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20231101.hi_186347_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
संक्षारण
1. संक्षारण क्रिया में धातु से केवल बाहरी तल में परिवर्तन होता है। इसके फलस्वरूप धातु के बाह्य तल पर संक्षारण उत्पाद का एकत्रीकरण होता है, अथवा ऐसे उत्पाद का विलयन द्वारा धातु के तल से बहिष्कार होता जाता है। इस प्रकार के संक्षारण से धातु का अपरिवर्तित अवशेष उस समय तक विद्यमान रहता है जब तक धातु का संक्षारण शत प्रति शत न हो जाए।
0.5
3,050.245875
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संक्षारण
2. क्रिया के फलस्वरूप धातुओं के तल पर होनेवाले परिवर्तन के साथ ही धातु में अंतर्क्रिस्टलीय वेधन भी होता है। इस प्रकार की संक्षारण क्रिया को क्रिस्टलीय संक्षारण कहा जाता है और इसके फलस्वरूप अवशिष्ट धातु के भीतरी भाग में भंगुरता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार के संक्षारण से ऊपर से ठीक दिखाई पड़नेवली संक्षारित धातु के यांत्रिक बल में न्यूनता उत्पन्न हो जाती है।
0.5
3,050.245875
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संक्षारण
3. धातु के केवल बाहरी तल पर ही संक्षारण क्रिया नहीं होती, वरन् वह धातु की समस्त संहति में व्याप्त हो जाती है। इस प्रकार संक्षारण को पश्चकायिक (meta-somatic) संक्षारण, अथवा परिवर्तन कहा है।
0.5
3,050.245875
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संक्षारण
4. संक्षारण की तीव्र एवं अंतिम स्थिति में धातुसंरचना में आमूल परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है, परंतु बाह्य अवस्था एवं आकार में कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। इस प्रकार के संक्षारण से ढलवे लोहे का ग्रेफाइटीकरण (graphitisation) हो जाता है। संक्षारण की क्रिया से पीतल में से यशद का निर्यशदीकरण (Dezincification) इसी प्रकार की संक्षारण क्रिया का एक अन्य उदाहरण है।
1
3,050.245875
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संक्षारण
धातुओं के संक्षारण निवारण में सैद्धांतिक रूप में उन सभी उपायों एवं कारकों को छोड़ देना पड़ता है जो स्थायी अवस्था के प्रत्यावर्तन को प्रोत्साहित करते हैं। इस प्रकार के कारक विभिन्न धातुओं के लिए भिन्न भिन्न होते हैं, परंतु सामान्य रूप में ऑक्सीजन तथा ऑक्सीजन मिश्रित विलयन एवं जल में विलेय पदार्थ स्थायी अवस्था के प्रत्यावर्तन को प्रोत्साहित करते हैं। संक्षारण के निवारण में उपर्युक्त कारकों का पूर्ण बहिष्कार प्राय: असंभव होता है। अत: इनकी उपस्थिति में स्वयंस्थिरक (stiffening) क्रियाओं का सहारा लिया जाता है। धातुसंक्षारण की विशेष परिस्थितियों में संक्षारण की गति पर अधिकतम अवरोध उत्पन्न करनेवाले कारक को संक्षारण का नियंत्रक कारक कहा जाता है। औद्योगिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्राय: सभी धातुओं के बाह्य तल पर वातावरण में खुले रहने से दिखाई देनेवाली, अथवा न दिखाई देनेवाली, सूक्ष्म परत जम जाती है, जो अनुवर्ती संक्षारण प्रक्रियायों को प्रभावित करती है। सामान्यत: यह परत खुली धातु के ऑक्साइड से निर्मित होती है। इसके गुण मूल धातु के गुणों से भिन्न होते हैं तथा खुले रहने की परिस्थितियों से भी व्यवहारभिन्नता उत्पन्न होती है। अधिकांश परिस्थितियों में ऑक्साइड की यह परत मूलधातु के संक्षारण का निवारण करती है। इस प्रकार की मोटी परत जब प्रसारण एवं संकुचन के कारण कहीं कहीं से टूट जाती है, तब इन स्थानों पर विद्युत्-रासायनिक-संक्षारण प्रारंभ हो जाता है। धातुओं के संक्षारण को निम्नांकित छह भागों में विभक्त किया जाता है :
0.5
3,050.245875
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संक्षारण
(1) वायुमंडलीय संक्षारण, जिसमें धातुओं पर संक्षारण की क्रिया वायु में धातु को खुली रखने से प्रारंभ होती है (इस प्रकार के संक्षारण में वायुमंडल के जल का धातु के ऊपर निक्षेपित होना अथवा न होना दोनों ही दशाएँ सम्मिलित हैं)
0.5
3,050.245875
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संक्षारण
उपर्युक्त प्रत्येक दशा के संक्षारण प्रक्रम में विशेषता होती है और इसके निवारण के लिए भिन्न भिन्न उपाय किए जाते हैं।
0.5
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संक्षारण
संक्षारण निवारण की अंतिम रीति सर्वाधिक उपयोग में आती है। इस रीति में धातु के स्वच्छ बाह्य तल पर ऑक्साइड जैसे प्राकृतिक निवारक अधिलेप का संबलन अथवा उसके सदृश प्रभावोत्पादक कृत्रिम अधिलेप पदार्थ का उपयोग किया जाता है। अधिलेप द्वारा निवारण की इस रीति में रंगलेप एवं इसी प्रकार के अन्य लेपों का उपयोग होता है, जिनमें क्षारक क्रोमेट पदार्थ, लिथार्ज, रक्त सीस, लाल लोह ऑक्साइड, ग्रैफाइट, विटुमिनी पदार्थ आदि प्रमुख हैं। संक्षारण निवारण में गैल्वनीकरण, धातुकणीकरण (atomization), सीमेंट करण, विद्युत् निक्षिप्त अधिलेप तथा अन्य धातु अधिलेप का अधिकाधिक उपयोग होने लगा है।
0.5
3,050.245875
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%97%E0%A4%A2%E0%A4%BC
टीकमगढ़
बल्देवगढ़ तहसील का यह गांव जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर टीकमगढ़-छतरपुर रोड पर स्थित है। यह गांव जैन तीर्थ का प्रमुख केन्द्र कहा जाता है। अनेक प्राचीन जैन मंदिर यहां बने हैं, जिनमें शांतिनाथ मंदिर प्रमुख है। इस मंदिर में शांतिनाथ की 20 फीट की प्रतिमा स्थापित है। एक बांध के साथ चंदेल काल का जलकुंड यहां देखा जा सकता है। इसके अलावा श्री वर्द्धमान मंदिर, श्री मेरू मंदिर, श्री चन्द्रप्रभ् मंदिर, श्री पार्श्‍वनाथ मंदिर, श्री महावीर मंदिर, श्री बाहुबली मंदिर और पंच पहाड़ी मंदिर यहां के अन्य लोकप्रिय मंदिर हैं। बाहुबली मंदिर में भगवान बाहुबली की 15 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित है।
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
टीकमगढ़ से ५ किलोमीटर दूर सागर टीकमगढ़ मार्ग पर पपौरा जी जैन तीर्थ है, जो कि बहुत प्राचीन है और यहाँ १०८ जैन मंदिर हैं जो कि सभी प्रकार के आकार मैं बने हुए। जैसे- रथ आकार और कमल आकार। यहाँ कई सुन्दर भोंयरे है।
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
संवत् 1890 में एक बार एक कलाकार मूर्तियों को बेचने के लिए 'बम्होरी' जा रहा था। अचानक बैलगाड़ी बम्होरी के पास एक पीपल के पेड़ के पास रुक गई और उसने अपने सभी प्रयासों को बेकार पाया और गाड़ी को आगे नहीं ले जा पाया पर जब कलाकार ने फैसला किया कि वह 'बंधा जी क्षेत्र' में स्थापित करेगा और उसने गाड़ी बंधा जी की ओर बढ़ाना शुरू कर दिया यह मूर्ति अब भी बंधा जी के विशाल मंदिर में स्थापित है।
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
टीकमगढ़-निवाड़ी रोड पर स्थित तहसील पृथ्वीपुर के पास मडिया ग्राम से 3 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर स्थित अछरू माता का मंदिर है। इस पहाड़ी पर स्थित अछरू माता का मंदिर बहुत चर्चित है। मंदिर एक कुंड के लिए भी प्रसिद्ध है जो सदैव जल से भरा रहता है। हर साल नवरात्रि के अवसर पर ग्राम पंचायत की देखरेख में मेला लगता है। जहां हजारों की संख्या में भीड़ आती है। जिसमें दूर-दूर से लोग आकर शिरकत करते हैं। माना जाता है कि इस कुंड से माता अपने भक्तों को कुछ न कुछ देती है जैसे गरी,दही,फल आदि। जिस भक्त को माता रानी के द्वारा (कुंड के माध्यम से) कुछ ना कुछ फल दिया जाता है उस का कार्य पूरा होता है। ग्राम मडिया,तहसील पृथ्वीपुर,जिला टीकमगढ़ में है। यहां मूर्ति नहीं है, एक कुंड के आकार का गड्ढा है। यहां चैत्र-नवरात्र में प्राचीनकाल से मेला लगता आ रहा है।
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
