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20231101.hi_6221_11
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यशपाल
2, मार्च सन् 38 को जेल से रिहाई के बाद, जब उसी वर्ष नवंबर में यशपाल ने विप्लव का प्रकाशन-संपादन शुरू किया तो अपने इस काम को उन्होंने ‘बुलेट बुलेटिन’ के रूप में परिभाषित किया। जिस अहिंसक और समतामूलक समाज का निर्माण वे राजनीतिक क्रांतिकारी के माध्यम से करना चाहते थे, उसी अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने लेखन को अपना आधार बनाया। अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के केन्द्र में रखकर लिखे गए साहित्य को प्रायः हमेशा ही विचारवादी कहकर लांछित किया जाता है। नंद दुलारे वाजपेयी का प्रेमचंद के विरुद्ध बड़ा आरोप यही था। अपने ऊपर लगाए गए प्रचार के आरोप का यशपाल ने उत्तर भी लगभग प्रेमचंद की ही तरह दिया।
0.5
5,697.480924
20231101.hi_34352_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE
अश्वत्थामा
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता ज्ञात करनी चाही तो उन्होने उत्तर दिया-"अश्वत्थामा वध कर दिया गया, परन्तु गज"। परन्तु उन्होंने बड़े धीमे स्वर में "परन्तु गज" कहा, और मिथ्या वचन से भी बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्रीकृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं "परन्तु गज" को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य अंतिम शब्द सुन ही नहीं पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर अपने शस्त्र त्याग दिये और युद्धभूमि में नेत्र बन्द कर शोक संतप्त अवस्था में विराजित हो गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को नि:शस्त्र देखकर द्रोपदी के भ्राता द्युष्टद्युम्न ने खड्ग (तलवार) से उनका मस्तक (शीश) विच्छेद कर डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम वध के पश्चात पांडवों की विजय होने लगी। इस प्रकार महाभारत युद्ध में अर्जुन के तुणीरों (तीरों) एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जंघा भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में खंडित कर दी। अपने राजा दुर्योधन की ऐसी अवस्था देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन जल बंधन की कला जानता था। सो जिस सरोवर के निकट गदायुध्द हो रहा था उसी सरोवर में प्रवेश कर गया और जल को बांधकर छुप गया। दुर्योधन के पराजित होते ही युद्ध में पाण्डवो की विजय सुनिश्चित हो गई, समस्त पाण्डव दल विजय की प्रसन्नता में मतवाले हो रहे थे।
0.5
5,688.952369
20231101.hi_34352_3
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अश्वत्थामा
अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता के निर्मम वध का प्रतिशोध लेने के लिए पांडवों पर नारायणास्त्र का प्रयोग किया जिसके समक्ष समस्त पाण्डव सेना ने शस्त्र समर्पित कर दिए। युद्ध पश्चात अश्वत्थामा ने द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया। अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की विधवा उत्तरा के कोख में पल रहे उनके पुत्र परीक्षित पर ब्रह्मशिर अस्त्र का प्रयोग किया जो ब्रह्मास्त्र का ही एक परिष्कृत, जटिल एवं संशोधित रूप है। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और नियमों के विरुद्ध घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शेष वीर महारथियों का वध कर डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों और द्रौपदी के सभी पांच पुत्रों का भी वध कर दिया। अश्वत्थामा के इस पतित कर्म की सभी ने निंदा की, परन्तु दुर्योधन मृत्यु से पहले अश्वत्थामा के इस कार्य से बहुत संतुष्ट और प्रसन्न हुआ। पांडव शिविर के बाहर अश्वत्थामा को भगवान शिव के एक उग्र और डरावने रुद्र रूप का भी सामना करना पड़ा था, लेकिन उन्होंने निडर होकर अपनी भक्ति से भगवान शिव को प्रसन्न किया। उसकी भक्ति से प्रभावित होकर भगवान शिव अपने असली रूप में प्रकट हुए और उसे एक शक्तिशाली दिव्य तलवार प्रदान की और अपने पूर्ण रूप में अश्वत्थामा के शरीर में प्रवेश कर उसे पूरी तरह से अजेय बना दिया था। दूसरी ओर, श्रीकृष्ण ने अपनी योग शक्ति से पहले ही भांप लिया था कि उस रात पांडव शिविर में क्या अराजकता होने वाली थी, इसलिए पांडवों और सात्यकी को अश्वत्थामा के विनाशकारी क्रोध से बचाने के लिए श्रीकृष्ण उन्हें पहले ही शिविर से दूर ले गए थे।
0.5
5,688.952369
20231101.hi_34352_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE
अश्वत्थामा
पुत्रों के वध से शोकग्रस्त द्रौपदी विलाप करने लगी। द्रौपदी के विलाप को सुनकर अर्जुन उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के मस्तक को विच्छेदित कर डालने को प्रतिज्ञाबद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर, गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने अश्वत्थामा का पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो उसने अर्जुन को लक्षित कर शक्तिशाली ब्रह्मशिर अस्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मशिर चालन से तो अभिज्ञ था परंतु निष्क्रमण (लौटा लाना) से अनभिज्ञ था।
0.5
5,688.952369
20231101.hi_34352_5
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अश्वत्थामा
उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी सृष्टि का सृजन करने वाले परमेश्वर हैं। सृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर किस ओर से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”
0.5
5,688.952369
20231101.hi_34352_6
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अश्वत्थामा
श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। इससे रक्षा के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मशिर अस्त्र का प्रयोग करना होगा क्योंकि अन्य किसी भी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”
1
5,688.952369
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अश्वत्थामा
श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मशिर अस्त्र लक्षित कर दिया। दोनों प्रलयंकारी एवं विनाशकारी ब्रह्मशिर अस्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी, उनकी लपटों से समस्त प्रजा दग्ध होने लगी। इस महा विनाश को देख वेदव्यास और नारद उनके सामने प्रकट हुए और उनसे अपने विनाशकारी अस्त्र वापस लेने को कहा। यह सुनकर अर्जुन ने अपना अस्त्र वापस लौटा कर शांत कर दिया लेकिन अश्वत्थामा ऐसा करने में असमर्थ था इसलिए गुस्से में उसने अपने उस अस्त्र की दिशा उत्तरा के गर्भ की ओर बदल दी। यह कृत्य देखकर पांडवों को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने क्रोध में झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध दिया। श्रीकृष्ण बोले “हे अर्जुन! धर्मात्मा, निद्रामग्न, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक का वध धर्मानुसार वर्जित है। इसने धर्म विरुद्ध आचरण किया है, जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके इसका विच्छेदित मस्तक द्रौपदी के समक्ष प्रस्तुत कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करो।” वास्तव में श्रीकृष्ण यह देखना चाहते थे कि उनकी बातें सुनकर अर्जुन आगे क्या कदम उठाता है।
0.5
5,688.952369
20231101.hi_34352_8
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अश्वत्थामा
किन्तु श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के पश्चात् भी धीरवान अर्जुन ने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुए गुरुपुत्र को देखकर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को प्रणाम कर उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं, ब्राह्मण सदा ही पूजनीय होता है और उसका वध पाप है। इनके पिता से ही आपने इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञानार्जन किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनके वध से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेंगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”
0.5
5,688.952369
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अश्वत्थामा
द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपने खड्ग से अश्वत्थामा के केश विच्छेदित कर डाले और उसके मस्तक से वह शक्तिशाली दिव्य मणि का भी विच्छेदन कर डाला। मणि-विच्छेदन से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था, जब उसने एक निर्दोष स्त्री और उसके अजन्मे शिशु को मारने की कोशिश की थी। किन्तु केश मुंड जाने और मणि-विच्छेदन से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका मस्तक झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से निष्कासित कर दिया।
0.5
5,688.952369
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अश्वत्थामा
श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के पतित कर्मों के कारण ही अश्वत्थामा को ३००० वर्षों तक यह शाप दिया था कि, जिस प्रकार तूने पतित कर्म कर द्रोपदी की ममता को सदा के लिए शोक संतप्त दिया है उसी तरह तू भी अपने इस अमूल्य मणि के विच्छेदित किए जाने से हुए घाव के साथ जीवित रहेगा, तु मृत्यु मांगोगा किन्तु तेरी मृत्यु नहीं होगी । तू शारीरिक और मानसिक आघातों की पीड़ा भोगता हुआ उस दुःख को अनुभव कर सकेगा जो तूने दूसरों को दिए हैं और कभी शांति को प्राप्त नहीं होगा, इसके पश्चात ही अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया था। पवित्र स्कंद पुराण के अनुसार बाद में ऋषि वेद व्यास की सलाह पर अश्वत्थामा ने कई वर्षों तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर अंततः भगवान शिव ने अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण के श्राप से मुक्त कर दिया। और यह भी कहा जाता है कि यही वह क्षण था जब अश्वत्थामा भगवान शिव के आशीर्वाद से अमर हो गए थे।
