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एरेटोस्थेनेज
एरेटोस्थेनेज अब पृथ्वी के बारे में अपने ज्ञान से जारी रखा। अपने आकार और आकार के बारे में अपनी खोजों और ज्ञान का उपयोग करके, उन्होंने इसे स्केच करना शुरू कर दिया। अलेक्जेंड्रिया की लाइब्रेरी में उनके पास विभिन्न यात्रा पुस्तकों तक पहुंच थी, जिसमें दुनिया के बारे में जानकारी और प्रतिनिधित्व के विभिन्न सामान शामिल थे जिन्हें कुछ संगठित प्रारूप में एक साथ पाई जाने की आवश्यकता थी। अपने तीन-वॉल्यूम काम ज्योग्राफि (यूनानी: ज्योग्राफिका (Geographica)) में, उन्होंने अपनी संपूर्ण ज्ञात दुनिया का वर्णन किया और मैप किया, यहां तक ​​कि पृथ्वी को पांच जलवायु क्षेत्रों में विभाजित किया: ध्रुवों के चारों ओर दो ठंडे क्षेत्र, दो समशीतोष्ण क्षेत्रों और एक जोन शामिल है भूमध्य रेखा और उष्णकटिबंधीय। उन्होंने भूगोल का आविष्कार किया था। उन्होंने शब्दावली बनाई जो आज भी उपयोग की जाती है। उन्होंने पृथ्वी की सतह पर ओवरलैपिंग लाइनों के ग्रिड लगाए। उन्होंने दुनिया में हर जगह एक साथ जोड़ने के लिए समानांतर और मेरिडियन का उपयोग किया। पृथ्वी की सतह पर इस नेटवर्क के साथ दूरस्थ स्थानों से किसी की दूरी का अनुमान लगाना अब संभव था। भूगोल में 400 से अधिक शहरों और उनके स्थानों के नाम दिखाए गए थे: यह पहले कभी हासिल नहीं हुआ था। दुर्भाग्यवश, उनकी भूगोल इतिहास में खो गई है, लेकिन काम के टुकड़े प्लिनी, पॉलीबियस, स्ट्रैबो और मारियानस जैसे अन्य महान इतिहासकारों से मिलकर मिल सकते हैं।
0.5
733.681395
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एरेटोस्थेनेज
एरेटोस्थेनेज प्राइम नंबर खोजने के लिए एक सरल एल्गोरिदम प्रस्तावित किया। यह एल्गोरिदम गणित में इरेटोस्टेनेस की चलनी के रूप में जाना जाता है।
0.5
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एरेटोस्थेनेज
गणित में, एरेटोस्थेनेज (ग्रीक: κόσκινον Ἐρατοσθένους) की चलनी, कई प्रमुख संख्याओं में से एक, एक सरल, प्राचीन एल्गोरिदम है जो किसी भी सीमा तक सभी प्रमुख संख्याओं को ढूंढने के लिए है। यह क्रमशः समग्र के रूप में चिह्नित करता है, यानी प्रमुख नहीं, प्रत्येक प्राइम के गुणक, 2 के गुणकों से शुरू होते हैं। किसी दिए गए प्राइम के गुणक उस प्राइम से शुरू होते हैं, समान अंतर वाले संख्याओं के अनुक्रम के रूप में, उस संख्या के बराबर, लगातार संख्याओं के बीच। यह प्रत्येक प्राइम द्वारा विभाज्यता के लिए अनुक्रमिक रूप से प्रत्येक उम्मीदवार संख्या का परीक्षण करने के लिए परीक्षण प्रभाग का उपयोग करने से चलनी का मुख्य भेद है।
0.5
733.681395
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कहरुवा
कहरुवा या तृणमणि (जर्मन: Bernstein, फ्रेंच: ambre, स्पेनिश: ámbar, अंग्रेज़ी: amber, ऐम्बर) वृक्ष की ऐसी गोंद (सम्ख़ या रेज़िन) को कहते हैं जो समय के साथ सख़्त होकर पत्थर बन गई हो। दूसरे शब्दों में, यह जीवाश्म रेजिन है। यह देखने में एक कीमती पत्थर की तरह लगता है और प्राचीनकाल से इसका प्रयोग आभूषणों में किया जाता रहा है। इसका इस्तेमाल सुगन्धित धूपबत्तियों और दवाइयों में भी होता है। क्योंकि यह आरम्भ में एक पेड़ से निकला गोंदनुमा सम्ख़ होता है, इसलिए इसमें अक्सर छोटे से कीट या पत्ते-टहनियों के अंश भी रह जाते हैं। जब कहरुवे ज़मीन से निकाले जाते हैं जो वह हलके पत्थर के डले से लगते हैं। फिर इनको तराशकर इनकी मालिश की जाती है जिस से इनका रंग और चमक उभर आती है और इनके अन्दर झाँककर देखा जा सकता है। क्योंकि कहरुवे किसी भी सम्ख़ की तरह हाइड्रोकार्बन के बने होते हैं, इन्हें जलाया जा सकता है।
0.5
727.512385
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कहरुवा
यह पदार्थ म्यांमार की खानों से निकलता है। यह रंग में पीला होता है और औषध में काम आता है। चीन देश में इसको पिघलाकर माला की गुरियाँ, मुँहनालइत्यादि वस्तुएँ बनाते हैं। इसकी वारनिश भी बनती है। इसे कपड़े आदि पर रगड़कर यदि घास या तिनके के पास रखें तो उसे चुंबक की तरह पकड़ लेता है।
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कहरुवा
ऐंबर एक जीवाश्म रेज़िन है। यह एक ऐसे वृक्ष का जीवाश्म रेज़िन है जो आज कहीं नहीं पाया जाता। रगड़ने से इससे बिजली पैदा होती है (यह आवेशित हो जाता है)। यह इसकी विशेषता है और इसी गुण के कारण इसकी ओर लोगों का ध्यान पहले पहल आकर्षित हुआ। आजकल ऐंबर के अनेक उपयोग हैं। इसके मनके और मालाएँ, तंबाकू की नलियाँ (पाइप), सिगार और सिगरेट की धानियाँ (होल्डर) बनती हैं।
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कहरुवा
ऐंबर बाल्टिक सागर के तटों पर, समुद्रतल के नीचे के स्तर में, पाया जाता है। समुद्र की तरंगों से बहकर यह तटों पर आता है और वहाँ चुन लिया जाता है, अथवा जालों में पकड़ा जाता है। ऐसा ऐंबर डेनमार्क, स्वीडन और बाल्टिक प्रदेशों के अन्य समुद्रतटों पर पाया जाता है। सिसली में भी ऐंबर प्राप्त होता है। यहाँ का ऐंबर कुछ भिन्न प्रकार का और प्रतिदीप्त (फ़्लुओरेसेंट) होता है। ऐंबर के समान ही कई किस्म के अन्य फ़ौसिल रेज़िन अन्य देशों में पाए जाते हैं।
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कहरुवा
ऐंबर के भीतर लिगनाइट अथवा काठ-फ़ौसिल और कभी कभी मरे हुए कीड़े सुरक्षित पाए जाते हैं। इससे ज्ञात होता है कि इसकी उत्पत्ति कार्बनिक स्रोतों से हुई है।
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कहरुवा
ऐंबर अमणिभीय और भंगुर होता है। इसका भंग शंखाभीय (कनकॉयडल) होता है। इस पर नक्काशी सरलता से हो सकती है। इसका तल चिकना और आकर्षक बनाया जा सकता है। यह साधारणतया अनियमित आकार में पाया जाता है। यह चमकदार होता है। इसकी कठोरता २.२५ से २.५०, विशिष्ट घनता १.०५ से १.१०, रंग हल्का पीला से लेकर कुछ कुछ लाल और भरा तक होता है। वायु के सूक्ष्म बुलबुलों के कारण यह मेघाभ हो सकता है। कुछ ऐंबर प्रतिदीप्त होते हैं। यह पारदर्शक, पारभासक और पारांध हो सकता है तथा ३०० डिग्री-३७५ डिग्री सें. के बीच पिघलता है। इसका वर्तनांक १.५३९ से १.५४४५ तक होता है। ऐंबर में कार्बन ७८ प्रतिशत, आक्सिजन १०.५ प्रतिशत और हाइड्रोजन १०.५ प्रतिशत, C10H16O सूत्र के अनुरूप होता है। गंधक ०.२६ से ०.४२ प्रतिशत और राख लगभग ०.२ प्रतिशत रहती है। एथिल ऐल्कोहल ओर एथिल ईथर सदृश विलायकों में गरम करने से यह घुलता है। डाइक्लोरहाइड्रिन इसके लिए सर्वश्रेष्ठ विलायक है।
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कहरुवा
ऐंबर में ३ से ४ प्रतिशत तक (मेघाभ नमूने में ८ प्रति शत तक) सकसिनिक अम्ल रहता है। ऐंबर का संगठन जानने के प्रयास में इससे दो अम्ल C20H30O4 सूत्र के, पृथक किए गए हैं, परंतु इन अम्लों के संगठन का अभी ठीक ठीक पता नहीं लगा है।
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कहरुवा
गरम करने से ऐंबर का लगभग १५० डिग्री सें. ताप पर कोमल होना आरंभ होता है और तब इससे एक विशेष गंध निकलती है। फिर ३०० डिग्री-३७५ डिग्री सें. के ताप पर पिघलता और इससे घना सफेद धुआँ निकलता है जिसमें सौरभ होता है। इससे फिर तेल निकलता है जिसे 'ऐंबर का तेल' कहते हैं।
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कहरुवा
ऐंबर के बड़े बड़े टुकड़ों से मनका आदि बनता है। छोटे छोटे और अशुद्ध टुकड़ों को पिघलाकर ऐंबर वार्निश बनाते हैं। छोटे छोटे टुकड़ों को तो अब उष्मा और दबाव से 'ऐंब्रायड' में परिणत करते हैं। आजकल प्रति वर्ष लगभग ३०,००० किलोग्राम ऐंब्रायड बनता है। यह ऐंबर से सस्ता बिकता है और ऐंबर के स्थान में बहुधा इसी का उपयोग होता है। ऐंबर के सामान जर्मनी और आस्ट्रिया में अधिक बनते हैं।
