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20231101.hi_75933_5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%9F
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ऐस्फाल्ट
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अस्फाल्ट के अनेक उपयोग हैं। सबसे अधिक प्रचलित उपयोग तो सड़कों और पटरियों (फुटपाथों) के फर्शो तथा हवाई अड्डों के धावन मार्गो (रनवेज़) को तैयार करने में होता है। इसको नहरों तथा टंकियों में अस्तर देने के तथा अपक्षरण-नियंत्रण और नदी तथा समुद्र के किनारों की रक्षा के कार्यो में भी प्रयुक्त किया जाता है। उद्योग में अस्फाल्ट का प्रयोग बिटुमेनरक्षित (जलावरोधक) कपड़ा बनाने में किया जाता है जो छत, फर्श, जलरोधक तथा भितिपट्ट (वालबोर्ड) की रचना में काम आता है। इसके सिवाय अस्फाल्ट का उपयोग विद्युद्रोधन के लिए होता है। विटुमेनबलित कागज तथा विद्युदवरोधक फीते (इन्सुलेटिंग टेप) बनाने में भी इसका उपयोग होता है। जोड़ने में तथा संधि भरने में यह उपयोगी है। नकली रबर, तैल रंग (आयल पेंट), वारनिश, इनैमल, मोटर की बैटरी और संचायक (अक्युमुलेटर) इत्यादि बनाने तथा शीत-भंडार (कोल्डस्टोरेज) और प्रशीतन (रेफ़्रिजरेशन) के कार्य में भी इसका उपयोग होता है।
| 0.5 | 742.551306 |
20231101.hi_75933_6
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ऐस्फाल्ट
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कुछ वर्ष पूर्व तक भारत में अस्फाल्ट का बाहर से आयात किया जाता था। किंतु अब मुंबई में शोधक कारखाने स्थापित किए गए हैं, जहाँ पर विदेश से आए कच्चे पेट्रोलियम का शोधन किया जाता है और बृहद् मात्रा में अस्फाल्ट इस उद्योग के अवशिष्ट पदार्थ के रूप में मिलता है। जहाँ तक अस्फाल्ट का संबंध है, भारत अब आत्मनिर्भर हो गया है।
| 0.5 | 742.551306 |
20231101.hi_75933_7
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ऐस्फाल्ट
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बिटुमेन के अनुप्रयोगों में से एक सड़क निर्माण में है। उच्च गुणवत्ता वाली संचार सड़कों का निर्माण बहुत महत्वपूर्ण है। इस उद्देश्य के लिए, उद्योग के लिए बिटुमिनस परीक्षण शुरू किए गए थे।
| 0.5 | 742.551306 |
20231101.hi_75933_8
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ऐस्फाल्ट
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Repaving plans have hit a bump.The rising costs of asphalt and gas mean fewer repairs are slated for roads.
| 0.5 | 742.551306 |
20231101.hi_964627_4
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मेलेनोमा
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तिलों का आकार बढ़ना, रंग में बदलाव शुरुआती लक्षणों में शामिल, या नोड्युलर मेलेनोमा (त्वचा के किसी अन्य भाग पर गाठ बनना) इसके शुरूआती लक्षणों में शामिल हैं। बाद के चरणों में तिल में खुजली, अलसर (सड़ना), या खून आना आ सकता हैं। मेलेनोमा के शुरूआती संकेतो को निमोनिक "ऐबीसीडीई" से सारांशित किया जा सकता हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
20231101.hi_964627_5
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मेलेनोमा
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मेटास्ततिक मेलेनोमा के कुछ गैर विशिष्ट पैरेनोंप्लास्टिक लक्षण पैदा कर सकता हैं जैसे- भूख न लगना, उलटी आना, थकान रहना। शुरुआती मेलेनोमा का मेटास्टेसिस संभव है, लेकिन अपेक्षाकृत दुर्लभ। मेटास्टासिस मेलेनोमा वाले लोगो में मस्तिष्क मेटास्टासिस आम हैं। यह यकृत, हड्डियों, पेट या दूर के लसीकाओ तक भी पहुच सकता हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
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मेलेनोमा
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मेलेनोमा ज्यादातर सूर्य की यूवी प्रकाश के असर से डीएनऐ को होने वल्ली क्षति से होता हैं। जीन भी एक हिस्सा निभाते हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
20231101.hi_964627_7
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मेलेनोमा
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५० से ज्यादा टिल होना मेलेनोमा के होने का खतरा जाहिर करता हैं। कमज़ोर प्रतिरक्षी तंत्र भी इसका खतरा बाधा देता हैं, क्युकी उनमे कैंसर कोशिकाओं से लड़ने की ताकत नहीं होती।
| 0.5 | 741.555742 |
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मेलेनोमा
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टैनिंग बेड से निकलने वाली पराबैंगनी किरणे मेलेनोमा का खतरा बढाती हैं। कैंसर पर अनुसन्धान करने वाली अमरीकन एजेंसी ने पाया कि टैनिंग बेड लोगो के लिए कैंसर का कारक हैं। जों लोग यह उपकरण ३० वर्ष की आयु से पहले इस्तेमाल करने लगते हैं उनमे इसका खतरा ७५% ज्यादा बढ़ जाता हैं।
| 1 | 741.555742 |
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मेलेनोमा
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जों लोग हवाईजहाज पर काम करते हैं उनमे पराबैंगनी किरणे के असर के कारण मेलेनोमा होने का खतरा होता हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
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मेलेनोमा
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मेलेनोमा महिलाओं में पैरो और पुरुषों में पीठ पर पाए जाते हैं। अकुशल श्रमिको की तुलना में यह पेशेवर और प्रशासनिक श्रमिको में अधिक पाया जाता हैं। अन्य कारको में उत्परिवर्तन व ट्यूमर सपरेसर जीन की मई होना शामिल हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
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मेलेनोमा
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पराबैंगनी विकिरण से बचाव इसमें बहुत सहायक हैं, सूर्य संरक्षण उपाय और सूरज सुरक्षात्मक कपड़े पहने (लंबी आस्तीन वाली शर्ट, लंबे पतलून, और व्यापक छिद्रित टोपी) सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। शारीर विटामिन डी उत्पन्न करने के लिए प्रराबैंग्नी प्रकाश का प्रयोग करता हैं इसीलिए स्वस्थ विटामिन डी का स्तर बनाये रखन जरूरी हैं जिससे मेलेनोमा का खतरा न बढे। पूरे दिन की शारीर की विटामिन डी की कमी आधे घंटे की धूप में पूरी हो जाती हैं, परन्तु इसी समय में श्वेतवर्ण वाले लोगो को आतपदाह हो जाता हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