0.5
5,688.952369
20231101.hi_7937_25
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%9C
चतुर्भुज
जो सदिशों AC और BD के सदिश गुणन के परिमाण का आधा है। द्वि-विमीय यूक्लिडियन ज्यामिती में, कार्तीय तल में एक मुक्त सदिश के रूप में सदिश AC को (x1,y1) और सदिश BD को (x2,y2) व्यक्त करने पर, इसे निम्न प्रकार लिखा जा सकता है:
0.5
5,681.854881
20231101.hi_7937_26
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%9C
चतुर्भुज
विकर्ण कुछ चतुर्भुजों में विकर्णों के गुणनिम्न सारणी में सूचीबद्ध है कि कुछ सामान्य चतुर्भुजों में विकर्ण एक-दूसरे को विभाजित करते हैं या नहीं, उनके विकर्ण लंबवत हैं या नहीं, और उनके विकर्णों की लंबाई बराबर है या नहीं।नोट 1: सबसे सामान्य समलंबों और द्विसमबाहु समलंबों में लंबवत विकर्ण नहीं होते हैं, लेकिन कई ऐसे असमान समलंब और द्विसमबाहु समलंब होते हैं जिनमें लंबवत विकर्ण होते हैं। ऐसे चतुर्भुजों का कोई निश्चित नाम नहीं होता।
0.5
5,681.854881
20231101.hi_7937_27
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%9C
चतुर्भुज
नोट 2: पतंगाकार चतुर्भुज में, एक विकर्ण दूसरे विकर्ण को समद्विभाजित करता है। सामान्य पतंगाकार चतुर्भुजों में असमान विकर्ण होते हैं, लेकिन कई ऐसे पतंगाकार चतुर्भुज होते हैं जिनमें विकर्णों की लंबाई बराबर होती है।
0.5
5,681.854881
20231101.hi_7937_28
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%9C
चतुर्भुज
एक उत्तल चतुर्भुज ABCD में विकर्णों की लंबाई, एक विकर्ण द्वारा बनाए गए प्रत्येक (दोनों) त्रिभुज पर कोज्या नियम तथा चतुर्भुज की किन्हीं दो भुजाओं का उपयोग करके ज्ञात की जा सकती है। इस प्रकार
0.5
5,681.854881
20231101.hi_7937_29
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%9C
चतुर्भुज
किसी उत्तल चतुर्भुज ABCD में, चारों भुजाओं के वर्गों का योग, दोनों विकर्णों के वर्गों और विकर्णों के मध्य बिन्दुओं को जोड़ने वाले रेखाखण्ड के वर्ग के योग के बराबर होता है। इस प्रकार
1
5,681.854881
20231101.hi_7937_30
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चतुर्भुज
जहां , विकर्णों के मध्यबिंदुओं के बीच की दूरी है. इसे यूलर की चतुर्भुज प्रमेय के रूप में जाना जाता है और यही समांतर चतुर्भुज नियम का सामान्यीकरण होता है।
0.5
5,681.854881
20231101.hi_7937_31
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चतुर्भुज
इस संबंध को चतुर्भुज के लिए कोज्या नियम माना जा सकता है। चक्रीय चतुर्भुज में, जहां A + C = 180°, यह सूत्र होता है। चूंकि cos (A + C) ≥ −1, यह टॉल्मी की असमानता का प्रमाण भी देता है।
0.5
5,681.854881
20231101.hi_7937_32
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चतुर्भुज
चतुर्भुज में, यदि X और Y, क्रमशः B और D से विकर्ण AC = p पर डाले गए अभिलम्बों के पाद हों, जहाँ , तब
0.5
5,681.854881
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चतुर्भुज
एक उत्तल चतुर्भुज ABCD में, जहाँ भुजा a = AB, b = BC, c = CD, d = DA हों, और उसके विकर्ण बिन्दु E पर प्रतिच्छेद करें, तब
0.5
5,681.854881
20231101.hi_32870_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8C%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
जौनपुर
जौनपुर के इतिहास की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है परंतु अनुश्रुतियो के अनुसार जौनपुर प्राचीन समय में देवनागरी नाम का पवित्र स्थान था जो अपने शिक्षा,कला और संस्कृति के कारण प्रसिद्ध था। सर्वप्रथम इस स्थान पर कन्नौज के शासक ने आक्रमण करके इसे अपने आधीन कर इसका नाम यवनपुर रखा तत्पश्चात् इसपर तुगलक शासक फिरोज शाह तुगलक ने इसकी स्थापना 13वीं सदी में अपने चचेरे भाई मुहम्मद बिन तुगलक की याद में की थी जिसका वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया। 1394 के आसपास मलिक सरवर ने जौनपुर को शर्की साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। शर्की शासक कला प्रेमी थे। उनके काल में यहां अनेक मकबरों, मस्जिदों और मदरसों का निर्माण किया गया। यह शहर मुस्लिम संस्कृति और शिक्षा के केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है। यहां की अनेक खूबसूरत इमारतें अपने अतीत की कहानियां कहती प्रतीत होती हैं। वर्तमान में यह शहर चमेली के तेल, तम्बाकू की पत्तियों, इमरती और स्वीटमीट के लिए लिए प्रसिद्ध है।
0.5
5,678.151927
20231101.hi_32870_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8C%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
जौनपुर
अटाला मस्जिद का निर्माण 1393 ईस्वी में फिरोजशाह तुगलक के समय में शुरू हुआ था जो १४०८ में जाकर इब्राहिम शर्की के शासनकाल में पूरा हुआ। मस्जिद के तीन तोरण द्वार हैं जिनमें सुंदर सजावट की गई है। बीच का तोरण द्वार सबसे ऊंचा है और इसकी लंबाई २३ मीटर है। इसकी बनावट देखकर कोई भी शर्की स्थापत्य की उच्चस्तरीय निर्माण कला का आसानी से अंदाजा लगा सकता है।
0.5
5,678.151927
20231101.hi_32870_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8C%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
जौनपुर
जौनपुर की इस सबसे विशाल मस्जिद का निर्माण हुसैन शाह ने १४५८-७८ के बीच करवाया था। एक ऊंचे चबूतर पर बनी इस मस्जिद का आंगन ६६ मीटर और ६४.५ मीटर का है। प्रार्थना कक्ष के अंदरूनी हिस्से में एक ऊंचा और आकर्षक गुंबद बना हुआ है।।मस्जिद से लगा हुआ शरकी क़ब्रिस्तान भी आकर्षक का केंद्र है
0.5
5,678.151927
20231101.hi_32870_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8C%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
जौनपुर
शाही किला गोमती के बाएं किनारे पर शहर के दिल में स्थित है। शाही किला फिरोजशाह ने १३६२ ई. में बनाया था इस किले के भीतरी गेट की ऊचाई २६.५ फुट और चौड़ाई १६ फुट है। केंद्रीय फाटक ३६ फुट उचा है। इसके एक शीर्ष पर वहाँ एक विशाल गुंबद है। शाही किला में कुछ आदि मेहराब रहते हैं जो अपने प्राचीन वैभव की कहानी बयान करते है।
0.5
5,678.151927
20231101.hi_32870_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8C%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
जौनपुर
इस मस्जिद का निर्माण १४५० के आसपास हुआ था। लाल दरवाजा मस्जिद बनवाने का श्रेय सुल्तान महमूद शाह की रानी बीबी राजी को जाता है। इस मस्जिद का क्षेत्रफल अटाला मस्जिद से कम है। लाल पत्थर के दरवाजे से बने होने के कारण इसे लाल दरवाजा मस्जिद कहा जाता है। इस मस्जिद में जौनपुर का सबसे पुराना मदरसा भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां सासाराम के शासक शेर शाह सूरी ने शिक्षा ग्रहण की थी इस मदरसा का नाम जामिया हुसैनिया है जिसके प्रबंधक मौलाना तौफ़ीक़ क़ासमी है
1
5,678.151927
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%8C%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
जौनपुर
गोमती नदी पर बने इस खूबसूरत ब्रिज को मुनीम खान ने 1568 ई. में बनवाया था। शर्कीकाल में जौनपुर में अनेकों भव्‍य भवनों, मस्‍जि‍दों व मकबरों का र्नि‍माण हुआ। फि‍रोजशाह ने 1393 ई0 में अटाला मस्‍जि‍द की नींव डाली थी, लेकि‍न 1408 ई0 में इब्राहि‍म शाह ने पूरा कि‍या.इब्राहि‍म शाह ने जामा मस्‍जि‍द एवं बड़ी मस्‍जि‍द का र्नि‍माण प्रारम्‍भ कराया, इसे हूसेन शाह ने पूरा कि‍या। शि‍क्षा, संस्‍क़ृति‍, संगीत, कला और साहि‍त्‍य के क्षेत्र में अपना महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखने वाले जनपद जौनपुर में हि‍न्‍दू- मुस्‍लि‍म साम्‍प्रदायि‍क सद् भाव का जो अनूठा स्‍वरूप शर्कीकाल में वि‍द्यमान रहा है, उसकी गंध आज भी वि‍द्यमान है। यह मुग़ल काल का पहला पुल है।
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5,678.151927
20231101.hi_32870_10
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जौनपुर
यहां शीतला माता का लोकप्रिय प्राचीन मंदिर बना हुआ है। इसके निर्माण की कोई अवधि या उल्लेख नहीं है बताया जाता है कि यह मौर्य कालीन प्राचीन मन्दिर था जिसका जीर्णोद्धार करके मां शीतला चौकियां धाम रखा गया। इस मंदिर के साथ ही एक बहुत ही खूबसुरत तालाब भी है, श्रद्धालुओं का यहां नियमित आना-जाना लगा रहता है। यहाँ पर हर रोज लगभग ५००० से ७००० लोग आते हैं। नवरात्र के समय में तो यहाँ बहुत ही भीड़ होती हैं। यहाँ बहुत दूर-दूर से लोग अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिये आते हैं। यह हिन्दुओ का एक पवित्र मंदिर जहाँ हर श्रद्धालुओं की मनोकामना शीतला माता पूरा करती है।
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5,678.151927
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जौनपुर
बाबा बारिनाथ का मंदिर इतिहासकारों के अनुसार लगभग ३०० वर्ष पुराना है। यह मंदिर उर्दू बाज़ार में स्थित है और इस दायरा कई बीघे में है। बाहर से देखने में आज यह उतना बड़ा मंदिर नहीं दीखता लेकिन प्रवेश द्वार से अन्दर जाने पे पता लगता है कि यह कितना विशाल रहा होगा।
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जौनपुर
जिले के जमैथा गावं में गोमती नदी के किनारे स्थित यह आश्रम एक धार्मिक केन्द्र के रूप में विख्यात है। सप्तऋषियों में से एक ऋषि जमदग्नि उनकी पत्नी रेणुका और पुत्र परशुराम के साथ यहीं रहते थे। संत परशुराम से संबंध रखने वाला यह आश्रम आसपास के क्षेत्र से लोगों को आकर्षित करता है।
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खड़ीबोली
