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20231101.hi_193231_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5
नाव
चमड़े या बाँस की बनी हुई पनसुइया से शायद लोगों का लकड़ी के ढाँचे पर कोई आवरण चढ़ाकर नाव बनाने का विचार उत्पन्न हुआ। उनके सामने निर्माण की दो विधियाँ आई : (1) पहले बाहरी आवरण बनाकर उसके भीतर कड़ियाँ और ताने लगाकर मजबूत करना और (2) पहले ढाँचा बनाकर उसके बाहर आवरण लगाना। रचना भी दो प्रकार की होने लगी - एक तो सपाट तख्ताबंदीवाली, जिससे तख्ते धार से धार मिलाकर एक दूसरे से जोड़े जाते हैं और दूसरी चढ़वा तख्ताबंदी वाली, जिसमें ऊपर का प्रत्येक तख्ता अपने नीचेवाले तख्ते के ऊपर थोड़ा चढ़ाकर लगाया जाता है, जिससे सतह पर धारियाँ, या लंबी लकीरें, दिखाई देती हैं। सपाट रचना का उद्भव भूमध्यसागर में, या शायद पूर्व की ओर, हुआ और चढ़वाँ रचना का आविष्कार कैडिनेविया में हुआ, जहाँ से वह यूरोप के उत्तरी देशों में फैला।
0.5
2,956.830103
20231101.hi_193231_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5
नाव
प्राचीन नौनिर्माण विधियों के उत्कृष्ट नमूने और नौकानयन कला पूर्वी समुद्रों में, भारतीय महासागर और दक्षिणी प्रशांत महासागर में देखने को मिलती हैं, जहाँ नावें शायद सर्वप्रथम आई। नक्र नौका (ड्रैगन बोट) 73 फुट तक लंबी, 4 फुट तक चौड़ी और 21 इंच गहरी होती है। इसके चप्पे का फल 6।। इंच चौड़ा, फावड़े के आकार का होता है। स्याम और वर्मा दोनों देशों में नदीतटों पर बहुत घनी आबादी है। यहाँ की हंसक नौका (डक बोट) प्रसिद्ध है। पतवारी लटकाकर पोतवाहन की स्यामी विधि सबसे अधिक प्राचीन है। मलायावाले नौका-निर्माण-कला में दक्ष होते हैं, किंतु वहाँ की स्थानीय परिस्थितियँ अनुकूल नहीं हैं। वहाँ की नावों का विस्थापन बहुत थोड़ा होता है, काट ज् आकार की और चौड़ाई बहुत कम होती हैं। फलस्वरूप, इनमें स्थैर्य और वायु के प्रतिकूल चलने की क्षमता कम होती है। नाव बनाने की पुरानी विधि के अनुसार तना कोलकर यहाँ उसकी बगलें बाहर की ओर फैला दी जाती हैं और आवश्यकतानुसार उनमें और तख्ते लगाकर ऊँचाई बढ़ा दी जाती है।
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2,956.830103
20231101.hi_193231_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5
नाव
भारतीय नावों में मद्रास की तरंगनौका (सर्फ बोट) बनावट की दृष्टि स अपने उद्देश्य के लिए उत्कृष्ट है। हुगली नदी की डिंघी नावें मिस्त्र के प्राचीन नमूनों से मिलती जुलती हैं। जैसे जैसे पश्चिम की ओर जाते हैं, अरब की बगला (ढौ) नाव की तरह की नावें मिलती हैं। इनमें ऐसी विशेषताएँ होती हैं जिनका विकास बड़े बड़े जहाज बनाने में किया गया है : जैसे अधिक चौड़ाई, आगे निकला हुआ माथा और चौड़ा पिच्छल। इनमें ढाँचे के ऊपर दोहरी तख्ताबंदी का आवरण रहता है, जिससे ये सूखी रहती और टिकाऊ भी होती हैं। बिना पुलवाली नदियों पर, महत्वपूर्ण सड़कों का यातायात निपटाने के लिए, नावें ही काम आती हैं। बड़ बड़ी नावों पर एक मोटर गाड़ी या दो बैलगाड़ियाँ लादी जा सकती हैं। इनमें ढलवाँ लोहे के खंभों और साँकल की रेलिंग लगी होती है, जो आवश्यकतानुसार उखाड़ी या लगाई जा सकती है।
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20231101.hi_193231_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5
नाव
भूमध्यसागर की नावों की विशेषता है गोल माथा और यान के बाहर पिच्छल पर लटकी हुई गहरी पतवारी। यूनानी और इतालवी सागरों में बड़ी सुंदर बनावट और अत्यधिक वहनक्षमतावाली असंख्य प्रकार की नावें रहती है, किंतु मिस्त्र के प्राचीन नमूने की नावें अब कहीं नहीं दिखाई पड़तीं। नील नदी में नगर नामक बहुत बड़ी, चम्मच के आकार की, चौड़े पिच्छलवाली, अनगढ़ नावें चलती हैं। ये 60 फुट तक लंबी होती है और 45 टन तक बोझ ले जाती है। आगे चलकर, जहाँ नदीतट बहुत ऊँचे है, बड़े बड़े उथले बजरे चलते हैं, जिन्हें गयासा कहते हैं। इनमें बहुत ऊँचे दो दो मस्तूल होते हैं, ताकि उनपर लगे पाल तट के ऊपर से आनेवाली हवा पकड़ सकें।
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20231101.hi_193231_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5
नाव
यद्यपि सन् 1855 में लैंबोट नामक एक फ्रांसीसी ने प्रबलित कंक्रीट की छोटी नाव भी पेटेंट करा ली थी, तथापि नौका निर्माण के लिए लकड़ी का ही प्रयोग आदि काल से होता आया है और इसका स्थान व्यापक रूप से कोई अन्य पदार्थ नहीं ले सका। पीपों में, जो तैरते हुए पुल आदि बनाने के काम आते हैं, इस्पात लगता है। आजकल नावों, जहाजों आदि में विरमाव्राइट की चादरें बहुत लगने लगी हैं। विरमाब्राइट ऐल्यमिनियम की मिश्रधातु है, जो अत्यंत हलकी, किंतु मजबूत, होती है और खारे पानी से भी प्रभावित नहीं होती।
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20231101.hi_193231_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5
नाव
19वीं सदी के मध्य में नावों में इंजन लगने लगे। नौकाविहार के लिए भापनौका का खूब प्रचलन हुआ, किंतु नौपरिवहन तथा पत्तनों में इसका प्रयोग बहुत धीरे धीरे बढ़ा। 20वीं शती के आरंभ में भी यहीं प्रवृत्ति रही, किंतु प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, जब वाष्पयंत्र विश्वसनीय समझ लिया गया, इनका प्रयोग सभी क्षेत्रों में बडी तेजी से बढ़ा। इनका मानकीकरण होने से संसार के अधिक सभ्य कहे जानेवाले देशों में चित्रविचित्र और दर्शनीय नावों के स्थानीय नमूने बड़ी तेजी से गायब होने लगे। यूरोपीय तटों में सभी जगह, जहाँ अत्यंत विभिन्नतापूर्ण परिस्थितियाँ थीं, एक ही गति हुई, अर्थात् पालपतवार की जगह भाप ने ले ली। किंतु हिंद महासागर, दक्षिणी प्रशांत महासागर, दक्षिणी अमरीका की नदियों और अफ्रीका की झीलों में अभी इनका व्यापक प्रयोग नहीं हो पाया है।
0.5
2,956.830103
20231101.hi_190719_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
परिचर्या शब्द से क्रियाशीलता झलकती है। यह उपकार का काम है और ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो स्वयं उसे अपने लिए नहीं कर सकता। यों तो परिचर्या एक व्यवसाय है, परंतु इसमें ऐसी चरित्रवान् स्त्रियों की आवश्यकता रहती है जो ईश्वरीय नियमों में दृढ़ निष्ठा रखती हों और जो सत्य सिद्धांतों पर अटल रहें तथा परिणाम की चिंता किए बिना, कैसे भी परिस्थिति क्यों न हो, वही करें जो उचित हो।
0.5
2,956.246714
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
परिचर्या का इतिहास वेदों के प्राचीन काल से आरंभ होता है, जब रुगण व्यक्ति की देखभाल तथा शुश्रूषा का कार्य समाज में बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। चरक ने लगभग 1,000 ई.पू. में लिखा था कि उपचारिका को शुद्ध आचरण की, पवित्र, चतुर और कुशल, दयावान्, रोगी के लिए सब प्रकार की सेवा करने में दक्ष, पाकशास्त्र में गुणी, रोगी के प्रक्षालन तथा स्नान कराने, मालिश करने, उठाने तथ टहलाने में निपुण, बिछावन बिछाने और स्वच्छ करने में प्रवीण, तत्पर, धैर्यवान्, रोग से पीड़ित की परिचर्या में कुशल और आज्ञाकारी होना चाहिए। यशस्वी यूनानी चिकित्सक हिप्पॉक्रैटीज़ (460-370 ई.पू.), जिसे औषधशास्त्र का पिता माना जाता है, रोगी की ठीक प्रकार से देखभाल की महत्ता जानता था और वह यह भी भली भाँति जानता था कि अच्छी परिचर्या कैसे की जानी चाहिए। आरंभ-कालीन ईसाई चर्चसंघ के समय स्त्रियाँ अपने घर बार छोड़कर रोगियों तथा संकटग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा करने अथवा उन्हें देखने-भालने जाया करती थीं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