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मेलेनोमा
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मेलेनोमा के इलाज में सर्जरी लाभदायक हैं। कीमोथेरेपी, इम्म्युनोथेरेपी, और रेडिएशन थेरेपी इसके इलाज में प्रयोग की जाति हैं।
| 0.5 | 741.555742 |
20231101.hi_187990_7
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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छरीलावा २ भाग, पत्रज २ भाग, मुनक्का ५ भाग, लज्जावती एक भाग, शीतल चीनी २ भाग, कचूर २.५ भाग, देवदारू ५ भाग, गिलोय ५ भाग, अगर २ भाग, तगर २ भाग, केसर १ का ६ वां भाग, इन्द्रजौ २ भाग, गुग्गुल ५ भाग, चन्दन (श्वेत, लाल, पीला) ६ भाग, जावित्री १ का ३ वां भाग, जायफल २ भाग, धूप ५ भाग, पुष्कर मूल ५ भाग, कमल-गट्टा २ भाग, मजीठ ३ भाग, बनकचूर २ भाग, दालचीनी २ भाग, गूलर की छाल सूखी ५ भाग, तेज बल (छाल और जड़) २ भाग, शंख पुष्पी १ भाग, चिरायता २ भाग, खस २ भाग, गोखरू २ भाग, खांड या बूरा १५ भाग, गो घृत १० भाग।
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_8
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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तालपर्णी १ भाग, वायबिडंग २ भाग, कचूर २.५ भाग, चिरोंजी ५ भाग, नागरमोथा २ भाग, पीला चन्दन २ भाग, छरीला २ भाग, निर्मली फल २ भाग, शतावर २ भाग, खस २ भाग, गिलोय २ भाग, धूप २ भाग, दालचीनी २ भाग, लवंग २ भाग, गुलाब के फूल ५॥ भाग, चन्दन ४ भाग, तगर २ भाग, तम्बकू ५ भाग, सुपारी ५ भाग, तालीसपत्र २ भाग, लाल चन्दन २ भाग, मजीठ २ भाग, शिलारस २.५० भाग, केसर १ का ६ वां भाग, जटामांसी २ भाग, नेत्रवाला २ भाग, इलायची बड़ी २ भाग, उन्नाव २ भाग, आँवले २ भाग, बूरा या खांड १५ भाग, घी १० भाग।
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_9
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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काला अगर २ भाग, इन्द्र-जौ २ भाग, धूप २ भाग, तगर २ भाग देवदारु ५ भाग, गुग्गुल ५ भाग, राल ५ भाग, जायफल २ भाग, गोला ५ भाग, तेजपत्र २ भाग, कचूर २ भाग, बेल २ भाग, जटामांसी ५ भाग, छोटी इलायची १ भाग, बच ५ भाग, गिलोय २ भाग, श्वेत चन्दन के चीज ३ भाग, बायबिडंग २ भाग, चिरायता २ भाग, छुहारे ५भाग, नाग केसर २ भाग, चिरायता २ भाग, छुहारे ५ भाग, संखाहुली १ भाग, मोचरस २ भाग, नीम के पत्ते ५ भाग, गो-घृत १० भाग, खांड या बूरा १५ भाग,
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_10
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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सफेद चन्दन ५ भाग, चन्दन सुर्ख २ भाग, चन्दन पीला २ भाग, गुग्गुल ५ भाग, नाग केशर २ भाग, इलायची बड़ी २ भाग, गिलोय २ भाग, चिरोंजी ५ भाग, गूलर की छाल ५ भाग, दाल चीनी २ भाग, मोचरस २ भाग, कपूर कचरी ५ भाग पित्त पापड़ा २ भाग, अगर २ भाग, भारंगी २ भाग, इन्द्र जौ २ भाग, असगन्ध २ भाग, शीतल चीनी २ भाग, केसर १ का ६ वां भाग, किशमिस ६ भाग, वालछड़ ५ भाग, तालमखाना २ भाग, सहदेवी १ भाग, धान की खील २ भाग, कचूर २.७५ भाग, घृत १० भाग, खांड या बूरा १५ भाग।
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_11
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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कूट २ भाग, मूसली काली २ भाग, घोड़ावच २ भाग, पित्त पापड़ा २ भाग, कपूर २ भाग, कपूर कचरी ४ भाग, गिलोय २ भाग, पटोल पत्र २ भाग, दालचीनी २ भाग, भारंगी २ भाग, सोंफ २ भाग, मुनक्क ा ३.७५ भाग, गुग्गुल ५ भाग, अखरोट की गिरी ४ भाग, पुष्कर मूल २ भाग, छुहारे ५ भाग, गोखरू २ भाग, कोंच के बीच १ भाग, बादाम २ भाग, मुलहाटी २ भाग, काले तिल ५ भाग, जावित्री २ भाग, लाल चन्दन २ भाग, मुश्कवाला १ भाग, तालीस पत्र २ भाग, गोला ५ भाग, तुम्वुरु ५ भाग, खाण्ड या बूरा १५ भाग, गोघृत १०, भाग, रासना १ भाग।
| 1 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_12
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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अखरोट ४ भागं, कचूर २ भाग, वायबिडंग २ भाग, इलायची बड़ी २ भाग, मुलहटी २ भाग, मोचरस २ भगा, गिलोय २ भाग, मुनक्क्क ५ भाग, रेणुका (संभाल) १ भाग, काले तिल ४ भाग, चन्दन ४ भाग, चिरायता २ भाग, छुहारे ४ भाग, तुलसी के बीज ४ भाग, गुग्गुल ३ भाग, चिरौंजी २ भाग, काकड़ासिंगी २ भाग, शतावर २ भाग, दारु हल्दी २ भाग, शंख पुष्पी १ भाग, पाद्मख २ भाग, कोंच के बीच १ भाग, जटामांसी १ भाग, भोजपत्र १ भाग, तुम्बर ५ भाग, राल ५ भाग, सुपारी २ भाग, घी ११.५ भाग, खाण्ड या बूर १५ भाग।
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_13
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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निम्न सामग्रियों (सूची १) में से प्रत्येक की बराबर मात्रा लेकर उन्हें जौकुट कर लें. इनमें हवन सामग्री (सूची २) की बराबर मात्रा मिलाएं.
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_14
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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All these are used in equal proportion except Taxus baccata, which is used in half the proportion of the others.
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_187990_15
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF
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आहुति
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This havan samagri is sacrificed with loud chanting of the Surya Gayatri Mantra (Om Bhur Buva¡ Swa¡, Bhaskaraya Vidmahe, Diwakaraya Dhimahi| Tanna¡ Surya¡ Prachodayat|| Swaha||). After putting each ahuti with the chant of Swaha, one should utter "Idam Suryaya, Idam Na Mam" to remember the altruistic teaching of yagya that it is for the benefit of entire creation and not for my selfish needs.
