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20231101.hi_25444_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE
चना
यह कीट चने की फसल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। इससे बचाव के लिए 125 मि.ली. साइपरमैथ्रीन (25 ई. सी.) या 1000 मि.ली. कार्बारिल (50 डब्ल्यू.पी.) को 300-400 लीटर पानी में घोल बनाकर उस समय छिड़काव करें जब कीड़ा दिखाई देने लगे। यदि जरूरी हो तो 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करें।
0.5
4,729.512535
20231101.hi_221059_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
सैनी () उत्तर भारत की एक जाति है जो पारम्परिक रूप से कृषि से जुड़े हुये हैं। वो अपने आप को शूरसेन के साथ पुरूवास के वंशज मानते हैं। भारतीय राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश एवं भारत सरकार के अधिनस्थ सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में सैनी समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग (अपिवा) में रखा गया है।
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
हालांकि सैनी की एक बड़ी संख्या सनातन धर्म को मानती है, उनकी धार्मिक प्रथाओं को वैदिक और सिक्ख परंपराओं के विस्तृत परिधि में वर्णित किया जा सकता है।
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
पंद्रहवीं सदी में सिख धर्म के उदय के साथ कई सैनियों ने सिख धर्म को अपना लिया। इसलिए, आज पंजाब में सिक्ख सैनियों की एक बड़ी आबादी है। हिन्दू सैनी और सिख सैनियों के बीच की सीमा रेखा काफी धुंधली है क्योंकि वे आसानी से आपस में अंतर-विवाह करते हैं। एक बड़े परिवार के भीतर हिंदुओं और सिखों, दोनों को पाया जा सकता है।
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
1881 की जनगणना में केवल 10% सैनियों को सिखों के रूप में निर्वाचित किया गया था, लेकिन 1931 की जनगणना में सिख सैनियों की संख्या 57% से अधिक पहुंच गई। यह गौर किया जाना चाहिए कि ऐसा ही जनसांख्यिकीय बदलाव पंजाब के अन्य ग्रामीण समुदायों में पाया गया है जैसे कि जाट, महंत, कम्बोह आदि। सिक्ख धर्म की ओर 1901-पश्चात के जनसांख्यिकीय बदलाव के लिए जिन कारणों को आम तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाता है उनकी व्याख्या निम्नलिखित है:
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
ब्रिटिश द्वारा सेना में भर्ती के लिए सिखों को हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में अधिक पसंद किया जाता था। ये सभी ग्रामीण समुदाय जीवन यापन के लिए कृषि के अलावा सेना की नौकरियों पर निर्भर करते थे। नतीजतन, इन समुदायों से पंजाबी हिंदुओं की बड़ी संख्या खुद को सिख के रूप में बदलने लगी ताकि सेना की भर्ती में अधिमान्य उपचार प्राप्त हो। क्योंकि सिख और पंजाबी हिन्दुओं के रिवाज, विश्वास और ऐतिहासिक दृष्टिकोण ज्यादातर समान थे या निकट रूप से संबंधित थे, इस परिवर्तन ने किसी भी सामाजिक चुनौती को उत्पन्न नहीं किया;
1
4,727.698907
20231101.hi_221059_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
सिख धर्म के अन्दर 20वीं शताब्दी के आरम्भ में सुधार आंदोलनों ने विवाह प्रथाओं को सरलीकृत किया जिससे फसल खराब हो जाने के अलावा ग्रामीण ऋणग्रस्तता का एक प्रमुख कारक समाप्त होने लगा। इस कारण से खेती की पृष्ठभूमि वाले कई ग्रामीण हिन्दू भी इस व्यापक समस्या की एक प्रतिक्रिया स्वरूप सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित होने लगे। 1900 का पंजाब भूमि विभाजन अधिनियम को भी औपनिवेशिक सरकार द्वारा इसी उद्देश्य से बनाया गया था ताकि उधारदाताओं द्वारा जो आम तौर पर बनिया और खत्री पृष्ठभूमि होते थे इन ग्रामीण समुदायों की ज़मीन के समायोजन को रोका जा सके, क्योंकि यह समुदाय भारतीय सेना की रीढ़ की हड्डी था;
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
1881 की जनगणना के बाद सिंह सभा और आर्य समाज आन्दोलन के बीच शास्त्रार्थ सम्बन्धी विवाद के कारण हिंदू और सिख पहचान का आम ध्रुवीकरण. 1881 से पहले, सिखों के बीच अलगाववादी चेतना बहुत मजबूत नहीं थी या अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं थी। 1881 की जनगणना के अनुसार पंजाब की जनसंख्या का केवल 13% सिख के रूप में निर्वाचित हुआ और सिख पृष्ठभूमि के कई समूहों ने खुद को हिंदू बना लिया।
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
ऐसी स्थिति में विवाह नहीं हो सकता अगर लड़के की ओर से चार में से एक भी गोत्र लड़की के पक्ष के चार गोत्र से मिलता हो। दोनों पक्षों से ये चार गोत्र होते हैं:
0.5
4,727.698907
20231101.hi_221059_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80
सैनी
दोनों पक्षों में उपरोक्त किसी भी गोत्र के एक ना होने पर भी अगर दोनों ही परिवारों का गांव एक हो, इस स्थिति में भी लड़के और लड़की को एक दूसरे को पारस्परिक रूप से भाई-बहन समझा जाता है और विवाह नही होता है।
0.5
4,727.698907
20231101.hi_32366_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
इस प्रकार अपभ्रंश के शब्दकोश का अधिकांश प्राकृत से गृहित है ( यहाँ तक कि नब्बे प्रतिशत) और व्याकरणिक गठन प्राकृतिक रूपों से अधिक विकसित तथा आधुनिक भाषाओं के निकट है। प्राचीन व्याकरणों के अपभ्रंश संबंधी विचारों के क्रमबद्ध अध्ययन से पता चलता है कि छह सौ वर्षों में अपभ्रंश का क्रमशः विकास हुआ। भरत (तीसरी शती) ने इसे शाबर, आभीर, गुर्जर आदि की भाषा बताया है। चंड (छठी शती) ने 'प्राकृतलक्षणम' में इसे विभाषा कहा है और उसी के आसपास बलभी के राज ध्रुवसेन द्वितीय ने एक ताम्रपट्ट में अपने पिता का गुणगान करते हुए उनहें संस्कृत और प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश प्रबंधरचना में निपुण बताया है। अपभ्रंश के काव्यसमर्थ भाषा होने की पुष्टि भामह और दंडी जैसे आचार्यों द्वारा आगे चलकर सातवीं शती में हो गई। काव्यमीमांसाकार राजशेखर (दसवीं शती) ने अपभ्रंश कवियों को राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान देकर अपभ्रंश के राजसम्मान की ओर संकेत किया तो टीकाकार पुरुषोत्तम (११वीं शती) ने इसे शिष्टवर्ग की भाषा बतलाया। इसी समय आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश का विस्तृत और सोदाहरण व्याकरण लिखकर अपभ्रंश भाषा के गौरवपूर्ण पद की प्रतिष्ठा कर दी। इस प्रकार जो भाषा तीसरी सदी में आभीर आदि जातियों की लोकबोली थी वह छठी शती से साहित्यिक भाषा बन गई और ११वीं शती तक जाते-जाते शिष्टवर्ग की भाषा तथा राजभाषा हो गई।
0.5
4,706.199815
20231101.hi_32366_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
अपभ्रंश के क्रमशः भौगोलिक विस्तारसूचक उल्लेख भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। भरत के समय (तीसरी शती) तक यह पश्चिमोत्तर भारत की बोली थी, परन्तु राजशेखर के समय (दसवीं शती) तक पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात् समूचे पश्चिमी भारत की भाषा हो गई। साथ ही स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि उस समय यह समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा हो गई थी।
0.5
4,706.199815
20231101.hi_32366_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
वैयाकरणों ने अपभ्रंश के भेदों की भी चर्चा की है। मार्कंडेय (१७वीं शती) के अनुसार इसके नागर, उपनागर और ब्राचड तीन भेद थे और नमिसाधु (११वीं शती) के अनुसार उपनागर, आभीर और ग्राम्य। इन नामों से किसी प्रकार के क्षेत्रीय भेद का पता नहीं चलता। विद्वानों ने आभीरों को व्रात्य कहा है, इस प्रकार 'ब्राचड' का संबंध 'व्रात्य' से माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में आभीरी और ब्राचड एक ही बोली के दो नाम हुए। क्रमदीश्वर (१३वीं शती) ने नागर अपभ्रंश और शसक छंद का संबंध स्थापित किया है। शसक छंदों की रचना प्रायः पश्चिमी प्रदेशों में ही हुई है। इस प्रकार अपभ्रंश के सभी भेदोपभेद पश्चिमी भारत से ही संबद्ध दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः साहित्यिक अपभ्रंश अपने परिनिष्ठित रूप में पश्चिमी भारत की ही भाषा थी, परंतु अन्य प्रदेशों में प्रसार के साथ-साथ उसमें स्वभावतः क्षेत्रीय विशेषताएँ भी जुड़ गईं। प्राप्त रचनाओं के आधार पर विद्वानों ने पूर्वी और दक्षिणी दो अन्य क्षेत्रीय अपभ्रंशों के प्रचलन का अनुमान लगाया है।
