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एस्पिरिन
ह्रदवाहिनी से संबद्ध घटनाओं की रोकथाम के लिये एस्पिरिन के दो स्पष्ट उपयोग हैं – प्राथमिक रोकथाम और द्वितीयक रोकथाम. प्राथमिक रोकथाम का संबंध उन लोगों में मस्तिष्काघात और हृदयाघात कम करने से है जिनमें हृदय या नलिकाओं की समस्याओं का कभी निदान न हुआ हो। द्वितीयक रोकथाम पहले से ह्रदवाहिनी से संबंधित रोगों से ग्रस्त लोगों से संबंध रखती है।
0.5
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बाड़मेर
राठौड़ वंश के संस्थापक राव सिहा और उनके पुत्र ने खेड़ को गुहिल राजपूतों से जीता और यहां राठौड़ों का गढ़ बनाया। रणछोड़जी का विष्णु मंदिर यहां का प्रमुख आकर्षण है। मंदिर के चारों और दीवार बनी है और द्वार पर गुरुड़ की प्रतिमा लगी है जिसे देख कर लगता है मानो वे मंदिर की रक्षा कर रहे हों। पास ही ब्रह्मा, भैरव, महादेव और जैन मंदिर भी हैं। जो सैलानियो क मुख्य आकर्स्न का केन्द्र है। गुहिल राजपूत यहाँ से भावनगर चले गये और १९४७ तक शासन किया।
0.5
3,137.481357
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बाड़मेर
बालोतरा उपखण्ड मुख्यालय से 12 किमी दूर जालोर रोड़ पर एक आसोतरा गांव है। यह वही गाँव है जहाँ विश्व का दूसरा ब्रह्मा मन्दिर है। जिनका निर्माण ब्रह्मऋषि संत खेतारामजी महाराज ने करवाया था। पहला मन्दिर जो पुष्कर (अजमेर),राजस्थान में स्थित है। इस मंदिर के साथ साथ संत शिरोमणि खेतेश्वर महाराज के खेतेश्वर जी की समाधि और ब्रम्ह सरोवर विख्यात है।
0.5
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बाड़मेर
तिलवाड़ा में आयोजित होने वाला पशुमेला राज्य का तीसरा बड़ा मेला है। पुष्कर, नागौर के बाद यह राजस्थान का तीसरा बड़ा पशु मेला है जहाँ आने वाले पशुओं की तादात लाखो में होती है।राठौड़ राजवंश के रावल रावल मल्लीनाथ के नाम पर मल्लीनाथ मेला राजस्थान के सबसे बड़े पशु मेलों में से एक है। यह बाड़मेर जिले के तिलवाडा गांव में चैत्र बुदी एकादशी से चैत्र सुदी एकादशी (मार्च-अप्रैल) में आयोजित किया जाता है। इस मेले में उच्च प्रजाति के गाय, ऊंटों, बकरी और घोडों की बिक्री के लिए लाया जाता है। इस मेले में भाग लेने के लिए सिर्फ गुजरात से ही नहीं बल्कि गुजरात और मध्य प्रदेश से भी लोग आते हैं। इस मेले का विशेष तौर पर पशु व्यापारी प्रतिक्षा करते हैं। मलिनाथ का जन्म माता रानिदे के घर पर 1358 को हुआ था बाड़मेर का परगने का नाम मालानी इन्हीं के नाम पर रखा गया तिलवाड़ा के पास में ही मालाजाल के पास में मलीनाथ की पत्नी रूपादे का मंदिर है मलीनथ के गुरु का नाम उगमसी भाटी थे
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बाड़मेर
जैन धर्म का राजस्थान का सबसे प्रमुख तीर्थ मेवानगर नाकोड़ा। साल भर में करोड़ो लोगो को अपनी धरा पर देखनी वाली यह जगह सबसे ज्यादा वीवीआईपी विजिट यहाँ देखती है।
0.5
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बाड़मेर
12वीं शताब्दी का यह गांव किसी समय विरानीपुर के नाम से जाना जाता था। इस गांव में तीन जैन मंदिर हैं। इनमें से सबसे बड़ा मंदिर नाकोडा पार्श्‍वनाथ का समर्पित है। इसके अलावा एक विष्णु मंदिर भी है जो देखने लायक है। इस जगह का राठौड़ राजवन्श के इतिहास में प्रमुख स्थान है। राठौड़ राजवन्श के रावल सलखा के पुत्र रावल मल्लीनाथ के वन्शज महेचा राठौड़ कहलाते थे, उन मल्लीनाथ के नाम पर ही इसका नाम महेवानगर पड़ा जो कि कालान्तर में मेवा नगर हो गया।
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बाड़मेर
बाड़मेर से २ किलोमीटर की दूरी पर महाबार रोड़ पर सिद्वेश्वर महादेव का मन्दिर आया हुआ है, जहां पर श्री महादेव जी के साथ, सन्तोषीमाता, बंजरग बली आदि के मन्दिर है। जहां हर वर्ष श्रावण महिने में प्रत्येक सोमवार को मेला लगता है। श्रावण के अन्तिम सोमवार की रात्रि में भजन संध्या का आयोजन होता है, जिसमे बड़ी संख्या में श्रद्वालू सम्मिलित होते है।
0.5
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बाड़मेर
बाड़मेर जिले के चौहटन कस्बे में सांईया महादेव का मेला भरता है जिसमे दूर दराज से भारी संख्या में लोग आते हैं।
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बाड़मेर
बाड़मेर जिले के धोरीमन्ना कस्बे धुंदळेश्वर महादेव की पहाड़ियाँ में सुंईया का मेला भरता है जो चौहटन के सुंईया मेले की तरह ही होता है तथा यहाँ पर अमृत जल चौहटन के मेले से जल्दी आता है। और यहाँ हर अमावस्या को स्थानीय लोग जाते हैं तथा इन पहाड़ियाँ में एक प्रचलित गुफा है जो 70किमी दुर चौहटन की पहाड़ियाँ में निकलती है हाल में इस गुफा को बन्द कर रखा है।
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बाड़मेर
बाड़मेर जिले से 67 किलोमीटर दूर साचौँर मार्ग पर स्थित है। यहां भगवान श्री आलमजी का पावन मन्दिर,व '''यहां सर्व जातीयों का बहुल क्षेत्र हैं । यहाँ प्रतिवर्ष आलमजी का पशु मेला लगता है, जिसमें मुख्यतः ऊँट व बैल खरीदे व बेचे जाते हैं। धोरीमन्ना में एक कहावत प्रचलित है कि "धोरीमन्ना धळ थापियो धरती आधो-आध" का अर्थ है कि धरती के केन्द्र में बसा नगर है मतलब धोरीमन्ना नगर सम्पूर्ण धरती का केन्द्र माना गया है।
0.5
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चारकोल
लकड़ी का कोयला, या काठकोयला या चारकोल (Charcoal) काला-भूरा, सछिद्र, ठोस पदार्थ है जो लकड़ी, हड्डी आदि को आक्सीजन की अनुपस्थिति में गरम करके उसमें से जल एवं अन्य वाष्शील पदार्थों को निकालकर बनाया जाता है। इस क्रिया को "उष्माविघटन" (Pyrolysis) कहते हैं।
0.5
3,135.937532
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चारकोल
चारकोल में कार्बन की उच्च मात्रा (लगभग ८०%) होती है। यह लकड़ी को ४०० °C से ७०० °C तक हवा की अनुपस्थिति में गरम करके बनाया जाता है। इसका कैलोरीजनन मान (calorific value) 29,000 से 35,000 kJ/kg के बीच होता है जो कि लकड़ी के कैलोरीजनन मान (12,000 से 21,000 kJ/kg) से बहुत अधिक है।
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चारकोल
चारकोल का उपयोग धातुकर्म में ईंधन के रूप में, औद्योगिक ईंधन के रूप में, खाने बनाने के इंधन के रूप में, बारूद निर्माण के लिये, शुद्धीकरण और फिल्तरण के लिए, कलाकारी, चिकित्सा, आदि के लिये किया जाता है।
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चारकोल
हवा की अपर्याप्त मात्रा में लकड़ी जलाने से उड़नशील भाग गैस के रूप में बाहर निकल जाता है और काली ठोस वस्तु, जिसे काठकोयला कहते हैं, बच रहती है। यह कार्बन नामक तत्व का ही एक अशुद्ध रूप है, जिसमें कुछ अन्य तत्व भी अल्प मात्रा में रहते हैं। लकड़ी से इसके भौतिक एवं रासायनिक गुण भिन्न होते हुए भी उस लकड़ी की बनावट इसमें सुरक्षित रह जाती है जिससे यह प्राप्त किया जाता है। सूखी लकड़ी को ३१० डिग्री सें तक तप्त करने पर पहले वह हल्के, तत्पश्चात्‌ गाढ़े भूरे रंग की तथा अंतत: काली और जलने योग्य हो जाती है। इससे अधिक ताप पर काठकोयला प्राप्त होता है। इस उष्माविघटन की क्रिया में कुछ अति उपयोगी वस्तुओं का भी उत्पादन होता है। प्रथमत: जलवाष्प निकलता है, परंतु ताप बढ़ाने पर प्रारंभिक विघटन से कार्बन मोनोक्साइड और कार्बन डाइआक्साइड भी मिलते हैं। अधिक ताप पर उष्मक्षेपक क्रिया प्रारंभ होती है और अलकतरा (टार), अम्ल तथा मेथिल ऐल्कोहल इत्यादि का आसवन होता है और काठकोयला शेष रह जाता है। इस क्रिया के एक बार आरंभ होने पर अभिक्रिया की उष्मा ही कार्बनीकरण की प्रक्रिया को चलाने के लिए पर्याप्त होती है बाहर से उष्पा पहुँचाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
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चारकोल
