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20231101.hi_34436_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
गुना मध्य प्रदेश के उत्तर में स्थित है। 35 किलोमीटर दूर राजस्थान सीमा है, पार्वती नदी मध्य प्रदेश और राजस्थान को अलग करती है। गुना मालवा का प्रवेश द्वार कहा जाता है और ग्वालियर संभाग में आता है। गुना शहर ७७' देशांतर तथा २५' अक्षांश तथा राष्ट्रीय राजमार्ग 46 (आगरा-मुम्बई) पर स्थित है। कोटा और बीना शहर से रेल मार्ग द्वारा भी यहाँ पहुँचा जा सकता है। शहर में मुख्यतः हिन्दू, मुस्लिम तथा जैन समुदाय के लोग निवास करते हैं।। खेती यहाँ का मुख्य कार्य है। गुना (ग्वालियर संयुक्त राष्ट्र सेना) प्राचीन अवंती किंगडम चंद प्रद्योत मााहेसेना द्वारा स्थापित का हिस्सा था। बाद में शिशुसंघ अवंत का राज्य है, जो मगध के बढ़ते साम्राज्य के गुना शामिल जोड़ा।
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20231101.hi_34436_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
18 वीं सदी में, गुना मराठा नेता रामोजी राव सिंधिया ने विजय प्राप्त की, और शीघ्र ही भारत की आजादी के बाद जब तक ग्वालियर के राज्य का हिस्सा बना रहा था। गुना राज्य के ईसागढ़ जिले के हिस्से के रूप में दिलाई। 1897 में भारतीय रेलवे मिडलैंड एक रेल मार्ग गुना से गुजर निर्माण किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति, गुना अपने 16 जिलों में से एक के रूप में 28 मई 1948 को मध्य भारत के नए राज्य का हिस्सा बन गया। 1 नवंबर, 1956 को मध्य भारत मध्य प्रदेश राज्य में विलय कर दिया गया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
गुना के पास बजरंगढ नामक ऐतिहासिक स्थान है। यहॉं प्राचीन किला है। किले में भगवान श्री राम जानकी एवं श्री हनुमान जी के एतेहासिक प्रसिद्ध मंदिर है जो सभी की आस्‍था के केन्‍द्र हैं यहाँ महावीर भगवान की प्राचीन मूर्ति है। स्वतंत्रता से पहले गुना ग्वालियर राज घराने का हिस्सा था। जिस पर सिन्धिया वंश का अधिकार था। कुल क्षेत्रफल ६४८४.६३ वर्ग कि॰मी॰ तथा जनसंख्या ८३८०२६ है।
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20231101.hi_34436_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
इसके पश्चिम में राजस्थान स्थित है उत्तर में उत्तर प्रदेश स्थित है पूर्व में छत्तीसगढ़ी स्थित है तथा दक्षिण में महाराष्ट्र स्थित है विजयपुर में एक एनएफएल फैक्ट्री स्थित है तथा यहीं पर एक गेल फैक्ट्री में स्थित है राघोगढ़ में माननीय दिग्विजय सिंह पूर्व मुख्यमंत्री जी का किला भी यहीं पर है इसके कुंभराज तहसील धनिया की मंडी में महत्वपूर्ण स्थान रखती है कुंभराज से पश्चिम में 13 किलोमीटर पर स्थित 1 ग्राम आंबे है जहां पर बहुत बड़ा बांध है जिसका निर्माण माननीय दिग्विजय सिंह द्वारा किया गया है आंबे के बगल में एक ताला बड़ा ग्राम है इस पर बहुत बड़ी कांच फैक्ट्री बनने की संभावना है अभी तक लेकिन बनी नहीं है खंग वाली पूरा लंबा चेक आंबे और बढ़ावे से गिरा हुआ एक ऊंची बड़ी है जिस पर श्री भगवान देवनारायण का मंदिर स्थित है इसका कार्य अभी निर्माणाधीन है।
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गुना
गुना का हनुमान मंदिर क्षेत्रीय स्तर में टेकरी सरकार के नाम से जाना जाता है जो कि एक बहुत ऊंची पहाड़ी पर स्थित है यहां प्रत्येक वर्ष हनुमान जयंती पर विशाल मेले का आयोजन होता है। गुना का प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल है, गुना से 71 किलोमीटर दूर ग्राम डोंगर(मोतीपुर) में
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20231101.hi_34436_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
प्रसिद्ध रामजानकी मंदिर है। यहां पर मीणा व भील जाति निवास करती है। तथा धाकड़ किरार भी मुख्यतः निवास करते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
हनुमान टेकरी मध्य प्रदेश के गुना जिले के मध्य भाग में स्थित है यहां पर एक प्राचीनतम हनुमान जी का मंदिर है यहां हर साल हनुमान जयंती पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं ऐसा माना जाता है कि यहां पहुंचे श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं प्राचीन समय से चले आ रहा यह मंदिर को अभी कुछ ही वर्षों में एक भव्यता प्रदान की गई है प्राचीन समय में कहा जाता था कि इस पवित्र स्थान पर किसी का रात रुकना संभव नहीं था यहां मध्य प्रदेश के अलावा भी दूर-दूर से श्रद्धालु गढ़ आते हैं
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20231101.hi_34436_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गुना
गुना का हनुमान मंदिर क्षेत्रीय स्तर में टेकरी सरकार के नाम से जाना जाता है जो कि एक बहुत ऊंची पहाड़ी पर स्थित है । गुना का प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल है,
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
बिरहा लोकगायन की एक विधा है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार के भोजपुरीभाषी क्षेत्र में प्रचलित है। बिरहा प्रायः गाँव देहात के लोगो द्वारा गाया जाता हैं । इसका अतिम शब्द प्रायः बहुत खींचकर गाया जाता है । जैसे,—बेद, हकीम बुलाओ कोई गोइयाँ कोई लेओ री खबरिया मोर । खिरकी से खिरकी ज्यों फिरकी फिरति दुओ पिरकी उठल बड़ जोर ॥ बिरहा, 'विरह' से उत्‍पन्‍न हुई है जिसमें लोगों के सामाजिक वेदना को आसानी से दर्शाया जाता हैं और श्रोता मनोरजंन के साथ-साथ छन्‍द, काव्‍य, गीत व अन्‍य रसों का आनन्‍द भी ले पाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
बिरहा अहीरों का लोकप्रिय हृदय गीत है। पूर्वांचल की यह लोकगायकी मनोरंजन के अलावा थकावट मिटाने के साथ ही एकरसता की ऊब मिटाने का उत्तम साधन है। बिरहा गाने वालों में पुरुषों के साथ ही महिलाओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या इसकी लोकप्रियता और प्रसार का स्पष्ट प्रमाण है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
आजकल पारम्परिक गीतों के तर्ज और धुनों को आधार बनाकर बिरहा काव्य तैयार किया जाता है। ‘पूर्वी’, ‘कहरवा’, ‘खेमटा’, ‘सोहर’, ‘पचरा’, ‘जटावर’, ‘जटसार’, ‘तिलक गीत’, ‘बिरहा गीत’, ‘विदाई गीत’, ‘निर्गुण’, ‘छपरहिया’, ‘टेरी’, ‘उठान’, ‘टेक’, ‘गजल’, ‘शेर’, ‘विदेशिया’, ‘पहपट’, ‘आल्हा’, और खड़ी खड़ी और फिल्मी धुनों पर अन्य स्थानीय लोक गीतों का बिरहा में समावेश होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
बिरहा के शुरूआती दौर के कवि ‘जतिरा’, ‘अधर’, ‘हफ्तेजूबान’, ‘शीसा पलट’, ‘कैदबन्द’, ‘सारंगी’, ‘शब्दसोरबा’, ‘डमरू’, ‘छन्द’, ‘कैद बन्द’, ‘चित्रकॉफ’ और ‘अनुप्राश अलंकार’ का प्रयोग करते थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
यह विधा भारत के बाहर मॉरीसस, मेडागास्कर और आस-पास के भोजपुरी क्षेत्रों की बोली वाले क्षेत्र में अपनी पैठ बढ़ाकर दिनों-दिन और लोकप्रिय हो रही है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