अर्वाचीन परिचर्या की नींव फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने डाली। ये धनी घर की लड़की थीं, परंतु आलस जीवन से असंतुष्ट होकर उन्होंने परिचर्या का अध्ययन किया और लंदन में रोगियों के लिए एक परिचर्या भवन खोला। 1845 ई. में क्रीमिया में युद्ध छिड़ने पर और युद्ध सचिव के कहने पर वे 34 वर्ष की आयु में ही 38 नर्सों के दल के साथ सेवा-शुश्रूषा के लिए युद्धस्थल पर गई थीं। स्वास्थ्य विज्ञान के सिद्धांतों को उन्होंने अस्पताल के प्रबंध में लागू किया और उसके लिए जो भी कठिनाइयाँ या अड़चनें उनके मार्ग में आईं। उनका उन्होंने वीरता और समझदारी से निरंतर सामना किया, यहाँ तक कि मिलिटरी कमसरियट अधिकारियों के विरोध का भी उन्हें सामना करना पड़ा। वे यह समझने लगे थे कि मिस नाइटिंगेल भयानक आगंतुक हैं, जो सैनिक व्यवस्था के अनुशासन को भंग करने के लिए आई हैं। परंतु उनके प्रबंध के फलस्वरूप बैरक के अस्पतालों में मृत्युसंख्या, जो पहले 42 प्रतिशत थी, घटकर जून, 1855 में 2 प्रतिशत रह गई। फ्लोरेंस नाइटिंगेल क्रीमिया में 1856 तक अर्थात् ब्रिटिशों द्वारा तुर्की खाली किए जाने तक रहीं। उन्होंने वहाँ जो काम किया वह उस युग की आश्चर्यजनक कहानी बन गया। लांगफेलो ने तो उस कथा को कविता में भी गाया। ब्रिटिश सरकार ने एक युद्धपोत को आदेश दिया कि वह उस वीर स्त्री को घर वापस लाए। लंदन ने इस महिला के राजसी स्वागत की तैयारियाँ कीं। किंतु शीलवश वह एक तेज फ्रांसीसी जहाज से घर लौटीं। वहाँ से इंग्लैंड गईं और चुपचाप अपने घर पहुँच गईं। उनके आने का समाचार उनके पहुँच जाने के बाद लोगों में फैला। सन् 1860 में उनके प्रयास से लंदन में नर्सों के लिए एक पाठशाला खुली, जो इस प्रकार की पहली पाठशाला थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
भारत में परिचर्या के प्रथम शिक्षणालय मद्रास में सन 1854 में और बंबई में 1860 में खुले। 1855 में लेडी डफ़रिन फ़ंड की स्थापना हुई थी, जिसकी सहायकता से कई अस्पतालों के साथ परिचर्या के शिक्षणालय खोले गए और उनमें भारत की स्त्री नर्सों के प्रशिक्षण का श्रीगणेश हुआ। अब तो देश के प्राय: सभी बड़े अस्पतालों में नर्सों के प्रशिक्षण की व्यवस्था है, जिनके द्वारा सामान्य परिचर्या में डिप्लोमा की भी व्यवस्था है। परिचर्या महाविद्यालयों में स्नातकों को बी.एस-सी की उपाधि दी जाती है तथा मेट्रनों (उ माता) और सिस्टर (उ बहन) अनुशिक्षकों को वार्डनों के संबंध में संक्षिप्त शिक्षा (रिफ़्रेशर कोर्स) की व्यवस्था की जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
फ्लोरंस नाइटिंगेल के समय से लेकर अब तक चिकित्सा विज्ञान में बहुत उन्नति हुई है, जिससे परिचर्या विज्ञान में भी आमूल परिवर्तन हो गए हैं। अब यह धार्मिक व्यवस्थापकों के प्रोत्साहन से संचालित एवं अनभिज्ञ व्यक्तियों द्वारा दया-दाक्षिण्य-प्रेरित सेवा मात्र नहीं रह गया है;अब तो यह आजीविका का एक साधन है, जिसके लिए विस्तृत वैज्ञानिक पाठ्यक्रम का अध्ययन और शिक्षण आवश्यक होता है। ऐसे अधिकांश पेशों से, जिनमें निजी कौशल तथा वैज्ञानिक प्रशिक्षण से सफलता मिल जाती है, इसमें विशेषता यह है कि सफल करुणा का भाव, दु:ख दर्द को शांत तथा दूर करने का उत्साह और माँ का सा हृदय भी चाहिए।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
अपने रोगी के प्रति उपचारिका के दायित्व की आधुनिक भावना में केवल शारीरिक सुख देने, चिकित्सा करने तथा औषधोपचार के अतिरिक्त इसकी भी अपेक्षा रहती है कि उसे रोग का तथा वह रोग किसी रोगी को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसका भी स्पष्ट ज्ञान हो। समय-समय पर जो नवीन लक्षण उभरे उनके प्रति उसे अत्यंत सजग रहना चाहिए। किस प्रकार के उपचार से रोगी को लाभ होगा, इसका उसे ज्ञान होना चाहिए तथा प्रत्येक रोगी के लिए अलग-अलग किस प्रकार की देखभाल अपेक्षित है तथा उसकी परिचर्या किस प्रकार की जाए, इन सबका उसे स्पष्ट पता होना चाहिए। नर्स को अपना दायित्व पूरी तरह निभाने के लिए अपने रोगियों की मन:स्थिति से भी परिचित होना आवश्यक है। रोगी की देखभाल करने में केवल रोग पर दृष्टि रखना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् रोगी को ऐसा व्यक्ति समझना चाहिए जो उपचारिका से यह अपेक्षा करता है कि वह उसे सुरक्षा दे, उसे समझे तथा उसपर ममता रखे।
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2,956.246714
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परिचर्या
अत: रोगों की रोकथाम में और उनसे पीड़ित लोगों की देखभाल में नर्स का योग बहुत ही महत्वपूर्ण है। वह चिकित्सा के लिए सहायिका तथा सहयोगिनी है। उसके बिना चिकित्सक रोगी की सहायता करने में भारी अड़चनें पड़ सकती हैं। कभी-कभी तो वह डाक्टर से भी अधिक महत्व की हो जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
आज व्यक्तिविशेष अथवा राष्ट्र के स्वास्थ्य को यथार्थत: उन्नत बनानेवाले चिकित्सा संबंधी सामाजिक तथा निरोधक कार्यक्रम में चिकित्सक के साथ समुचित योग देकर नर्सें निस्संदेह क्रियात्मक योगदान करती हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
परिचर्या
परिचर्या व्यवसाय में मुख्यत: स्त्रियाँ ही काम करती हैं। वे आज संतोषपूर्वक यह कह सकती हैं कि उनका काम सम्मानित काम है, क्योंकि उनका जीवन दूसरों का जीवन उपयोगी तथा सुखी बनाने में लगा रहता है। उनको इस व्यवसाय में स्वाभाविक रूप से आनंद और आत्मसंतोष मिलता है क्योंकि वे एक परदु:खापहारी तथा सम्मानपूर्ण काम में संलग्न रहती हैं।
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2,956.246714
20231101.hi_14002_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
बाली इंडोनेशिया में एकमात्र हिंदू-बहुसंख्यक प्रांत है, जिसकी 86.9% आबादी बालिनी हिंदू धर्म का पालन करती है। यह पारंपरिक और आधुनिक नृत्य, मूर्तिकला, पेंटिंग, चमड़ा, धातु और संगीत सहित अपनी अत्यधिक विकसित कलाओं के लिए प्रसिद्ध है। इंडोनेशियाई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव हर साल बाली में आयोजित किया जाता है। बाली में आयोजित अन्य अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में मिस वर्ल्ड 2013, 2018 अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की वार्षिक बैठकें और विश्व बैंक समूह और 2022 G20 शिखर सम्मेलन शामिल हैं। मार्च 2017 में, TripAdvisor ने अपने ट्रैवलर्स च्वाइस अवार्ड में बाली को दुनिया के शीर्ष गंतव्य के रूप में नामित किया, जिसे उसने जनवरी 2021 में भी अर्जित किया। बाली यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल, सुबक सिंचाई प्रणाली का घर है। यह 10 पारंपरिक शाही बालिनी घरों से बने राज्यों के एकीकृत संघ का भी घर है, प्रत्येक घर एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र पर शासन करता है। परिसंघ बाली साम्राज्य का उत्तराधिकारी है। शाही घराने इंडोनेशिया की सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं; हालांकि, वे डच उपनिवेशीकरण से पहले उत्पन्न हुए थे।
0.5
2,952.923191
20231101.hi_14002_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