घरेलू अथवा दूसरे कार्यों में इर्धंन के लिए काठकोयले का उपयोग बहुत प्राचीन है। व्यावसायिक मात्रा में इसे तैयार करने की कई विधियाँ काम में लाई जाती है। प्रारंभिक विधि में लकड़ी को एक गड्ढे या गोल ढेर में इस प्रकार सजाकर एकत्रित कर लिया जाता है कि बीच में धुआँ अथवा विघटन से बनी हुई गैस के निकलने के लिए मार्ग रहे। पूरे ढेर को घास फूस सहित मिट्टी और ढेले से ढक देते हैं। भीतर की लकड़ी जलाने के लिए चिमनी से जलती हुई लुआठी डाल दी जाती तथा ढेर की जड़ में स्थित, हवा के प्रवेश के लिए बने छिद्र खोल दिए जाते हैं। प्रारंभ में थोड़ी सी लकड़ी के जलने से उत्पन्न उष्मा शेष लकड़ी को जलाने में सहायक होती है। कई दिनों बाद, जब चिमनी से प्रकाशप्रद लौ के स्थान पर हल्की नीली लौ दिखाई देने लगती है तब नीचे के छिद्र बंद कर, काठकोयले को ठंडा होने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस विधि में लगभग २४ प्रतिशत काठकोयला प्राप्त होता है, परंतु बहुत से उपयोगी उड़नशील पदार्थों के वायु में मिल जाने से हानि होती है। कई देशों में, विशेषकर जहाँ लकड़ी सस्ती है, अभी भी इसी विधि द्वारा काठकोयला बनाया जाता है।
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चारकोल
१८वीं शताब्दी के बाद ईटॉ की बनी भट्ठियों और लोहे के बकभांडों (retorts) का उपयोग होने लगा। बकभांड को सामान्यतया बाहर से गरम किया जाता है तथा उत्पन्न गैस को संघनित्र (condenser) में प्रवाहित कर उपयोगी उपजात एकत्रित कर लिया जाता है। बची गेस बकभांडों को गरम करने के लिए प्रयुक्त की जाती है। प्राप्त पदार्थों से लकड़ी की स्पिरिट, पाइरोलिग्नियस अम्ल, जिससे मेथिल ऐल्कोहल, ऐसिटोन तथा ऐसीटिक अम्ल बनते हैं, तथा अलकतरा (tar) मिलता है। इन्हें आसवन द्वारा अलग कर लिया जाता है। कहीं-कहीं इन बहुमूल्य उपजातों के लिए ही लकड़ी का कार्बनीकरण करते हैं। ऐसीटिक अम्ल तथा मेथिल ऐल्कोहल के अधिक उत्पादन के लिए पर्णपाती (पतझड़वाले) वृक्षों की लकड़ी को प्राथमिकता दी जाती है। उत्पादन मूल्य घटाने के विचार से कुछ देशों में नलिका-भट्ठी अथवा लंबी बेलनाकार लोहे की ऊर्ध्वाधर भट्ठी का उपयोग होता है और कार्बनीकरण के प्राप्त जलनशील गैस ही इन्हें गरम करने के काम में लाई जाती है। अमरीका में तो लकड़ी से भरे हुए रेल के डिब्बे बकभांड के भीतर प्रविष्ट कर दिए जाते हैं तथा क्रिया की समाप्ति पर बाहर निकाल लिए जाते हैं।
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चारकोल
इटों से बना यह भट्ठा मधुमक्खी के छत्ते के आकार का होता है। शिखर से लकड़ी जलाई जाती है। लकड़ी जलाकर पट्ट (क) से मिट्टी का लेप देकर मुँह बंद कर देते हैं। इसके कुछ नीचे के मार्ग (ख) से लकड़ी डाली जाती है। भट्ठे के पेदे के तल पर एक मार्ग (ग) होता है, जिससे कोयला निकाला जाता है। (ख) और (ग) लोहे के पट्ट के बने होते हैं। ये पट्ट इटों से लोहे के एक चिपटे चक्कर द्वारा, मिट्टी से लेपकर, बंद कर दिए जाते हैं। भट्ठे के चारों ओर सूराख (घ) होते हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार इटों से बंद कर सकते हैं, अथवा खुला रख सकते हैं। चूल्हे के पेंदे से निकास मार्ग (च) द्वारा गेसें और वाष्प निकलते हैं। इसमें एक वातयम (छ) और पाशी
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चारकोल
लगी रहती है। ऐसे उपकरणों में अच्छी कोटि का कोयला बनता है। वाष्पशील अंशों का संग्रह गौण महत्व का होता है। ठंडे हो जाने पर इनसे कोयला निकाला जाता है। ठंडे होने में पर्याप्त समय लगता है।
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चारकोल
काठकोयला काले रंग का ठोस पदार्थ है, जो पीटने पर चूर हो जाता है। इसके सर्ध्रां होने से इसमें शोषण की शक्ति बहुत होती है। यह वायुमंडल से वाष्प तथा विविध प्रकार के गैसों की मात्रा सोख लेता है। यह शक्ति काठकोयले को सक्रियकृत (activated) करने पर अत्यधिक बढ़ जाती है। इसी कारण साधारण काठकोयले में भी शोषित हवा की अच्छी मात्रा मिलती है। वैसे तो वायुरहित काठकोयले का वास्तविक आपेक्षिक घनत्व १.३ से १.९ के बीच होता है, परंतु आभासी घनत्व ०.२ से ०.५ के बीच मिलता है। काठकोयला भी लकड़ी की भाँति पानी पर तैरता है। लकड़ी की तुलना में यह उन प्रभावों के प्रति अधिक अवरोधक है जिनसे लकड़ी सड़ती है अथवा उसका क्षय होता है। इसी कारण लकड़ी के लट्ठों की ऊपरी सतह को जलाकर गाड़ने अथवा रखने के भीतर का भाग बहुत समय तक सुरक्षित रह जाता है।
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3,135.937532
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बरसाना
ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण की नित्य संगिनी देवी श्रीराधा बरसाना की ही रहने वाली थीं। क़स्बे के मध्य श्री राधा का मुख्य मंदिर श्री
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3,135.277677
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बरसाना
राधारानी मंदिर मन्दिर स्थित है। श्रीराधा का जिक्र पद्म पुराण, स्कन्द पुराण, मत्स्य पुराण, गीत गोविंद, गर्ग संहिता, शिव पुराण, लिंगपुराण, वाराह पुराण, नारदपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी मिलता है। पद्म पुराण के अनुसार राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थीं। ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्ग संहिता के अनुसार राधाकृष्ण का विवाह भांडीरवन मे संपन्न हुआ था।
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3,135.277677
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बरसाना
कुछ विद्वान मानते हैं कि राधाजी का जन्म यमुना के निकट बसे स्थित रावल ग्राम में हुआ था और बाद में उनके पिता बरसाना में बस गए। इस मान्यता के अनुसार नन्दबाबा एवं वृषभानु का आपस में घनिष्ठ प्रेम था। कंस के द्वारा भेजे गये असुरों के उपद्रवों के कारण जब नन्दराज अपने परिवार, समस्त गोपों एवं गौधन के साथ गोकुल-महावन छोड़ कर नन्दगाँव में निवास करने लगे, तो वृषभानु भी अपने परिवार सहित उनके पीछे-पीछे इस गाँव को त्याग कर चले आये और नन्दगाँव के पास बरसाना में आकर निवास करने लगे।
0.5
3,135.277677
20231101.hi_20458_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE
बरसाना
लेकिन लोग अधिकतर मानते हैं कि उनका जन्म बरसाना में हुआ था। राधारानी का प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। बरसाना में राधा जी को 'लाड़लीजी' कहा जाता है।
0.5
3,135.277677
20231101.hi_20458_5
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बरसाना
कहानी के अनुसार ब्रज में निवास करने के लिये स्वयं ब्रह्मा भी आतुर रहते थे एवं श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का आनन्द लेना चाहते थे। अतः उन्होंने सतयुग के अंत में विष्णु से प्रार्थना की कि आप जब ब्रज मण्डल में अपनी स्वरूपा श्री राधा जी एवं अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास-लीलायें करें तो मुझे भी उन लीलाओं का साक्षी बनायें एवं अपनी वर्षा ऋतु की लीलाओं को मेरे शरीर पर संपन्न कर मुझे कृतार्थ करें। ब्रह्मा की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु ने कहा -"हे ब्रह्मा! आप ब्रज में जाकर वृषभानुपुर में पर्वत रूप धारण कीजिये। पर्वत होने से वह स्थान वर्षा ऋतु में जलादि से सुरक्षित रहेगा, उस पर्वतरूप तुम्हारे शरीर पर मैं ब्रज गोपिकाओं के साथ अनेक लीलाएं करुंगा और तुम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकोगे। यहाँ के पर्वतों पर श्री राधा-कृष्ण जी ने अनेक लीलाएँ की हैं। अतएव बरसाना में ब्रह्मा पर्वत रूप में विराजमान हैं। पद्म पुराण के अनुसार यहाँ विष्णु और ब्रह्मा नाम के दो पर्वत आमने सामने विद्यमान हैं। दाहिनी ओर ब्रह्म पर्वत और बायीं विष्णु पर्वत है।
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3,135.277677
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बरसाना
बरसाना गाँव लट्ठमार होली के लिये सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है जिसे देखने के लिये हजारों भक्त एकत्र होते हैं। बसंत पंचमी से बरसाना होली के रंग में सरोबार हो जाता है। यहां के घर-घर में होली का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। टेसू (पलाश) के फूल तोड़कर और उन्हें सुखा कर रंग और गुलाल तैयार किया जाता है। गोस्वामी समाज के लोग गाते हुए कहते हैं- "नन्दगाँव को पांडे बरसाने आयो रे।" (बरसाना और नंदगाव के बीच 4 मील का फासला है।)
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बरसाना
शाम को 7 बजे चौपाई निकाली जाती है जो लाड़ली मन्दिर होते हुए सुदामा चौक रंगीली गली होते हुए वापस मन्दिर आ जाती है। सुबह 7 बजे बाहर से आने वाले कीर्तन मंडल कीर्तन करते हुए गहवर वन की परिक्रमा करते हैं। बारहसिंघा की खाल से बनी ढ़ाल को लिए पीली पोखर पहुंचते हैं। बरसानावासी उन्हें रुपये और नारियल भेंट करते हैं, फिर नन्दगाँव के हुरियारे भांग-ठंडाई छानकर मद-मस्त होकर पहुंचते हैं। राधा-कृष्ण की झांकी के सामने समाज गायन करते हैं।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE
बरसाना
लाड़ली जी के मंदिर में राधाष्टमी का त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्यौहार भद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को आयोजित किया जाता है। राधाष्टमी के उत्सव में राधाजी के महल को काफी दिन पहले से सजाया जाता है। राधाजी को लड्डूओं का भोग लगाया जाता है और उस भोग को मोर को खिला दिया जाता है जिन्हें राधा कृष्ण का स्वरूप माना जाता है। राधा रानी मंदिर में राधा जी का जन्मदिवस राधा अष्टमी मनाने के अलावा कृष्ण जन्माष्टमी, गोवर्धन-पूजन, गोप अष्टमी और होली जैसे पर्व भी बहुत धूम-धाम से मनाए जाते हैं। इन त्योहारों में मंदिर को मुख्य रूप से सजाया जाता है, प्रतिमाओं का श्रृंगार विशेष रूप से होता है, मंदिर में सजावटी रोशनी की जाती है और सर्वत्र सुगन्धित फूलों से झांकियां बना कर विग्रह का श्रृंगार किया जाता है। राधा को छप्पन भोग भी लगाए जाते हैं। राधाष्टमी अष्टमी से चतुर्दशी तक यहां मेले का आयोजन भी होता है।
0.5
3,135.277677
20231101.hi_20458_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE
बरसाना
होली के त्योहार में भी इस मंदिर की विशेष झलक देखने को मिलती है। होली के अवसर पर राधारानी मंदिर से झांकी निकाली जाती है। साथ ही चौपाई भी निकलती है इन सबके साथ-साथ ही भक्त लोग गाते बजाते हुए होली के गीत गाते हुए चलते हैं। यह चौपाई बरसाना की गलियों से गुजरते हुए रंगों की बौछार करती निकलती है। श्रद्धालुगण मंदिर में भी परस्पर रंग अबीर फेंक कर होली का उत्सव मनाते हैं और कई भक्त मंदिर के सेवादार लोगों पर केसर-जल, इत्र और गुलाबजल की बौछार करते हैं।
0.5
3,135.277677
20231101.hi_431831_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
खालसा सिख धर्म के विधिवत् दीक्षाप्राप्त अनुयायियों सामूहिक रूप है। खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने १६९९ को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की। इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया।
0.5
3,124.198053
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ख़ालसा
सतगुरु गोबिंद सिंह ने खालसा महिमा में खालसा को "अकाल पुरख की फ़ौज" पद से नवाजा है। किरपान और केश तो पहले ही सिखों के पास थे, गुरु गोबिंद सिंह ने "खंडे बाटे की पाहुल" तयार कर कच्छा, कड़ा और कंघा भी दिया। इसी दिन खालसे के नाम के पीछे "सिंह" लग गया। भौतिक रूप से खालसे की भिन्नता नजर आने लगी, पर खालसे ने आत्मज्ञान नहीं छोड़ा। उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर किरपान भी चलती रही।
0.5
3,124.198053
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
हिन्दुओं के ऊपर कट्टर इस्लाम और सरकारी नुमाइन्दो के वार लगातार बढ़ गए थे। सरकार को गलत खबरें दे कर इस्लाम के कट्टर अनुयायियों ने गुरु अर्जुन देव जी को मौत की सजा दिलवा दी। जब गुरु अर्जुन देव, को बहुत दुःख दे कर शहीद कर दिया गया तो गुरु हरगोबिन्द जी ने तलवार उठा ली। यह तलवार सिर्फ आत्म रक्षा और आम जनता की बेहतरी के लिए उठाई थी। गुरु हरगोबिन्द जी के जीवन में उन पर लगातार ४ हमले हुए और सतगुरु हरि राए पर भी एक हमला हुआ। गुरु हरि कृष्ण को भी बादशाह औरंगजेब ने अपना अनुयायी बनाने की कोशिश की।
0.5
3,124.198053
20231101.hi_431831_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
गुरु तेग़ बहादुर को क्रुर इस्लामिक शासक औरंगजेब ने हत्या कर दिया, क्योंकि औरंगजेब कट्टर इस्लाम था , वह सभी गैर-इस्लामिको से घृणा करता था । गुरु तेगबहादुरजी ने गैर-इस्लामो पर होने वाले अन्याय तथा अत्याचार का विरोध किया । इसलिए औरंजेब ने गुरुतेगबहादुर को बंदी बनाया तथा उनकी बेरहमी से सर काटकर हत्या कर दी । उसके बाद औरंगजेब के इस्लामिक अहलकारों ने धर्म के बढते प्रचार व अनुयायियों की भारी संख्या को इस्लाम के लिए खतरा समझना शुरु कर दिया और वो इसके विरुद्ध एकजुट हो गए। इस बीच गुरु गोबिंद सिंह ने कुछ बानियों की रचना की जिस में इस्लाम के खिलाफ सख्त टिप्पणियाँ थी।
0.5
3,124.198053
20231101.hi_431831_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
उपरोक्त परिस्थितयों तथा औरंगजेब और उसके नुमाइंदों के गैर-मुस्लिम जनता के प्रति अत्याचारी व्यवहार को देखते हुए धर्म की रक्षा हेतु जब गुरु गोबिंद सिंह ने सशस्त्र संघर्ष का निर्णय लिया तो उन्होंने ऐसे सिखों (शिष्यों) की तलाश की जो धर्म विचारधारा को आगे बढाएं, दुखियों की मदद करें और ज़रुरत पढने पर अपना बलिदान देनें में भी पीछे ना हटें|
1
3,124.198053
20231101.hi_431831_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
जब आनंदपुर में गुरु गोबिंद सिंह ने तलवार निकल कर कहा की "मुझे एक सिर चाहिये" । सब हक्के-बक्के रह गए। कुछ तो मौके से ही खिसक गए। कुछ कहने लग पड़े गुरु पागल हो गया है। कुछ तमाशा देखने आए थे। कुछ माता गुजरी के पास भाग गए की देखो तुमहरा सपुत्र क्या खिचड़ी पका रहा है ।
0.5
3,124.198053
20231101.hi_431831_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
१० हज़ार की भीड़ में से पहला हाथ भाई दया सिंह जी का था। धर्म के लिए वोह सिर कटवाने को तैयार थे। गुरु साहिब उसको तम्बू में ले गए। वहाँ एक बकरे की गर्दन काटी। खून तम्बू से बहर निकलता दिखाई दिया। जनता में डर और बढ़ गया । तब भी हिम्मत दिखा कर धर्म सिंह, हिम्मत सिंह, मोहकम सिंह, साहिब सिंह ने अपना सीस कटवाना स्वीकार किया। गुरु साहिब बकरे झटकते रहे।
0.5
3,124.198053
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
इस विधि से हुआ तयार जल को "पाहुल" कहते हैं। आम भाषा में इसे लोग अमृत भी कहते हैं।इस को पी कर सिख, खालसा फ़ौज, का हिसा बन जाता है अर्थात अब उसने तन मन धन सब परमेश्वर को सौंप दिया है, अब वो सिर्फ सच का प्रचार करेगा और ज़रूरत पढने पर वो अपना गला कटाने से पीछे नहीं हटेगा। सब विकारों से दूर रहेगा। ऐसे सिख को अमृतधारी भी कहा जाता है। यह पाहुल पाँचों को पिलाई गई और उन्हें पांच प्यारों के ख़िताब से निवाजा।
0.5
3,124.198053
20231101.hi_431831_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A4%BE
ख़ालसा
२ कक्कर तो सिख धर्म में पहले से ही थे। जहाँ सिख आत्मिक सत्ल पर सब से भीं समझ रखता था सतगुर गोबिंद सिंह जी ने उन दो ककारों के साथ साथ कंघा, कड़ा और कछा दे कर शारीरिक देख में भी खालसे को भिन्न कर दिया। आज खंडे बाटे की पाहुल पांच प्यारे ही तयार करते हैं। यह प्रिक्रिया आज रिवाज बन गयी है। आज वैसी परीक्षा नहीं ली जाती जैसी उस समे ली गई थी।
0.5
3,124.198053
20231101.hi_216566_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
चातक एक पक्षी है। इसके सिर पर चोटीनुमा रचना होती है। भारतीय साहित्य में इसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह वर्षा की पहली बूंदों को ही पीता है। अगर यह पक्षी बहुत प्यासा है और इसे एक साफ़ पानी की झील में डाल दिया जाए तब भी यह पानी नहीं पिएगा और अपनी चोंच बंद कर लेगा ताकि झील का पानी इसके मुहं में न जा सके। यह पक्षी मुख्यतः एशिया और अफ्रीका महाद्वीप पर पाया जाता है। इसे मारवाडी भाषा में 'मेकेवा' और 'पपीया' भी कहा जाता हैं।
0.5
3,116.422988
20231101.hi_216566_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
अर्थात "चातक ही एक ऐसा स्वाभिमानी पक्षी है, जो भले प्यासा हो या मरने वाला हो, तब भी वह इन्द्र से ही याचना करता है। किसी अन्य से नहीं अर्थात केवल वर्षा का जल ही ग्रहण करता हैं, किसी अन्य स्रोत का नहीं।"
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3,116.422988
20231101.hi_216566_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
जनश्रुति के अनुसार चातक पक्षी स्वाती नक्षत्र में बरसने वाले जल को बिना पृथ्वी में गिरे ही ग्रहण करता है, इसलिए उसकी प्रतीक्षा में आसमान की ओर टकटकी लगाए रहता है। वह प्यासा रह जाता है। लेकिन ताल तलैया का जल ग्रहण नहीं करता।
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3,116.422988