आदिगुरु बिहारी यादव (बिरहा के जनक माने जाते है , गाज़ीपुर 1837), ,गणेश यादव, पत्तू यादव, (पद्मश्री) हीरालाल यादव ,रामदेव यादव, , काशी एवम बुल्लु ,बिरहा जगत में उच्च शिक्षित सांस्कृतिक प्रदूषण से मुक्त बिरहा के महाकवि कवि चंद्रिका यादव जी को कहा जाता है, पंडित लक्ष्मण त्रिपाठी वाराणसी मिर्जापुरी कजरी घर आने से आए पारिवारिक, सामाजिक,साहित्यिक गायन शैली एवं स्पष्ट संवाद  के लिए मशहूर लोकगायक(बिरहा) एवं आकाशवाणी कलाकार इंजीनियर सुनील यादव, शिक्षा :पी. एच. डी.*(कम्प्यूटर सा. एंड इंजी.,राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान पटना) ,(एम.टेक(साइबर सिक्योरिटी गोल्डमेडलिस्ट), बी.टेक(कम्प्यूटर सा. एंड इंजी.) ,प्रौद्योगिकी संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत) ,चुनार मिर्ज़ापुर,उत्तर प्रदेश डॉक्टर मन्नू यादव जो मारीशस तक बिरहा जाकर के गाए हैं पंडित भगवानदास यादव जो बिरहा को कजली मैं गाने की क्षमता रखते हैं जो चंदौली जनपद मैं बिरहा की आदि भूमि बरह से आते हैं पंडित परशुराम यादव सुरेंद्र यादव बलिया दिनेश लाल यादव (निरहुआ) ,ओमप्रकाश यादव,बल्लीयादव,बालचरण यादव ,रामकिशुन यादव(कुड़वां, गाजीपुर), सुरेन्द्र यादव ,छेदी, पंचम, करिया, गोगा, मोलवी, मुंशी, मिठाई लाल यादव, खटाई, खरपत्तू, लालमन, सहदेव, अक्षयबर, बरसाती, सतीश चन्द्र यादव, रामाधार, जयमंगल, पतिराम, महावीर, रामलोचन, मेवा सोनकर, मुन्नीलाल, पलकधारी, बेचन राजभर, रामसेवक सिंह, रामदुलार, रामाधार कहार, रामजतन मास्टर, जगन्नाथ आदि।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
बलेसर यादव (बालेश्वर यादव) हैदरअली, उजाला यादव, बाबू राम यादव (अम्बारी,आज़मगढ़)उदयराज यादव, त्रिभुवन नाथ यादव
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बिरहा
बिरहा की उत्पत्ति के सूत्र १९वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिलते हैं जब ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मजदूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। ऐसे श्रमिकों को रोजी-रोटी के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रहना पड़ता था। दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में अपने विरह व्यथा को मिटाने के लिए छोटे-छोटे समूह में ये लोग बिरहा को ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE
बिरहा
कालान्तर में लोक-रंजन-गीत के रूप में बिरहा का विकास हुआ। पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर 'बिरहा' गायन की परम्परा रही है। किसी विशेष पर्व पर मंदिर के परिसरों में 'बिरहा दंगल' का प्रचलन भी है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
ईथरनेट प्रणाली का विस्तार करने हेतु तारों का बड़ा जंजाल फैला होता है। इन तारों को बड़े ही व्यवस्थित ढंग से स्रोत से गंतव्य तक पहुंचाना होता है, जिससे कि किसी समस्या के समय तारों की पहचान हो सके साथ ही सुधार भी संभव हो। इस समस्या से निबटने हेतु बेतार ईथरनेट भी प्रचलन में आ गये हैं जिनमें वेव का प्रयोग किया जाता है। इसमें वायरलेस नेटवर्क इंटरफेस कार्ड का प्रयोग होता है, जिसमें एक एंटीना लगा होता है। ये नेटवर्क अपेक्षाकृत अधिक मजबूत होता है लेकिन इसमें अतिरिक्त सुरक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि तारों को तो किन्हीं निश्चित कंप्यूटरों से जोड़ा जा सकता है, किन्तु जब सारा डाटा बेतार वातावरण में उपलब्ध हो तो कोई भी कंप्यूटर इसे प्राप्त कर सकता है। अतः इसके लिये पासकी आदि कूटशब्दों का प्रयोग किया जाता है। ईथरनेट के विकल्प के रूप में आईबीएम के तैयार किए गए प्रोटोकॉल और एटीएम (तुल्यकालिक स्थानांतरण माध्यम/एसाइनोक्रोनस ट्रांसफर मोड) तकनीक का भी प्रयोग किया जा सकता है।
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1,286.351107
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
ईथरनेट को १९७३ और १९७४ के बीच ज़ेरॉक्स PARC में विकसित किया गया था। यह ALOHAnet से प्रेरित था, जिसे रॉबर्ट मेटकाफ ने अपने पीएचडी शोध प्रबंध के रूप में अध्ययन किया था। इस विचार को पहली बार एक मेमो में प्रलेखित किया गया था, जिसे मेटकाफ ने २२ मई, १९७३ को लिखा था, जहां उन्होंने ल्यूमिफ़ेरस एथर के नाम पर एक बार "विद्युत चुम्बकीय तरंगों के प्रसार के लिए" सर्वव्यापी, पूरी तरह से निष्क्रिय माध्यम के रूप में अस्तित्व में लाने के लिए इसका नाम दिया था।
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ईथरनेट
१९७५ में, ज़ेरॉक्स ने एक पेटेंट आवेदन दर्ज किया जिसमें मेटकाफ, डेविड बोग्स, चक थाकर, और बटलर लैम्पसन को आविष्कारक बताया। १९७६ में, PARC में ईथरनेट सिस्टम के लगाने के बाद, मेटकाफ और बोग्स ने तत्कालीन घटनाक्रमों को प्रभावित करने वाला पेपर प्रकाशित किया। इसके बाद योजेन दलाल, रॉन क्रेन, बॉब गार्नर और रॉय ओगस ने मूल २.९ ४ मेगा बिट प्रति सेकंड वाले ईथरनेट को १० मेगा बिट प्रति सेकंड वाले ईथरनेट प्रोटोकॉल में परिवर्तित किया, जिसे १९८० में बाजार में जारी किया गया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
मेटकाफ़ ने जून 1979 में ज़ेरॉक्स छोड़ कर 3Com के स्थापना की। उन्होंने ईथरनेट को मानक के रूप में स्थापित करने के लिए डिजिटल उपकरण निगम (DEC), इंटेल और ज़ेरॉक्स को आश्वस्त किया। उस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में ज़ेरॉक्स अपने 'ईथरनेट' ट्रेडमार्क को त्यागने के लिए सहमत हुए। पहला मानक ३० सितंबर, १९८० को "द ईथरनेट, ए लोकल एरिया नेटवर्क। डेटा लिंक लेयर एंड फिजिकल लेयर स्पेसिफिकेशन" के रूप में प्रकाशित किया गया था। यह तथाकथित DIX मानक (डिजिटल इंटेल ज़ेरॉक्स) ने १० मेगा गीत प्रति सेकंड ईथरनेट को निर्दिष्ट किया, जिसमें ४८-बिट गंतव्य और स्रोत पता और एक वैश्विक १६-बिट ईथर-टाइप फ़ील्ड है। इसका दूसरा संस्करण नवंबर 1982, में प्रकाशित किया तह था जो कि ईथरनेट II के रूप में जाना जाता है। औपचारिक मानकीकरण के प्रयास उसी समय आगे बढ़ा और परिणामस्वरूप 23 जून, 1983 को IEEE 802.3 का प्रकाशन हुआ।
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ईथरनेट
ईथरनेट प्रोटोकॉल को शुरुआत में "टोकन रिंग" और अन्य मालिकाना प्रोटोकॉल से प्रतिस्पर्धा की। ईथरनेट को बाजार की वास्तविकताओं के अनुकूल सस्ती पतली "समाक्षीय केबल" और फिर सर्वव्यापी "दोहरी तारों" द्वारा संचार करने में सक्षम बहाया गया था। १९८० दशक के अंत तक, ईथरनेट स्पष्ट रूप से प्रभावी नेटवर्क तकनीक था। इस प्रक्रिया में, 3Com एक प्रमुख कंपनी बन गई। 3Com ने अपना पहला १० मेगा बिट प्रति सेकंड ईथरनेट 3C100 NIC मार्च 1981 में जारी किया, और उसी साल PDP-11 और VAX और साथ ही मल्टीबस-आधारित इंटेल और सन माइक्रोसिस्टम्स कंप्यूटरों के लिए ईथरनेट एडेप्टर की बिक्री शुरू कर दी। DEC का यूनीबस टु ईथरनेट एडेप्टर, जिसने DEC ने अपना कॉर्पोरेट नेटवर्क बनाने के लिए आंतरिक रूप से इस्तेमाल किया, जिस से की 1986 तक ये नेटवर्क 10,000 नोड्स तक पहुंच गया, जिससे यह उस समय दुनिया के सबसे बड़े कंप्यूटर नेटवर्क में से एक माना गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