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अग्नि-4
अग्नि-4 (Agni-IV) एक इंटरमीडिएट रेंज बैलिस्टिक मिसाइल है। अग्नि-4 अग्नि श्रृंखला की मिसाइलों में चौथा मिसाइल है जिसे पहले अग्नि 2 प्राइम मिसाइल कहा जाता था। जिसे भारतीय सशस्त्र बलों के इस्तेमाल के लिए रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन द्वारा विकसित किया गया है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ने इस मिसाइल प्रौद्योगिकी में कई नई प्रौद्योगिकियों और महत्वपूर्ण सुधार को प्रदर्शित किया है। मिसाइल हल्के वजन वाली है और इसमें ठोस प्रणोदन के दो चरण और पुन: प्रवेश गर्मी कवच के साथ एक पेलोड मॉड्यूल है। यह मिसाइल अपने प्रकारों में एक अलग ही मिसाइल है, यह पहली बार कई नई प्रौद्योगिकियों को साबित करती है और मिसाइल प्रौद्योगिकी के मामले में एक क्वांटम छलांग दर्शाती है। मिसाइल वजन में हल्का है और इसमें ठोस प्रणोदन के दो चरण और पुन: प्रवेश गर्मी कवच के साथ एक पेलोड है। मिश्रित रॉकेट मोटर, जिसे पहली बार इस्तेमाल किया गया है, ने उत्कृष्ट प्रदर्शन दिया है। उच्च स्तर की विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए मिसाइल प्रणाली आधुनिक और कॉम्पैक्ट उड्डयनकी से सुसज्जित है। स्वदेशी रिंग लेजर जाइरोस्कोप आधारित उच्च सटीकता वाला जड़त्वीय नेविगेशन प्रणाली और माइक्रो नेविगेशन सिस्टम (एमआईजीआईएस) को एक-दूसरे के साथ पहली बार सफलतापूर्वक मार्गदर्शन मोड में चलाया गया है। वितरित उड्डयनकी आर्किटेक्चर, हाई स्पीड विश्वसनीय संचार बस और एक पूर्ण डिजिटल कंट्रोल सिस्टम के साथ उच्च प्रदर्शन वाले कंप्यूटर मिसाइल को लक्ष्य पर नियंत्रित और निर्देशित करता है। मिसाइल उच्च स्तर की बहुत सटीकता से लक्ष्य तक पहुंचता है। लॉन्च रेज के साथ रडार और इलेक्ट्रो ऑप्टिकल प्रणालियों ने मिसाइल के सभी मापदंडों को ट्रैक और मॉनिटर किया है।
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20231101.hi_744670_1
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अग्नि-4
डॉ विजय कुमार सारस्वत, रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार, डीआरडीओ के महानिदेशक , जिन्होंने इस प्रक्षेपण को देखा, ने अग्नि-4 के सफल प्रक्षेपण के लिए डीआरडीओ और सशस्त्र बलों के सभी वैज्ञानिकों और कर्मचारियों को बधाई दी। लॉन्च के बाद वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए, श्री अविनाश चंदर, चीफ कंट्रोलर (मिसाइल एंड स्ट्रैटेजिक सिस्टम), डीआरडीओ और अग्नि प्रोग्राम के डायरेक्टर ने इसे भारत में आधुनिक लांग रेंज नेविगेशन सिस्टम में एक नए युग के रूप में बुलाया। उन्होंने कहा, "इस परीक्षा ने अग्नि-5 मिशन की सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त किया है, जो शीघ्र ही शुरू होगा।"
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अग्नि-4
श्रीमती टेस्सी थॉमस, अग्नि-4 परियोजना की निदेशक और उनकी टीम ने मिसाइल प्रणाली को तैयार और एकीकृत किया तथा मिसाइल को सफलतापूर्वक लॉन्च किया। एक उत्साही स्वर में उन्होंने कहा कि डीआरडीओ ने मिश्रित रॉकेट मोटर्स जैसे मिसाइल प्रणाली में कई कला प्रौद्योगिकियां साबित कर दी हैं जिसमें बहुत उच्च सटीकता वाली स्वदेशी रिंग लेजर जाइरोस्कोप आधारित जड़त्वीय नेविगेशन सिस्टम, माइक्रो नेविगेशन सिस्टम, डिजिटल कंट्रोलर सिस्टम और बहुत शक्तिशाली जहाज पर कंप्यूटर सिस्टम आदि शामिल है। सेना के लिए सामरिक हथियार को ले जाने की क्षमता वाली मिसाइल ने देश के लिए एक शानदार प्रतिरोध प्रदान किया है और इसे बडी संख्या में उत्पादन कर जितनी जल्दी ही सशस्त्र बलों को दिया जाएगा। श्री एस.के. रे, निदेशक आरसीआई, श्री पी. वेणुगोपालन, निदेशक डीआरडीएल, डॉ वी.जी. सेकर्ण, एसएसएल के निदेशक और श्री एस.पी. दैश, निदेशक आईटीआर भी लॉन्च के दौरान उपस्थित थे और सभी गतिविधियों की समीक्षा की।
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अग्नि-4
डीआरडीओ ने अग्नि-4 के लिये देश में कई प्रौद्योगिकियों का उत्पादन किया। जिसमें मिश्रित रॉकेट मोटर्स, बहुत उच्च सटीकता वाला रिंग लेजर जियोरो आधारित जड़त्वीय नेविगेशन सिस्टम, माइक्रो नेविगेशन सिस्टम, डिजिटल कंट्रोलर सिस्टम और बहुत शक्तिशाली कंप्यूटर सिस्टम शामिल था। अग्नि-4 अग्नि-2 और अग्नि-3 के बीच की खाई को भरने के लिये पुल के रूप में कार्य करता है। अग्नि 4 1 टन का हथियार ले जा सकता है। यह उच्च रेंज प्रदर्शन के साथ मार दक्षता बढ़ाने के लिए बनाया गया है। अग्नि 4 अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों से लैस है, जिसमें स्वदेशी तौर पर विकसित रिंग लेजर जियोरोऔर मिश्रित रॉकेट मोटर शामिल हैं। यह ठोस प्रणोदक द्वारा संचालित एक दो चरण वाली मिसाइल है। इसकी लंबाई 20 मीटर है और लांच वजन 17 टन है। इसे सड़क के मोबाइल लांचर से लॉन्च किया जा सकता है। इस मिसाइल का निर्माण दुश्मान देश की एन्टी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम को भेदने के लिये किया गया है। क्युकि इस मिसाइल में राडर से बचने के क्षमता है जो इसे दुश्मान देश की एन्टी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम से बचाती है और अपने लक्ष्य पर बिना अवरोधन के वार करने में सक्षम बनाता है।
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अग्नि-4
15 नवंबर 2011: उड़ीसा तट पर व्हीलर द्वीप से 9:00 बजे सड़क पर एक मोबाइल लॉन्चर से, अग्नि-4 को पहली बार सफलतापूर्वक ळोन्च किया गया। मिसाइल ने अपनी प्रक्षेपवक्र के बाद 900 किमी की ऊंचाई हासिल की और बंगाल की खाड़ी के अंतरराष्ट्रीय जल सीमा में पूर्व-निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचा। सभी मिशन उद्देश्य पूरी तरह से पूरे हुए थे। 3,000 डिग्री सेल्सियस (5,430 डिग्री फारेनहाइट) से अधिक के पुन: प्रवेश तापमान का सामना करने के अंत तक सभी सिस्टम ने पूरी तरह से कार्य किया।
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अग्नि-4
19 सितंबर 2012: उड़ीसा तट पर, व्हीलर द्वीप से 4,000 किलोमीटर की पूरी श्रृंखला के लिए फिर से मिसाइल का परीक्षण किया गया। मिसाइल सुबह 11.48 बजे पर एक सड़क मोबाइल लांचर से लॉन्च किया गया था। और 800 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुचने के बाद, इसने वायुमंडल में फिर से प्रवेश किया और 20 मिनट की उड़ान के बाद सटीकता की उल्लेखनीय डिग्री के साथ हिंद महासागर में पूर्व-नियुक्त लक्ष्य पर वार किया। एक टन वजन वाले विस्फोटकों का पेलोड ले जाने के बाद मिसाइल ने वातावरण में फिर से प्रवेश किया और 3,000 डिग्री सेल्सियस (5,430 डिग्री फारेनहाइट) से अधिक तापमान का सामना किया।
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अग्नि-4
20 जनवरी 2014: उड़ीसा तट से व्हीलर द्वीप पर एकीकृत परीक्षण रेंज के लांच कॉम्प्लेक्स-4 से, सामरिक बल कमान (एसएफसी) ने वास्तविक हथियार और सड़क-मोबाइल विन्यास में मिसाइल का परीक्षण किया। मिसाइल ने 850 किलोमीटर की ऊर्ध्वाधर दूरी तय की और इसकी पूरी श्रृंखला 4,000 किमी तक पहुची। मिसाइल पर रिंग लेजर जियरो-आधारित जड़त्वीय नेविगेशन प्रणाली (आरआईएनएस) और माइक्रो-नेविगेशन सिस्टम (एमआईजीआईएस) ने मिसाइल को अपने लक्ष्य के 100 मीटर के भीतर गिरने में सक्षम बनाया। 4,000 डिग्री सेल्सियस (7,230 डिग्री फारेनहाइट) के उच्च तापमान के साथ फिर से पुन:प्रवेश शील्ड ने वैमानिकी के अन्दर 50 डिग्री सेल्सियस (122 डिग्री फारेनहाइट) से कम तापमान करने में सक्षम बना रहा। मिसाइल की उन्पादन लाइन 2014 या 2015 के प्रारंभ से शुरू होगी थी।