0.5
4,706.199815
20231101.hi_32366_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण हेमचंद्र के सिद्धहेमशबदानुशासनम् के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्त्त्तियो के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशतः अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह ('क्त', 'क्व', 'द्व') आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी 'क्त', 'क्क', 'द्द' आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमशः समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में 'एण' की जगह 'एं' और षष्ठी एकवचन में 'स्स' के स्थान पर 'ह'। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ, मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की।
0.5
4,706.199815
20231101.hi_32366_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार जैन थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नवीं शती) हैं जिन्होंने राम की कथा को लेकर 'पउम-चरिउ' तथा 'महाभारत' की रचना की है। दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित 'महापुराण' नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने 'णायकुमारचरिउ' और 'जसहरचरिउ' जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है। तीसरे लोकप्रिय कवि धनपाल (दसवीं शती) हैं जिनकी 'भविस्सयत्त कहा' श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है। कनकामर मुनि (११वीं शती) का 'करकंडुचरिउ' भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।
1
4,706.199815
20231101.hi_32366_10
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अपभ्रंश
अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद दोहा है। जिस प्रकार प्राकृत को 'गाथा' के कारण 'गाहाबंध' कहा जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश को 'दोहाबंध'। फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं, जो इंदु (आठवीं शती) का 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार', रामसिंह (दसवीं शती) का 'पाहुड दोहा', देवसेन (दसवीं शती) का 'सावयधम्म दोहा' आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंतः दोहा में हैं। प्रबंधचिंतामणि तथा हेमचंद्ररचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि शृंगार और शौर्य के ऐहिक मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो 'उपदेश रसायन रास' की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु अद्दहमाण (१३वीं शती) के संदेशरासक की तरह शृंगार के सरस रोमांस काव्य भी लिखे गए हैं।
0.5
4,706.199815
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्त्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं।
0.5
4,706.199815
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।
0.5
4,706.199815
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
अपभ्रंश
डॉ भोलानाथ तिवारी ने अपभ्रंश के निम्नलिखित सात भेद माने हैं और उससे निर्गत आधुनिक भाषाओं को इस प्रकार दिखाया है-
0.5
4,706.199815
20231101.hi_400845_23
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
आजकल अब कांच बनाने का सारा काम मशीनों से होता है। उच्च ताप पर कांच की श्यानता इतनी कम होती है कि उसको हवा भरके किसी आकार में ढाला जा सके, पर ये इतना तरल भी नहीं होता कि पानी की तरह बह जाये। इस प्रक्रिया को ग्लास ब्लोइंग कहते हैं और इससे तरह तरह के आकार बनाये जा सकते हैं।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_24
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
द्रव काच ही वास्तविक काच है; केवल द्रव काच के विद्युत्‌ और प्रकाशीय गुण सब दशाओं में एक से होते हैं। द्रव काच को ठंडा करने पर उसमें श्यानता (Viscosity) बढ़ती है और धीरे-धीरे बिना काचीय गुणों का साधारण ठोस काच बन जाता है।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_25
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
काच बनाने के लिए उपयोग के अनुसार कई प्रकार के कच्चे माल विभिन्न मात्राओं में मिलाकर, ऊँचे ताप पर द्रवित किए जाते हैं। द्रवित काच को सिलिकेटों तथा बोरेटों का पारस्परिक विलयन कहा जा सकता है। इस विलयन में ताप के अनुसार बहुत कुछ अवयव आक्साइडों में विमुक्त हो जाते हैं। विलयन में वे अतिरिक्त आक्साइड भी होते हैं, जो रासायनिक योगिकों के निर्माण की आवश्कताओं से अधिक मात्रा में होते हैं।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_26
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
काच को 'अधिशीतलित' (Under-cooled) द्रव भी कहा जा सकता है, क्योंकि द्रव अवस्था से ठोस अवस्था में काच का परिवर्तन क्रमश: होता है और ठोस काच में उसकी द्रवास्था के सभी भौतिक गुण, जैसे ऊष्माचालकता इत्यादि, होते हैं।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_27
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
काच निर्माण के लिए मुख्य पदार्थ सिलिका (Si O2) है और यह प्रकृति में मुक्त अवस्था एवं सिलिकेट यौगिकों के रूप में पाया जाता है। प्रकृति में सिलिका अधिकतर क्वार्ट्‌ज़ के रूप में पाया जाता है। इसका विशुद्ध रूप बिल्लौर पत्थर है। काच निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त सामग्री बालू, बालुका प्रस्तर और क्वार्ट्‌ज़ाइट (Quratzite) चट्टानें हैं। यदि पाने की सुविधा, प्राप्य मात्रा और ढुलाई बराबर हो तो बालू ही सबसे उपयुक्त पदार्थ है। काच निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त वही बालू है जिसमें सिलिका की मात्रा कम से कम 99 प्रतिशत हो और फ़ेरिक आक्साइड (Fe2O3) के रूप में लोहा 0.1 प्रतिशत से कम हो। बालू के कण भी 0.5-0.25 मिलीमीटर के व्यास के हों। अच्छे काच निर्माण के लिए बालू को जल द्वारा धो भी लिया जाता है। इलाहाबाद में शंकरगढ़ और वरगढ़ के बालू के निक्षेप काच निर्माण के लिए अति उत्तम हैं और उत्तर प्रदेश सरकार ने वहाँ पर बालू धोने के कुछ यंत्र भी लगा दिए हैं।
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4,702.542902
20231101.hi_400845_28
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
साधारण काच निर्माण के लिए कुछ क्षारीय पदार्थ जैसे सोडा ऐश (Sodium carbonate) का होना भी अति आवश्यक है। इस मिश्रण से द्रवणंक कम और द्रवण क्रिया सरल हो जाती है। केवल इन दो पदार्थों के द्रवण से जो काच बनता है वह जल काच (Water glass) के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि यह जल विलेय है। काच को स्थायी बनाने के लिए कोई द्विसमाक्षारीय (dibasic) आक्साइड जैसे कैल्सियम आक्साइड (चूना) या सीस आक्साइड को भी मिलाना पड़ता है। रासायनिक नियम के अनुसार, जितने ही अधिक पदार्थ मिलाए जाते हैं द्रवणंक भी उतना ही कम हो जाता है। प्रत्येक पदार्थ काच में कुछ विशेष गुण उत्पन्न करता है और इन गुणों को ही ध्यान में रखते हुए काच के मिश्रण बनाए जाते हैं।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_29
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
कैसियम आक्साइड काच को रासायनिक स्थायित्व प्रदान करता है, पर अधिक मात्रा में होने पर काच में विकाचण (devitrification) होने की प्रवृत्ति आ जाती है। साधारण काच बालू, सोडा और चूना के मिश्रण से बनाया जाता है।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_30
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
कैल्सियम आक्साइड के लिए काच मिश्रण में चूना या चूना-पत्थर मिलाया जाता है। बोरिक अम्ल या सुहागा से काच में विशेष भौतिक गुण उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे न्यून प्रसार-गुणांक और अधिक तनाव सहनशीलता, तापीय सहन शक्ति एवं अधिक जल-प्रतिरोधकता। इन गुणों के कारण तापमापी नली, लालटेन की चिमनी और भोजन पकाने के पात्र आदि आकस्मिक ताप परिवर्तन सहनेवाली वस्तुओं का निर्माण करने में, बोरिक आक्साइड की मात्रा अधिक से अधिक और क्षार की मात्रा कम से कम रखी जाती है।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_400845_31
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A
कांच