बाली लगभग 2000 ईसा पूर्व में ऑस्ट्रोनीशियन लोगों द्वारा बसाया गया था, जो मूल रूप से ताइवान के द्वीप से दक्षिण पूर्व एशिया और ओशिनिया से समुद्री दक्षिण पूर्व एशिया के माध्यम से चले गए थे। सांस्कृतिक और भाषाई रूप से, बाली इंडोनेशियाई द्वीपसमूह, मलेशिया, फिलीपींस और ओशिनिया के लोगों से निकटता से संबंधित हैं। इस समय के पत्थर के औजार द्वीप के पश्चिम में सेकिक गांव के पास पाए गए हैं।
0.5
2,952.923191
20231101.hi_14002_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
प्राचीन बाली में, नौ हिंदू संप्रदाय मौजूद थे, जिनके नाम पसुपता, भैरव, सिवा शिदंत, वैष्णव, बोध, ब्रह्मा, रेसी, सोरा और गणपत्य थे। प्रत्येक संप्रदाय एक विशिष्ट देवता को अपने व्यक्तिगत देवत्व के रूप में मानता था।
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2,952.923191
20231101.hi_14002_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
पहली शताब्दी ईस्वी के आसपास शुरू होने वाली बाली की संस्कृति भारतीय, चीनी और विशेष रूप से हिंदू संस्कृति से काफी प्रभावित थी। बाली द्विपा ("बाली द्वीप") नाम की खोज विभिन्न शिलालेखों से की गई है, जिसमें 914 ईस्वी में श्री केसरी वार्मदेवा द्वारा लिखित ब्लांजोंग स्तंभ शिलालेख और वालिद्वीप का उल्लेख शामिल है। यह इस समय के दौरान था कि लोगों ने गीले खेत की खेती में चावल उगाने के लिए अपनी जटिल सिंचाई प्रणाली सुबक विकसित की। आज भी प्रचलित कुछ धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का पता इस काल में लगाया जा सकता है।
0.5
2,952.923191
20231101.hi_14002_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
पूर्वी जावा पर हिंदू मजापहित साम्राज्य (1293-1520 ई.) ने 1343 में एक बालिनी कॉलोनी की स्थापना की थी। हयाम वुरुक के चाचा का उल्लेख 1384-86 के चार्टर्स में किया गया है। बाली में बड़े पैमाने पर जावानीस आप्रवासन अगली सदी में हुआ जब 1520 में मजापहित साम्राज्य गिर गया।  बाली की सरकार तब हिंदू राज्यों का एक स्वतंत्र संग्रह बन गई, जिसके कारण बाली की राष्ट्रीय पहचान और संस्कृति, कला और अर्थव्यवस्था में बड़ी वृद्धि हुई। 1906 तक विभिन्न साम्राज्यों वाला राष्ट्र 386 वर्षों तक स्वतंत्र रहा जब डचों ने आर्थिक नियंत्रण के लिए मूल निवासियों को अपने अधीन कर लिया और उन्हें खदेड़ दिया और उस पर अधिकार कर लिया।
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20231101.hi_14002_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
1597 में, डच खोजकर्ता कॉर्नेलिस डी हाउटमैन बाली पहुंचे, और 1602 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई। डच सरकार ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के दौरान इंडोनेशियाई द्वीपसमूह में अपना नियंत्रण बढ़ाया। बाली पर डच राजनीतिक और आर्थिक नियंत्रण 1840 के दशक में द्वीप के उत्तरी तट पर शुरू हुआ जब डचों ने एक दूसरे के खिलाफ विभिन्न प्रतिस्पर्धी बालिनी क्षेत्रों को खड़ा किया। 1890 के दशक के अंत में, द्वीप के दक्षिण में बाली साम्राज्यों के बीच संघर्षों का डचों द्वारा अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिए शोषण किया गया था।
0.5
2,952.923191
20231101.hi_14002_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
माना जाता है कि बाली के साथ पहला ज्ञात यूरोपीय संपर्क 1512 में हुआ था, जब एंटोनियो अब्रू और फ्रांसिस्को सेराओ के नेतृत्व में एक पुर्तगाली अभियान ने इसके उत्तरी किनारे को देखा। मोलुकस के लिए द्वि-वार्षिक बेड़े की श्रृंखला का यह पहला अभियान था, जो 16 वीं शताब्दी के दौरान आमतौर पर सुंडा द्वीप समूह के तटों के साथ यात्रा करता था। 1512 में अभियान पर सवार फ्रांसिस्को रोड्रिग्स के चार्ट में बाली को भी मैप किया गया था।1585 में, एक जहाज बुकिट प्रायद्वीप से निकला और उसमें से कुछ पुर्तगालियों को देवा अगुंग की सेवा में छोड़ दिया था ।
0.5
2,952.923191
20231101.hi_14002_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
1597 में, डच खोजकर्ता कॉर्नेलिस डी हाउटमैन बाली पहुंचे, और 1602 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई। डच सरकार ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के दौरान इंडोनेशियाई द्वीपसमूह में अपना नियंत्रण बढ़ाया। बाली पर डच राजनीतिक और आर्थिक नियंत्रण 1840 के दशक में द्वीप के उत्तरी तट पर शुरू हुआ जब डचों ने एक दूसरे के खिलाफ विभिन्न प्रतिस्पर्धी बालिनी क्षेत्रों को खड़ा किया। 1890 के दशक के अंत में, द्वीप के दक्षिण में बाली साम्राज्यों के बीच संघर्षों का डचों द्वारा अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिए शोषण किया गया था।
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20231101.hi_14002_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
बाली
जून 1860 में, प्रसिद्ध वेल्श प्रकृतिवादी, अल्फ्रेड रसेल वालेस ने सिंगापुर से बाली की यात्रा की, द्वीप के उत्तरी तट पर बुलेलेंग में उतरे। वालेस की बाली यात्रा ने उन्हें अपने वालेस लाइन सिद्धांत को तैयार करने में मदद की। वालेस रेखा एक पशु सीमा है जो बाली और लोम्बोक के बीच जलडमरूमध्य से होकर गुजरती है। यह प्रजातियों के बीच की सीमा है। अपने यात्रा संस्मरण द मलय द्वीपसमूह में, वालेस ने बाली में अपने अनुभव के बारे में लिखा, जिसमें अद्वितीय बाली सिंचाई विधियों का एक मजबूत उल्लेख है:मैं चकित और प्रसन्न था; जैसा कि मेरी जावा यात्रा कुछ वर्षों बाद हुई थी, मैंने यूरोप से बाहर इतना सुंदर और अच्छी तरह से खेती वाला जिला कभी नहीं देखा था। एक थोड़ा लहरदार मैदान समुद्र तट से लगभग दस या बारह मील (16 या 19 किलोमीटर) अंतर्देशीय तक फैला हुआ है, जहाँ यह जंगली और खेती की पहाड़ियों की एक अच्छी श्रृंखला से घिरा है। घर और गाँव, नारियल के ताड़, इमली और अन्य फलों के पेड़ों के घने झुरमुटों से चिह्नित, हर दिशा में बिंदीदार हैं; जबकि उनके बीच शानदार चावल के मैदान का विस्तार होता है, सिंचाई की एक विस्तृत प्रणाली द्वारा पानी पिलाया जाता है जो यूरोप के सबसे अच्छे खेती वाले हिस्सों का गौरव होगा।1906 में सनुर क्षेत्र में डचों ने बड़े पैमाने पर नौसैनिक और जमीनी हमले किए और शाही परिवार के हजारों सदस्यों और उनके अनुयायियों से मिले, जिन्होंने बेहतर डच बल के सामने झुकने के बजाय आत्मसमर्पण के अपमान से बचने के लिए अनुष्ठानिक आत्महत्या (पुपुतन) की। . आत्मसमर्पण के लिए डच मांगों के बावजूद, अनुमानित 200 बाली ने आत्मसमर्पण करने के बजाय खुद को मार डाला। बाली में डच हस्तक्षेप में, क्लुंगकुंग में एक डच हमले के सामने एक समान सामूहिक आत्महत्या हुई। बाद में, डच गवर्नरों ने द्वीप पर प्रशासनिक नियंत्रण का प्रयोग किया, लेकिन धर्म और संस्कृति पर स्थानीय नियंत्रण आम तौर पर बरकरार रहा। बाली पर डच शासन बाद में आया और इंडोनेशिया के अन्य भागों जैसे कि जावा और मालुकू में कभी स्थापित नहीं हुआ।
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2,952.923191
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80
पत्ती
जब पत्र की स्तरिका अछिन्न होती है अथवा कटी हुई किन्तु छेदन मध्य-शिरा तक नहीं पहुँच पाता, तब वह सरल पत्र कहलाती है। जब स्तरिका का छेदन मध्य-शिरा तक पहुँचे और बहुत पत्रकों में टूट जाए तो ऐसी पत्र को संयुक्त पत्र कहते हैं। सरल तथा संयुक्त पत्रों, दोनों में पर्णवृन्त के कक्ष में कली होती है। किन्तु संयुक्त पत्र के पत्रकों के कक्ष में कली नहीं होती।
