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20231101.hi_163636_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
कोशकर्म
अच्छे कोशों में सभी प्रकार के क्षेत्रों और विषयों के पारिभाषिक शब्द भी रहते हैं। इसलिये संपादक का अधिक से अधिक विषयों का सामान्य ज्ञान या बोध होना चाहिए। आवश्यकता होने पर किसी अनजाने या नए विषय के अच्छे और प्रामाणिक ग्रंथ से या उसके अच्छे ज्ञाता से भी सहायता लेना आवयश्क होता है। कोशरचना के कार्य में दृष्टि बहुत व्यापक रखना चाहिए और वृत्ति मधुकारी होनी चाहिए। दृष्टि इतनी पैनी और सूक्ष्म होनी चाहिए जो सहज में नीर क्षीर का विवेक कर सकें और पुरानी त्रुटियों, दोषों, भूलों आदि को ढूँढकर सहज में उनका संशोधन तथा सुधार कर सके। कोशकार में पक्षपात या रोगद्वेष नाम को भी नहीं रहना चाहिए। उसका एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए भाषा तथा साहित्य की सेवा। कोशों में प्रधानता अर्थों और विवेचनों की ही होती है, अत: उनमें कहीं व्याप्ति या अतिव्याप्ति नहीं रहनी चाहिए। सभी बातें नपी तुली, मर्यादित और यथासाध्य संक्षिप्त होनी चाहिए। कोश में अधिक से अधिक और ठोस जानकारी कम से कम शब्दों में प्रस्तुत करके ही जानी चाहिए। फालतू या भरती की बातों के लिये कोश में स्थान नहीं होता।
1
341.920878
20231101.hi_163636_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
कोशकर्म
शब्दों के कुछ रूप तो मानक होते हैं और बहुत से रूप स्थानिक या प्रांतीय होते हैं। जिन स्थानिक या प्रांतीय शब्दों के मानक रूप प्राप्त हों, उनका सारा विवेचन उन्हीं मानक शब्दों के अंतर्गत रहना चाहिए और उनके स्थानिक या प्रांतीय रूपों के आगे उनके मानक रूपों का अभिदेश मात्र होना चाहिए। इससे बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि अन्य भाषा-भाषियों को सहज में शब्दों के मानक रूप का पता चल जाता है और भाषा का मानक रूप स्थिर होने में सहायता मिलती है-अपरिचितों के द्वारा भाषा का रूप सहसा बिगड़ने नहीं पाता। यही बात ऐसे संस्कृत शब्दों के संबंध में भी होनी चाहिए जिसके बहुत से पर्याय हों। जैसे कमल, नदी, पर्वत, समुद्र आदि। शब्दों के आगे उनके पर्याय देते समय भी इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि पर्याय वही दिए जाए जो मूल शब्द का ठीक आशय या माप बतानेवाले हों। जिन पर्यायों के कारण कुछ भी भ्रम उत्पन्न हो सकता हो, उन पर्यायों का ऐसे प्रसंगों में परित्याग करना ही श्रेयस्कर होगा।
0.5
341.920878
20231101.hi_163636_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
कोशकर्म
कोशकारों के सामने इधर हाल में वेब्स्टर की न्यू वर्ल्ड डिक्शनरी ने एक नया आदर्श रखा है जो बहुत ही उपयोगी तथा उपादेय होने के कारण शब्दकोशों के लिये विशेष अनुकरणीय है। उसमें अनेक शब्दों के अंतर्गत उनसे मिलते जुलते पर्यायों के सूक्ष्म अंतर भी दिखलाए गए हैं, यथा - फीयर (Fear) के अंतर्गत ड्रेड (Dread), फ्राइट (Fright), एलार्म (Alarm), डिस्मे (Dismay), टेरर (Terror) और पैनिक (Panic) के सूक्ष्म अंतर भी बतला दिए गए हैं। ऐसा यह सोच का किया गया है कि कोशकार का काम शब्दों के अर्थ बतला देने से ही समाप्त नहीं हो जाता, वरन् इससे भी आगे बढ़कर उसका काम लोगों को शब्दों के ठीक प्रयोग बतलाना होता है। हमारे यहाँ ऐसे सैकड़ों हजारों शब्द मिलेंगे, जिनके पारस्परिक सूक्ष्म अंतर बतलाए जा सकते हैं और इस प्रकार जिज्ञासुओं को शब्दों पर नए ढंग से विचार करने का अभ्यास कराया जा सकता है।
0.5
341.920878
20231101.hi_163636_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
कोशकर्म
हाल के अच्छे और बड़े अँगरेजी कोशों में एक और नई तथा उपयोगी परिपाटी चली है जो भारतीय भाषाओं के कोशों के लिये विशेष रूप से उपयोगी हो सकती है। प्राय: सभी भाषाओं में बहुत से ऐसे यौगिक शब्द होते हैं जो उपसर्ग लगाकर बना लिए जाते हैं। कनिष्ठ से अकनिष्ठ, करणीय से अकरणीय, अपेक्षित से अनपेक्षित, आवश्यक से अनावश्यक, मंत्री से उपमंत्री, समिति से उपसमिति, पालन से परिपालन, भ्रमण से परिभ्रमण, कर्म से प्रतिकर्म, विधान से प्रतिविधान आदि। उपसर्गों के योग से बननेवाले ऐसे शब्दों की संख्या बहुत अधिक होती है। ऐसे शब्दों दो वर्गों में बँटे होते हैं अथवा बाँटे जा सकते हैं। एक तो ऐसे शब्द जिनके शब्द पूर्व पद तथा उत्तर पद मिल कर भी किसी नए या विशिष्ट अर्थ से युक्त नहीं होते और इसी लिये साधारण शब्दों के अंतर्गत रहते हैं। ऐसे शब्दों और उनके अर्थों से कोश का कलेवर बहुत बढ़ जाता है। इस प्रकार के व्यर्थ विस्तार से बचने के लिये वेब्स्टर के नए कोशों में यह नई पद्धति अपनाई गई है कि उन्हें स्वतंत्र शब्द नहीं मानते और इसी लिये उनके अर्थ भी नहीं लिए गए हैं। पृष्ठ के अंत में एक रेखा के नीचे ऐसे शब्दों की सूची मात्र दे दी गई है, यथा-अन्-डिज़ायर्ड, अन्-डिस्टर्ब्ड, अन्-फ्री, अन्-हर्ट, अन्-इनवाइटेड आदि। हाँ, इनके विपरीत दूसरे वर्ग के कुछ ऐसे शब्द अवश्य होते हैं जिनमें उपसर्गों के योग से कुछ नए अर्थ निकलते हैं। जैसे विशेषण रूप में अकच का रूप बिना बालोंवाला तो है ही, पर संज्ञा रूप में वह केतु ग्रह का भी एक नाम है। अनागार (विशेषण) का अर्थ बिना घर-बारवाला तो है ही, पर संज्ञा रूप में वह संन्यासी का भी वाचक है। इसलिये ऐसे शब्द लेना आवश्यक होता है। जिन शब्दों के अर्थ पूर्वपद और उत्तरपद के योग से स्वत: नष्ट हो जाते हों, उन्हें कोशों में अर्थसहित लेना व्यर्थ ही समझा जाने लगा है। अत: पृष्ठांत में ऐसे शब्दों की सूची मात्र दे देना यथेष्ट होगा। हाँ, जिन यौगिक शब्दों में दोनों पदों के योग से कोई नया और विशेष अर्थ निकलता हो, उन्हें यथास्थान अर्थसहित लेना तो आवश्यक है ही।
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20231101.hi_163636_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
कोशकर्म
भारत में पुराने संस्कृत कोशों की पद्धति यह रही है कि अति, प्रति, सह आदि के योग से बननेवाले शब्द अपने पूर्व पदवाले शब्द के अंतर्गत एक ही शीर्षक में एक साथ दे दिए जाते है। हिंदी के कुछ कोशों ने भी इस प्रथा का अनुकरण किया है। यद्यपि संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह पद्धति युक्तिसंगत होती है, फिर भी संस्कृत कोशों तक में इनका पूरा पूरा पालन होता हुआ नहीं दिखाई देता। इसमें स्थान की कुछ बचत अवश्य होती है, पर असाधारण पाठकों के लिये शब्द ढूँढना बहुत कठिन हो जाता है। कभी कभी तो ऐसे लोगों के लिये भी इस पद्धति से शब्द ढूँढना कठिन होता है जो इसके नियमों और सिद्धांतों से बहुत कुछ परिचित होते हैं।
