.41268
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बीकानेर
शहरों में पुरुषों की पोशाक बहुधा लंबा अंगरखा या कोट, धोती और पगड़ी है। मुसलमान लोग बहुधा पाजामा, कुरता और पगड़ी, साफा या टोपी पहनते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी पगड़ी का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं, परंतु धीरे-धीरे अब पगड़ी के स्थान पर साफे या टोपी का प्रचार बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण लोग अधिकतर मोटे कपड़े की धोती, बगलबंदी और फेंटा काम में लाते हैं। स्रियो की पोशाक लहंगा, चोली और दुपट्टा है। मुसलमान औरतों की पोशाक चुस्त पाजामा, लम्बा कुरता और दुपट्टा है उनमें से कई तिलक भी पहनती है।
0.5
4,902.41268
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बीकानेर
यहाँ के अधिकांश लोगों की भाषा मारवाड़ी है, जो राजपूताने में बोली जानेवाली भाषाओं में मुख्य है। यहाँ उसके भेद थली, बागड़ी तथा शेखावटी की भाषाएं हैं। उत्तरी भाग के लोग मिश्रित पंजाबी अथवा जाटों की भाषा बोलते हैं। यहाँ की लिपि नागरी है, जो बहुधा घसीट रूप में लिखी जाती है। राजकीय दफ्तरों तथा कर्यालयों में अंग्रेजी एवं हिन्दी का प्रचार है।
0.5
4,902.41268
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बीकानेर
भेड़ो की अधिकता के कारण यहाँ ऊन बहुत होता है, जिसके कबंल, लोईयाँ आदि ऊनी समान बहुत अच्छे बनते है। यहाँ के गलीचे एवं दरियाँ भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त हाथी दाँत की चूड़ियाँ, लाख की चूड़ियाँ तथा लाख से रंगी हुई लकड़ी के खिलौने तथा पलंग के पाये, सोने-चाँदी के ज़ेवर, ऊँट के चमड़े के बने हुए सुनहरी काम के तरह-तरह के सुन्दर कुप्पे, ऊँटो की काठियाँ, लाल मिट्टी के बर्त्तन आदि यहाँ बहुत अच्छे बनाए जाते हैं। बीकानेर शहर में बाहर से आने वाली शक्कर से बहुत सुन्दर और स्वच्छ मिश्री तैयार की जाती है जो दूर-दूर तक भेजी जाती है।
0.5
4,902.41268
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बीकानेर
साहित्य की दृष्टि से बीकानेर का प्राचीन राजस्थानी साहित्य ज्यादातर चारण, संत और जैनों द्वारा लिखा गया था।
1
4,902.41268
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बीकानेर
चारण राजा के आश्रित थे तथा डिंगल शैली तथा भाषा में अपनी बात कहते थे। बीकानेर के संत लोक शैली में लिखतें थे। बीकानेर का लोक साहित्य भी काफी महत्वपूर्ण है।
0.5
4,902.41268
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बीकानेर
राजस्थानी साहित्य के विकास में बीकनेर के राजाओं का भी योगदान रहा है उनके द्वारा साहित्यकारों को आश्रय़ मिलता रहा था। राजपरिवार के कई सदस्यों ने खुद भी साहित्य में जौहर दिखलायें।
0.5
4,902.41268
20231101.hi_2810_29
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बीकानेर
राव बीकाजी ने माधू लाल चारण को खारी गाँव दान में दिया था। बारहठ चौहथ बीकाजी के समकलीन प्रसिद्ध चारण कवि थे। इसी प्रकार बीकाने के चारण कवियों ने बिठू सूजो का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका काव्य ‘राव जैतसी के छंद‘ डिंगल साहित्य में उँचा स्थान रखती है।
0.5
4,902.41268
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बीकानेर
बीकानेर के राज रायसिंह ने भी ग्रंथ लिखे थे उनके द्वारा ज्योतिष रतन माला नामक ग्रंथ की राजस्थानी में टीका लिखी थी। रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौड राजस्थानी के सिरमौर कवि थे वे अकबर के दरबार में भी रहे थे वेलि क्रिसन रुक्मणी री नामक रचना लिखी जो राजस्थानी की सर्वकालिक श्रेष्ठतम रचना मानी जाती है।
0.5
4,902.41268
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कार्तिकेय
किंतु गंगाजल में बहते बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया था। भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न तेज रूपी वीर्य के उन दिव्य अंशों से सुकोमल शिशु का जन्म हुआ।
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो उनको लेकर उनको अपना स्तनपान कराने पहुंची तो 6 सिर प्रकट हो गए। उसके पश्चात वे बालक को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने शिव पार्वती को बताया तब वे अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, व कृतिकालोक चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने पुत्र को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी, और तत्पश्चात शिव पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने देवासुर संग्राम का नेतृत्व कर राक्षस तारकासुर का संहार किया।स्कन्द पुराण
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
प्राचीन ग्रंथो के अनुसार एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और कार्तिकेय मे फल को लेकर प्रतियोगिता (पृथ्वी के तीन चक्कर लगाने) आयोजित की गयी जिस के अनुसार विजेता को फल मिलेगा । जहां मुरूगन ने अपने वाहन मयूर से यात्रा शुरू की वहीं गणेश जी ने अपने माँ और पिता के चक्कर लगाकर आशीर्वाद प्राप्त कर फल प्राप्त किया जिस पर मुरूगन निवृत्ति प्राप्त कर सगुण अवतार रूप मे कैलाश से दक्षिण भारत की ओर चले गए।देव दानव युद्ध में देवो के सेनापति के रूप में। दक्षिण भारत में युवा और बाल्य रूप में पुजा जाता है। रामायण, महाभारत, तमिल संगम में वर्णन।
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
षण्मुख, द्विभुज, शक्तिघर, मयूरासीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत में बहुत प्रचलित हैं ये ब्रह्मपुत्री देवसेना-षष्टी देवी के पति होने के कारण सन्तान प्राप्ति की कामना से तो पूजे ही जाते हैं, इनको नैष्ठिक रूप से आराध्य मानने वाला सम्प्रदाय भी है।
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
भूमि, अग्नि, गंगादेवी सब क्रमश: अमोघ तेज को धारण करने में असमर्थ रहीं। अन्त में शरवण (कास-वन) में वह निक्षिप्त होकर तेजोमय बालक बना। कृत्तिकाओं ने उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बालक ने छ: मुख धारण कर छहों कृत्तिकाओं का स्तनपान किया। उसी से षण्मुख कार्तिकेय हुआ वह शम्भुपुत्र। देवताओं ने अपना सेनापतित्व उन्हें प्रदान किया। तारकासुर उनके हाथों मारा गया।