सोडियम कोर्बोनेट के स्थान में अन्य क्षार जैसे पोटैशियम कार्बेनेट का भी उपयोग विशेष काचों में किया जाता है। बहुधा क्षार, सल्फ़ेट लवण के रूप में प्रयुक्त होता है।
0.5
4,702.542902
20231101.hi_33381_15
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%B0
राजगीर
राजा बिम्बिसार ने एक स्थान चुना, जहां से वे भगवान बुद्ध को देख सकें। इसके बावजूद वह गृधाकुट और बुद्ध को खिड़की से देख सकते थे।
0.5
4,683.772025
20231101.hi_33381_16
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%B0
राजगीर
कुछ सूत्रों के अनुसार प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन इसी स्थान पर हुआ था। यहाँ गरम जल का एक स्रोत है जिसमें स्नान करने से स्वास्थ्य लाभ होता है। यह हिन्दुओं के लिये पवित्र कुण्ड है।
0.5
4,683.772025
20231101.hi_33381_17
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राजगीर
सप्तपर्णी गुफा के स्थल पर पहला बौध परिषत का गठन हुआ था जिसका नेतृत्व महा कस्साप ने किया था। बुद्ध भी कभी-कभार वहाँ रहे थे, और यह अतिथि संयासियों के ठहरने के काम में आता था।
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राजगीर
“मनियार मठ" इस मठ के पास कुछ प्राचीन गुफाएं हैं जिनके बारे में लोगों की मान्यता है इनमें प्राचीन भारत का स्वर्ण भंडार है। मनियार मठ राजगीर का एक और खुदाई स्थल है। यह एक अष्टकोणी मंदिर है, जिसकी दीवारें गोलाकार हैं। मनियार मठ के परिसर में आप विविध राजकुलों की छाप देख सकते हैं, जैसे गुप्त राजकुल का धनुष,आज पुराने राजगीर के बीचोबीच स्थित है। और यह महाभारत में उल्लिखित मणि-नाग का समाधि स्थान माना जाता है।
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राजगीर
राजगीर की पहचान मेलों के नगर के रूप में भी है। इनमें सबसे प्रसिद्ध मकर और मलमास मेले के हैं। शास्त्रों में मलमास तेरहवें मास के रूप में वर्णित है। सनातन मत की ज्योतिषीय गणना के अनुसार तीन वर्ष में एक वर्ष 366 दिन का होता है। धार्मिक मान्यता है कि इस अतिरिक्त एक महीने को मलमास या अतिरिक्त मास कहा जाता है।
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राजगीर
ऐतरेय बह्मण के अनुसार यह मास अपवित्र माना गया है और अग्नि पुराण के अनुसार इस अवधि में मूर्ति पूजा–प्रतिष्ठा, यज्ञदान, व्रत, वेदपाठ, उपनयन, नामकरण आदि वर्जित है। लेकिन इस अवधि में राजगीर सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। अग्नि पुराण एवं वायु पुराण आदि के अनुसार इस मलमास अवधि में सभी देवी देवता यहां आकर वास करते हैं। राजगीर के मुख्य ब्रह्मकुंड के बारे में पौराणिक मान्यता है कि इसे ब्रह्माजी ने प्रकट किया था और मलमास में इस कुंड में स्नान का विशेष फल है।
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राजगीर
राजगीर के मलमास मेले को नालंदा ही नहीं बल्कि आसपास के जिलों में आयोजित मेलों में सबसे बड़ा कहा जा सकता है। इस मेले का लोग पूरे साल इंतजार करते हैं। कुछ साल पहले तक यह मेला ठेठ देहाती हुआ करता था पर अब मेले में तीर्थयात्रियों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के झूले, सर्कस, आदि भी लगे होते हैं। युवाओं की सबसे ज्यादा भीड़ थियेटर में होती है जहां नर्तकियाँ अपनी मनमोहक अदाओं से दर्शकों का मनोरंजन करती हैं।
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राजगीर
बुद्ध के समय प्रसिद्ध वैध जीवक राजगीर से थे। उन्होंने बुद्ध के नाम एक आश्रम समर्पित किया जिसे कहा जाता है। जीवक ही वे वैध थे जिन्होंने बुद्ध के बीमार होने पर उनका इलाज वेणु वन में किया था। जहां बुद्ध स्नान करते थे वो तालाब आज भी वेणु वन में मौजूद है।
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राजगीर
तपोधर्म आश्रम गर्म चश्मों के स्थान पर स्थित है। आज वहाँ एक हिन्दू मन्दिर का निर्माण किया किया गया है जिसे लक्ष्मी नारायण मन्दिर का नाम दिया गया है। पूर्वकाल में तपोधर्म के स्थल पर एक बौध आश्रम और गर्म चश्मे थे। राजा बिम्बिसार यहाँ पर कभी-कभार स्नान किया करते ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
जरीब () लम्बाई नापने की एक इकाई है, साथ ही जिस जंजीर से यह दूरी नापी जाती है उसे भी जरीब कहते हैं। एक जरीब की मानक लम्बाई 66 फीट अथवा 22 गज अथवा 4 लट्ठे (Rods) होती है। जरीब में कुल 100 कड़ियाँ होती हैं, इस प्रकार प्रत्येक कड़ी की लम्बाई 0.6 फ़ुट या 7.92 इंच होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
जरीब, लोहे की कड़ियों की बनी होती है और इसके दोनों सिरों पर पीतल के हैंडल बने होते हैं। इसके अलावा मिट्रिक चैन मे सर्वेक्षक की सुविधा के लिए टैली का उपयोग भी किया जाता है जो पीतल की बनी होती है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
भारत में इसका प्रयोग कब से शुरू हुआ स्पष्ट नहीं पता। आम तौर पर इसके आविष्कार का श्रेय राजा टोडरमल (अकबर के दीवान) को दिया जाता है जिन्होंने 1570 ईसवी के बाद भूमापन के क्षेत्र में कई सुधार किये। इससे पूर्व शेरशाह के ज़माने में जमीन नापने के लिए जो जरीब प्रयोग में लाई जाती थी वो रस्सी की बनी होती थी और इससे माप में काफी त्रुटियाँ आती थीं। टोडरमल ने इसकी जगह बाँस के डंडों की बनी कड़ियों (जो आपस में लोहे की पत्तियों से जुड़ी होती थीं) की बनी जरीब का प्रयोग शुरू किया जिसे वर्तमान अर्थों में पहली जरीब (जंजीर या चेन) कहा जा सकता है। इस जरीब की लम्बाई 60 इलाही गज होती थी और 3600 इलाही गज (1 ×1 जरीब का रक़बा) एक बीघा कहलाया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
दक्कन में शिवाजी ने रस्सी के माप की जगह, काठी (डंडा या लट्ठा) द्वारा माप की पद्धति अपनाया था और मलिक अम्बर ने पहली बार जरीब (बांस वाली जंजीर) का प्रयोग शुरू करवाया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
66 फ़ीट लम्बाई वाली आम जरीब, जिसे गुण्टर्स जरीब भी कहते हैं, के आलावा अन्य कई प्रकार की जरीबें भी विविध कार्यों अनुसार प्रयोग में लाई जाती हैं। इस तरह जरीब के निम्नलिखित प्रकार हैं:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
गुंटर्स जरीब (सर्वेक्षकों की जरीब) - 66 फ़ीट लम्बाई वाली जरीब, मुख्यतः सर्वेक्षण और रकबा नापने के काम आती है। एक जरीब चौड़ा और 10 जरीब लम्बा खेत 1 एकड़ होता है।
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जरीब
रैम्स्डेन जरीब या इंजीनियर्स जरीब - 100 फ़ीट लम्बाई वाली, प्रत्येक कड़ी 1 फ़ुट की; हर दस कड़ी के बाद एक फूल का टैग लगा होता है जिस पर दहाइयों का उल्लेख होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
मीटरी जरीब - 5, 10, 20 तथा 30 मीटर लम्बाई में उपलब्ध; प्रत्येक मीटर पर फूल का टैग और बीस और तीस मीटर की जरीबों में प्रत्येक पाँच मीटर पर गोल छल्ला लटका रहता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC
जरीब
165 फ़ीट लम्बी (55 गज लम्बी) - इससे नापा गया एक वर्ग जरीब क्षेत्रफल (1 ×1 जरीब का रक़बा) एक बीघे या 20 बिस्से/बिस्वे के बाराबर होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE
कांशीराम
कांशीराम (15 मार्च 1934 – 9 अक्टूबर 2006) भारतीय राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे। उन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था में बहुजनों के राजनीतिक एकीकरण तथा उत्थान के लिए कार्य किया। इसके अन्त में उन्होंने दलित शोषित संघर्ष समिति (डीएसएसएसएस), 1971 में अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदायों कर्मचारी महासंघ (बामसेफ) और 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की।
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कांशीराम
कांशीराम साहब ने सरकार की सकारात्मक कार्रवाई की योजना के तहत पुणे में विस्फोटक अनुसंधान और विकास प्रयोगशाला को था जब उन्होंने पहली बार जातिगत भेदभाव का अनुभव किया. [कैसे?] उन्होंने ऑफिस में देखा कि जो कर्मचारी डॉक्टर आंबेडकर का जन्मदिन मनाने के लिए छुट्टी लेते थे उनके साथ ऑफिस में भेदभाव किया जाता था. वे इस जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने के लिए 1964 एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे. उनके करीबी लोगों के अनुसार उन्होंने यह निर्णय डॉक्टर आंबेडकर की किताब "एनीहिलेशन ऑफ कास्ट" को पढ़कर लिया था. कांशीराम को  बी. आर. अम्बेडकर और उनके दर्शन ने काफी पभावित किया था.
