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20231101.hi_45334_11
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कुशीनगर
मौर्य युग में कुशीनगर की उन्नति विशेष रूप से हुई। किन्तु उत्तर मौर्यकाल में इस नगर की महत्ता कम हो गई। गुप्तयुग में इस नगर ने फिर अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के काल में यहाँ अनेक विहारों और मंदिरों का निर्माण हुआ। गुप्त शासकों ने यहाँ जीर्णोद्वार कार्य भी कराए। खुदाई से प्राप्त लेखों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त (प्रथम) (४१३-४१५ ई.) के समय हरिबल नामक बौद्ध भिक्षु ने भगवान् बुद्ध की महापरिनिर्वाणावस्था की एक विशाल मूर्ति की स्थापना की थी और उसने महापरिनिर्वाण स्तूप का जीर्णोद्वार कर उसे ऊँचा भी किया था और स्तूप के गर्भ में एक ताँबे के घड़े में भगवान की अस्थिधातु तथा कुछ मुद्राएँ रखकर एक अभिलिखित ताम्रपत्र से ढककर स्थापित किया था।
0.5
4,058.362774
20231101.hi_45334_12
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कुशीनगर
गुप्तों के बाद इस नगर की दुर्दशा हो गई। प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन्त्सांग ने इसकी दुर्दशा का वर्णन किया है। वह लिखता है-
0.5
4,058.362774
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कुशीनगर
'' इस राज्य की राजधानी बिल्कुल ध्वस्त हो गई है। इसके नगर तथा ग्राम प्रायः निर्जन और उजाड़ हैं, पुरानी ईटों की दीवारों का घेरा लगभग १० मीटर रह गया है। इन दीवारों की केवल नीवें ही रह गई हैं।"
0.5
4,058.362774
20231101.hi_1069783_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80
कुर्मी
कुर्मी उत्तर भारत में पूर्वी गंगा के मैदान की एक गैर-कुलीन किसान जाति है। कुर्मी भारत के प्रमुख प्राचीन कृषक जाति के रूप में जाना जाता है।
0.5
4,051.202647
20231101.hi_1069783_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80
कुर्मी
१९ व २०वी शताब्दि में, गैर-कुलीन निम्न-स्तरीय जातियों में कुर्मी सबसे पहले थे जिन्होंने संस्कृतिकरण (ऊंची जाति के तौर तरीके अपनाने) की प्रक्रिया अपनायी थी।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80
कुर्मी
कुर्मी की व्युत्पत्ति के 19वीं सदी के अंत के कई सिद्धांत हैं। जोगेंद्र नाथ भट्टाचार्य (1896) के अनुसार, यह शब्द एक भारतीय जनजातीय भाषा से लिया गया हो सकता है, या एक संस्कृत यौगिक शब्द हो सकता है, "कृषि कर्मी।" गुस्ताव सॉलोमन ओपर्ट (1893) का एक सिद्धांत मानता है कि यह कोमी से व्युत्पन्न, जिसका अर्थ है "हलचलाने वाला"।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80
कुर्मी
कुर्मियों को मुगलों व ब्रिटिश द्वारा उनकी कार्य-नैतिकता, जुताई और खाद, और लिंग-तटस्थ के लिए प्रशंसा प्राप्त होती थी।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80
कुर्मी
उस समय के रिकॉर्ड बताते हैं कि पश्चिमी बिहार के भीतर, कुर्मियों ने सत्तारूढ़ उज्जैनिया राजपूतों के साथ गठबंधन किया था। 1712 में मुगलों के खिलाफ विद्रोह करने पर कुर्मी समुदाय के कई नेताओं ने उज्जैनिया राजा कुंवर धीर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी। उनके विद्रोह में शामिल होने वाले कुर्मी समुदाय के नेताओं में नीमा सीमा रावत और ढाका रावत शामिल थे।18 वीं शताब्दी की शुरुआत में मुगल शासन के लगातार जारी रहने के साथ, भारतीय उपमहाद्वीप के भीतरी इलाकों के निवासी, जिनमें से कई सशस्त्र और खानाबदोश थे, वे अक्सर बसे हुए क्षेत्रों में दिखाई देने लगे और शहरवासियों और कृषकों के साथ मेलजोल करने लगे।
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कुर्मी