यह नगर टीकमगढ़-छतरपुर सड़क पर टीकमगढ़ से 26 किलोमीटर दूर स्थित है। खूबसूरत ग्वाल सागर कुंड के ऊपर बना पत्थर का विशाल किला यहां का मुख्य आकर्षण है। इस किले का विशाल मुख्य द्वार आकर्षक है एवं सात द्वार किले में प्रवेश हेतु बनाये गये थे.प्रथम प्रवेश द्वार के पहले एक पहरेदारकक्ष एवं संकरा पुल जो किले के तीन तरफ बनी खाई को पाटकर अंदर किले में ले जाता था.खाई में काँटेदार केक्टस,केवड़ा आदि जलीय पेड़ लगाये गये थे ताकि दुश्मन प्रवेश करे तो पुल पर से नीचे गिरा दिया जाये .वहाँ इन पेड़ों में जहरीले अजगर,विभिन्न सर्प मौजूद रहा करते थे.तालाब का पानी इस खाई में भरा रहने से किला अभेद्य होता था . अगला दूसरा द्वार पहरेदारों के खड़े होने के लिये काफी चौड़ा था फिर तीन द्वार और पीछे तक जाने के लिये बने हैं वहाँ एक काला खड़ा पहाड़ है जो तालाब को गहराई देता है।एक पुरानी और विशाल बंदूक आज भी किले में देखी जा सकती है। यहाँ पर एक बड़ी तोप जिसका नाम गर्भगिरावनी तोप था, क्योंकि कहा जाता है कि जब यह तोप युद्ध के समय चलती थी,तब इसके वेग से गर्भवती माताओं के गर्भ गिर जाते थे.एवं कुछ अन्य छोटीं तोपें,इनके ऐतिहासिक महत्व एवं सुरक्षा को देखते हुये भोपाल के म्यूजियम में पहुँचा दीं गईं हैं।इसी तोप के नाम पर यहाँ कहावत बनी "बल्देवगढ़ की तोप अर्थात बहुत बड़ी हस्ती, किले के दक्षिणी छोर पर तालाब के तट पर खंडहर होते हुये हिस्से में अत्यंत प्राचीन बलदेव जी का मंदिर है जिनके नाम से बलदेवगढ़ पड़ा.किले ऊपरी हिस्से में सात मढ़ियाँ बनी हुयीं हैं जिनसे झाँकने पर चारोंओर का नजारा लिया जा सकता है।यहाँ से 4 कि.मीं. दूर टीकमगढ़ रोड पर ek chhoti si pahadi par maa विंध्यवासिनी देवी मंदिर, बलदेवगढ़ का लोकप्रिय मंदिर है। चैत के महीने में सात दिन तक चलने वाले विन्ध्यवासिनी मेला यहां लगता है। यहां पान के पत्तों का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है।यदि इस स्थान को पर्यटन की दृष्टि से सुरक्षित किया जाये यहाँ बहुत सुँदर पुरातत्व से भरपूर किला,बावड़ी एवं सामग्री मिल सकती है
1
3,047.116281
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टीकमगढ़
टीकमगढ़ से 40 किलोमीटर दूर टीकमगढ़-मऊरानीपुर रोड पर यह नगर स्थित है। नगर की मदन सागर झील काफी खूबसूरत है। इस लंबी-चौड़ी झील पर दो बांध बने हैं। इन बांधों को चन्देल राजपूत सरदार मदन वर्मन ने 1129-67 ई. के आसपास बनवाया था।
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
यह निवाड़ी तहसील का लोकप्रिय गांव है। यह प्रथम स्थल है जिसे बुंदेला राजपूतों ने खंगार राजपूतों से हासिल किया था। 1539 तक यह स्थान राज्य की राजधानी था। इस गांव में एक छोटी पहाड़ी के ऊपर महाराज बीरसिंह जुदेव बुंदेला द्वारा बनवाया गया किला देखा जा सकता है। देवी महामाया ग्रिद्ध वासिनी मंदिर भी यहीं स्थित है। मंदिर में सिंह सागर नाम का विशाल कुंड है। हर सोमवार को यहां बाजार लगता है।
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
टीकमगढ़ से 5 किलोमीटर दक्षिण में जमड़ार नदी के किनारे यह गांव बसा है। गांव कुंडदेव महादेव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि मंदिर के शिवलिंग की उत्पत्ति एक कुंड से हुई थी। गांव के दक्षिण में बरीघाट नामक एक खूबसूरत पिकनिक स्थल और आकर्षक ऊँचा वाटर फॉल है। विनोबा संस्थान और पुरातत्व संग्रहालय भी यहां देखा जा सकता है
0.5
3,047.116281
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टीकमगढ़
सूर्य मंदिर के लिए विख्यात मडखेरा टीकमगढ़ से 20 किलोमीटर उत्तर पश्चिमी हिस्से में स्थित है। मंदिर का प्रवेशद्वार पूर्व दिशा की ओर है तथा इसमें भगवान सूर्य की प्रतिमा स्थापित है। इसके निकट ही एक पहाड़ी पर बना विन्ध्य वासिनी देवी का मंदिर भी देखा जा सकता है।
0.5
3,047.116281
20231101.hi_516828_4
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धारिता
वैधुत धारिता एक अदिश राशि है। वैधुत धारिता का मान सदैव धनात्मक होता है। क्योकि चालक पर आवेश तथा इसके कारण विभव में परिवर्तन के चिन्ह सामान होते हैं।
0.5
3,042.980327
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE
धारिता
(१) चालक के आवेश पर - q का मान बढ़ने पर v का मान भी उसी अनुपात में बढ़ता है। अतः धारिता नियत रहती है।
0.5
3,042.980327
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धारिता
नोट - यदि सूत्र c=q/v से v=0 तो c=∞ अतः धारिता अनन्त होगी। चूँकि पृथ्वी का विभव 0 होता है। तो पृथ्वी की धारिता अनन्त होगी। अतः प्रथ्वी अनन्त आवेश संगृहीत कर सकती है।
0.5
3,042.980327
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE
धारिता
इसी प्रकार जब हम किसी चालक को आवेश देते है तो चालक के विभव का आंकिक मान बढ़ता है। यदि चालक को आवेश लगातार देते जाये तो चालक स्थतिज ऊर्जा का संचय नहीं कर पता अर्थात वैधुत रोधन क्षमता समाप्त हो जाती है। तथा आवेश लीक होने लगता है। इस स्थिति में विभव का मान अधिकतम होता है। ओर इस प्रकार चालक द्वारा आवेश की एक निश्चित मात्रा का संग्रह ही संभव है।
0.5
3,042.980327
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE
धारिता
इसी का परोक्ष उदाहरण यह है की जब हम खाली बर्तन को जल में डालते है तो बर्तन में पानी निश्चित मात्रा तक ही बढ़ पता है और पानी तदुपरान्त बर्तन से बाहर आने लगता है। इसे बर्तन की धारिता कहते है।इसे मिलीलीटर, लीटर आदि से व्यक्त करते है।
1
3,042.980327
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धारिता
जब किसी चालक को आवेश दिया जाता है तो वह विभाजित रूप में दिया जाता है। अतः चालक पर पूर्व संचित आवेश के कारण बाह्य आवेश देने पर वैधुत प्रतिकर्षण बल के विरुद्ध कार्य किया जाता है। यही कार्य चालक में वैधुत स्थतिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाता है। जो चालक की स्थतिज ऊर्जा कहलाती है।
0.5
3,042.980327
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धारिता
माना चालक की धारिता C है प्रारम्भ में चालक पर आवेशq तथा विभवV शून्य है। माना चालक को आवेश विभाजित रूप में दिया जाता है जिससे विभव का मान भी बढ़ता है(qअनुक्रमानुपातीV)। आवेश q देने के साथ व V का मान भी बढ़ता है अतः औसत विभव-
0.5
3,042.980327
20231101.hi_516828_11
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धारिता
नोट- प्रश्न-किया गया कार्य स्थतिज ऊर्जा के रूप में क्यों संचित होता है। कार्य का ऊर्जा से क्या सम्बन्ध है।
0.5
3,042.980327
20231101.hi_516828_12
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE
धारिता
यह तत्व गणित द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है कि किसी यंत्र में जितनी ऊर्जा डाली जाये उतने ही परिमाण में हमें कार्य प्राप्त होता है उससे अधिक नहीं। यही शक्तिसातत्य का नियम है। अतः अब यह भी कहा जा सकता है कि किसी भी किये कार्य द्वारा हम किसी यन्त्र में ऊर्जा उतने ही परिमाण में संचित कर सकते है।
0.5
3,042.980327
20231101.hi_546780_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
संविधानवाद
ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप ही संविधानिक राज्यों का जन्म हुआ। मनुष्य द्वारा राजसत्ता के अत्याचार व दुरूपयोग के बचने के प्रयास के परिणाम स्वरूप संविधानवाद का जन्म हुआ। आधुनिक संविधानवाद के विस्तृत आधार हैं, किन्तु इसका मूल आधार ‘‘विधि का शासन’’ ही माना जाता है। प्राचीन काल से ही ऐसे विविध विचारो पर चिन्तन किया जाता रहा हैं जो राजसत्ता को प्रभावी ढ़ंग से नियंत्रित कर सके एवं उसके सद्-प्रयोग में सहायक बन सके। इस दृष्टिकोण से प्राचीनकाल से ही राजसत्ता एवं नैतिक अभिबन्धनों एवं धार्मिक मान्यताओं के साथ ही शाश्वत विधि, प्राकृतिक विधि, दैवीय विधि एवं मानवीय विधि के रूप में विभिन्न उपायों पर विचार करने की लम्बी परम्परा दीख पड़ती हैं।
0.5