खड़ी बोली अनेक नामों से अभिहित की गई है यथा- हिन्दुई, हिन्दवी, दक्खिनी, दखनी या दकनी, रेखता, हिन्दोस्तानी, हिन्दुस्तानी आदि। डॉ॰ ग्रियर्सन ने इसे 'वर्नाक्युलर हिन्दुस्तानी' तथा डॉ॰ सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे 'जनपदीय हिन्दुस्तानी' का नाम दिया है। डॉ॰ चटर्जी खड़ी बोली के साहित्यिक रूप को 'साधु हिन्दी' या 'नागरी हिन्दी' के नाम से अभिहित करते हैं। परन्तु डॉ॰ ग्रियर्सन ने इसे 'हाई हिन्दी' कहा है। इसकी व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न रूप से की है। इन विद्वानों के मतों की निम्नांकित श्रेणियाँ है-
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5,673.321009
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खड़ीबोली
(1) कुछ विद्वान खड़ी बोली नाम को ब्रजभाषा सापेक्ष मानते हैं और यह प्रतिपादन करते हैं कि लल्लू जी लाल (1803 ई.) के बहुत पूर्व यह नाम ब्रजभाषा की मधुरता तथा कोमलता की तुलना में उस बोली को दिया गया था जिससे कालान्तर में आदर्श हिन्दी तथा उर्दू का विकास हुआ। ये विद्वान खड़ी शब्द से कर्कशता, कटुता, खरापन, खड़ापन आदि ग्रहण करते हैं।
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5,673.321009
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खड़ीबोली
(4) अन्य विद्वान् उत्तरी भारत की ओकारान्त प्रधान ब्रज आदि बोलियों को 'पड़ी बोली' और इसके विपरीत इसे 'खड़ी बोली' के नाम से अभिहित करते हैं, जबकि कुछ लोग रेखता शैली को पड़ी और इसे खड़ी मानते हैं। खड़ी बोली को खरी बोली भी कहा गया है। सम्भवत: खड़ी बोली शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लल्लू लाल द्वारा प्रेमसागर में किया गया है। किन्तु इस ग्रन्थ के मुखपृष्ठ पर खरी शब्द ही मुद्रित है।
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खड़ीबोली
अत्यन्त प्राचीन काल से ही हिमालय तथा विन्ध्य पर्वत के बीच की भूमि आर्यावर्त के नाम से प्रख्यात है। इसी के बीच के प्रदेश को मध्य प्रदेश कहा जाता है जो भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता का केन्द्र-बिन्दु है। संस्कृत, पालि तथा शौरसेनी प्राकृत विभिन्न युगों में इस मध्यदेश की भाषा थी। कालक्रम से शौरसेनी प्राकृत के पश्चात् इस प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचार हुआ। यह कथ्य (बोलचाल की) शौरसेनी अपभ्रंश भाषा ही कालान्तर में कदाचित् खड़ी बोली (हिन्दी) के रूप में पारिणत हुई है। इस प्रकार खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी जाती है, यद्यपि इस अपभ्रंश का विकास साहित्यक रूप में नहीं पाया जाता। भोज और हम्मीरदेव के समय से अपभ्रंश काव्यों की जो परम्परा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक दिखाई पड़ती है। इसके उपरान्त भक्तिकाल के आरम्भ में निर्गुण धारा के सन्त कवि खड़ी बोली का व्यवहार अपनी सधुक्कड़ी भाषा में किया करते थे।
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खड़ीबोली
कुछ विद्वानों का मत है कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में लाई गई और उसका मूलरूप उर्दू है, जिससे आधुनिक हिन्दी की भाषा अरबी फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई। सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री, डॉ॰ ग्रियर्सन के मतानुसार खड़ी बोली अंग्रेजों की देन है। मुगल साम्राज्य के ध्वंस से खड़ी बोली के प्रचार में सहायता पहुँची। जिस प्रकार उजड़ती हुई दिल्ली को छोड़कर मीर, इंशा आदि उर्दू के अनेक शायर पूरब की ओर आने लगे उसी प्रकार दिल्ली के आसपास के हिन्दू व्यापारी जीविका के लिये लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना, आदि पूरबी शहरों में फैलने लगे। इनके साथ ही साथ उनकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली भी लगी चलती थी। इस प्रकार बड़े शहरों के बाजार की भाषा भी खड़ी बोली हो गई। यह खड़ी बोली असली और स्वाभाविक भाषा थी, मौलवियों और मुंशियों की उर्दू-ए-मुअल्ला नहीं। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के संबंध में ग्रियर्सन लिखते हैं कि यह समय हिन्दी (खड़ीबोली) भाषा के जन्म का समय था जिसका अविष्कार अंग्रेजों ने किया था और इसका साहित्यिक गद्य के रूप में सर्वप्रथम प्रयोग गिलक्राइस्ट की आज्ञा से लल्लू जी लाल ने अपने प्रेमसागर में किया।
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खड़ीबोली
लल्लू लाल और सदल मिश्र को खड़ी बोली के उन्नायक अथवा इसको प्रगति प्रदान करनेवाला तो माना जा सकता है, परन्तु इन्हें खड़ी बोली का जन्मदाता कहना सत्य से युक्त तथा तथ्यों से प्रमाणित नहीं है। खड़ी बोली की प्राचीन परम्परा के सम्बन्ध में ध्यानपूर्वक विचार करने पर इस कथन की अयथार्थता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है।
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खड़ीबोली
मुसलमानों के द्वारा इसके प्रसार में सहायता अवश्य प्राप्त हुई। उर्दू कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं बल्कि खड़ी बोली की ही एक शैली मात्र है जिसमें फारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता पाई जाती है तथा जो फारसी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू साहित्य के इतिहास पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट प्रमाणित है। अनेक मुसलमान कवियों ने फारसी मिश्रित खड़ी बोली में, जिसे वे 'रेख्ता' कहते थे, कविता की है। यह परम्परा 18वीं 19वीं शती में दिल्ली के अंतिम बादशाह बहादुरशाह तथा लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह तक चलती रही।
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खड़ीबोली
साधारणत: लल्लू जी लाल, सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ तथा मुंशी सदासुखलाल खड़ी बोली गद्य के प्रतिष्ठापक कहे जाते हैं परन्तु इनमें से किसी को भी इसकी परम्परा को प्रतिष्ठित करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। आधुनिक खड़ी बोली गद्य की परम्परा की प्रतिष्ठा का श्रेय भारतेंदु बाबू हरिशचंद्र एवं राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद को प्राप्त है जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा एक सरल सर्वसम्मत गद्यशैली का प्रवर्तन किया। कालान्तर में लोगों ने भारतेन्दु की शैली अधिक अपनाई।
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खड़ीबोली
वस्तुत: आधुनिक हिन्दी साहित्य खड़ी बोली का ही साहित्य है जिसके लिए देवनागरी लिपि का सामान्यतः व्यवहार किया जाता है और जिसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि के शब्दों और प्रकृतियों के साथ देश में प्रचलित अनेक भाषाओं और जनबोलियों की छाया अपने तद्भव रूप में वर्तमान है।
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थाईलैण्ड
यूरोपीय शक्तियों के साथ हुई लड़ाई में स्याम को कुछ प्रदेश लौटाने पड़े जो आज बर्मा और मलेशिया के अंश हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में यह जापान का सहयोगी रहा और विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका का। १९९२ में हुई सत्ता पलट में थाईलैंड एक नया संवैधानिक राजतंत्र घोषित कर दिया गया।
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थाईलैण्ड
धर्म और राजतंत्र थाई संस्कृति के दो स्तंभ हैं और यहां की दैनिक जिंदगी का हिस्सा भी। बौद्ध धर्म यहां का मुख्य धर्म है। इस्लाम धर्म एवं इसाई धर्म के अनुयायी भी थाईलैंड मे अच्छी खासी संख्या मे पाए जाते हैं। गेरुए वस्त्र पहने बौद्ध भिक्षु और सोने, संगमरमर व पत्थर से बने बुद्ध यहां आमतौर पर देखे जा सकते हैं। यहां मंदिर में जाने से पहले अपने कपड़ों का विशेष ध्यान रखें। इन जगहों पर छोटे कपड़े पहन कर आना मना है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%88%E0%A4%B2%E0%A5%88%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1
थाईलैण्ड
थाईलैंड का शास्त्रीय संगीत चीनी, जापानी, भारतीय और इंडोनेशिया के संगीत के बहुत समीप जान पड़ता है। यहां बहुत की नृत्य शैलियां हैं जो नाटक से जुड़ी हुई हैं। इनमें रामायण का महत्वपूर्ण स्थान है। इन कार्यक्रमों में भारी परिधानों और मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।
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थाईलैण्ड
प्राचीन समय यह हिंदू सभ्यता से परिपूर्ण देश था। आज भी यहां हिंदू संस्कृति की झलक देखने को मिल ही जाती है। रामायण यहां बहुत लोकप्रिय है। कालांतर में भारतीय बौद्ध राजाओं ने यहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया और यह देश बौद्ध देश के रूप में प्रख्यात हुआ।
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थाईलैण्ड
बैंकॉक थाइलैंड की राजधानी है। यहां ऐसी अनेक चीजें जो पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध हैं मरीन पार्क और सफारी। मरीन पार्क में प्रशिक्षित डॉल्फिन अपने करतब दिखाती हैं। यह कार्यक्रम बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी खूब लुभाता है। सफारी वर्ल्‍ड विश्‍व का सबसे बड़ा खुला चिड़ियाघर (प्राणीउद्यान) है। यहां एशिया और अफ्रीका के लगभग सभी वन्य जीवों को देखा जा सकता है। यहां की यात्रा थकावट भरी लेकिन रोमांचक होती है। रास्ते में खानपान का इंतजाम भी है।
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थाईलैण्ड
बैंकॉक के बाद पट्टया थाइलैंड का सबसे प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां भी घूमने-फिरने लायक अनेक खूबसूरत जगह हैं। इसमें सबसे पहले नंबर आता है रिप्लेज बिलीव इट और नॉट संग्रहालय का। यहां का इन्फिनिटी मेज और 4 डी मोशन थिएटर की सैर बहुत ही रोमांचक है। यहां की भूतिया सुरंग लोगों को भूतों का अहसास कराती है फिर भी सैलानी बड़ी संख्या में यहां आते हैं।