1
4,900.074259
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कार्तिकेय
स्कन्द पुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय (स्कन्द) ही हैं। समस्त भारतीय तीर्थों का उसमें माहात्म्य आ गया है। पुराणों में यह सबसे विशाल है। दक्षिण के नाड़ी पत्र ज्योतिष में पूर्व लिखित भविष्य शिव से माँ पार्वती और कार्तिकेय से महर्षि अगस्त तक पहुंचा था।
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
स्वामी कार्तिकेय सेनाधिप हैं। सैन्यशक्ति की प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन इनकी कृपा से सम्पन्न होता है। ये इस शक्ति के अधिदेव हैं। धनुर्वेद पद इनकी एक संहिता का नाम मिलता है, पर ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
बातू गुफाएँ जो की मलेशिया के गोम्बैक जिले में स्थित एक चूना पत्थर की पहाड़ी है वहां, भगववान मुरुगन की विश्व में सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा स्थित है जिसकी ऊंचाई 42.7 मीटर (140 फिट) है।
0.5
4,900.074259
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कार्तिकेय
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध कार्तिकेय मंदिर : थिरुथनी, पलानी मुरूगन , शिवा सुबरमनीय स्वामी, रत्नागिरी, कुमुरकन्दन, थिरूपोरुर्कंसवामी, स्वामीनाथस्वामी, थिरुपपरमकुनरम, पज़्हमुदिर्चोलाई, स्वामीमली, तिरुचेंदूर , मरुदमली, वेल्लिमलाई
0.5
4,900.074259
20231101.hi_4900_5
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स्विट्ज़रलैण्ड
दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व में आल्प्स पर्वत श्रेणिया हैं। देश में कई झीले है - जेनेवा झील का नाम इनमें प्रमुख है। इसके उत्तर पूर्व में जर्मनी, पश्चिम में फ्रांस, दक्षिण में इटली और पूर्व में आस्ट्रिया स्थित है।
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स्विट्ज़रलैण्ड
देश के उत्तर में जर्मन (63.6%), पश्चिम में फ्रांसिसी (20.4%), दक्षिण में इतालवी तथा रोमांस मूल के लोग रहते हैं।
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स्विट्ज़रलैण्ड
इंटरलेकन ओस्ट को बॉलीवुल की पसंदीदा जगह कहा जाता है। यहाँ पर दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे से लेकर ढाई अक्षर प्रेम के, जुदाई, हीरो जैसी फिल्में फिल्माईं गईं हैं। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर इस शहर में आप स्विट्जरलैंड के इतिहास और वर्तमान दोनों से मुलाकात कर सकते हैं।
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स्विट्ज़रलैण्ड
यदि आपके पास थोड़ा सा वक्त और हौसला हो तो सूर्योदय के समय यहाँ की पहाड़ियों पर चहलकदमी करना बेहद सुखद लगता है। यदि पैदल नहीं जा सकते तो यहाँ से एक ट्रेन सीधी पहाड़ी के ऊपर जाती है। बिना चूके उसका टिकट ले लीजिए। और पहाड़ी के ऊपर से सुंदर स्विट्जरलैंड का नजारा लीजिए।
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स्विट्ज़रलैण्ड
जंगफ्रोज- समुद्र तल से 4158 मीटर ऊँचाई पर बना यह यूरोप की सबसे ऊँची पर्वत श्रंखला है। इसी के साथ-साथ यहाँ यूरोप का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन भी है। इंटरलेकन स्टेशन से यहाँ के लिए ट्रेन मिलती है। इस ट्रेन से अपना सफर शुरू कर खूबसूरत स्विट्जरलैंड को अपनी आँखों में कैद करते हुए आप जंगफ्रोज पहुँच जाएंगें। बर्फ के पहाड़ों को काटती हुई ऊपर जाती इस ट्रेन से आप नयनाभिराम दृश्य देख और अपने कैमरे में कैद कर सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहाँ आईस स्कींग का लुफ्त उठाया जा सकता है। यहाँ की बर्फ पर पड़ती सूरज की तिरछी किरणों की आभा देखने का आनंद ही कुछ और है।
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स्विट्ज़रलैण्ड
जंगफ्रोज में बॉलीवुड की इतनी फिल्में फिल्माईं गईं हैं कि यहाँ बॉलीबुड रेस्त्रां ही बना दिया गया है। यह रेस्त्रां 15 अप्रैल से 15 सितंबर के मध्य खुलता है। इसके अलावा आइस पैलेस भी जंगफ्रोज का खास आकर्षण है।
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स्विट्ज़रलैण्ड
शिल्थॉर्न ग्लेशियर - जंगफ्रोज के अलावा शिल्थॉर्न ग्लेशियर का रास्ता भी इंटरलेकन ओस्ट से होकर जाता है। इसे विश्व के सबसे खूबृसूरत बर्फ के पहाड़ों में शुमार किया जाता है। यहाँ पाइन ग्लोरिया नामक राइड से आप पूरे ग्लेशियर का पैरोनामिक व्यू ले सकते हैं। यहाँ भव्य रेस्टोरेंट की श्रृंखला है। इन पड़ावों पर रुककर आप शिल्थॉर्न की खूबसूरती अपनी आँखों में कैद कर सकते हैं।
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स्विट्ज़रलैण्ड
टिटलिस पर्वत श्रृंखला- वादियों के इस देश का अगला पड़ाव है टिटलिस पर्वत श्रृंखला। यहाँ आप केबल कार के जिरए पूरे टिटलिस ग्लेशियर का खूबसूरती को निहार सकते हैं। केबल कार के सफर में आप स्विट्जरलैंड से ही जर्मनी के ब्लैक फारेस्ट के नजारे भी देख सकते हैं। इसी के साथ यहाँ के ग्लैशियर पार्क में घूमता मत भूलिएगा। इस पार्क में आइस से जुड़ी कई फन पैक्ड राइड्स हैं। जिनका रोमांच अलग मजा देता है। यह पार्क मई से अक्टूबर के मध्य खुला होता है।
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स्विट्ज़रलैण्ड
ग्लेशियर ग्रोटो- यदि आप स्विट्जरलैंड जाएँ तो ग्लेशियर ग्रोटो को निहारना मत भूलिएगा। यहाँ बर्फ में बनी सुंदर गुफाएँ हैं। इन गुफाओं की बर्फ की दीवारों पर 8,450 लेम्पस जगमगाते हैं। यहाँ “हॉल ऑफ फेम” भी है। जिसमें स्विट्जरलैंड आए प्रमुख हस्तियो के फोटों लगे हैं। यहाँ “ करिशमा कपूर, वीरेंद्र सहवाग से लेकर कई भारतीय हस्तियों के फोटो पारंपरिक स्विज पोशाक में लगे हुए हैं।”
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विश्वकर्मा
महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है। शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी कारीगर उनकी पुजा करते हे। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। " विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है
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विश्वकर्मा
"विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सःअर्थातः जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विशवकर्मा है।
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विश्वकर्मा
विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है। हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए। भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उद्योगों में भगवान विशवकर्मा की महता को प्रगत करते हुए प्रत्येक वर्ष १७ सितम्बर को श्वम दिवस के रूप मे मनाता हे। यह उत्पादन-वृदि ओर राष्टीय समृद्धि के लिए एक संकलप दिवस है। यह जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान नारे को भी श्वम दिवस का संकल्प समाहित किये हुऐ है। यह पर्व सोरवर्ष के कन्या संर्काति मे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर विशवकर्मा-पुजा के रूप मे सरकारी व गैर सरकारी ईजीनियरिग संस्थानो मे बडे ही हषौलास से सम्पन्न होता हे। लोग भ्रम वश इस पर्व को विश्वकर्मा जयंति मानते हे। जो सर्वदा अनुचित हे। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा कन्या की संक्राति (17 सितम्बर), कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयन्ति) मई दिवस आदि विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना की जाती है।
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विश्वकर्मा
भगवान विशवकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। जैसे भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा इस तिंथि की महिमा का पुर्व विवरण महाभारत मे विशेष रूप से मिलता है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा अर्चना की जाती है। यह शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर पर मनाया जाता है। अन्नकुट (गोवर्धन पूजा) दिपावली से अगले दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना (औजार पूजा) की जाती है। मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है। रुसी क्रांति श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रूप मे मनाया जाता है। 5 मई को ऋषि अंगिरा जयन्ति होने से विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव मनाया जाता है
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विश्वकर्मा
भगवान विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत रूप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे साक्षात रूप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे भी है।
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विश्वकर्मा
धर्मशास्त्र भी माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति बता रहे है। अतः अन्य दिवस भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना व महोत्सव दिवस के रूप मे मनाऐ जाते है। ईसी तरह भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती पर भी विद्वानों में मतभेद है। भगवान विश्वकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। निःदेह यह विषय निर्भ्रम नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। अतः सभी विशवकर्मा मन्दिर व धर्मशालाऔं, विशवकर्मा जी से सम्भधींत संस्थाऔं, संघ व समितिऔं को प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से मांग जानी चाहीए की सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, भारत की विभिन्न युनीर्वशटीजो मे इस विष्य पर शौध की जानी चाहीए, विदेशों में भी खोज की जाय, तथा भारत सरकार विश्वकर्मा वशिंयो का सर्वेक्षण किसी प्रमुख मीडिया एजेन्सी से करवाऐ। श्रुति का वचन है कि विवाह, यज्ञ, गृह प्रवेश आदि कर्यो मे अनिवार्य रूप से विशवकर्मा-पुजा करनी चाहिए
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विश्वकर्मा
स्पष्ट है कि विशवकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विशवकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्टीय उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।
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विश्वकर्मा
चार युगों में विश्वकर्मा ने कई नगर और भवनों का निर्माण किया। कालक्रम में देखें तो सबसे पहले सत्ययुग में उन्होंने स्वर्गलोक का निर्माण किया, त्रेता युग में लंका का, द्वापर में द्वारका का और कलियुग के आरम्भ के ५० वर्ष पूर्व हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने ही जगन्नाथ पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थित विशाल मूर्तियों (कृष्ण, सुभद्रा और बलराम) का निर्माण किया।
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विश्वकर्मा
विश्वकर्मा जयंती विश्वकर्मा जयंती हिंदू धर्म में ब्रह्मांड के दिव्य वास्तुकार भगवान विश्वकर्मा को समर्पित है। विश्वकर्मा भाद्र केबंगाली महीने के अंतिम दिन, विशेष रूप से भद्रा संक्रांति पर निर्धारित की जाती है। यही कारण है कि जब सूर्य सिंह सेकन्या पर हस्ताक्षर करता है इसे कन्या सक्रांति के रूप में भी जाना जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
दंडाभियोग के भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं; यथा, क्षणिक आवेग, भावुकता, पूर्वविचार, भावी विनाश से रक्षा, आदि। दृष्टांत के लिये राजनीतिक हत्याओं को ले सकते हैं। किसी राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के निमित्त कुछ लोग षड्यंत्र कर राज्य के प्रमुख की हत्या कर डालते हैं। ऐसा पूर्व विचार से ही होता है, क्षणिक आवेग से नहीं। प्रत्यक्ष हत्यारा भावुकता से, पैसे के लोभ से या अपने दल के लक्ष्य की पूर्ति के कारण अपराध करता है। उसके गिरफ्तार होने पर इस आशंका से कि कहीं वह रहस्य का उद्घाटन कर अपने साथियों का विनाश न करवा दे, षडयंत्रकारी उसका वध कर देते हैं। इसी प्रकार डकैती करते हुए जब एक डाकू घायल होकर गिर पड़ता है तो उसके साथी उसे ढोकर ले जाने में अक्षम होने के कारण उसका सिर काट ले जाते हैं, ताकि उसके मृत शरीर के द्वारा उसकी पहचान न हो सके या जीवित रहने पर क्षमा पाने के आश्वासन से वह अपने दल का रहस्य न खोल दे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