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में चातक पक्षी को चोली कहा जाता है। जिसके बारे में लोक विश्वास है कि यह एकटक आसमान की ओर देखते हुए उससे विनती करता है कि ‘सरग दिदा पाणी दे पाणी दे’ अर्थात आसमान भाई पानी दे पानी दे।
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3,116.422988
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
वहां के किसी हरे भरे गांव में एक वृद्धा अपनी युवा बेटी और बहू के साथ बहुत ही हंसी खुशी के दिन बिता रही थी। वह बहू और बेटी के बीच कोई मतभेद नहीं करती थी। दोनों को समान भोजन देती और समान काम करवाती थी। दोनों बहू बेटी भी हिल मिलकर रहती थीं। न आपस में लड़ना झगड़ना और न कोई ईर्ष्या द्वेष। दोनों में अंतर था तो बस यही कि बहू अपना काम पूरी ईमानदारी और तन्मयता से संपन्न करती थी जबकि बेटी उसे जैसे तैसे फटाफट निपटाने की फिराक में रहती।
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3,116.422988
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
मां इस बात के लिए उसे कई बार टोक भी चुकी थी और बार बार उसे अपनी भाभी से सीख लेने के लिए कहती थी, लेकिन उसके कान पर जूं तक न रेंगती, उस पर जैसे कोई असर ही नहीं होता था।
0.5
3,116.422988
20231101.hi_216566_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
वृद्धा को समझ में आ गया कि बैल प्यासे हैं, लेकिन घर में बैलों को पिलाने लायक पर्याप्त पानी मौजूद ही न था। बैलों की प्यास बुझाने का एकमात्र उपाय था, उन्हें गधेरे पहाड़ी नदी तक ले जाना जो गांव से लगभग एक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर था। जेठ के महीने की भरी दोपहर में बैलों को गधेरे तक ले जाकर पानी पिला लाना, अपने आपमें कठिन काम तो था ही।
0.5
3,116.422988
20231101.hi_216566_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
तपती दोपहर में बैलों को ले बहू को भेजे या बेटी को, इस बात को लेकर वृद्धा मुष्किल में पड़ गई। दोनों में से किसी एक को भेजना उसे उचित नहीं लग रहा था। अंत में सोचकर उसने एक युक्ति निकाल ही ली। उसने बहू और बेटी दोनो को प्रलोभन देते हुए कहा कि वे एक एक बैल को पानी पिलाकर ले आएं और दोनों में से जो पहले पानी पिलाकर घर लौटेगा, उसे गरमागरम हलुआ खाने को मिलेगा।
0.5
3,116.422988
20231101.hi_216566_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95
चातक
हलुए का नाम सुनते ही दोनों के मुंह में पानी भर आया। हामी भरते हुए बहू और बेटी दोनों ही अपने अपने बैल को लेकर चल पड़ीं गधेरे की ओर।
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3,116.422988
20231101.hi_193977_29
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
किशोरों और युवा वयस्कों को लक्ष्य बनाने वाले शराब या नशीले पदार्थों पर निर्भरता के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले स्वास्थ्य, सामाजिक और शैक्षिक अधो-उपलब्धि से निपटने को शराब की लत से होने वाले नुकसान को कम करने का एक महत्वपूर्ण उपाय माना जाता है। जिस बढ़ती उम्र में शराब जैसी नशीले पदार्थों को ख़रीदा जा सकता हो, उस उम्र में शराब पर निर्भरता और उसकी लत से होने वाले नुकसान को कम करने के अतिरिक्त उपायों के रूप में शराब के विज्ञापनों को प्रतिबंधित या सीमित करने की सिफारिश की गई है। शराब और अन्य नशीले पदार्थों की लत के परिणामों के बारे में जनसंचार के माध्यमों से विश्वसनीय और सबूत पर आधारित शैक्षिक अभियान चलाने की भी सिफारिश की गई है। शराब और अन्य नशीले पदार्थों की लत से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए किशोरावस्था के दौरान और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित युवा लोगों को निशाना बनाकर शराब और नशीले पदार्थों के सेवन के बारे में माता-पिता को दिशा-निर्देश देने का भी सुझाव दिया गया है।
0.5
3,115.456743
20231101.hi_193977_30
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
शराबीपन (एंटीडिप्सोट्रोपिक) के इलाज में काफी भिन्नता है क्योंकि इस स्थिति के लिए खुद कई दृष्टिकोण हैं। जो लोग शराबीपन को एक चिकित्सीय स्थिति या बीमारी के रूप में देखते हैं, वे उन लोगों की तुलना में अलग-अलग इलाज की सलाह देते हैं, जो, उदाहरण के तौर पर, इस स्थिति को सामाजिक पसंद में से एक के रूप में देखते हैं।
0.5
3,115.456743
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
अधिकांश इलाज लोगों को अपने शराब के सेवन को बंद करने में मदद करने पर केन्द्रित हैं, जिसके बाद उन्हें शराब के प्रयोग पर पुनः लौटने से रोकने में उनकी मदद करने के लिए जीवन प्रशिक्षण और/या सामाजिक समर्थन प्रदान की जाती है। चूंकि शराबीपन में कई कारक होते हैं जो व्यक्ति को शराब पीना जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, इसलिए पुनरावर्तन को सफलतापूर्वक रोकने के लिए इन सभी कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए. इस प्रकार के इलाज का एक उदाहरण विषहरण है जिसके बाद सहायक चिकित्सा, स्व-सहायक समूहों में उपस्थिति और परछती क्रियाविधियों के चल रहे विकास के संयोजन से इलाज किया जाता है। शराबीपन का इलाज समुदाय आम तौर पर संयम-आधारित शून्य सहनशीलता वाले दृष्टिकोण का समर्थन करता है; हालांकि, ऐसे भी कुछ लोग हैं जो एक हानि-अवनति दृष्टिकोण को भी बढ़ावा देते हैं।
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3,115.456743
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
शराब विषहरण या शराबियों का "विषहरण करना" नशीले पदार्थों के प्रतिस्थापन के साथ युग्मित शराब के सेवन का एक आकस्मिक ठहराव है, जैसे - बेंज़ोडायज़ेपींस, जिसके शराब से वापसी को रोकने के एक जैसे प्रभाव हैं। जिन व्यक्तियों को केवल हल्की से मध्यम वापसी के लक्षणों का खतरा है, उनका विषहरण बाहरी-मरीजों के रूप में किया जा सकता है। जिन व्यक्तियों को गंभीर वापसी सिंड्रोम का खतरा होने के साथ-साथ जो महत्वपूर्ण या तीव्र अति-अस्वस्थ स्थिति के शिकार होते हैं, उनका इलाज आम तौर पर अस्पताल में रहकर इलाज कराने वाले रोगियों के रूप में किया जाता है। हालांकि, विषहरण वास्तव में शराबीपन का इलाज नहीं करता है। इसलिए पुनरावर्तन के जोखिम को कम करने के लिए विषहरण के साथ-साथ इलाज के उपयुक्त कार्यक्रम का भी किया जाना आवश्यक है।
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3,115.456743
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
विषहरण के बाद, उन अन्तर्निहित मनोवैज्ञानिकी मुद्दों से निपटने के लिए समूह चिकित्सा या मनोचिकित्सा के विभिन्न रूपों का इस्तेमाल किया जा सकता है जो शराब की लत के साथ-साथ पुनरावर्तन की रोकथाम के कौशल को प्रदान करने से संबंधित होते हैं। आपसी-सहायता वाले समूह-परामर्श का दृष्टिकोण संयम बनाए रखने के लिए शराबियों को मदद करने के सबसे आम तरीकों में से एक है।
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3,115.456743
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
समभाजन और परिनियमन कार्यक्रमों, जैसे - मॉडरेशन मैनेजमेंट (Moderation Management) और ड्रिंकवाइज़ (DrinkWise), में सम्पूर्ण संयम अनिवार्य नहीं है। जबकि अधिकांश शराबी अपनी पीने की आदत को इस तरीके से सीमित कर पाने में असमर्थ होते हैं, कुछ परिनियमित सेवन का रास्ता अपनाते हैं। राष्ट्रीय शराब सेवन एवं शराबीपन संस्थान (NIAAA) द्वारा 2002 में की गई अमेरिकी अध्ययन से पता चला कि 17.7 प्रतिशत व्यक्तियों की पहचान शराब पर निर्भरता वाले रोगी के रूप में की गई जो एक साल से भी पहले कम-जोखिम वाले सेवन का तरीका अपना चुके थे। हालांकि, इस समूह में निर्भरता के बस कुछ ही प्रारंभिक लक्षण देखे गए। 2001-2002 में कमी के रूप में निर्णित होने वाले उन्हीं विषयों का इस्तेमाल करके 2004-2005 में एक अनुवर्ती अध्ययन में समस्या उत्पन्न करने वाले सेवन से वापसी की दर की जांच की गई। अध्ययन से पता चला कि शराब का संयम ठीक हो रहे शराबियों की कमी का सबसे स्थिर रूप था। शराबी पुरुषों के दो समूहों पर की गई एक दीर्घकालीन (60 वर्ष) जांच का निष्कर्ष था कि "पुनरावर्तन या संयम के विकास के बिना नियंत्रित सेवन की वापसी शायद ही एक दशक से ज्यादा समय के लिए कायम रही."