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अग्नि-4
2 दिसंबर 2014: सेना की सामरिक बल कमान (एसएफसी) ने मिसाइल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। यह पहला उपयोगकर्ता परीक्षण था और लगातार चौथी सफल उड़ान थी। मिसाइल को भारतीय सेना में शामिल किया चुका है।
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अग्नि-4
9 नवंबर 2015: त्रि-सेवा सामरिक बल कमान (एसएफसी) द्वारा उपयोगकर्ता परीक्षण के भाग के रूप में अग्नि-4 का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया। डीआरडीओ अधिकारियों के अनुसार, मिसाइल सभी मिशन पैरामीटरों पर खरी उतरी।
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महासमुंद
महासमुंद (Mahasamund) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के महासमुन्द ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और महानदी के किनारे बसा हुआ है।
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महासमुंद
महासमुंद अपनी प्राकृतिक सुन्दरता, रंगारंग उत्सवों और त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर पूरे वर्ष मेले आयोजित किए जाते हैं। स्थानीय लोगों में यह मेले बहुत लोकप्रिय है। स्थानीय लोगों के अलावा पर्यटकों को भी इन मेलों में भाग लेना बड़ा अच्छा लगता है। इन मेलों में चैत्र माह में मनाया जाने वाला राम नवमी का मेला, वैशाख में मनाया जाने वाला अक्थी मेला, अषाढ़ में मनाया जाने वाला माता पहुंचनी मेला आदि प्रमुख हैं। मेलों और उत्सवों की भव्य छटा देखने के अलावा पर्यटक यहां के आदिवासी गांवों की सैर कर सकते हैं। गांवों की सैर करने के साथ वह उनकी रंग-बिरंगी संस्कृति से भी रूबरू हो सकते हैं। यहां रहने वाले आदिवासियों की संस्कृति पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। वह आदिवासियों की संस्कृति की झलक अपने कैमरों में कैद करके ले जाते हैं।
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महासमुंद
महानदी पर स्थित सिरपुर में पर्यटक दक्षिण कोसल के ऐतिहासिक पर्यटक स्थलों को देख सकते हैं। पहले यह सोमवंशीय राजाओं की राजधानी थी और इसे श्रीपुर के नाम से जाना जाता था। बाद में यह श्रीपुर से सिरपुर हो गया। सिरपुर भारत के प्रमुख ऐतिहासिक पर्यटक स्थलों में से एक है क्योंकि प्राचीन समय में यह विज्ञान और आध्यात्म की शिक्षा का बड़ा केन्द्र था।
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महासमुंद
महासमुन्द में स्थित लक्ष्मण मन्दिर भारत के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह मन्दिर बहुत खूबसूरत है और इसके निर्माण में पांचरथ शैली का प्रयोग किया गया है। मन्दिर का मण्डप, अन्तराल और गर्भ गृह बहुत खूबसूरत है, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इसकी दीवारों और स्तम्भों पर भी सुन्दर कलाकृतियां देखी जा सकती हैं, जो बहुत खूबसूरत हैं। इन कलाकृतियों के नाम वातायन, चित्या ग्वाकक्षा, भारवाहकगाना, अजा, किर्तीमुख और कर्ना अमालक हैं। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर शेषनाग, भोलेनाथ, विष्णु, कृष्ण लीला की झलकियां, वैष्णव द्वारपाल और कई उनमुक्त चित्र देखे जा सकते हैं। यह चित्र मन्दिर की शोभा में चार चांद लगाते है और पर्यटकों को भी बहुत पसंद आते हैं।
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महासमुंद
शिरपुर अपने बौद्ध विहारों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इन बौद्ध विहारों में आनन्द प्रभु विहार और स्वास्तिक विहार प्रमुख हैं। आनन्द प्रभु विहार का निर्माण भगवान बुद्ध के अनुयायी आनन्द प्रभु ने महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल में कराया था। इसका प्रवेश द्वार बहुत सुन्दर हैं। प्रवेश द्वार के अलावा इसके गर्भ-गृह में लगी भगवान बुद्ध की प्रतिमा भी बहुत खूबसूरत है जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। विहार में पूजा करने और रहने के लिए 14 कमरों का निर्माण भी किया गया है। आनन्द प्रभु विहार के पास स्थित स्वास्तिक विहार भी बहुत सुन्दर है जो हाल में की गई खुदाई में मिला है। कहा जाता है कि बौद्ध भिक्षु यहां पर तपस्या किया करते थे।
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महासमुंद
महानदी के तट पर स्थित गंधेश्वर महादेव मन्दिर बहुत खूबसूरत है। इसका निर्माण प्राचीन मन्दिरों और विहारों के अवेशषों से किया गया है। मन्दिर में पर्यटक खूबसूरत ऐतिहासिक कलाकृतियों को देख सकते हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती हैं। इन कलाकृतियों में नटराज, शिव, वराह, गरूड़, नारायण और महिषासुर मर्दिनी की सुन्दर प्रतिमाएं प्रमुख हैं। इसके प्रवेश द्वार पर शिव-लीला के चित्र भी देखे जा सकते हैं, जो इसकी सुन्दरता में चार चांद लगाते हैं।
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महासमुंद
भारतीय पुरातत्व विभाग ने लक्ष्मण मन्दिर के प्रांगण में एक संग्रहालय का निर्माण भी किया है। इस संग्रहालय में पर्यटक शिरपुर से प्राप्त आकर्षक प्रतिमाओं को देख सकते हैं। इन प्रतिमाओं के अलावा संग्रहालय में शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ी कई वस्तुएं देखी जा सकती हैं, जो बहुत आकर्षक हैं। यह सभी वस्तुएं इस संग्रहालय की जान हैं।
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महासमुंद
महासमुन्द की पश्चिमी दिशा में 10 कि॰मी॰ की दूरी पर श्वेत गंगा स्थित है। गंगा के पास ही मनोरम झरना और मन्दिर है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। माघ की पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन यहां पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में स्थानीय निवासी और पर्यटक बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं। श्रावण मास में यहां पर भारी संख्या में शिवभक्त इकट्ठे होते हैं और यहां से कांवड़ लेकर जाते हैं। वह कावड़ के जल को गंगा से 50 कि॰मी॰ दूर शिरपुर गांव के गंडेश्वर मन्दिर तक लेकर जाते हैं और मन्दिर के शिवलिंग को इस जल से नहलाते हैं। अपनी इस यात्रा के दौरान भक्तगण बोल बम का उद्घोष करते हैं। उस समय शिरपुर छोटे बैजनाथ धाम जैसा लगता है।
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महासमुंद
पर्यटकों की सुविधा के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हवाई अड्डे का निर्माण किया गया है। यहां से पर्यटक बसों व टैक्सियों द्वारा आसानी से महासमुन्द तक पहुंच सकते हैं।
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टोरोंटो
टोरोंटो संगीत, थिएटर,, फिल्म निर्माण,, और टीवी शो के निर्माण के लिए एक मुख्य स्थल है। यह कनाडा के मुख्य राष्ट्रीय ब्रॉडकास्ट नेटवर्क्स और मीडिया आउटलेट्स का मुख्यालय भी है। इसके कई सांस्कृतिक संस्थान हर साल करीब 4 करोड़ लोगों को आकर्षित करता है। टोरोंटो को इसकी ऊँची इमारतों के लिए जाना जाता है, खासकर कि CN टावर, जो पश्चिमी गोलार्द्ध का सबसे ऊँची इमारत है।
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टोरोंटो