जन्म या आनुवंशिकता (heredity) का दंडाभियोग से क्या संबंध है, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; किंतु हम वातावरण के प्रभाव अस्वीकार नहीं कर सकते। यह साधारण अनुभव है कि कलुषित वातावरण अपराध करने की भावना को प्रोत्साहन देता है। चोरों की संगति में यदि किसी शिशु को रख दिया जाय तो क्रमश: उसकी मनोवृत्ति चोरी की ओर अग्रसर अवश्य होगी। इस प्रकार यदि कम अवस्था के शौकिया अपराधी को साधारण कैदियों के साथ जेल में रखा जाय तो इस स्थिति का प्रभाव उसे संभवत: कारावास से मुक्त होने पर अपराध करने को प्रेरित करे। अत: प्रगतिशील समाज में शौकिया अपराधियों को दंडाभियोग से विरत करने के अभिप्राय से अपराध को प्रोत्साहन देनेवाले वातावरण से पृथक् रखने की योजना की गई है। इंग्लैंड में प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व ही वोर्स्टल नामक संस्था खुली। शौकिया तथा कम अवस्था के अपराधियों का सुधार करना इनका उद्देश्य था। क्रमश: अन्यान्य प्रगतिशील देशों में यह संस्था खुली। प्रोबेशन ऐक्ट भी लागू हुआ। शिशु एवं युवक अपराधियों को अपराध के लिये दंडित होने पर उन्हें जेल में न रखकर उनके अभिभावकों द्वारा नेकचलनी का आश्वान मिलने पर उन्हें परिवीक्षा (probation) पर छोड़ दिया जाता है। यदि हत्या आदि गुरुतम अपराधों के लिये वे दंडित हुए हैं, तो उन्हें बोरस्टल संस्था के हवाले किया जाता है। इस संस्था में स्वस्थ वातावरण रहता है, जिससे अपराधियों के सुधार में सहायता मिलती है। उन्हें उपयोगी व्यवसाय की भी शिक्षा दी जाती है, ताकि दंड की निर्धारित अवधि पूरी कर घर लौटने पर वे सच्चाई से अपनी जीविका चला सकें।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
कोई व्यक्ति या तो स्वयं अथवा निमित्त रूप में अपराधी हो सकता है या घटना से पूर्व अथवा पश्चात् सहायक हो सकता है। कोई या तो स्वयं अपराध करता है या अन्य किसी एजेंट से कराता है, जो कानूनन अपराध के लिये उत्तरदायी नहीं होता, यथा सात साल से कम अवस्था का शिशु, कोई पशु या कोई मशीन। ऐसा व्यक्ति प्रधान अपराधी कहलाता है। द्वितीय श्रेणी का प्रधान वह है जो घटनास्थल पर उपस्थित रहकर प्रधान को अपराध कर्म में सहायता देता है या उसे प्रोत्साहित करता है। घटना से पूर्व का सहायक वह है जो प्रधान को अपराध करने को प्रोत्साहित करता है किंतु अपराध के समय उपस्थित नहीं रहता। घटना से पश्चात् का सहायक वह है जो यह जानते हुए कि किसी ने गुरुतर अपराध किया है, उसे शरण देता है या उसे भागने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रसंग में स्मरणीय है कि राजद्रोह में जितने लोग संमिलित होते हैं, सबके सब प्रधान अपराधी होते हैं। दंड की गुरुत्ता एवं लघुता की दृष्टि से उक्त श्रेणीकरण उपयोगी है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
कानून का अज्ञान दंडाभियोग के बचाव में स्वीकार नहीं किया जाता। वह विदेशी, जिसे अन्य देश के कानून की जानकारी नहीं है, इस बचाव को पेश नहीं कर सकता, यद्यपि दंडादेश की कठोरता में प्राय: इससे कमी की जा सकती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
जिन मामलों में दोषपूर्ण मन आवश्यक है, वहाँ दुर्घटना बचाव में ली जा सकती है। अभियुक्त अपने प्रति लाए हुए अभियोग को स्वीकार करते हुए कह सकता है कि वह कानूनी ढंग से काम कर रहा था, पर अन्यमनस्कता के कारण, सबोध (culpable) उपेक्षा के बिना, दुर्घटना हो गई।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
यदि किसी व्यक्ति या उसकी संपत्ति का अनधिकार स्पर्श हो तो मामला चलानेवाले की स्वीकृति पूर्ण बचाव है। किंतु यह स्वीकृति कपट, धमकी या हिंसा से प्राप्त हुई हो तो इसकी मान्यता नहीं होगी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7
अपराध
यदि दो व्यक्ति अपनी आत्महत्या की योजना बनाएँ एवं उस योजना के अनुसार एक आत्मघात कर ले, कर दूसरा बच जाय तो दूसरा पहले की हत्या के लिये अभियुक्त होगा।
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अपराध
कानून द्वारा निर्दिष्ट कुछ अपवादों को छोड़कर दंडाभियोग की कोई अवधि भारत या इंग्लैंड में नहीं है। अभियुक्त सदा अपने अपराध के लिये उत्तरदायी है, अपराध की तिथि से भले ही कितना भी समय क्यों न व्यतीत हो जाय। यूरोप के देशों में अपराध की तिथि से 20 साल के बाद कोई अभियोग नहीं लाया जा सकता।
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अपराध
अपराध विज्ञान का दंडदायित्व से इतना ही संबंध है कि यह अपराधी को समझने की चेष्टा करता है। उसे पहचानना इसकी परिधि से बाहर है। इसका सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि कोई परिस्थिति से पराभूत होकर ही अपराध की ओर अग्रसर होता है। यथा, अर्थ या नैतिक संकट किसी को दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने को प्रोत्साहित कर सकता है। विक्षिप्तता या मानसिक असंतुलन भी अपराध को प्रश्रय देते हैं। अत: वैज्ञानिक उपचारों के प्रयोग से तथा परिस्थिति को अनुकूल कर अपराधी को अपराध से विरत करना चाहिए। अन्य शब्दों में यह विज्ञान "दंड" के स्थान में "सुधार" का समर्थन करता है। अमरीका में इस सिद्धांत की मान्यता बढ़ रही है। भारत या इंग्लैंड में इसका बहुत कम प्रभाव जनता या न्यायालय पर पड़ा है।
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वनोन्मूलन
पश्चिम अफ्रीका (West Africa) के मोटे तौर पर ८० प्रतिशत मूल वन हैं।मध्य अफ्रीका (Central Africa) में वनोन्मूलन की दर बढ़ रही है।एफएओ (FAO) के अनुसार अफ्रीका ने किसी भी महाद्वीप की तुलना में अधिकतम वर्षा वनों को खोया। एफएओ (१९९७) के आंकडों के अनुसार पश्चिम अफ्रीका (moist forest) के केवल २२.८ प्रतिशत नाम वन शेष रह गए हैं। इनमें से अधिकाश अवक्रमित हैं। बड़े पैमाने पर वनोन्मूलन से कुछ अफ्रीकी देशों मेंखाद्य सुरक्षा (food security) के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। अफ्रीका में वनोन्मूलन की दर सबसे ज्यादा है क्यों की इसकी जनसँख्या का ९० प्रतिशत खाना पकाने आदि के लिए लकड़ी पर निर्भर है।
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वनोन्मूलन