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2,942.073583
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80
पत्ती
संयुक्त पत्र दो प्रकार की होती हैं। पिच्छाकार संयुक्त पत्रों में बहुत से पत्रक एक हो अक्ष, जो मध्य-शिरा के रूप में होती है, पर स्थित होते हैं। इसका उदाहरण नीम है। हस्ताकार संयुक्त पत्तियों में पत्रक एक ही बिन्दु अर्थात् पर्णवृन्त की शीर्ष से जुड़े रहते हैं। उदाहरणतः कौशेय कपास वृक्ष।
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पत्ती
तने अथवा शाखा पर पत्रों के विन्यास क्रम को पर्णविन्यास कहते हैं। यह प्रायः तीन प्रकार का होता है: एकान्तर, सम्मुख तथा आवर्त। एकान्तर पर्णविन्यास में एक एकल पत्र प्रत्येक गाँठ पर एकान्तर रूप में लगी रहती है। उदाहरणतः गुढ़ल, सर्सों, सूर्यमुखी। सम्मुख पणवन्यास में प्रत्येक गाव पर एक जोड़ी पत्र निकलती है और एक दूसरे के सम्मुख होती है। उदाहरणतः कैलोट्रोपिस और अमरूद। यदि एक ही गाँठ पर दो से अधिक पत्र निकलती हैं और वे उसके चारों ओर एक चक्कर सा बनाता है तो उसे आवर्त पर्णविन्यास कहते हैं जैसे चितौन।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80
पत्ती
अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में पर्ण पृष्ठाधारी अर्थात् क्षैतिज दशा में अभिविन्यस्त तथा विभेदित पर्णमध्योतक युक्त होती है। किन्तु एकबीजपत्री पादपों में पर्ण समद्विपार्श्विक अर्थात् ऊर्ध्व तथा अविभेदित पर्णमध्योतक युक्त होती है।
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पत्ती
बाह्यत्वचा: पत्रों की दोनों ऊपरी तथा निचली सतह पर पाई जाती हैं। इसकी कुछ कोशिकाएँ द्वार कोशिकाएँ बनाती हैं जो व्यवस्थित होकर छिद्र बनाती हैं जिन्हें रन्ध्र कहा जाता है। यह प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन हेतु गैस विनिमय तथा वाष्पोत्सर्जन के समय जल वाष्पन में सहायता करती हैं। कुछ एकबीजपत्री पत्रों में कुछ बाह्यत्वचीय कोशिकाएँ बड़ी होकर आवर्ध त्वक्कोशिकाओं का निर्माण करती हैं जिनसे जल बाहर निकलता है। इसके कारण पर्णसमूह नलिकाकार हो जाती हैं ताकि तेज ताप में वाष्पोत्सर्जन कम हो।
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2,942.073583
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पत्ती
पर्णमध्योतक: यह हरितलवक युक्त मृदूतक (हरितोतक) का बना होता है तथा प्रकाश-संश्लेषण का कार्य करता हैं। द्विबीजपत्री पत्रों में यह दो प्रकार की कोशिकाओं में विभेदित होता है जो स्तम्भोतकीय तथा स्पंजीय कोशिकाएँ कहलाती हैं। एकबीजपत्री पत्रों में स्तम्भोतक नहीं होती, केवल स्पंजीय ऊतक होते हैं।
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पत्ती
स्तम्भोतकीय स्तर: यह ऊपरी बाह्यत्वचा के नीचे व्यवस्थित होता है। इस अरीय लम्बी, निकटवर्ती व्यवस्थित कोशिकाएँ होती हैं। इनमें हरितलवक अधिक संख्या में विद्यमान होते हैं‌।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80
पत्ती
स्पंजीय स्तर: ये स्तम्भोतकीय कोशिकाओं के नीचे स्थित होते हैं। कोशिकाओं की आकृति अनियमित तथा शिथिलता से व्यवस्थित हरितलवक कम संख्या में उपस्थित होते हैं। अन्तःकोशिकीय कोषों में गैसों का संग्रह करती हैं।
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पत्ती
संहवनीय पूल: ये संयुक्त सम्पार्श्विक एवं बन्द होते हैं। प्रत्येक पूल में दारु पृष्ठीय स्थित होता हैं। अधिकांश संवहनीय पूल रंगहीन मृदूतकीय कोशिकाओं से घिरा रहता है जिसे पूल आच्छद अथवा सीमान्तक मृदूतक कहते हैं।
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धौलपुर
प्रथम मत के अनुसार नागवंशी धौल्या जाटों ने इस नगर की स्थापना की थी यह आगे चलकर धौलपुर नाम से प्रसिद्ध हुआ
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धौलपुर
द्वितीय मत के अनुसार यह नगर धवलदेव नामक शासक ने बसाया था।लेकिन इससे संबंधित कोई भी प्राचीन लेख अप्राप्त है।
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धौलपुर
उपरोक्त सभी मतों में से नागवंश द्वारा इस जगह की स्थापना प्रामाणिक है। इसके निकट क्षेत पर सैकड़ों सालो तक नागवंश का शासन रहा है।
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धौलपुर
वर्तमान नगर मूल नगर के उत्तर में बसा है। चंबल नदी की बाढ़ से बचने के लिये ऐसा किया गया। पहले धौलपुर सामंती राज्य का हिस्सा था, जो 1949 में राजस्थान प्रदेश का हिस्सा बन गया था। धौलपुर से निकट राजा मुचुकुंद के नाम से प्रसिद्ध गुफा है जो गंधमादन पहाड़ी के अंदर बताई जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार मथुरा पर कालयवन के आक्रमण के समय श्रीकृष्ण मथुरा से मुचुकुंद की गुहा में चले आए थे। उनका पीछा करते हुए कालयवन भी इसी गुफा में प्रविष्ट हुआ और वहाँ सोते हुए मुचुकुंद को श्रीकृष्ण ने उत्तराखंड भेज दिया। यह कथा श्रीमद् भागवत 10,15 में वर्णित है। कथाप्रसंग में मुचुकुंद की गुहा का उल्लेख इस प्रकार है।[1] धौलपुर से 842 ई॰ का एक अभिलेख मिला है, जिसमें चंडस्वामिन् अथवा सूर्य के मंदिर की प्रतिष्ठापना का उल्लेख है। इस अभिलेख की विशेषता इस तथ्य में है कि इसमें हमें सर्वप्रथम विक्रमसंवत् की तिथि का उल्लेख मिलता है जो 898 है। धौलपुर में भरतपुर के जाट राज्यवंश की एक शाखा का राज्य था। भरतपुर के सर्वश्रेष्ठ शासक सूरजमल जाट की मृत्यु के समय (1764 ई॰) धौलपुर भरतपुर राज्य ही में सम्मिलित था। पीछे यहाँ एक अलग रियासत स्थापित हो गई।
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2,934.131392
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A7%E0%A5%8C%E0%A4%B2%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
धौलपुर
देश को आजाद कराने के लिये देश के कितने ही लोगों ने अपनी जान की क़ुरबानी दी। ऐसे ही अपने धौलपुर के तसीमों गाँव के शहीदों का नाम आता है शहीद छत्तर सिंह परमार और शहीद पंचम सिंह कुशवाह। जिन्होंने देश के लिए अपनी जान की क़ुरबानी दी। धौलपुर के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। 11 अप्रैल 1947 को जब प्रजामंडल के कार्यकर्ता तसीमों गाँव में सभा स्थल पर एकत्रित हुये थे। तब झंडा फहराने पर रोक थी, लेकिन नीम के पेड़ पर तिरंगा लहर रहा था और सभा चल रही थी। उसी समय सभास्थल पर पुलिस के साथ सैंपऊ के तत्कालीन मजिस्ट्रेट शमशेर सिंह, पुलिस उपाधीक्षक गुरुदत्त सिंह तथा थानेदार अलीआजम पहुँचे और उन्होंने तिरंगे झंडे को उतारने के लिये आगे आए तो प्रजामंडल की सभा में मौजूद ठाकुर छत्तर सिंह सिपाहियों के सामने खड़े हो गए और किसी भी हालत में तिरंगा झंडा नहीं उतारने को कहा। इतने में ही पुलिस ने ठाकुर छत्तर सिंह को गोली मार दी। तब पंचम सिंह कुशवाह आगे आये तो पुलिस ने उन्हें भी गोली मार दी। दोनों शहीदों के जमीन पर गिरते ही सभा में मौजूद लोगों ने तिरंगे लगे नीम के पेड़ को चारों ओर से घेर लिया और कहा कि मारो गोली हम सब भारत माता के लिए मरने के लिए तैयार है। और भारत माता के नाम के जयकारे लगाने लगे जिससे मामला बिगड़ता देख पुलिस पीछे हट गयी। इसी कारण स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत से तसीमों गाँव राजस्थान में ही नहीं बल्कि पूरे भारत वर्ष में इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो गया जो कि इतिहास में 'तसीमों गोली काँड' के नाम से जाना जाता है। जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए तिरंगे के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी। ऐसे थे हमारे धौलपुर के वीर सपूत शहीद छत्तर सिंह परमार और पंचम सिंह कुशवाह। घटना के साक्षी 83 वर्षीय पंडित रोशनलाल शर्मा बताते है कि राजशाही के इशारे पर पुलिस द्वारा चलाई गोलियों के निशान उनके हाथों पर आज भी धुंधले नहीं पड़े हैं वही साक्षी 86 वर्षीय जमुनादास मित्तल ने कहा कि तिरंगे की लाज के लिए उनके गाँव के दो सपूतों की शहादत पर उन्हें फक्र है।