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341.920878
20231101.hi_164155_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
गंधशास्त्र
गंधशास्त्र, देवताओं के षोडशोपचार में एक आवश्यक उपचार माना गया है। आज भी नित्य देवपूजन में सुवासित अगरबत्ती और कपूर का उपयोग होता है। यही नहीं, भारत के निवासी अपने प्रसाधन में सुगंधित वस्तुओं और विविध वस्तुओं के मिश्रण से बने हुए सुगंध का प्रयोग अति प्राचीन काल से करते आ रहे हैं। सुगंधि की चर्चा से प्राचीन भारतीय साहित्य भरा हुआ है। इन सुगंधियों के तैयार करने की एक कला थी और उसका अपना एक शास्त्र था। किंतु एतत्संबंधित जो ग्रंथ 12वीं-13वीं शती के पूर्व लिखे गए थे वे आज अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं। वैद्यक ग्रंथों में यत्रतत्र सुगंधित तेलों का उल्लेख मिलता है।
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20231101.hi_164155_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
गंधशास्त्र
चरक संहिता में अमृतादि तैल, सुकुमारक तैल, महापद्म तैल आदि अनेक तेलों की चर्चा हैं। इनके बनाने के लिए चंदन, उशीर (खश), केसर, तगर, मंजिष्ठ (मंजीठ), अगुरु आदि सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग होता था। इससे प्रकट होता है कि ईसा की आरंभिक शती में सुगंधियों का प्रचुर प्रचार था। उस समय उनके तैयार करने की कला समुन्नत थी। वात्स्यायन ने, जिनका समय गुप्त काल (चौथी-पाँचवीं शती ई.) आँका जाता है, अपने कामसूत्र में नागरिको के जानने योग्य जिन चौसठ कलाओं का उल्लेख किया है। उसमें सुगंधयुक्त तेल एवं उबटन तैयार करना भी है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता में, जो इसी काल की रचना है, गंधयुक्ति नामक एक प्रकरण हैं। इसी प्रकार अग्निपुराण के 224वें अध्याय में गंध की चर्चा है। उसमें सुगंध तैयार करने की आठ प्रक्रियाओं का उल्लेख है। वे हैं-
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341.403213
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गंधशास्त्र
जिन वस्तुओं के धूम से सुगंध प्राप्त हो सकती है, ऐसी इक्कीस वस्तुओं के नाम इस पुराण में गिनाए गए हैं। इसी प्रकार स्नान के लिए भी सुगंधित वस्तुओं का उसमें उल्लेख है। मुख को सुगंधित बनाने के लिए मुखवासक चूर्ण के अनेक नुस्खे उसमें उपलब्ध हैं। फूलों के वास से सुगंधित तेल तैयार करने की बात भी उसमें कही गई है। इसी प्रकार विष्णुधर्मोत्तर पुराण में गंधयुक्ति प्रकरण है। कालिका पुराण में देवपूजन के निमित्त पाँच प्रकार के सुगंध की चर्चा है-
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गंधशास्त्र
बारहवीं शती में सोमेश्वर ने मानसोल्लास की रचना की थी। उसमें गंधभोग नामक एक प्रकरण है। इसमें तिल को केतकी, पुन्नाग और चंपा के फूलों से सुवासित करने तथा उन्हें पेरकर तेल निकालने की प्रक्रिया का उल्लेख है। इसी प्रकार शरीर पर लगाए जानेवाले सुगंधित उपटनों का भी विस्तृत उल्लेख है। इसी तरह सुगंधित जल तैयार करने की विधि भी उसमें दी हुई है। मानसोल्लास के इन प्रकरणों के आधार पर नित्यनाथ ने तेरहवीं शती में अपने रसरत्नाकर नामक ग्रंथ में गंधवाद नामक प्रकरण लिखा है जिसमें सुगंधि तैयार करने की विस्तृत चर्चा है।
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341.403213
20231101.hi_164155_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
गंधशास्त्र
गंध शास्त्र पर चौदहवीं शती के लिखे दो ग्रंथों की हस्तलिपि पुणे के भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान में हैं। एक का नाम है गंधवाद। इसके लेखक का नाम अज्ञात है। इसपर 16वीं शती के पूर्वार्ध की लिखी हुई एक टीका भी है। दूसरा ग्रंथ गंगाधर नायक कृत गंधसार है। इसमें उन्होंने सुगंधि को आठ वर्गों में विभाजित किया है। यथा-
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गंधशास्त्र
(5) लकड़ी (चंदन आदि); (6) मूल (जड़); (7) वनस्पति स्राव (यथा-कपूर) और (8) प्राणिज पदार्थ (यथा-कस्तूरी)।
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गंधशास्त्र
मुस्लिम काल, विशेषत: मुगल काल में सुगंध का महत्त्व काफी बढ़ गया था और उसने एक समुन्नत उद्योग का रूप धारण कर लिया था। सुगंधित जल और सुगंधित तेलों का प्रचुर उल्लेख इस काल में मिलता है। किंतु इस विषय पर रचे गए इस काल के किसी ग्रंथ की जानकारी नहीं प्राप्त होती।
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20231101.hi_164155_7
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गंधशास्त्र
प्राचीन भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी*1=हळद-कुंकू अभिर गुलाल अष्टगंध चंदन कापूस कापसाचे वस्त्र नाडा छडी*
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20231101.hi_164155_8
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गंधशास्त्र
*7=दुर्वा,जास्वंद,हार मोठा एक दरवाजाला, बाकी जेवढे फोटो आहे तेवढे छोटे हार, केवढा चाफा मोगरा सुवासिक फुलंइत्यादी,*
0.5
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पालक्काड़
देवी वडकांतरा तमिल महाकाव्य शिलाप्पधिकरम की नायिका कण्णगी का अवतार हैं। इस मंदिर की परंपरा है कि रोज शाम 6 बजे मंदिर प्रांगण में आतिशबाजी छोड़ी जाती है। यह मंदिर चुन्नबुतर के पास है जहां का रास्ता जयमेडु से होकर जाता है। यहां का मुख्य उत्सव वलिया वेला है जो तीन साल में एक बार मनाया जाता है। इस उत्सव में 15 हाथी भी शामिल होते हैं।
0.5
341.070254
20231101.hi_52768_4
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पालक्काड़
यह दौड़ प्रतिवर्ष दिसंबर से जनवरी के बीच आयोजित की जाती है। इसका अयोजन कैटल रस क्लब ऑफ इंडिया द्वारा किया जाता है। यह दौड़ उस समय होती है जिस समय किसान कम व्यस्त होते हैं। मवेशियों के लगभग 120 जोड़े इसमें भाग लेते हैं। पालक्काड़ ऐसा एकमात्र स्थान है जहां बैलगाड़ी दौड़ भी होती है। इन दौड़ों को देखने के लिए हर साल करीब 50000 लोग यहां आते हैं।
0.5
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20231101.hi_52768_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A1%E0%A4%BC
पालक्काड़
1200 वर्ष पुराने मनप्पुल्लिकावु भगवती मंदिर में आसपास के चार गांवों के लोग यह वेला मनाने आते हैं। इस दौरान देवी के वन दुर्गा, भद्रकाली अवतार की रक्तपुष्पांजली, देवी पूजा और आतिशबाजी से अराधना की जाती है। यह उत्सव वृश्चिकरम (नवंबर-दिसंबर) और कुंभम (फरवरी-मार्च) महीने में मनाया जाता है।