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थाईलैण्ड
यहां के कोरल आइलैंड पर पैरासेलिंग और वॉटर स्पोट्स का आनंद उठाया जा सकता है। यहां पर काँच के तले वाली नाव भी उपलब्ध होती हैं जिससे जलीय जीवों और कोरल को देखा जा सकता है। कोरल आइलैंड में एक रत्न दीर्घा भी है जहां बहुमूल्य से रत्नों के बार में जानकारी ली जा सकती है। लेकिन इस आइलैंड में आने से पहले यह जान लें कि यहां का एक ड्रेस कोड है जिसका पालन करना आवश्यक है।
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थाईलैण्ड
कोई पर्यटक पट्टया आए और अलकाजर कैबरट न जाए ऐसा नहीं हो सकता। यहां पर नृत्य, संगीत व अन्य कार्यक्रमों का आनंद उठाया जा सकता है। यहां होने वाले कार्यक्रमों की खास बात यह है कि इसमें काम करने वाली खूबसूरत अभिनेत्रियां वास्तव में पुरुष होते हैं।
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थाईलैण्ड
यह थाइलैंड का सबसे बड़ा, सबसे अधिक आबादी वाला द्वीप है। सबसे ज्यादा पर्यटक यहां आते हैं। रंगों से भरी इस जगह का विकास मुख्य रूप से पर्यटन की वजह से ही हुआ है। इस द्वीप में कुछ रोचक बाजार, मंदिर और चीनी-पुर्तगाली सभ्यता का अनोखा संगम देखा जा सकता है। यहाँ सब्से ज्यादा आबादि थाई और नेपाली की है।
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अपस्मार
आधुनिक चिकित्सा-शास्त्र में ये ऑपरेशन गामा नाइफ रेडियो सर्जरी के प्रयोग से लेज़र किरण द्वारा किया जाता है, जिसमें बिना चीर-फाड़ के ही लेज़र के उपयोग से विकृत भाग को हटा दिया जाता है।
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अपस्मार
क.    प्रभु मेरे बालक पर कृपा करो। उसे मिर्गी है। वह बहुत पीडा भोगता है। कभी वह आग में गिर जाता है तो कभी पानी में (मेथ्यू १७ः१५)
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अपस्मार
एक मसीहा ने लिखा मैंने ईश्वर के रहने की तमाम जगहों को इतनी सी देर में देख लिया। जितनी देर में एक घडा पानी भी खाली नहीं किया जा सकता।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0
अपस्मार
ख.    एक पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्हें एक अजीब असामान्य से दौरे में आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई थीं - मैं नहीं जानता कि मैं शरीर के अन्दर था या बाहर। मुझे ईश्वर ने कुछ पवित्र रहस्य बताये कि जिन्हें होंठ दुहरा नहीं सकते। सेन्टपाल के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी उनका धर्मान्तरण। लगभग ३० वर्ष की उम्र में वे येरूशलम से दमिश्क पैदल जा रहे थे। उद्देश्य था दमिश्क के ईसाईयों को सजा देना। मार्ग में अजीब घटा। एक तीव्र प्रकाश हुआ। वे जमीन पर गिर पडे। उन्हें कुछ आवाजें सुनाई दीं जो ईसा मसीह के समान थी। वे उठे परन्तु अन्धे हो चुके थे। दमिश्क पहुंचने के तीन दिन बाद उनकी रोशनी फिर लौटी। उनका मन बदल चुका था। ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया। अनेक न्यूरालाजिस्ट ने सेन्टपाल के जीवन पर उपलब्ध ईसाई धर्म साहित्य का गहराई से अध्ययन किया है तथा वे मत के हैं कि सेन्टपाल को एपिलेप्सी का दौरा आया होगा। उनके धर्मान्तरण में मिर्गी का कुछ प्रभाव जरूर था।
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अपस्मार
ग.    जोन ऑफ़ आर्क में एक बार लिखा मुझे दायीं होर से, गिरजाघर की तरफ से आवाज आयी। ईश्वर का आदेश था। आवाज के साथ सदैव प्रकाश भी आता है। प्रकाश की दिशा भी वहीं होती है जो ध्वनि की। अनुमान लगा सकते हैं कि उसके मस्तिष्क के बायें गोलार्ध व टेम्पोरल व आस्सीपिटल खण्ड में विकृति रही होगी।
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अपस्मार
घ.    दोनों भूमि पर पडे हैं, गरजते हैं, भुजाएं हिलाते हैं व फेन पैदा करते हैं। (शिशुपाल वध - ७वीं शताब्दी ईसा पश्चात्)। : महाकवि माघ
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0
अपस्मार
कास्का: हां ! रोम के सम्राट ऐन ताजपोशी के समय चक्करघिन्नी के समान घूमे और गिर पडे। मुंह से झाग निकल रहा था। बोल बन्द था।
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अपस्मार
व्रूटस: यह ठीक उसी बीमारी के समान लगता है जिसे मिर्गी कहते हैं। होश में आने के बाद जूलियस ने क्या कहा ?
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अपस्मार
कास्का: बोले यदि मैंने कोई ऐसी वैसी बात कही हो तो ... उसे मेरी कमजोरी व बीमारी माना जाए। और इसी बेहोशी के दौरे के कारण वह बाद में बडी देर तक उदास बना रहा।
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संज्ञा
प्राकृतिक भाषा की अभिव्यक्तियों में विभिन्न स्तरों पर विशेषताएं होती हैं। इनमें औपचारिक विशेषताएं होती हैं, जैसे कि वे किस प्रकार के रूपात्मक उपसर्ग या प्रत्यय लेते हैं और किस अन्य प्रकार की अभिव्यक्तियों के साथ संयोजित होती हैं; लेकिन इनके साथ अर्थगत विशेषताएं भी जुड़ी हैं, यानी उनके अर्थ से संबंधित गुण. इस लेख के शुरूआत में इस प्रकार noun की परिभाषा एक औपचारिक पारंपरिक व्याकरणमूलक परिभाषा है। वह परिभाषा, अधिकांशतः, अविवादास्पद मानी जाती है और कतिपय भाषाओं के उपयोगकर्ताओं के लिए अनेक संज्ञाओं को ग़ैर संज्ञाओं से प्रभावी रूप से अंतर समझने का साधन प्रस्तुत करती है। तथापि, इसकी एक असुविधा है कि यह सभी भाषाओं की संज्ञाओं पर लागू नहीं होता है। उदाहरण के लिए, रूसी में कोई निश्चयवाचक उपपद मौजूद नहीं हैं, अतः संज्ञाओं को ऐसे शब्दों के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है जो निश्चयवाचक उपपदों द्वारा संशोधित होते हैं। संज्ञाओं को उनके अर्थगत विशेषताओं के आधार पर परिभाषित करने के भी कई प्रयास हुए हैं। इनमें कई विवादास्पद हैं, लेकिन कुछ की नीचे चर्चा की जा रही है।
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संज्ञा
व्याकरण की पारंपरिक विचारधारा में अक्सर संज्ञाओं की परिभाषा से सामना होता है कि वे सभी और केवल वे अभिव्यक्तियां हैं जो व्यक्ति, स्थान, वस्तु, घटना, पदार्थ, गुणवत्ता, मात्रा, या विचार, आदि से संदर्भ रखते हैं। यह अर्थगत परिभाषा है। इसकी ग़ैर सूचनात्मक के रूप में समकालीन भाषाविदों द्वारा आलोचना की गई है। समकालीन भाषाविद् आम तौर पर सहमत हैं कि संज्ञाओं (या अन्य व्याकरणिक श्रेणियों) की इस आधार पर सफल परिभाषा संभव नहीं है कि वे किन दुनिया की वस्तुओं को संदर्भित करते या सूचित करते हैं। समस्या का अंश है कि संज्ञाएं क्या हैं, इसे परिभाषित करने के लिए परिभाषा अपेक्षाकृत सामान्य संज्ञाओं (वस्तु, तथ्य, घटना) का उपयोग करती है।
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संज्ञा
ऐसे सामान्य संज्ञाओं का अस्तित्व दर्शाता है कि संज्ञाएं ऐसे तत्वों को संदर्भित करती हैं जो वर्गीकरण पदानुक्रमों में सुव्यवस्थित हैं। लेकिन अन्य प्रकार की अभिव्यक्तियां भी ऐसे संरचित वर्गीकरण संबंधों में व्यवस्थित होते हैं। उदाहरण के लिए क्रियापद stroll, saunter, stride और tread अधिक सामान्य walk से ज़्यादा विशिष्ट शब्द हैं - देखें Troponymy. इसके अलावा, क्रिया move की तुलना में walk अधिक विशिष्ट है, जब कि change की तुलना में कम सामान्य. लेकिन यह संभावना नहीं है कि इस तरह के वर्गीकरण संबंधों का उपयोग nouns और verbs को परिभाषित करने के लिए किया जा सकता है। हम क्रियापदों को ऐसे शब्दों के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते हैं जो परिवर्तन या अवस्थाओं को संदर्भित करते हैं, उदाहरण के लिए संज्ञाओं के परिवर्तन और अवस्था संभवतः ऐसी चीज़ों को संदर्भित करती हों, पर निश्चित रूप से वे क्रिया नहीं हैं। इसी प्रकार, invasion, meeting, या collapse जैसी संज्ञाएं हो चुकी या होने वाली चीज़ों को संदर्भित करते हैं। वास्तव में, एक प्रभावशाली सिद्धांत यह है कि kill या die जैसे क्रियापद घटनाओं को संदर्भित करते हैं, जो चीज़ों की एक ऐसी श्रेणी है जिसका संज्ञा द्वारा उल्लेख अपेक्षित है।
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संज्ञा
यहां यह तर्क नहीं दिया जा रहा है कि क्रियापदों के बारे में यह दृष्टि ग़लत है, बल्कि यह कि क्रिया का यह गुण इस श्रेणी की परिभाषा के लिए कमज़ोर आधार है, ठीक उसी प्रकार जैसे पहियों की मौजूदगी कार की परिभाषा का एक कमज़ोर आधार है (पहियों वाले हर वाहन, जैसे अधिकांश सूटकेस या जंबो जेट कार नहीं हैं). इसी प्रकार, yellow या difficult जैसे विशेषणों के बारे में यह सोचा जा सकता है कि वे गुणों का उल्लेख कर रहे हैं और outside या upstairs जैसे क्रियाविशेषण स्थान को संदर्भित करते हुए प्रतीत होते हैं, जोकि ऐसी चीज़ों में हैं जिनका संज्ञाएं उल्लेख कर सकती हैं। लेकिन क्रिया, विशेषण और क्रियाविशेषण, संज्ञाएं नहीं हैं और संज्ञाएं क्रिया, विशेषण या क्रियाविशेषण नहीं हैं। इस पर बहस किया जा सकता है कि ये इस तरह की परिभाषाएं वास्तव में वक्ता के संज्ञा, क्रिया और विशेषण के बारे में पूर्व सहज ज्ञान पर है कि वे क्या हैं और, इसमें या इससे ज़्यादा वास्तव में कुछ और नहीं जोड़ते हैं। इनके बारे में वक्ताओं का सहज ज्ञान संभवतः देखने में औपचारिक मानकों पर, यथा ऊपर उल्लिखित अंग्रेज़ी nouns की पारंपरिक व्याकरणिक परिभाषा पर आधारित हो सकता है।
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संज्ञा
ब्रिटिश तर्कशास्त्री पीटर थॉमस गीच ने nouns के अधिक दक्ष अर्थगत परिभाषा को प्रस्तावित किया। उन्होंने देखा कि "same" जैसे विशेषण noun का अर्थ सीमित कर सकते हैं लेकिन क्रिया या विशेषण जैसे अन्य शब्द भेदों के नहीं. इतना ही नहीं, क्रिया और विशेषणों को रूपांतरित करने वाले एकसमान अर्थ वाली अन्य कोई अभिव्यक्तियां भी प्रतीत नहीं होती. निम्नलिखित उदाहरणों पर विचार करें.