3,040.129642
20231101.hi_546780_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
संविधानवाद
संविधानवाद ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन है। अंग्रेज़ों ने इसके ज़रिये एक तीर से तीन निशाने लगाने की कोशिश की। उनका पहला मकसद यह था कि संविधानवाद के माध्यम से उनके उपनिवेश धीरे-धीरे स्व-शासन की तरफ़ बढ़ें और वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को धीमा किया जा सके। उनका दूसरा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि स्व-शासन हासिल कर लेने के बाद भी यानी स्वतंत्र हो जाने के बावजूद उपनिवेशित राज्य उनके प्रभाव के दायरे में रहें। स्व-शासन के संविधानवादी रास्ते को इसी लिहाज़ से डिज़ाइन किया गया था। संविधानवाद से अंग्रेज़ों ने एक तीसरा और पेचीदा मकसद हासिल करने की कोशिश भी की। वे अपने उदारतावाद, संसदीय लोकतंत्र, मुक्त बाज़ार और व्यक्ति-स्वातंत्र्य के आग्रहों का तालमेल उपनिवेशवाद के सैनिक, सामाजिक और आर्थिक यथार्थ से करना चाहते थे।
0.5
3,040.129642
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
संविधानवाद
दरअसल, युरोप की उपनिवेशवादी ताकतों का साम्राज्यवादी दर्शन एक सा नहीं था। इसी के परिणामस्वरूप उपनिवेशीकरण और अ-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के प्रति वे अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाते थे। दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी भी समकालीन युरोपीय उपनिवेशवादियों से कम नस्लवादी और दमनकारी नहीं थे। पर, उन्होंने आयरलैण्ड को छोड़कर अपने अन्य उपनिवेशों में सत्ता के क्रमिक हस्तांतरण और अप्रत्यक्ष  शासन की नीति अपनायी। महारानी विक्टोरिया का शासन पैक्स ब्रिटानिका की नीति पर चलता था जिसके मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत स्थानीय रीति-रिवाज़ों और राजनीति में हस्तक्षेप करने से आम तौर पर परहेज़ करती थी। उसका जोर व्यापार, विदेश नीति और प्रतिरक्षा को अपने नियंत्रण में रखने पर रहता था। इसी के मुताबिक उन्होंने गवर्नर द्वारा नियंत्रित किये जाने वाले उपनिवेशों में भी उसे सलाह देने के लिए अधिकारियों की एक कार्यकारी परिषद् नियुक्त कर रखी थी। आगे चल कर उन्होंने विधान परिषदों का निर्वाचन भी करवाया ताकि बनाये गये कानून उपनिवेशित जनता को अपने प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये प्रतीत हों। अंग्रेज़ों के मुकाबले फ़्रांसीसियों का ज़ोर अपने उपनिवेशों के फ़्रांसीसी राष्ट्र में सम्पूर्ण आत्मसातीकरण पर रहता था।
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संविधानवाद
ब्रिटिश राजनीतिज्ञ ऐडमण्ड बर्क का कहना था कि अगर कानूनों को देशज जनता के जीनियस, प्रकृति और मानस के मुताबिक बनाया जाए तो औपनिवेशिक शासन सर्वाधिक प्रभावी साबित होता है। इसी सिद्धांत के मुताबिक एक के बाद एक ब्रिटिश सरकारों ने उपनिवेशों में बढ़ रहे राजनीतिक असंतोष का दमन तो किया ही, पर साथ ही राजनीतिक और संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया भी चलाई। इस नीति के पीछे उन्नीसवीं सदी का वह तजुर्बा था जो अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों ने अमेरिका, न्यूज़ीलैण्ड और ऑस्ट्रेलिया में स्थापित उपनिवेशों से हासिल किया था। इन उपनिवेशों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के कुछ ऐसे रूप विकसित किये गये थे जिनके तहत वहाँ के अधिवासियों को लगता था कि उन्हें इंग्लैण्ड की नागरिकता भी प्राप्त है। इसी के आधार पर अंग्रेज़ों ने नीति बनायी कि राष्ट्रवादी आंदोलनों को संविधानसम्मत राजनीति करते हुए स्व-शासन की तरफ़ जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। वहाँ की जनता को धीरे-धीरे विधायी अधिकार दिये जाएँ। पहले वे भीतरी शासन की ज़िम्मेदारी सँभालें और फिर बाद में विदेश नीति का नियंत्रण भी उनके हाथ में दे दिया जाए। अंग्रेज़ लगातार इस शब्दाडम्बर का प्रयोग करते रहे कि अपने औपनिवेशिक मिशन के ज़रिये वे एशिया और अफ़्रीका के ‘पिछड़े’ समाजों को संसदीय लोकतंत्र और उत्तरदायी शासन की विवेकपूर्ण ब्रिटिश परम्पराओं से सम्पन्न करना चाहते हैं।
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संविधानवाद
दरअसल, उपनिवेशों को अपने हाथ में रखना उत्तरोत्तर मुश्किल होता जा रहा था। इसलिए ब्रिटेन ने लचीला और परिणामवादी रवैया अख्तियार करते हुए अपनी सत्ता और प्रभाव को सुरक्षित करने के लिए संवैधानिक सुधारों का रास्ता अपनाया। संविधानवाद की नीति इस मान्यता पर आधारित थी कि किसी साम्राज्य को कायम रखने के लिए फ़ौजी दमन और जबरिया कब्ज़ा करने की नीति अब प्रभावी नहीं रह गयी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो यह हकीकत और भी साफ़ हो गयी। ब्रिटिश नीति-निर्माताओं को यकीन हो गया कि अ-उपनिवेशीकरण की चाल को केवल संवैधानिक सुधारों के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। केवल इसी तरह से ब्रिटिश सरकार नये बनने वाले स्वतंत्र और सम्प्रभु राष्ट्रों के साथ घनिष्ठ आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक रिश्ते बनाये रख सकता था।
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संविधानवाद
उपनिवेशवादियों की कोशिश रहती थी कि वे उपनिवेशित जनता को केंद्रीकृत और एकीकृत प्रशासन के तहत लाएँ ताकि उनका आर्थिक दोहन ज़्यादा से ज़्यादा किया जा सके। इसकी प्रतिक्रिया में राष्ट्रवाद आर्थिक तर्क ले कर टकराव की मुद्रा में सामने आता था। अंग्रेज़ होशियारी से राष्ट्रवादियों के बीच से उदार और नरम तत्त्वों को चुनते थे और स्थानीय नीतियाँ इस प्रकार बनाते थे कि उन्हीं तत्त्वों का बोलबाला राष्ट्रीय आंदोलन पर कायम हो जाए।  उग्र राष्ट्रवादियों का दमन करने और नरम राष्ट्रवादियों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ उनकी दूसरी नीति सामाजिक रूप से परम्परानिष्ठ और अनुदार अभिजनों के साथ गठजोड़ कर लेने की होती थी। समझा जाता है कि उनके इस संविधानवाद का सबसे कामयाब प्रयोग सीलोन (श्रीलंका) में हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अपने इस उपनिवेश के सामरिक महत्त्व देख कर अंग्रेज़ श्रीलंका को डोमीनियन या स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा देने के लिए तैयार हो गये। बदले में उन्होंने सीलोन के साथ प्रतिरक्षा और विदेश नीति के मामले में सहयोग सुनिश्चित कर लिया। श्रीलंकाई समाज सिंहली बहुसंख्या और तमिल और मुसलमान अल्पसंख्या में बँटा हुआ था। अंग्रेज़ों ने सामाजिक रूप से अनुदारवादी सिंहली प्रभुओं के साथ गठजोड़ स्थापित किया। इसी तरह मलाया को 1957 में आज़ादी देने के बदले अंग्रेज़ों ने राष्ट्रमण्डलीय व्यापार और प्रतिरक्षा प्रणाली में मलय भागीदारी को सुनिश्चित किया। 1945 के बाद ही अंग्रेज़ों ने मलाया के अनुदारपंथी परम्परागत शासकों के साथ गठजोड़ करके एक केंद्रीकृत प्रशासन खड़ा कर लिया था। इसी के तहत 1954 में चुनाव कराये गये और अंग्रेज़ों के मन की पार्टी जीत गयी। अंग्रेज़ों ने सत्ता हस्तातंरण उसी के हाथ में किया।
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संविधानवाद
संविधानवाद की यह नीति हर जगह अंग्रेज़ों की मर्जी के मुताबिक नहीं चली। उन्होंने भारत में भी संवैधानिक सुधारों की लम्बी प्रक्रिया चलाई, पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और बाद में कांग्रेस के नेतृत्व में चली ब्रिटिश विरोधी मुहिम ने उनके इरादों को नाकाम कर दिया। कांग्रेस और मुसलिम लीग के बीच ख़राब होते संबंधों ने भी अंग्रेज़ों की दाल नहीं गलने दी। हालाँकि इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रवादी आंदोलन की बागडोर गरमपंथियों के हाथों में जाने से रोकने के लिए अंग्रेज़ों ने नरमपंथियों की तरफ़दारी वाला रुख हमेशा अपनाये रखा। कुछ प्रेक्षक राष्ट्रीय आंदोलन के कुछ नेताओं की चमकदार छवि बनाने के पीछे ब्रिटिश शासन के इरादे और योजना को भी देखते हैं।