| 0.5 | 739.375522 |
20231101.hi_190015_5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80
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भट्टी
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भट्टियों के बिना धातुकर्म की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत की भट्टिया विश्वप्रसिद्ध रहीं है। १८वीं शताब्दी तक अनेकों ब्रिटिश प्रेक्षक यहाँ के लौहनिर्माण एवं भट्टियों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होने लौह निर्माण की कुछ प्रक्रमों के बरे में विस्तार से लिखकर इंग्लैण्ड भेजा था। जेम्स फ्रैंकलिन नामक ब्रितानी ने भारतीय भट्ठियों और लौहनिर्माण के प्रयेक पक्ष के बारे में विस्तार से लिखा था। उसने अन्त में पूछा है, "क्या विश्व की कोई अन्य भट्टी इन भट्टियों से स्पर्धा कर सकती है?" इसी प्रकार, मद्रास स्थित सहायक सर्वेयर जनरल कैप्टेन जे कैम्बेल (Cambell) ने लिखा, "भारतीय लोहे के बारे में मैने जो देखा है, सही कहूँ तो भारत का सबसे घटिया लोहा इंग्लैण्ड के सबसे उत्तम लोहे जैसा है।"
| 0.5 | 738.099256 |
20231101.hi_190015_6
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80
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भट्टी
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रसायन के क्षेत्र में विश्व में प्राचीन भारत की प्रसिद्धि मुख्यत: अपने धातुकर्म कौशल के लिए रही है। मध्यकाल में भारत का इस्पात यूरोप, चीन और मध्यपूर्व के देशों तक पहुंचा। इतिहास में दमिश्क की जिन अपूर्व तलवारों की प्रसिद्धि है वे दक्षिण भारत के इस्पात (वुट्ज इस्पात) से ही बनाई जाती थीं। आज से 1500 वर्ष पूर्व निर्मित और आज भी जंग से सर्वथा मुक्त दिल्ली के महरौली का स्तंभ भारतीय धातुकर्म की श्रेष्ठता का प्रतीक है। यही बात ब्रिाटिश म्यूजियम में रखे बिहार से प्राप्त चौथी शताब्दी की तांबे से बनी बुद्ध की 2.1 मीटर ऊंची मूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है। भारत में अत्यंत शुद्ध जस्ता एवं पीतल के उत्पादन भी प्रमाणित हैं।
| 0.5 | 738.099256 |
20231101.hi_190015_7
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80
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भट्टी
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कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" में लोहा, तांबा, रजत, स्वर्ण, सीसा एवं टिन धातुओं के अयस्कों की सटीक पहचान उपलब्ध है। लोहे के लिए रक्ताभ भूरे हेमेटाइट (सिंधुद्रव) एवं कौवे के अंडे के रंग वाले मैग्नेटाइट (बैक्रुंटक) तांबे के लिए कॉपर पाइराइटिज, मैलाकाइट, एज्यूराइट एवं नेटिव कॉपर, रजत के लिए नेटिव सिल्वर, स्वर्ण के लिए नेटिव गोल्ड, सीसा के लिए रजत अथवा स्वर्ण मिश्रित गैलेना एवं बंग के लिए कैसेटिराइट अयस्कों की उनके रंगों के आधार पर पहचान वर्णित है। संस्कृत साहित्य में पारद के सिनाबार तथा जस्त के कैलामाइन अयस्कों का समुचित वर्णन उपलब्ध है। अर्थशास्त्र में ही अनेकों अयस्कों में मिश्रित कार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति की क्रिया भी वर्णित है। इसके लिए उच्च ताप पर गर्म कर विघटित करने का विधान है। अकार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति के लिए रसरत्न समुच्चय में अयस्क के साथ बाह्र पदार्थ, फ्लक्स को मिलाकर और इस मिश्रण को गर्म कर उन्हें धातुमल के रूप में अलग कर देने का विधान है। धातु विरचन के सभी उत्खनन स्थलों पर ये फ्लक्स प्राप्त हुए हैं। उदाहरणार्थ, सिलिका के निष्कासन के लिए चूना पत्थर का प्रयोग आम बात थी ताकि कैल्सियम सिलिकेट पृथक हो सके। ये सभी बातें आज के धातुकर्म विज्ञान से असंगत हैं। सामान्य धातुओं में लोहा|लोहे]] का गलनांक सर्वाधिक है- 1500 डिग्री सेल्सियस। हमारे वैज्ञानिक पूर्वज इस उच्च ताप को उत्पन्न करने में सफल रहे थे। बताया ही जा चुका है कि इसके लिए प्रयुक्त पातालकोष्ठी भठ्ठी आज की पिट फर्नेस से मिलती-जुलती थी। अन्य तीन भठ्ठियों-अंगारकोष्ठी, मूषकोष्ठी एवं गारकोष्ठी के उपयोग की भी अनुशंसा वाग्भट्ट ने की है। वाग्भट्ट ने ही लौह धातुकर्म के लिए भर्जन एवं निस्पातन क्रियाओं का भी सांगोपांग वर्णन किया है। लौह अयस्क के निस्पातन के लिए हिंगुल (गंधक एवं पारद) का उपयोग किया जाता था तथा भर्जन के लिए छिछली भठ्ठियों की अनुशंसा की गई है, जो पूर्णत: वैज्ञानिक है। इन प्रक्रियाओं में आक्सीकृत आर्सेनिक, गंधक, कार्बन आदि मुक्त हो जाते थे तथा फेरस आक्साइड, फेरिक में परिवर्तित हो जाता था। सुखद आश्चर्य की बात है कि रसरत्न समुच्चय में छह प्रकार के कार्बीनीकृत इस्पातों का उल्लेख है। बृहत्त संहिता में लोहे के कार्बोनीकरण की विधि सम्पूर्ण रूप से वर्णित है।
| 0.5 | 738.099256 |
20231101.hi_190015_8
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80
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भट्टी
|
यह इतिहास सम्मत तथ्य है कि विश्व में तांबे का धातुकर्म सर्वप्रथम भारत में ही प्रारंभ हुआ। मेहरगढ़ के उत्खनन में तांबे के 8000 वर्ष पुराने नमूने मिले हैं। उत्खनन में ही अयस्कों से तांबा प्राप्त करने वाली भठ्ठियों के भी अवशेष मिले हैं तथा फ्लक्स के प्रयोग से लौह को आयरन सिलिकेट के रूप में अलग करने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।
| 0.5 | 738.099256 |
20231101.hi_190015_9
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80
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भट्टी
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नागार्जुन के रसरत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन विधि वर्णित है। ऐसी ही विधि रसरत्न समुच्चय तथा सुश्रुत एवं चरक संहिताओं में भी दी गई है तथा आसवन के लिए ढेंकी यंत्र की अनुशंसा की गई है। स्मरणीय है कि इस विधि का आधुनिक विधि से आश्चर्यजनक साम्य है। चरक ने पारद के शोधन की 108 विधियां लिखी हैं।
| 1 | 738.099256 |
20231101.hi_190015_10
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%80
|
भट्टी
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गोविंद भागवत्पाद ने अपने रस हृदयतंत्र में पारद को सीसा एवं वंग से पृथक करने की विधि लिखी है। रसार्णवम् में वंग के धातुकर्म का वर्णन करते हुए सीसा के धातुकर्म का भी उल्लेख किया गया है। सीसा को अयस्क से प्राप्त करने के लिए हाथी की हड्डियों तथा वंग के लिए भैंसे की हड्डियों के प्रयोग का विधान दिया गया है। स्पष्टत: हड्डियों का कैल्सियम फ्लक्स के रूप में कार्य करते हुए अशुद्धियों को कैल्सियम सिलिकेट धातुमल के रूप में पृथक कर देता था। आज भी आधारभूत प्रक्रिया यही है यद्यपि कैल्सियम को जैविक श्रोत के रूप में न प्रयोग कर अकार्बनिक यौगिक के रूप में मिलाया जाता है। कैसेटिराइट के आक्सीकृत वंग अयस्क के अपचयन के लिए विशिष्ट वनस्पतियों की अनुशंसा की गई है, जो कार्बन के श्रोत का कार्य करती थीं।
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20231101.hi_190015_11
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भट्टी
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जस्त एवं अन्य धातु, जो प्राचीन भारत में अपनी अद्भुत मिश्र धातु निर्माण क्षमता के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण थी, इन्हें कैलेमाइन अयस्क से प्राप्त किया जाता था। इसके धातुकर्म की भठ्ठियां, जो राजस्थान में प्राप्त हुई हैं, वे ईसा पूर्व 3000 से 2000 वर्ष पूर्व तक की हैं। धातुकर्म में मुख्य पद आसवन का ही है जो आधुनिक समय में भी प्रासांगिक है। रसरत्न समुच्चय में संपूर्ण विधि वर्णित है। स्मरणीय है कि 1597 में लिबावियस नामक व्यक्ति इसे भारत से लेकर यूरोप पहुंचा। 1743 में विलियम चैंपियन नामक अंग्रेज ने कैलामाइन अयस्क आधारित धातुकर्म के आविष्कार का दावा करते हुए इसके पेटेंट के लिए प्रार्थना पत्र दिया। परंतु कलई खुल गई और पता चला कि वह समस्त तकनीकी भारत में राजस्थान की जवार खानों से लेकर गया था। इसके लिए उसकी अत्यधिक भत्र्सना की गई।