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संज्ञा
अंग्रेज़ी में samely कोई क्रियाविशेषण नहीं है। तथापि चेक जैसी कुछ अन्य भाषाओं में samely के समनुरूप क्रियाविशेषण मौजूद हैं। इसलिए चेक में, पिछले वाक्य का अनुवाद सही होगा: तथापि, उसका मतलब यह होगा कि जॉन और बिल एकसमान लड़े: न कि दोनों ने एक ही लड़ाई में हिस्सा लिया। गीच ने Geach प्रस्तावित किया कि हम इसे निरूपित कर सकते हैं, यदि पहचान मानकों सहित तार्किक विधेय को द्योतित करते हैं। उदाहरण के लिए, एक पहचान कसौटी हमें निष्कर्ष निकालने देगी कि व्यक्ति x समय 1 में और व्यक्ति y समय 2 में एक ही व्यक्ति है। अलग noun की अलग पहचान मानक होगी. इसका एक विख्यात उदाहरण गुप्ता की वजह से है:
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संज्ञा
यह देखते हुए कि सामान्य रूप से सभी यात्री व्यक्ति हैं, उपर्युक्त अंतिम वाक्य को तर्कसंगत रूप से पहले का अनुगमन करना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, यह कल्पना करना आसान है कि औसतन, 1979 में नेशनल एयरलाइन्स में यात्रा करने वाले हर व्यक्ति नेउनके साथ दो बार यात्रा की. ऐसे मामले में कहा जा सकता है कि एयरलाइन ने 2 करोड़ passengers को पहुंचाया, पर केवल 1 करोड़ persons को. इस प्रकार, यात्रियों की गिनती का हमारा जो तरीक़ा है, वह व्यक्तियों की गिनती के तरीक़े के समान नहीं है। कुछ अलग तरह यही बात कहें तो: जो अलग समय में, आप दो अलग यात्रियों के समनुरूप होंगे, भले ही आप एक और वही व्यक्ति हैं। पहचान मानक की सटीक परिभाषा के लिए देखें गुप्ता.
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संज्ञा
हाल ही में, मार्क बेकर ने प्रस्तावित किया है कि nouns के संबंध में पहचान मानकों के संदर्भ में गीच की परिभाषा nouns की स्वरूपात्मक विशेषताओं की व्याख्या अनुमत करती है। उनका तर्क है कि nouns (अ) निश्चयवाचक उपपदों और संख्याओं के साथ पाए जा सकते हैं और वे आदिप्रारूपतः निर्देशात्मक हैं क्योंकि वे सब और केवल शब्दभेद के वे अंश हैं जो पहचान मानक उपलब्ध कराते हैं। बेकर के प्रस्ताव काफी नए हैं और भाषाविद् अब भी उनका मूल्यांकन कर रहे हैं।
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संज्ञा
Proper name यहां पुनर्निर्देशित करता है। भाषा की अवधारणा के तत्व-ज्ञान के लिए देखें Proper name (philosophy).
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मोटरवाहन
फोर्ड की जटिल सुरक्षा प्रक्रियाएं, जो विशेष रूप से हर श्रमिक को एक सुनिश्चित स्थान प्रदान करती थी, जिसके कारण वह इधर उधर घूम नही पाते थे, जिसके कारण घायल होने की दर बहुत हद तक कम हो गयी। उच्च मजदूरी और उच्च दक्षता की इस आर्थिक और सामाजिक प्रणाली को "फोिर्डस्म (Fordism)" कहा गया और अधिकतर प्रमुख उद्योगों ने इसका अनुसरण किया।
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मोटरवाहन
इस समानुक्रम लाइन से जो दक्षता में लाभ हुआ वह अमेरिका के आर्थिक वृद्धि के समय ही हुआ। समानुक्रम लाइन में श्रमिकों को एक निश्चित गति से दोहरावदार क्रियाएँ करनी पड़ती थी, जिसके कारण प्रति श्रमिक उत्पादन बढ़ गया, जबकि अन्य राष्ट्र कम उत्पादक विधियों का इस्तेमाल कर रहे थे।
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मोटरवाहन
मोटर वाहन उद्योग (automotive industry) में, उनकी सफलता सब पे हावी थी, और जल्द ही पूरे विश्व में स्थापना हुई, 1911 में फोर्ड फ्रांस और ब्रिटेन फोर्ड, फोर्ड डेनमार्क 1923, फोर्ड जर्मनी 1925 और 1921 में,सित्रोएँ (Citroen) पहला यूरोपीयन निर्माता था जिसने इस उत्पादन पद्धति को अपनाया . जल्द ही, कंपनियों को असेम्बली लाइन कार्य विधि अपनानी पड़ी और जिन्होंने ये नही किया उन कम्पनियों को काफी नुक्सान का सामना करन पड़ा, 1930 तक, 250 कम्पनियाँ गायब हो गई .
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मोटरवाहन
मोटर वाहन प्रौद्योगिकी विकास तेजी से चल रही थी और इसका श्रेय दुनिया भर के छोटे निर्माताओं को जाता है। प्रमुख घटनाक्रमों में शामिल थी बिजली इग्निशन (ignition) और बिजली के सेल्फ स्टार्टर (दोनों लायी गयीं थी चार्ल्स केत्तेरिंग (Charles Kettering) द्वारा, कादिल्लाक (Cadillac) मोटर कंपनी के लिए 1910 - 1911 में की) इन्देपेंदेंट सुस्पेंसन (suspension), और चार पहिया ब्रेक.
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मोटरवाहन
1920 के दशक से, लगभग सभी कारें बाजार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए थोक में बनाई गई, इसलिए उनकी मार्केटिंग योजनायें ऑटोमोबाइल डिजाईन से काफ़ी प्रभावित थी। वो अल्फ़्रेड पी.स्लोअन (Alfred P. Sloan) थे जिन्होंने यह विचार स्थापित किया की एक कंपनी को अलग अलग करें बने चाहिए, ताकि खरीदार की आर्थिक अवस्था में सुधार के साथ वोह आगे बढ़ सके .
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मोटरवाहन
इस तेज परिवर्तन के परिणामस्वरूप, जहाँ बनी हुई छोटे छोटे भाग एक दूसरे के साथ बटने से, उत्पादन बड़े मात्र में हुई, वोह भी कम कीमत पे हर एक भाग का .उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में, ला साल्ले (LaSalle), जिसने बेचा कादिल्लाक (Cadillac) ने, इस्तमाल किया सस्ते यांत्रिक भागों का ओल्ड्स मोबाइल (Oldsmobile) द्वारा बना हुआ ;उसी तरह चेर्वोले ने अपनी हुड, दरवाजों, छत साझा और खिड़कियाँ बांटी पोंतिअक (Pontiac) के साथ ; और 1990 तक, कॉर्पोरेट ड्राइव ट्रेन्स (drivetrain) और साझा प्लेटफार्म (platforms)(इंटर चंगाब्ले ब्रेक (brake), सुस्पेंसन और अन्य भाग) एक आम बात बन गई थी। फिर भी, केवल प्रमुख निर्मतायें ही सक्छम थे इतने उच्चे दम पर निर्माण करने के लिए, क्योंकि कंपनियां जो दशकों से उत्पादन में थी, जैसे अप्पेर्सन (Apperson),कोल (Cole), दोर्रिस (Dorris),हायनेस (Haynes), या प्रेमिएर (Premier), भी यह सेह न सकी, लगभग कुछ दो सौ अमेरिकन कार निर्माता थे 1920 में, जिनमें से केवल 43 बची १९३० तक और ग्रेट डिप्रेशन (Great Depression) के साथ, केवल 17 ही बच पाई .