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संविधानवाद
इसी तरह पश्चिम अफ़्रीकी उपनिवेश गोल्ड कोस्ट में अंग्रेज़ों का संविधानवाद वांछित नतीजे नहीं दे पाया। 1950 के नये संविधान के तहत नक्रूमा की पार्टी ने क्रमशः के बजाय तेज़ी से संवैधानिक सुधार करने के लिए मजबूर कर दिया। सार्विक मताधिकार घोषित होने के बाद हुए चुनावों में नक्रूमा की पार्टी ने ज़ोरदार जीत हासिल की और अंग्रेज़ों की इच्छित राजनीतिक ताकतें हार गयीं।  उपनिवेशवादियों को मजबूरन नक्रूमा को सत्तारूढ़ होने के लिए जेल से रिहा करना पड़ा। 1957 में गोल्ड कोस्ट घाना गणराज्य में बदल गया। कुछ ऐसे उपनिवेश भी थे जहाँ अंग्रेज़ों ने संविधानवाद की नीति नहीं अपनायी और दमन का रवैया जारी रखा। केन्या का उदाहरण बताता है कि वहाँ की परिस्थितियों में अंग्रेज़ों ने उदीयमान अफ़्रीकी राष्ट्रवाद की शक्तियों को उग्र और अशांतिकारी कह तक ख़ारिज कर दिया। उनकी कोशिश थी कि एक बहुनस्ली संविधान पारित करवा लिया जाए ताकि श्वेत अल्पसंख्यकों का रंग-रुतबा कायम रखा जा सके। उन्होंने केन्या के सबसे बड़े कबीले किकायू की माँगे ठुकरा दीं। संवैधानिक रियायतें न देने के कारण अंग्रेज़ों ने राष्ट्रवादियों के बीच उग्रपंथियों के लिए रास्ता साफ़ कर दिया।
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संविधानवाद
3. टी. स्मिथ (सम्पा.) (1975), द ऐंड ऑफ़ युरोपियन एम्पायर : डिकोलोनाइज़ेशन आफ्टर वर्ल्ड वार ढ्ढढ्ढ, डी.सी. हीथ, लैक्सिंगटन एमए.
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भटकटैया
भटकटैया या कंटकारी (वैज्ञानिक नाम : Solanum xanthocarpum) का फैलने वाला, बहुवर्षायु क्षुप है। इसके पत्ते लम्बे काँटो से युक्त हरे होते है ; पुष्प नीले रंग के होते है ; फल क्च्चे हरित वर्ण के और पकने पर पीले रंग के हो जाते है। बीज छोटे और चिकने होते है। यह पश्चिमोत्तर भारत मे शुष्कप्राय स्थानों पर होती है। यह एक औषधीय पादप है। भटकटैया के कुछ भाग (जैसे, फल) विषैले होते हैं।
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भटकटैया
कंटकारी एक अत्यंत परिप्रसरी क्षुप हैं जो भारवतर्ष में प्राय: सर्वत्र रास्तों के किनारे तथा परती भूमि में पाया जाता है। लोक में इसके लिए भटकटैया, कटेरी, रेंगनी अथवा रिंगिणी; संस्कृत साहित्य में कंटकारी, निदग्धिका, क्षुद्रा तथा व्याघ्री आदि; और वैज्ञानिक पद्धति में, सोलेनेसी कुल के अंतर्गत, सोलेनम ज़ैंथोकार्पम (Solanum xanthocarpum) नाम दिए गए हैं।
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भटकटैया
इसका लगभग र्स्वागकंटकमय होने के कारण यह दु:स्पर्श होता है। काँटों से युक्त होते हैं। पत्तियाँ प्राय: पक्षवत्‌, खंडित और पत्रखंड पुनः खंडित या दंतुर (दाँतीदार) होते हैं। पुष्प जामुनी वर्ण के, फल गोल, व्यास में आध से एक इंच के, श्वेत रेखांकित, हरे, पकने पर पील और कभी-कभी श्वेत भी होते हैं। यह लक्ष्मणा नामक संप्रति अनिश्चित वनौषधि का स्थानापन्न माना है। आयुर्वेदीय चिकित्सा में कटेरी के मूल, फल तथा पंचाग का व्यवहार होता है। प्रसिद्ध औषधिगण 'दशमूल' और उसमें भी 'लंघुपंचमूल' का यह एक अंग है। स्वेदजनक, ज्वरघ्न, कफ-वात-नाशक तथा शोथहर आदि गुणों के कारण आयुर्वेदिक चिकित्साके कासश्वास, प्रतिश्याय तथा ज्वरादि में विभिन्न रूपों में इसका प्रचुर उपयोग किया जाता है। बीजों में वेदनास्थापन का गुण होने से दंतशूल तथा अर्श की शोथयुक्त वेदना में इनका धुआँ दिया जाता है।
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भटकटैया
आयुर्वेदिक मतानुसार भटकटैया स्वाद में कटु, तिक्त, गुण में हलकी, तीक्ष्ण, प्रकृति में गर्म, विपाक में कटु, कफ निस्सारक, पाचक, अग्निवर्द्धक, वातशामक होती है। यह दमा, खांसी, ज्वर, कृमि, दांत दर्द, सिर दर्द, मूत्राशय की पथरी नपुंसकता, नकसीर, मिर्गी, उच्च रक्तचाप में गुणकारी है।
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भटकटैया
यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार भटकटैया दूसरे दर्जे की गर्म और खुश्क होती है। यह पित्त विकार, कफ, खांसी, दमा, पेट दर्द, मंदाग्नि, पेट के अफारे में गुणकारी है।
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भटकटैया
भटकटैया की रासायनिक संरचना का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इसके पंचांग में सोले कार्पिडिन एल्केलाइड पोटेशियम नाइट्रेट और पोटेशियम क्लोराइड अल्प मात्रा में पाए जाते हैं। इसका काढ़ा सुजाक में लाभप्रद होता है।
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भटकटैया
भटकटैया का पूरा पौधा फूल, फल, पत्ती, तना, जड़-पंचाङ्ग सहित उखाड़कर लायें। उसे ठीक से धुलने के बाद। जड़ सहित सम्पूर्ण पौधे को स्टील के बड़े से बर्तन में धीमी आँच पर पकने के लिए रख दें। यह मन्द आँच पर दो-तीन घंटे पकता रहेगा। उसके बाद जब पानी तिहाई शेष बचे तब उतारकर छान लें। राज्य फिर काँच की बोतलों में भरकर रख दें।
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भटकटैया
इसका तुरंत उपयोग कर सकते हैं। इसे संग्रहीत भी कर सकते हैं आवश्यकता पड़ने पर इसे पुनः एक बार उबालकर ठंडा करके रोगी को दिया जा सकता है। इससे पुरानी से पुरानी खाँसी तो ठीक होगी ही। इसके साथ ही सारा कफ भी धीरे-धीरे बाहर आ जायेगा।
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भटकटैया
यदि बहुत पहले बनाकर बोतल में बंद रखा है तो उपयोग से पहले एकबार उबालकर ठंडा अवश्य करना चाहिए ताकि यदि कुछ विकार आया होगा तो दूर हो जाय। यह काढ़ा रोगी को 3-6दिनों तक दिया जा सकता है। दिन में दो बार। उसको एक दो खुराक से ही आराम होने लगेगा।
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फ़िल्म-निर्माण
फिल्म संपादक का पहला काम व्यक्तिगत "टेक्स" (शॉट्स) पर आधारित सिक्वेन्स (दृश्य) से लिए गए रफ कट को निर्मित करना होता है। रफ कट का उद्देश्य सबसे अच्छे शॉट का चुनाव करना और उसे क्रम में सजाना होता है। निर्देशक आमतौर पर यह सुनिश्चित करने के लिए की अनुरूप शॉट्स का चयन किया जाय, संपादक के साथ काम करता है। अगला कदम सभी दृश्यों के द्वारा एक बढ़िया कट निर्मित करना होता है ताकि वह एक अखंड कहानी के साथ सहज रूप से प्रवाहित हो सके। ट्रिमिंग, कुछ सेकेंडों में दृश्यों को छाँटने की एक प्रक्रिया, या फ्रेम भी, इसी चरण के दौरान होता है। फाइन कट के चुन लिए जाने के बाद और निर्देशक और निर्माता द्वारा अनुमोदित होने के बाद फिल्म को "ताला बंद" कर दिया जाता है, जिसका मतलब यह होता है कि अब उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा. इसके बाद, संपादक स्वत: या हाथ से निगेटिव कट सूची (एज़ कोड का इस्तेमाल करते हुए) या एक संपादन निर्णय सूची (टाइमकोड का इस्तेमाल करते हुए) बनाता है। ये संपादन सूचियां फाइन कट में प्रत्येक दृश्य के पिक्चर फ्रेम के स्रोत की पहचान करती हैं।
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फ़िल्म-निर्माण
एक बार जब पिक्चर लॉक कर दी जाती है तो उसे साउण्ड ट्रैक बनाने के लिए ध्वनि-विभाग के पोस्टप्रोडक्शन ध्वनि पर्यवेक्षण संपादक के हाथों में सौंप दिया जाता है। आवाज रिकॉर्डिंग को सिंक्रनाइज़ किया जाता है और रि-रिकॉर्डिंग मिक्सर के द्वारा अंतिम ध्वनि मिश्रण तैयार किया जाता है। ध्वनि मिश्रण में संवाद, ध्वनि प्रभाव, एटमोस, एडीआर, वाल्ला, फोलेज और संगीत शामिल हैं।
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फ़िल्म-निर्माण
ध्वनि ट्रैक और पिक्चर को एक साथ युक्त किया जाता है और यह फिल्म में निम्न गुणवत्ता आंसर प्रिंट का परिणाम है। अब रिकॉर्डिंग माध्यम पर निर्भर करते हुए उच्च गुणवत्ता रिलीज़ प्रिंट का निर्माण करने के लिए दो संभावित वर्कफ्लो होते हैं:
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फ़िल्म-निर्माण
फिल्म वर्कफ्लो में, फिल्म-आधारित आंसर प्रिंट की व्याख्या करने वाली कट सूची का प्रयोग मूल कलर निगेटिव (OCN) को काटने के लिए प्रयुक्त की जाती है और कलर मास्टर पोजिटिव या इंटरपोजिटिव प्रिंट नामक एक कलर टाइम्ड कॉपी निर्मित की जाती है। बाद के सभी चरणों के लिए यह प्रभावी रूप से मास्टर प्रतिलिपि बन जाती है। अगले कदम में कलर डुप्लिकेट निगेटिव या इंटरनिगेटिव नामक एक वन-लाइट कॉपी तैयार की जाती है। इसी कॉपी से अंतिम रूप से सिनेमा घरों में रिलीज करने के लिए बहुत सारी कॉपियां तैयार की जाती हैं। इंटरनिगेटिव से कॉपी करना सीधे-सीधे इंटरपोजिटीव से कॉपी करने की अपेक्षा ज्यादा आसान होता है क्योंकि यह वन-लाइट प्रक्रिया है; और यह इंटरपोजिटिव प्रिंट के खुरदरेपन को भी कम करता है।
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फ़िल्म-निर्माण
वीडियो वर्कफ्लो में, वीडिओ आधारित आंसर प्रिंट की व्याख्या करने वाली संपादन निर्णय सूची का उपयोग मूल कलर टेप (OCT) का संपादन करने और एक उच्च गुणवत्ता वाले कलर मास्टर टेप तैयार करने के लिए किया जाता है। बाद के सभी चरणों के लिए यह प्रभावी रूप से मास्टर कॉपी बन जाती है। अगले कदम में फिल्म रिकॉर्डर का उपयोग कलर मास्टर टेप को पढ़ने और और सिनेमाघरों में रिलीज करने वाले प्रिंट निर्मित करने हेतु प्रत्येक वीडियो फ्रेम को सीधे-सीधे फिल्म में कॉपी करने के लिए किया जाता है।
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फ़िल्म-निर्माण
अंत में सामान्य रूप से लक्षित दर्शकों के द्वारा फिल्म का पूर्वावलोकन किया जाता है और प्रतिक्रियाओं के आधार पर आगे की शूटिंग और संपादन किया जा सकता है।
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फ़िल्म-निर्माण
फिल्म को एक साथ रखने के दो तरीके हो सकते हैं। एक रास्ता रेखीय संपादन और अन्य गैर रेखीय संपादन का है।
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फ़िल्म-निर्माण
रेखीय संपादन फिल्म का उपयोग इस तरह से करता है जैसे यह एक सतत फिल्म है। फिल्म के सभी भाग पहले से ही क्रम में होते हैं और उन्हें इधर-उधर ले जाने की या करने की जरूरत नहीं होती.
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फ़िल्म-निर्माण
इसके विपरीत, गैर रेखीय संपादन में टेप किए गए क्रम को ध्यान में नहीं रखा जाता है। दृश्य चारों ओर घुमाए जा सकते हैं या हटा भी दिए जाते हैं।
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सासाराम
शेर शाह सूरी के 122 फुट (37 मी) लाल बलुआ पत्थर कब्र, भारत-अफगान शैली में निर्मित सासाराम में एक कृत्रिम झील के बीच में है। यह लोदी शैली से अत्यधिक उधार लेता है, और एक बार वह नीले और पीले रंग के टाइलों में आच्छादित था जो ईरानी प्रभाव का संकेत देते थे। बड़े पैमाने पर मुक्त खड़े गुंबद में बौद्ध स्तूप शैली का मौन काल का एक सौंदर्य पहलू भी है। शेरशाह के पिता हसन खान सूरी की कब्र सासाराम में भी है, और शेरगंज में हरे रंग के मैदान के मध्य में खड़ा है, जिसे सुखा रजा के रूप में जाना जाता है शेर शाह की कब्र के उत्तर-पश्चिम में एक किलोमीटर के बारे में अपने बेटे और उत्तराधिकारी, इस्लाम शाह सूरी की अपूर्ण और जीर्ण मस्तिष्क पर स्थित है। [2] सासाराम में भी एक बाउलिया है, जो स्नान के लिए सम्राट की कंसर्ट्स द्वारा इस्तेमाल किया गया पूल है।
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सासाराम
रोहतासगढ़ में शेर शाह सूरी का किला सासाराम में है। इस किले का 7 वें शताब्दी ईस्वी में एक इतिहास रहा है। यह राजा हरिश्चंद्र द्वारा अपने बेटे रोहितशवा के नाम पर बनाया गया था, जो उनके नाम की प्रख्यात राजा हरिश्चंद्र के पुत्र थे, जो उनकी सच्चाई के लिए जाना जाता था। यह चुरासन मंदिर, गणेश मंदिर, दिवाण-ए-ख़स, दिवाण-ए-आम, और विभिन्न अन्य संरचनाओं से अलग शताब्दियों के लिए स्थित है। किले ने राजा शासन के मुख्यालय के रूप में अकबर के शासनकाल के दौरान बिहार और बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य किया था। बिहार में रोहतस का किला उसी नाम के एक और किले के साथ उलझन में नहीं होना चाहिए, जोलहम, पंजाब के पास, जो अब पाकिस्तान है सूरतम में रोहतस का किला शेर शाह सूरी ने भी बनाया था, उस समय के दौरान जब हुमायूं हिंदुस्तान से निर्वासित हो गया था।
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सासाराम
देवी तारचंडी का एक मंदिर, दक्षिण में दो मील की दूरी पर है, और चंडी देवी के मंदिर के निकट चट्टान पर प्रताप धवल का एक शिलालेख है। देवी की पूजा करने के लिए बड़ी संख्या में हिंदुओं को इकट्ठा करना ध्वान कुंड, लगभग 36 किमी स्थित है इस शहर के दक्षिण-पश्चिम, आकर्षक पर्यटन स्थलों में से एक है और यह एक सुंदर प्राकृतिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। गुप्ता धाम भी एक आकर्षक पर्यटक और धार्मिक स्थान है, जो इस जिले के चेनारी ब्लॉक में स्थित है। यह भी सुंदर प्राकृतिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। यह जगह शिव-अराधाना का एक प्रसिद्ध केंद्र है। बड़ी संख्या में हिंदू भगवान शिव की पूजा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। दो झरने में 50-100 मेगावाट बिजली पैदा करने की पर्याप्त क्षमता है, अगर इसे ठीक से उपयोग किया जाए।
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सासाराम
रोहतास जिले के मुख्यालय सासाराम के पास कई स्मारकों हैं, जिनमें अकबरपुर, देवोमारंदे, रोहतास गढ़, शेरगढ़, ताराचंडी, ध्वान कुंड, गुप्त धाम, भालूनी धाम, ऐतिहासिक गुरुद्वारा और चन्दन शहीद के तख्ते, हसन खान सुर, शेर शाह, सलीम शामिल हैं। सासाराम के दक्षिण में रोहतास, एक बेटा रोहितशवा के नाम पर एक सत्यवाडी राजा हरिश्चंद्र का निवास स्थान है। सासाराम सम्राट अशोक स्तंभ (तेरह लघू शिलालेख में से एक) के लिए प्रसिद्ध है, चंदन शहीद के पास कामर पहाड़ी की एक छोटी सी गुफा में स्थित है। श्री स्वामी परमश्र्वर नंद जी महाराज की समाधि, जिसे अस्वाइट आश्रम, दक्षिण कुटीया के नाम से भी जाना जाता है, जो सासाराम से 12 किमी (7.5 मील) पारम्पुरी (रायपुर चौरा) में स्थित है। यह (आडवाइट आश्रम) कई राज्यों में देश के करीब 24 शाखाएं हैं। मुख्यालय सासाराम में है, और इसे नवलाखा आश्रम के रूप में भी जाना जाता है।
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सासाराम
बाबू निशान सिंह जो 1857 के गदर आजादी के संघर्ष के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे बाबू कुंवर सिंह के सेनापति थे, सासाराम से आए थे। जैननाथ भवन एक महान मकान है जो 1 9 45 में बाबू हरिहर प्रसाद वर्मा और उनकी पत्नी उमा देवी वर्मा नामक एक मैजिस्ट्रेट द्वारा बनाया गया था। इस हवेली का नाम बाबू जैननाथ प्रसाद है, जो एक ज़मीन और अंग्रेजी में अभ्यास करने वाला पहला वकील था [अस्पष्ट]। उमर देवी वर्मा द्वारा स्थापित हरिहर उमा माध्यमिक विद्यालय नामक एक माध्यमिक विद्यालय, अभी भी मेरारी बाजार पर चलते हैं, हालांकि यह अब सरकार द्वारा प्रशासित है।
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सासाराम
सासाराम अशोक (तरह माइनर रॉक एडिट्स में से एक) के एक शिलालेख के लिए भी प्रसिद्ध है, जो चंदन शहीद के पास कैमूर पहाड़ी की एक छोटी सी गुफा में स्थित है। यह शिलालेख सासाराम के निकट कैमूर रेंज के टर्मिनल स्पर के शीर्ष के पास स्थित है।
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सासाराम
सहसराम में शेरशाह सूरी का शानदार मक़बरा बना हुआ है। इसे स्वयं शेरशाह सूरी ने अपने जीवन काल में बनवाया था। यह अपने समय की कला का श्रेष्ठतम नमूना है। एक विशाल झील के मध्य उठे हुए चबूतरे पर बना यह मक़बरा उसके 'व्यक्तित्व का प्रतीक' है। यह तुग़लक़ बादशाहों की इमारतों की सादगी और शाहजहाँ की इमारतों की स्त्रियोचित सुन्दरता के बीच की कड़ी है। यह भवन अपनी परिकल्पना में इस्लामी पर इसका भीतरी भाग हिन्दू वास्तुकला से सजाया-सँवारा गया है।