IBM पीसी के लिए ईथरनेट एडेप्टर कार्ड 1982 में जारी किया गया था, और 1985 तक, 3Com ने 100,000 ईथरनेट एडेप्टर कार्ड बेच दिया था। समानांतर पोर्ट आधारित ईथरनेट एडेप्टर एक समय के लिए उत्पादित किए गए थे, जिसमें डॉस और विंडोज के लिए ड्राइवर थे। 1990 के दशक के प्रारंभ में, ईथरनेट इतना प्रचलित हो गया कि आधुनिक कंप्यूटर के लिए यह एक अनिवार्य आवश्यकता बन गयी, और कुछ पीसी और अधिकांश वर्कस्टेशन पर ईथरनेट पोर्ट दिखाई देने लगे। इस प्रक्रिया को 10BASE-T के अपेक्षाकृत छोटे मॉड्यूलर कनेक्टर से काफी विस्तार मिला ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
फरवरी 1980 में, इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर्स (IEEE) ने स्थानीय क्षेत्र नेटवर्क (लोकल एरिया नेटवर्क (LAN)) को मानकीकृत करने के लिए 802 प्रोजेक्ट शुरू किया। गैरी रॉबिन्सन (DEC), फिल आर्स्ट (इंटेल), और बॉब प्रिंटिस (ज़ेरॉक्स) के साथ "डीआईएक्स-समूह" ने तथाकथित "ब्लू बुक" सीएसएमए / सीडी (CSMA / CD) विनिर्देश को लैन विनिर्देशन के लिए एक उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया। CSMA / CD के अलावा, टोकन रिंग (आईबीएम द्वारा समर्थित) और टोकन बस (जनरल मोटर्स द्वारा चयनित और उसके बाद समर्थित) को भी LAN मानक के लिए उम्मीदवार माना जाता था। पहल करने के प्रस्तावों और व्यापक रुचि के कारण इस तकनीक के मानकीकरण के लिए मजबूत असहमति हुई। दिसंबर 1980 में, समूह को तीन उपसमूहों में विभाजित किया गया था, और मानकीकरण प्रत्येक प्रस्ताव के लिए अलग से आगे बढ़ा।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
मानक प्रक्रिया में देरी ने ज़ेरॉक्स स्टार वर्कस्टेशन और 3Com के ईथरनेट लैन उत्पादों को बाजार में लाना जोखिम में डाल दिया था। इस तरह के व्यावसायिक निहितार्थ के साथ, डेविड लेडल (महाप्रबंधक, ज़ेरॉक्स ऑफिस सिस्टम्स) और मेटकाफ़ (3Com) ने फ्रिट्ज़ रोशसेन (सीमेंस प्राइवेट नेटवर्क) के "कार्यालय संचार उपकरण" गठबंधन स्थापित करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इसके साथ सीमेंस का सहयोग भी ईथरनेट का मानकीकरण के लिए मिला (10 अप्रैल, 1981)। सीमेंस के IEEE 802 में प्रतिनिधि, इंग्रिड फ्रॉम, यूरोपीय मानकों के निकाय ECMA TC24 के भीतर एक प्रतिस्पर्धी कार्य समूह "स्थानीय नेटवर्क (लोकल नेटवर्क्स)" की स्थापना द्वारा IEEE से परे ईथरनेट के लिए व्यापक समर्थन प्राप्त किया। मार्च 1982 को, ECMA TC24 ने अपने कॉर्पोरेट सदस्यों के साथ IEEE 802 ड्राफ्ट पर आधारित CSMA / CD के लिए एक मानक पर एक समझौता किया। DIX प्रस्ताव तकनीकी रूप से पूर्ण था और ECMA द्वारा की गई त्वरित कार्यवाही के कारण, जिसने निर्णायक रूप से IEEE के भीतर राय में योगदान दिया था, IEEE 802.3 CSMA / CD मानक को दिसंबर 1982 में अनुमोदित किया गया था।IEEE ने 1983 में मसौदे के रूप में 802.3 मानक और 1985 में एक मानक के रूप में प्रकाशित किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%A5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%9F
ईथरनेट
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईथरनेट के अनुमोदन से एक समान, क्रॉस-पक्षपातपूर्ण कार्यवाही से प्राप्त किया गया था, जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय इलेक्ट्रोटेक्निकल कमीशन (IEC) तकनीकी समिति 83 (TC83) और मानकीकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (ISO) तकनीकी समिति 97 के साथ काम करने वाले संपर्क अधिकारी के रूप में है। उप समिति 6 (TC97SC6)। आईएसओ 8802-3 मानक 1989 में प्रकाशित हुआ था।
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20231101.hi_179960_13
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
उपरोक्त सभी पद्धति में हरेक चरण, आवृति या आयाम एक अद्भुत दोहरे बीट्स के पैटर्न द्वारा तय होते हैं। आमतौर पर, हरेक चरण फ्रीक्वेंसी या आयाम की सामान संख्या के बीट्स का कूटलेखन करती है। इस बिट्स की संख्या में शामिल प्रतीक का प्रतिनिधित्व विशेष चरण द्वारा होता है।
0.5
1,274.713734
20231101.hi_179960_14
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
यदि वर्णमाला में वैकल्पिक प्रतीक के रूप में शामिल है तो हरेक प्रतीक N बिट्स के संदेश का प्रतिनिधित्व करता है। यदि प्रतीक दर (जिसे बॉड दर के रूप में भी जाना जाता है) प्रतीक प्रति सेकेण्ड (या बॉड) है, डाटा दर बीट्स प्रति सेकेण्ड है।
0.5
1,274.713734
20231101.hi_179960_15
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
उदाहरण के लिए, एक वर्णमाला जिसमे 16 वैकल्पिक प्रतीक हैं, हरेक प्रतीक 4 बिट्स का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए डाटा दर बॉड दर से चार गुना होगा.
0.5
1,274.713734
20231101.hi_179960_16
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
PSK, ASK या QAM, जहां अधिमिश्रित संकेत की कैरिअर फ्रीक्वेंसी स्थिर है वहां अधिमिश्रण वर्णमाला अक्सर आसानी से राशि रेखाचित्र का प्रतिनिधित्व करता है, हरेक संकेत के लिए आयाम के I संकेत को x-axis और Q संकेत को y-axis द्वारा दर्शाता है।
0.5
1,274.713734
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
QAM के सिद्धांत का उपयोग कर PSK और ASK, लेकिन कभी-कभी FSK भी अक्सर पैदा किया और पता लगाया जाता है। I और Q संकेत को जटिल-मान संकेत I +jQ (जहां j एक काल्पनिक इकाई है) में जोड़ा जा सकता है। नतीजतन समतुल्य लो-पास संकेत या समतुल्य बेस्बैंड संकेत के नाम से जाना जाने वाला वास्तविक मान अधिमिश्रित संकेत फिजिकल संकेत (जो कि पासबैंड संकेत या RF संकेत कहलाता है) जटिल मान का प्रतिनिधित्व करता है।
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1,274.713734
20231101.hi_179960_18
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
कूटशब्द (कोडवर्ड) में आगत डाटा बीट्स को ग्रुप बनाना, हरेक प्रतीक के लिए एक ग्रुप जिसे संचारित किया जाएगा.
0.5
1,274.713734
20231101.hi_179960_19
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
कोडवर्ड या कूटशब्द का खाका मसलन; आयाम के I और Q संकेत, (जो कि लो-पास के समकक्ष) या आवृति या चरण मान पर आरोपित किया जाता है।
0.5
1,274.713734
20231101.hi_179960_20
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
प्लस शेपिंग या बैंडविड्थ की सीमा को निर्धारित करने के लिए छानने और समकक्ष लो-पास संकेत के वर्णक्रम को अनुकूलन बनाने के लिए आम तौर पर अंकीय संकेत प्रक्रिया का प्रयोग होता है।
0.5
1,274.713734
20231101.hi_179960_21
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8
मॉडुलन
I और Q संकेत को अंकीय से अनुरूप (DAC) में रूपांतरित करके पूरा किया जाता है। (वैसे आजकल ये सभी आमतौर पर अंकीय संकेत प्रक्रिया, (डिजिटल सिग्नल प्रोसेसिंग-DSP) का उपयोग कर प्राप्त किये जा रहे हैं).