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पालक्काड़
पालक्काड़ के पश्चिमी कोने पर रेलवे स्टेशन के पास ऐतिहासिक जैन मंदिर है। इसके आसपास के क्षेत्र को जनीमेडु कहते हैं। यह केरल की उन कुछ जगहों में से एक है जहां जैन धर्म की निशान बिना किसी भारी क्षति के बचे हुए हैं। मंदिर की दीवारें ग्रेनाइट के बनी हैं और उन पर कोई सजावट नहीं ही गई है। 32 फीट ऊंचे और 20 फीट चौड़े इस मंदिर में जैन र्तीथकरों की मूर्तियां स्थापित हैं। कुमारन असन ने अपनी कविता वीना पूवु यहीं के जैन निवास में लिखी थी जब वे थोड़े समय के लिए अपने स्वामी श्री नायारण गुरु के साथ यहां रहे थे।
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पालक्काड़
धोनी पालक्काड़ से 15 किलोमीटर दूर है। इन संरक्षित वनों में मौजूद छोटे और खूबसूरत झरने पूरे वर्ष पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यह स्थान ट्रैकिंग के लिए भी उपयुक्त है। चारों ओर बिखरी हरियाली सुखद अनुभूति देती है। धोनी अपने फार्महाउसों के लिए भी प्रसिद्ध है जहां स्विस प्रजाति के मवेशी पाले जाते हैं।
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पालक्काड़
मलमपुजा केरल का वृंदावन है। यह पालक्काड़ से 13 किलोमीटर दूर है। 1955 में बांध के बनने के बाद से यह जगह एक खूबसूरत टूरिस्ट रिजॉर्ट के रूप में ढ़ल चुका है। बांध के आस पास पहाड़ियां हैं जो इसकी सुंदरता में चार चांद लगाती हैं। मुगल शैली में बना उद्यान और जापानी शैली का बगीचा पर्यटकों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। बगीचे में यक्षी की प्रमिका लोगों को आश्चर्यचकित कर देती है। मछली के आकार का एक्वेरियम, स्नेक पार्क, रॉक गार्डन, अम्यूजमेंट पार्क, फेंसी पार्क और यहां लगे फव्वार यहां के अन्य आकर्षण हैं।
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341.070254
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पालक्काड़
पालक्काड़ जिले के लक्किडी में मशहूर मलयालम कवि कलकथ कुंजन नांबियार का जन्मस्थान किल्ली कुरुशीमंगलम है। इन्हीं ने पारंपररिक नृत्य शैली ओट्टंथुल्लल की रचना की थी। कुंचन नांबियार मलयालम साहित्य के स्वर्णयुग का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज कुंचन स्मारकम एक राष्ट्रीय स्मारक है और इसमे पुस्तकालय और औडिटोरियम भी है। इस स्मारक से जुड़े लोगों की सहायता से ओट्टंथुल्लल, सीतमकन थुल्लल और परयाण थुल्लल पर तीन वर्षीय पाठ्यक्रम यहां चलाया जाता है। यहां नवरात्रि उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। उस दौरान यहां का नजारा देखते ही बनता है। 5 मई को थुंचन दिवस के रूप में मनाया जाता है। समय: सुबह 10 बजे-शाम 5 बजे तक, दूरभाष: 0466-2230551
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पालक्काड़
यह घाटी पश्चिमी घाट पर बचे विषुवतीय वर्षा वनों में से एक हैं। यह पालक्काड़ जिले के उत्तर पूर्व मे कुंडली की पहाड़ियों पर स्थित है। अधिक आबादी न होने के कारण इस जंगल का अभी भी वही स्वरूप है जो 19वीं शताब्दी के मध्य में था। जनसंख्‍या के कम घनत्व के कारण यहां उन दुर्लभ जीवों और वनस्पतियों को बचाए रखने में मदद मिली है जो करीब 50 मिलियन वर्षो से यहां फल फूल रहे हैं। कहा जाता है कि यह घाटी 50 मिलियन वर्ष पुरानी है।
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पालक्काड़
दर्शकों को केवल सैरंधिरी तक ही जाने की अनुमति है जो मुक्कली से 23 किलोमीटर दूर है। मुक्कली एक छोटा कस्बा है जहां केरल वन विभाग के उपनिदेशक का कार्यालय और 60 मी. ऊंचा वॉच टावर है। मुक्कली से उद्यान तक पैदल जाना होता है। पार्क में वाइल्डलाइफ वार्डन की विशेष अनुमति के बिना नहीं रुक सकते। रुकने के लिए मुक्कली में रस्ट हाउस (दूरभाष: 04924-222056) है। समय: सुबह 8 बजे-शाम 5 बजे तक
0.5
341.070254
20231101.hi_654559_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
अद्वैतवाद
यह दर्शन अनुभव पर आधारित है जिसके अनुसार हम विभिन्न रूपात्मक जगत्‌ का अनुभव करते हैं। इसके अनुसार हमारा अनुभव हमेशा सत्य नहीं होता। इस सत्य में भ्रम की संभावना रहती है। भ्रम दोष से उत्पन्न होने के कारण ज्ञाता या ज्ञेय किसी में भी रह सकता है। यह दोष वास्तविक ज्ञान में बाधा का कारण है।
0.5
338.504918
20231101.hi_654559_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
अद्वैतवाद
उपनिषद् के सार को विभिन्न विद्वानों ने बह्मसूत्र के रूप में लिखा जिनमें से मात्र बादरायण का ब्रह्मसूत्र ही उपलब्ध हुआ है।
0.5
338.504918
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अद्वैतवाद
शंकराचार्य के गुरु गौडपाद की माण्डूक्यकारिका में अद्वैतवाद का सबसे न्यायसंगत वर्णन मिलता है। गौडपाद बौद्धों के अद्वैतवादी मत से अत्यधिक प्रभावित थे। उनसे पहले ही बौद्धग्रंथों में मायावाद की व्याख्या की जा चुकी थी जिससे लाभ उठाकर गौडपाद ने अद्वैत वेदांत को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए उसे तर्काधारित बनाया जिसके संपूर्ण तर्क अकाट्य माने जाते थे। हालाँकि अद्वैतवाद का प्रवर्तन शंकराचार्य ने किया था। उन्होंने अद्वैतवाद का विरोध करने वालों को शास्त्रार्थ में हराया। इस दर्शन के अनुसार यदि तर्क के द्वारा ऐसे तत्व की कल्पना की जाए जो अज्ञेय है तो उस तत्व का इस संसार से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होना चाहिए। अज्ञेय होते हुए भी उस तत्व को संसार का मूल इसलिए माना गया है क्योंकि वही तो एक निरपेक्ष आधार है जिसके आधार पर सापेक्ष संसार की सृष्टि होती है। उस आधार के बिना संसार का अस्तित्व असंभव है। ज्ञाता और ज्ञेय उस एक तत्व के ही रूप हैं।
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अद्वैतवाद
संस्कृत में छप्पय दीक्षित ने 'सिद्धान्तलेशसंग्रह' में अद्वैतवाद पर विस्तार से चर्चा की है इसीलिए यह ग्रंथ अद्वैतवेदांत का विश्वकोश कहा जाता है।
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अद्वैतवाद
अद्वैतवाद की आधार-शिला न्यूनतम कारण का नियम है। इसे और स्पष्ट करते हुए गंगाप्रसाद उपाध्याय लिखते हैं कि- "यदि हमको किसी घटना का कारण मालूम करना हो और उस घटना की व्याख्या एक कारण से हो सकती हो तो हमको उसके स्थान में एक से अधिक कारण नहीं मानने चाहिए। अर्थात् किसी घटना की मीमांसा करने के लिए जहाँ तक हो सके कम से कम कारणों को मानना आवश्यक है।"