टोरोंटो शेयर बाजार, और कनाडा के पाँच सबसे बड़े बैंकों के मुख्यालय यहीं स्थित हैं। इस शहर की अर्थव्यवस्था को इसकी प्रौद्योगिकी, वित्तीय सेवाएँ, विज्ञान, शिक्षा, कला, पहनावा, पार्यावारणिक नवाचार, भोजन, और पर्यटन, काफी बढ़ावा देते हैं।
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टोरोंटो
'टोरोंटो' शब्द को अंग्रेज़ी और फ्रेंच में कई वर्तनियों में लिखा गया था जैसे 'Tarento', 'Tarontha', 'Taronto', 'Toranto', 'Torento', 'Toronto', और 'Toronton'। "टोरोंटो" शब्द का उल्लेख सबसे पहले 1632 सन् में हुरोन भाषा के फ्रेंच संस्करण में हुआ था। इसका उल्लेख फ्रेंच भाषा में भी कई दूसरे जगहों को सन्दर्भित करते हुए किया गया था। इस नाम का तब इस्तेमाल होने लगा जब ओंटेरियो झील से हूरोन झील तक के राह को 'टोरोंटो कैरयिंग-प्लेस ट्रेल' (Toronto Carrying-Place Trail) बुलाया जाने लगा।
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टोरोंटो
1660 युग में इरोकोई जाति ने वर्तमान टोरोंटो के स्थान पर दो गाँवों की स्थापना की। ये थे रूज नदी के तट पर गानातसेकव्यागॉन, और हंबर नदी के तट पर तेयायागॉन। 1701 में मिसिसौगा जाति ने इरोकोइयों पर हमला कर दिया जिससे वे इन गाँवों को छोड़कर वर्तमान न्यू यॉर्क क्षेत्र में आकर बस गए।
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टोरोंटो
फ्रेंच व्यापारिकों ने 1750 में फोर्ट रूइल की स्थापना की (वर्तमान प्रदर्शनी भूमि को यहाँ बसाया गया है), मगर सप्तवर्षीय युद्ध के दौरान इस जगह को छोड़ दिया। 1763 में ब्रिटिशों ने फ्रांस और उनके देशज साथियों को हरा दिया और इस जगह को क्युबेक नामक ब्रिटिश कॉलनी बना दिया।
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टोरोंटो
जब अपर कनाडा के प्रांत को बनाया जा रहा था, इसे एक राजधानी की ज़रूरत थी तो 1787 में ब्रिटेन के लॉर्ड डोरचेस्टर ने टोरोंटो क्षेत्र में 1000 कि.मि.2 के क्षेत्र को खरीदने का आयोजन किया। डोरचेस्टर ने इस जगह का नाम टोरोंटो रखना चाहा। 1813 में 1812 के युद्ध के दौरान यॉर्क के युद्ध में संयुक्त राष्ट्र ने शहर पर कब्ज़ कर लिया। जॉन स्ट्राचन ने शहर के आत्मसमर्पण के लिए एक समझौता में प्रवेश किया। पाँच दिन के अपने कब्ज़े के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने गढ़ के अधिकांश भाग को तबाह कर दिया और सांसद भवनों में आग लगा दी। यॉर्क में हुई इस तबाही के बदले में ब्रिटिश ने वाशिंगटन डी.सी. को जलाकर बदला लिया।
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टोरोंटो
6 मार्च 1834 में यॉर्क को टोरोंटो नगर के रूप में निगमित किया गया और इसे एक देशज नाम दिया गया। राजनीतिज्ञ विलियम ल्योन मकेंज़ी टोरोंटो के पहले महापौर बने और उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ़ अपर कनाडा विद्रोह की सृष्टि की। उस समय टोरोंटो के 9,000 की आबादी में अफ्रीकी-अमेरिकी ग़ुलामों की संख्या अधिक थी। कुछ काले वफादार भी थे जिन्हें नोवा स्कोश्या में बसाया गया था। कुछ समय के लिए टोरोंटो कनाडा प्रांत की राजधानी थी: पहले 1849 से 1852 तक क्योंकि मॉन्ट्रियल में दंगों की संभावना बढ़ रही थी, और बाद में 1856 से 1858 तक। उसके बाद 1866 तक क्युबेक को कनाडा की रादधानी बना दिया गया (कनाडाई परिसंघ के एक वर्ष पहले तक)। उसके बाद से कनाडा की राजधानी ओटावा, ओंटेरियो रही है। इसके औपचारिक सृष्टि के बाद टोरोंटो 1867 में ओंटेरियो प्रांत की राजधानी बन गई। ओंटारियो विधानमंडल की सरकार की सीट क्वींस पार्क में है। 1921 में शहर के यातायात प्रक्रिया को सार्वजनिक कर दिया गया।
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टोरोंटो
2003 में शहर को अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण मिला जब यह शहर एक SARS महामारी का केंद्र बना। बीमारी को फैलने से रोकने के लिए उठाए गए कदमों ने अस्थायी रूप से शहर की अर्थव्यवस्था को गतिहीन कर दिया। 14–17 अगस्त 2003 को यह शहर एक विशाल ब्लैकआउट से गुज़रा जिसने लाखों टोरोंटोनियनों को प्रभावित किया। इसके दौरान कुछ लोग ऊँची इमारतों के ऊपर भटक गए, ट्रैफिक लाइट्स बंद हो गए और सबवे सेवा में रोक आ गई। कनाडा में कोविड-19 महामारी का पहला केस टोरोंटो में आया था और यह शहर के कुछ केंद्रों में से एक है।
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टोरोंटो
टोरोंटो के क्षेत्र में फैला है, और इसके उत्तरी केंद्र से दक्षिणी केंद्र की दूरी है । ओंटेरियो झील के पश्चिमोत्तरी तट पर यह की लंबाई में फैला है। टोरोंटो द्वीप और पोर्ट भूमि झील के ऊपर मौजूद हैं जिससे टोरोंटो बंदरगाह का निर्माण होता है। 1950 और 1960 के युग में एक और बंदरगाह का निर्माण हुआ था और अब इसका इस्तेमाल मनोरंजन के लिए होता है।
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षड्गोस्वामी
षड्गोस्वामी (छः गोस्वामी) से आशय छः गोस्वामियों से है जो वैष्णव भक्त, कवि एवं धर्मप्रचारक थे। इनका कार्यकाल १५वीं तथा १६वीं शताब्दी था। वृन्दावन उनका कार्यकेन्द्र था। चैतन्य महाप्रभु ने जिस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी गई थी, उसके संपोषण में उनके षण्गोस्वामियों की अत्यंत अहम् भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया।
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षड्गोस्वामी
चैतन्य महाप्रभु 1572 विक्रमी में वृन्दावन पधारे। वे व्रज की यात्रा करके पुनः श्री जगन्नाथ धाम चले गये परंतु उन्होंने अपने अनुयाई षड् गोस्वामियों को भक्ति के प्रचारार्थ वृन्दावन भेजा। ये गोस्वामी गण सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने युग के महान विद्वान, रचनाकार एवं परम भक्त थे। इन गोस्वामियों ने वृंदावन में सात प्रसिद्ध देवालयों का निर्माण कराया जिनमें ठाकुर मदनमोहनजी का मंदिर, गोविन्द देवजी का मंदिर, गोपीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं।
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षड्गोस्वामी
रसिक कवि कुल चक्र चूडामणि श्री जीव गोस्वामी महराज षण्गोस्वामी गणों में अन्यतम थे। उन्होंने परमार्थिक नि:स्वार्थ प्रवृत्ति से युक्त होकर सत्सेवाव जन कल्याण के जो अनेकानेक कार्य किए वह स्तुत्य हैं। चैतन्य महाप्रभु के सिद्धान्तानुसार हरिनाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था।
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षड्गोस्वामी
वह मात्र 20 वर्ष की आयु में ही सब कुछ त्याग कर वृंदावन में अखण्ड वास करने आ गए थे। उनका भक्तिभावव वैराग्य अद्भुत था। भक्त-श्रद्धालओं के द्वारा उनके पास जो भी धन आता था, उसे वह अत्यन्त आदर के साथ यमुना में विसर्जितकर देते थे। उन्होंने मीराबाईको रागानुगाभक्ति का रहस्य समझाते हुए उन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप तत्व को हृदयंगम कराया था। ब्रजमण्डलमें युगल विग्रह की उपासना का शुभारंभ श्री जीव गोस्वामी ने ही किया था। साधु सेवा का विधान उन्हीं के द्वारा प्रारंभ हुआ। उन्हें गौडीयसम्प्रदाय का अपने गुरु के बाद दूसरा अध्यक्ष बनाया गया था।
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षड्गोस्वामी
श्री जीव गोस्वामी का जन्म पौषशुक्ल तृतीया, संवत् 1568 (सन् 1511) को बंगाल के रामकेलिग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री अनुपम गोस्वामी था। उन्होंने अपनी बाल्यावस्था में ही अपने स्वाध्याय के द्वारा विभिन्न शास्त्रों, पुराणों, वेदों व उपनिषदों आदि पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया था। वह श्रीमद्भागवत के अनन्य अनुरागी थे। उनकी शिक्षा दीक्षा काशी व वृंदावन में हुई।