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कांशीराम
कांशीराम साहब ने शुरू में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) का समर्थन किया था लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़े रहने के कारण उनका भंग हो गया था. इसक कारण उन्होंने 1971 में अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की जो कि बाद में चलकर 1978 में BAMCEF बन गया था.  BAMCEF एक ऐसा संगठन था जिसका उद्देश्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य वर्गों और अल्पसंख्यकों के शिक्षित सदस्यों को अम्बेडकरवादी सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए राजी करना था.  BAMCEF न तो एक राजनीतिक और न ही एक धार्मिक संस्था थी और इसका अपने उद्देश्य के लिए आंदोलन करने का भी कोई उद्देश्य नहीं था। सूर्यकांत वाघमोर कहते हैं, इस संगठन ने दलित समाज के उस संपन्न तबके को इकठ्ठा करने का काम किया जो कि ज्यादातर शहरी क्षेत्रों, छोटे शहरों में रहता था और सरकारी नैकारियों में काम करता तह साथ ही अपने अपने अछूत भाई बहनों से भी किसी तरह के संपर्क में नहीं था.
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कांशीराम
इसके बाद कांशीराम साहब ने 1981 में एक और सामाजिक संगठन बनाया, जिसे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएसएसएस,DSSS या DS4) के नाम से जाना जाता है. उन्होंने दलित वोट को इकठ्ठा करने की अपनी कोशिश शुरू की और 1984 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की. उन्होंने अपना पहला चुनाव 1984 में छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से लड़ा था, बीएसपी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली, शुरू में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच विभाजन को पाटने के लिए संघर्ष किया,लेकिन बाद में मायावती के नेतृत्व में इस खाई को पाटा गया....
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कांशीराम
सन 1982 में उन्होंने अपनी पुस्तक 'द चमचा युग' लिखी, जिसमें उन्होंने जगजीवन राम और रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेताओं का वर्णन करने के लिए "चमचा" शब्द का इस्तेमाल किया था. उन्होंने तर्क दिया कि दलितों को अन्य दलों के साथ काम करके अपनी विचारधारा से समझौता करने के बजाय अपने स्वयं समाज के विकास को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक रूप से काम करना चाहिए....
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कांशीराम
बीएसपी के गठन के बाद, कांशीराम ने कहा कि उनकी 'बहुजन समाज पार्टी' पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा चुनाव नजर में आने ले लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ेगी,1988 में उन्होंने भावी प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह के खिलाफ इलाहाबाद सीट से चुनाव लड़ा और प्रभावशाली प्रदर्शन किया, लेकिन 70,000 वोटों से हार गए।....
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कांशीराम
वह 1989 में पूर्वी दिल्ली (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से लोक सभा चुनाव लडे और चौथे स्थान पर रहे. सन 1991 में, कांशीराम और मुलायम सिंह ने गठबंधन किया और कांशीराम ने इटावा से चुनाव लड़ने का फैसला किया, कांशीराम ने अपने निकटतम भाजपा प्रतिद्वंद्वी को 20,000 मतों से हराया और पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया. इसके बाद कांशीराम ने 1996 में होशियारपुर से 11वीं लोकसभा का चुनाव जीता और दूसरी बार लोकसभा पहुंचे. अपने ख़राब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने 2001 में सार्वजनिक रूप से मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था.
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कांशीराम
सन 2002 में, कांशीराम जी ने 14 अक्टूबर 2006 को डॉक्टर अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन की 50 वीं वर्षगांठ के मौके पर बौद्ध धर्म ग्रहण करने की अपनी मंशा की घोषणा की थी. कांशीराम जी की मंशा थी कि उनके साथ उनके 5 करोड़ समर्थक भी इसी समय धर्म परिवर्तन करें. उनकी धर्म परिवर्तन की इस योजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह थी कि उनके समर्थकों को केवल अछूत ही शामिल नहीं थे बल्कि विभिन्न जातियों के लोग भी शामिल थे, जो भारत में बौद्ध धर्म के समर्थन को व्यापक रूप से बढ़ा सकते थे. हालांकि, 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हो गया और उनकी बौद्ध धर्म ग्रहण करने की मंशा अधूरी रह गयी.
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कांशीराम
मायावती ने कहा कि उन्होंने और कांशीराम साहब ने तय किया था कि हम बौद्ध धर्म तभी ग्रहण करेंगे जब केंद्र में 'पूर्ण बहुमत' की सरकार बनायेंगे. हम ऐसा इसलिए करना चाहते थे क्योंकि हम धर्म बदलकर देश में धार्मिक बदलाव तभी ला सकते थे जब जब हमारे हाथ में सत्ता हो और हमारे साथ करोड़ों लोग एक साथ धर्म बदलें . यदि हम बिना सत्ता पर कब्ज़ा किये धर्म बदल लेंगे तो हमारे साथ कोई नहीं खड़ा होगा और केवल 'हम दोनों' का ही धर्म बदलेगा हमारे लोगों का नहीं, इससे समाज में किसी तरह के धार्मिक क्रांति की लहर नहीं उठेगी.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
नीतिशास्त्र
नीतिशास्त्र का मूल प्रश्न क्या है, इस संबंध में दो महत्वपर्ण मत पाए जाते हैं। एक मंतव्य के अनुसार नीतिशास्त्र की प्रधान समस्या यह बतलाना है कि मानव जीवन का परम श्रेय (समम बोनम) क्या है। परम श्रेय का बोध हो जाने पर हम शुभ कर्म उन्हें कहेंगे जो उस श्रेय की ओर ले जानेवाले हैं; विपरीत कर्मों को अशुभ कहा जाएगा। दूसरे मंतव्य के अनुसार नीतिशास्त्र का प्रधान कार्य शुभ या धर्मसंमत (राइट) की धारणा को स्पष्ट करना है। दूसरे शब्दों में, नीतिशास्त्र का कार्य उस नियम या नियमसमूह का स्वरूप स्पष्ट करना है जिस या जिनके अनुसार अनुष्ठित कर्म शुभ अथवा धार्मिक होते हैं। ए दो मंतव्य दो भिन्न कोटियों की विचारपद्धतियों को जन्म देते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
नीतिशास्त्र