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अद्वैतवाद
अद्वैतवाद के अनुसार जगत् मिथ्या है। भ्रान्ति, अविद्या तथा अज्ञान के कारण जीव मिथ्या संसार को सत्य मान लेता है। इस दर्शन के अनुसार वास्तविक रूप में न तो किसी संसार की उत्पत्ति हुई, न कोई प्रलय आई। सत्य केवल ब्रह्मा है इसके अतिरिक्त कुछ सत्य नहीं है सब मिथ्या है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विश्व प्रपंच के अनुसार- "अद्वैतवाद ब्रह्मांड में केवल एक परमतत्त्व मानता है जो ईश्वर और प्रकृति दोनों है। वह शरीर और आत्मा ( या द्रव्य और शक्ति ) को परस्पर अभिन्न या अनवच्छेद्य मानता है।"
0.5
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अद्वैतवाद
अद्वैतवाद के अनुसार जीव और ब्रह्मा अलग-अलग हैं इसका कारण माया है। यह माया अविद्या है। माया या अविद्या जिस समय जीव से दूर हो जाती है, उस समय जीव ब्रह्मा का रूप हो जाता है।
0.5
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अद्वैतवाद
यूरोप के विभिन्न दार्शनिकों ने अद्वैतवाद का विभिन्न नामों से उल्लेख किया है। जैसे- फिश्ते ने इसे आत्मा कहा, ग्रीन इसे अपरिच्छिन्न चैतन्य कहते थे। हेगल निरपेक्ष प्रत्यय तथा ब्रैडले इसे अपरोक्षानुभव मानते थे।
0.5
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अद्वैतवाद
अद्वैतवाद का आभास पाश्चात्य दर्शन में सुकरात के दर्शन में मिलता है जो कि प्लेटो के दर्शन में और अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इसका प्रभाव कांट पर भी देखने को मिलता है।
0.5
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लोकोपकार
अमेरिकी लोकोपकार ने उन चुनौतियों का सामना किया और अवसरों का लाभ उठाया, जो ना तो सरकार और ना ही व्यवसाय पूरा करते थे। अन्य क्षेत्र निश्चित रूप से अमेरिकी जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, लेकिन लोकोपकार उसी पर केंद्रित है।
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लोकोपकार
लोकोपकार ललित कला और प्रदर्शन कला, धार्मिक और लोकोपकारी उद्देश्यों, साथ ही शैक्षणिक संस्थानों (देखें संरक्षण) की आय का प्रमुख स्रोत है।
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लोकोपकार
1982 में, पॉल न्यूमैन ने न्यूमैन की अपनी आहार कंपनी की सह-स्थापना की और कर-पश्चात सभी लाभ विभिन्न परोपकारी संस्थाओं को दान कर दिया। 2008 में उनकी मृत्यु होने पर, कंपनी ने हज़ारों धर्मार्थ संस्थाओं को US$250 मिलियन से अधिक दान दिया। साथ ही, कोलम्बियाई गायिका शकीरा ने अपने न्यास पीस डेसकैल्सॉस के ज़रिए तीसरी दुनिया के कई देशों की मदद की।
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लोकोपकार
पिछले कुछ वर्षों के दौरान, कतिपय उच्च प्रोफ़ाइल लोकोपकारी उदाहरणों में शामिल हैं विकसित राष्ट्रों को तीसरी दुनिया के कर्ज़ को रद्द करने के लिए आयरिश रॉक गायक बोनो का अभियान; गेट्स फाउंडेशन के विशाल संसाधन और महत्वाकांक्षाएं, जैसे कि मलेरिया और तटवर्ती दृष्टिहीनता के उन्मूलन के लिए अभियान; अरबपति निवेशक और बर्कशायर हैथवे के अध्यक्ष वारेन बफ़ेट द्वारा 2006 में गेट्स फाउंडेशन को $31 बिलियन का दान; न्यूयॉर्क में रोनाल्ड ओ.पेरेलमैन हार्ट सेंटर, प्रेसबिटेरियन अस्पताल और वेइल कॉर्नेल मेडिकल सेंटर के वित्तपोषण हेतु $50 मिलियन सहित, केवल 2008 में ही रोनाल्ड पेरेलमैन द्वारा $70 मिलियन का धर्मार्थ दान.
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लोकोपकार
लोकोपकार, पेशेवर विकासकों और निधि उगाहने वालों द्वारा सुसाध्य हुआ है। पेशेवर दाता संबंध और प्रबंधन इस तरीक़े से दाताओं को मान्यता और धन्यवाद देते हुए विकास पेशे को समर्थन देते हैं कि वह भविष्य में लाभरहित संगठनों को दान देने को संवर्धित कर सके। एसोसिएशन ऑफ़ डोनर रिलेशन्स प्रोफ़ेशनल्स (ADRP) संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और कनाडा में प्रबंधन और दाता संबंध पेशेवरों का पहला समुदाय है।
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लोकोपकार
परोपकार के उद्देश्य पर भी बहस की जाती है। कुछ लोग लोकोपकार को ग़रीबों के लिए हितकारिता और दयालुता के समान मानते हैं। अन्य का मानना है कि लोकोपकार कोई भी परोपकारी कार्य हो सकता है जो ऐसी सामाजिक ज़रूरत को पूरा करता है जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया है, कम ध्यान दिया गया है, या बाज़ार द्वारा ऐसा माना जाता है।
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लोकोपकार
कुछ लोग मानते हैं कि लोकोपकार को समुदाय की निधि बढ़ा कर और वाहन देकर समुदाय निर्माण के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। जब समुदाय ख़ुद को कम परिसंपत्ति के बजाय संसाधन से समृद्ध के रूप में पाते हैं, तब समुदाय, सामुदायिक समस्याओं को निपटाने की बेहतर स्थिति में होता है।
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लोकोपकार
तथापि, कुछ का विश्वास है कि लोकोपकार का उद्देश्य अक्सर अंशदान और आत्म-प्रशंसा है, जैसा कि विवादास्पद रूप से स्वनाम वाली संस्थाओं के प्रचलन, अनाम दानों की व्यापक दुर्लभता और दस्त (जोकि आसानी से इलाज के क़ाबिल होने के बावजूद विश्व भर में शिशु मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है) का उपचार जैसे अप्रिय कारणों के लिए समर्थन की कमी द्वारा देखा जा सकता है।
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लोकोपकार
लोकोपकार या तो वर्तमान या भावी ज़रूरतों के प्रति प्रतिक्रिया जताता है। एक आसन्न आपदा के लिए धर्मार्थ प्रतिक्रिया लोकोपकारक कार्रवाई है। यह लोकोपकारी के लिए तत्काल सम्मान प्रदान करता है, तथापि इसके लिए किसी दूरदर्शिता की आवश्यकता नहीं है। फिर भी, भावी ज़रूरतों के लिए प्रतिक्रिया, दाता की दूरदर्शिता और विवेक को आकर्षित करता है, लेकिन शायद ही कभी दाता को सम्मानित करता है। भावी ज़रूरतों का निवारण वास्तविकता के बाद प्रतिक्रिया जताने के बजाय, अक्सर और अधिक विपत्ति को टालता है। उदाहरण के लिए, अफ़्रीका में अत्यधिक जनसंख्या की वजह से भुखमरी के प्रति प्रतिक्रिया जताने वाले धर्मार्थ संस्थानों को तत्काल मान्यता दी जाती है। इस बीच, 1960 और 1970 के दशक के अमेरिकी जनसंख्या नियंत्रण आंदोलन के पीछे जो लोकोपकारक थे, उन्हें कभी सम्मानित नहीं किया गया और वे इतिहास की गर्त में खो गए।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%80
तलमापी