0.5
1,274.713734
20231101.hi_25234_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
बलि (sacrifice) के दो रूप हैं। वैदिक पंचमहायज्ञ के अंतर्गत जो भूतयज्ञ हैं, वे धर्मशास्त्र में बलि या बलिहरण या भूतबलि शब्द से अभिहित होते हैं। दूसरा पशु आदि का बलिदान है। विश्वदेव कर्म करने के समय जो अन्नभाग अलग रख लिया जाता है, वह प्रथमोक्त बलि है। यह अन्न भाग देवयज्ञ के लक्ष्यभूत देव के प्रति एवं जल , वृक्ष , गृहपशु तथा इंद्र आदि देवताओं के प्रति उत्सृष्ट (समर्पित) होता है। गृह्यसूत्रों में इस कर्म का सविस्तार प्रतिपादन है। बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है। इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है।
0.5
1,272.130462
20231101.hi_25234_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
स्मार्त पूजा में पूजोपकरण (जिससे देवता की पूजा की जाती है) भी बलि कहलाता है (बलि पूजोपहार: स्यात्‌)। यह बलि भी देव के पति उत्सृष्ट होती है।
0.5
1,272.130462
20231101.hi_25234_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
देवता के उद्देश्य में छाग आदि पशुओं का जो हनन किया जाता है वह बलिदान कहलाता है (बलिउएतादृश उत्सर्ग योग्य पशु)। तंत्र आदि में महिष , छाग , गोधिका , शूकर , कृष्णसार, शरभ, हरि (वानर) आदि अनेक पशुओं को बलि के रूप में माना गया है। इक्षु, कूष्मांड आदि नानाविध उद्भिद् और फल भी बलिदान माने गए हैं।
0.5
1,272.130462
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
बलि के विषय में अनेक विधिनिषेध हैं। बलि को बलिदानकाल में पूर्वाभिमुख रखना चाहिए और खंडधारी बलिदानकारी उत्तराभिमुख रहेगा - यह प्रसिद्ध नियम है। बलि योग्य पशु के भी अनेक स्वरूप लक्षण कहे गए हैं।
0.5
1,272.130462
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
पंचमहायज्ञ के अंतर्गत बलि के कई अवांतर भेद कहे गए हैं - आवश्यक बलि, काम्यबलि आदि इस प्रसंग में ज्ञातव्य हैं। कई आचार्यों ने छागादि पशुओं के हनन को तामसपक्षीय कर्म
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1,272.130462
20231101.hi_25234_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
माना है, यद्यपि तंत्र में ऐसे वचन भी हैं जिनसे पशु बलिदान को सात्विक भी माना गया है। कुछ ऐसी पूजाएँ हैं जिनमें पशु बलिदान अवश्य अनुष्ठेय होता है।
0.5
1,272.130462
20231101.hi_25234_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
वीरतंत्र, भावचूड़ामणि, यामल, तंत्रचूड़ामणि, प्राणतोषणी, महानिर्वाणतंत्र, मातृकाभेदतंत्र, वैष्णवीतंत्र, कृत्यमहार्णव, वृहन्नीलतंत्र, आदि ग्रंथों में बलिदान (विशेषकर पशुबलिदान) संबंधी चर्चा है।
0.5
1,272.130462
20231101.hi_25234_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ सर्वथा मार देना ऐसा नहीं होता। उसका अर्थ दान के रूप में भी उल्लिखित किया गया है। कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम् में ये बलि शब्द को दान के रूप में प्रयुक्त किया है।
0.5
1,272.130462
20231101.hi_25234_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BF
बलि
अर्थात् प्रजा के क्षेम के लिये ही वह राजा दिलीप उन से कर लेता था, जैसे कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है।
0.5
1,272.130462
20231101.hi_7091_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
यहाँ जाने के लिए लोग किऊल रेलवे जंक्शन से उतरकर जीप से सहूर गाँव के रास्ते या फिर पवई ब्रह्मस्थान हाल्ट रेलवे स्टेशन से दैता बांध होते हुए ज्वलप्पा स्थान होकर जा सकते है ।
0.5
1,265.092943
20231101.hi_7091_11
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
यह एक दर्शनीय स्थान है,लखीसराय जिले के पवई गांव में स्थित ब्रह्मस्थान बहुत ही प्रसिद्ध जगह है। मंदिर के आसपास और भी कई मंदिर है चैती दुर्गामाता का मंदिर,हनुमान मंदिर ,शिव-पार्वती मंदिर। मंदिर के बगल में एक बहुत ही बड़ा और स्वच्छ तालाब है। यहां की मामा ब्रह्मदेवता की पूजा पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध है। यहां रेलवे द्वारा पवई ब्रह्मस्थान हाल्ट से एवं सड़क मार्ग से NH-80 द्वारा पहुंचा जा सकता है।
0.5
1,265.092943
20231101.hi_7091_12
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
यह एक दर्शनीय स्थान है, यहाँ बहुत सारे मंदिर और तालाब है। दुःखभंजन स्थान, काली स्थान, ठाकुरबाड़ी, क्षेमतरणी, सूर्यमंदिर और साधबाबा इस पूर क्षेत्र में पूजनीय है। यहां छठ के अवसर पर श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है।
0.5
1,265.092943
20231101.hi_7091_13
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
अभयनाथ स्थान, अभयपुर गाँव के दक्षिण में पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यह पवित्र स्थान आसपास के इलाके में काफी प्रसिद्ध है। आप इस मंदिर को मसुदन स्टेशन से देख सकते हैं। अभयपुर ग्राम निवासियों का मानना है कि "बाबा अभयनाथ" के नाम पर ही गाँव का नाम "अभयपुर" पड़ा। यहाँ हर सप्ताह के मंगलवार को काफी श्रद्धालु पूजा-पाठ करने आते हैं। यहाँ हर साल आषाढ़ के पूर्णिमा को भव्य पूजा-अर्चना होती है। यहाँ जाने के लिए आपको मसुदन स्टेशन से पैदल लगभग एक किलोमीटर पहाड़ का रास्ता करना पड़ेगा।
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1,265.092943
20231101.hi_7091_14
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
लक्खीसराय जिले के सूरजगढ़ा सलेमपुर स्थित गाँव मे हनुमान जी का भव्य मंदिर है। यहां पर श्रद्धालुओं की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस मंदिर की खास बात है की यहां बजरंगवली का सिर उल्टा जमीन में है। यहां के बुद्धीजीवि लोग कहते है उनीसवीं सदी में सलेमपुर गाँव मे बहुत प्राकृतिक घटनाये होती थी इसलिए मंदिर के पुजारी ने एक यज्ञअनुष्ठान कराया औ। पुजारी जी ने गाँव के लोगों को कहा यज्ञ अनुष्ठान के दिन और रात कोई भी व्यक्ति गाँव के बाहर नहीं जा सकता पर दुर्गभाग्य बस सुबह सुबह एक महिला गाँव के बाहर चलि गई। तब से ही वहां कोई घटना होती भी है तो एक घर या एक खेत में सीमत कर रह जाता हैं। इस मंदिर में सप्ताह के शनिवार और मंगलवार के दिन बहुत भीड़ उमड़ी रहती है और प्रसाद वितरण होती है।
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1,265.092943
20231101.hi_7091_15
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
हालांकि यह शहर हवाई मार्ग से सीधे तौर पर नहीं जुड़ा हुआ है लेकिन राजधानी पटना से हवाई मार्ग की सुविधा है। जहां से रेल या सड़क मार्ग से लखीसराय पहुंचा जा सकता है। पटना लखीसराय से 132 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
0.5
1,265.092943
20231101.hi_7091_16
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
लखीसराय स्टेशन दिल्ली-हावड़ा मुख्य लाईन पर है। इसलिए यह शहर दिल्ली से सीधे जुड़ा हुआ है। किउल जंक्शन पास में होने के कारण यह स्थान बिहार के अन्य क्षेत्रों से भी प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है।
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1,265.092943