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मोटरवाहन
यूरोप में भी लगभग येसा ही होगा .1924 में, कावले (Cowley) में, मौरिस (Morris) ने अपनी उत्पादन लाइन की स्थापना की और जल्द ही फोर्ड को बेच दिया, हालाँकि 1923 में शुरू हुई, फोर्ड की सीधा एकीकरण (vertical integration), जिसने खरीदा होत्च्किस (Hotchkiss)(की इंजन), व्रिग्ले (Wrigley)(की गियर बॉक्स), और ओस्बेर्तों (Osberton) (के रादिअतोर्स), उस समय, साथ ही पर्तियोगी, जैसे wolseley (Wolseley),1925 में मोरिस के पास 41% कुल ब्रिटिश कार उत्पादन थी। अधिकांश छोटे ब्रिटिश कार अस्सेम्ब्लेर्स, अब्बे (Abbey) से लेकर एक्स्ट्रा (Xtra) तक वापिस चले गएँ .सित्रोएँ ने फ्रांस में भी यही किया, जहाँ कार की बात होती है 1919 में, उनके और दूसरी सस्ते कारों के बीच जैसे रेनोल्ट (Renault) की 10 CV (10CV) और पयूगेत (Peugeot) की 5 CV (5CV), उन्होंने 550,000 कारों का निर्माण किया 1925 तक और इसमें मोर्स (Mors),हरतु (Hurtu), और अन्य कई इस कार बनने के होड़ में जीत नही पायें. जर्मनी की पहली सामूहिक-निर्मित कार, ओपेल 4PS"लौब्फ्रोस्च" (4PS Laubfrosch) (ट्री फरोग), बन के टायर हुई रुस्सेल्शेइम (Russelsheim) में 1924 में और ये जल्दही ओपेल को शीर्ष कार निर्माता बना दी जर्मनी में 37.5 % मार्केट शेयर के साथ.
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मोटरवाहन
अधिकांश ऑटोमोबाइल जिनका आज हम प्रयोग करते हैं चलती है गैसोलीन (gasoline) द्वारा (जिसे हम पेट्रोल भी कहते हैं) या डीजल आंतरिक दहन इंजन, जो वायु प्रदूषण (air pollution) फैलाने के लिए भी जाने जाते हैं और इन्हे जलवायु परिवर्तन (climate change) और ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी दोषी ठहराया गया है। तेल की बढती कीमत, सख्त पर्यावरण कानून और ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) एमिस्सिओं पर पबंधियों ने हमे दूसरे ऊर्जा प्रणालियों को ढूँढने पर मजबूर कर दिया .मौजूदा प्रौद्योगिकियों को सुधरने और हटाने के प्रयास में हमने दूसरे विकास किए जैसे हाइब्रिड वाहन (hybrid vehicle), और बिजली (electric) और हाइड्रोजन वाहन (hydrogen vehicle)s जो हवा में प्रदूषण नही फैलाते थे।
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मोटरवाहन
डीजल इंजन कारें लंबे समय से यूरोप में प्रसीध थीं जिसका पहला मॉडल लाया गया 1930 के दशक में मर्सिडीज बेंज (Mercedes Benz) और Citroën (Citroën) द्वारा .मुख्य लाभ डीजल इंजनों में ये थी की उनमें 50% फुएल बर्न efficiency ज्यादा थी जब तुलना किया गया सबसे अच्छी गसोलिने इंजन से, जिसकी 27 % थी। एक कमी का प्रयोग करने में यह है की soot particulates मौजूद थे exhaust गैस में, पर इसको हटाने के लिए निर्माताओं ने का प्रयोग किया। अधिकाँश डीजल से चलने वाली करें biodiesel से भी चलती थी, कुत्च मामूली संशोधनों के बाद या बिना किसी संशोधन के.
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मोक्ष
मोक्ष की कल्पना स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना से पीछे की है और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग लोक की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरान्त फिर इस संसार में आकर जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7
मोक्ष
भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दुःखमय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलतः सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्रायः आत्मवादी है। अन्ततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7
मोक्ष
सबसे पहले तो पुण्य या पाप से मुक्ति नहीं मिलती। पुण्य और पाप दोनों ही कर्म बंधन में बांधने वाले हैं, दोनों का अभाव ही मोक्ष है। इसके लिए आवश्यक है कि पुण्य अथवा पाप के प्रति आसक्ति रखे बिना प्राकृतिक रूप से कर्म करते चलना है। जिस प्रकार से नदी के प्रवाह में पड़े हुए पत्ते की कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं होती अपितु वह जल के प्रवाह के ही समान गतिशील होता है, उसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी स्वतंत्र शुभाशुभ इच्छाओं का परित्याग करके यदि केवल कर्तव्य कर्मों के प्रति आचरण करे, तो उसके कर्म बंधन का धीरे-धीरे स्वतः लोप हो जाता है और यही क्रम मुक्ति का प्रथम सोपान है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7
मोक्ष
यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दुःख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनन्द की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनन्द में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदान्त में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7
मोक्ष
हिन्दू धर्म में मोक्ष का बहुत महत्त्व है। यह मनुष्य जीवन चार उद्देश्यों में बांटा गया है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये पुरुषार्थ चतुष्टय कहलाते हैं। इनका वर्णन वेदों व अन्य हिन्दू धार्मिक पुस्तकों में पाया जाता है। ये चारों आपस में गहरा संबन्ध रखते हैं। धर्म का अर्थ है वे सभी कार्य जो आत्मा व समाज की उन्नति करने वाले हों। अर्थ से तात्पर्य है किसी अच्छे कलात्मक कार्य द्वारा धनार्जन करना। काम का अर्थ है जीवन को सात्विक व सुःख सुविधासंपन्न बनाना। मोक्ष का अर्थ है आत्मा द्वारा अपना और परमात्मा का दर्शन करना। आत्मा को मोक्ष भगवान की कृपा से प्राप्त होता है। भगवान की कृपा उन्ही आत्माओं पर होती है जिन्होंने शरीर में रहते हुए अच्छे कर्म किए हों। मोक्ष प्राप्ति के लिए मनुष्य को अष्टांग योग भी अपनाना चाहिए। अष्टांग योग का वर्णन महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रंथ योगसूत्र में किया है। गीता में भी योग के बारे में वर्णन है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी अष्टांग योग के बारे में वर्णन किया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7
मोक्ष
बौद्ध दर्शन में निर्वाण की कल्पना मोक्ष के समानांतर ही की गई है। "निर्वाण" शब्द का अर्थ है, बुझ जाना। निर्वाण शब्द की इस व्युत्पत्ति के मूल अर्थ को लेकर आलोचकों ने निर्वाण के सिद्धान्त को निरर्थक बना दिया है। उनका मानना है कि निर्वाण का अर्थ है सभी मानवीय भावनाओं का बुझ जाना, जो मृत्यु के सामान है। इस प्रकार के अर्थ द्वारा निर्वाण के सिद्धांत का उपहास बनाने की कोशिश की है। दूसरी बात है कि आलोचक 'निर्वाण' और 'परिनिर्वाण' में भेद करना भी भूल गए हैं। "जब शरीर के महाभूत बिखर जाते हैं, सभी संज्ञाएँ रुक जाती हैं, सभी वेदनाओं का नाश हो जाता है, सभी प्रकार की प्रतिक्रया बन्द हो जाती है और चेतना जाती रहती है, परिनिर्वाण कहलाता है। निर्वाण का कभी भी यह अर्थ नहीं हो सकता। निर्वाण का अर्थ है अपनी भावनाओं पर पर्याप्त संयम रखना, जिससे आदमी धर्म के मार्ग पर चलने के योग्य बन सके। तथागत बुद्ध ने यह स्पष्ट किया था की सदाचरणपूर्ण जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है। निर्वाण का अर्थ है वासनाओं से मुक्ति। निर्वाण प्राप्ति से सदाचरणपूर्ण जीवन जिया जाता है। जीवन का लक्ष्य निर्वाण ही है। निर्वाण ही ध्येय है। निर्वाण माध्यम मार्ग है। निर्वाण आष्टागिक-मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बौद्ध दर्शन में भी बंधन का कारण तृष्णा, वितृष्णा तथा अविद्या को माना गया है। जब आदमी इन बंधनों से मुक्त हो जाता है तो वह निर्वाण प्राप्त करना जन जाता है और उसके लिए निर्वाण-पथ खुल जाता है। इसके लिये अष्टांगिक मार्ग की व्यवस्था की गई है। वे इस प्रकार हैं: सम्यग् दृष्टि, सम्यग् संकल्प, सम्यग् वचन, सम्यग् कर्म, सम्यग् जीविका, सम्यग् प्रयत्न, सम्यग् स्मृति और सम्यग् समाधि। इनमें से प्रथम दो ज्ञान, मध्य के तीन शील एवं अंतिम तीन समाधि के अंतर्गत आते हैं। इस मार्ग का अनुसरण करने पर तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से संग्रह प्रवृति का निरोध होता है। इस प्रकार की मुक्ति जीवन में भी संभव है, किंतु मृत्यूपरांत निर्वाण का क्या स्वरूप होगा, इसे निषेधात्मक रूप से बतलाया गया है। एक प्रकार से वह शल्नय के समान है।
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मोक्ष