पृथ्वी की सतह पर स्थित बिंदुओं की सापेक्ष ऊँचाई निकालने के लिये सर्वेक्षक (Surveyor) तलमापन करता है। इस क्रिया में क्षैतिज दृष्टिरेखा से बिंदुओं की गहराई या निचाई मापकर ही सर्वेक्षक तलमापन से सापेक्ष ऊँचाइयाँ निकालने में सफल होता है। गहराई नापने के लिये अंशांकित छड़ उपयोग में आते हैं। उनपर अंकित मीटर या फुट के 1,000वें भाग तक पढ़ने का प्रयत्न होता है। ऐसे दूर रखे छड़ या गज को स्पष्ट देखने के लिये दूरबीन का प्रयोग होता है। घूमने की क्षमता रखनेवाले तीन ऊर्ध्वाधर पेंचों पर टिकी कुएँ जैसी मनि में पड़ी एक धुरी पर दूरबीन इस प्रकार कसी रहती है कि मनि के केंद्र पर धुरी के घूमने से दूरबीन से प्राप्त दृष्टिरेखा क्षैतिज समतल में धूम सके। दूर देखने की सामान्य दूरबीन और तलमापी में प्रयोग की जानेवाली दूरबीन में विशेष अंतर होता है। इसके नेत्रिका (eye) लेंस और अभिदृश्य (object) लेंस के बीच में एक नए अवयव, क्रूस तंतु (cross wric), का तंतुपट (diaphram) डालकर दृष्टिरेखा निर्धारित कर दी जाती है। इस प्रकार स्थायित्व दी गई रेखा संधानरेखा (Line of Collimation) भी कहलाती है। इस संधानरेखा की क्षैतिजता प्रमाणित करने के लिये दूरबीन के साथ एक पाणसल (spirit level) ऐसे जुड़ा रहता है कि उसका अक्ष (पाणसल की लंबाई के मध्य बिंदु पर स्पर्शी रेखा) दूरबीन की दृष्टिरेखा के समांतर रहता है। अत: जब यंत्र के तलेक्षण अवयव में लगे उर्घ्वाधर पेंचों (levelling head) को जिन्हें क्षैतिजकारी पेंच भी कहते हैं, यथेष्ट रूप से धुमाकर पाणसल का बुलबुला केंद्रित कर दिया जाता है तो दृष्टिरेखा पाणसल के अक्ष के समांतर होने के कारण क्षैतिज हो जाती है। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि तलमापी में पाणसल और दूरबीन सबसे महत्वपूर्ण अवयव हैं और दूरबीन में तंतुपट, जो दृष्टिरेखा निर्धारित करता है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%80
तलमापी
दृष्टिरेखा की क्षैतिजता स्थापित करने में पाणसल की नली की बनावट और अंदर भरे द्रव का बड़ा अधिक पार्थक्य होने पर ही उसे प्रदर्शित करे तो यंत्र अधिक यथार्थ कार्य के लिए उपयोगी नहीं होगा। क्षैतिजता से पार्थक्य को प्रदर्शित करने की क्षमता को पाणसल की सुग्राह्यता कहते हैं। यथार्थ कार्य के लिये प्रयुक्त दृष्टिरेखा का क्षैतिजता से थोड़ा भी पार्थक्य होने पर बुलबुला केंद्रित न हो।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%80
तलमापी
सुग्राह्यता और क्षैतिजकारी पेंचों में ऐसा संबंध रखा जाता है कि जिस यंत्र में अधिक सुग्राह्य पाणसल लगाते हैं उसमें क्षैतिजकारी पेंचों के सूत इतने पतले रहते हैं कि पेंच कि एक चक्कर घूमने में यंत्र का उतार था चढ़ाव बहुत थोड़ा हो। सुग्राह्य पाणसल और मोटे सूत से पेंचों की थोड़ी सी गति में ही बुलबुला इधर इधर तीव्रता से भागता है और अदक्ष सर्वेक्षक को उसे केंद्रित करने में बड़ी कठिनाई होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%80
तलमापी
अधिक यथार्थ कार्य कानेवाले यंत्रों में केवल पाणसल ही अधिक सुग्राह्य नहीं लगाते, वरन बुलबुला केंद्रित होने में थोड़ा अंतर जिसे नंगी आँखे नहीं देख सकतीं, उसे भी देखने की क्षमता पैदा करने के लिये एक उपकरण लगा होता है, जिससे पाणसल के बुलबुले के दोनों सिरों के आधे आधे आवर्घित प्रतिबिंब एक प्रिज्म में दिखाई देते हैं। जब तब बुलबुला केंद्रित नहीं होता तब तक दिखाई देनेवाले अर्ध भाग अलग अलग रहते हैं और जब पूर्णतया केंद्रित हो जाता है तब वे नियमित वक्र बना लेते हैं।
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तलमापी
दूरबीन के साथ पाणसल और तंतुपट जोड़ने में भी ऐसी सुविधा दी रहती है कि यदि किसी प्रकार दृष्टिरेखा और पाणसल के अक्ष का समांतर रहने का संबंध बिगड़ जाए, जिसे संधान (collimation) त्रुटि कहते हैं, तो उसकी परीक्षा और समंजन किया जा सकता है।
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तलमापी
उपर्युक्त बातों में सभी यंत्रों में कोई सैद्धांतिक भेद नहीं होता, फिर भी इन यंत्रों का दो आधारों पर वर्गीकरण हुआ है:
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तलमापी
यह सबसे सरल, सुगठित और संतुलित होता है। इसकी दूरबीन ऊर्ध्व धुरी से दृढ़ता के साथ जुड़ी रहती है, जिससे दूरबीन न तो अपने अनुदैर्ध्य अक्ष पर धूम सकती हैं और न धुरी से अलग हो सकती है। अकुशल या प्राशिक्षणार्थी तलेक्षक के हाथों में भी इसमें काई हानि सामान्यत: नहीं होती।
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तलमापी
यह बड़ा कोमल यंत्र होता है। आँग्ल भाषा के वाई (Y) अक्षर सदृश कुर्सी पर इसकी दूरबीन टिकी रहती है और बंधों से कसी रहती है। इससे दूरबीन अपने अनुदैर्ध्य अक्ष पर घुमाई जा सकती है और खोलकर सिरों को उलटकर रखी जा सकती है। इसके दो मुख्य लाभ है:
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%80
तलमापी
वाई तलमापी के लाभ और डंपी की दृढ़ता के संयोजन का प्रयास इस यंत्र में देखने को मिलता है। इसकी कुर्सी डंपी के समान दृढ़ होती है, जिसमें दूरबीन अनुदैर्ध्य अक्ष पर धूम भी सकती है और सिरे उलटकर भी रखी जा सकती है।
0.5
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20231101.hi_549940_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7
गृहप्रबन्ध
यह काच, चाँदी और पालिशदार धातुओं को साफ करने के काम आता है। इसे प्रयोग में लाने से इनकी चमक बनी रहती है।
0.5
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गृहप्रबन्ध
साबुन-साबुन की टिकियाँ होती हैं। चूरा भी होता है। तरल रूप में भी होता है। साबुन बहुत उपयोगी पदार्थ है। शरीर, कपड़े, बर्तन इत्यादि सब कुछ इससे साफ किया जा सकता है।
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गृहप्रबन्ध
अम्ल-नींबू, सिरका, आम, इमली, ऑक्सैलिक अम्ल, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, ये सब खटाइयाँ आवश्यकतानुसार काम में आती हे। इनसे धातु के बर्तन के दाग इत्यादि साफ किए जाते हैं।
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गृहप्रबन्ध
तेल-मिट्टी का तेल, पेट्रोल, अलसी का तेल, तारपीन का तेल। मिट्टी का तेल प्राय: मशीनों के भाग एवं कपड़े पर लगे चिकनाई वाले दागों को साफ करने के काम में आता है। पेट्रोल कपड़ों की सूखी धुलाई के काम में आता है। शेष दोनों से पालिशदार वस्तुएँ साफ की जाती है।
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गृहप्रबन्ध