20231101.hi_7091_17
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
यह जिला राष्ट्रीय राजमार्ग 80 पर स्थित है जो राजधानी पटना से जुड़ा हुआ है। यहां आने के लिए निजी या सार्वजनिक वाहनों का उपयोग किया जा सकता है।
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20231101.hi_7091_18
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A4%96%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
लखीसराय
लखीसराय जिले में स्थित सुर्यगढ़ा प्रखंड के जगदीशपुर गांव में स्थित "शिव दुर्गा महावीर मंदिर सुर्यगढ़ा" प्रसिद्ध है। यहां भव्य दुर्गा पुजा का आयोजन होता है जहां पर दुर-दुर से लोग देखने आते हैं। लखीसराय का अशोक धाम मंदिर जहां भगवान भोलेनाथ का अति प्राचीन शिवलिंगी है यहां विशेषकर सावन मास में श्रद्धालुओं की लाखों लाख की भीड़ लखीसराय का अशोक धाम मंदिर जहां भगवान भोलेनाथ का अति प्राचीन शिवलिंगी है यहां विशेषकर सावन मास में श्रद्धालुओं की लाखों लाख की भीड़ रहती है। लखीसराय के लाल पहाड़ी पर बौद्ध धर्म के कई अति प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं जिसे बौद्ध सर्किट से जोड़ा जा रहा है।
0.5
1,265.092943
20231101.hi_190913_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
कार्य-कारण-सम्बन्ध अन्यव्यतिरेक पर आधारित है। कारण के होने पर कार्य होता है, कारण के न होने पर कार्य नहीं होता। प्रकृति में प्राय: कार्य-कारण-संबंध स्पष्ट नहीं रहता। एक कार्य के अनेक कारण दिखाई देते हैं। हमें उन अनेक दिखाई देनेवाले कारणों में से वास्तविक कारण ढूँढ़ना पड़ता है। इसके लिए सावधानी के साथ एक-एक दिखाई देनेवाले कारणों को हटाकर देखना होगा कि कार्य उत्पन्न होता है या नहीं। यदि कार्य उत्पन्न होता है तो जिसको हटाया गया है वह कारण नहीं है। जो अंत में शेष बच रहता है वहीं वास्तविक कारण माना जाता है। यह माना गया है कि यह कार्य का एक ही कारण होता है अन्यथा अनुमान की प्रामाणिकता नष्ट हो जाएगी। यदि धूम के अनेक कारण हों तो धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान करना गलत होगा। जहाँ अनेक कारण दिखाई देते हैं वहाँ कार्य का विश्लेषण करने पर मालूम होगा कि कार्य के अनेक अवयव कारण के अनेक अवयवों से उत्पन्न हैं। इस प्रकार वहाँ भी कार्यविशेष का कारणविशेष से संबंध स्थापित किया जा सकता है। कारणविशेष के समूह से कार्यविशेष के समूह का उत्पन्न मानना भूल है। वास्तव में समूह रूप में अनेक कारणविशेष समूहरूप में कार्य को उत्पन्न नहीं करते। वे अलग-अलग ही कार्यविशेष के कारण हैं।
0.5
1,261.309948
20231101.hi_190913_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
कार्य के पूर्व में नियत रूप से रहना दो तरह का हो सकता है। कारण कार्य के उत्पादन के पहले तो रहता है परंतु कार्य के उस कारण से पृथक् उत्पन्न होता है। कारण केवल नवीन कार्य के उत्पादन में सहकारी रहता है। मिट्टी से घड़ा बनता है अतः मिट्टी घड़े का कारण है और वह कुम्हार भी जो मिट्टी को घड़े का रूप देता है। कुम्हार के व्यापार के पूर्व मिट्टी मिट्टी है और घड़े को कोई अस्तित्व नहीं है। कुम्हार के सहयोग से घड़े की उत्पत्ति होती है अत: घड़ा नवीन कार्य है जो पहले कभी नहीं था। इस सिद्धांत को आरंभवाद कहते हैं। कारण नवीन कार्य का आरंभक होता है, कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत नहीं होता। यद्यपि कार्य के उत्पादन में मिट्टी, कुम्हार, चाक आदि वस्तुएँ सहायक होती हैं परंतु ये सब अलग-अलग कार्य (घड़ा) नहीं हैं और न तो ये सब सम्मिलित रूप में घड़ा इन सबके सहयोग से उत्पन्न परंतु इन सबसे विलक्षण अपूर्व उपलब्धि है। अवयवों से अवयवी पृथक् सत्ता है; इसी सिद्धांत के आधार पर आरंभवाद का प्रवर्तन होता है। भारतीय दर्शन में न्यायवैशेषिक इस सिद्धांत के समर्थक हैं।
0.5
1,261.309948
20231101.hi_190913_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
कार्य का कारण के साथ सम्बन्ध दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। मिट्टी से घड़ा बनता है अतः घड़ा अव्यक्त रूप में (मिट्टी के रूप में) विद्यमान है। यदि मिट्टी न हो तो चूँकि घड़े की अव्यक्त स्थिति नहीं है अत: घड़ा उत्पन्न नहीं होता। वस्तुविशेष की कार्यविशेष के कारण हो सकते हैं। यदि कार्य कारण से भिन्न नवीन सत्ता हो तो कोई वस्तु किसी कारण से उत्पन्न हो सकती है। तिल की जगह बालू से तेल नहीं निकलता क्योंकि प्रकृति में एक सत्ता का नियम काम कर रहा है। सत्ता से ही सत्ता की उत्पत्ति होती है। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती—यह प्रकृति के नियम से विपरीत होगा। सांख्ययोग का यह सिद्धांत परिणामवाद कहलाता है। इसके अनुसार कारण कार्य के रूप में परिणत होता है, अत: तत्वत: कारण कार्य से पृथक् नहीं है।
0.5
1,261.309948
20231101.hi_190913_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
इन दोनों मतों से भिन्न एक मत और है जो न तो कारण को आरंभक मानता है और न परिणामी। कारण व्यापाररहित सत्ता है। उसमें कार्य की उत्पत्ति के लिए कोई व्यापार नहीं होता। कारण कूटस्थ तत्व है। परन्तु कूटस्थता के होते हुए भी कार्य उत्पन्न होता है। कारण कूटस्थ तत्व है। परंतु कूटस्थता के होते हुए भी कार्य उत्पन्न होता है क्योंकि द्रष्टा को अज्ञान आदि बाह्य उपाधियों के कारण कूटस्थ कारण अपने शुद्ध रूप में नहीं दिखाई देता। जैसे भ्रम की दशा में रस्सी की जगह सर्प का ज्ञान होता है, वैसे ही कारण की जगह कार्य दिखाई पड़ता है। अत: कारणकार्य का भेद तात्विक भेद नहीं है। यह भेद औपचारिक है। इस मत को, जो अद्वैत वेदान्त में स्वीकृत है, विवर्तवाद कहते हैं। आरम्भवाद में कार्य कारण पृथक् हैं, परिणामवाद में उनमें तात्विक भेद न होते हुए भी अव्यक्त-व्यक्त-अवस्था का भेद माना जाता है, परन्तु विवर्तवाद में न तो उनमें तात्विक भेद है और न अवस्था का। कार्य कारण का भेद भ्रांत भेद है और भ्रम से जायमान कार्य वस्तुतः असत् है। जब तक दृष्टि दूषित है तभी वह व्यावहारिक दशा में वे दोनों पृथक दिखाई देते हैं। दृष्टिदोष का विलय होते ही कार्य का विलय और कारण के शुद्ध रूप के ज्ञान का उदय होता है।
0.5
1,261.309948
20231101.hi_190913_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
(1) उपादान कारण वह कारण है जिसमें समवाय संबंध से रहकर कार्य उत्पन्न होता है। अर्थात् वह वस्तु जो कार्य के शरीर का निर्माण करती है, उपादान कहलती है। मिट्टी घड़े का या तागे कपड़े के उपादान कारण हैं। इसी को समवायि कारण भी कहते हैं।
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1,261.309948
20231101.hi_190913_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
(2) असमवायि कारण समवायि कारण में समवाय संबंध से रहकर कार्य की उत्पत्ति में सहायक होती है। तागे का रंग, तागे में, जो कपड़े का समवायि कारण है अत: तागे का रंग कपड़े का असमवायि कारण कहा जाता है। समवायि कारण द्रव्य होता है, परंतु असमवायि कारण गुण या क्रिया रूप होता है।
0.5
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20231101.hi_190913_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