जैन दर्शन में जीव और अजीव का सबंध कर्म के माध्यम से स्थापित होता है। कर्म के माध्यम से जीव को अजीव या जड़ से बँध जाना ही बंधन है। इस प्रक्रिया का आस्राव शब्द से व्यक्त करते हैं। आस्राव का निरोध होने पर ही जीव अजीव से मुक्त हो सकता है। इसके लिये त्रिविध संयम की व्यवस्था की गई है। सम्यग् दर्शन (सही श्रद्धा), सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चरित्र का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन "रत्नत्रय" के पालन से "आश्रव" निरूद्ध होता है। मुक्त होने के क्रम में दो स्थितियाँ आती हैं। पहले नवीन कर्मों का प्रवाह निरुद्ध होता है, इसे "संवर" कहते हैं। दूसरी अवस्था में पूर्व जन्मों के संचित कर्मों का भी विनाश हो जाता है। इसे "निर्जरा" कहते हैं। इसके बाद की ही स्थिति मोक्ष कहलाती है। यह जीवनमुक्ति की स्थिति है, यह स्पष्ट रूप से पारमार्थिक स्वरूप माना गया है। विदेहमुक्ति की अवस्था में "केवल ज्ञान" की उपलब्धि हो जाती है। ऐसी स्थिती में आत्मा सर्वांगीण संपूर्ण होती है। अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत शांति एवं अनंत ऐश्वर्य उसे सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।
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मोक्ष
न्याय वैशेषिक मोक्ष की कल्पना भिन्न प्रकार से करते हैं। वे मोक्ष की स्थिति को आनंदमय नहीं मानते। क्योंकि दु:ख और सुख दोनों आत्मा के विशेष गुण हैं, इसलिये दोनों सत्य हैं। न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं। इसीलिये दोनों सत्य हैं। न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं। इसीलये दु:ख के अभाव का अर्थ आनंद का होना, नहीं है। मुक्ति का अर्थ है "अपवर्ग", दु:ख सुख दोनों से परे होना। ये दोनों आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं। इसलिये मोक्ष की स्थिति में आत्मा दोनों से मुक्त हो जाती है। दु:ख से मुक्ति पाने के पहले हमें सुख की आशा ही छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि दु:ख अंत तक हमारा पीछा नहीं छोड़ता, लेकिन हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं। यह अवस्था सुख दु:ख के परे होने से प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति देहत्याग के पश्चात् विदेहमुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में आत्मा अपने विशेष गुणों से परे हो जाता है। एक तरह से वह संवेदनहीन और इच्छाशून्य हो जाता है उसमें पुन: चैतन्य प्रविष्ट होगा ही नहीं। जीवनमुक्ति इस संप्रदाय में अस्वीकार की गई है। फिर वह अच्छे कर्मो का संपादन करते हुए, "दिव्य विभूति" पद को प्राप्त कर सकता है। किंतु आत्मा के विशेष गुण बने रहेंगें। इसमें भी योग, ध्यान और क्रमिक अभ्यास के कठोर संयमों का पालन करना पड़ता है।
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मोक्ष
सांख्य योग में "कैवल्य" को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। यह मोक्ष के समान ही है। यह जिससे मुक्त होता है, उवसे प्रकृति और जो मुक्त होता है, उसे पुरूष स्वरूप से ही असंग है। कैवल्य उसका स्वभाव है। प्रकृति के संसर्ग में आने पर वह अपने स्वरूप को भूल जाता है। वह अहमबूद्धि के आ जाने पर संसार को सत्य मान लेता है। संसार के प्रति अनासक्ति भाव उत्पन्न करने के लिये मुुमुक्ष को कठोर तप, नियम एवं संयम का पालन करना पड़ता है। इस कठोर साधना के आठ अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इस साधना के माध्यम से व अहंभाव से मुक्त होता है। यहाँ मुक्त होने का अर्थ किसी अन्य सत्ता, ईश्वर या ब्रह्म से संयोग नहीं है, बल्कि मोक्ष यहाँ वियोग की स्थिति है। प्रवृति से मुक्त होकर, परमशांति का मनन करता हुआ पुरूष अपनी असफलता को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में साधक जीवन मुक्त हो जाता है। प्रकृति से अपनी भिन्नता को समझते हुए वह रोग द्वेष इत्यादि से प्रभावित नहीं होगा। देह त्यागने के बाद वह विदेह मुक्त हो जाएगा। सांध्य ईश्वर में विश्वास नहीं करता, लेकिन योग ईश्वर प्रणिधान या भक्ति को भी मोक्ष का साधन मानता है। किंतु यह श्रद्धालु अथवा अज्ञानियों के लिये स्वीकृत किया गया है, जो कठोर योगागों का अभ्यास करने में अक्षम हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
ऐसे आम अवसरवादी संक्रमण और ट्यूमर, जिनमें से अधिकांश को सामान्यतः दृढ़ सीडी4+ टी (CD4+ T) कोशिकाओं की मध्यस्थता से प्राप्त प्रतिरोध द्वारा नियंत्रित किया जाता है, अब मरीज को प्रभावित करने लगते हैं। विशिष्ट रूप से, प्रारंभिक प्रतिरोध मौखिक कैंडिडा प्रजातियों और माइकोबैक्टेरियम ट्युबरक्युलॉसिस (Mycobacterium tuberculosis) के कारण समाप्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मौखिक कैंडियासिस (छाला) और ट्युबरक्युलॉसिस के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है। इसके बाद, अदृश्य हर्पस विषाणुओं के पुनर्सक्रियण के कारण हर्पस सिम्प्लेक्स की बढ़ती हुई फुन्सियों, शिंगल (Shingle), एप्सटीन-बैर विषाणु-प्रवृत्त बी-कोशिका लिंफोमा (Epstein-Barr virus-induced B-cell lymphomas) अथवा कापोसी के सार्कोमा (Kaposi's sarcoma) की बिगड़ती हुई स्थिति के साथ इनकी पुनरावृत्ति हो सकती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
न्युमोसिस्टिस जिरोवेकी (Pneumocystis jirovecii) के कारण होने वाले न्युमोनिया आम है और अक्सर यह जानलेवा भी होता है। एड्स (AIDS) के अंतिम चरणों में, साइटोमेगैलोवायरस (cytomegalovirus) (एक अन्य हर्पस विषाणु) या माइकोबैक्टेरियम एवियम कॉम्प्लेक्स (Mycobacterium avium complex) के द्वारा होने वाले संक्रमण अधिक विशिष्ट हैं। एड्स (AIDS) के सभी रोगियों में ये सभी संक्रमण या ट्यूमर नहीं होते और कुछ ऐसे ट्यूमर और संक्रमण भी हैं, जो कम विशिष्ट हैं, लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
एचआईवी (HIV) के लिये तीन मुख्य संचरण मार्गों की पहचान की गई है। एचआईवी-1 (HIV-1) की तुलना में मां-से-संतान में और यौन-क्रिया मार्ग के द्वारा एचआईवी-2 (HIV-2) का संचरण होने की दर बहुत कम है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
अधिकांश एचआईवी (HIV) संक्रमण असुरक्षित यौन संबंधों के कारण प्राप्त होते हैं। एचआईवी (HIV) के बारे में फैला परितोष एचआईवी (HIV) के जोखिम में एक मुख्य भूमिका निभाता है। जब एक साथी के संक्रमित यौन-स्राव दूसरे के लैंगिक, मौखिक या गुदा की श्लेष्म झिल्ली के संपर्क में आते हैं, तब यौन-संचरण हो सकता है। उच्च-आय वाले देशों में, महिला-से-पुरुष में होने वाले संचरण की दर 0.04% प्रति कृत्य और पुरुष-से-महिला संचरण की दर 0.08% प्रति कृत्य है। विभिन्न कारणों से, निम्न-आय वाले देशों में ये दरें 4 से 10 गुना अधिक हैं। ग्रहणशील गुदा-मैथुन की दर अत्यधिक उच्च है, 1.7% प्रति कृत्य.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
लैटेक्स कंडोम का सही और नियमित प्रयोग एचआईवी (HIV) के यौन संचरण के जोखिम को लगभग 85% तक कम कर देता है। हालांकि, स्पर्मीसाइड (Spermicide) वास्तव में संचरण दर को बढ़ा सकता है।
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एचआइवी
दक्षिण अफ्रीका, केन्या, और युगांडा में ऐसे यादृच्छिकृत नियंत्रित परीक्षण किये जाते रहे हैं, जिनमें खतना न किये हुए पुरुषों को रोगाणुहीन स्थितियों में उनका चिकित्सीय खतना करने के लिये यादृच्छिक रूप से चुना गया और उन्हें परामर्श दिया गया, जबकि अन्य पुरुषों का खतना नहीं किया गया, इनसे महिला-से-पुरुष में यौन एचआईवी (HIV) संचरण की दर में क्रमशः 60%, 53% और 51% की गिरावट देखी गई। इसके परिणामस्वरूप, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) तथा यूएनएड्स (UNAIDS) सचिवालय द्वारा स्थापित एक विशेषज्ञ समिति ने “पुरुषों में विषमलिंगकामी रूप से अभिग्रहित एचआईवी (HIV) संक्रमण के जोखिम को कम करने के एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में अब पुरुष खतने को भी मान्यता दिये जाने की अनुशंसा की है।" पुरुषों के साथ यौन-क्रिया करने वाले पुरुषों में, इस बात के प्रमाण अपर्याप्त हैं कि नर खतना एचआईवी (HIV) संक्रमण या अन्य यौन रूप से संचरित होने वाले संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
जिन महिलाओं में मादा जननांग कर्तन (female genital cutting) (एफजीसी) (FGC) प्रक्रिया हुई है, उनमें एचआईवी (HIV) के अध्ययनों के मिश्रित परिणाम प्राप्त हुए हैं; विवरणों के लिये मादा जननांग कर्तन#एचआईवी (HIV) देखें.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
सामान्यतः यदि संक्रमित रक्त किसी भी खुले घाव के संपर्क में आ जाए, तो एचआईवी (HIV) संचरित हो सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%9A%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%B5%E0%A5%80
एचआइवी