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ (WWF) अन्तर्राष्ट्रीय के द्वारा २००२ में किया गए अनुसंधान से पता चलता है कि अवैध कटाई (illegal logging) की दरों में बहुत अधिक भिन्नता पाई जाती है, यह कैमरून और इक्वेटोरियल गिनी में ५० प्रतिशत से लेकर गैबॉन में ७० प्रतिशत और लाइबेरिया में ८० प्रतिशत है -जहाँ लकड़ी उद्योग से प्राप्त राजस्व ने नागरिक युद्ध को बढ़ावा दिया।
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वनोन्मूलन
पूर्वी अफ्रीका (East Africa) में स्थित इथियोपिया (Ethiopia) में वनोन्मूलन का मुख्य कारण है बढ़ती हुई जनसंख्या (growing population) और परिणाम स्वरुप कृषि, पशुधन उत्पादन और ईंधन की लकड़ी के लिए उच्च मांग. अन्य कारणों में शामिल है कम शिक्षा और सरकार की निष्क्रियता, हालांकि वर्तमान सरकार ने वनोन्मूलन पर नियंत्रण करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। संगठन जैसे फार्म अफ्रीका वन प्रबन्धन तंत्र के निर्माण के लिए संघीय और स्थानीय सरकारों के साथ काम कर रहे हैं। इथियोपिया जो जन संख्या की दृष्टि से अफ्रीका में तीसरा सबसे बड़ा देश (third largest country in Africa) है, कई बार वर्षा की कमी और प्राकृतिक संसाधनों की कमी की वजह से अकाल (famine) का सामना कर चुका है। वनोन्मूलन की वजह से बारिश की सम्भावना कम हो गयी है जो पहले से ही कम है और इस प्रकार से मृदा में अपरदन होता है। बरसला बाईसा, एक एथोपीय किसान, एक उदाहरण देता है कि वनों कि कटाई क्यों होती है। उसके अनुसार उसका जिला वन और वन्य जीवन से परिपूर्ण था, लेकिन अत्यधिक जनसँख्या की वजह से लोग यहाँ आये और फसलों को साफ़ कर दिया और सभी पेड़ों को काट कर लकड़ी के रूप में बेच दिया गया।
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वनोन्मूलन
इथोपिया पिछले ५० सालों में अपने ९८ प्रतिशत वनों को खो चुका है। २० वीं शताब्दी की शुरुआत में इथोपिया की लगभग ४२०००० वर्ग किलोमीटर भूमि वनों से आवरित थी। हाल ही की रिपोर्टें बताती हैं कि वन केवल १४.२ प्रतिशत को ही आवरित कर रहे हैं या अब केवल ११.९ प्रतिशत भाग को। १९९० और २००५ के बीच देश के १४ प्रतिशत वन या २१००० वर्ग किलोमीटर के वन ख़त्म हो गए।
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वनोन्मूलन
वनोन्मूलन और इसके परिणाम स्वरुप मरुस्थलीकरण (desertification),जल संसाधन में कमी (water resource degradation) और मृदा की हानि (soil loss) ने मेडागास्कर की पहले से जैव उत्पादक भूमि के ९४ प्रतिशत भाग को प्रभावित किया है। २००० साल पहले मनुष्य के आने के बाद से मेडागास्कर अपने ९० प्रतिशत से अधिक मूल वनों को खो चुका है। इसमें से अधिकांश नुकसान फ्रांस से स्वतन्त्रता के बाद हुआ। इसका कारण है कि स्थानीय लोग जीवन निर्वाह हेतू स्लेश एंड बर्न (slash-and-burn) प्रकार की खेती करते रहे हैं। बड़े पैमाने पर वनोन्मूलन की वजह से, इस समय देश अपनी तेजी से बढती हुई आबादी को उपयुक्त भोजन, तजा पानी और सफाई की व्यवस्था उपलब्ध कराने में असमर्थ है।
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वनोन्मूलन
एफएओ के मुताबिक, नाइजीरिया में प्राथमिक वनों कीई कटाई की दर दुनिया में उच्चतम है। इसने पिछले ५ सालों में अपने आधे से अधिक प्राथमिक वनों को खो दिया है। इसके कारण हैं कटाई,निर्वाह हेतू खेती (subsistence agriculture) और ईंधन की लकड़ी का संग्रह.पश्चिम अफ्रीका (West Africa) के लगभग ९० प्रतिशत वर्षा वन ख़त्म हो चुके हैं।
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वनोन्मूलन
नौवीं सदी में विकिंग्स के बसने के बाद आइसलैंड में व्यापक वनोन्मूलन हुई है। परिणामस्वरूप, वनस्पति और भूमि के बहुत बड़े क्षेत्र ख़त्म हो गए हैं और मृदा अपरदन तथा मरुस्थलीकरण हो गया है। लगभग आधा मूल वनस्पति आवरण नष्ट हो चुका है, जिसके कारण हैं अतिक्रमण, कटाई और कठोर प्राकृतिक परिस्थितियों में जरुरत से ज्ञाता चराई.वनों और जंगलों का लगभग ९५ प्रतिशत जो कभी आइसलेंड के २५ क्षेत्र को आवरित करता था, ख़त्म हो चुका है। वनों को फिर से लगाने और वनस्पति को फिर से उगाने की वजह से भूमि के छोटे क्षेत्रों को बहाल किया गया है।
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वनोन्मूलन
विक्टोरिया और एन एस डबल्यू के रेड गम (red gum) वन जिसमें मूर्रे नदी का बर्मह मिलावा (Barmah-Millewa) शामिल है, तेजी से यांत्रिक उपकरणों की सहायता से साफ़ करके गिराए जा रहें हैं। (clear-felled) ये पहले से ही दुर्लभ आवास (habitat) को नष्ट कर रहे हैं। मेक्नेली का अनुमान है कि लगभग गिरी हुई इमारती लकड़ी का लगभग ८२ प्रतिशत दक्षिणी मुर्रे के डार्लिंग बेसिन से हटा दिया गया है। और मिड मुर्रे वन प्रबन्धन क्षेत्र (जिसमें बर्मा और गुनबोवर वन भी शामिल हैं) विक्टोरिया रेड गम लकड़ी का ९० प्रतिशत भाग उपलब्ध करता है।
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वनोन्मूलन
वनों की क्षति के कारणों में एक करक है शहरी क्षेत्र (urban area) का विस्तार.नदी के किनारे (Littoral) वर्षा वन जो पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के किनारों में विकसित हो रहे हैं, ये अब रिबन विकास (ribbon development) के कारण दुर्लभ हो गए हैं, जो कि समुद्र परिवर्तन (seachange) जीवन शैली की मांग के लिए किया जा रहा है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
हठयोग चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है, जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है और विभिन्न चक्रों में स्थिर करते हुए उसे शीर्षस्थ सहस्रार चक्र तक ले जाया जाता है। हठयोग प्रदीपिका इसका प्रमुख ग्रंथ है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
हठयोग, योग के कई प्रकारों में से एक है। योग के अन्य प्रकार ये हैं- मंत्रयोग, लययोग, राजयोग। हठयोग के आविर्भाव के बाद प्राचीन 'अष्टांग योग' को 'राजयोग' की संज्ञा दे दी गई।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