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धौलपुर
यह एक ऐतिहासिक मंदिर है। इस मंदिर में की गई वास्तुकला काफी खूबसूरत है। यह शिव मंदिर ग्वालियर-आगरा मार्ग पर बाईं ओर लगभग सौ कदम की दूरी पर स्थित है। इसे चौपड़ा-महादेव का मंदिर कहते हैं। गुरु शंकराचार्य श्री श्री १००८ स्वामी श्री जयेन्द्र सरस्वती भी यहाँ अभिषेक कर चुके हैं।
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धौलपुर
अगर आप धौलपुर आएं तो मुचुकुंद सरोवर अवश्य घूमें। इस तालव का नाम राजा मुचुकुन्द के नाम पर रखा गया। यह तालाव अत्यन्त प्राचीन है। राजा मुचुकुन्द सूर्य वंश के 24वें राजाथे। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि राजा मुचुकुन्द यहाँ पर सो रहे थे, उसी समय असुर कालयवन भगवान श्रीकृष्ण का पीछा करते हुए यहाँ पहुँच गया और उसने कृष्ण के भ्रम में, वरदान पाकर सोए हुए राजा मुचुकुन्द को जगा दिया। राजा मुचुकुन्द की नजर पड़ते ही कालयवन वहीं भस्म हो गया। तब से यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में जाना जाता है। इस स्थान के आस-पास ऐसी कई जगह है जिनका निर्माण या रूप परिवर्तन मुगल सम्राट अकबर ने करवाया था। मुचुकुन्द सरोवर को सभी तीर्थों का भान्जा कहा जाता है। मुचुकुन्द-तीर्थ नामक बहुत ही सुन्दर रमणीक धार्मिक स्थल प्रकृति की गोद में धौलपुर के निकट ग्वालियर-आगरा मार्ग के बांई ओर लगभग दो कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है। इस विशाल एवं गहरे जलाशय के चारों ओर वास्तु कला में बेजोड़ अनेक छोटे-बड़े मंदिर तथा पूजागृह पालराजाओं के काल 775 ई॰ से 915 ई॰ तक के बने हुए हैं। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल ऋषि-पंचमी और बलदेव-छट को विशाल मेला लगता है। जिसमें लाखों की संख्या में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं, इस सरोवर में स्नान कर तर्पण-क्रिया करते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि यहाँ लगातार सात रविवार स्नान करने से कान से सर का बहना बन्द हो जाता है। हर अमावस्या को हजारों तीर्थयात्री प्रातःकाल से ही मुचुकुन्द-तीर्थ की परिक्रमा लगाते हैं। इसी प्रकार हर पूर्णिमा को सायंकाल मुचुकुन्द-सरोवरकी महा-आरतीका आयोजन होता है, जिसमें सैकडों की तादाद में भक्त सम्मिलित होते हैं।
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धौलपुर
यह किला धौलपुर से पाँच किलोमीटर की दूरी पर चम्बल नदी के किनारे खारों के बीच स्थित है। इस किले का निर्माण धौलपुर नरेश मालदेव ने 1532 ई॰ के आसपास करवाया था। इसके बाद इस किले को शेरशाह सूरीके आक्रमण का सामना करना पड़ा और इस किले का नाम शेरगढ़ किला कर दिया गया।
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धौलपुर
धौलपुर रेल्वे स्टेशन से ६ कि॰मी॰, धौलपुर-बाड़ी मार्ग से सरानी खेड़ा जाने वाले मार्ग पर स्थित है पुरानी- छावनी। मार्ग पर ऑटो-रिक्शा चलते रहते हैं। महाराज श्री कीर्त सिंह ने गोहद से आकर इस स्थान पर छावनी स्थापित की और यहाँ वि॰सं॰ १६४२(सन् 1699) में मन्दिर का निर्माण करवाया। मन्दिर में चौबीस अवतार युक्त मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामक अष्टधातुका मनोहारी विग्रह है, जो उत्तराभिमुख है। इस दुर्लभ मूर्ति की चोरी भी हो गई थी। अन्तर्राष्ट्रीय मूर्ति तस्करों के चंगुल से निकलवाने में तत्कालीन डी॰आई॰जी॰, केन्द्रीय पुलिस बल, श्री जगदानन्द सिंह की प्रमुख भूमिका रही। मन्दिर परिसर के सिंह द्वार के बाईं ओर, अपने आराध्य प्रभु श्री राम को निहारते हुए (दक्षिणाभिमुख) राम भक्त हनुमान की विशाल प्रतिमा है। प्रतिमा में रक्त-वाहिकाएं (नसें) नजर आती हैं।
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फैशन
फैशन लोग जो खरीदना चाहते हैं उस्के द्वारा संचालित किया जा सकता है। हस्तियों और फिल्मी सितारों से भि फैसन प्रभावित किया जा सकता है। नए फैशन और फैशन के अलग अलग रुझान के बारे में सोचते समय लोग ऐसे विचार सोच्ते है जिस्मे समाज के सदस्यों के लिए एक निश्चित संदेश हो। लोगों को एक निश्चित राय व्यक्त करने के लिए या एक निश्चित तरीके से खुद को पेश करने के लिए एक निश्चित फैशन पहनने के लिए चुनते हैं। इस तरह, फैशन वे क्या पसंद पर निर्भर करता है अलग अलग लोगों के लिए कुछ अलग मतलब हो सकता है।
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फैशन
फैशन खुलासा है। कपदे लोगोन के समूहों का खुलासा कर्ता है। शैली लोगोन के बीच में लकीर और दूरी पेय्द कर्ति है। एक शैली की स्वीकृति या अस्वीकृति हमारे समाज के लिए एक प्रतिक्रिया है फैशन, इसे पहनता है जो व्यक्ति उसके बारे में एक कहानी बताता है जो अपने में हि एक भाषा है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%A8
फैशन
फैशन बड़ा व्यापार है। इस्स दुनिय में सब्से ज्यादा लोग इस व्यापार के विक्रय उत्पादन और इस्के खरीदारइ में शामिल हैं। हर दिन हज़ारोन श्रमिकए डिजाइन ब्नाते हैन और लाखों दुकानो के लिये गोंद और् डाई लगते हैन् और सिते है परिवहन के लिये।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%A8
फैशन
ठंड, बारिश और बर्फ से संरक्षण: पहाड़ पर्वतारोही शीतदंश और अधिक जोखिम से बचने के लिए उच्च तकनीक ऊपर का कपड़ा पहनते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%A8
फैशन
धार्मिक अभिव्यक्ति : रूढ़िवादी यहूदी पुरुष लंबे काले सूट पहनते हैं और इस्लामी महिलाएं अपनी आँखों को छोड़कर अपने शरीर के हर हिस्से को ढक कर रखती हैं।
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फैशन
प्रारंभ में कपड़े हाथ से बनते थे। 20वीं शताब्दी तक, नई प्रौद्योगिकियों ऐसे सिलाई मशीन के रूप में आया था। कपड़े तेजी से बड़े पैमाने पर उत्पादन मानक आकारों में और यूरोप और अमेरिका में विकसित की नियत . वस्त्र उद्योग विश्व आर्थिक उत्पादन के एक महत्वपूर्ण हिस्से के लिए खातों।
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फैशन
फैशन उद्योग के चार स्तरों में से एक किराए होते हैं:. कच्चे माल, डिजाइनर, खुदरा बिक्री और संवर्धन के रूपों के द्वारा माल के उत्पादन का उत्पादन इन लक्ष्यों को एक उपभोक्ता की मांग को पूरा.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%A8
फैशन
आज कल लोग खरीदारी कर सकते हैं। ऑनलाइन शॉपिंग के लिए इतने सारे साइट हैं। मीडिया फैशन को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फैशन का एक अन्य महत्वपूर्ण हिस्सा फैशन पत्रकारिता है। लोग टेलीविजन, सामाजिक नेटवर्किंग साइटों, समाचार पत्र और फैशन ब्लॉग के माध्यम से फैशन के बारे में जानते हैं। उनमें से कई के रूप में अच्छी तरह से यूट्यूब के माध्यम से फैशन के रुझान और फैशन सुझावों का पालन करें। 1892 में संयुक्त राज्य अमेरिका में शोहरत स्थापित, किया गया है, सबसे लंबे समय तक चलने वाले और फैशन पत्रिकाओं के सैकड़ों के सबसे सफल . अग्रणी फैशन डिजाइनरों में से कुछ मनीष मल्होत्रा ​​, सब्यसाची मुखर्जी, रितु कुमार और नीता लुल्ला हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%A8