परम श्रेय की कल्पना अनेक प्रकार से की गई है; इन कल्पनाओं अथवा सिद्धांतों का वर्णन हम आगे करेंगे। यहाँ हम संक्षेप में यह विमर्श करेंगे कि नैतिकता के नियम-यदि वैसे कोई नियम होते हैं तो-किस कोटि के हो सकते हैं। नियम या कानून की धारणा या तो राज्य के दंडविधान से आती है या भौतिक विज्ञानों से, जहाँ प्रकृति के नियमों का उल्लेख किया जाता है। राज्य के कानून एक प्रकार के शासकों की न्यूनाधिक नियंत्रित इच्छा द्वारा निर्मित होते हैं। वे कभी-कभी कुछ वर्गों के हित के लिए बनाए जाते हैं, उन्हें तोड़ा भी जा सकता है और उनके पालन से भी कुछ लोगों को हानि हो सकती है। इसके विपरीत प्रकृति के नियम अखंडनीय होते हैं। राज्य के नियम बदले जा सकते हैं, किंतु प्रकृति के नियम अपरिवर्तनीय हैं। नीति या सदाचार के नियम अपरिवर्तनीय, पालनकर्ता के लिए कल्याणकर एवं अखंडनीय समझे जाते हैं। इन दृष्टियों से नीतिशास्त्र के नियम स्वास्थ्यविज्ञान के नियमों के पूर्णतया समान होते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मनुष्य अथवा मानव प्रकृति दो भिन्न कोटियों के नियमों के नियंत्रण में व्यापृत होती है। एक ओर तो मनुष्य उन कानूनों का वशवर्ती है जिनका उद्घाटन या निरूपण भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, प्राणिशास्त्र, मनोविज्ञान आदि तथ्यान्वेषी (पाज़िटिव) शास्त्रों में होता है और दूसरी ओर स्वास्थ्यविज्ञान, तर्कशास्त्र आदि आदर्शान्वेषी विज्ञानों के नियमों का, जिनसे वह बाध्य तो नहीं होता, पर जिनका पालन उसके सुख तथा उन्नति के लिए आवश्यक है। नीतिशास्त्र के नियम इस दूसरी कोटि के होते हैं।
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4,637.925752
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
नीतिशास्त्र
परम श्रेय के बारे में पूर्व और पश्चिम में अनेक कल्पनाएँ की गई हैं। भारत में प्राय: सभी दर्शन यह मानते हैं कि जीवन का चरम लक्ष्य सुख है, किंतु उनमें से अधिकांश की सुख संबंधी धारणा तथाकथित सौख्यवाद (हेडॉसिनज्म) से नितांत भिन्न है। इस दूसरे या प्रचलित अर्थ में हम केवल चार्वाक दर्शन को सौख्यवादी कह सकते हैं। चार्वाक के नैतिक मंतव्यों का कोई व्यवस्थित वर्णन उपलब्ध नहीं है, किंतु यह समझा जाता है कि उसके सौख्यवाद में स्थूल ऐंद्रिय सुख को ही महत्व दिया गया है। भारत के दूसरे दर्शन जिस आत्यंतिक सुख को जीवन का लक्ष्य कहते हैं उसे अपवर्ग, मुक्ति या मोक्ष अथवा निर्वाण से समीकृत किया गया है। न्याय तथा सांख्य दर्शनों में अपवर्ग या मुक्ति की कल्पना की गई है, उसे भावात्मक सुखरूप नहीं कहा जा सकता किंतु उपनिषदों तथा वेदांत की मुक्तावस्था आनंदरूप कही जा सकती है। वेदांत की मुक्ति तथा बौद्धों का निर्वाण, दोनों ही उस स्थिति के द्योतक हैं जब व्यक्ति की आत्मा सुख दु:ख आदि द्वंद्वों से परे हो जाती है। यह स्थिति जीवनकाल में भी आ सकती है; भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है वह एक प्रकार से जीवन्मुक्त ही कहा जा सकता है। पाश्चात्य दर्शनों में परम श्रेय के संबंध में अनेक मतवाद पाए जाते हैं :
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4,637.925752
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
नीतिशास्त्र
(1) सौख्यवादी सुख को जीवन का ध्एय घोषित करते हैं। सौख्यवाद के दो भेद हैं-व्यक्तिपरक सौख्यवाद तथा सार्वभौम सौख्यवाद। प्रथम के अनुसार व्यक्ति के प्रयत्नों का लक्ष्य स्वयं उसका सुख है। दूसरे के अनुसार हमें सबके सुख अथवा "अधिकांश मनुष्यों के अधिकतम सुख" को लक्ष्य मानकर चलना चाहिए। कुछ विचारकों के अनुसार सुखों में सिर्फ मात्रा का भेद होता है; दूसरों के अनुसार उनमें घटिया बढ़िया का, अर्थात् गुणात्मक अंतर भी रहता है।
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नीतिशास्त्र
(2) अन्य विचारकों के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य एवं परम श्रेय पूर्णत्व है, अर्थात् मनुष्य की विभिन्न क्षमताओं का पूर्ण विकास।
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नीतिशास्त्र
(3) कुछ अध्यात्मवादी अथवा प्रत्ययवादी चिंतकों ने आत्मलाभ (सेल्फरियलाइज़ेशन) को जीवन का ध्येय माना है। उनके अनुसार आत्मलाभ का अर्थ है आत्मा के बौद्धिक एवं सामाजिक अंगों का पूर्ण विकास था उपभोग।
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नीतिशास्त्र
(4) कुछ दार्शनिकों के मत में परम श्रेय कर्तव्यरूप या धर्मरूप है; नैतिक क्रिया का लक्ष्य स्वयं नैतिकता या धर्म ही है।
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नीतिशास्त्र
(5)जीवन का मार्ग सदा अपने कर्तव्यों के निर्वहन में होना चाहिए। की मेरा क्या दायित्व हे पहले अपने परिवार के प्रति फिर अपने गाव, राज्य और देश के प्रति। मानव को समाज ने नहीं बनाया बल्कि मानव ने ही समाज का निर्माण किया हे और समाज से गांव राज्य देश का निर्माण हुआ हे
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नीतिशास्त्र
हमारे परम श्रेय अथवा शुभ-अशुभ के ज्ञान का साधन या स्रोत क्या है, इस संबंध में भी विभिन्न मतवाद हैं। अधिकांश प्रत्ययवादियों के मत में भलाई-बुराई को बोध बुद्धि द्वारा होता है। हेगेल, ब्रैडले आदि का मत यही है और कांट का मंतव्य भी इसका विरोधी नहीं है। कांट मानते हैं कि अंतत: हमारी कृत्यबुद्धि (प्रैक्टिकल रीज़न) ही नैतिक आदर्शों का स्रोत है। अनुभववादियों के अनुसार हमारे शुभ अशुभ के ज्ञान का स्रोत अनुभव ही है। यह मत नैतिक सापेक्ष्यतावाद (एथिकल रिलेटिविटिज्म) को जन्म देता है। तीसरा मत प्रतिभानवाद अथवा अपjhhvhjj ) है। इस मत के अनुसार हमारे भीतर एक ऐसी शक्ति है जो साक्षात् ढंग से शुभ अशुभ को पहचान या जान लेती है। प्रतिभानवाद के अनेक रूप हैं। शैफ़्टसबरी और हचेसन नामक ब्रिटिश दार्शनिकों का विचार था कि रूप रस आदि को ग्रहण करनेवाली इंद्रियों की ही भांति हमारे भीतर एक नैतिक इंद्रिय (मॉरल सेंस) भी होती है जो सीधे भलाई बुराई को देख लेती है। बिशप बटलर नाम के विचारक के मत में हमारे अंदर सदसद्बुद्धि (कांश्यंस) नाम की एक प्रेरक वृत्ति होती है जो स्वार्थ तथा परार्थ के बीच उठनेवाले द्वंद्व का समाधान करती हुई हमें औचित्य का मार्ग दिखलाता है। हमारे आचरण की अनेक प्रेरक वृत्तियाँ हैं; एक वृत्ति आत्मप्रेम (शेल्फ लव) है, दूसरी पर-हित-आकांक्षा (बेनीवोलेंस)। सदसद्बुद्धि का स्थान इन दोनों से ऊपर है, वह इन दोनों के ऊपर निर्णायक रूप में प्रतिष्ठित है। जर्मन विचारक कांट की गणना प्रतिभानवादियों में भी की जाती है। प्रतिभानवादी नैतिक सिद्धांतों का एक सामान्य लक्षण यह है कि वे किसी कार्य की भलाई बुराई के निर्णय के लिए उसके परिणामों पर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझते। कोई कर्म इसलिए शुभ या अशुभ नहीं बन जाता कि उसके परिणाम एक या दूसरी कोटि के हैं। या किसी कार्य के समस्त परिणामों की पूर्वकल्पना वैसी ही कठिन है जैसा कि उनपर नियंत्रण कर सकना। कर्म की अच्छाई बुराई उसकी प्रेरणा (मोटिव) से निर्धारित होती है। जिस कर्म के मूल में शुभ प्रेरणा है वह सत् कर्म है, अशुभ प्रेरणा में जन्म लेनेवाला कर्म असत् कर्म या पाप है। कांटे का कथन है कि शुभ संकल्पबुद्धि (गुडविल) एक ऐसी चीज है जो स्वयं श्रेयरूप है, जिसका श्रेयत्व निरपेक्ष एवं निश्चित है; शेष सब वस्तुओं का श्रेयत्व सापेक्ष होता है। केवल शुभ संकल्पशक्ति ही अपनी श्रेयरूप ज्योति से प्रकाशित होती है।
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दालचीनी