हठयोग साधना की मुख्य धारा शैव रही है। यह सिद्धों और बाद में नाथों द्वारा अपनाया गया। मत्स्येन्द्र नाथ तथा गोरख नाथ उसके प्रमुख आचार्य माने गए हैं। गोरखनाथ के अनुयायी प्रमुख रूप से हठयोग की साधना करते थे। उन्हें नाथ योगी भी कहा जाता है। शैव धारा के अतिरिक्त बौद्धों ने भी हठयोग की पद्धति अपनायी थी। इस योग का महत्व वर्तमान काल मे उतना ही है जितना पहले था ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
हठयोग के बारे में लोगों की धारणा है कि हठ शब्द के हठ् + अच् प्रत्यय के साथ 'प्रचण्डता' या 'बल' अर्थ में प्रयुक्त होता है। हठेन या हठात् क्रिया-विशेषण के रूप में प्रयुक्त करने पर इसका अर्थ बलपूर्वक या प्रचंडता पूर्वक, अचानक या दुराग्रहपूर्वक अर्थ में लिया जाता है। 'हठ विद्या' स्त्रीलिंग अर्थ में 'बलपूर्वक मनन करने' के विज्ञान के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार सामान्यतः लोग हठयोग को एक ऐसे योग के रूप में जानते हैं जिसमें हठ पूर्वक कुछ शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएं की जातीं हैं। इसी कारण सामान्य शरीर शोधन की प्रक्रियाओं से हटकर की जाने वाली शरीर शोधन की षट् क्रियाओं (नेति, धौति, कुंजल वस्ति, नौलि, त्राटक, कपालभाति) को हठयोग मान लिया जाता है। जबकि ऐसा नहीं है। षटकर्म तो केवल शरीर शोधन के साधन है वास्तव में हठयोग तो शरीर एवं मन के संतुलन द्वारा राजयोग प्राप्त करने का पूर्व सोपान के रूप में विस्तृत योग विज्ञान की चार शाखाओं में से एक शाखा है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बॉंयी नासिका (चन्द्रस्वर)। इड़ा ऋणात्मक (-) उर्जा शक्ति एवं पिगंला धनात्मक (+) उर्जा शक्ति का
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
यहां ह का अर्थ सूर्य तथा ठ का अर्थ चन्द्र बताया गया है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं। सूर्यनाड़ी अर्थात पिंगला जो दाहिने स्वर का प्रतीक है। चन्द्रनाड़ी अर्थात इड़ा जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है। हठ प्रदीपिका में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान। घेरण्डसंहिता में सात अंग- षटकर्म, आसन, मुद्राबन्ध, प्राणायाम, ध्यान, समाधि जबकि योगतत्वोपनिषद में आठ अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
हठयोग का अभ्यास कि सम्पूर्ण शरीर की जड़ता को दूर करता है प्राण की अधिकता नाड़ी चक्रों को सबल एवं चैतन्य युक्त बनाती है ओर व्यक्ति विभिन्न शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों का विकास करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
इस प्रकार सप्रयास प्राणों को अपने नियंत्रण से गति देना हठयोग है। यह हठयोग राजयोग की सिद्धि के लिए आधारभूमि बनाता है। बिना हठयोग की साधना के राजयोग (समाधि) की प्राप्ति बड़ा कठिन कार्य है। अतः हठयोग की साधना सिद्ध होने पर राजयोग की ओर आगे बढ़ने में सहजता होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%A0%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97
हठयोग
आसनों की संख्या और उनका वर्णन अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग हैं। कहीं-कहीं तो एक ही नाम से किसी दूसरे आसन का वर्णन मिलता है। । अधिकांश आरम्भिक आसन प्रकृति से प्रेरित हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
अग्रसेन ने राजा नागराज कुमुद की बेटी माधवी के स्वयंवर में भाग लिया । हालाँकि, स्वर्ग के देवता इंद्र और भी तूफानों और बारिश के स्वामी, माधवी से शादी करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने अग्रसेन को अपने पति के रूप में चुना। इस वजह से, इंद्र उग्र हो गए और यह सुनिश्चित करने का निर्णय लिया कि प्रतापनगर में बारिश नहीं होगी। नतीजतन, एक अकाल ने अग्रसेन के राज्य को मारा, जिसने तब इंद्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने का फैसला किया। ऋषि नारद इंद्र के पास पहुंचे, जिन्होंने अग्रसेन और इंद्र के बीच शांति की मध्यस्थता की। महर्षि गर्ग की सलाह के अनुसार, उन्होंने अपने धन और स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए सुंदरवती से विवाह किया। [ उद्धरण वांछित ]
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4,829.36197
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
समयानुसार युवावस्था में उन्हें राजा नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में शामिल होने का न्योता मिला। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेक राजा और राजकुमार आए थे। यहां तक कि देवताओं के राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो वहां पधारे थे। स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डाल दी। यह दो अलग-अलग संप्रदायों, जातियों और संस्कृतियों का मेल था। जहां अग्रसेन सूर्यवंशी थे वहीं माधवी नागवंश की कन्या थीं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
इस विवाह से इंद्र जलन और गुस्से से आपे से बाहर हो गये और उन्होंने प्रतापनगर में वर्षा का होना रोक दिया। चारों ओर त्राहि-त्राही मच गयी। लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने लगे। तब महाराज अग्रसेन ने इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड दिया। क्योंकि अग्रसेन धर्म-युद्ध लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच सुलह करवा दी।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
कुछ समय बाद महाराज अग्रसेन ने अपने प्रजा-जनों की खुशहाली के लिए काशी नगरी जा शिवजी की घोर तपस्या की, जिससे भगवान शिव ने प्रसन्न हो उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने परोपकार हेतु कीगई तपस्या से खुश हो उन्हें दर्शन दिए और कहा कि अपना एक नया राज्य बनाएं और क्षात्र धर्म का पालन करते हुवे अपने राज्य तथा प्रजा का पालन - पोषंण व रक्षा करें ! उनका राज्य हमेशा धन-धान्य से परिपूर्ण रहेगा|