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भट्टी
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नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। नेटिव सिल्वर (अशुद्ध रजत) को सीसा और भस्म के साथ मिलाकर लोहे की कुंडी में पिघलाइये, शुद्ध रजत प्राप्त हो जाएगा। गैलेना अयस्क, जो रजत और सीसे का एक प्रकार का एलाय है, को तो बिना बाहर से सीसा मिलाए ही गलाये जाने का विधान है। यह विधि आज की क्यूफ्लेशन विधि से आश्चर्यजनक साम्य रखती है। अंतर केवल इतना है कि आज की विधि में क्यूपेल (कुंडी) के अंदर किसी संरंध्र पदार्थ का लेप किया जाता है जबकि प्राचीन काल में बाहर से मिलाई गई भस्म यही कार्य करती थी। दृष्टव्य है कि कौटिल्य के काल में लोहे की कुंडी के स्थान पर खोपड़ी के प्रयोग का वर्णन है। यहां यह खोपड़ी भी संरंध्र पदार्थ का ही कार्य करती थी, जिसमें सीसा अवशोषित हो जाता होगा।
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भट्टी
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कौटिल्य ने लिखा है कि स्वर्ण को नेटिव रूप में नदियों के जल अथवा चट्टानों से प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी चट्टानें पीताभ अथवा हल्के पीत-गुलाबी रंग की होती हैं और इन्हें तोड़ने पर नीली धरियां दृश्य हो जाती हैं। यह अत्यंत सटीक वर्णन है। अत्यंत शुद्ध धातु की प्राप्ति के लिए जैविक पदार्थों के साथ गर्म करने का विधान है। सीसे के साथ मिलाकर भी शुद्ध करने की अनुशंसा है जो आज की पद्धति में कोई स्थान नहीं रखती।
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मंगलूरु
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शरावु महागणपति मंदिर परिसर में अनेक मंदिर हैं जो शरावु, कादरी, मंगलादेवी और कुदरोली को समर्पित हैं। इन सभी मंदिरों में 800 साल पुराना श्री शरावु शाराबेश्वर मंदिर सबसे लोकप्रिय है। यह मंदिर श्री गणपति क्षेत्र में स्थित है।
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मंगलूरु
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कहा जाता है कि अठारहवीं शताब्दी में बना इस लाइटहाउस को हैदर अली ने बनवाया था। बस स्टैन्ड से 1किलोमीटरकी दूरी पर यह लाइटहाउस बना हुआ है। यहां एक गार्डन भी है जहां से समुद्र के खूबसूरत नजारे देखे जा सकते हैं।
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मंगलूरु
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सुल्तान बत्तेरी को अठारहवीं शताब्दी में टीपू सुलतान ने सुरक्षा के दृष्टिकोण से बनवाया था। इसका निर्माण दुश्मन के जहाजों को गुरपुरा नदी में प्रवेश से रोकने के लिए हुआ था। इसका ढांचा किले जैसा है। काले पत्थरों से बना यह मंगलौर सिटी बस स्टैंड़ से 6 किलोमीटर दूर बेल्लूर में स्थित है।
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मंगलूरु
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यह संग्रहालय कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम के बस स्टैन्ड के पीछे स्थित है। यहां प्राचीन काल के अवशेषों का संग्रह देखा जा सकता है। हनुमान और भैरव की लकड़ी की मूर्ति पर नक्काशी और 13वीं शताब्दी की पत्थरों की आकृतियां यहां देखी जा सकती हैं।
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मंगलूरु
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मंगलौर से 20 किलोमीटर दूर पोलाली में राजा राजेश्वरी मंदिर है जिसमें 10 फीट ऊंची मिट्टी की प्रतिमा है। इसे भारत की सबसे ऊंची मिट्टी की मूर्ति माना जाता है।
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मंगलूरु
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यहाँ का शांत और मनोरम वातावरण पर्यटकों को कुछ ज्यादा ही आकर्षित करता है। मंगलौर से 66 किलोमीटर दूर उत्तर में यह समुद्र तट स्थित है।
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मंगलूरु
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मंगलौर से 50 किलोमीटर दूर यह एक छोटा सा नगर है जो आठ जैन बस्ती और महादेव मंदिर के लिए लोकप्रिय है। यहां सत्रहवीं शताब्दी में बनी 11 मीटर ऊंची बाहुबली की प्रतिमा देखी जा सकती है जो गुरूपुर नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है।
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मंगलूरु
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मंगलौर से 30 किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित कटील में दुर्गा परमेश्वरी मंदिर है जो नंदिनी नदी के बीच में बना हुआ है। हालांकि यह मंदिर एक आधुनिक रचना है लेकिन इसकी नींव को काफी प्राचीन माना जाता है। यहां नवरात्रि के अवसर पर हरि कथा और यक्षगान विशेषकर दशावतार का आयोजन किया जाता है।
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मंगलूरु
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वायुमार्ग- मंगलौर से 20 किलोमीटर दूर बाजपे नजदीकी एयरपोर्ट है। यह एयरपोर्ट बैंगलोर, चैन्नई और मुम्बई से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
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बरेलवी
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देवबंदी आंदोलन के विपरीत, बरेलवियों ने पाकिस्तान के आंदोलन के लिए अप्रतिम समर्थन दिखाया। 1948 के विभाजन के बाद, उन्होंने पाकिस्तान में आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक संघ का गठन किया, जिसे जामिय्यत-उ उलम-आई पाकिस्तान (JUP) कहा जाता है। देवबंदी और अहल-ए-हदीस आंदोलनों के उलेमा की तरह, बरेलवी उलेमा ने देश भर में शरिया कानून लागू करने की वकालत की है
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बरेलवी
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इस्लाम विरोधी फिल्म इन्नोसेंस ऑफ़ मुस्लिम्स की प्रतिक्रिया के रूप में, चालीस बरेलवी दलों के एक समूह ने पश्चिमी सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया, जबकि उसी समय हिंसा की निंदा की जो फिल्म के विरोध में हुई थी।
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बरेलवी
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इंडिया टुडे ने अनुमान लगाया कि भारत में दो-तिहाई से अधिक मुसलमान बरेलवी आंदोलन का पालन करते हैं, और द हेरिटेज फाउंडेशन, टाइम और द वाशिंगटन पोस्ट ने पाकिस्तान में मुसलमानों के विशाल बहुमत के लिए समान मूल्यांकन दिया। राजनीतिक वैज्ञानिक रोहन बेदी ने अनुमान लगाया कि 60% पाकिस्तानी मुस्लिम बरेलवी हैं। पंजाब , सिंध और पाकिस्तान के आज़ाद कश्मीर क्षेत्रों में बरेलवियों का बहुमत है।
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बरेलवी
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यूनाइटेड किंगडम ऑफ पाकिस्तानी और कश्मीर मूल के बहुसंख्यक लोग बरेलवी-बहुमत वाले क्षेत्रों के प्रवासियों के वंशज हैं। [१०] पाकिस्तान में बरेलवी आंदोलन को ब्रिटेन में बरेलविस से धन प्राप्त हुआ, पाकिस्तान में प्रतिद्वंद्वी आंदोलनों की प्रतिक्रिया के रूप में विदेशों से भी धन प्राप्त हुआ। अंग्रेजी भाषा के पाकिस्तानी अखबार द डेली टाइम्स के एक संपादकीय के अनुसार, इनमें से कई मस्जिदों को हालांकि सऊदी द्वारा वित्त पोषित कट्टरपंथी संगठनों द्वारा बेकार कर दिया गया है।
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बरेलवी
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अन्य सुन्नी मुसलमानों की तरह, बरेलवी भी कुरान और सुन्नत पर अपने विश्वासों का आधार रखते हैं और एकेश्वरवाद और मुहम्मद स. अ. व. के भविष्यवक्ता पर विश्वास करते हैं। हालाँकि बरेलवी इस्लामी धर्मशास्त्र के किसी भी अशअरी या मातुरिदी स्कूल में से एक का अनुसरण कर सकते हैं और नक़्शबन्दी, क़ादरी,चिश्ती,सोहरवर्दी, रिफाई, शाज़ली इत्यादि सूफ़ी आदेशों में से किसी एक को चुनने के अलावा फ़िक़्ह के हनफ़ी, मालिकी, शाफ़ई और हंबली में से एक को भी चुन सकते हैं।