गरम मसालों और औषधि के रूप में प्रयुक्त दालचीनी सिन्नेमोमम ज़ाइलैनिकम ब्राइन. (Cinnamomum zeylanicum Breyn.) नामक पेड़ की छाल का नाम है जिसे अंग्रेजी में 'कैशिया बार्क' का वृक्ष कहा जाता है,। यह सदाबहार पेड़ लौरेसिई वंश की अन्य प्रमुख प्रजातियों के पेड़ों के समान श्रीलंका, भारत, पूर्वी द्वीप तथा चीन इत्यादि देशों में साधारणतया सुलभ है। इस प्रजाति की अन्य जातियों, यथा सी. ऑब्ट्यूसिफ़ोलियम नीस, भेद कैसिया पी. एवं ई. तथा भेद लौरिरी पी. एंव ई. (C. obtusifolium Nees var. cassia Perrot and Eberhardt as also var. Ioureirii P. and E.) तथा सी. तमाल नीस एवं एबर्म. (C. tamala Nees & Eberm) का भी उपयोग छाल निकालने तथा उसका सौगंधिक तेल बनाने के लिए किया जाता है। इन जातियों के पेड़ भारत में पूर्वी हिमालय के इलाकों, असम, सिक्किम तथा खासी और जैंतिया की पहाड़ियों में ९०० से लेकर २,५०० मीटर तक की ऊँचाई तक पाए जाते हैं।
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दालचीनी
गरम मसालों में दालचीनी का उपयोग भारत में हजारों वर्षों से होता आ रहा है। इसका वर्णन संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में भी प्राप्त होता है। इतिहास के अध्ययन से भी ज्ञात होता है कि भारत से इसका निर्यात अरब, मिस्र, ग्रीस, इटली और यूरोप के सभी देशों में होता था। बाइबिल में भी इसका उल्लेख है।
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दालचीनी
श्रीलंका द्वीप के दक्षिण-पश्चिम भाग में दालचीनी के पेड़ की खेती लगभग बीस किलोमीटर की दूरी तक नेगुंबो, कोलंबो और मातुरा के बीच, ४५० मीटर की ऊँचाई तक की भूमि पर की जाती है। वृक्षों का प्रसारण बीजों और कलमों से किया जाता है। उपजाऊ भूमि में लगे पेड़ों पर से दूसरे वर्ष के अंत में, वर्षा ऋतु में, प्रथम बार छाल उतारी जा सकती है। छाल उतार लेने पर पेड़ मर जाता है, परंतु उसके मुख्य तने में चार से सात तक नई शाखाएँ निकल आती हैं, जिनपर से पुन: दो वर्ष उपरांत छाल उतारी जाती है। छाल को २४ घंटों तक सुखाकर और साफ करके, हाथों से लपेटकर उनको एक मीटर लंबी, पतली नलियों के आकार में बाँधकर बेचा जाता है। दालचीनी का सुगंधित तेल भी आर्थिक महत्व का है।
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दालचीनी
दालचीनी दूरस्थ पुरातनता से ज्ञात किया गया है। यह 2000 BCE के रूप में जल्दी के रूप में मिस्र के लिए आयात किया गया था, लेकिन जो रिपोर्ट है कि यह चीन से आया था यह कैसिया के साथ भ्रमित है।
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दालचीनी
हिब्रू बाइबिल मसाले का विशेष उल्लेख कई बार करता है: पहली बार जब मूसा दोनों मिठाई (हिब्रू: קִנָּמוֹן qinnāmôn) दालचीनी का उपयोग करने की आज्ञा है और पवित्र अभिषेक तेल में कैसिया, नीतिवचन जहां प्रेमी बिस्तर लोहबान के साथ सुगंधित किया जाता है में, एक दस्तावर औषधि और दालचीनी और सुलैमान के गीत, एक गीत अपनी प्रेयसी, दालचीनी scents के सौंदर्य का वर्णन में लेबनान की गंध की तरह उसके कपड़ों दालचीनी Ketoret जो जब जिक्र करने के लिए प्रयोग किया जाता है के एक घटक था। पवित्रा धूप हिब्रू बाइबल और तल्मूड में वर्णित है। यह समय जब निवास प्रथम और द्वितीय यरूशलेम मंदिर में स्थित था में विशेष धूप की वेदी पर भेंट की थी। Ketoret यरूशलेम में मंदिर सेवा के एक महत्वपूर्ण घटक किया गया था।
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दालचीनी
यह प्राचीन राष्ट्रों के बीच इतना उच्च अमूल्य था कि यह सम्राटों के लिए एक उपहार फिट और एक देवता के लिए भी रूप में माना गया था: ठीक शिलालेख मीलेतुस में अपोलो के मंदिर दालचीनी और कैसिया उपहार रिकॉर्ड है हालांकि इसके स्रोत रखा गया था। बिचौलियों जो मसाले के व्यापार को संभाला, आपूर्तिकर्ताओं के रूप में अपने एकाधिकार की रक्षा के द्वारा सदियों के लिए भूमध्य दुनिया में रहस्यमय, दालचीनी श्रीलंका के मूल निवासी है। यह भी हेरोडोटस और अन्य शास्त्रीय लेखकों द्वारा लिए alluded. यह बहुत महंगा था करने के लिए आमतौर पर रोम में अंतिम संस्कार pyres पर इस्तेमाल किया जा, परन्तु सम्राट नीरो के अंतिम संस्कार में शहर की आपूर्ति के एक साल के मूल्य 65 ई. में उसकी पत्नी Poppaea सबीना के लिए जला दिया है करने के लिए कहा है।
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दालचीनी
काहिरा की नींव से पहले, Alexandria दालचीनी के भूमध्य शिपिंग बंदरगाह था। यूरोपीय जो लैटिन लेखकों जो हेरोडोटस के हवाले से थे जानता था पता था कि दालचीनी आया मिस्र के व्यापार बंदरगाहों के लिए लाल सागर, लेकिन चाहे इथियोपिया से है या नहीं स्पष्ट की तुलना में कम थी। जब Sieur de Joinville मिस्र धर्मयुद्ध पर 1248 में अपने राजा के साथ, उन्होंने बताया कि वह क्या कहा और किया गया था विश्वास कि दालचीनी जाल में दुनिया के किनारे पर नील नदी के स्रोत पर निकाला गया था। मध्य युग के माध्यम से, दालचीनी के स्रोत पश्चिमी दुनिया के लिए एक रहस्य था। मार्को पोलो इस स्कोर पर सटीक से परहेज हेरोडोटस और अन्य लेखकों में, अरब दालचीनी का स्रोत था: विशाल दालचीनी पक्षियों दालचीनी चिपक जाती है जहां दालचीनी के पेड़ वृद्धि हुई है और उन्हें इस्तेमाल करने के लिए अपने घोंसले का निर्माण एक अज्ञात भूमि से एकत्र, अरबों. एक चाल कार्यरत प्राप्त करने के लिए लाठी. यह कहानी 1310 Byzantium के रूप में देर के रूप में वर्तमान था, हालांकि पहली सदी में, Pliny बड़ी लिखा था कि व्यापारियों को इस अप क्रम में और अधिक चार्ज कर दिया था। श्रीलंका में बढ़ रहा है मसाला का पहला उल्लेख Zakariya में अल Qazwini अतहर अल bilad वा - akhbar अल'ibad ("स्थान और भगवान Bondsmen के इतिहास के स्मारक") 1270 के बारे में में था। यह शीघ्र ही पीछा किया गया था उसके बाद Montecorvino के 1292 के बारे में एक पत्र में, जॉन द्वारा
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दालचीनी
इन्डोनेशियाई rafts सीधे मॉलुकस से पूर्वी अफ्रीका, जहां स्थानीय व्यापारियों तो यह रोमन बाजार के लिए उत्तर किए गए। "दालचीनी मार्ग" पर दालचीनी (kayu आदमी सचमुच "मीठी लकड़ी" के रूप में इंडोनेशिया में जाना जाता है) ले जाया जाता था।
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दालचीनी
अरब व्यापारियों सिकन्दरिया थलचर व्यापार मार्गों के माध्यम से मसाला, मिस्र में लाया जहां यह इटली से वेनिस के व्यापारी जो यूरोप में मसाले के व्यापार पर एकाधिकार आयोजित द्वारा खरीदा गया था। Mamluk सुल्तानों और तुर्क साम्राज्य जैसे अन्य भूमध्य शक्तियों की वृद्धि से इस व्यापार के विघटन, कई कारक है कि नेतृत्व यूरोपीय और अधिक व्यापक रूप से एशिया के लिए अन्य मार्गों के लिए खोज करने के लिए किया गया था। पुर्तगाली व्यापारियों के अंत में सोलहवीं सदी की शुरुआत में सीलोन (श्रीलंका) में उतरा और सिंहली, जो बाद में दालचीनी के लिए सीलोन में एकाधिकार आयोजित द्वारा पारंपरिक और दालचीनी का उत्पादन प्रबंधन पुनर्गठन. पुर्तगाली द्वीप पर 1518 में एक किले की स्थापना की और एक सौ से अधिक वर्षों के लिए अपने स्वयं के एकाधिकार संरक्षित.