फैशन
नीता लुल्ला एक बहुत प्रसिद्ध कॉस्ट्यूम डिजाइनर है। वह भारत के राष्ट्रपति से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता है। वह फिल्मों के विभिन्न प्रकारों में 26 साल के लिए काम किया है। वह चारों ओर तीन सौ फिल्मों में और अधिक से अधिक सात भाषाओं में काम किया है। मनीष मल्होत्रा ​​एक और बहुत प्रसिद्ध और सफल डिजाइनर है। उन्होंने कहा कि भारत में अग्रणी डिजाइनरों में से एक है। आमतौर पर वह महिलाओं के लिए डिजाइन. सब्यसाची मुखर्जी कोलकाता से एक बहुत प्रसिद्ध डिजाइनर है। वह एक मध्यम परिवार से है। रितु कुमार, वह भारत में बुटीक के विचार को पेश करने वाली पहली महिला है। उसका डिजाइन बहुत ही अनोखी और उत्तम दर्जे का है। उसके ब्रांड पूरी दुनिया में मान्यता प्राप्त है और यह भी प्रशंसा की है। लारा दत्ता, दीया मिर्जा, विद्या बालन जैसी अभिनेत्रियों फैशन में अपने काम। मीडिया क्योंकि फैशन पत्रकारिता फैशन व्यापार का एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में उभरा है कि इस तथ्य के खेलने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका है के लिए उसे प्रशंसा करता हूँ. फैशन का अपना सम्मान में एक बड़े उद्योग के रूप में उभर के साथ, 20 वीं सदी के शुरुआती बीच, फैशन में मीडिया की उपस्थिति धीरे - धीरे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया है इस उद्योग और फैशन मीडिया पर मजबूत प्रभाव है कि वहाँ इतने सारे कारक किया गया है। फैशन और फैशन रनवे के लिए समर्पित पत्रिकाओं अलग फैशन कृतियों की छवियों की सुविधा के लिए शुरू हुआ और भी अधिक प्रभावशाली लोगों पर अतीत की तुलना में बन गया। फैशन में मीडिया की भूमिका बड़े शहरों में दुनिया भर में इन पत्रिकाओं हॉट केक की तरह बेच और . फैशन मीडिया वहाँ फैशन के बारे में जानकारी के सभी प्रकार के साथ लोगों को प्रस्तुत करता है और जनता के कपड़ों स्वाद पर गहरा असर छोड़ दिया गया है कि इस तथ्य से स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था फैशन मीडिया का कहना है फ़ॉलो कई लोग हैं जो कर रहे हैं। यह स्पष्ट रूप से यह अधिक से अधिक तक पहुँचने के साथ काफी एक को प्रभावित करने का माध्यम है क्योंकि फैशन उद्योग में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है कि दिखाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A3%E0%A5%80
अक्षौहिणी
अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं। महाभारत के अनुसार इसमें २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते थे। इसके अनुसार इनका अनुपात १ रथ:१ गज:३ घुड़सवार:५ पैदल सनिक होता था। इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा १८ आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक फीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम ४६,८१,९२० और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर २७,१५,६२० हुई इस संख्या में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं मारी भी गई।
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अक्षौहिणी
अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A3%E0%A5%80
अक्षौहिणी
उग्रश्रवाजी ने कहा- एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने 'पत्ति' कहा है॥
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A3%E0%A5%80
अक्षौहिणी
इस पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष 'सेनामुख' कहते हैं। तीन 'सेनामुखो' को एक 'गुल्म' कहा जाता है॥
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अक्षौहिणी
तीन गुल्म का एक 'गण' होता है, तीन गण की एक 'वाहिनी' होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने 'पृतना' कहा है।
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अक्षौहिणी
तीन पृतना की एक 'चमू' तीन चमू की एक 'अनीकिनी' और दस अनीकिनी की एक 'अक्षौहिणी' होती है। यह विद्वानों का कथन है।
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अक्षौहिणी
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।
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अक्षौहिणी
निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये।
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अक्षौहिणी
तपोधनो! संख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
सायण के अनुसार इस नामकरण का कारण यह है कि इन ग्रंथों का अध्ययन अरण्य (जंगल) में किया जाता था। आरण्यक का मुख्य विषय यज्ञभागों का अनुष्ठान न होकर तदंतर्गत अनुष्ठानों की आध्यात्मिक मीमांसा है। वस्तुत: यज्ञ का अनुष्ठान एक नितांत रहस्यपूर्ण प्रतीकात्मक व्यापार है और इस प्रतीक का पूरा विवरण आरण्यक ग्रंथो में दिया गया है। प्राणविद्या की महिमा का भी प्रतिपादन इन ग्रंथों में विशेष रूप से किया गया है। संहिता के मंत्रों में इस विद्या का बीज अवश्य उपलब्ध होता है, परंतु आरण्यकों में इसी को पल्लवित किया गया है। तथ्य यह है कि उपनिषद् आरण्यक में संकेतित तथ्यों की विशद व्याख्या करती हैं। इस प्रकार संहिता से उपनिषदों के बीच की श्रृंखला इस साहित्य द्वारा पूर्ण की जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
आरण्यक ग्रन्थों का आध्यात्मिक महत्त्व ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। ये अपने नाम के अनुसार ही अरण्य या वन से सम्बद्ध हैं। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे ‘आरण्यक’ कहते हैं- अरण्ये भवम् आरण्यकम्। आरण्यक ग्रन्थों का प्रणयन प्रायः ब्राह्मणों के पश्चात् हुआ है क्योंकि इसमें दुर्बोध यज्ञ-प्रक्रियाओं को सूक्ष्म अध्यात्म से जोड़ा गया है। वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए आत्मतत्त्व और ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए मुख्य रूप से इन ग्रन्थों की रचना हुई है-ऐसा माना जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
आरण्यक ग्रन्थ वस्तुतः ब्राह्मणों के परिशिष्ट भाग हैं और उपनिषदों के पूर्वरूप। उपनिषदों में जिन आत्मविद्या, सृष्टि और तत्त्वज्ञान विषयक गम्भीर दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन है, उसका प्रारम्भ आरण्यकों में ही दिखलायी देती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
आरण्यकों में वैदिक यागों के आध्यात्मिक और दार्शनिक पक्षों का विवेचन है। इनमें प्राणविद्या का विशेष वर्णन हुआ है। कालचक्र का विशद वर्णन तैत्तिरीय आरण्यक में प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत का वर्णन भी इस आरण्यक में सर्वप्रथम मिलता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। इनमें मुख्य रूप से आत्मविद्या और रहस्यात्मक विषयों के विवरण हैं। वन में रहकर स्वाध्याय और धार्मिक कार्यों में लगे रहने वाले वानप्रस्थ-आश्रमवासियों के लिए इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविद्या की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है। प्राणविद्या के अतिरिक्त प्रतीकोपासना, ब्रह्मविद्या, आध्यात्मिकता का वर्णन करने से आरण्यकों की विशेष महत्ता है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति के कारण भी आरण्यक ग्रन्थ उपोदय हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी जैसे हैं, क्योंकि इनसे उपनिषदों के प्रतिपाद्य विषय और भाषा शैली के विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