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बरेलवी
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कई मान्यताओं और प्रथाएं हैं जो कुछ अन्य लोगों, विशेष रूप से देवबंदी, वहाबी और सलाफी से बरेलवी आंदोलन को अलग करती हैं। इनमें नूर मुहम्मदिया (मुहम्मद की रोशनी), हजीर-ओ-नाज़ीर (मुहम्मद के बहुतायत), मुहम्मद के ज्ञान और मुहम्मद के मध्यस्थता के बारे में विश्वास शामिल हैं।
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बरेलवी
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बरेलवी आंदोलन का एक केंद्रीय सिद्धांत यह है कि मुहम्मद (स अ व) मानव और प्रकाश दोनों हैं। सिद्धांत के मुताबिक, मुहम्मद (स अ व) का शारीरिक जन्म उनके अस्तित्व से पहले प्रकाश के रूप में था जो पूर्व-तिथियां निर्माण करता था। इस सिद्धांत के अनुसार मुहम्मद की प्राथमिक वास्तविकता सृजन से पहले अस्तित्व में थी और अल्लाह ने मुहम्मद (स अ व) के लिए सृजन बनाया। इस सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि कुरान 5:15 में नूर (प्रकाश) शब्द मुहम्मद का संदर्भ देता है। सहल अल-तस्तारी कुरान के प्रसिद्ध 9 वीं शताब्दी सुफी कमेंटेटर ने अपने तफसीर में मुहम्मद (स अ व) की आदिम प्रकाश के निर्माण का वर्णन किया। अल-टस्टारी के छात्र, मानसूर अल-हज्जाज, इस सिद्धांत को अपनी पुस्तक तासिन अल-सिराज में पुष्टि करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%B5%E0%A5%80
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बरेलवी
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स्टूडिया इस्लामिक के अनुसार, सभी सूफी आदेश मुहम्मद के प्रकाश के विश्वास में एकजुट हैं और इस अवधारणा के साथ प्रथाओं को एक मौलिक विश्वास के रूप में उत्पन्न करते हैं।
| 0.5 | 736.395982 |
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बरेलवी
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बरेलवी आंदोलन का एक अन्य केंद्रीय सिद्धांत यह है कि मुहम्मद एक ही समय (हाज़िर-ओ-नज़ीर) के रूप में कई स्थानों पर गवाही दे सकते है।यह सिद्धांत बरेलवी आंदोलन से पहले के विभिन्न सूफी कार्यों में मौजूद है, जैसे कि सैय्यद उथमान बुखारी (डी। 1687) जवाहिर अल-कुलिया (ईश्वर के मित्र के ज्वेल्स), जहां उन्होंने निर्देश दिया कि सूफ़ियों ने उनसे कैसे प्रकट किया होगा। मुहम्मद की उपस्थिति।इस सिद्धांत के समर्थकों का दावा है कि कुरान में शाहिद (गवाह) शब्द मुहम्मद की इस क्षमता को संदर्भित करता है और इस विश्वास का समर्थन करने के लिए विभिन्न हदीसों को स्रोत के रूप में प्रदान करता है।
| 0.5 | 736.395982 |
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महेसाणा
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महेसाणा की स्थिति पर है। यहाँ की औसत ऊँचाई 81 मीटर (265 फीट) है। यह अहमदाबाद महानगर से ६९ मिलोमीटर दूर है।
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महेसाणा
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बहुचरा माता का मंदिर बहुचराजी शहर, जिल्ला महेसाणा गुजरात, भारत में स्थित है। यह अहमदाबाद से 110 किलोमीटर और महेसाणा से 35 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।बहुचरा माता एक हिन्दू देवी का नाम है, बहुचर माता के पिता बापल देथा चारण ओर माता देवल आई है, गुजरात के हलवद मे स्थित सापकडा गाँव में चैत्र शुक्ल पूनम के दिन चार देवीओ बुटभवानी माता, बलाड माता, बहुचर माता ओर बालवी माता ने अवतार धारण किया।
| 0.5 | 734.943409 |
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महेसाणा
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अहमदाबाद से 140 किलोमीटर दूर स्थित तरंगा हिल्स को जैन मंदिरों के लिए जाना जाता है। इस पहाड़ी को जैन सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है। पहाडी पर 5 दिगंबर और 5 श्वेतांबर मंदिर बने हुए हैं। माना जाता है कि इन पहाड़ियों के शिखर पर अनेक संतों ने मोक्ष प्राप्त किया था। 12वीं शताब्दी में यहां श्वेतांबर सोलंकी राजा कुमारपाल ने भगवान अजीतनाथ के सम्मान में यहां एक खूबसूरत मंदिर का निर्माण करवाया था।
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20231101.hi_33683_4
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महेसाणा
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यह लोकप्रिय जैन तीर्थस्थल महेसाणा के घंबू में स्थित है। गंबीरा पार्श्वनाथ को समर्पित यहां का प्रमुख प्रमुख आकर्षण है। यहां तीर्थ यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था है। हर साल हजारों की तादाद में सैलानियों का यहां आगमन होता है।
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महेसाणा
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अगलोड स्थित यह चर्चित जैन तीर्थस्थल 151 सेमी. ऊंची भगवान वौपूज्यस्वामी की पदमासन मुद्रा में स्थापित प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। मुख्य मंदिर के निकट मनीभद्रवीर मंदिर भी देखा जा सकता है। अदभुत वास्तुकारी का प्रतीक यह मंदिर सिदाना के लिए एक आदर्श स्थल है। मंदिर को गुजरात के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में शुमार किया जाता है।
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महेसाणा
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मेहसाना के रूनी गांव में स्थित यह तीर्थ 126 सेमी. ऊंची भगवान गोडीजी पार्श्वनाथ की सफेद प्रतिमा के लिए लोकप्रिय है। यह मूर्ति पदमासन मुद्रा में स्थापित है। माना जाता है कि इसे हेमचन्द्राचार्य ने 450 साल पहले स्थापित किया था।
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महेसाणा
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भोयानी गांव में स्थित जैन तीर्थस्थल भगवान मल्लीनाथ की सफेद मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। पदमासन मुद्रा में स्थापित इस मूर्ति की ऊंचाई लगभग 1 मीटर है। मंदिर परिसर में तीन खूबसूरत गोपुरों को देखा जा सकता है। इसके निकट ही पदमावती देवी को समर्पित परिसर भी अति सुंदर है। इतिहास में उल्लेख है कि इसे पदमावती नगर के नाम से जाना जाता है। मंदिर में स्थापित मूल प्रतिमा खेद में कुंआ खोदते हुए मिली थी। हर साल माघ के महीने में यहां एक उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
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महेसाणा
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मेहसाना के शंखेश्वर में स्थित यह जैन तीर्थस्थल 125 फीट ऊंची पदमावती देवी की आकर्षक प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। पदमावती देवी की मूर्ति के अलावा सरस्वती देवी, महालक्ष्मी देवी, नकोडा भरवजी और मनीभद्रवीर की प्रतिमाएं भी यहां देखी जा सकती हैं। इस तीर्थस्थल में यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था है। इस तीर्थ के निकट ही 108 भक्तिविहार पार्श्वनाथ, श्री अगम मंदिर तीर्थ, भक्तामर मंदिर और गुरूमंदिर भी देखे जा सकते हैं।
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महेसाणा
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मेहसाना का निकटतम एयरपोर्ट अहमदाबाद विमानक्षेत्र है, जो यहां से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर है। देश के अनेक हिस्सों से यह एयरपोर्ट जुड़ा हुआ है।
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दीपवंस
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दीपवंस एक प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें श्री लंका का प्राचीनतम इतिहास वर्णित है। 'दीपवंस', 'द्वीपवंश' का अपभ्रंश है जिसका अर्थ 'द्वीप का इतिहास' है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस ग्रन्थ का संकलन अत्थकथा तथा अन्य स्रोतों से तीसरी-चौथी शताब्दी में किया गया था। महावंस तथा दीपवंस से ही श्री लंका तथा भारत के प्राचीन इतिहास के बहुत सी घटनाओं लेखाजोखा मिलता है। यह केवल इतिहास की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह बौद्ध तथा पालि साहित्य का महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ भी है।