0.5
3,115.456743
20231101.hi_193977_35
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
एंटाब्यूज़ (Antabuse) (डिसुलफिरम) एसिटलडिहाइड, जो इथेनॉल के रासायनिक परिवर्तन के दौरान शरीर द्वारा उत्पन्न होने वाला एक रसायन है, के उन्मूलन को रोकता है। एसिटलडिहाइड खुद ही शराब के सेवन से उत्पन्न होने वाले कई दुष्परिणामी लक्षणों का कारण है। समस्त प्रभाव यही है कि शराब के अंतर्ग्रहण के दौरान गंभीर असुविधा होती है: जो कि एक अत्यधिक तीव्र गति से क्रिया करने वाला और लम्बे समय तक रहने वाला अप्रिय दुष्परिणाम है। यह दवा लेते समय एक शराबी को बहुत अधिक मात्रा में शराब पीने के लिए हतोत्साहित कर देता है। हाल ही में एक 9-वर्षीय अध्ययन से पता चला कि एक व्यापक उपचार कार्यक्रम में पर्यवेक्षित डिसुलफिरम और एक संबंधित यौगिक कार्बामाइड को शामिल करने के परिणामस्वरूप संयम दर 50 प्रतिशत से अधिक थी।
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3,115.456743
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
टेम्पोसिल (Temposil) (कैल्शियम कार्बिमाइड) एंटाब्यूज़ की तरह ही काम करता है; इसमें एक फायदा है कि डिसुलफिरम, हेपाटोटॉक्सिसिटी और उनींदापन का सामयिक प्रतिकूल प्रभाव कैल्शियम कार्बिमाइड के साथ नहीं होता है।
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3,115.456743
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%A8
शराबीपन
नाल्ट्रेक्सोन (Naltrexone) ओपियोइड अभिग्राहकों का एक प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिपक्षी है जो बड़े प्रभावी ढंग से एंडोर्फिन और ओपियट्स का उपयोग करने की हमारी क्षमता को बाधित करता है। नाल्ट्रेक्सोन का प्रयोग शराब की लालसा को कम करने और संयम को प्रोत्साहित करने के लिया किया जाता है। शराब शरीर के एंडोर्फिन मुक्त करने का कारण है जो बदले में डोपामीन को मुक्त करता है और प्रतिफल के मार्गों को सक्रिय कर देता है; इसलिए जब नाल्ट्रेक्सोन शरीर में होता है तब शराब के सेवन से आनंददायक प्रभावों में कमी आती है।
0.5
3,115.456743
20231101.hi_11870_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%98%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A6
मेघनाद
मेघनाद जिसे राजपुत्र मेघनाद या इन्द्रजीत के नाम से भी जाना जाता है, लंका के राजा रावण का पुत्र था। अपने पिता की तरह यह भी स्वर्ग विजयी था। इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम इन्द्रजीत रखा था। इसका नाम रामायण में इसलिए लिया जाता है क्योंकि इसने राम- रावण युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसका नाम उन योद्धाओं में लिया जाता है जो की ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र तथा पशुपातास्त्र के धारक कहे जाते हैं। इसने अपने गुरु शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर तथा त्रिदेवों द्वारा कई अस्त्र- शस्त्र एकत्र किए। स्वर्ग में देवताओं को हरा कर उनके अस्त्र-शस्त्र पर भी अधिकार कर लिया।
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मेघनाद
मेघनाद पितृभक्त पुत्र था। उसे यह पता चलने पर की राम स्वयं भगवान है फिर भी उसने पिता का साथ नही छोड़ा। मेघनाद की भी पितृभक्ति प्रभु राम के समान अतुलनीय है।
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मेघनाद
जब उसकी माँ मन्डोदरी ने उसे यह कहा कि मनुष्य मुक्ति की ओर अकेले जाता है तब उसने कहा कि पिता को ठुकरा कर अगर मुझे स्वर्ग भी मिले तो मैं ठुकरा दूँगा।
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मेघनाद
मेघनाद रावण और मन्दोदरी का सबसे ज्येष्ठ पुत्र था। क्योंकि रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी भी था जिसे एक ऐसा पुत्र चाहिए था जो कि अजर, अमर और अजेय हो, इसलिए उसने सभी ग्रहों को अपने पुत्र कि जन्म-कुण्डली के 11वें (लाभ स्थान) स्थान पर रख दिया, परन्तु रावण कि प्रवृत्ति से परिचित शनिदेव 11वें स्थान से 12वें स्थान (व्यय/हानी स्थान) पर आ गए जिससे रावण को मनवांछित पुत्र प्राप्त नहीं हो सका। इस बात से क्रोधित रावण ने शनिदेव पर पैर से प्रहार किया था ।
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मेघनाद
मेघनाद के गुरु असुर-गुरु शुक्राचार्य थे। किशोरावस्था (12 वर्ष) कि आयु होते-होते इसने अपनी कुलदेवी निकुम्भला के मन्दिर में अपने गुरु से दीक्षा लेकर कई सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं । एक दिन जब रावण को इस बात का पता चला तब वह असुर-गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में पहुँचा। उसने देखा कि असुर-गुरु शुक्राचार्य मेघनाद से एक अनुष्ठान करवा रहे हैं। जब रावण ने पूछा कि यह क्या अनुष्ठान हो रहा है, तब आचार्य शुक्र ने बताया कि मेघनाद ने मौन व्रत लिया है। जब तक वह सिद्धियों को अर्जित नहीं कर लेगा, मौन धारण किए रहेगा। अन्ततः मेघनाद अपनी कठोर तपस्या में सफल हुआ और भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए। भगवान शिव ने उसे कई सारे अस्त्र-शस्त्र, शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्रदान की। परन्तु उन्होंने मेघनाद को सावधान भी कर दिया कि कभी भूल कर भी किसी ऐसे ब्रह्मचारी का दर्शन ना करे जो 12 वर्षों से कठोर ब्रह्मचर्य और तपश्चार्य का पालन कर रहा हो । इसीलिए भगवान श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी से 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करवाई थी ।
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मेघनाद
वरदान पाने के बाद मेघनाद एक बार फिर से असुर गुरु शुक्राचार्य की शरण में गया और उनसे पूछा उसे आगे क्या करना चाहिए । तब असुर-गुरु शुक्राचार्य ने उसे सात महायज्ञों की दीक्षा दी जिनमें से एक महायज्ञ भी करना बहुत कठिन है। यह भी कहा जाता है कि मेघनाद का नाम उन योद्धाओं में लिया जाता है जोकि आदिकाल से इन महायज्ञ को करने में सफल हो पाए हैं।
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मेघनाद
ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीविष्णु जी, रावण पुत्र मेघनाद और सूर्यपुत्र कर्ण के अतिरिक्त आदिकाल से ऐसा कोई नहीं है जो वैष्णव यज्ञ कर पाया हो ।
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मेघनाद
देवासुर संग्राम के समय जब रावण ने सभी देवताओं को इन्द्र समेत बन्दी बना लिया था और कारागार में डाल दिया था, उसके कुछ समय बाद एक समय सभी देवताओं ने मिलकर कारागार से भागने का निश्चय किया और साथ ही साथ रावण को भी सुप्त अवस्था में अपने साथ बन्दी बनाकर ले गए। परन्तु मेघनाद ने पीछे से अदृश्य रूप में अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर देवताओं पर आक्रमण किया । देव सेनापति भगवान कार्तिकेय ठीक उसी समय देवताओं की रक्षा के लिए आ गए परन्तु मेघनाद को नहीं रोक पाए। मेघनाद ने न केवल देवताओं को पराजित किया अपितु अपने पिता के बन्धन खोलकर और इन्द्र को अपना बन्दी बनाकर वापस लंका ले आया। जब रावण जागा और उसे सारी कथा का ज्ञान हुआ तब रावण और मेघनाद ने यह निश्चय किया इन्द्र का अन्त कर दिया जाये, परन्तु ठीक उसी समय भगवान ब्रह्मा जी लंका में प्रकट हुए और उन्होंने मेघनाद को आदेश दिया कि वह इन्द्र को मुक्त कर दे। मेघनाद ने यह कहा कि वह कार्य केवल तभी करेगा जब ब्रह्मदेव उसे अमरत्व का वरदान दे, परन्तु ब्रह्मदेव ने यह कहा यह वरदान प्रकृति के नियम के विरुद्ध है परन्तु वह उसे यह वरदान देते हैं कि जब आपातकाल में कुलदेवी निकुम्भला का तान्त्रिक यज्ञ करेगा तो उस एक दिव्य रथ प्राप्त होगा और जब तक वह उस रथ पर रहेगा तब तक कोई भी ना से परास्त कर पाएगा और ना ही उसका वध कर पाएगा। परन्तु उसे एक बात का ध्यान रखना होगा कि जो उस यज्ञ का बीच में ही विध्वंस कर देगा वही उसकी मृत्यु का कारण भी होगा। और साथ ही साथ ब्रह्मदेव ने यह वरदान भी दिया कि आज से मेघनाद को इन्द्रजीत कहा जाएगा जिससे इन्द्र की ख्याति सदा सदा के लिए कलंकित हो जाएगी ।
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मेघनाद