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सासाराम
इसे उत्तर भारत की श्रेष्ठ इमारतों में से एक कहा गया है। इस पर हिन्दू और इस्लामी कला का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। वस्तुतः अकबर के राज्यकाल के पूर्व हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य के समंवय का सबसे सुन्दर नमूना शेरशाह का मक़बरा है।
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सासाराम
शहर के मध्य में बना शेर शाह का मकबरा, भारत में पठान वास्तुकला के सबसे अच्छे नमूनों में से एक है, पत्थर की एक भव्य संरचना है, जो एक ठीक टैंक के बीच में खड़ी है, और सोलहवीं शताब्दी के मध्य में बनाई गई थी। . इसकी मंजिल से गुंबद के शीर्ष तक की ऊंचाई है और पानी के ऊपर इसकी कुल ऊंचाई फीट से अधिक है।मकबरे को बनाने वाले अष्टभुज का आंतरिक व्यास फीट और बाहरी व्यास फीट है। यह मकबरा भारत का दूसरा सबसे ऊंचा मकबरा है जो पर्यटकों को आकर्षित करता है। सासाराम में शेरशाह सूरी का मकबरा पत्थर की एक भव्य संरचना है जो एक ठीक टैंक के बीच में खड़ी है और एक बड़े पत्थर की छत से उठ रही है। यह छत पानी के किनारे की ओर जाने वाली सीढ़ियों की उड़ान के साथ एक मंच पर तिरछी तरह टिकी हुई है। ऊपरी छत चार कोनों पर अष्टकोणीय गुंबददार कक्षों के साथ एक युद्धपोत पैरापेट दीवार से घिरा हुआ है, इसके चारों किनारों में से प्रत्येक पर दो छोटे प्रोजेक्टिंग खंभे वाली बालकनी हैं और पूर्व में एक द्वार के साथ छेद कर मकबरे के लिए एकमात्र दृष्टिकोण है। ऊपरी छत के बीच में एक कम अष्टकोणीय आधार पर मकबरे की इमारत खड़ी है। इमारत में एक बहुत बड़ा अष्टकोणीय कक्ष है जो चारों तरफ एक विस्तृत बरामदे से घिरा हुआ है। आंतरिक रूप से, बरामदा 24 छोटे गुंबदों की एक श्रृंखला से ढका हुआ है, प्रत्येक चार मेहराबों पर समर्थित है, लेकिन छत एक स्तंभित गुंबद है जो सफेद चमकता हुआ टाइलों के पैनलों से सजाया गया है जो अब बहुत फीका पड़ा हुआ है। मकबरे के कक्ष में आठों में से प्रत्येक पर तीन ऊंचे मेहराब हैं। वे बरामदे की छत से ऊँचे उठते हैं और भव्य और ऊँचे गुम्बद को सहारा देते हैं जो भारत के सबसे बड़े गुम्बदों में से एक है। मुख्य गुंबद के चारों ओर कक्ष की दीवारों के अष्टकोण के कोनों पर आठ स्तंभित गुंबद हैं। मकबरे का आंतरिक भाग पर्याप्त रूप से हवादार है और दीवारों के शीर्ष भाग पर बड़ी खिड़कियों के माध्यम से अलग-अलग पैटर्न में पत्थर की जाली से सुसज्जित है। पश्चिमी दीवार पर मिहराब के मेहराब के जंब और स्पैनड्रिल एक बार कुरान और शिलालेखों के छंदों से सुशोभित थे, ज्यामितीय पैटर्न में व्यवस्थित विभिन्न रंगों की चमकदार टाइलों के साथ और तामचीनी सीमाओं में संलग्न पत्थर में फूलों की नक्काशी के साथ। इस सजावट का अधिकांश हिस्सा पहले ही गायब हो चुका है। तामचीनी या ग्लेज़ेड टाइल कार्यों में समान सजावट के निशान गुंबद के आंतरिक भाग, दीवारों और बाहर के गुंबदों पर भी देखे जा सकते हैं। बाहरी दीवार पर मिहराब के ऊपर एक छोटे से धनुषाकार अवकाश में दो पंक्तियों में एक शिलालेख है, जो शेर शाह की मृत्यु के लगभग तीन महीने बाद उनके बेटे और उत्तराधिकारी सलीम या इस्लाम शाह द्वारा मकबरे को पूरा करने की रिकॉर्डिंग करता है, जिनकी मृत्यु एएच 952 (ईस्वी सन्) में हुई थी। 1545)। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा गुंबद है। शेर शाह के पिता हसन खान सूर का मकबरा भी कस्बे में स्थित है। इस मकबरे को सुखा रोजा के नाम से भी जाना जाता है।
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सहारनपुर
जिले की भौगोलिक विशेषताओं ने यह साबित कर दिया है कि सहारनपुर क्षेत्र मानव आवास के लिए उपयुक्त था। पुरातात्विक सर्वेक्षण ने साबित कर दिया है कि इस क्षेत्र में विभिन्न संस्कृतियों के प्रमाण उपलब्ध हैं। जिले के विभिन्न हिस्सों में खुदाई की जाती थी, अर्थात् अंबेखेरी, बड़गांव, हुलास और नसीरपुर आदि। इन खुदाइयों के दौरान कई चीजें मिलती हैं, जिसके आधार पर यह स्थापित हुआ है कि सहारनपुर जिले में प्रारंभिक निवासियों को 2000 ईसा पूर्व के रूप में पाया गया था सिंधु घाटी सभ्यता के निशान और इससे पहले के भी उपलब्ध हैं और अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र सिंधु घाटी सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है। अंबकेरी, बड़गांव, नसीरपुर और हुलास हड़प्पा संस्कृति के केंद्र थे क्योंकि इन क्षेत्रों में हड़प्पा सभ्यता के समान बहुत सी चीजें मिलती थीं।
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सहारनपुर
आर्यों के दिनों से ही, इस क्षेत्र का इतिहास तार्किक तरीके से मिलता है लेकिन वर्तमान अन्वेषण और खुदाई के बिना स्थानीय राजाओं के इतिहास और प्रशासन का पता लगाने में मुश्किलें है। समय बीतने के साथ, इसका नाम तेजी से बदल जाता है इल्तुतमिश के शासनकाल में सहारनपुर गुलाम वंश का एक हिस्सा बन गया। 1340 में शिवालिक राजाओ के विद्रोह को कुचलने के लिए मुहम्मद तुगलग उत्तरी दोआब तक पहुंच गया था। वहां उसे ‘पाऊधोई’ नदी के तट पर एक सूफी संत की उपस्थिति के बारे में पता चला। वह उन्हें देखने के लिए वहा गया और आदेश दिया कि अब से इस जगह को शाह हरुण चिस्ती के नाम पर ‘शाह-हारनपुर’ के नाम से ही जाना जाना चाहिए।
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सहारनपुर
अकबर पहले मुगल शासक थे जिन्होंने सहारनपुर में नागरिक प्रशासन की स्थापना की और दिल्ली प्रांत में इसे ‘सहारनपुर-सरकार’ बनाया और एक राज्यपाल नियुक्त किया। सहारनपुर की जागीर को राजा सहा रणवीर सिंह को सम्मानित किया गया जिन्होंने सहारनपुर शहर की स्थापना की थी| उस समय सहारनपुर एक छोटा सा गांव था और सेना का केन्ट क्षेत्र था। उस समय कि सबसे निकट बस्तीयां शेखपुरा और मल्ल्हिपुर थी। सहारनपुर का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा हुआ था और ‘पाऊधोई ‘ ढमोला और ‘गंदा नाला’ (क्रेजी नाला) दलदली / धँसाऊ थे। जलवायु नम थी इसलिए यहाँ मलेरिया होने की सम्भावनाए थी।
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सहारनपुर
शहर, जिसकी साह-रणवीर सिंह ने नीव रखी थी, ‘नखासा’, ‘रानी बाजार’, ‘शाह बहलोल’ और ‘लक्खी गेट’ ‘पाऊधोई ‘ नदी से घिरा हुआ था। सहारनपुर एक दीवार वाला शहर था और इसके चार दरवाजे थे
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सहारनपुर
जैसे ही हम सर्वेक्षण करते हैं और चौधरीयान मोहल्ला (इलाके) में प्रवेश करते ही नक्शा स्पष्ट हो जाता हैं। साह रणवीर सिंह के किले के खंडहर अब भी चौधरीयान इलाके में देखे जा सकते हैं।
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सहारनपुर
सहारनपुर 1803 में अंग्रेजों के पास गया। दारूल उलूम देवबंद के संस्थापकों ने सक्रिय रूप से विद्रोह में भाग लिया, दिल्ली के बाहर जनता को संगठित किया और कुछ समय के लिए, ब्रिटिश ऑपरेशन के क्षेत्र से ब्रिटिश आथोराटी को बाहर करने मे सफल हुए। वर्तमान में मुजफ्फरनगर जिले के एक छोटा कस्बा, शामली उनकी गतिविधियों का केंद्र था।
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सहारनपुर
1857 के बाद, मुस्लिमों के सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास अलीगढ़ और देवबंद के चारों ओर आगे बड़ा। कासिम नैनोटवी देवबंद का प्रतिनिधित्व करते थे देवबंद ने ब्रिटिश का विरोध किया, इष्ट भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदू मुस्लिम एकता और संयुक्त भारत का पक्ष किया। देवबंद ने शाह वालिल्लाह के क्रांतिकारी विचारों का समर्थन किया जो सामाजिक और राजनीतिक जागृति के लिए जिम्मेदार थे। मौलाना नानोत्वादी और मौलाना राशिद अहमद गंगोह ने 1867 में देवबंद में एक स्कूल की स्थापना की। यह दारूल उलूम नाम से लोकप्रिय हो गया।