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षड्गोस्वामी
एक रात्रि जब श्री रूप गोस्वामी सो रहे थे तब ठाकुर राधा दामोदर ने उन्हें यह स्वप्न दिया कि तुम अपने शिष्य व मेरे भक्त जीव गोस्वामी के लिए दामोदर स्वरूप को प्रकट करो। तुम मेरे प्रकट विग्रह को मेरी नित्य सेवा हेतु जीव गोस्वामी को दे देना। इस घटना के तुरन्त बाद जब रूप गोस्वामी यमुना स्नान करके आ रहे थे, तो उन्हें रास्ते में श्याम रंग का विलक्षण शिलाखण्ड प्राप्त हुआ। तत्पश्चात ठाकुर राधा दामोदर ने उन्हें अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिलाखण्ड को दामोदर स्वरूप प्रदान किया। यह घटना माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1599 (सन् 1542) की है।
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षड्गोस्वामी
यह दिन वृंदावन में ठाकुर राधा दामोदर प्राकट्य महोत्सव के रूप में अत्यन्त धूमधाम के साथ मनाया जाता है। स्वप्नादेशके अनुसार रूप गोस्वामी ने दामोदर विग्रह को अपने शिष्य जीव गोस्वामी को नित्य सेवा हेतु दे दिया। जीव गोस्वामी ने इस विग्रह को विधिवत् ठाकुर राधा दामोदर मंदिर के सिंहासन पर विराजितकर दिया। जीव गोस्वामी को अपने ठाकुर राधा दामोदर के युगल चरणों से अनन्य अनुराग था। उनके रसिक लाडले ठाकुर राधा दामोदर भी उन्हें कभी भी स्वयं से दूर नहीं जाने देते थे।
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षड्गोस्वामी
वह यदि कभी उनसे दूर चले भी जाएं, तो उनके ठाकुर उन्हें अपनी वंशी की ध्वनि से अपने समीप बुला लेते थे। श्री जीव गोस्वामी शृंगार रस के उपासक थे। सम्राट अकबर ने गंगा श्रेष्ठ है या यमुना, इस वितर्क को जानने के लिए जीव गोस्वामी को अपने दरबार में बडे ही सम्मान के साथ बुलाया था। इस पर उन्होंने शास्त्रीय प्रमाण देते हुए यह कहा कि गंगा तो भगवान का चरणामृत है और यमुना भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी। अतएव यमुना, गंगा से श्रेष्ठ है। इस तथ्य को सभी ने सहर्ष स्वीकार किया था। जीव गोस्वामी के द्वारा रचित ग्रंथ सर्व संवादिनी, षट्संदर्भ एवं श्री गोपाल चम्पू आदि विश्व प्रसिद्ध हैं। षट् संदर्भ न केवल गौडीयसम्प्रदाय का अपितु विश्व वैष्णव सम्प्रदायों का अनुपम दर्शन शास्त्र है। वस्तुत:यह ग्रंथ जीव गोस्वामी का अप्राकृत रसवाहीज्ञान-विज्ञान दर्शन है। षट् संदर्भ ग्रंथ का अध्ययन, चिन्तन व मनन उन व्यक्तियों के लिए परम आवश्यक है, जो भक्ति के महारससागर में डुबकी लगाना चाहते हैं। गौडीयवैष्णव सम्प्रदाय की बहुमूल्य मुकुट मणि श्री जीव गोस्वामी का अपने जन्म की ही तिथि व माह में पौषशुक्ल तृतीया, संवत् 1653 (सन् 1596) को वृंदावन में निकुंज गमन हो गया। वृंदावन के सेवाकुंजमोहल्ला स्थित ठाकुर राधा दामोदर मंदिर में जीव गोस्वामी का समाधि मंदिर स्थापित है। यहां उनकी वह याद प्रक्षालन स्थली भी है, जिसकी रज का नित्य सेवन करने से प्रेम रूपी पंचम पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है और व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
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षड्गोस्वामी
श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, बहुत कम आयु में ही गौरांग की कृपा से यहां आ गए थे। दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए गौरांग चार माह इनके घर पर ठहरे थे। बाद में इन्होंने गौरांग के नाम संकीर्तन में प्रवेश किया। इन्होने स्वयं को वैष्णव नियमों के पालन में श्रेष्ठ सिद्ध किया, कई वैष्णव ग्रन्थ लिखे, व वृंदावन में श्री राधा रमण मंदिर का निर्माण कराया। इनके चाचा श्री प्रबोधानंद सरस्वती थे। उन्हीं से भट्ट जी ने दीक्षा ली थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
ये चौकोर होती हैं और निर्दिष्ट चालनव्यवस्था के अनुसार दो प्रकार की होती हैं - सरकनेवाली कोठियों में लकड़ी के गुटके लगे रहते हैं, जिनके बल वे चिनाई के ऊपर बने रास्ते पर खिसकाकर यथास्थान पहुँचाई जाती हैं। दूसरे प्रकार की पहिएवाली कोठियाँ होती हैं, जो देहल पर लगी पटरियों पर चलती हैं। कभी पहिए फर्श पर और पटरियाँ कोठियों में लगी होती है। पारगामी कोठियाँ जब द्वार खोलने के लिए खिसकाई जाती हैं, तब वे दीवार के भीतर बनी लंबी-लंबी झिर्रियों में घुस जाती हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
सूखी गोदियों में एक या अधिक जहाज अंदर लाकर, फाटक बंद करके पंपों द्वारा पानी निकाल देने का प्रबंध रहता है। इसकी दीवारों और पेंदे पर जलाभेद्य पदार्थ, जैसे कंक्रीट-सहित ईटों की चिनाई या ग्रैनाइट मुखाई, का अस्तर किया रहता है। जहाँ ऊँचे ज्वार भाटे आया करते हैं, वहाँ कभी-कभी उनका लाभ उठाकर ज्वार के समय जहाज अंदर ले आते हैं और भाटे के बाद फाटक बंद कर देते हैं। इस प्रकार पंप द्वारा पानी निकालने की आवश्यकता नहीं रहती।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
जहाजों के निर्माण, निरीक्षण और मरम्मत आदि के लिए सूखी गोदियाँ सभी जगह आवश्यक समझी जाती हैं और इनके अभिकल्प के समय भावी विस्तार की गुंजाइश भी रखी जाती है। सूखी गोदी की उपयोगिता इस दृष्टि से आँकी जाती है कि उसमें लंबे से लंबा कितना बड़ा जहाज आ सकता है। बंबई की गोदी, जो सन् १९१४ में चालू हुई, १,००० फुट लंबी, १०० फुट चौड़ी और ३४ फुट ९ इंच गहरी है। यह उस समय संसार की गोदियों में दूसरे नंबर पर थी। इसके पहले ही सन् १९१३ में, लिवरपूल की १,०५० फुट ४ इंच लंबी, १२ फुट चौड़ी और ४३ फुट ११ इंच गहरी, ग्लैड्स्टन गोदी तैयार हो चुकी थी। अब केपटाउन की १,२१२ फुट ६ इंच लंबी, १४८ फुट चौड़ी और ४५ फुट गहरी सूखी गोदी, जो सन् १९४५ में चालू हुई है, संसार में सबसे बड़ी है।
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गोदी
तिरती गोदियों को उठाने की सामर्थ्य ३०० टन से १,००,००० टन तक होती है। द्वितीय विश्वमहायुद्ध के पहले कैंपबेल डिज़ाइन बहुत प्रचलित थी, जिसके अनुसार सदैंप्टन में विशालतम अटलांटिक लाइनरों (liners) और युद्धपोतों को स्थान देने के लिए ६०,००० टन की तिरती गोदी बनी। बाद में तो और भी बड़ी-बड़ी गोदियों की आवश्यकता का अनुभव हुआ। पोर्टस्मथ की ५४,००० टन की 'ऐडमिरेल्टी'' तिरती गोदी ८५९ फुट ६ इंच लंबी और भीतर भीतर १२९ फुट ६ इंच चौड़ी है। यह पानी में ३८ फुट डूबनेवाला जहाज उठा सकती है। द्वितीय विश्वयुद्ध में बमनवर्षा द्वारा नष्ट हुई सिंगापुर की गोदी का स्थान लेने के लिए ५०,००० टन की ८५७ फुट ८ इंच लंबी, १२६ फुट ६ इंच चौड़ी और कुल ४० फुट गहरी गोदी बंबई में १९४७ ई. में तैयार की गई, जो बाद में माल्टा पहुँचाई गई।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
तिरती गोदियाँ बड़ी सरलता और तेजी से तैयार की जा सकती हैं, स्थानांतरित की जा सकती हैं और स्थितविशेष के अनुकूल ढाली जा सकती हैं। इसलिए ये जहाजों की आपातकालीन मरम्मत के लिए सुखी गोदियों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान् होती हैं। किंतु लोहे या इस्पात की होने के कारण ये ३०-४० वर्ष से अधिक नहीं चलतीं। इनके लिए सुरक्षित स्थान भी चाहिए और अधिक गहराई भी। जहाँ ५०० फुट लंबे, ५५ फुट चौड़े और २८ फुट डूबकर चलनेवाले जहाज के लिए ५२० फुट लंबी, ६० फुट चौड़ी और ३० फुट गहरी सूखी गोदी पर्याप्त होगी, वहाँ तिरती गोदी जहाज के नीचे जाने के लिए २० फुट गहराई और लेगी; और यदि १५-२० फुट ऊँचा ज्वार भाटा आता है (जो बहुत सामान्य है), तो तिरती गोदी के लिए लगभग ७० फुट गहरा पानी चाहिए। यदि कुदरती गहराई इतनी नहीं है, तो तलकर्षण द्वारा इतनी करनी पड़ेगी। सामान्य परिस्थितियों में यह कठिन ही नहीं, प्राय: असंभव है। हाँ, तिरती गोदी की लंबाई चौड़ाई जाहज की लंबाई चौड़ाई से अधिक होनी अनिवार्य नहीं है, केवल उसकी उत्थापन क्षमता जहाज के वजन से अधिक होनी चाहिए।