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दीपवंस
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निस्संदेह एक ऐतिहासिक महाकाव्य के रूप में सिंहल का "महावंस" अधिक आदृत है, किंतु रचनाकाल की दृष्टि से दीपवंस महावंस की अपेक्षा प्राचीनतर ही नहीं प्राचीनतम है और उपयोग की गई सामग्री की दृष्टि से भी कुछ अंशों से भिन्न। जार्ज टर्नर ने किसी समय अपना यह मत प्रकाशित किया था कि "दीपवंस" और "महावंस" दोनों दो भिन्न रचनाएँ न होकर एक ही रचना के दो नाम हैं। उनका यह मत अयथार्थ ही है।
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दीपवंस
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यदि अनुराधापुर के महाविहार के "अठ्ठकथा-महावंस" का और दीपवंस का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि "दीपवंस" के रचयिता ने अपने ग्रंथसंपादन के लिए "अट्टकथामहावंस" से न केवल यथेष्ट सामग्री ही ली, बल्कि अभिव्यक्ति की शैली और कहीं-कहीं वाक्य के वाक्य ज्यों के त्यों अपना लिए हैं। "दीपवंस" का अधिकांश ऐसा ही है कि जिससे वह एक स्वतंत्र रचना न होकर अठ्ठकथा सदृश ग्रंथ या अन्य ग्रंथों के उद्धरणों का संग्रह प्रतीत होता है। यह एक प्रकार से सिंहल में प्राप्त सामग्री का कच्ची पक्की पालि में अनुवाद मात्र है।
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दीपवंस
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जिस काल का ऐतिहासिक लेखाजोखा "दीपवंस" ने सुरक्षित रखा है, वह समय महावंस के काल के समानांतर ही है। दोनों ग्रंथ महासेन नरेश की मृत्यु के समय ही अपने अपने वर्णन की "इति" करते हैं। इस समानता का एक बड़ा कारण यह है कि दोनों ग्रंथों ने अपनी मूल उपादान सामग्री का चयन एक ही स्थल से किया है और वह स्थल है महाविहार का "अठ्ठकथा महावंस।"
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दीपवंस
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महासेन नरेश की मृत्यु पर ही "दीपवंस" तथा "महावंस" के समाप्त होने का एक संभव कारण यह है कि महाविहार के विरोधियों ने महासेन की ही अनुमति प्राप्त कर महाविहार को विध्वंस कर डाला था। पूरे नौ वर्ष तक महाविहार महाविहारवासियों से शून्य रहा।
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दीपवंस
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दीपवंस के रचनाकाल को हम ई. 302 से पूर्व नहीं ले जा सकते, क्योंकि इसमें उस समय तक की घटनाओं का उल्लेख है। दूसरी ध्यान देने लायक बात यह है कि महान अट्ठकथाचार्य बुद्धघोष "दीपवंस" से अथवा उसके किसी अंश से अवश्य परिचित रहे हैं। फिर "महावंस" को जिन महास्थविर ने आगे बढ़ाया है उन्होंने हमें यह जानकारी भी दी है कि धातुसेन नरेश (ई. 459-477) ने, महास्थविर महेंद्र की मूर्ति के प्रति गौरव प्रकट करने के लिए जो महोत्सव किया था, उसमें "दीपवंस" का पाठ करने क आज्ञा दी थी।
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दीपवंस
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इन बातों पर विचार करने से हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि दीपवंस की रचना चतुर्थ शताब्दी के आरंभ और पाँचवीं शताब्दी के तृतीयांश के प्रथम भाग में हुई होगी।
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दीपवंस
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जहाँ तक रचनाकाल की बात है "महावंस" का भी निश्चित रचनाकाल अज्ञात ही है। किंतु, "दीपवंस" जहाँ काव्य की दृष्टि से एकदम ध्यान न देने लायक लगता है, कहीं कहीं पद्य भी विद्यमान है, वहाँ "महावंस" एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।
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दीपवंस
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यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार श्रीलंका के उत्तरकालीन पालि महाकवियों ने "महावंस" की परंपरा को चालू रखकर उसकी कथा को अद्यतन बना दिया, उसी प्रकार पंडित अहुनगल्ल विमलकित्ति महानायक स्थविर ने अभी वर्तमान में ही "दीपवंसक कथाकाव्य" को आगे बढ़ाकर उसे भी अद्यतन बना दिया है।
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शब्दब्रह्म
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प्राचीन मनीषियों ने सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानी है। ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण जड़-चेतन में नाद व्याप्त है इसी कारण इसे "नादब्रह्म” भी कहते हैं।
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शब्दब्रह्म
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अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर (नष्ट न होने वाला) है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।
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शब्दब्रह्म
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ब्रह्माण्डीय चेतना एवं सशक्तता का उद्गम स्त्रोत क्या है, इसका खोज करते हुए तत्त्वदर्शी-ॠषि इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, कि यह समस्त हलचलें जिस आधार पर चलती हैं, वह शक्ति स्रोत ‘शब्द’ है। अचिन्त्य, अगम्य, अगोचर, परब्रह्म को जगत चेतना के साथ अपना स्वरूप निर्धारित करते हुए ‘शब्द-ब्रह्म’ के रूप में प्रकट होना पड़ा। सृष्टि से पूर्व यहाँ कुछ नहीं था। कुछ से सब कुछ को उत्पन्न होने का प्रथम चरण ‘शब्द-ब्रह्म’ था, उसी को ‘नाद-ब्रह्म’ कहते हैं। उसकी परमसत्ता का आरम्भ-अवतरण इसी प्रकार होता है, उसके अस्तित्व एवं प्रभाव का परिचय प्राप्त करना सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही सम्भव हो सका।
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शब्दब्रह्म
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शब्द का आरम्भ जिस रूप में हुआ उसी स्थिति में वह अनन्तकाल तक बना रहेगा। आरम्भ शब्द ‘ओ़उम्’ माना गया है। इसको संक्षिप्त प्रतीक स्वरूप ‘ॐ’ के रूप में लिखा जाता है।
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शब्दब्रह्म
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संगीतरत्नाकर में नादब्रह्म की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नादब्रह्म समस्त प्राणियों में चैतन्य और आन्नदमय है। उसकी उपासना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की सम्मिलित उपासना हो जाती है। वे तीनों नादब्रह्म के साथ बँधे हुए हैं।
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शब्दब्रह्म
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अग्निपुराण के अनुसार- एक ‘शब्दब्रह्म’ है, दूसरा ‘परब्रह्म’। शास्त्र और प्रवचन से ‘शब्द ब्रह्म’ तथा विवेक, मनन, चिन्तन से ‘परब्रह्म’ की प्राप्ति होती है। इस ‘परब्रह्म’ को ‘बिन्दु’ भी कहते हैं।
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शब्दब्रह्म
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नाद-ब्रह्म के दो भेद हैं- आहात और अनाहत। ‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्त्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं। बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें ‘अनाहत’ या ‘अनहद’ कहते हैं। अनहद नाद का शुद्ध रूप है –‘प्रताहत नाद’। स्वच्छन्द-तन्त्र ग्रन्थ- में इन दोनों के अनेकों भेद-उपभेद बताये हैं। आहात और अनाहत नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इस शब्द को सुननें की साधना को ‘सुख’ कहते है। अनहद नाद एक बिना नाद की दैवी सन्देश-प्रणाली है। साधक इसे जान कर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ‘ॐ’ ध्वनि आत्म-कल्याण कारक और विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी है। इन्हें स्थूल-कर्णेन्द्रियाँ नहीं सुन पाती, वरन् ध्यान-धारणा द्वारा अन्तः चेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।