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वे शांतिपूर्ण तरीके से धार्मिक और सामाजिक चेतना प्राप्त करना चाहते थे। देवबंद मदरसा मुसलमान जागृति के लिए प्रयास कर रहा था और राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहा था। इस प्रकार जिला देवबंद स्कूल उलामा की गतिविधियों का केंद्र बन गया। अंग्रेजों को भारत से बाहर करने के लिए स्कूल ने क्रांतिकारी गतिविधियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1857 के विद्रोह में दिखायी गयी भावनाए
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सहारनपुर
शहर के उद्योगों में रेलवे, मधुमक्खी पालन, कार्यशालाएं, सूती वस्त्र और चीनी प्रसंस्करण, काग़ज़ ,गत्ता निर्माण,सिगरेट उद्योग और अन्य उद्यम शामिल हैं। यहाँ दफ़्ती और मोटा काग़ज़, कपड़ा बुनने, चमड़े का सामान बनाने और लकड़ी पर नक़्क़ाशी का काम अधिक किया जाता है।
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जम्बूद्वीप
सनातनी ऐतिहासिक भूगोल के वर्णन के अनुसार जम्बूद्वीप सप्तमहाद्वीपों में से एक है। यह पृथ्वी के केन्द्र में स्थित माना गया है। इसके नौ खण्ड हैं, जिनके नाम ये हैं- इलावृत्त, भद्रास्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरू और हिरण्यमय । इसका नामकरण जम्बू (जामुन) नामक वृक्ष के आधार पर हुआ है। इस जम्बू वृक्ष के रसीले फल जिस नदी में गिरते हैं वह मधुवाहिनी जम्बूनदी कहलाती है। यहीं से जाम्बूनद नामक स्वर्ण उत्पन्न होता है। इस जल और फल के सेवन से रोग-शोक तथा वृद्धावस्था आदि का प्रभाव नहीं होता।
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जम्बूद्वीप
भारतवर्ष के सनातनी परिवार पूजा तर्पण के समय एक मंत्र में प्रतिदिन स्मरण करते हैं- जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, आर्यावर्ते.... (जम्बूद्वीप के भारतखण्ड के आर्यवर्त में...)। पुराणों में जम्बूद्वीप के छह वर्ष पर्वत बताए गए हैं- हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान । कालान्तर में इस जम्बूद्वीप के आठ द्वीप बन गए- स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक (रमन्त्रा),मन्दर, हरिण, पाञ्चजन्य तथा सिंहल ।
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जम्बूद्वीप
जम्बूद्वीप की भौगोलिक रचना हस्तिनापुर ( उ०प्र० ) में निर्मित है । 250 फुट के विस्तृत क्षेत्र में इसका निर्माण हुआ है ।
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जम्बूद्वीप
केतुमालवर्ष वर्ष में लक्ष्मी जी संवत्सर नाम के प्रजापति के पुत्र तथा कन्याओं के साथ भगवान कामदेव की आराधना करती हैं।
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जम्बूद्वीप
इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है< और नीचे काई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।
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3,012.386613
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जम्बूद्वीप
उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है। इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है।
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3,012.386613
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जम्बूद्वीप
इन सब के मध्य में इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियां हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती हैं, वर्ना ऊपर से विस्तृत और नीचे से अपेक्षाकृत संकुचित होने के कार्ण यह गिर पड़ेगा। ये पर्वत इस प्रकार से हैं:-
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जम्बूद्वीप
इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। इसके जम्बु फ़ल हाथियों के समान बड़े होते हैं, जो कि नीचे गिरने पर जब फ़टते हैं, तब उनके रस की धारासे जम्बु नद नामक नदी वहां बहती है।
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जम्बूद्वीप
उसका पान करने से पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके मिनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।
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क़ुस्तुंतुनिया
यहाँ के उद्योगों में चमड़ा, शस्त्र, इत्र और सोनाचाँदी का काम महत्वपूर्ण है। समुद्री व्यापार की दृष्टि से यह अत्युत्तम बंदरगाह माना जाता है। गोल्डेन हॉर्न की गहराई बड़े जहाजों के आवागमन के लिए भी उपयुक्त है और यह आँधी, तूफान इत्यादि से पूर्णतया सुरक्षित है। आयात की जानेवाली वस्तुएँ मक्का, लोहा, लकड़ी, सूती, ऊनी और रेशमी कपड़े, घड़ियाँ, कहवा, चीनी, मिर्च, मसाले इत्यादि हैं; और निर्यात की वस्तुओं में रेशम का सामान, दरियाँ, चमड़ा, ऊन आदि मुख्य हैं।
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3,007.391897
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क़ुस्तुंतुनिया
क़ुस्तुंतुनिया की स्थापना ३२४ में रोमन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम (२७२-३३७ ई) ने पहले से ही विद्यमान शहर, बायज़ांटियम के स्थल पर की थी, जो यूनानी औपनिवेशिक विस्तार के शुरुआती दिनों में लगभग ६५७ ईसा पूर्व में, शहर-राज्य मेगारा के उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित किया गया था। इससे पूर्व यह शहर फ़ारसी, ग्रीक, अथीनियन और फिर ४११ ईसापूर्व से स्पार्टा के पास रही। १५० ईसापूर्व रोमन के उदय के साथ ही इस पर इनका प्रभाव रहा और ग्रीक और रोमन के बीच इसे लेकर सन्धि हुई, सन्धि के अनुसार बायज़ांटियम उन्हें लाभांश का भुगतान करेगा बदले में वह अपनी स्वतंत्र स्थिति रख सकेगा जोकि लगभग तीन शताब्दियों तक चला।
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क़ुस्तुंतुनिया
क़ुस्तुंतुनिया का निर्माण ६ वर्षों तक चला, और ११ मई ३३० को इसे प्रतिष्ठित किया गया। नये भवनें का निर्माण बहुत तेजी से किया गया था: इसके लिये स्तंभ, पत्थर, दरवाजे और खपरों को साम्राज्य के मंदिरों से नए शहर में लाया गया था।
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क़ुस्तुंतुनिया
पूर्वी रोमन साम्राज्य के अंत के दौरान पूर्वी भूमध्य सागर में कांस्टेंटिनोपल सबसे बड़ा और सबसे अमीर शहरी केंद्र था, मुख्यतः ईजियन समुद्र और काला सागर के बीच व्यापार मार्गों के बीच अपनी रणनीतिक स्थिति के परिणामस्वरूप इसका काफ़ी महत्त्व बढ़ गया। यह एक हजार वर्षों से पूर्वी, यूनानी-बोलने वाले साम्राज्य की राजधानी रही। मोटे तौर पर मध्य युग की तुलना में अपने शिखर पर, यह सबसे धनी और सबसे बड़ा यूरोपीय शहर था, जोकि एक शक्तिशाली सांस्कृतिक उठ़ाव और भूमध्यसागरीय क्षेत्र में आर्थिक जीवन पर प्रभावी रहा। आगंतुक और व्यापारी विशेषकर शहर के खूबसूरत मठों और चर्चों को, विशेष रूप से, हागिया सोफिया, या पवित्र विद्वान चर्च देख कर दंग रह जाते थे।
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क़ुस्तुंतुनिया
इसके पुस्तकालय, ग्रीक और लैटिन लेखकों के पांडुलिपियों के संरक्षण हेतु विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहे, जिस समय अस्थिरता और अव्यवस्था से पश्चिमी यूरोप और उत्तर अफ्रीका में उनका बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा था। शहर के पतन के समय, हजारों शरणार्थियों द्वारा यह पांडुलिपी इटली लाये गये, और पुनर्जागरण काल से लेकर आधुनिक दुनिया में संक्रमण तक इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अस्तित्व से कई शताब्दियों तक, पश्चिम पर इस शहर का बढ़ता हुआ प्रभाव अतुलनीय रहा है। प्रौद्योगिकी, कला और संस्कृति के संदर्भ में, और इसके विशाल आकार के साथ, यूरोप में हजार वर्षो तक कोई भी क़ुस्तुंतुनिया के समानांतर नहीं था।