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गोदी
तिरती गोदियाँ कई प्रकार की होती हैं। कुछ में दोनों और दीवारें होती हैं, कुछ में केवल एक और। दोनों और दीवारवाली गोदियों में बक्से जैसी, काबला-योज्य खंडोंवाली और पीपा खंडों वाली (रेनी द्वारा आविष्कृत) गोदियों का बहुत प्रचलन है। काबलायोज्य खंडोंवाली आधुनिक गोदी में बक्स जैसी गोदी के सभी गुण हैं। यह बड़ी गोदियों में सबसे अच्छी होती है। इसमें लगभग एक सी लंबाई के तीन खंड होते हैं, जो सब एक सीध में जोड़े जा सकते हैं, रखे जाते हैं और उनपर दोनों ओर दो दीवारें काबलों द्वारा कस दी जाती हैं। इनमें कुछ पीपे निकालकर, शेष पीपों के ऊपर दीवारों के बीच लंबाई की दिशा में रखे जा सकते हैं। हवाना की स्पेनी सरकार के लिए सर्वप्रथम बनाई गई, हवाना प्रकार की गोदी में दो खड़ी दीवारें होती हैं, जिनके बीच में पीपे रखकर काबलों से जोड़ दिए जाते हैं। इनमें से कोई भी पीपा निकालकर शेष के ऊपर रखा जा सकता है। यह टाइप अब प्राचीन हो गई है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
एक ओर दीवारवाली गोदी की दो किस्में प्रसिद्ध हैं। अपतट गोदी १८८४ ई॰ में पेटेंट हुई थी। इसकी दीवार तट के के साथ कब्जे लगे गडंरों द्वारा जुड़ी होती है। गोदी दो खंडों में होती है और एक खंड दूसरे के ऊपर रखा जा सकता है। एक ही ओर दीवार होने के कारण इसमें जहाज तीन ओर से चढ़ाए जा सकते हैं। दूसरी किस्म की गोदी निक्षेप गोदी कहलाती है, जो सन् १८७७ में पेटेंट हुई थी। इसमें दीवार तो लंबी होती है, किंतु नीचे पीपों के बीच बीच जगह रहती है, अर्थात् दीवार में पीपे इस प्रकार लगे होते हैं जैसे हाथ में उँगलियाँ। इन पीपों पर रखा हुआ जहाज तट पर बने हुए स्थूणों के जंगले के ऊपर रखा जा सकता है और गोदी खाली की जा सकती है। यह भी दो खंडों में होती है, जो एक दूसरे के ऊपर रखे जा सकते हैं। स्थिरता के लिए ये खंड कब्जों से लगे समांतर दंडों के द्वारा एक तिरती उलड़ी, या रोकलीवर, से जुड़े रहते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
ये पोत परिवहन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। आधुनिक पत्तनों में इनकी पर्याप्त व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। इनका उद्देश्य यह है कि समुद्र से आसानी से पोत आ जा सकें, उन्हें पर्याप्त तथा सुरक्षित घाट मिले, नौभार तेजी से चढ़ाने उतारने की सुविधा हो, घाटों पर नौभार लाने और वहाँ से ले जाने की तथा आवश्यकता हो तो उसे गोदाम में रखने की, समुचित व्यवस्था हो। इन सुविधाओं में सुधार कर देने से प्राय: गोदियों के विस्तार में होनेवाला बहुत सा खर्च बचाया जा सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A5%80
गोदी
नौभार से निपटने की विधियाँ विभिनन पत्तनों में भिन्न-भिन्न होती हैं। कहीं पर माल घाट पर उतारकर सीधे रेलगाड़ियों में, या अन्य गाड़ियों में, लाद दिया जाता है। कहीं पर बड़े जहाजों से माल छोटे जहाजों पर उतार लिया जाता है। कहीं-कहीं ये दोनों तरीके अपनाए जाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
पुण्य और अपुण्य रूप हेतु से कर्माशय सुखफल और दु:खफल को देता है - यह मान्यता योगसूत्र (२/१४) में है। सभी दार्शनिक संप्रदाय में यह मान्यता किसी न किसी रूप से विद्यमान है। पाप और पुण्य परस्पर विरुद्ध हैं, अत: इन दोनों का परस्पर के प्रति अभिभव प्रादुर्भाव होते रहते हैं। यह दृष्टि भी सार्वभौभ है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
सात्विक-कर्म-रूप पुण्याचरण से प्राप्त होनेवाला स्वर्ग लोक क्षयिष्णु है, पुण्य के क्षय हाने पर स्वर्ग से विच्युति होती है, इत्यादि मत सभी शास्त्रों में पाए जाते हैं। शतपथ (६/५/४/८) आदि ब्राह्मण ग्रंथ एवं महाभारत (वनपर्व ४२/३८) में यह भी एक मत मिलता है कि पुण्यकारी व्यक्ति नक्षत्रादि ज्योतिष्क के रूप से विद्यमान रहते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
पुण्य चूँकि चित्त में रहनेवाला है, अत: पुण्य का परिहार कर चित्तरोधपूर्वक कैवल्य प्राप्त करना मोक्षदर्शन का अंतिम लक्ष्य है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
परन्तु ना कोई पूरी तरहां से सज्जन है ना दुष्ट है ना सामान्य है सब में कुछ अच्छाईयां व बुराईयाँ होती है ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
अनैतिकतावाद आंतकवाद का कारण धर्म ग्रंथों का सही अर्थ को ना समझकर भ्रमित होकर हिंसा करते है या फिर अविवेकशील युवकों को अपने अहम् भावना अपने स्वार्थ महत्वाकांक्षा अर्थात मेरा ही कर्म सही है जानकर गुमराह कर मानव समाज में अशांति स्थापित करते है ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
मफिया कुछ लोग परिश्रम ना कर लोगों को लूट कर डारा धमाकर तथा गैर कानूनी कार्य कर अत्याधिक सम्पत्ति प्राप्त करते है ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
घरेलू हिंसा तालाक या आपास में लड़ाना ___ काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार का अत्याधिक बढ जाना स्वयं के भीतर ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
भ्रष्टाचार अधिक धन की इच्छा होने पर मनुष्य अपने पद का इस्तेमाल कर अपने कार्य क्षेत्र के सम्पत्ति व रिश्वत लेकर धन कमाता है ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF
पुण्य
सभी धर्म के असली धार्मिक लोग समाज में परोपकार दया शालीनता भाईचारा अहिंसा फैलाने का कार्य करते है अपने वाणी से ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%AD%E0%A4%AF%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE
उभयलैंगिकता
ईवा कैंटरेला। प्राचीन विश्व में बाइसेक्शुअलिटी, येल यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू हेवन, 1992, 2002।   आईएसबीएन   978-0-300-09302-5
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699.349802
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%AD%E0%A4%AF%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE
उभयलैंगिकता
थॉमस के। हबर्ड। ग्रीस और रोम में समलैंगिकता, कैलिफोर्निया प्रेस, 2003 के यू।   आईएसबीएन   0-520-23430-8
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%AD%E0%A4%AF%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE
उभयलैंगिकता
हैराल्ड पैटर। डाई ग्रिचिशे नेबेनलेबी [ग्रीक पेडनेस्टी], विस्बाडेन: फ्रांज स्टीनर वेरलाग, 1982। में: Sitzungsberichte der Wissenschaftlichen Gesellschaft an der Johann Wolfgang Goethe-Universität फ्रैंकफर्ट एम मेन, वॉल्यूम। 19 नंबर 1।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%AD%E0%A4%AF%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE
उभयलैंगिकता
WA पर्सी III पेडरेस्टी एंड पेडागोजी इन आर्किया ग्रीस, यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनोइस प्रेस, 1996।   आईएसबीएन   0-252-02209-2
0.5