जब भगवान श्री राम ने हनुमान जी को माता सीता की खोज में भेजा और हनुमान जी जब लंका में अशोक वाटिका में माता सीता से मिले, उसके उपरान्त हनुमान जी ने अशोक वाटिका को तहस-नहस करना आरम्भ कर दिया। रावण के सारे सैनिक एक एक करके या तो वीरगति को प्राप्त हो गए या तो पराजित होकर भागने लगे। जब रावण को इसी सूचना मिली तो उसने पहले सेनापति जाम्बुमालि और उसके उपरान्त अपने पुत्र राजकुमार अक्षय कुमार को भेजा परन्तु दोनों ही वीरगति को प्राप्त हो गए। अन्त में रावण ने अपने पुत्र युवराज इन्द्रजीत को अशोक वाटिका भेजा। जब इन्द्रजीत और हनुमान जी के बीच युद्ध आरम्भ हुआ तब इन्द्रजीत ने अपनी सारी शक्ति अपनी सारी माया, अपनी सारी तान्त्रिक विद्या, अपने सारे अस्त्र-शस्त्र सब प्रयोग करके देख लिए परन्तु वह सब के सब निष्फल हो गए। अन्त में इन्द्रजीत ने हनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र का मान रखने के लिए उसमें बँध जाना स्वीकार कर लिया और उसके उपरान्त वे दोनों रावण के दरबार की ओर चल पड़े।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
आयुर्वेदीय चिकित्सा में मुख्यत: इसके बीज और बीजतैल का प्रचुर उपयोग बतलाया गया है। इनका अधिक उपयोग व्रणशोधक एवं व्रणरोपक, कृमिघ्न, उष्णवीर्य तथा चर्मरोगघ्न रूप में किया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
भिन्न जाति एवं कुल का होने पर भी चिरबिल्व नाम-रूप-गुण तीनों बातों में नक्तमाल से बहुत कुछ मिलता जुलता है। यह अल्मेसी (Ulmaceae) कुल का होलोप्टीलिया इंटेग्रिफ़ोलिया (Holoptelia integrifolia) नामक जाति का वृक्ष है, जिसे चिरबिल्व, करंजक वृक्ष या वृद्धकरंज तथा उदकीर्य और लोकभाषाओं में चिलबिल, पापड़ी, कंजू तथा कणझी आदि नाम दिए गए हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
इसके वृक्ष प्राय: बहुत ऊँचे और मोटे होते हैं और नदी नालों के सन्निकट अधिक पाए जाते हैं। छाल धूसर वर्ण की और पत्तियाँ प्राय: अखंड और लंबाग्र होती हैं। ताजी छाल और काष्ठ से तथा मसलने पर पत्तियों से तीव्र दुर्गन्ध आती है। जाड़ों में पत्ते गिर जाने पर नंगी शाखाओं पर सूक्ष्म हरित पुष्पों के गुच्छे निकलते हैं और ग्रीष्म में बहुत हलके, पतले चिपटे तथा सपक्ष वृत्ताकार फलों के गुच्छे बन जाते हैं, जो सूखने पर वायु द्वारा प्रसारित होते हैं। द्विखंडित पंख के बीच में एक बीज बंद रहता है जिसे निकालकर ग्रामीण बाच्चे चिरौंजी की भाँति खाते हैं। बीजों से तेल भी निकाला जा सकता है। प्रथम श्रेणी के करंज के सदृश इसके पत्र, बीज तथा बीजतैल चिकित्सोपयोगी माने जाते हैं, किंतु आजकल इन्हें प्रयोग में नहीं लाया जाता। शोथ, व्रण तथा चर्मरोगों में इसका उपयोग ग्रामीण चिकित्सा में पाया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
यह एक काँटेदारलता सदृश फैला हुआ गुल्म है जिसे विटपकरंज, कंटकीरंज, प्रकीर्य और लोकभाषा के कंजा, सागरगोटा तथा नाटा करंज कहते हैं। इसका एक नाम 'फ़ीवर नट' (Fever nut) भी है। आधुनिक ग्रंथकारों ने इसे ही आयुर्वेदीय साहित्य का 'पूर्ति (ती) क' एवं 'पूतिकरंज' भी लिखा है। किंतु करंज के सभी भेदों में न्यूनाधिक पूति (दुर्गंध) होने के कारण किसी वर्गविशेष को ही पूतिकरंज कहना संगत नहीं प्रतीत होता।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
कटकरंज लेग्यूमिनोसी कुल एवं सेज़ैलपिनिआपडी उपकुल का सेज़ैलपिनिया क्रिस्टा (Caesalpinia crista) नाम का गुल्म है, जिसकी काँटेदार शाखाएँ लता के समान फैलती है। काँटे दृढ़मूलक, सीधे अथवा पत्रदंड पर प्राय: टेढ़े होते हैं। पत्तियाँ द्विपक्षवत्‌ (बाइपिन्नेट, bipinnate) और पत्रक लगभग एक इंच तक बड़े होते हैं। हलके पीले पुष्पों की मंजरियाँ नक्तमाल के फलों के आकार की होती हैं, किंतु फल काँटों से ढके रहते हैं और उनमें दृढ़ कवचवाले तथा धूम्रवर्ण के प्राय: दो-दो बीज होते हैं। बीज, बीजतैल एवं पत्ती का चिकित्सा में अधिक उपयोग होता है। कटकरंज उत्तम ज्वरघ्न, कटु, पौष्टिक, शोथघ्न और कृमिघ्न द्रव्य है और सूतिकाज्वर, शीतज्वर, यकृत एवं प्लीहा के रोग तथा कुपचन में इसके पत्ते का रस, या बीजचूर्ण का उपयोग होता है। यद्यपि निघंटुओं में करंज के तीन भेद बताए गए हैं, तथापि चिकित्साग्रंथों में अनेक बार 'करंजद्वय' का एक साथ उपयोग बतलाया गया है। करंजद्वय से यहाँ किन-किन भेदों का ग्रहण होना चाहिए, इसका निर्णय प्रसंग तथा व्यक्तिगत गुणों के अनुसार किया जा सकता है।
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3,105.185588
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
करँज के वृक्ष बहुत बडे-बडे होते हैं। जो अधिकतर वनों में होते हैं। पत्ते पाकर पत्तों के समान गोल होते हैं। और ऊपर के भाग में चमकदार होते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
करँज पचने में चरपरी, नेत्र हितकारी, गरम, कडुवी, कसैली तथा उदावर्त, वात योनी रोग, वात गुल्म, अर्श, व्रण, कण्डू, कफ, विष, कुष्ठ, पित्त, कृमि, चर्मरोग, उदररोग, प्रमेह, प्लीहा को दूर करती है। करँज के फल - गरम, हल्के तथा शिरोरोग, वात, कफ, कृमि, कुष्ठ, अर्श और प्रमेह को नष्ट करते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
पचने में चरपरे, गरम, भेदक, पित्तजनक, हल्के तथा वात, कफ, अर्श, कृमि, घाव तथा शोथ रोग नाशक है। फूल - ऊष्ण, वीर्य तथा त्रिदोष नाशक है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C
करंज
तीक्ष्ण, गरम, कृमिनाशक, रक्तपित्तकारक, तथा नेत्र रोग, वात पीडा, कुष्ठ, कण्डू, व्रण तथा खुजली को नष्ट करता है। इसके लेप से त्वचा विकार दूर होते हैं घृत करँज - चरपरा गर्म तथा व्रण, वात, सर्व प्रकार के त्वचा रोग, अर्श रोग, तथा कुष्ठ रोग को नष्ट करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE
मुण्डा
मुण्डा भारत की एक जनजाति है, जो मुख्य रूप से झारखण्ड के छोटा नागपुर क्षेत्र में निवास करता है। झारखण्ड के अलावा ये बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा आदि भारतीय राज्यों में भी रहते हैं। इनकी भाषा मुण्डारी आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की एक प्रमुख भाषा है।
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3,097.480602
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE
मुण्डा
उनका भोजन मुख्य रूप से धान, मड़ुआ, मक्का, जंगल के फल-फूल और कंद-मूल हैं। वे सूत्ती वस्त्र पहनते हैं। महिलाओं के लिए विशेष प्रकार की साड़ी होती है, जिसे बारह हथिया (बारकी लिजा) कहते हैं। पुरुष साधारण-सा धोती का प्रयोग करते हैं, जिसे तोलोंग कहते हैं। मुण्डा, भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं। २० वीं सदी के अनुसार उनकी संख्या लगभग १,०००,००० थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE
मुण्डा
मुण्डा लोगों का इतिहास अस्पष्ट है। यद्यपि वे छोटा नागपुर में कैसे आए, यह विवादित है, लेकिन इस बात पर सहमति है कि आधुनिक मुण्डा भाषाओं के बोलने वाले पूर्वजों ने महाद्वीपीय दक्षिण पूर्व एशिया के ऑस्ट्रोआयसटिक मातृभूमि से पश्चिम की ओर पलायन किया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE
मुण्डा
भाषाविद, पॉल सिडवेल (2018) के अनुसार, प्रोटो-मुण्डा भाषा शायद ऑस्ट्रोएशियाटिक से अलग हो गई है जो आज दक्षिणी चीन या दक्षिण पूर्व एशिया से लगभग 4000-3500 साल पहले पूर्वी भारत में आया। मुंडा की एक समूह पूर्व में चली गई और अन्य मुंडाओं के साथ संबंध खो दिया, जिसे भूमिज जनजाति कहा जाता है। मुंडा, भूमिज और हो जनजाति एक ही नस्ल के हैं, जबकि संथाल थोड़ी भिन्न है। मुंडारी, भूमिज, हो और संथाली भाषा में थोड़ी समानताएं भी देखी जा सकती है। मुंडा-भूमिज की अपनी एक पारंपरिक शासन व्यवस्था होती है, जिसे मुंडा-मानकी शासन व्यवस्था कहा जाता है।
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मुण्डा
1800 के दशक के अन्त में, मुण्डा स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुण्डा ने भारत के ब्रिटिश शासन का विरोध करने का काम किया था।
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मुण्डा