(3) निमित्त कारण समवायि कारण में गति उत्पन्न करता है जिससे कार्य की उत्पत्ति होती है। कुम्हार घड़े का निमित्त है क्योंकि वही उपादान से घड़े का निर्माण करता है। समवायि और असमवायि से भिन्न अन्यथासिद्धशून्य सभी कारण निमित्त कारण कहे जते हैं।
0.5
1,261.309948
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%A4%E0%A4%BE
कारणता
अरस्तू के अनुसार कारण की चौथी विधा भी होती है जिसे प्रयोजक (फ़ाइनल) कारण कहता है। जिस उद्देश्य से कार्य का निर्माण होता है वह उद्देश्य भी कार्य का कारण होता है। पानी रखने के लिए घड़े का निर्माण होता है अत: वह उद्देश्य घड़े का प्रयोजक कारण है। इस चौथी विधा का निमित्त में ही समावेश हो सकता है।
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20231101.hi_190913_10
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कारणता
कारण के बारे में आरम्भवाद का सिद्धांत निमित्त कारण को महत्व देता है। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य का निर्माण होता है, यदि वह उद्देश्यस्थित वस्तुओं से पूर्ण हो जाए तो कार्य की आवश्यकता ही न रहेगी। अत: निमित्त से पृथक कार्य की स्थिति है और उसकी पूर्ति के लिए निमित्त उपादान में गति देता है। जीवों को उनके कर्मफल का भोग कराने के उद्देश्य से ईश्वर संसार का निर्माण करता है। परिणामवाद का जोर उपादान कारण पर है। गति वस्तु को दी नहीं जाती, गति तो वस्तु के स्वभाव काअंग है। अत: मुख्य कारण गति (निमित्त) नहीं अपितु गति का आधार (उपादान प्रकृति) है। अपने आप उपादान कार्य रूप में परिणत होता है, केवल अव्यक्तता के आवरण को दूर करने के लिए तथा सुप्त गति को उद्बुद्ध करने के लिए किसी निमित्त की आवश्यकता होती है।
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टोडाभीम
प्रेतराज सरकार और कोतवाल कप्तान के मंदिर: बालाजी महाराज के अलावा इस मंदिर में श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल कप्तान ( भैरव) की भी मूर्तियां हैं। प्रेतराज सरकार को दंडाधिकारी का पद दिया गया हैं और भैरव जी को कोतवाल का पद दिया गया है। इस मंदिर में आने के पश्चात लोगो को मालूम चलता है कि भूत और प्रेत किस तरह से मनुष्य को परेशान करते हैं। दुखी व्यक्ति मंदिर में आकर तीनों देवगणों को प्रसाद चढ़ाते है। बालाजी को लड्डू का प्रसाद, प्रेतराज सरकार को चावल का और कोतवाल कप्तान (भैरव) को उड़द का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इन सभी प्रसादों में से दो लड्डू रोगी को खिलाए जाते हैं। शेष प्रसाद पशु पक्षियों को डाल दिया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पशु पक्षियों के रूप में देवताओं के दूत ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। कुछ लोग बालाजी का नाम सुनते ही चौंक पड़ते हैं। उनका मानना है कि भूतप्रेतादि बाधाओं से ग्रस्त व्यक्तिओ को ही वहां जाना चाहिए। परन्तु ये मान्यता सही नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो बालाजी के प्रति भक्तिभाव रखता है , इन तीनों देवों की आराधना कर सकता है। बालाजी के कई भक्त देश-विदेश से बालाजी के दरबार में मात्र प्रसाद चढ़ाने नियमित रूप से आते हैं।
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टोडाभीम
श्री प्रेतराज सरकार बालाजी: मंदिर में स्थित प्रेतराज सरकार को दण्डाधिकारी पद दिया गया हैं। प्रेतराज सरकार पर भी चोला चढ़ाया जाता है। प्रेतराज सरकार को दुष्ट आत्माओं को दण्ड देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। भक्त बड़ी ही श्रद्धा से उनकी आरती , चालीसा , कीर्तन , भजन आदि करते हैं। प्रेतराज सरकार की आराधना बालाजी के सहायक देवता के रूप में की जाती है। प्रेतराज सरकार को पके चावल का भोग भी लगाया जाता है। प्रायः भक्तजन तीनों देवताओं को बूंदी के लडडूओ का ही भोग लगाते हैं।
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टोडाभीम
कोतवाल कप्तान श्री भैरव देव: कोतवाल कप्तान श्री भैरव देव भगवान शिव के अवतार हैं और भगवन शिव की ही तरह भक्तों की थोड़ी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। भैरव महाराज चतुर्भुजी हैं। उनके हाथों में त्रिशूल , डमरू , खप्पर तथा प्रजापति ब्रह्मा का पांचवां कटा शीश रहता है। वे कमर में लाल वस्त्र धारण करते हैं। वे भस्म लपेटते हैं। उनकी मूर्तियों पर चमेली के सुगंध युक्त तिल के तेल में सिन्दूर घोलकर चोला चढ़ाया जाता है।
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टोडाभीम
विशेषताएं: मेहंदीपुर में बना बालाजी का ये मंदिर भारत के उत्तरी क्षेत्र में बहुत प्रशिद्ध है। इस मंदिर के पहले महंत श्री गणेशपुरीजी महाराज थे और वर्तमान के महंत श्री किशोरपुरीजी है जो पूर्णतः शाकाहारी है और पवित्र ग्रंथो को पढ़ने में रूचि रखते है। बालाजी मंदिर के सामने बना श्री सियाराम मंदिर बेहद खूबसूरत है और मंदिर में स्थापित सियाराम जी की मुर्तिया देखने योग्य है। जो व्यक्ति बुरी आत्माओं से पीड़ित होता है उसे निम्न तरीकों द्वारा उस संकट से मुक्ति दिलाई जाती है जैसे अर्जी, सवामणी, दरखास्त, बालाजी महाराज के भोग के बूंदी के लडडू, भैरव बाबा (कोतवाल कप्तान) के चावल और उड़द दाल। शनिवार और मंगलवार मंदिर का सबसे व्यस्त दिन होता है क्योकि ये दोनों ही दिन हनुमान जी के है। बालाजी मंदिर के निकट कई मंदिर है जिनमे अंजनी माता का मंदिर, तीन पहाड़ पर स्थित काली माता का मंदिर, पंचमुखी हनुमान जी, सात पहाड़ पर स्थित गणेश जी का मंदिर, समाधी वाले बाबा (मंदिर के पहले महंत) शामिल है। मंदिर से आये प्रसाद को पास के विद्यालयों, कॉलेजों और होटलों व् अन्य सार्वजानिक स्थानों में निःशुल्क वितरित किया जाता है।
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टोडाभीम
रिसर्च: बालाजी का ये मंदिर कई वर्षो से बुरी आत्माओं और काले जादू व् मंत्रो से छुटकारा दिलाने के लिए देश भर में प्रख्यात है। 2013 के दौरान, वैज्ञानिकों, विद्वानों और जर्मनी, नीदरलैंड, AIIMS नई दिल्ली और दिल्ली विश्विद्यालय के मनोचिकित्सकों की अंतर्राष्ट्रीय टीम ने मंदिर में होने वाले उपचार और अनुष्ठानों के सभी पहलुओं का अध्ययन किया था।
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टोडाभीम
स्थान: यह मंदिर भारत के राजस्थान के करौली जिले के टोडाभीम में स्थित है। ये गांव करौली और दौसा जिले के बॉर्डर पर पड़ता है। इस मंदिर को भी दोनों बॉर्डर के साथ आधा आधा बांटा गया है। इस मंदिर के सामने स्थित राम मंदिर को भी इसी तरह विभाजित किया गया है। ये मंदिर जयपुर से 105 km, हिंडौन शहर से 50 km, और दौसा से 45 km की दुरी पर स्थित है। ये मंदिर बांदीकुई रेलवे स्टेशन के नजदीक है। जयपुर आगरा राष्ट्रिय राजमार्ग – 11 के बालाजी मोड़ से ये मंदिर मात्र 3km की दुरी पर है
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टोडाभीम