ऐल्यूमिनियम के बर्तनों को साबुन के पानी से धोना चाहिए। यदि ठीक से साफ न हों तो नीबू रगड़कर गरम पानी से धो देना चाहिए। पीतल और ताँबे के बरतन गरम राख से रगड़कर माँज लेना चाहिए। दाग पड़े हों तो खटाई से रगड़कर छुड़ा देने चाहिए। पीतल के हैंडल इत्यादि ब्रासो से साफ होते हैं जरमन सिलवर के बर्तन चोकर अथवा साबुन के पानी से अच्छे साफ होते हैं। चाँदी के बर्तन भी चोकर या साबुन के पानी से साफ करके तुरंत नरम कपड़े से पोंछ देने चाहिए। काच और चीनी के बर्तन गरम पानी एवं साबुन के विलयन या सोडे के विलयन से साफ करने चाहिए।
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गृहप्रबन्ध
सूती कपड़े साधारण, कपड़े धोनेवाले साबुन से रगड़कर ठंढे पानी से धो डालने चाहिए, फिर किसी बर्तन में उन्हें उबाल लेना चाहिए, रंगीन कपड़े नहीं उबालने चाहिए, फिर कुछ कलफ और नील लगाकर उन्हें सुखा लेना और उन पर इस्तरी कर लेनी चाहिए। ऊनी और रेशमी कपड़े लक्स साबुन के ठंडे विलयन में कुछ देर डुबो देने चाहिए और हाथ से दबाकर उन्हें फिर निकाल लेना चाहिए। फिर पानी से धोकर साबुन छुड़ा दिया जाए। छाया में सुखाना चाहिए। धोने से पहले दाग छुड़ा दें।
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गृहप्रबन्ध
गंदगी की सफाई-कूड़ा एक जगह जमा करके या तो जला देना चाहिए अथवा उसे नियत स्थान पर रख देना चाहिए जहाँ से नगरपालिका के कर्मचारी उठा ले जाते हैं। जला देने से अच्छी सफाई हो जाती है। नालियों एवं शौचालयों को प्रतिदिन धोकर फ़िनाइल डाल देना चाहिए। पीने के पानी की गंदगी उबालकर छान लेने से ठीक हो जाती हैे। पोटाश परमैंगेनेट के विलयन से तरकारी, फल इत्यादि को धोकर साफ कर लिया जाता है।
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गृहप्रबन्ध
भोजन का प्रबन्ध मुख्यतया स्वास्थ्य की दृष्टि से करना उचित है। शरीर की आवश्यकताओं के आधार पर भोजन का चुनाव करना चाहिए।
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गृहप्रबन्ध
प्रोटीन एवं खनिज लवणों से युक्त पदार्थ शरीर के तंतुओं को बनाने वाले पदार्थ हैं तथा इस कार्य के लिए आवश्यक हैं। प्रोटीन दूध, पनीर, अंडे, मांस, मछली, दाल, चना, गेहूं, ज्वार, बाजरा, सूखे मेवों, मूंगफली एवं शाकों में पाया जाता है। खनिज लवण दूध, दही, मठा, अंडा, दाल, चना, फल एवं पत्तेदार तरकारियों में पाए जाते हैं।
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लुफ़्थान्सा
डोइच लुफ़्टहान्सा ए॰जी॰ (; , ) जर्मनी की ध्वजवाहिका वायुसेवा है और बेड़े के आकार एवं सम्पूर्ण यात्री आवाजाही तथा यूरोप की सबसे बड़ी वायुसेवा है। जर्मन सरकार का १९९७ तक लुफ़्टहान्सा में 35.68% अंश था, किन्तु अब ये कंपनी निजी निवेशकों द्वारा (88.52%), एमजीएल जेस्सेलशाफ़्ट फ़ूर लुफ़्टवर्केह्स्वर्त (10.05%), डोइच पोस्टवैंक (1.03%), तथा डोइच बैंक (0.4%) के स्वामित्त्व में है। इसमें २०११ के आंकड़ों के अनुसार 119,084 कर्मचारी कार्यरत हैं। कंपनी का नाम मूलतः वायु के लिये जर्मन शब्द लुफ़्ट एवं हैन्सियेटिक लीग के लिये हांन्सा के संयोजन से बना है।
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लुफ़्थान्सा
डायचे लुफ़्टहान्सा को सामान्य तौर पर लुफ़्टहान्सा के नाम से जाने वाला एक जर्मन एयरलाइनर हैं। अगर इसकी सहायक कंपनियों को मिला दे तो ये यूरोप की सबसे बड़ी एयरलाइन्स कंपनी हैं। इसकी विशालता का अनुभव आप इस बात से कर सकते हैं कि लुफ़्टहान्सा, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका एवं यूरोप के 78 देशों के 197 अंतरराष्ट्रीय स्थानो की उड़ान भरता हैं। इसके अतिरिक्त, ये 18 घरेलु गंतव्य की भी उड़ान भरता हैं। इसके बड़े में 280 जहाज सम्मिलित हैं। 2012 में लुफ़्टहान्सा की सारी अनुषंगी कंपनियों को मिला दे इसने 103 मिलियन यात्रिओं का परिचालन किया था।
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लुफ़्थान्सा
लुफ़्टहान्सा का रजिस्टर्ड ऑफिस एवं मुख्यालय कोलोन में हैं। इसके प्रमुख संचालन केंद्र का नाम लुफ़्टहान्सा अविअतािों सेंटर हैं। लुफ़्टहान्सा के ज्यादातर पायलट, ग्राउंड स्टाफ, एवं उड़ान परिचारक वही पर रहते हैं। इसका दूसरा मुख्य केंद्र म्युनिक एयरपोर्ट एवं तीसरा दुसेल्डॉर्फ एयरपोर्ट में हैं।
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लुफ़्थान्सा
लुफ़्टहान्सा स्टार अलायन्स के 5 संस्थापक सदस्यों में से एक हैं, ये विश्व की सबसे बड़ी एयरलाइन गठबंधन है। जिसका गठन 1997 में हुआ था।
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लुफ़्थान्सा
इस कंपनी का नाम का अर्थ लुफ़्ट + हान्सा है। जर्मन भाषा में लुफ़्ट का मतलब हवा एवं हान्सा एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ समूह होता है।
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लुफ़्थान्सा
लुफ़्टहान्सा का इतिहास 1926 से शुरू होता हैं जब 1926 से 1945 तक ये एयरलाइन्स ध्वज वाहक थी, द्वितीय विश्व युद्ध में अब तक जर्मनी की पराजय नै हुई थी। कोलोन में 6 जान 1953 लुफ़्टाग एयर लाइन का गठन किया गया, 6 अगस्त 1954, लुफ़्टाग ने अपना वर्तमान नाम लुफ़्टहान्सा रखा।
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लुफ़्थान्सा
1 अप्रेल 1955 से लुफ़्टहान्सा ने हैम्बर्ग, डसल्डॉर्फ, फ़्रंकफ़र्ट, कोलोन एवं म्युनिक के लिए घरेलु उड़ान प्रारम्भ किया। मई 1955 में इसने अंतरराष्ट्रीय उडाने लंदन, पेरिस एवं मेड्रिड से भर कर आरम्भ किया।
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लुफ़्थान्सा
लुफ़्टहान्सा अपने विमानों का नाम प्रमुख शहरों के नाम पर रखता हैं जैसे "हैम्बर्", "फ़्रंकफ़र्ट", "मनचेन" इत्यादि। ये इस एयरलाइन्स की काफी पुरानी परंपरा हैं।
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लुफ़्थान्सा
वर्ष २०१४ तक इस कंपनी में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या 118,२१४ थी। ये किसी भी एयर लाइन कंपनी के बहुत बड़ी कर्मचारियों की संख्या हैं।
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चर्मपत्र
चर्मपत्र बकरी, बछड़ा, भेड़ आदि के चमड़े से निर्मित महीन पदार्थ है। इसका सबसे प्रचलित उपयोग लिखने के लिये हुआ करता था। चर्मपत्र, अन्य चमड़ों से इस मामले में अलग था कि इसको पकाया (टैनिंग) नहीं जाता था किन्तु इसका चूनाकरण अवश्य किया जाता था। इस कारण से यह आर्द्रता के प्रति बहुत संवेदनशील है।
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चर्मपत्र