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शब्दब्रह्म
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‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्त्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द हैं। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है- ‘सूक्ष्म’ और ‘स्थूल’। ‘सूक्ष्म-शब्द’ को ‘विचार’ कहते हैं और ‘स्थूल-शब्द’ को ‘नाद’।
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शब्दब्रह्म
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शब्द ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार-सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म है, वह नाद है। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों के द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ’ है। यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्त्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही उसकी ध्वनि में अन्तर आता है। वंशी के छिद्रों में हवा फूँकते हैं, तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे छिद्रों में से जिस छिद्र में जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्त्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर-लहरियों में परिणित हो जाती है। इन स्वर लहरियों को सुनना ही नादयोग है।
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मद्यकरण
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आसुत ऐल्कोहॉलयुक्त पेय दो प्रकार के होते हैं : प्रथम वे पेय हैं, जिनको सीधे आसवन की रीति से प्राप्त किया जाता है। इस वर्ग के पेय मद्यकरण उद्योग में अधिक महत्वपूर्ण हैं। द्वितीय वर्ग में उन पेय पदार्थों को संमिलित किया जाता हैं जिनमें अंतत: प्राप्त होनेवाली सुरा में कुछ विशेष तथा वांछनीय विशेषता लाने के लिये एक या अधिक संघटकों का मूल आसुत में संमिश्रण (blending) किया गया हो। सुरा में ऐल्कोहॉल का संदर्भ एथिल ऐल्कोहॉल से होता है, यद्यपि सभी अपितु सुरा में अल्प मात्रा में उच्चतर ऐल्कोहॉल भी उपस्थित होता है। औद्योगिक उपयोग में आनेवाले ऐल्कोहॉल का उत्पादन शर्करा, अथवा ऐसे पदार्थ से, जिसे शर्करा में परिवर्तित किया जा सके, होता है, जैसे स्टार्च। ऐल्कोहॉलयुक्त पेय तथा आसुत सुरा के उत्पादन में क्रमश: फलों तथा ईख के रस का तथा अनाज का उपयोग होता है। बीयर, ह्विस्की आदि का उत्पादन अनाज से होता है। ब्रैंडी, अंगूर तथा रम, ईख के रस से तैयार की जाती है। सुरा में ऐल्कोहॉल की मात्रा के लिये जिस कच्चे माल का उपयोग होता है, प्राय: वही अंतत: तैयार होनेवाली सुरा की सौरभिक तथा स्वाद संबंधी गुणों की विशेषता का कारण होता है।
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मद्यकरण
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पुर्णत: शुद्ध की हुई उदासीन (neutral) सुरा एथिल ऐल्कोहॉल होती है। इसे किसी भी उपर्युक्त लिखे हुए कच्चे माल से 190 डिग्री प्रूफ (proof) पर, अथवा इससे अधिक प्रूफ पर, आसवन करने से प्राप्त किया जा सकता है। आसवन के उपरांत प्राप्त आसुत के प्रूफ को प्राय: कम किया जाता है। ऐल्कोहॉलयुक्त पेय की सांद्रता को प्राय: "डिग्री प्रूफ" अथवा केवल "प्रूफ" में व्यक्त किया जाता है। अमरीका की परिभाषा के अनुसार प्रूफ स्पिरिट उस ऐल्कोहॉलयुक्त द्रव को कहते हैं, जिसमें 60 डिग्री फारेनहाइट ताप पर 0.7939 विशिष्ट गुरुत्व (specific gravity) का ऐल्कोहॉल, द्रव के आयतन के आधे परिमाण में, उपस्थित हो। दूसरे शब्दों में प्रूफ की संख्या ऐल्कोहॉल के आयतन के परिमाण की दुगुनी होती है। ब्रिटेन में प्रूफ स्पिरिट उस ऐल्कोहॉलयुक्त द्रव को कहते हैं जिसका भार 51 डिग्री फारेनहाइट ताप पर समान आयतन के आसुत जल के भार का 92/93 हो।
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मद्यकरण
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सुरा दो प्रकार की होती है : (1) ऋजु आसुत सुरा (straight distilled liquor) तथा (2) मध्विरा (liqueur) और कॉर्डियल (cordial)।
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मद्यकरण
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(1) ऋजु आसुत सुरा (straight distilled liquor) --इसमें ह्विस्की, ब्रैंडी, रम तथा जिन प्रमुख हैं। पीसे हुए अनाज, अथवा कई प्रकार के अनाजों के मिश्रण, के किण्वित आसुत को ह्विस्की कहा जाता है। ह्विस्की के उत्पादन में जिस अनाज का अधिकतम उपयोग हुआ हो, उसी अनाज के नाम पर ह्विस्की का नाम प्रदान किया जाता है, जैसे गेहूँ की ह्विस्की (wheat whiskey), माल्ट ह्विस्की (malt whiskey) आदि। माल्ट ह्विस्की किण्वत जौ के उपयोग से तैयार की जाती है। ह्स्विकी दो प्रकार की होती है अमिश्रित ह्विस्की (straight whiskey) तथा विशेष गुणयुक्त संमिश्रित ह्विस्की (blended whiskey)।
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मद्यकरण
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सामान्यत: फलों के किण्वित रसों से प्राप्त आसुत को ब्रैंडी कहा जाता है। यदि किसी फलविशेष का उल्लेख नहीं किया गया हो, तो ब्रैंडी का आशय अंगूर के रस से प्राप्त आसुत सुरा से होता है। ब्रैंडी में उस फल विशेष की विशेषताएँ, जिसके रस से वह तैयार की गई हो, बहुत कुछ विद्यमान होती है।
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मद्यकरण
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ईख तथा ईख के सीरे के किण्वित आसुत को रम कहा जाता है। जूनिपर बेरी (juniper berry) के आक्वाथ तथा अन्य सौरभिक जड़ी बूटियों के आसवन से जिन (gin) का उत्पादन होता है।
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मद्यकरण
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(2) मध्विरा (liqueur)-- ऋजु आसुत सुरा के अतिरिक्त अन्य सुरा में मध्विरा तथा कॉर्डियल प्रमुख हैं। इनमें ऐल्कोहॉल की मात्रा के अतिरिक्त 2.5 प्रति शत शर्करा अथवा ग्लुकोज होता है। इनका उत्पादन उदासीन आसव, ब्रैंडी, रम, जिन, अथवा अन्य आसुत सुरा को फलों, फलों के निष्कर्षण तथा अन्य सौरभिक और तीव्र सुवासवाले पदार्थों के मिश्रण से होता है।
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मद्यकरण
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स्टार्चवाले पदार्थों से सुरा के उत्पादन में सर्वप्रथम स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित करना होता है। परिवर्तन की यह क्रिया माल्ट में उपस्थित डायस्टेस ऐंज़ाइम द्वारा संपन्न की जाती है। प्राय: सभी अनाजों को माल्ट रूप में परिवर्तित किया जा सकता है, परंतु साधारण अवस्था में माल्ट का आशय अंकुरित जौ से होता है। माल्ट की क्रिया का उद्देश्य अनाज में ऐंज़ाइम का विकास करना होता है। माल्ट न केवल स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित करता है, वरन् अंतत: तैयार होनेवाली सुरा को सौरभिक सुवास तथा स्वाद प्रदान करता है। माल्ट की उत्पत्ति की रीतियों की विशेषता से स्कॉच ह्विस्की की विशेषता मानी जाती है।
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मद्यकरण
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अनाज से सुरा का उत्पादन पाँच क्रमों में होता है। इन क्रमों को क्रमश: पीसना, पाक, शर्कराकरण, अवमिश्रण तथा किण्वन कहा जाता है।
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20231101.hi_1183953_20
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पार्वतीमंगल
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सब लोग साधकों के क्लेश सुनाकर पार्वती जी को घर चलने के लिए निहोरा करते हैं पर उनकी बात कौन सुनता है और किसे घर सुहाता है? मन तो चंद्रभूषण श्रीमहादेवजी को चाहता है फिर पार्वती जी सबको समझाकर सबके मन को दृढ कर और माता-पिता की आज्ञा पा पुनः कठिन तपस्या करने लगीं, उसे तुलसी, गाकर कैसे कह सकता है.