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क़ुस्तुंतुनिया
बाइज़ेंटाइन साम्राज्य ने रोमन और यूनानी वास्तुशिल्प प्रतिरूप और शैलियों का इस्तेमाल किया था ताकि अपनी अनोखी शैली का निर्माण किया जा सके। बाइज़ेंटाइन वास्तु-कला और कला का प्रभाव पूरे यूरोप में कि प्रतियों में देखा जा सकता है। विशिष्ट उदाहरणों में वेनिस का सेंट मार्क बेसिलिका, रेवेना के बेसिलिका और पूर्वी स्लाव में कई चर्च शामिल हैं। इसकी शहर की दीवारों की नकल बहुत ज्यादा की गई (उदाहरण के लिए, कैरर्नफॉन कैसल देखें) और रोमन साम्राज्य की कला, कौशल और तकनीकी विशेषज्ञता को जिंदा रखते हुए इसके शहरी बुनियादी ढांचे को मध्य युग में एक आश्चर्य के रूप में रहा। तुर्क काल में इस्लामिक वास्तुकला और प्रतीकों का इस्तेमाल किया हुआ।
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क़ुस्तुंतुनिया
कॉन्स्टेंटाइन की नींव ने क़ुस्तुंतुनिया को बिशप की प्रतिष्ठा दी, जिसे अंततः विश्वव्यापी प्रधान के रूप में जाना जाने लगा और रोम के साथ ईसाई धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना गया। इसने पूर्वी और पश्चिमी ईसाई धर्म के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेद बढ़ाने में योगदान दिया और अंततः बड़े विवाद का कारण बना, जिसके कारण 1054 के बाद से पूर्वी रूढ़िवादी से पश्चिमी कैथोलिक धर्म विभाजित हो गये।
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क़ुस्तुंतुनिया
क़ुस्तुंतुनिया, इस्लाम के लिए भी महान धार्मिक महत्व का है, क्योंकि क़ुस्तुंतुनिया पर विजय, इस्लाम में अंत समय के संकेतों में से एक है।
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क़ुस्तुंतुनिया
दरअसल हदीशों के अनुसार ये वो जगह है जो दुनिया के अंत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, हदीशो में जिस जगह को कुस्तुनतुनिया कहा गया है उसे आज इस्तांबुल , तुर्की कहा जाता है। Written by MD kasli
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1
किष्किन्धाकाण्ड
भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे।
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3,004.946755
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किष्किन्धाकाण्ड
अरण्यकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।
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किष्किन्धाकाण्ड
कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहां से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहां निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियां हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहां पर उनकी भेंट जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया।
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किष्किन्धाकाण्ड
पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच राम के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर 'हे लक्ष्मण' का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने उसके पंख काटकर उसे अधमरा कर दिया।
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किष्किन्धाकाण्ड
सीता को न पा कर राम अत्यंत दुखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अंतिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुंचे जहां पर कि उसके द्वारा दिये गये जूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया| इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये।
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किष्किन्धाकाण्ड
किष्किन्धाकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।
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किष्किन्धाकाण्ड
श्री राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। उस पर्वत पर अपने मंत्रियों सहित सुग्रीव रहता था। सुग्रीव ने, इस आशंका में कि कहीं बालि ने उसे मारने के लिये उन दोनों वीरों को न भेजा हो, हनुमान को श्री राम और लक्ष्मण के विषय में जानकारी लेने के लिये ब्राह्मण के रूप में भेजा। यह जानने के बाद कि उन्हें बालि ने नहीं भेजा है हनुमान ने श्री राम और सुग्रीव में मित्रता करवा दी। सुग्रीव ने श्री राम को सान्त्वना दी कि जानकी जी मिल जायेंगीं और उन्हें खोजने में वह सहायता देगे। साथ ही अपने भाई बालि के अपने ऊपर किये गये अत्याचार के विषय में बताया। श्री राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया।
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किष्किन्धाकाण्ड
राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गये और वर्षा तथा शरद् ऋतु बीत गए । राम के नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुँचा दिया जहाँ पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका की अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये कहा किन्तु हनुमान जी इतनी दुर कैसे जाएंगे । तब हनुमान जी ने जाम्बवन्त जी से पुछा कि " मैं इतनी दुर कैसे जा पाऊंगा।" तब जाम्बवन्त जी ने उनकी शक्तियों को याद दिलाया और बताया कि उन्हें श्री भृगुवंशी जी को परेशान करते थे जिससे तंग आकर उन्होंने हनुमान को श्राप दे दिया की,"आप अपने बल और तेज को सदा के लिए भूल जाएं लेकिन जब कोई आपको आपकी शक्तियां याद कराएगा तभी आप उसका उपयोग कर सकोगे।"
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किष्किन्धाकाण्ड
हनुमान जी ने लंका की ओर प्रस्थान किया। सुरसा ने हनुमान जी की परीक्षा ली और उसे योग्य तथा सामर्थ्यवान पाकर आशीर्वाद दिया। मार्ग में हनुमान जी ने छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध किया और लंकिनी पर प्रहार करके लंका में प्रवेश किया। उनकी विभीषण से भेंट हुई। जब हनुमान जी अशोकवाटिका में पहुँचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्त्वना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान जी ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान जी की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान जी ने लंका का दहन कर दिया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9
क्षुद्रग्रह
18 वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में, बैरन फ्रांज एक्सवेर वॉन जैच ने 24 खगोलविदों के समूह को एक ग्रह का आयोजन किया, जिसमें आकाश के बारे में 2.8 एयू के बारे में अनुमानित ग्रह के लिए आकाश की खोज थी, जिसे टिटियस-बोद कानून द्वारा आंशिक रूप से खोज की गई थी। कानून द्वारा अनुमानित दूरी पर ग्रह यूरेनस के 1781 में सर विलियम हर्शल। इस काम के लिए ज़ोनियाकल बैंड के सभी सितारों के लिए हाथों से तैयार हुए आकाश चार्ट तैयार किए जाने की आवश्यकता है, जो कि संवेदनाहीनता की सीमा के नीचे है। बाद की रातों में, आकाश फिर से सनदी जाएगा और किसी भी चलती वस्तु को उम्मीद है, देखा जाना चाहिए। लापता ग्रह की उम्मीद की गति प्रति घंटे 30 सेकंड का चाप था, पर्यवेक्षकों द्वारा आसानी से पता चला।
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क्षुद्रग्रह
पहला उद्देश्य, सेरेस, समूह के किसी सदस्य द्वारा नहीं खोजा गया था, बल्कि 1801 में सिसिली में पालेर्मो के वेधशाला के निदेशक ग्यूसेप पियाज़ी ने दुर्घटना के कारण नहीं खोजा था। उन्होंने वृषभ में एक नया सितारा की तरह वस्तु की खोज की और कई वस्तुओं के दौरान इस ऑब्जेक्ट के विस्थापन का अनुसरण किया। उस वर्ष बाद, कार्ल फ्रेडरिक गॉस ने इस अज्ञात वस्तु की कक्षा की गणना करने के लिए इन टिप्पणियों का इस्तेमाल किया, जो मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच पाया गया था। पियाजी ने इसे कृषि के रोमन देवी सेरेस के नाम पर रखा था।
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