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विलयन
यदि हम खड़िया के कुछ टुकड़ों को पानी में डालकर भली भाँति हिला डुलाकर रख दें, तो खड़िया के टुकड़े पात्र के पेंदे में बैठ जायेंगे और पानी से घिरे रहेंगे। यदि खड़िया को महीन पीसकर पानी में डालें, तो खड़िया के बहुत छोटे छोटे कणों के पानी के साथ मिलने से पानी दूध की भाँति बन जाता है और वह कुछ समय तक उसी दशा में रहता है। यहाँ खड़िया का पानी में पायस बना है। यदि इसे छन्ने कागज पर छानें, तो खड़िया जल से अलग हो जाएगी। यदि नमक के टुकड़े को पानी में डालें और उसे हिलावें डुलावें, तो कुछ ही समय में नमक का टुकड़ा पानी में घुलकर समाप्त हो जाएगा और जो पदार्थ बनेगा वह पानी सा ही दिखाई पड़ेगा। यदि उसे चखें, तो उसका स्वाद नमकीन होगा। ऐसे नमक घुले जल को नमक का जल में विलयन (solution) कहते हैं। खड़िया जल में घुलती नहीं है, वह जल में अविलेय (insoluble) है। पर बहुत महीन खड़िया यद्यपि पानी के साथ घुलती नहीं है, तथापि वह पायस या इमल्शन बन जाती है। नमक जल में विलेय है। क्या नमक अपरिमित मात्रा में जल में घुल सकता है? नहीं, जल में नमक के, वस्तुत: किसी भी लवण के, जल में घुलने की एक सीमा होती है। यह सीमा ताप और, गैसों की दशा में, दबाव पर भी निर्भर करती है। जिस नमक के विलयन में और नमक न घुल सके, उसे हम नमक का संतृप्त (saturated) विलयन कहते हैं। जिस विलयन में और नमक घुल जाता है, उसे असंतृप्त (unsaturated) विलयन कहते हैं। कभी कभी हम कुछ ठोस पदार्थों को इतनी मात्रा में घुला सकते हैं कि विलयन में उनकी मात्रा संतृप्त विलयन में उपस्थित मात्रा से अधिक रहे, तो ऐसे विलयन को अतिसंतृप्ता (supersaturated) विलयन कहा जाता है। अतिसंतृप्ता विलयन सामान्यत: अस्थायी होते हैं और किसी विशिष्ट परिस्थिति में ही बनते हैं। अधिक घुला हुआ ठोस उससे कभी भी निकल कर अलग हो जा सकता है। घुलनेवाले पदार्थ को विलेय (solute) और घुलानेवाले पदार्थ को विलयाक (solvent) कहते हैं। जब गैसें या कोई ठोस किसी द्रव में घुलता है, तब द्रव को विलायक एवं गैस या ठोस को विलेय कहते हैं। जब एक द्रव दूसरे द्रव में घुलता है, तब अधिक मात्रावाले द्रव को विलायक और कम मात्रावाले द्रव को विलेय कहते हैं।
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विलयन
विलायक 2 प्रकार के होते हैं : एक को ध्रुवीय (Polar) और दूसरे को अध्रुवीय (Nonpolar) कहते हैं। ध्रुवीय विलायकों में हाइड्रॉक्सिल या कार्बोक्सिल समूह रहते हैं और ये अपेक्षया सक्रिय होते हैं तथा इनका परावैद्युतांक ऊँचा होता है। अध्रुवीय विलायक रसायनत निष्क्रिय होते हैं और इनका परावैद्युतांक निम्न होता है। ध्रुवीय विलायक अधिक प्रबल होते हैं और अनेक पदार्थों को घुलाते हैं। एक दूसरी दृष्टि से विलायकों को अकार्बनिक और कार्बनिक विलायकों में विभाजित किया गया है। अकार्बनिक विलायकों में जल का स्थान सर्वोपरि है। विलायक के रूप में इसकी श्रेष्ठता इस कारण है कि यह सरलता से शुद्ध रूप में प्राप्य है। यह न विषाक्त और न ज्वलनशील होता है। ऊष्मा से इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता और अनेक पदार्थों को यह घुलाता है। ओषधियों में भी विलायक के रूप में इसका व्यवहार व्यापक रूप से होता है। पर अनेक कार्बनिक पदार्थ जल में नहीं घुलते हैं। इन कार्बनिक पदार्थों को घुलाने के लिए जिन विलायकों का व्यवहार होता है, उन्हें कार्बनिक विलायक कहते हैं। अनेक उद्योगधंधों में कार्बनिक विलायकों का व्यवहार होता है। कुछ कार्बनिक विलायक हाइड्रोकार्बन, कुछ हैलोजेन यौगिक, कुछ ऐल्कोहॉल, कीटोन, ईथर और एस्टर होते हैं। कुछ विलायक बड़े वाष्पशील होते हैं तथा कुछ विषाक्त भी। अत: इनके प्रयोग में बड़ी सावधानी बरतनी होती है। ऐसे वाष्पशील एवं विषाक्त विलायक पेट्रोल, नैफ्था, बेंज़ीन, टॉलूइन, मेथेनॉल, एथानॉल, ब्यूटेनॉल, एसीटोन, ईथर, क्लोरोफॉर्म, कार्बन टेट्राक्लोराइड, ऐमिल ऐसीटेट आदि हैं। इन विलायकों का बहुत बड़ी मात्रा में उपयोग पेंट, वार्निश, लाक्षारस और अन्य नाना प्रकार के आवरण चढ़ाने के लेपों में होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%A8
विलयन
अनेक वस्तुओं की सफाई में विलायक काम में आते हैं। लकड़ी और धातु के सामानों की सफाई भी विलायकों द्वारा होती है। इनसे मैल धुलकर निकल जाती है और वस्तु साफ हो जाती है। एक समय ऊनी वस्त्रों की धुलाई में पेट्रोल, या बेंजाइन व्यापक रूप से प्रयुक्त होता था। ज्वलनशीलता के कारण हाइड्रोकार्बनों का स्थान क्लोरीनवाले यौगिक, ट्राइक्लोरोएथिलीन और कार्बन टेट्राक्लोराइड ले रहे हैं। भोज्यपदार्थों, ओषधियों और अंगरागों में विषहीन विलायकों का ही प्रयोग होना चाहिए। इनमें अरुचिकर गंध या स्वाद भी न रहना चाहिए। इसलिए टिंचर निष्कर्षों आदि में केवल एथिल ऐल्कोहॉल का व्यवहार होता है। जहाँ अवाष्पशील या मीठे स्वादवाले विलायक की आवश्यकता पड़ती है, वहाँ ग्लिसरॉल और ग्लाइकॉल प्रयुक्त होते हैं। अनेक प्राकृतिक पदार्थों से किसी विशिष्ट यौगिक के निकालने में भी विलायकों का उपयोग होता है। प्राकृतिक स्रोतों से विलायकों के द्वारा ही ऐल्केलॉइड, क्लोरोफिल, पेनिसिलिन, तेल आदि नाना प्रकार के पदार्थ निकाले जाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%A8
विलयन
(1) दोनों के बीच में रासायनिक क्रिया होकर एक तीसरा पदार्थ बन सकता है, जैसे अमोनिया गैस और हाइड्रोजन क्लोराइड गैसों के मिलाने से होता है;
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%A8
विलयन
(2) यदि दोनों गैसों के बीच कोई रासायनिक क्रिया नहीं होती है, तो दोनों परस्पर मिल जाते हैं, जैसे नाइट्रोजन और ऑक्सीजन गैसों को मिलाने से होता है। ऐसी दशा में दोनों गैसे मिलकर एक समांग मिश्रण बन जाती है। यहाँ दोनों गैसें किसी भी अनुपात में मिलाई जा सकती हैं। यहाँ संतृप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%A8
विलयन
यदि गैस को द्रव के संपर्क में लाया जाए, तो विशिष्ट ताप और दाब पर गैस द्रव में घुलकर संतृप्त विलयन बनाती है। कुछ गैसें, जैसे अमोनिया, या हाइड्रोजन क्लोराइड, जल में बहुत अधिक घुलती हैं और कुछ गैसें, जैसे नाइट्रोजन, या ऑक्सीजन, जल में कम घुलती हैं। गैसों की विलेयता गैसों की प्रकृति, विलायकों की प्रकृति, ताप और दबाव पर निर्भर करती है, जैसा नीचे की सारणी से प्रकट है :