ऐसा कहा जाता है कि परगामम (Pergamum) के यूमेनीज़ (Eumenes) द्वितीय ने, जो ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था, चर्मपत्र (Prchment) के व्यवहार की प्रथा चलाई, यद्यपि इसका ज्ञान इसके पहले से लोगों को था। वह ऐसा पुस्तकालय स्थापित करना चाहता था जो एलेग्ज़ैंड्रिया के उस समय के सुप्रसिद्ध पुस्तकालय सा बड़ा हो। इसके लिये उसे पापाइरस (एक प्रकार के पेड़ की, जो मिस्त्र की नील नदी के गीले तट पर उपजता था, मज्जा से बना कागज जो उस समय पुस्तक लिखने में व्यवहृत होता था) नहीं मिल रहा था। अत: उसने पापाइरस के स्थान पर चर्मपत्र का व्यवहार शुरू किया। यह चर्मपत्र बकरी, सुअर, बछड़ा या भेड़ के चमड़े से तैयार होता था। उस समय इसका नाम कार्टा परगामिना (charta pergamena) था। ऐसे चर्मपत्र के दोनों ओर लिखा जा सकता था, जिसमें वह पुस्तक के रूप में बाँधा जा सके।
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चर्मपत्र
चर्मपत्र तैयार करने की आधुनिक रीति वही है जो प्राचीन काल में थी। बछड़े, बकरी या भेड़ की उत्कृष्ट कोटि की खाल से यह तैयार होता है। खाल को चूने के गड्ढे में डुबाए रखने के बाद उसके बाल हटाकर धो देते हैं और फिर लकड़ी के फ्रेम में खींचकर बाँधकर सुखाते हैं। फिर खाल के दोनों ओर चाकू से छीलते हैं। मांसवाले तल पर खड़िया या बुझा चूना छिड़ककर झाँवे के पत्थर से रगड़ते हैं और तब पुन: फ्रेम पर सुखाते हैं। फिर खाल को एक दूसरे फ्रेम पर स्थानांतरित करते हैं जिसमें खाल पर पहले से कम तनाव रहता है। दानेदार तल को फिर चाकू से छीलकर उसे एक सी मोटाई का बना लेते हैं। यदि फिर भी खाल असमतल रहती है तो सूक्ष्म झाँवे से रगड़कर उसे समतल कर लेते हैं। ऐसा चर्मपत्र सींग सा कड़ा होता है, चमड़े सा नम्य नहीं। आर्द्र वायु में यह सड़कर दुर्गंध दे सकता है।
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चर्मपत्र
आजकल कृत्रिम चर्मपत्र भी बनता है। इसे "वानस्पतिक चर्मपत्र" भी कहते है। यह वस्तुत: एक विशेष प्रकार का कागज होता है, जो अचार और मुरब्बा रखने के घड़ों या मर्तबानों के मुख ठकने, मक्खन, मांस, र्सांसेज और अन्य भोज्य पदार्थ लपेटने में व्यवहृत होता है। इस पर वसा या ग्रीज़ का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न ये इसमें से होकर भीतर प्रविष्ट ही होते हैं। जल भी इसमें प्रविष्ट नहीं होता।
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चर्मपत्र
कृत्रिम चर्मपट बनाने के दो तरीकें हैं। एक में असज्जीकृत कागज को कुछ सेकंड तक सांद्र सलफ्यूरिक अम्ल (विशिष्ट घनत्व 1.69) में डुबाकर, फिर तनु ऐमानिया से धोते हैं।
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चर्मपत्र
दूसरे में पल्प बनानेवाले रेशों को बहुत समय तक पानी की उपस्थिति में दबाते, कुचलते और रगड़ते है। इसमें सिवाय अल्प स्टार्च के अन्य कोई सज्जीकारक प्रयुक्त नहीं करते।
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चर्मपत्र
कृत्रिम चर्मपत्र का परीक्षण मोमबत्ती की छोटी ज्वाला में जलाकर करते हैं। ऐसी ज्वाला से कृत्रिम पत्र में छोटे छोटे बुलबुले निकल आते हैं। भाप के कारण ये बुलबुले बनते हैं, जो ऊपरी तल से बाहर न निकल सकने के कारण दिखाई पड़ते हैं। असली चर्मपत्र में बुलबुले नहीं बनते।
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चर्मपत्र
Central European University, Materials and Techniques of Manuscript Production: Parchment: medieval technique
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चर्मपत्र
On-line demonstration of the preparation of vellum from the BNF, Paris. Text in French, but mostly visual.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
कोसली (Kosli) भारत के हरियाणा राज्य के रेवाड़ी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह इसी नाम की तहसील का मुख्यालय भी है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
कोसली में अहीरवाल (अहीर समुदाय) बसते हैं। यह दिल्ली से 80 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। कोसली तहसील राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा है। कोसली हरियाणा का सबसे बड़ा विधानसभा क्षेत्र है। कोसली के क्षेत्र में लगभग 138 गांव हैं। कोसली आज उन सैनिकों और अधिकारियों के उच्च अनुपात के लिए जाना जाता है जो भारतीय सेना और भारत के अन्य सशस्त्र बलों में 'सैनिकों की खान' के रूप में योगदान करते हैं, और शिक्षकों की संख्या के लिए यह हरियाणा शिक्षा प्रणाली में योगदान देता है।
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कोसली
हरियाणा राज्य गजेटियर के अनुसार कोसली की स्थापना 1193 ई। में दिल्ली के जाट महाराजा के पोते कोशल सिंह तोमर ने एक गाँव के रूप में की थी। कोशल सिंह ने कहा कि कोसली में साधु बाबा मुक्तेश्वर पुरी, कोसली से मिले थे, जो उस समय घने झाड़ जंगल में था
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कोसली
ब्रिटिश राज के दौरान कोसली में लगभग सत्तर वरिष्ठ कमीशन अधिकारी और लगभग एक सौ पचास जूनियर कमीशन अधिकारी थे। 1914-1918 के बीच पहले विश्व युद्ध में कोसली के 247 सैनिकों ने भाग लिया था, और तीनों को भारतीय सैन्य योग्यता, 1 सैन्य क्रॉस, 2 अशोक चक्र, 1 महावीर चक्र, 2 शौर्य चक्र, 4 सुरक्षा बल, 1 पुलिस पदक से सजाया गया था। [ स्पष्टीकरण की आवश्यकता है] आज वहां लगभग सौ सैन्य पेंशनर रहते हैं, जिनमें ब्रिटिश शासन के दौरान विभिन्न सैन्य सम्मान प्राप्त करने वाले कई लोग शामिल हैं। [१] इस गांव से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा में बड़ी संख्या में सैनिकों की सेवा की गई थी। [उद्धरण वांछित] नायब कमांडेंट राव राम नारायण सिंह को 1924 में राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया था। [उद्धरण वांछित] उनके घर के एक हिस्से को अधिकारी के रूप में पेश किया गया 40 साल से।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
कोसली रेलवे स्टेशन रेवाड़ी- भिवानी रेलवे लाइन पर रेवाड़ी से 30 किमी. है बहुत जल्द ही पूरे खंड के विद्युतीकरण के बाद रेलवे ट्रैक के दोहरीकरण का काम तेजी से चल रहा है। रेल मंत्रालय ने स्टेशन परिसर में शहीदों को सम्मान देकर सम्मानित किया था। एक लेफ्टिनेंट कर्नल के साथ संबंधित है; कोसली के राय सिंह ने नाथू ला में चीन-भारतीय सीमा विवाद के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया। रेलवे लाइन पर एक फ्लाईओवर का निर्माण और परिचालन किया जा रहा है। हरियाणा का दूसरा सबसे बड़ा फ्लाईओवर कहा जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