करीरी टोडाभीम तहसील मुख्यालय में एक फेमस गाव है जों करोली जिले के अन्तर्गत आता है करीरी गाव में एक बहुत ही चमत्कारिक एवं प्रसिद्ध भैरव बाबा का मंदिर है जिसके उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष भद्र पद शुल्क सप्तमी को एक बहुत बड़े भैरव बाबा के मेले का आयोजन होता है इस मेले में राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश आदि राज्यों से भक्त अपनी मनोकामनाए पूरी होने की उम्मीद लेकर आते है इस मेले में सभी समाज के लोग बढचढ कर हिस्सा लेते है इस मेले का सबसे बड़ा भाग इसका कुश्ती दंगल है जिसमे पुरे देश से नामी पहलवान शिकरत/हिस्सा लेने आते है।
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टोडाभीम
पद्मपुरा किला रणनीतिक रूप से राज्य की सीमाओं की रक्षा के लिए स्थित था। युद्ध की कला और कला के लिए प्यार सचमुच पदमपुरा किले में राजपूत वास्तुकला में देखा जा सकता है। यह किला प्रमुख रूप से दो भागों में मर्दाना और जनना मंडल में विभाजित है उत्तरार्द्ध किले का निर्माण प्रावधान ऐसा था कि सेना स्वयं को महीनों तक बनाए रख सकती थी। किले में सात मंदिर और तीन जल जलाशय हैं, जिसमें कुछ गुप्त मार्ग शामिल हैं जिनका इस्तेमाल आपातकाल के दौरान किया गया था। हजारी बुर्ज, पीर बुर्ज और माताजी बुर्ज की प्रमुखता किलोमीटर से पहचाने जा सकते हैं। इस किले का स्वामित्व वर्तमान टिकाई परिवार के साथ है।
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टोडाभीम
श्री घासीराम बाबा का मेला रामनवमी के शुभ अवसर लगाया जाता है और यहाँ कदम के पेड़ अधिक मात्रा में पाए जाते है जिसके लिए इसे कदमखुंडी के नाम से भी जाना जाता है। श्री घासीराम बाबा का स्थान 5 गाँवों खिरखिडी, मन्डेरू, जोधपुर, मातासूला एंव पाडली के बीच कदम्बखुण्डी ( टोडाभीम ) पर तीन दिवसीय विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें पहले दिन श्री घासीराम बाबा के मन्दिर पर कदम्ब के उपर ध्वजा लहरायी जाती है एंव उस समय ढोल नगाडे बजाये जाते है और पर्त्येक व्यक्ति खुश दिखाई देता है और एक महत्वपूणॆ बात यह है की यहाँ ठाकुर जी का मन्दिर एक बाबा की टोपी है। जिसमे स्वत ही बाल उगते है और इसी दिन वो बाल काटे जाते है एंव दूसरे दिन यहाँ पर विशाल कुश्ती दंगल आयोजित किया जाता है। जिसमें सभी क्षेत्र के पहलवानो के साथ साथ महुवा, कठूमर, पथैना, भरतपुर, नोठा हरियाणा, पंजाब, खेडली, धौलपुर एंव दूर दूर के पहलवान आपस में जोर आजमाते है एंव आखिरी पहलवान को पाँचो गाँवो के पंच पटेलो द्वारा हजारो रूपयो की राशी दी जाती है। दंगल को देखने के लिए दूर दूर से लोग आते है। तीसरे दिन घासीराम बाबा के मन्दिर की परिकृमा लगाईं जाती है।
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पॉडकास्ट
पॉडकास्ट से तात्पर्य एक मीडिया संचिका से है जो कि इंटरनेट पर फीड के द्वारा प्रसारित की जाती है जिसे कि कंप्यूटर तथा पोर्टेबल मीडिया प्लेयरों जैसे आईपॉड तथा स्मार्टफोन आदि द्वारा चलाया जा सकता है। इस प्रक्रिया को पॉडकास्टिंग कहा जाता है। पॉडकास्ट बनाने तथा प्रसारित करने वाले को पॉडकास्टर कहा जाता है।
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पॉडकास्ट
ब्लॉग के संदर्भ में इसका सामान्य सा अर्थ है कि अपने ब्लॉग पर किसी पोस्ट में कोई मीडिया संचिका (ऑडियो/वीडियो) आदि डालना जिसे पाठक ब्लॉग पर आकर अथवा आरएसएस फीड द्वारा देख/सुन सकें। सामान्य तौर पर ब्लॉग के मामले में चिट्ठाकार ही पॉडकास्टर होगा।
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पॉडकास्ट
"पॉडकास्ट" दो शब्दों से मिलकर बना है: प्लेयेबल आन डिमांड (POD) तथा ब्रॉडकास्ट से। बाद में इसे इंटरनेट पर अन्य साधनों जैसे वेबसाइटों, ब्लॉगों आदि पर भी प्रयोग किया जाने लगा। पॉडकास्टिंग का इतिहास विकिपीडिया पर यहाँ पढ़ा जा सकता है।
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पॉडकास्ट
यद्यपि कई पॉडकास्टरों की वेबसाइटें मीडिया संचिका की डायरेक्ट डाउनलोडिंग या स्ट्रीमिंग भी प्रदान करती हैं लेकिन पॉडकास्ट की विशेषता है कि यह ऐसे डिजिटल ऑडियो फॉर्मेटों का उपयोग करता है जो कि आरएसएस या एटम फीड का उपयोग कर विभिन्न सॉफ्टवेयरों द्वारा स्वतः डाउनलोड कर लिया जाता है।
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पॉडकास्ट
पॉडकास्टिंग कई तरीके से की जाती है। कुछ वेबसाइटें पूरी तरह से पॉडकास्टिंग हेतु समर्पित होती हैं उदाहरण के लिए इंडीकास्ट तथा पॉडभारती आदि। कुछ साइटों पर पॉडकास्टिंग के लिए सेक्शन निर्धारित होते हैं जैसे तरकश पर पॉडकास्ट सेक्शन। जहाँ तक चिट्ठों का सवाल है हिन्दी में पॉडकास्ट का अधिक चलन न होने से ऐसा कोई चिट्ठा नहीं है जो पूरी तरह पॉडकास्ट हो। विभिन्न चिट्ठों पर यदाकदा चिट्ठाकार पॉडकास्ट डाल देते हैं।
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पॉडकास्ट
यद्यपि इस काम के लिए कई टूल उपलब्ध हैं लेकिन Audacity मुफ्त और सर्वश्रेष्ठ टूल है। Audacity के प्रयोग द्वारा पॉडकास्ट रिकॉर्ड करने की पूरी प्रक्रिया सचित्र यहाँ पर दी गई है।
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पॉडकास्ट
यदि आपके पास अपना वैबस्पेस है तो आप वहाँ भी मीडिया संचिका को अपलोड कर सकते हैं अन्यथा इंटरनैट पर मुफ्त उपलब्ध सेवाओं का प्रयोग कर सकते हैं, ध्यान दें कि वह सेवा आपको मीडिया संचिका का डायरैक्ट लिंक देती हो। यद्यपि वैब पर इस तरह की कई मुफ्त सेवाएं हैं लेकिन Internet Archive उनमें सर्वश्रेष्ठ है। यदि आपके पास अपना वैबस्पेस है तब भी आपको अपना पॉडकास्ट किसी बाहरी सर्वर पर होस्ट करने की सलाह दी जाती है क्योंकि यह सर्वर पर काफी लोड डालता है। Internet Archive द्वारा पॉडकास्ट अपलोड करने की सचित्र विधि यहाँ पढ़ें।
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पॉडकास्ट
यदि आप ब्लॉगर का प्रयोग करते हैं तो पिकल प्लेयर का प्रयोग सरलतम रहेगा। वर्डप्रैस में भी पिकल प्लेयर का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन इसके लिए बेहतर Audio Player प्लगइन उपलब्ध है। विभिन्न ब्लॉगिंग सेवाओं पर ऑडियो प्लेयर संलग्न करने की सचित्र विधि यहाँ पढ़ें।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%89%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F
पॉडकास्ट
वैकल्पिक रूप से मीडिया संचिका का डाउनलोड लिंक भी दिया जा सकता है ताकि धीमे इंटरनैट कनैक्शन वाले प्रयोगकर्ता उसे डाउनलोड कर चला सकें।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A5
कोथ
रक्तवाहिनियो की व्यधियाँ : रक्तवाहिनियो मे अनेक रोग हो सकते ह जैसे बरजर क रोग, रेनाड का रोग, एवम सिराओ कि विकतिया आदि।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A5
कोथ
यह व्याधि अधिक्तर पुरुषो मे पायी जाती ह। धुम्रपान से, अधिक उम्र मे calcium के जमा होने से तथा ह्र्द्यान्त्रावरण शोफ् से उत्पन्न अन्तः शल्यता आदि कारणॉ से धमनियो मे शोफ तथा एन्ठन उत्पन्न हो जाती ह्। इससे धमनियो मे सन्कोच होकर धमनियो का विवर कम हो जाता ह। इस रोग से प्रभवित स्थान पर रक्त कि न्युनता होकर कोथ उत्पन्न होती ह्।
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कोथ
यह व्याधि प्रायः स्त्रियो मे होती है। शाखाओ कि धमनिया शीत के प्रति सूक्ष्म ग्राही होने पर धमनियो मे एन्ठन तथा सन्कोच उत्पन्न हो जाता ह। इससे रक्त प्रवाह मन्द पड जाता ह तथा रक्त्त वाहिका के अन्तिम पूर्ति प्रान्त मे रक्त न्युन्ता होकर कोथ उत्पन्न हो जाती है।