इस संचरण मार्ग के कारण अंतःशिरा में नशीली दवाएं लेने वाले प्रयोक्ताओं, हीमोफीलिया से ग्रस्त लोगों और रक्ताधान (हालांकि विकसित विश्व में अधिकांश रक्ताधानों को एचआईवी (HIV) की अनुपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये जांचा जाता है) और रक्त उत्पादों के प्राप्त कर्ताओं में संक्रमण हो सकता है। यह उन लोगों के लिये भी चिंता का विषय है, जो ऐसे क्षेत्रों में चिकित्सीय देखभाल प्राप्त कर रहे हों, जहां इंजेक्शन उपकरण के प्रयोग में स्वच्छता के घटिया स्तर प्रचलित हैं, जैसे तृतीय विश्व के देश. स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताओं, जैसे परिचारिकाएं, प्रयोगशाला सहायक और चिकित्सक भी संक्रमित होते रहे हैं, हालांकि ऐसा बहुत दुर्लभ मामलों में ही होता है। जब से रक्त के द्वारा एचआईवी (HIV) का संक्रमण ज्ञात हुआ है, तब से वैश्विक सावधानियों के द्वारा रक्त के संपर्क में आने से स्वयं का बचाव करना चिकित्सीय पेशेवरों के लिये आवश्यक बना दिया गया है। जो लोग गोदने, छेदन करवाने और खुरचने की विधियां करते या करवाते हैं, उन्हें भी संक्रमण का जोखिम हो सकता है।
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न्यूमोनिया
निमोनिया का निदान आम तौर पर शारीरिक चिह्नों और सीने के एक्स-रे के संयोजन द्वारा किया जाता है।हलांकि अन्तर्निहित कारण की पुष्टि करना कठिन हो सकता है क्योंकि बैक्टीरिया जनित अथवा गैर-बैक्टीरिया जनित मूल के बीच अन्तर करने वाला कोई भी पुष्टीकरण परीक्षण नहीं उपलब्ध है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बच्चों में निमोनिया के निर्धारण का आधार चिकित्सीय आधार पर खांसी या श्वसन में जटिलता और तीव्र श्वसन दर, सीने में भीतरी खिचाव में या चेतना में कमी को बताया है। तीव्र श्वसन दर को दो माह तक के बच्चों में 60 से अधिक श्वसन प्रति मिनट, दो माह से एक साल के बच्चों में 50 से अधिक श्वसन प्रति मिनट और 1 साल से 5 साल तक के बच्चों में 40 से अधिक श्वसन प्रति मिनट के रूप में निर्धारित किया गया है। बच्चों में बढ़ी हुई श्वसन दर और सीने में घटा भीतरी खिचाव, स्टेथेस्कोप से सीने की चिटकन के सुनाई देने से अधिक संवेदनशील है।
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न्यूमोनिया
वयस्कों में, हल्के मामलों में जाँच की जरूरत नहीं पड़ती है: यदि सभी महत्वपूर्ण चिह्न और परिश्रवण सामान्य है तो निमोनिया को जोखिम बहुत कम है। अस्पताल में भर्ती किये जाने की जरूरत वाले लोगों में, पूर्ण रक्त गणना, सीरम इलेक्ट्रोलाइट, सी-रिएक्टिव प्रोटीन स्तर के साथ-साथ पल्स ऑक्सीमेट्री, सीने की रेडियोग्राफी और रक्त परीक्षणों और संभवतः यकृत प्रकार्य परीक्षणों—को अनुशंसित किया जाता है। इन्फ्लुएंज़ा जैसे रोग का निदान चिह्नों और लक्षणों के आधार पर किया जाता है; हलांकि, इन्फ्लुएंज़ा संक्रमण की पुष्टीकरण के लिये परीक्षण की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार उपचार अक्सर समुदाय में इन्फ्लुएंज़ा की उपस्थिति या तीव्र इन्फ्लुएंज़ा परीक्षण पर आधारित होता है।
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न्यूमोनिया
शारीरिक परीक्षण कभी-कभार निम्न रक्तचाप, उच्च हृदय दर या निम्नऑक्सीजन संतृप्तिका खुलासा कर सकता है। श्वसन दर सामान्य से अधिक हो सकती है और यह अन्य चिह्नों की उपस्थिति से एक या दो दिन पहले हो सकता है। सीने का परीक्षण सामान्य हो सकता है लेकिन प्रभावित भाग की ओर सीने का फुलाव कम दिख सकता है। सूजे सीनों के कारण बढ़े वायुमार्ग से श्वसन की तीखी ध्वनि को ब्रॉन्कियल श्वसन कहा जाता है और इनको स्टेथेस्कोप से ऑस्किलेशन पर सुना जाता है। सांस को अंदर लेने के दौरान प्रभावित क्षेत्र पर चिटकन (रेल्स) को सुना जा सकता है। प्रभावित फेफड़े के ऊपर टक्कर को फीका सा सुना जा सकता है और बढ़ने के विपरीत घटी हुई मुखर प्रतिध्वनि निमोनिया को फुफ्फुसीय बहावसे अलग किया जा सकता है।
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न्यूमोनिया
निदान के लिये अक्सर सीने का रेडियोग्राफ उपयोग किया जाता है। हल्के रोग की दशा वाले लोगों में इमेजिंग केवल उन लोगों में जरूरी होती है जिनमें संभावित जटिलताएँ होती है, जो उपचार से बेहतर नहीं होते हैं या जिनमें कारण अनिश्चित होते हैं। यदि कोई व्यक्ति अस्पताल में भर्ती किये जाने के लिये पर्याप्त रूप से बीमार है तो उसके लिये रेडियोग्राफ की अनुशंसा की जाती है। परिणाम हमेशा रोग की गम्भीरता के साथ सम्बन्धित नहीं होते हैं और विश्वसनीय रूप से बैक्टीरिया जनित संक्रमण और वायरस संक्रमण के बीच अन्तर नहीं कर पाते हैं।
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न्यूमोनिया
निमेनिया के एक्स-रे प्रस्तुतिकरण को लोबार निमोमिया, ब्रॉकोनिमोनिया (लोब्यूलर निमोनिया भी कहा जाता है) और इन्ट्रस्टिशल निमोनियामें वर्गीकृत किया जाता है। बैक्टीरिया जनित, समुदाय से अर्जित निमोनिया, पारम्परिक रूप से एक फेफड़े के खंडीय लोब के फेफड़े में जमाव दिखाता है जिसे लोबार निमोनिया भी कहा जाता है।हालाँकि, परिणाम कितने भी अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन अन्य प्रकार के निमोनिया में अन्य प्रतिमान समान होते हैं। एस्पिरेशन निमोनिया, बैक्टीरिया जनित अपारदर्शिता (ओपेसिटीस) के साथ प्राथमिक रूप से फेफड़ों के आधार में और दाहिनी ओर उपस्थित हो सकता है।ref name=Rad07/> वायरस जनित निमोनिया का रेडियोग्राफ सामान्य, अधिक-सूजा, बैक्टीरिया वाले धब्बेदार क्षेत्रों या लोबार एकत्रीकरण वाले बैक्टीरिया जनित निमोनिया जैसा दिख सकता है। विशेष रूप से निर्जलीकरण की अवस्था में, रोग की प्राथमिक अवस्था में रेडियोलॉजिक परिणाम उपस्थित नहीं भी हो सकते हैं या मोटापे से ग्रसित तथा फेफड़े की बीमारी के इतिहास वाले लोगों में इसकी व्याख्या कर पाना भी कठिन है। अनिश्चित मामलों में, सीटी स्कैन अतिरिक्त जानकारी प्रदान कर सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
न्यूमोनिया
समुदाय में रहने वाले लोगों में कारण एजेण्ट का निर्धारण लागत प्रभावी नहीं है और आमतौर पर प्रबन्धन को बदलता नहीं है। वे लोग जो उपचार के प्रति प्रतिक्रिया नहीं देते हैं उनमें people who do not respond to treatment, बलगम कल्चर पर विचार किया जाना चाहिये और गम्भीर उत्पादक कफ से पीड़ित लोगों में माइक्रोबैक्टीरियम ट्यूबक्यूलोसिस के लिये कल्चर किया जाना चाहिये। अन्य विशिष्ट जीवों के लिये, सार्वजनिक स्वास्थ्य कारणों के लिये इसे प्रकोप के दौरान अनुशंसित किया जा सकता है। वे जिनको गम्भीर रोग के कारण अस्पताल में भर्ती किया गया है, बलगम और रक्त कल्चर दोनो और साथ ही लेग्यिनेला और स्ट्रेप्टोकॉकस के एंटीजन के लिये मूत्र का परीक्षण अनुशंसित किया जाता है। वायरस जनित संक्रमण को अन्य तकनीकों के अतिरिक्त कल्चर या पॉलीमरेस चेन प्रतिक्रिया(पीसीआर) के साथ वायरस या इसके एण्टीजन की पहचान की पुष्टि की जा सकती है। नियमित माइक्रोबायोलॉजिकल परीक्षणों के साथ कारक एजेण्टों का निर्धारण केवल 15% मामलों में हो पाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
न्यूमोनिया
न्यूमोनाइटिस फेफड़े की सूजन से सम्बन्धित है; निमोनिया आम तौर पर संक्रमण और कभी-कभार गैर-संक्रामक न्यूमोनाइटिस से सम्बन्धित है, जिसमें फुफ्फुसीय जमाव का अतिरिक्त गुण भी होता है।निमोनिया को सबसे आम तौर पर इसके होने के स्थान और तरीके के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है: समुदाय से अर्जित,श्वास, स्वास्थ्य सेवा से संबंधित, अस्पताल से अर्जित और वेंटीलेटर से संबंधित निमोनिया। इसे फेफड़े के प्रभावित क्षेत्र द्वारा भी वर्गीकृत किया जा सकता है: लोबार निमोनिया, ब्रॉन्कियल निमोनिया और गंभीर इन्ट्रस्टिशल निमोनिया; या कारक जीवों के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है। बच्चों में निमोनिया को चिह्नों व लक्षणों के आधार पर गैर-गम्भीर, गम्भीर या बेहद गम्भीर के रूप में अतिरिक्त रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
न्यूमोनिया
कई सारे रोग निमोनिया के समान चिह्नों और लक्षणों वाले हो सकते हैं, जैसे कि: गंभीर प्रतिरोधी फेफड़ा रोग(सीओपीडी), अस्थमा, फुफ्फुसीय एडेमा, ब्रांकिएकटैसिस, फेफड़े का कैंसर और फुफ्फुसीय एम्बोली। निमोनिया से इतर अस्थमा और सीओपीडी आम तौर पर घरघराहट के साथ होते हैं, फुफ्फुसीय एडेमा में इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम असमान्य होता है, कैंसर व श्वासनलिकाविस्फार में लम्बे समय की खांसी होती है और एम्बोली में तीखे सीने के दर्द की शुरुआत के साथ सांस लेने में तकलीफ होती है।
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न्यूमोनिया
रोकथाम में टीकाकरण, पर्यावरणीय उपाय और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का उपयुक्त उपचार शामिल है। यह माना जाता है कि उपयुक्त रोकथाम वाले उपाय वैश्विक रूप से स्थापित किये जाते तो बच्चों में मृत्युदर को 4,00,000 से कम किया जा सकता था और यदि वैश्विक रूप से उपयुक्त उपचार उपलब्ध होते तो बचपन में होने वाली मौतों में से 6,00,000 को कम किया जा सकता था।
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