कोसली में हरियाणा रोडवेज का डिपो है। कोसली रेवाड़ी के रूप में सड़क मार्ग से कई शहरों से जुड़ता है। कनीना, महेंद्रगढ़, दादरी, डेल्ही, नूंह, जयपुर, झज्जर, रोहतक, फरीदाबाद, गुड़गांव आदि।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
कोसली शहर में एक मठ जो एक [महंत] के नेतृत्व में हिंदू मठ है। हर साल होली के त्योहार के दिन इस मेले में बाबा मुक्तेश्वर पुरी, कोसली के सम्मान में एक मेले का आयोजन किया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
एक और मेला है जिसे कोसली के स्थानीय लोगों द्वारा "देबी का मेला" कहा जाता है। यह मेला 25 मार्च 2018 (रविवार) को आयोजित किया गया था। दबी माता और बाबा मुक्तेश्वर पुरी महाराज के दर्शन करने के लिए विभिन्न गांवों के लोग बड़ी संख्या में आए थे। मठिया बहुत पुराना है और यह कोसली के लोगों की भक्ति का केंद्र है।
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20231101.hi_1040478_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80
कोसली
बैंक और कई एटीएम (सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक बैंक, सहकारी बैंक, एचडीएफसी बैंक, को-ऑर्परेशन बैंक, हरियाणा ग्रामीण बैंक, सरव हर्याना बैंक)
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20231101.hi_190932_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A5%80
किमची
कोरिया के उत्तरी हिस्सों के किम्ची में कम नमक और लाल मिर्च होती है और आमतौर पर इसमें सीज़निंग के लिए ब्राइड सीफ़ूड शामिल नहीं होता है। उत्तरी किमची में अक्सर पानी की संगति होती है। कोरिया के दक्षिणी भागों में बनी किमची, जैसे कि जियोला-डो और ग्योंगसांग-डो, नमक, मिर्च मिर्च और मायोलिचिजोट (멸치젓, ब्राइड एंकॉवी को किण्वन की अनुमति देता है) या सैज़ुजियोट (새우젓, ब्राइड झींगा को किण्वन की अनुमति देता है), मायोलचियाजेओट (southern 액젓), दक्षिण पूर्वी एशिया में इस्तेमाल होने वाली मछली की चटनी के समान कंकरियाजेकोट (액젓,), तरल एंकोवी जीओट, लेकिन मोटा।
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किमची
Saeujeot (새우젓) या myeolchijeot को किमची मसाला-मसाला मिश्रण में नहीं जोड़ा जाता है, लेकिन पहले गंध को कम करने, टैनिक स्वाद और वसा को खत्म करने के लिए उबाल लिया जाता है, और फिर चावल या गेहूं के स्टार्च (풀) से बने थिनर के साथ मिलाया जाता है। यह तकनीक पिछले 40 सालों से विवादों में घिरती जा रही है।
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किमची
सफेद किमची न तो लाल रंग की होती है और न ही मसालेदार। इसमें सफेद नैपा गोभी किमची और सफेद मूली किम्ची (डोंग्चीमी) जैसी अन्य किस्में शामिल हैं। पानी की सफेद किमची किस्मों को कभी-कभी कई व्यंजनों में एक घटक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जैसे डोंग्चीमी ब्राइन (डोंग्चीमी-गुक्सु) में ठंडे नूडल्स।
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किमची
यह क्षेत्रीय वर्गीकरण 1960 के दशक का है और इसमें बहुत सारे ऐतिहासिक तथ्य हैं, लेकिन कोरिया में वर्तमान किमची बनाने का चलन आम तौर पर नीचे वर्णित लोगों से अलग है। [56]
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किमची
प्योंगयांग-(उत्तर कोरिया, प्योंगयांग के बाहर) गैर-पारंपरिक सामग्रियों को गंभीर खाद्य पदार्थों की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में अनुकूलित किया गया है।
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किमची
हैम्येयोंग-डो (ऊपरी पूर्वोत्तर): समुद्र से इसकी निकटता के कारण, इस क्षेत्र के लोग अपनी किमची को सीज करने के लिए ताजी मछली और सीप का उपयोग करते हैं।
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किमची
ह्वांगहे-डो (मिडवेस्ट): ह्वांगहे-डो में किमची का स्वाद ब्लैंड नहीं है लेकिन बेहद मसालेदार है। इस क्षेत्र के अधिकांश किमची में रंग कम होता है क्योंकि लाल मिर्च के गुच्छे का उपयोग नहीं किया जाता है। ह्वांगहे-डो के लिए विशिष्ट किमची को होबाकजी (।) कहा जाता है। इसे कद्दू (बूंदी) के साथ बनाया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A5%80
किमची
चुंगचेन्ग-डो (ग्योंगगी-डो और जियोला-के बीच): किण्वित मछली का उपयोग करने के बजाय, क्षेत्र के लोग नमकीन किमची बनाने के लिए नमक और किण्वन पर भरोसा करते हैं। चुंगचेग-डो में किमची की सबसे अधिक किस्में हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A5%80
किमची
Gangwon-do (दक्षिण कोरिया) / Kangwon-do (उत्तर कोरिया) (Mideast): गैंगवॉन-डो में, किमची को लंबे समय तक संग्रहीत किया जाता है। कोरिया के अन्य तटीय क्षेत्रों के विपरीत, इस क्षेत्र में किमची में बहुत अधिक नमकीन मछली नहीं होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%AB%E0%A4%BC
अल-कहफ़
18|56|रसूलों को हम केवल शुभ सूचना देनेवाले और सचेतकर्त्ता बनाकर भेजते है। किन्तु इनकार करनेवाले लोग हैं कि असत्य के सहारे झगड़ते है, ताकि सत्य को डिगा दें। उन्होंने मेरी आयतों का और जो चेतावनी उन्हें दी गई उसका मज़ाक बना दिया है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%AB%E0%A4%BC
अल-कहफ़
18|57|उस व्यक्ति से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके रब की आयतों के द्वारा समझाया गया, तो उसने उनसे मुँह फेर लिया और उसे भूल गया, जो सामान उसके हाथ आगे बढ़ा चुके हैं? निश्चय ही हमने उनके दिलों पर परदे डाल दिए है कि कहीं वे उसे समझ न लें और उनके कानों में बोझ डाल दिया (कि कहीं वे सुन न ले) । यद्यपि तुम उन्हें सीधे मार्ग की ओर बुलाओ, वे कभी भी मार्ग नहीं पा सकते
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%AB%E0%A4%BC
अल-कहफ़
18|58|तुम्हारा रब अत्यन्त क्षमाशील और दयावान है। यदि वह उन्हें उसपर पकड़ता जो कुछ कि उन्होंने कमाया है तो उनपर शीघ्र ही यातना ला देता। नहीं, बल्कि उनके लिए तो वादे का एक समय निशिचत है। उससे हटकर वे बच निकलने का कोई मार्ग न पाएँगे
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%AB%E0%A4%BC
अल-कहफ़
18|59|और ये बस्तियाँ वे है कि जब उन्होंने अत्याचार किया तो हमने उन्हें विनष्ट कर दिया, और हमने उनके विनाश के लिए एक समय निश्चित कर रखा था
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%AB%E0%A4%BC
अल-कहफ़
18|60|याद करो, जब मूसा ने अपने युवक सेवक से कहा, "जब तक कि मैं दो दरियाओं के संगम तक न पहुँच जाऊँ चलना नहीं छोड़ूँगा, चाहे मैं यूँ ही दीर्धकाल तक सफ़र करता रहूँ।"
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