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कोथ
गम्भीर सिराओ मे घनस्र्ता उत्पन्न होने से जैसे अपस्फित सिरा मे तथा सिर मे सुचिभेद से सिरशोथ उत्पन्न होने से सिराओ मे रक्त परिभ्रमण के अव‍रुध या अत्ति नयून हो जाने पर उक्तियो मे कोथ उत्पन्न हो जाता है।
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कोथ
मधुमेह के रोगियो मे परिसरियतन्त्रिका शोफ तथा उक्तियो मे अधिक मात्रा मे आ जाने से एवम धमनियों मे केल्शियम के जमने से धातुओ मे रक्त न्युन्ता आ जाती ह, इससे सन्क्रमण उक्तियो मे शिघ्रता से कोथ उत्पन्न करता है।
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कोथ
कोथ के जीवाणू प्रोटीन का विघटन करते ह तथा अमोनिया और सल्फ्युरेटेड हाइड्रोजन (sulphurated hydrogen) उत्पन्न करते हैं। इनका व्रण पर सन्क्रमण होने से उनसे उत्पन्न हुई गैस पेशियो मे भर जाती है। इसक रक्त वाहिनियो पर दाब पडने से उन्मे रक्त अल्पता उत्पन्न होकर कोथ उत्पन्न हो जाती है।
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कोथ
१) कोथ से प्रभावित अंग के क्रियाशिल होने पर, उक्तियो मे oxygen कि न्युन्ता हो जाती ह, इससे पेशियो मे एन्ठन आती ह तथा तीव्र वेदना होने लगती ह्।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A5
कोथ
२) धमनियो मे स्पन्दन स्माप्त हो जाता ह तथ कोशिकाओ मे रक्त कि अनउपस्थिति हो जाने से त्वचा के रग मे कोइ प‍‍रिवर्तन नही आता।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A5
कोथ
मधुमेह के रोगी मे कोथ उत्पन्न होने पर उसे मधुमेह कि चिकित्सा देनी चाहिये। प्रभावित अग को पूर्ण विश्राम दे तथा सन्क्रमण के अनुसार प्रति जिवाणू औषधि क प्रयोग करना चाहिये।
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शिल्पशास्त्र
शिल्पशास्त्र वे प्राचीन हिन्दू ग्रन्थ हैं जिनमें विविध प्रकार की कलाओं तथा हस्तशिल्पों की डिजाइन और सिद्धान्त का विवेचन किया गया है।
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शिल्पशास्त्र
इस प्रकार की चौसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है जिन्हे 'बाह्य-कला' कहते हैं। इनमें काष्ठकारी, स्थापत्य कला, आभूषण कला, नाट्यकला, संगीत, वैद्यक, नृत्य, काव्यशास्त्र आदि हैं। इनके अलावा चौसठ अभ्यन्तर कलाओं का भी उल्लेख मिलता है जो मुख्यतः 'काम' से सम्बन्धित हैं, जैसे चुम्बन, आलिंगन आदि।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
शिल्पशास्त्र
यद्यपि सभी विषय आपस में सम्बन्धित हैं किन्तु शिल्पशास्त्र में मुख्यतः मूर्तिकला और वास्तुशास्त्र में भवन, दुर्ग, मन्दिर, आवास आदि के निर्माण का वर्णन है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
शिल्पशास्त्र
कर्णागम (इसमें वास्तु पर लगभग ४० अध्याय हैं। इसमें तालमान का बहुत ही वैज्ञानिक एवं पारिभाषिक विवेचन है।)
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शिल्पशास्त्र
मानसार शिल्पशास्त्र (कुल ७० अध्याय; ५१०० से अधिक श्लोक; कास्टिंग, मोल्डिंग, कार्विंग, पॉलिशिंग, तथा कला एवं हस्तशिल्प निर्माण के अनेकों अध्याय)
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शिल्पशास्त्र
शिल्परत्नम् (इसके पूर्वभाग में 46 अध्याय कला तथा भवन/नगर-निर्माण पर हैं। उत्तरभाग में ३५ अध्याय मूर्तिकला आदि पर हैं।)
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शिल्पशास्त्र
भविष्यपुराण (मुख्यतः वास्तुशिल्प, कुछ अध्याय कला पर भी)अलंकारशास्त्रअर्थशास्त्र (खिडकी एवं दरवाजा आदि सामान्य शिल्प, इसके अलावा सार्वजनिक उपयोग की सुविधाएँ)चित्रकल्प (आभूषण)चित्रकर्मशास्त्रमयशिल्पशास्त्र(तमिल में)विश्वकर्मा शिल्प (स्तम्भों पर कलाकारी, काष्ठकला)अगत्स्य (काष्ठ आधारित कलाएँ एवं शिल्प)मण्डन शिल्पशास्त्र (दीपक आदि)रत्नशास्त्र (मोती, आभूषण आदि)रत्नपरीक्षा (आभूषण)रत्नसंग्रह (आभूषण)लघुरत्नपरीक्षा (आभूषण आदि)मणिमहात्म्य (lapidary)अगस्तिमत (lapidary crafts)अनंगरंग (काम कलाएँ)कामसूत्ररतिरहस्य (कामकलाएँ)कन्दर्पचूणामणि (कामकलाएँ)नाट्यशास्त्र (फैशन तथा नाट्यकलाएँ)नृतरत्नावली (फैशन तथा नाट्यकलाएँ)संगीतरत्नाकर ((फैशन, नृत्य तथा नाट्यकलाएँ)नलपाक (भोजन, पात्र कलाएँ)पाकदर्पण (भोजन, पात्र कलाएँ)पाकविज्ञान (भोजन, पात्र कलाएँ)पाकार्णव (भोजन, पात्र कलाएँ)कुट्टनीमतम् (वस्त्र कलाएँ)कादम्बरी (वस्त्र कला तथा शिल्प पर अध्याय हैं)समयमात्रिका (वस्त्रकलाएँ)यन्त्रकोश (संगीत के यंत्र Overview in Bengali Language)चिलपटिकारम् (शिल्पाधिकारम्); दूसरी शताब्दी में रचित तमिल ग्रन्थ जिसमें संगीत यंत्रों पर अध्याय हैं)मानसोल्लास (संगीत यन्त्रों से सम्बन्धित कला एवं शिल्प, पाकशास्त्र, वस्त्र, सज्जा आदि)वास्तुविद्या (मूर्तिकला, चित्रकला, तथा शिल्प)उपवन विनोद (उद्यान, उपवन भवन निर्माण, घर में लगाये जाने वाले पादप आदि से सम्बन्धित शिल्प)वास्तुसूत्र (संस्कृत में शिल्पशास्त्र का सबसे प्राचीन ग्रन्थ; ६ अध्याय; छबि रचाना; इसमें बताया गया है कि छबि कलाएँ किस प्रकार हाव-भाव एवं आध्यात्मिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के साधन हैं।)अन्य भारतीय भाषाओं के शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थशिल्प प्रकाश - रामचन्द्र भट्टारक (ओड़िया में , इसमें विस्तृत चित्र तथा शब्दावली भी दी गयी है।)
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शिल्पशास्त्र
भूमिलक्षण, गृह्यादिलक्षण, मुहुर्त, गृहविचार, पदविन्यास, प्रासादलक्षण, द्वारलक्षण, जलाशयविचार, वृक्ष, गृहप्रवेश, दुर्ग, शाल्योद्धार, गृहवेध।मयमतम् के ३६ अध्यायों के नाम इस प्रकर हैं-
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
शिल्पशास्त्र
संग्रहाध्याय, वास्तुप्रकार, भूपरीक्षा, भूपरिग्रह, मनोपकरण, दिक्-परिच्छेद, पाद-देवता-विन्यास, बालिकर्मविधान, ग्रामविन्यास, नगरविधान, भू-लम्ब-विधान, गर्भन्यासविधान, उपपित-विधान, अधिष्ठान विधान, पाद-प्रमान-द्रव्य-संग्रह, प्रस्तर प्रकरण, संधिकर्मविधान, शिखर-करण-विधान समाप्ति-विधान, एक-भूमि-विधान, द्वि-भूमि-विधान, त्रि-भूमि-विधान, बहु-भूमि-विधान, प्रकर-परिवार, गोपुर-विधान, मण्डप-विधान, शाला-विधान, गृहप्रवेश, राज-वेस्म-विधान, द्वार-विधान, यानाधिकार, यान-शयनाधिकार, लिंगलक्षण, पीठलक्षण, अनुकर्म-विधान, प्रतिमालक्षण।नारद शिल्पशास्त्र''' के अध्यायों के नाम-
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A5%80
मोरबी
वर्तमान मोरबी का नगर विन्‍यास वाघ जी का देन है। उन्‍होंने 1879 से 1948 ई. तक यहां शासन किया था। वाघ जी ने एक शासक, प्रबंधक और रक्षक की तरह सदा आम जन के कल्याण को अपने मन-मस्तिष्क में रखकर शासन किया। सर वाघ जी ने अपने अन्य समकालीन शासको की तरह सड़कों और सात मील लम्बे वढ़वाड तथा मोरबी को जोडने वाले रेलमार्ग का निर्माण करवाया। उन्‍होंने नमक और कपडे़ का निर्यात करने के लिए दो छोटे बंदरगाहों नवलखा और ववानिया का भी निर्माण करवाया। मोरबी का रेलवे स्टेशन स्थापत्य शैली का सुन्दर उदाहरण है जिसमें भारतीय और यूरोपीय स्थापत्य कला का अनूठा संगम देखने को मिलता है।
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