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह एक शेरनी एक शावक को जन्म देते दिखी, कहते है जन्म लेते ही शावक ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी माँ के लिए संकट समझकर तत्काल हाथी पर छलांग लगा दी। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण या अग्रोदय रखा गया और जिस जगह शावक का जन्म हुआ था उस जगह अग्रोदय की राजधानी अग्रोहा की स्थापना की गई। यह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास हैं। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए पांचवे धाम के रूप में पूजा जाता है, वर्तमान में अग्रोहा विकास ट्रस्ट ने बहुत सुंदर मन्दिर, धर्मशालाएं आदि बनाकर यहां आने वाले अग्रवाल समाज के लोगो के लिए सुविधायें जुटा दी है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले प्रत्येक परिवार की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक परिवार उसे एक तत्कालीन प्रचलन का सिक्का व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से नवागन्तुक परिवार स्वयं के लिए निवास स्थान व व्यापार का प्रबंध कर सके। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नई व्यवस्था को जन्म दिया, उन्होंने पुनः वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य की पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
इस तरह महाराज अग्रसेन के राजकाल में अग्रोदय गणराज्य ने दिन दूनी- रात चौगुनी तरक्की की। कहते हैं कि इसकी चरम स्मृद्धि के समय वहां लाखों व्यापारी रहा करते थे। वहां आने वाले नवागत परिवार को राज्य में बसने वाले परिवार सहायता के तौर पर एक रुपया और एक ईंट भेंट करते थे, इस तरह उस नवागत को लाखों रुपये और ईंटें अपने को स्थापित करने हेतु प्राप्त हो जाती थीं जिससे वह चिंता रहित हो अपना व्यापार शुरू कर लेता था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A8
अग्रसेन
माता महालक्ष्मी की कृपा से महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य को 18 गणराज्यो में विभाजित कर एक विशाल राज्य का निर्माण किया था, जो इनके नाम पर अग्रेय गणराज्य या अग्रोदय कहलाया।। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। यज्ञों में बैठे इन 18 गणाधिपतियों के नाम पर ही अग्रवंश के साढ़े सत्रह गोत्रो (अग्रवाल एवं राजवंशी समाज) की स्थापना हुई। उस समय यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य रूप से दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, सबसे बड़े राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय गणाधिपति को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने अहिंसा धर्म को अपना लिया। इधर अंतिम और अठाहरवे यज्ञ में यज्ञाचार्यो द्वारा पशुबलि को अनिवार्य बताया गया, ना होने पर गोत्र अधूरा रह जाएगा, ऐसा कहा गया, परन्तु महाराजा अग्रसेन के आदेश पर अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया। यह गोत्र पशुबलि ना होने के कारण आधा माना जाता है, इस प्रकार अग्रवाल समाज में आज भी 18 नही, साढ़े सत्रह गोत्र प्रचलित है।
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अग्रसेन
महाराज ने अपने राज्य को १८ गणों में विभाजित कर १८ गुरुओं के नाम पर १८ गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं १८गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज हमें वर्तमान लोकतंत्र प्रणाली में भी दिखायी पड़ता है।
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कांसा
कांसा या कांस्य, किसी तांबे या ताम्र-मिश्रित धातु मिश्रण को कहा जाता है, प्रायः टिन के संग, परंतु कई बार फासफोरस, मैंगनीज़, अल्युमिनियम या सिलिकॉन आदि के संग भी होते हैं। (देखें अधोलिखित सारणी.) यह पुरावस्तुओं में महत्वपूर्ण था, जिसने उस युग को कांस्य युग नाम दिया। इसे अंग्रेजी़ में ब्रोंज़ कहते हैं, जो की फारसी मूल का शब्द है, जिसका अर्थ कांस्य है।
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कांसा
काँसा (संस्कृत कांस्य) संस्कृत कोशों के अनुसार श्वेत ताँबे अथवा घंटा बनाने की धातु को कहते हैं। विशुद्ध ताँबा लाल होता है; उसमें राँगा मिलाने से सफेदी आती है। इसलिए ताँबे और राँगे की मिश्रधातु को काँसा या कांस्य कहते हैं। साधारण बोलचाल में कभी–कभी पीतल(Brass) को भी काँसा कह देते हैं, जो ताँबे तथा जस्ते की मिश्रधातु है और पीला होता है। ताँबे और राँगे की मिश्रधातु को 'फूल' भी कहते हैं। इस लेख में काँसा से अभिप्राय ताँबे और राँगे की मिश्रधातु से है। अंग्रेजी में इसे ब्रॉन्ज (bronze) कहते हैं।
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कांसा
काँसा, ताँबे की अपेक्षा अधिक कड़ा होता है और कम ताप पर पिघलता है। इसलिए काँसा सुविधापूर्वक ढाला जा सकता है। 16 भाग ताँबे और 1 भाग राँगे की मिश्रधातु बहुत कड़ी नहीं होती। इसे नरम गन-मेटल (gun-metal) कहते हैं। राँगे का अनुपात दुगुना कर देने से कड़ा गन-मेटल बनता है। 7 भाग ताँबा और 1 भाग राँगा रहने पर मिश्रधातु कड़ी, भंगुर और सुस्वर होती है। घंटा बनाने के लिए राँगे का अनुपात और भी बढ़ा दिया जाता है; साधारणत: 3 से 5 भाग तक ताँबे और 1 भाग राँगे की मिश्रधातु इस काम में लिए प्रयुक्त होती है। दर्पण बनाने के लिए लगभग 2 भाग ताँबा और एक भाग राँगे का उपयोग होता था, परंतु अब तो चाँदी की कलईवाले काँच के दर्पणों के आगे इसका प्रचलन मिट गया है। मशीनों के धुरीधरों (bearings) के लिए काँसे का बहुत प्रयोग होता है, क्योंकि घर्षण (friction) कम होता है, परंतु धातु को अधिक कड़ी कर देने के उद्देश्य से उसमें कुछ अन्य धातुएँ भी मिला दी जाती हैं। उदाहरणत:, 24 अथवा अधिक भाग राँगा, 4 भाग ताँबा और 8 भाग ऐंटिमनी प्रसिद्ध 'बैबिट' मेटल है जिसका नाम आविष्कारक आइज़क (Issac Babiitt) पर पड़ा है। इसका धुरीधरों के लिए बहुत प्रयोग होता है। काँसे में लगभग 1 प्रतिशत फ़ास्फ़ोरस मिला देने से मिश्रधातु अधिक कड़ी और चिमड़ी हो जाती है। ऐसी मिश्रधातु को फ़ॉस्फ़र ब्रॉज कहते हैं। ताँबे और ऐल्युमिनियम की मिश्रधातु को ऐल्युमिनियम ब्रॉंज़ कहते हैं। यह धातु बहुत पुष्ट होती है और हवा या पानी में इसका अपक्षरण नहीं होता।
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कांसा