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उभयलैंगिकता
स्टीफन ओ। मुर्रे और विल रोज़्को, एट अल। इस्लामी समलैंगिकता: संस्कृति, इतिहास और साहित्य, न्यूयॉर्क: न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय प्रेस, 1997।   आईएसबीएन   0-8147-7468-7
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उभयलैंगिकता
जे राइट एंड एवरेट रॉसन। शास्त्रीय अरबी साहित्य में समलैंगिकतावाद । 1998।   आईएसबीएन   0-231-10507-X (pbbk) /   (एचडीबीके)
0.5
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उभयलैंगिकता
गैरी लेपुप । पुरुष रंग: टोकुगावा जापान, बर्कले, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय प्रेस में समलैंगिकता का निर्माण, 1995।   आईएसबीएन   0-520-20900-1
0.5
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उभयलैंगिकता
सूनेनो वतनबे और जुनची इवाता । समुराई का प्यार। जापानी समलैंगिकता के हजारों साल, लंदन: जीएमपी पब्लिशर्स, 1987।   आईएसबीएन   0-85449-115-5
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उभयलैंगिकता
उभयलिंगीपन: सिद्धांत, अनुसंधान, और डी। जॉय स्वान और शनि हबीबी, संपादकों द्वारा अदृश्य कामुकता के लिए सिफारिशें
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कालिंपोंग
कलिंगपोंग एक बहुत ही व्‍यस्‍त शहर है। ऐसा इसलिए क्‍योंकि दार्जिलिंग और गंगटोक इसी शहर से होकर जाया जा सकता है। यहां आप अपनी व्‍यस्‍त जिंदगी से विश्राम लेकर आराम के कुछ पल व्‍यतीत कर सकते हैं। गाड़ी से इस शहर को एक दिन में घूमा जा सकता है। इस शहर को पैदल घूमने के लिए दो या तीन दिन आवश्‍यक है। कलिंगपोंग पर्वोत्तर हिमालय के पीछे स्थित है। यहां से कंचनजंघा श्रेणी त‍था तिस्‍ता नदी की घाटी का बहुत सुंदर नजारा दिखता है।
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कालिंपोंग
थोंगशा गोंपा कलिंगपोंग में स्‍ि‍थत सभी मठों में सबसे पुराना है। इसे भूटानी मठ के नाम से जाना जाता है। इस मठ की स्‍थापना 1692 ई. में हुई थी। इस मठ का मूल संरचना अंग्रेजों के यहां आगमन से पहले आंतरिक झगड़े में नष्‍ट हो गया था। जोंग डोग पालरी फो ब्रांग गोंपा मठ को दलाई लामा ने 1976 ई. में आम जनता को समर्पित किया। यह मठ दूरपीन दारा चोटी पर स्थित है। इस मठ में बौद्धों का प्रसिद्ध ग्रंथ 'कंग्‍यूर' रखा हुआ है। 108 भागों वाले इस ग्रंथ्‍ा को दलाई लामा तिब्‍बत से अपने साथ लाए थे। इस मठ के प्रार्थना कक्ष की दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्रकारी की गई है। इस मठ की ऊपरी मंजिल में त्रिआयामी मंडला है। इस मठ के नजदीक ही थारपा चोइलिंग गोंपा मठ है। यह मठ तिब्‍बतियन बौद्ध धर्म के जेलूपा संप्रदाय से संबंधित‍ है।
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कालिंपोंग
कलिंगपोंग में अभी भी बहुत से औपनिवेशिक भवन है। इन भवनों में मुख्‍यत: बंगला तथा पुराने होटल शामिल हैं। ब्रिटिश ऊनी व्‍यापारियों द्वारा बनाए गए ये भवन मुख्‍य रूप से रिंगकिंगपोंग तथा हिल टॉप रोड पर स्थित है। इन भवनों में मोरगन हाउस, क्राकटी, गलिंका, साइदिंग तथा रिंगकिंग फॉर्म शामिल है। मोरगन हाउस तथा साइदिंग को सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर पर्यटक आवास के रूप में तब्‍दील कर दिया है। इन भवनों के नजदीक ही संत टेरेसा चर्च है। इस चर्च को स्‍थानीय कारीगरों ने प्रसिद्ध गोंपा मठ की अनुकृति पर बनाया है।
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कालिंपोंग
कलिंगपोंग फूल उत्‍पादन का प्रमुख केंद्र है। यहां देश का 80 प्रतिशत ग्‍लैडीओली का उत्‍पादन होता है। इसके अलावा यह आर्किड, कैकटी, अमारिलिस, एंथूरियम तथा गुलाबों के फूल के लिए प्रसिद्ध है। गेबलेस तथा धालिस का भी यहां बहुतायत मात्रा में उत्‍पादन होता है। यहां प्रसिद्ध रेशम उत्‍पादन अनुसंधान केंद्र (03552-255291/ 928) भी है। यह केंद्र दार्जिलिंग जाने के रास्‍ते पर स्थित है।
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कालिंपोंग
यहां प्रसिद्ध आर्मी गोल्‍फ क्‍लब है। इसके अलावा यहां तिस्‍ता नदी में रोमांचक खेल राफ्टिंग की शुरुआत की गई है। रोमांचक खेल पसंद करने वाले को यहां जरुर आना चाहिए। यह स्‍थान तिस्‍ता बाजार के नजदीक स्थित है। अगर आप इस खेल का पूरा आनन्‍द लेना चाहते हैं तो यहां एक पूरा दिन देना होगा। इस खेल का आनन्‍द लेने का सबसे अच्‍छा समय मध्‍य नंवबर से फरवरी त‍क है। इसके अलावा हाइकिंग खेल का मजा तिस्‍ता नदी की घाटी में सालों भर लिया जा सकता है।
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कालिंपोंग
तिस्‍ता नदी पर प्रसिद्ध शांको रोपवे है। यह रोपवे 120 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इस रोपवे का निर्माण स्‍वीडन सरकार की मदद से किया गया था। यह रोपवे तिस्‍ता और रीली नदी के बीच बना हुआ है। इस रोपवे की कुल लंबाई 11.5 किलोमीटर है। इस रोपवे के कारण समथर पठार जो कि कलिंगपोंग से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिलीगुड़ी जाने के रास्‍ते पर स्थित है, जाना आसान हो गया है। बिना रोपवे के यहां जाने में एक दिन का समय लग जाता है।
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कालिंपोंग
यह कलिंगपोंग से 34 किलोमीटर दूर है। यह जगह कलिंगपोंग से भूटान के पुराने व्‍याप‍ारिक मार्ग पर स्थित है। यह स्‍थान चारों तरफ घने शंकुधारी वनों से घिरा हुआ है। यहां भूटानी शैली का बना हुआ एक बहुत सुंदर मठ तथा नेचर इंटरप्रेटेशन सेंटर केंद्र है। यहां से ही न्‍यौरा नेशनल पार्क जाने का रास्‍ता है। ज्ञातव्‍य है कि न्‍यौरा 10341 फीट की ऊंचाई पर रशे दर्रा पर स्थित है। रशे दर्रा भूटान, सिक्किम तथा पश्‍िचम बंगाल की सीमा है। यहां से चोला श्रेणी का बेहतरीन नजारा दिखता है। लोलीगांव जिसे खापर भी कहा जाता है लावा से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से बर्फबारी का बहुत सुंदर नजारा दिखता है।
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कालिंपोंग
कलिंगपोंग में आपको हर चौराहे पर स्‍टीम मोमोज, थूक्‍पा (नूडल सूप) तथा चो आदि खाने को मिल जाएगा। कलिंगपोंग में बहुत से अच्‍छे रेस्‍टोरेंट भी हैं। ग्‍लेनरी होटल का दो रेस्‍टोरेंट है- पहला ऋषि रोड पर तथा दूसरा ऑंगडेन रोड पर। इन दोनों रेस्‍टोरेंटों में केक, पेस्‍ट्री, पैटीज, चाय तथा कॉफी मिलता है। मंडारिन रेस्‍टोरेंट मछली, सुअर का भूना हुआ मांस तथा मुर्गा के मांस के लिए प्रसिद्ध है। गोम्‍पू होटल में बार की सुविधा है। कलसंग रेस्‍टोरेंट जोकि लिंक रोड पर स्थित है तिब्‍बती भोजन के लिए जाना जाता है। यहां का स्‍थानीय शराब जो कि बाजरे से बनता है बांस के बर्त्तन में परोसा जाता है। इस शराब को छंग भी कहा जाता है। अन्‍नपूर्णा रेस्‍टोरेंट में अच्‍छा भोजन मिलता है। अगर आप बेहतरीन भोजन चाहते हैं तो हिमालयन होटल तथा सिल्‍वर ओक होटल जाइए। लेकिन यहां पहले से ही बुकिंग कराना होता है। यहां के सभी होटल रात 8:30 से 9 बजे तक बंद हो जाते हैं।
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कालिंपोंग
भूटिया शिल्‍प, लकड़ी का हस्‍तशिल्‍प, बैग, पर्स, आभूषण, थंगा पेंटिग्‍स तथा चाइनीज लालटेन की खरीदारी यहां से की जा सकती है। इन सब वस्‍तुओं के लिए डम्‍बर चौक पर स्थित भूटिया शॉप प्रसिद्ध है। इसके अलावा इन वस्‍तुओं की खरीदारी के लिए कलिंगपोंग आर्ट एंड क्रार्फ्ट कॉओपरेटिव भी सही है। कलिंगपोंग का स्‍थानीय चीज तथा लॉलीपॉप यहां आने वाले पर्यटकों को जरुर खरीदना चाहिए।