मुण्डा संस्कृति की सामाजिक व्यवस्था बहुत ही बुनियादी और सरल है। मुण्डाओं के लिए भारतीय जाति व्यवस्था विदेशी है। उनके दफनाए गए पूर्वज परिवार के अभिभावक के रूप मे याद किए जाते हैं। दफन पत्थर (ससन्दीरी) उनका वंशावली का प्रतीक है। यह पत्थर सुलाकर धरती पर रखी जाती है पर कब्र के रूप में चिन्हित नहीं होता। बल्कि, मृतकों के हड्डियों को इस पत्थर के तहत रखते हैं, जहाँ पिछले पूर्वजों की हड्डियाँ भी मौजूद हैं। जब तक कब्रिस्तान (जंग तोपा) समारोह नहीं होता तब तक मृतकों के हड्डियों को मिट्टी के बर्त्तन में रखा जाता है। हर वर्ष में एक बार, परिवार के सभी सदस्य अपनी श्रद्धाञ्जलि देने के लिए दफन पत्थरों पर जाते हैं और यह आवश्यक माना है। पूर्वजों को याद करने के लिए अन्य पत्थर भी हैं जिन्हें मेमोरियल पत्थर (भो:दीरी) कहा जाता है। यह पत्थर खड़े स्थिति में रखा जाता है। इस पत्थर को रखने के लिए भी समारोह होता है जिसे पत्थर गड़ी (दीरी बीन) पर्ब कहते हैं।
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मुण्डा
जयपाल सिंह मुण्डा : ओलंपिक में सर्वप्रथम स्वर्ण पदक दिलाने वाले भारतीय हॉकी टीम के कप्तान। संविधान सभा के सदस्य। झारखंड आंदोलन के प्रणेता।
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मुण्डा
राम दयाल मुण्डा : आदिवासी मामलों के विद्वान। भाषाविद, शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी और मानवशास्त्री। पदमश्री से सम्मानित।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE
मुण्डा
कड़िया मुण्डा : राजनीतिज्ञ, कई बार भारत सरकार में मंत्री रह चुके है। लोकसभा में डिप्टी स्पीकर का भी पदभार संभाल चुके हैं। पदम भूषण पुरस्कार से सम्मानित।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5
हिन्दुत्व
'धर्म जिसे ऐतिहासिक कारणों से 'हिन्दू धर्म' कहा जाता है वह जीवन के सभी नियमों को शामिल करता है । जो जीवन के सुख के लिए आवश्यक है। भारत के उच्चतम न्यायालय की ओर से विचार व्यक्त करते हुये न्यायमूर्ति जे. रामास्वामी ने उक्त बात कही । (ए.आई.आर. 1996 एल.सी. 1765) – धर्म या हिन्दू धर्म' सामाजिक सुरक्षा और मानवता के उत्थान के लिए किए गए कार्यों का समन्वय करता है। उन सभी प्रयासों का इसमें समावेश है जो कि उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति में तथा मानव मात्र की प्रगति में सहायक होते हैं। यही धर्म है, यही हिन्दू धर्म है और अन्तत: यही सर्वधर्म समभाव है। (पैरा 81)
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5
हिन्दुत्व
इसके विपरीत भारत के एकीकरण हेतु धर्म वह है जो कि स्वयं ही अच्छी चेतना या किसी की प्रसन्नता के वांछित प्रयासों से प्रस्फुटित एवं सभी के कल्याण हेतु, भय, इच्छा, रोग से मुक्त, अच्छी भावनाओं एवं बंधुत्व भाव, एकता एवं मित्रता को स्वीकृति प्रदान करता है। यही वह मूल ‘रिलीजन' है जिसे संविधान सुरक्षा प्रदान करता है।' (पैरा 82)
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5
हिन्दुत्व
हिंदुत्व हिंदू राष्ट्रवादी स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके संगठनों, संघ परिवार के संबद्ध परिवार की मार्गदर्शक विचारधारा है। [१११] सामान्य तौर पर, हिंदुत्ववादियों (हिंदुत्व के अनुयायियों) का मानना है कि वे भारत में हिंदू धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म, अयावाज़ी, जैन धर्म और अन्य सभी धर्मों की भलाई का प्रतिनिधित्व करते हैं।
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हिन्दुत्व
अधिकांश राष्ट्रवादी राजनीतिक उपकरण के रूप में हिंदुत्व की अवधारणा का उपयोग करके राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संगठनों में संगठित होते हैं। 1925 में स्थापित आरएसएस का पहला हिंदुत्व संगठन था। एक प्रमुख भारतीय राजनीतिक दल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), हिंदुत्व की वकालत करने वाले संगठनों के एक समूह के साथ निकटता से जुड़ी हुई है। वे सामूहिक रूप से खुद को "संघ परिवार" या संघों के परिवार के रूप में संदर्भित करते हैं, और आरएसएस, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद को शामिल करते हैं। अन्य संगठनों में शामिल हैं:
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हिन्दुत्व
राजनीतिक दल जो संघ परिवार के प्रभाव से स्वतंत्र हैं, लेकिन यह भी कि हिंदुत्व की विचारधारा के लिए हिंदू महासभा, प्रफुल्ल गोराडिया के अखिल भारतीय जनसंघ, [112] सुब्रमण्यम स्वामी की जनता पार्टी [113] और मराठी राष्ट्रवादी शिवसेना शामिल हैं। [114] और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना। शिरोमणि अकाली दल एक सिख धार्मिक पार्टी है जो हिंदुत्व संगठनों और राजनीतिक दलों के साथ संबंध बनाए रखती है, क्योंकि वे भी सिख धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं।
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हिन्दुत्व
आरएसएस जैसे संगठनों की हिंदुत्व विचारधारा की तुलना "फासीवाद" या "नाजीवाद" से की गई है। उदाहरण के लिए, 4 फरवरी 1948 को प्रकाशित एक संपादकीय, नेशनल हेराल्ड में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से जुड़ा एक भारतीय समाचार पत्र, ने कहा कि "यह आरएसएस हिंदू धर्म को नाज़ी रूप में मूर्त रूप देता है" इस सिफारिश के साथ कि यह होना चाहिए समाप्त हो गया। [116] इसी तरह, 1956 में, एक अन्य कांग्रेस पार्टी के नेता ने हिंदुत्व-विचारधारा पर आधारित जनसंघ की तुलना जर्मनी में नाजियों से की। मारज़िया कासोलारी ने हिंदुत्व विचारधारा के शुरुआती नेताओं द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध द्वितीय यूरोपीय राष्ट्रवादी विचारों के संघ और उधार को जोड़ा है।
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हिन्दुत्व
हिंदुत्व संगठनों की बयानों या प्रथाओं में उनके विश्वास के लिए आलोचना की गई है कि वे वैज्ञानिक और तथ्यात्मक दोनों होने का दावा करते हैं लेकिन वैज्ञानिक विधि के साथ असंगत हैं, और इसलिए उन्हें छद्म विज्ञान के रूप में वर्गीकृत किया गया है। गोमूत्र और गोबर से रोगों और कैंसर के इलाज के बारे में में उनके दावों का कोई वैज्ञानिक समर्थन नहीं है। वास्तव में, पंचगव्य के व्यक्तिगत घटकों, जैसे कि गोमूत्र के अंतर्ग्रहण से संबंधित अध्ययनों का कोई सकारात्मक लाभ नहीं हुआ है, और ऐंठन, उदास श्वसन और मृत्यु सहित महत्वपूर्ण दुष्प्रभाव हैं। अन्य धार्मिक समूहों की तरह, हिंदू संगठनों का दावा है कि प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों में कई सच्चे वैज्ञानिक तथ्य हैं और इसलिए उन्हें वैज्ञानिक ग्रंथों के रूप में माना जा सकता है। उनमें से कई हिंदू पौराणिक कथाओं को इतिहास के रूप में मानते हैं।
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हिन्दुत्व
भाजपा शासित गुजरात राज्य का स्कूल पाठ्य पुस्तकों में उल्लेख किया है, कि हिंदू भगवान राम ने पहला हवाई जहाज उड़ाया था और यह स्टेम सेल तकनीक प्राचीन भारत में जानी जाती थी। 2014 में, मुंबई में रिलायंस अस्पताल के खुलने पर बोलते हुए, नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि हिंदू भगवान गणेश का सिर कुछ प्लास्टिक सर्जन द्वारा तय किया गया होगा और कर्ण एक परखनली (टेस्‍ट ट्यूब) शिशु था। 2017 में, भारत के कनिष्ठ शिक्षा मंत्री, सत्यपाल सिंह ने कहा कि केवी छात्रों को प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए, जिसमें इस तथ्य का भी उल्लेख है कि विमान का उल्लेख सबसे पहले प्राचीन हिंदू महाकाव्य रामायण में किया गया था। १ ९ जनवरी 2018 को, सत्यपाल सिंह ने सार्वजनिक रूप से चार्ल्स डार्विन की क्रम-विकास (थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन) को ललकारा और उन्होंने दावा किया कि "डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है। ... हमारे उदाहरणों में किसी ने भी लिखा है या। मौखिक रूप से नहीं कहा गया है कि उन्होंने एक आदमी को एक आदमी में बदल दिया है। "। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि डार्विन विकास के बारे में गलत थे और विकास के विचार को स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम से हटा दिया जाना चाहिए। कई वैज्ञानिकों ने बाद में सत्य पाल सिंह की उनके अवैज्ञानिक बयान के लिए आलोचना की। 2018 में, केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दर्शकों और आयोजकों को झटका दिया जब उन्होंने कहा कि स्टीफन हॉकिंग ने भी कहा था कि "वेदों में आइंस्टीन की तुलना में बेहतर सिद्धांत हैं"। 