इसका संबंध ऋग्वेद से है। ऐतरेय के भीतर पांच मुख्य अध्याय (आरण्यक) हैं जिनमें प्रथम तीन के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। डाक्टर कीथ इसे निरुक्त की अपेक्षा अर्वाचीन मानकर इसका रचनाकाल षष्ठ शताब्दी विक्रमपूर्व मानते हैं, परंतु वस्तुत: यह निरुक्त से प्राचीनतर है। ऐतरेय के प्रथम तीन आरण्यकों के कर्ता महिदास हैं इससे उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना न्याय्य है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
इसका भी संबंध ऋग्वेद से है। यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा पंद्रह अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश (तीसरे अ. से छठे अ. तक) कौषीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
दस परिच्छेदों (प्रपाठकों) में विभक्त है, जिन्हें "अरण" कहते हैं। इनमें सप्तम, अष्टम तथा नवम प्रपाठक मिलकर "तैत्तिरीय उपनिषद" कहलाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95
आरण्यक
वस्तुत: शुक्ल युजर्वेद का एक आरण्यक ही है, परंतु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
कलन में, समाकलज एक संकलन का सतत अनुरूप होता है, जिसका उपयोग क्षेत्रफल, आयतन और उनके सामान्यीकरण की गणना करने हेतु किया जाता है। समाकलन, समाकलज की गणना की प्रक्रिया, कलन के दो मूलभूत प्रक्रियाओं में से एक है, दूसरा अवकलन है। गणित और भौतिकी में समस्याओं को हल करने हेतु एक विधि के रूप में समाकलन शुरू हुआ, जैसे वक्र के नीचे क्षेत्रफल खोजना, या वेग से विस्थापन का निर्धारण। वर्तमान समाकलन का प्रयोग विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक क्षेत्रों में किया जाता है।
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2,897.414775
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
यहाँ बताए गए समाकलज वे हैं जिन्हें निश्चित समाकलज कहा जाता है, जिन्हें संख्या रेखा में दो बिन्दुओं के मध्य दिए गए फलन के ग्राफ द्वारा समतल किए गए क्षेत्र के चिह्नित क्षेत्रफल के रूप में व्याख्या किया जा सकता है। परम्परागत रूप से, समतल के क्षैतिज अक्ष के ऊपर के क्षेत्र धनात्मक होते हैं जबकि नीचे के क्षेत्र ऋणात्मक होते हैं। समाकलन भी एक प्रत्यवकलजों की अवधारणा को सन्दर्भित करता है, एक ऐसा फलन जिसका अवकलज दिया हुआ फलन है। इस स्थिति में, उन्हें अनिश्चित समाकलज कहा जाता है। कलन का मूलभूत प्रमेय अवकलन के साथ निश्चित समाकलजों को सम्बन्धित करता है और किसी फलन के निश्चित समाकलन की गणना करने हेतु एक विधि प्रदान करता है जब इसका प्रत्यवकलज ज्ञात हो।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
सामान्यतः, अंतराल पर वास्तविक चर x के सम्बन्ध में वास्तविक-मान फलन ƒ(x) का x के सापेक्ष समाकलज निम्नोल्लेखित है:
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
चिह्न ∫ समाकलन का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतीक dx, जिसे चर x का अवकलज कहा जाता है, इंगित करता है कि समाकलन का चर x है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
फलन f(x) को समाकल्य कहा जाता है, बिन्द्वों a और b को समाकलन की सीमा कहा जाता है, और समाकलज को अन्तराल [a, b] के ऊपर कहा जाता है, जिसे समाकलन का अन्तराल कहा जाता है। एक फलन को पूर्णांक कहा जाता है यदि इसके प्रभावक्षेत्र पर इसका अभिन्न परिमित है। यदि सीमाएँ निर्दिष्ट हैं, तो समाकलज को निश्चित समाकलज कहा जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
तब समाकलज को एक अनिश्चित समाकलज कहा जाता है, जो फलनों के एक वर्ग (प्रत्यवकलज) का प्रतिनिधित्व करता है जिसका अवकलज समाकल्य है। कलन का मूलभूत प्रमेय निश्चित समाकलजों के मूल्यांकन को अनिश्चित समाकलजों से सम्बन्धित करती है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
समाकलनीय फलनों का संग्रह रैखिक संयोजनों के तहत बन्द है, और एक रैखिक संयोजन का समाकलज, उसके समाकलजों का रैखिक संयोजन है:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
Mauch, Sean, Sean's Applied Math Book, CIT, an online textbook that includes a complete introduction to calculus
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2,897.414775
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8
समाकलन
Kowalk, W.P., Integration Theory, University of Oldenburg. A new concept to an old problem. Online textbook
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6
फ़ैज़ाबाद
फ़ैज़ाबाद भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या जिले में स्थित एक शहर है। यह सरयू नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है और अयोध्या नगर निगम द्वारा प्रशासित है। भगवान राम, राममनोहर लोहिया, कुंवर नारायण, राम प्रकाश द्विवेदी , प्रसिद्ध अवधी लोक गायक दिवाकर द्विवेदी आदि की यह जन्मभूमि है। इस शहर को अवध के नवाब द्वारा बसाया गया था। यह 6 नवंबर 2018 तक फैजाबाद जिला (अब अयोध्या जिला) और फ़ैज़ाबाद मंडल (अब अयोध्या मंडल) का मुख्यालय था, जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या के रूप में फैजाबाद जिले (अब अयोध्या जिले) का नाम बदलने और जिले के प्रशासनिक मुख्यालय को अयोध्या शहर में स्थानांतरित करने की मंजूरी दी थी।
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2,894.269518
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6
फ़ैज़ाबाद
अयोध्या का इतिहास अत्यन्त गौरवपूर्ण एवं समृद्ध है। यह प्रभु श्रीराम की जन्म एवं कर्मस्थली है। प्रभु श्रीराम की जन्मस्थली रामजन्मभूमि अयोध्या जनपद में स्थित है। राम भरत मिलाप के पश्चात भरत खड़ाऊँ लेकर अयोध्या मुख्यालय से 15 किमी॰ दक्षिण सुलतानपुर रोड रोड पर स्थित भरतकुण्ड नामक स्थान पर चौदह वर्ष तक रहे। यहाँ पतित पावनी माँ सरयू नदी रूप में अवतरित होकर सदियोँ से मानव कल्याण करती है। अयोध्या शहर के में फ़ैज़ाबाद शहर की स्थापना अवध के पहले नबाव सआदत अली खान ने 1730 में की थी। उन्होंने इसे अपनी राजधानी बनाई, और अयोध्या का नाम बदलकर फ़ैज़ाबाद कर दिया लेकिन वह यहाँ बहुत कम समय व्यतीत कर पाए। तीसरे नवाब शुजाउद्दौला यहाँ रहते थे और उन्होंने नदी के तट पर 1764 में एक दुर्ग का निर्माण करवाया था; उनका और उनकी बेगम का मक़बरा इसी शहर में स्थित है। 1775 में अवध की राजधानी को लखनऊ ले जाया गया। 19वीं शताब्दी में फ़ैज़ाबाद का पतन हो गया।
0.5
2,894.269518
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6
फ़ैज़ाबाद
अयोध्या सड़क और रेल मार्ग द्वारा लखनऊ, प्रयागराज (भूतपूर्व प्रयाग), वाराणसी (भूतपूर्व काशी), सुल्तानपुर (भूतपूर्व कुशभवनपुर), जौनपुर और उत्तर भारत के अन्य शहरों से भलीभाँति जुड़ा हुआ है।
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2,894.269518
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6
फ़ैज़ाबाद