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पंचतंत्र
नीतिकथाओं में पंचतन्त्र का पहला स्थान है। पंचतन्त्र ही हितोपदेश की रचना का आधार है। स्वयं नारायण पण्डित जी ने स्वीकार किया है-
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पंचतंत्र
विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस-पास निर्धारित की जाती है। पञ्चतन्त्र की रचना किस काल में हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि पंचतन्त्र की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वानों ने पंचतन्त्र के रचयिता एवं पंचतन्त्र की भाषा शैली के आधर इसके रचनाकाल के विषय में अपने मत प्रस्तुत किए है।
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पंचतंत्र
महामहोपाध्याय पं॰ सदाशिव शास्त्री के अनुसार पञ्चतन्त्र के रचयिता विष्णुशर्मा थे और विष्णुशर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम था। अतः पंचतन्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही हुई है और इसका रचना काल 300 ई.पू. माना जा सकता है। पर पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय विद्वान् ऐसा नहीं मानते, उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था विष्णुशर्मा नहीं, तथा उपलब्ध पञ्चतन्त्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है।
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पंचतंत्र
महामहोपाध्याय पं॰ दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णुशर्मा का समय अष्टमशतक के मध्य भाग में माना है क्योंकि पंचतन्त्र के प्रथम तन्त्र में आठवीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टनीमतम् की "पर्यङ्कः स्वास्तरणः" इत्यादि आर्या देखी जाती है, अतः यदि विष्णुशर्मा पञ्चतन्त्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। परन्तु केवल उक्त श्लोक के आधर पर पंचतन्त्र की रचना अष्टम शतक में नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह श्लोक किसी संस्करण में प्रक्षिप्त भी हो सकता है।
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पंचतंत्र
हर्टेल और डॉ॰ कीथ, इसकी रचना 200 ई.पू. के बाद मानने के पक्ष में है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव भी पंचतन्त्र में दिखाई देता है इसके आधर पर भी यह कहा जा सकता है कि चाणक्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी पूर्व का है अतः पंचतन्त्र की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुई होगी।
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पंचतंत्र
प्रथम संस्करण मूलग्रन्थ का पहलवी अनुवाद है जो अब सीरियन एवं अरबी अनुवादों के रूप में प्राप्त होता है।
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पंचतंत्र
द्वितीय संस्करण के रूप में पंचतन्त्र गुणाढ्यकृत ‘बृहत्कथा’ में दिखाई पड़ता है। ‘बृहत्कथा की रचना पैशाची भाषा में हुई थी किन्तु इसका मूलरूप नष्ट हो गया है और क्षेमेन्द्रकृत ‘बृहत्कथा मंजरी' तथा सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं।
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पंचतंत्र
तृतीय संस्करण में तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है। ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इसका मूल स्थान कश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ॰ हर्टेल ने अत्यन्त श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण को खोज निकाला था। इनके अनुसार ‘तन्त्राख्यायिका’ या तन्त्राख्या ही पंचतन्त्र का मूलरूप है। यही आधुनिक युग का प्रचलित ‘पंचतन्त्र’ है।
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पंचतंत्र
चतुर्थ संस्करण दक्षिणी ‘पंचतन्त्र’ का मूलरूप है तथा इसका प्रतिनिधित्व नेपाली ‘पंचतन्त्र’ एवं ‘हितोपदेश’ करते हैं।
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मुसाफिरखाना
नवरात्रि एवम प्रत्येक सोमवार व शुक्रवार को यहां पर भक्तो की भारी भीड़ माता के दर्शन हेतु दूर दूर से पहुंचती है।
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मुसाफिरखाना
मंदिर के पास में ही स्थित हनुमान जी के परम भक्त खाकी बाबा का मंदिर व पुरुषोत्तम दास बाबा का मंदिर भी श्रद्धालुओं के दर्शन का केंद्र है।
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मुसाफिरखाना
मृत्युंजय महादेव मन्दिर: यह वार्ड न० ४ नगर पंचायत, मुसाफिरखाना में स्थित है। इस मंदिर की स्थापना स्वर्गीय माता बादल शुक्ल ने १९५९ में की जो न्यायधीश स०न० शुक्ल के पिता थे। इस मन्दिर में माँ दुर्गा, साईं बाबा और राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ हैं। इस वर्ष २ जून २०१३ से ९ जून २०१ ३ तक मंदिर के निकट श्री परम पूज्य विशाल विशाल कौशल जी महाराज द्वारा राम कथा शिविर आयोजित हुआ था।
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मुसाफिरखाना
बाबा नंद महर : यह भगवान कृष्ण जी की स्मृति में यादवों द्वारा बनवाया गया मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ भगवान श्री कृष्ण अपने बचपन में आए थे। यह मंदिर यादवों के राजा भगवान राजा बलि और पवारिया के लिए भी प्रसिद्ध है। हर मंगलवार को लोग दूध के साथ यहाँ आते हैं व पूजा अर्चना करते हैं। यहाँ हर वर्ष हिन्दी माह कार्तिक पूर्णिमा को एक बड़ा और लोकप्रिय मेला लगता है। प्रमुख बात यह है कि अलग अलग ज़िलों से ( अमेठी, सुल्तानपुर, फैजाबाद, बहराइच, गोंडा, [[अम्बेडकरनगर, प्रतापगढ़, राय बरेली, बाराबंकी ) लोग आते हैं व पूजा अर्चना करते हैं।
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मुसाफिरखाना
संतोषी माता: यह बहुत ही मशहूर देवी संतोषी का मंदिर है। यह मंदिर मुसाफिरखाना से 6 कि॰मी॰ दूर जामो रोड पर है। संतोषी माता मंदिर तिवारी का पुरवा, बरहेती गांव में है। यहाँ हर शुक्रवार को लोग आते हैं और अपने कल्याण के लिए कामना करते हैं।
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मुसाफिरखाना
मुसाफिरखाना तहसील के जगदीशपुर ब्लाक के कोछित गांव मे दन्डेस्वर बाबा (शिव के रूप ) का मन्दिर स्थपित है |यहां पर शिवरात्रि में एक दिन तथा अधिमास के अवसर पर १ मास क मेले का आयोजन होता है | यह मन्दिर भगवान बाराह (विष्णु रूप) के समय से अस्तित्व में है| साथ ही यहां पे प्राचीन राम जानकी मन्दिर , स्वेत बाराह मन्दिर चर्चित है | यही से ३ किलो मी दूर मुसाफिरखाना ब्लाक के नारा गांव मे बाबा महावीर दास की कुटी है जोकि एक. चर्चित स्थल है नारा गांव के स्वेत बाराह स्थान पर थसाल में दो ब़ार राम नवमी तथा कार्तिक मास के पूर्णमासी को विसाल मेला लगता है|
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मुसाफिरखाना
महादेव बाबा शिव भोले का मन्दिर ग्राम पिण्डारा करनाई में स्थित है। यह हमारे क्षेत्र का सबसे पुराना मन्दिर है। यहाँ हर शिवरात्री को बहुत बड़ा मेला लगता है। और मलमास के समय भी पूरे महीने शिव बाबा को जल अर्पण के लिए बहुत भीड़ रहती है। यहाँ के बबुवान ठाकुर बब्बन सिंह के सानिध्य में यहाँ बहुत बड़े मेले का आयोजन होता था जो आज भी अनवरत चला आ रहा है। यहाँ मंदिर में पाई गयी मूर्तियाँ खडिंत हैं जिस से यह पता चलता है कि इस मंदिर पर मुगल शासकों का आक्रमण हुआ था।
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