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%A8
विलयन
ऊपर की सारणी से स्पष्ट है कि ऊँचे ताप से गैसों की विलेयता कम हो जाती है और अधिक दबाव से विलेयता बढ़ जाती है। सोडावाटर की बोतल में अधिक दबाव पर ही कार्बन डाइऑक्साइड अधिक घुला हुआ रहता है और बोतल के खोलने पर दबाव कम होने पर अधिक घुली हुई गैस बुदबुद करके निकल जाती है। यदि गैसों के मिश्रण को घुलाया जाए, तो विभिन्न गैसें स्वतंत्र रूप से अपनी विलेयता के अनुसार घुलती हैं तथा दूसरी गैस की उपस्थिति से उनकी विलेयता पर कोई असर नहीं पड़ता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%A8
विलयन
कई द्रव एक दूसरे में किसी भी अनुपात में मिलाने से घुल जाते हैं। जल और मेथेनॉल सब अनुपात में विलेय हैं। इन्हें हम मिश्रणीय (miscible) कहते हैं। वे ही द्रव मिश्रणीय द्रव होते हैं, जिनमें परस्पर रसायनत: समानता होती है। कुछ द्रव ऐसे हैं जो एक दूसरे में बिल्कुल नहीं घुलते, जैसे पारा और पानी, पानी और बेंज़ीन। इन्हें हम अमिश्रणीय (nonmiscible) कहते हैं। कुछ द्रव ऐसे होते हैं जो एक दूसरे में कुछ घुल जाते हैं और घुलकर दो स्तर बनाते हैं। ऐसे दो द्रव जल और ईथर हैं। जल और ईथंर के मिलाने से दो स्तर बन जाते हैं। ऊपर का स्तर ईथर का और नीचे का स्तर जल का होता है। परंतु ऊपर के ईथर के स्तर में कुछ जल तथा नीचे के जल के स्तर में कुछ ईथर भी घुला हुआ रहता है। ये अंशत: मिश्रणीय द्रव होते हैं और इन दोनों स्तरों को संयुग्मी स्तर (conjugate layers) कहते हैं। यहाँ भी विलेयता ताप और कुछ सीमा तक दाब पर निर्भर करती है।
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विलयन
द्रवों में ठोसों की विलेयता सीमित होती है। प्रत्येक ताप पर ठोसों की एक निश्चित मात्रा ही द्रव में घुलती है। यह बहुत कुछ विलेय और विलायक की प्रकृति पर निर्भर करती है। साधारणतया अनेक लवण जल में विलयशील होते हैं। कुछ लवण, जैसे अमोनियम नाइट्रेट, जल में बहुत विलयशील हैं और कुछ लवण, जैस कैल्सियम सल्फेट, जल में अल्प विलेय होते हैं। जब कोई ठोस किसी द्रव में घुलता है, तो सामान्यतया ऊष्मा का अवशोषण होता है। ताप की वृद्धि से सामान्यत: ठोसों की विलेयता बढ़ जाती है, पर इसमें कुछ अपवाद भी हैं। कैल्सियम सल्फेट और कैल्सियम ऐसीटेट की विलेयता ताप की वृद्धि से कुछ कम हो जाती है। यदि किसी ठोस की विलेयता उच्च ताप पर अधिक है, तो क्रिस्टलन द्वारा उस ठोस का शोधन किया जा सकता है। ऊँचे ताप पर संतृप्त विलयन बनाकर, उसको ठंढा करने से अधिक मात्रा में विलेय पदार्थ के क्रिस्टल पृथक होकर शुद्ध रूप में प्राप्त होते हैं। अशुद्धियों की मात्रा कम रहने से संतृप्त विलयन नहीं बनता और ठंढा करने से क्रिस्टल नहीं निकलते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC
शराब
शारीरिक व मानसिक दुष्प्रभावों के बावजूद सेवन बंद नही रखना या कोशिश करने के बावजूद सेवन बंद नही कर पाना।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC
शराब
जब लोग शराब का सेवन जारी रखते है तो धीरे-धीरे ऐसी आदत बन जाती है कि उसे छोड़ पाना मुश्किल हो जाता है। वह व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। छोड़ने की कोशिश करने पर नाना प्रकार के शारीरिक व मानसिक परेशानियाँ होती है और व्यक्ति इसका लगातार सेवन करने के लिए बाध्य हो जाता है।
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शराब
जब व्यक्ति लगातार शराब पीने लगता है तब समस्याओं की निरंतर बढ़ती हुई स्थितियाँ आती है तथा शारीरिक समस्याएँ विशेष रूप से पेट की बीमारियाँ, यकृत (लीवर) की बीमारी विशेषतः सिरोसिस, स्नायु तंत्र की कमजोरियाँ, कैंसर आदि। यदि आदतों का शिकंजा बहुत मजबूत हो चुका है तो आप अपने आप से चार सवाल पूछें-
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शराब
यदि इनमें से दो सवाल के भी उत्तर हाँ में है तो आप शराब के आदि हो चुके है और आपको तुरन्त चिकित्सा व्यवस्था करवानी चाहिए वरना आपका जीवन खराब हो सकता है।
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शराब
शराब शरीर के लगभग सभी अंगो पर अपना बुरा प्रभाव छोड़ता है अैर शरीर का शायद ही कोई अंग इसके दुष्प्रभाव से वंचित रहता है। शराब से पेट संबंधी बिमारियाँ जैसे- अपच, पेट के धाव (अल्सर), यकृत की बीमारी जैसे-सिरोसिस, लिवर का पूरी तरह से क्षतिग्रस्त होना, स्नायु तंत्र की कमजोरियाँ, हृदय संबंधी रोग विशेषतः रक्तचाप, यादास्त की बीमारी, कैंसर आदि। इस तरह से हम देखते है कि शरीर तो खराब होता ही है, मस्तिस्क की कोशिकाएँ भी मरने लगती है। मानसिक रोग उत्पन्न होते है तथा व्यक्ति में परिवर्तन आ जाता है।
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शराब
शराब व्यक्ति के जीवन में कई स्तरों पर अपना प्रभाव डालती है। जैसे-मानसिक स्तर पर उत्तेजना, चिड़चिड़ापन, उदासी, आदि। व्यवसायिक क्षेत्र में कार्य दक्षता और क्षमता में गिरावट। सामाजिक स्तर पर धीरे-धीरे समाजिक गतिविधियों से विमुख होना और दूसरो की नजर में गिरना आदि।
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शराब
सबसे पहले शराब पीने वाले खुद यह तय करे कि अब मैं शराब नही पीउँगा तो चिकित्सक इनकी मदद कर सकते है। देखा जाता है कि परिवार वाले तो उनके इलाज के लिए तैयार रहते है किन्तु व्यक्ति स्वयं इलाज नहीं कराना चाहता। ऐसी हालत में चिकित्सक का प्रयास सार्थक हो ही नहीं सकता।
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शराब
मनश्चिकित्सा केन्द्रों में नशा विमुक्ति केन्द्र होते है जहाँ डी-टोक्सीफिकेशन द्वारा शराब छुड़ाने तथा उसके उपरांत मोटिवेशन थैरपी, फिजियोथैरपी तथा ग्रुप थैरपी द्वारा इससे निजात पाने की कोशिश की जाती है। स्वयं व्यक्ति के प्रबल इच्छाशक्ति तथा परिवार के सहयोग तथा चिकित्सकों के सतत् प्रयास से सफलता पूर्वक इसका इलाज संभव है।
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शराब
[शराब की लत क्यों लग जाती है ? शराब पीने की आदत कैसे छुड़ाएं ? How can I make myself stop drinking alcohol ?]
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