कांसे के बर्तनों का उल्लेख प्राचीन काल से ही मिलता है। ऐसे बर्तन प्राचीन सभ्यताओं से जुड़े स्थलों जैसे - ईरान, सुमेर, मिस्र तथा हड़प्पा, मोहन जोदड़ो, लोथल समेत भारत के अन्य जगहों पर मिले हैं। उस समय ये बर्तन प्राय ढालकर या चद्दर को पीटकर बनाए जाते थे। धीरे-धीरे इन पर उभारदार काम भी होने लगा था। भारतीय रसोई में तो इनके पात्रों का बहुत अधिक महत्त्व रहा है। किसी जमाने में भारतीय रसोई में कांसे, तांबे, पीतल और मिट्टी के बर्तन ही पाए जाते थे। आज भी कांस्य आदि के बर्तनों का उपयोग अच्छा माना जाता है। कांसे के बर्तन जीवाणुओं और विषाणुओं को मारने की क्षमता रखते हैं। कांसे के बर्तनों में भोजन करना आरोग्यप्रद, असंक्रमण, रक्त तथा त्वचा रोगों से बचाव करने वाला बताया गया है। कब्ज और अम्लपित्त की स्थिति में इनमें खाना फायदेमंद होता है। इन पात्रों में खाद्य पदार्थों का सेवन करना रुचि, बुद्धि, मेधा वर्धक और सौभाग्य प्रदाता कहा गया है तथा यकृत, प्लीहा के रोगों में फायदेमंद है।
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कांसा
आयुर्वेद के रस शास्त्र के ग्रंथों में लगभग आठ भाग ताम्र तथा दो भाग रांगा को मिलाकर कांस्य बनाया जाता था। आज भी सामान्यतया: 79 फीसदी ताम्र एवं 21 फीसदी रांगा मिलाकर कांस्य बनाया जाता है।
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कांसा
कांस्य का आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथों चरक संहिता, सुश्रुत संहिता एवं अष्टांग हृदय में बर्तन, घंटी, मूर्तियों के साथ रस शास्त्र में औषध के रूप में अनेक जगह उल्लेख है। आठवीं शती के बाद तो औषध के रूप में कांस्य का प्रयोग अधिक होने लगा था, जो कमोबेश आज तक अनवरत हो रहा है। रस शास्त्र के आयुर्वेद प्रकाश ग्रंथ में कांस्य का निर्माण, प्रकार, शोधन, गुण तथा औषध बनाने के बारे में बताया गया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE
कांसा
कांसे के पात्रों का सामाजिक समारोहों व समुदायों में काफी महत्व है। शादी-विवाह के मौके पर आज भी कन्या पक्ष की ओर से वर पक्ष को कांस्य के पात्र में धन, धान्य आदि भरकर सम्मानपूर्वक भेंट किया जाता है। ऐसे अवसरों पर कांसे के कटोरे, थाली, गिलास भेंट करना शुभ माना जाता है। साथ ही जब कन्या विवाह के बाद पहली बार वर के गृह में प्रवेश करती है, उस समय कांसे की थाली से तिलक लगाया जाता है।
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कांसा
आम लोगों को अपनी परंपरा, संस्कृति से जोडऩे और कांस्य के फायदे को आमजन तक पहुंचाने के लिए जे. एन. के. मेटल इंडस्ट्रीज सिरोही राजस्थान ने पीढिय़ों से हासिल ज्ञान और अनुभव के आधार पर कांस्य से जुड़े बर्तनों की शृंखला, मंदिर की घंटी और कांसे के उपहार बाजार में उतारकर इन्हें खास महत्त्व दिया है। कांस्य के गुण चिकित्सा के रूप में कांस्य भस्म हल्की, उष्ण तथा शरीर की वसा को कम करने वाली मानी गई है। भस्म तथा अनेक औषधियों के साथ संयोजन करने पर कांस्य कृमि रोग, चर्म रोग, कुष्ठ रोग तथा नेत्र रोगों में गुणकारी माना गया है। कांस्य भस्म से चिन्तामणि रस, नित्यानन्द रस, मकर ध्वज वटी तथा मेघनाथ रस जैसे अनेक आयुर्वेदीय औषध योग बनाए जाते हैं।
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कांसा
कांस्य का उल्लेख धार्मिक कार्यों में प्राचीन काल से मिलता है। मंदिरों की घंटियां एवं बड़े घंटे कांस्य से बनाए जाते रहे हैं। कांस्य ही ऐसी धातु है जिसकी घंटी या घंटे के रूप में आवाज मृदु, स्निग्ध और तेज स्वर में निकलती है और सुनने में मन को प्रसन्न करती है। पूजा पाठ एवं धार्मिक कार्यों में कांसे की थाली, लोटे आदि का ज्यादा प्रयोग किया जाता है। कांसे के पात्रों का प्रयोग धार्मिक कार्यों में करना शुभ माना जाता है।
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इन्द्र
सोम-सेवी होने के कारण इन्द्र को वे लोग परमप्रिय हैं, जो सोम का अभिषव करते हैं अथवा पका कर उसे सिद्ध करते हैं। ऐसे लोगों की वह रक्षा करता है। इतना ही नहीं, ऐसे प्रिय व्यक्तियों को वह धन-वैभव से पुरस्कृत भी करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0
इन्द्र
यह बात दूसरी है कि वह सोम पायी है, अपने अपूजकों का अपने आयुध वज्र से वध करता है, शूद्रों को अधोगति प्रदान करने वाला अथवा अपने अपूजकों को नरक प्रदान करने वाला है, फिर भी वह अपने अन्य सद्गुणों के कारण सर्वथा पूजनीय है। द्यावापृथिवी के प्राणी उसे सदा नमन करते हैं। लोग उससे यह प्रार्थना किया करते हैं कि ‘हे इन्द्र! सुन्दर पुत्र-पौत्रादि से युक्त होकर तथा तुम्हारे प्रियपात्र बने हुए हम सदा तुम्हारी प्रार्थना में तत्पर रहें।’
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इन्द्र
इन्द्र और वृत्र के युद्ध को आरम्भ से ही सांकेतिक माना गया है। यास्ककृत निरुक्त में कहा गया है कि 'वृत्र' निरुक्तकारों के अनुसार 'मेघ' है। ऐतिहासिकों के अनुसार त्वष्टा का पुत्र असुर है (इसी मत का विकसित रूप महाभारत और भागवत महापुराण में वर्णित वृत्र-वध आख्यान है।) और ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार वह 'अहि' (सर्प) समान है जिसने अपने शरीर-विस्तार से जल-प्रवाह को रोक लिया था और इन्द्र के द्वारा विदीर्ण किये जाने पर अवरुद्ध जल प्रवाहित हुआ।
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इन्द्र
निरुक्तकार के मतानुसार वृत्र अन्धकारपूर्ण, आवरण करने वाला है। जल और प्रकाश (विद्युत) का मिश्रण होने से वर्षा होती है ; ऐसा होना रूपक के रूप में युद्ध का वर्णन है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0
इन्द्र
लोकमान्य तिलक के अनुसार इन्द्र सूर्य का प्रतीक है तथा वृत्र हिम का। यह उत्तरी ध्रुव में शीतकाल में हिम जमने और वसंतकालीन सूर्य द्वारा पिघलाने पर नदियों के प्रवाहित होने का प्रतीक है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0
इन्द्र
हिलेब्राण्ट के मत से भी वृत्र हिमानी का प्रतीक है। परन्तु अधिकांश पश्चिमी विद्वान् भी निरुक्त के पूर्वोक्त मत से सहमत हैं और ये लोग मानते हैं कि इन्द्र वृष्टि लाने वाला तूफान का देवता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0
इन्द्र
ऋग्वेद में इन्द्र का नाम सात देव-युग्मों में भी आता है। ऐसे युग्मों में 11 सूक्त इन्द्र-अग्नि के लिए हैं, 9 सूक्त इन्द्र-वरुण के लिए, 7 इन्द्र-वायु के लिए, 2 इन्द्र-सोम, 2 इन्द्र-बृहस्पति, 1 इन्द्र-विष्णु और 1 सूक्त इन्द्र-पूषण के लिए हैं।
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