अयोध्या का निकटतम हवाई अड्डा अयोध्या में है। एयरपोर्ट से अयोध्या लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके अलावा अयोध्या स्थित पूर्व परिणाम में भी हवाई अड्डा है। यह हवाई अड्डा डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविधालय, अयोध्या के समीप स्थित है। इस हवाई अड्डे के नाम श्रीरामलला अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है लेकिन अभी यह हवाई अड्डा चालू नहीं हुआ है जबकि प्रस्तावित हो गया है अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनने को।
0.5
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फ़ैज़ाबाद
रेल मार्ग द्वारा दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी, प्रयागराज (प्रयाग), सुल्तानपुर और जौनपुर से अयोध्या आसानी से पहुँचा जा सकता है।
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फ़ैज़ाबाद
अयोध्या सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, लखनऊ, गोरखपुर, वाराणसी, प्रयागराज, जौनपुर, सुल्तानपुर और अन्य जगहों से अयोध्या आसानी से पहुँचा जा सकता है।
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फ़ैज़ाबाद
अयोध्या सरयू नदी के दक्षिणी तट के किनारे जलोढ़ मैदान के उपजाऊ हिस्से पर बसा हुआ है। यहाँ प्रमुख फ़सलें धान, गन्ना, गेहूँ और तिलहन हैं। अयोध्या के दक्षिण-पूर्व में स्थित टांडा शहर में निर्यात के लिए हथकरघा वस्त्र का निर्माण होता है। तथा अम्बेडकर नगर ज़िले के राजेसुल्तानपुर से तम्बाकु सस्ती दरो पर प्राप्त हो जाता है, सोहावल के पास पनबिजली उत्पादन केंद्र है।
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फ़ैज़ाबाद
अयोध्या शहर के उद्योगों में चीनी प्रसंस्करण और तिलहन की पेराई शामिल है तथा यह कृषि उत्पादों का व्यापारिक केंद्र भी है।
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फ़ैज़ाबाद
ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से भी यह स्थान काफ़ी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कलकत्ता क़िला, नागेश्‍वर मंदिर, राम जन्मभूमि, सीता की रसोई, अयोध्या तीर्थ, गुरुद्वारा ब्रह्मकुण्ड और गुप्तार घाट , गुलाब बाड़ी ,तथा बहुबेगम का मकबरा , यहां के प्रमुख एवं प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से हैं। छावनी छेत्र से लगा हुआ गुप्तार घाट में अवस्थित श्री अनादि पंचमुखी महादेव मन्दिर नगरवासियों की आस्था का केन्द्र हैI
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गोचर
गोचर का अर्थ होता है गमन यानी चलना. गो अर्थात तारा जिसे आप नक्षत्र या ग्रह के रूप में समझ सकते हैं और चर का मतलब होता है चलना. इस तरह गोचर का सम्पूर्ण अर्थ निकलता है ग्रहों का चलना.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
ज्योतिष की दृष्टि में सूर्य से लेकर राहु केतु तक सभी ग्रहों की अपनी गति है। अपनी-अपनी गति के अनुसार ही सभी ग्रह राशिचक्र में गमन करने में अलग-अलग समय लेते हैं। नवग्रहों में चन्द्र का गोचर सबसे कम अवधि का होता है क्योंकि इसकी गति तेज है। जबकि, शनि की गति मंद होने के कारण शनि का गोचर सबसे अधिक समय का होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
ग्रह विभिन्न राशियों में भ्रमण करते हैं। ग्रहों के भ्रमण का जो प्रभाव राशियों पर पड़ता है उसे गोचर का फल या गोचर फल कहते हैं। गोचर फल ज्ञात करने के लिए एक सामान्य नियम यह है कि जिस राशि में जन्म समय चन्द्र हो यानी आपकी अपनी जन्म राशि को पहला घर मान लेना चाहिए उसके बाद क्रमानुसार राशियों को बैठाकर कुण्डली तैयार कर लेनी चाहिए. इस कुण्डली में जिस दिन का फल देखना हो उस दिन ग्रह जिस राशि में हों उस अनुरूप ग्रहों को बैठा देना चाहिए. इसके पश्चात ग्रहों की दृष्टि एवं युति के आधार पर उस दिन का गोचर फल ज्ञात किया जा सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
जन्म कुन्डली मे उपस्थित ग्रह गोचर के ग्रहों के साथ जब युति करते हैं, तो उनका फ़लादेश अलग अलग ग्रहों के साथ अलग होता है, वे अपना प्रभाव जातक पर जिस प्रकार से देते हैं, वह इस प्रकार से है:-
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
सूर्य का व्यास १,३९,२००० किलोमीटर है, यह पृथ्वी पर प्रकाश और ऊर्जा देता है और जीवन भी इसी ग्रह के द्वारा सम्भव हुआ है, यह ८’-२०" में अपना प्रकाश धरती पर पहुंचा पाता है, पृथ्वी से सूर्य की दूरी १५० मिलिअन किलोमीटर है, राशि चक्र से पृथ्वी सूर्य ग्रह की परिक्रमा एक साल में पूर्ण करती है, सूर्य सिंह राशि का स्वामी है और कभी वक्री नही होता है। जन्म कुन्डली में ग्रहों के साथ जब यह गोचर करता है, उस समय जातक के जीवन में जो प्रभाव प्रतीत होता है, वह इस प्रकार से है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
सूर्य का सूर्य पर:-पिता को बीमार करता है, जातक को भी बुखार और सिर दर्द मिलता है, दिमागी खिन्नता से मन अप्रसन्न रहता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
सूर्य क चन्द्र पर:-पिता को अपमान सहना पडता है, सरकार के प्रति या कोर्ट केशों के प्रति यात्रायें करने पडती है,
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
सूर्य का मंगल पर:-खून मे कमी और खून की बीमारियों का प्रभाव पडता है, पित्त मे वृद्धि होने से उल्टी और सिर मे गर्मी पैदा होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%B0
गोचर
सूर्य का बुध पर:-जातक को या पिता को भूमि का लाभ करवाता है, नये मित्रों से मिलन होता है, व्यापारिक कार्य में सफ़लता देता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8
भूविज्ञान
पृथ्वी से सम्बंधित ज्ञान ही भूविज्ञान कहलाता है।भूविज्ञान या भौमिकी (Geology) वह विज्ञान है जिसमें ठोस पृथ्वी का निर्माण करने वाली शैलों तथा उन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जिनसे शैलों, भूपर्पटी और स्थलरूपों का विकास होता है। इसके अंतर्गत पृथ्वी संबंधी अनेकानेक विषय आ जाते हैं जैसे, खनिज शास्त्र, तलछट विज्ञान, भूमापन और खनन इंजीनियरी इत्यादि।
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भूविज्ञान
इसके अध्ययन बिषयों में से एक मुख्य प्रकरण उन क्रियाओं की विवेचना है जो चिरंतन काल से भूगर्भ में होती चली आ रही हैं एवं जिनके फलस्वरूप भूपृष्ठ का रूप निरंतर परिवर्तित होता रहता है, यद्यपि उसकी गति साधारणतया बहुत ही मंद होती है। अन्य प्रकरणों में पृथ्वी की आयु, भूगर्भ, ज्वालामुखी क्रिया, भूसंचलन, भूकंप और पर्वतनिर्माण, महादेशीय विस्थापन, भौमिकीय काल में जलवायु परिवर्तन तथा हिम युग विशेष उल्लेखनीय हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8
भूविज्ञान
भूविज्ञान में पृथ्वी की उत्पत्ति, उसकी संरचना तथा उसके संघटन एवं शैलों द्वारा व्यक्त उसके इतिहास की विवेचना की जाती है। यह विज्ञान उन प्रक्रमों पर भी प्रकाश डालता है जिनसे शैलों में परिवर्तन आते रहते हैं। इसमें अभिनव जीवों के साथ प्रागैतिहासिक जीवों का संबंध तथा उनकी उत्पत्ति और उनके विकास का अध्ययन भी सम्मिलित है। इसके अंतर्गत पृथ्वी के संघटक पदार्थों, उन पर क्रियाशील शक्तियों तथा उनसे उत्पन्न संरचनाओं, भूपटल की शैलों के वितरण, पृथ्वी के इतिहास (भूवैज्ञानिक कालों) आदि के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8
भूविज्ञान
भूविज्ञान, पृथ्वी के इतिहास के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। खनिजों तथा हाइड्रोकार्बनों की खोज के फलस्वरूप वर्तमान युग में इसका वाणिज्यिक महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है।
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