2014 में, रमेश पोखरियाल ने विवाद का कारण बना जब उन्होंने संसद में एक बयान दिया कि यह दावा किया जाता है कि ज्योतिष को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा "ज्योतिष सबसे बड़ा विज्ञान है। यह वास्तव में विज्ञान से ऊपर है। हमें इसे बढ़ावा देना चाहिए"। भगवान गणेश के बारे में बात करते हुए, उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीयों को एक गंभीर सिर को प्रत्यारोपण करने का ज्ञान था। उन्होंने यह भी दावा किया है कि ऋषि कणाद ने लाखों साल पहले परमाणु परीक्षण किया था (भले ही ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, ऋषि के लगभग दो हजार साल पहले ही जीवित होने की संभावना है)। आईआईटी बॉम्बे के 57 वें दीक्षांत समारोह में अगस्त 2019 में, पोखरियाल ने दावा किया कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने स्वीकार किया था कि केवल कम्प्यूटर पर काम करने से ही कंप्यूटर पर बात की जा सकती है, जिसे उन्होंने "दुनिया की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा" बताया। उन्होंने यह भी गलत बताया कि उसी समारोह में, चरक, जिसे आयुर्वेद के प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक के रूप में माना जाता है, पहले व्यक्ति थे जिन्होंने परमाणुओं और अणुओं की खोज की और खोज की, जब वास्तविकता में, यह 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व दार्शनिक कणाद थे जिन्होंने नींव की नींव विकसित की थी संस्कृत के पुस्तक वैशेषिक दर्शन सूत्र में भौतिकी और दर्शन के लिए एक परमाणु दृष्टिकोण।
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हिन्दुत्व
मार्च 2020 में, अखिल भारतीय हिंदू महासभा के प्रमुख स्वामी चक्रपाणि महाराज ने "गौमूत्र पार्टी" आयोजित की और दावा किया कि गोमूत्र 2019 नोवेल कोरोनावायरस के लिए "एकमात्र इलाज" है। 2019 में, भाजपा नेता प्रज्ञा सिंह ठाकुर की यह कहने के लिए आलोचना की गई थी कि गोमूत्र और पंचगव्य का उपयोग करने के कारण उनका स्तन कैंसर ठीक हो गया था। हिंदुत्व के समर्थकों का दावा है कि देसी गाय के दूध में सोने के निशान हैं, गोहत्या के कारण भूकंप आते हैं और गोबर विकिरण को कम करता है। वैज्ञानिकों ने कहा कि ये सभी दावे बिना किसी वैज्ञानिक समर्थन के हैं। गाय विज्ञान (कामधेनु गौ-विज्ञान प्रसार-प्रसार) पर राष्ट्रीय स्तर की स्वैच्छिक ऑनलाइन परीक्षा 25 फरवरी, 2021 को राष्ट्रीय कामधेनु आयोग (RKA) द्वारा आयोजित की जाएगी, जो पशुपालन और डेयरी विभाग, भारत सरकार के तहत स्थापित है। 2020 में, भाजपा सरकार के तहत आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) ने दावा किया कि 2019 नोवेल कोरोनावायरस को ठीक करने के लिए आयुर्वेदिक उपचार का उपयोग किया जाना चाहिए। 2016 में ऐसे ही एक उदाहरण में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी विवादास्पद टिप्पणी की थी कि गाय का गोबर कोहिनूर हीरा की तुलना में अधिक मूल्यवान है।
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ग्रहण
ग्रहण तभी हो सकता है जब सूर्य और चन्द्रमा चन्द्रपातों के निकट हों । ऐसा वर्ष में दो बार होता है । एक कैलेंडर वर्ष में चार से सात ग्रहण हो सकते हैं , एक ग्रहण वर्ष या ग्रहण युग में ग्रहणों की पुनरावृत्ति होती है।
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ग्रहण
सूर्य ग्रहण तब होता है जब पृथ्वी के दर्शक के लिए चंद्रमा सूर्य के सामने से गुजरता है। सूर्य ग्रहण का पूर्ण या आंशिक या वलयाकार होना घटना के दौरान चन्द्रपात के सापेक्ष सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति, और पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी पर और इस पर भी निर्भर करता है कि दर्शक पृथ्वी पर कहाँ खडा है । अलग अलग स्थान से दर्शक को अलग अलग प्रकार के ग्रहण दिखाई दे सकते हैं।
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ग्रहण
यदि सूर्य और चन्द्रमा बिलकुल सटीक चन्द्रपात पर हैं तो या तो पूर्ण सूर्य या वलयाकार सूर्य ग्रहण होंगे। चन्द्रमा के पृथ्वी के निकट होने पर पूर्ण और दूर होने पर वलयकार सूर्य ग्रहण होगा। चन्द्रमा में बहुत अधिक बदलाव नहीं होता इसलिए वलयकार सूर्य ग्रहण भी लगभग पूर्ण सूर्य ग्रहण जैसा ही दिखाई देता है , बस इसमें पूर्णता से समय हल्का का सूर्य का किनारा दिखाई देता है जिसे अग्नि कुण्डल ( रिंग ऑफ़ फायर) कहते है। पूर्ण सूर्य ग्रहण तब दिखाई देता है दर्शक चन्द्रमा की छाया के गर्भ अर्थात प्रच्छाया में हो । उपछाया से देख रहे दर्शकों को आंशिक सूर्य ग्रहण ही दिखाई देता है। कभी कभी सूर्य ग्रहण के समय पृथ्वी के किसी भी भाग पर प्रच्छाया नहीं पड़ती , उस समय कहीं से भी पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखाई नहीं देता।
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ग्रहण
ग्रहण परिमाण सूर्य के व्यास का वह अंश है जो चंद्रमा द्वारा ढका हुआ है। पूर्ण ग्रहण के लिए, यह मान हमेशा एक से अधिक या उसके बराबर होता है। आंशिक और पूर्ण दोनों ग्रहणों में ही ग्रहण परिमाण चंद्रमा के और सूर्य के कोणीय आकार का अनुपात है।
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ग्रहण
सूर्य ग्रहण अपेक्षाकृत संक्षिप्त घटनाएँ हैं जिन्हें केवल अपेक्षाकृत संकीर्ण पथ के साथ पूर्णता में देखा जा सकता है। सबसे अनुकूल परिस्थितियों में, पूर्ण सूर्य ग्रहण 7 मिनट , 31 सेकंड तक रह सकता है और 250 किलोमीटर तक के ट्रैक के साथ देखा जा सकता है किमी चौड़ा। हालाँकि, वह क्षेत्र जहाँ आंशिक ग्रहण देखा जा सकता है, बहुत बड़ा है। चंद्रमा की छाया का केंद्र पूर्व की ओर 1,700  किमी/घंटा की दर से आगे बढ़ेगा, जब तक कि यह पृथ्वी की सतह से दूर नहीं निकल जाता।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A3
ग्रहण
सूर्य ग्रहण के दौरान, चंद्रमा कभी-कभी सूर्य को पूरी तरह से ढक सकता है क्योंकि इसका आकार पृथ्वी से देखने पर सूर्य के आकार के लगभग समान होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A3
ग्रहण
जब पृथ्वी की सतह के अलावा अंतरिक्ष में अन्य बिंदुओं पर देखा जाता है, तो सूर्य को चंद्रमा के अलावा अन्य पिंडों द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। दो उदाहरणों में एक बार अपोलो 12 के चालक दल ने 1969 में सूर्य को ग्रहण करते हुए पृथ्वी को देखा और जब कैसिनी शोध यान ने 2006 में शनि को सूर्य ग्रहण करने के लिए देखा।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A3
ग्रहण
चंद्र ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया से होकर गुजरता है। यह केवल पूर्णिमा के दौरान होता है, जब चंद्रमा सूर्य से पृथ्वी के सबसे दूर होता है। सूर्य ग्रहण के विपरीत, चंद्रमा का ग्रहण लगभग पूरे गोलार्ध से देखा जा सकता है। इस कारण से किसी स्थान से चंद्र ग्रहण दिखाई देना अधिक आम बात है। एक चंद्र ग्रहण लंबे समय तक चलता है, पूरा होने में कई घंटे लगते हैं, पूर्णता के साथ आमतौर पर लगभग 30 मिनट से लेकर एक घंटे तक भी औसत होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A3
ग्रहण
चंद्र ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं: उपछाया ग्रहण , जब चंद्रमा केवल पृथ्वी के उपछाया को पार करता है; आंशिक ग्रहण , जब चंद्रमा आंशिक रूप से पृथ्वी की छाया की प्रच्छाया (छाया का गर्भ या केंद्र ) में आ जाता है ; और पूर्ण ग्रहण , जब चंद्रमा पूरी तरह से पृथ्वी की छाया की प्रच्छाया में आ जाता है। पूर्ण चंद्र ग्रहण तीनों चरणों से होकर गुजरता है। हालांकि, पूर्ण चंद्र ग्रहण के दौरान भी, चंद्रमा पूरी तरह से प्रकाशहीन नहीं होता है। पृथ्वी के वायुमंडल के माध्यम से अपवर्तित सूर्य का प्रकाश प्रच्छाया में प्रवेश करता है और एक फीकी रोशनी प्रदान करता है। सूर्यास्त के समय की तरह ही , वायुमंडल कम तरंग दैर्ध्य के प्रकाश को का प्रकीर्णन अधिक करता है, इसलिए शेष बचे अपवर्तित प्रकाश से चंद्रमा में एक लाल आभा होती है, पश्चिमी समाज के प्राचीन वर्णनों में 'ब्लड मून' वाक्यांश के प्रयोग अक्सर ऐसे ही चाँद के विषय में है।
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