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20231101.hi_1183953_21
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पार्वतीमंगल
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पार्वती जी की दृढ प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आए. जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है. उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुण्ड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था, ऐसे तप में मन लगा दिया.
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पार्वतीमंगल
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जिस शरीर को स्पर्श करने में वस्त्र-आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिए बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी. वे तीनों काल स्नान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं. उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन साधु लोग भी सराहते हैं.
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पार्वतीमंगल
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उनके लिए दिन-रात बराबर हो गए हैं, न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है. नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और ह्रदय में शिवजी बसे रहते हैं. कभी कंद, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिए जाते हैं.
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पार्वतीमंगल
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जब पार्वती जी ने सूखे पत्तों को भी त्याग दिया तब उनका नाम “अपर्णा” पड़ा. उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गए. पार्वती जी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और मुनिजन उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था.
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पार्वतीमंगल
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वे कहते हैं कि ऐसा तप किसी ने नहीं देखा. इस तप के योग्य फल क्या चार फल अर्थात अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष कभी हो सकते हैं? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती हैं, जाना नहीं जाता और न वे कुछ कहती ही हैं. तब शशिशेखर श्रीमहादेव जी ब्रह्मचारी का वेश बना उनके प्रेम, कठोर नियम, प्रतिज्ञा और दृढ संकल्प की परीक्षा करने के लिए गए. उन्होंने मन ही मन अपने को पार्वती जी के हाथों में सौंप दिया और पार्वती जी से समधुर वचन कहने लगे.
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उस समय पार्वती जी की दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गए और उनके ह्रदय में यह आया कि मेरा स्वभाव बड़ा ही कठोर है. यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिए साधकों को इतना तप करना पड़ता है. तब वह ब्रह्मचारी पार्वती जी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोला.
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शिवजी ने कहा – “हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना. मैं स्वाभाविक स्नेह से कहता हूँ, अपने जी में इसे सत्य जानना. तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिद्द कर दिया. तुम संसार समुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश उत्पन्न हुई हो”.
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पार्वतीमंगल
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“मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है. यह भी सच है कि निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता. परन्तु यदि तुम वर के लिए तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है, क्योंकि यदि घर में पारसमणि मिल जाए तो क्या कोई सुमेरु पर जाएगा?
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एरेटोस्थेनेज
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एरेटोस्थेनेज (इरैटोस्थनिज़) यूनान का गणितज्ञ, भूगोलविद, कवि, खगोलविद एवं संगीत सिद्धानतकार थे। वह सीखने का एक आदमी था, जो अलेक्जेंड्रिया पुस्तकालय में मुख्य पुस्तकालय अध्यक्ष बन गया। उन्होंने भूगोल के अनुशासन का आविष्कार किया, जिसमें आज प्रयोग की जाने वाली शब्दावली भी शामिल है।
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एरेटोस्थेनेज
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भूगोल को एक अलग अध्ययन शास्त्र के रूप में स्थापित किया और भूगोल के लिए GEOGRAPHICA शब्द का प्रयोग किया। इसलिए इनको व्यवस्थित भूगोल का जनक भी कहते है। इन्होंने ही भू-भौतिकी (geodesy) को जन्म दिया।
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एरेटोस्थेनेज
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वह धरती की परिधि की गणना करने वाले पहले व्यक्ति होने के लिए सबसे अच्छी तरह से जाने जाते हैं, जो उन्होंने मध्य-सूर्य के सूर्य की ऊंचाई को दो स्थानों पर ज्ञात उत्तर-दक्षिण दूरी से अलग करते हुए किया। उनकी गणना उल्लेखनीय रूप से सटीक थी। वह पृथ्वी की धुरी (फिर उल्लेखनीय सटीकता के साथ) की झुकाव की गणना करने वाले पहले व्यक्ति भी थे। इसके अतिरिक्त, उसने पृथ्वी से सूर्य की दूरी की सटीक गणना की हो और लीप दिन का आविष्कार किया हो। उन्होंने अपने युग के उपलब्ध भौगोलिक ज्ञान के आधार पर समानांतर और मेरिडियनों को शामिल करते हुए दुनिया का पहला नक्शा बनाया।
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एरेटोस्थेनेज
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इरैटोस्थनिज़ वैज्ञानिक कालक्रम के संस्थापक थे; उन्होंने ट्रॉय की विजय से मुख्य साहित्यिक और राजनीतिक घटनाओं की तिथियों को संशोधित करने का प्रयास किया। एरेटोस्टेनेस ने 1183 ईसा पूर्व ट्रॉय की बोरी की तिथि दी। संख्या सिद्धांत में, उन्होंने एराटोस्टेनेस की चाकू पेश की, जो प्राइम संख्याओं की पहचान करने की एक कुशल विधि है।
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एरेटोस्थेनेज
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एग्लाओस का पुत्र, इरैटोस्थनिज़ का जन्म 276 ईसा पूर्व में कोरिन में हुआ था। अब आधुनिक दिन लीबिया का हिस्सा, साइरेन की स्थापना सदियों पहले यूनानी द्वारा की गई थी और पांच शहरों के देश पेंटापोलिस (उत्तरी अफ्रीका) की राजधानी बन गई: साइरीन, अरसीनो, बेरेंसिस, टॉल्लेमियास और अपोलोनिया। अलेक्जेंडर द ग्रेट ने 332 ईसा पूर्व में कुरिन पर विजय प्राप्त की, और 323 ईसा पूर्व में उनकी मृत्यु के बाद, उनका नियम उनके जनरलों में से एक को टॉल्मीमी साम्राज्य के संस्थापक टॉल्मी आई सॉटर को दिया गया। टॉलेमिक शासन के तहत अर्थव्यवस्था ने बड़े पैमाने पर घोड़ों और सिलफियम के निर्यात पर आधारित, एक पौधे समृद्ध मसाला और दवा के लिए उपयोग किया। साइरीन खेती की जगह बन गई, जहां ज्ञान खिल गया। किसी भी युवा ग्रीक की तरह, एरेटोस्थेनेज ने स्थानीय जिमनासियम में अध्ययन किया होगा, जहां उन्होंने शारीरिक कौशल और सामाजिक प्रवचन के साथ-साथ पढ़ने, लिखने, अंकगणित, कविता और संगीत सीख लिया होगा।
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एरेटोस्थेनेज
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Eratosthenes मिस्र छोड़ने के बिना पृथ्वी की परिधि की गणना की। वह जानता था कि सैनी (आधुनिक असवान, मिस्र) में ग्रीष्मकालीन संक्रांति पर स्थानीय दोपहर में, सूर्य सीधे ऊपर की ओर था। (सीने अक्षांश 24 डिग्री 05 'उत्तर में है, कैंसर के उष्णकटिबंधीय के पास, जो कि 23 डिग्री 42' 100 ईसा पूर्व में उत्तर था ) वह उसे जानता था क्योंकि उस समय सीने में किसी गहरे कुएं को देखकर छाया पानी पर सूर्य के प्रतिबिंब को अवरुद्ध कर दिया। उसके बाद उन्होंने अलेक्जेंड्रिया में दोपहर में सूर्य के कोण को माप दिया, एक ऊर्ध्वाधर रॉड का उपयोग करके, जिसे एक gnomon के नाम से जाना जाता है, और जमीन पर अपनी छाया की लंबाई को मापता है। छड़ी की लंबाई और छाया की लंबाई का प्रयोग त्रिभुज के पैरों के रूप में करते हुए, उन्होंने सूर्य की किरणों के कोण की गणना की। यह लगभग 7 डिग्री, या 1/50 वें सर्कल की परिधि बन गया। पृथ्वी को गोलाकार के रूप में लेते हुए, और सीने की दूरी और दिशा दोनों को जानकर, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी की परिधि दूरी से पचास गुना थी।
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