18 वीं शताब्दी में पश्चिमी और उत्तरी अवध में कुर्मियों को मुस्लिमों के द्वारा काफी सस्ते दाम पे जंगल को साफ़ करके कृषि योग्य जमींन  बनाने का कार्य मिलता था। जब जमींन में अच्छे से पैदावार होने लगती थी तब उस जमींन का किराया ३० से ८० प्रतिशत बढ़ा दिया जाता था।  ब्रिटिश इतिहासकारों के हिसाब से जमींन के किराये बढ़ाये जाने का मुख्य कारण यह था की गाँव की ऊँची जातियों को हल चला पसंद नहीं था ।  ब्रिटिश इतिहासकारों का यह भी मानना है की कुर्मियों की अधिक उत्पादिकता का यह भी कारण था की उनकी खाद  डालने की प्रक्रिया बाकि से बेहतर थी।
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कुर्मी
कुर्मी विशेष रूप से अवधिया कुर्मी समूह, जिनसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार संबंधित हैं की पिछड़ी जातियों में व्यावहारिक रूप से वही स्थिति है जो ऊंची जातियों में ब्राह्मणों की है। 1960 और 70 के दशक से, कुर्मियों ने नौकरशाही, शिक्षा, इंजीनियरिंग और स्वास्थ्य में प्रमुख पदों पर काम किया है। वास्तव में, वे 1970 के दशक में जमींदारों की सेना (मिलिशिया) बनाने में भूमि-स्वामी उच्च जातियों में शामिल हो गए। वे 1970 के दशक में पटना जिले के बेलछी में दलितों के नरसंहार में शामिल थे। इंदिरा गांधी ने कुर्मी जमींदारों के क्रोध के खिलाफ दलितों को आश्वस्त करने के लिए हाथी की पीठ पर बेलची की यात्रा की थी, जिससे उन्हें वंचित वर्गों का समर्थन हासिल करने और 1980 में सत्ता में वापस आने में मदद मिली।
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कुर्मी
1970 और 1990 के दशक के बीच बिहार में कई निजी जाति-आधारित सेनाएँ सामने आईं, जो कि बड़े पैमाने पर जमींदार किसानों से प्रभावित थीं और वामपंथी अतिवादी समूहों के बढ़ते प्रभाव पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती थीं।  इनमें से भूमि सेना थी, जिसकी सदस्यता मुख्य रूप से उन युवाओं से ली गई थी जिनकी कुर्मी उत्पत्ति थी।भूमि सेना का पटना क्षेत्र में बहुत डर था और नालंदा, जहानाबाद और गया जिलों में भी उनका प्रभाव था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80
कुर्मी
बिहार में मानव विकास संस्थान द्वारा किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि कुर्मी (0.45 एकड़) प्रति व्यक्ति सबसे अधिक भूमि मानदंड में भूमिहार (0.56 एकड़) के बाद दूसरा स्थान पर है और प्रति व्यक्ति आय के अंतरगत पिछड़ी जाति वर्ग में कुशवाहा(18,811 रुपये) और कुर्मी(17,835) शीर्ष पर है|
0.5
4,051.202647
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सर्पगन्धा
सर्पगंधा के पौधें की जड़ों में उपस्थित अजमेलीन, सर्पेन्टीन तथा सर्पेन्टीनीन क्षार केन्द्रीय वात नाड़ी संस्थान को उत्तेजित करते हैं। इसमें सर्पेन्टीन अधिक प्रभावशाली होता है। उक्त तीन क्षारों सहित अन्य सभी क्षार तथा मद्यसारीय सत्व (alcoholic extracts) में शामक तथा निद्राकर (hypnotic) गुण होते हैं। कुछ क्षार हृदय, रक्तवाहिनी तथा रक्तवाहिनी नियंत्रक केन्द्र के लिए अवसादक (depressant) होते हैं।
0.5
4,040.64699
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सर्पगन्धा
रेसर्पीन क्षार औरों की अपेक्षा अधिक कार्यकारी होता है। यह नाड़ी कन्दों में अवरोध (ganglionic blockade) उत्पन्न नहीं करता वरन् ऐसा आभास होता है कि रक्तचाप (hyperpiesis) को कम करने का इसका प्रभाव कुछ अंश में स्वतन्त्र नाड़ी संस्थान के केन्द्रीय निरोध (Central inhibition of sympathetic nervous system) के कारण होता है।
0.5
4,040.64699
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सर्पगन्धा
सर्पगंधा की जड़ों में क्षारों के अतिरिक्त ओलियोरेसिन, स्टेराल (सर्पोस्टेराल), असंतृप्त एलकोहल्स, ओलिक एसिड, फ्यूमेरिक एसिड, ग्लूकोज, सुकरोज, आक्सीमीथाइलएन्थ्राक्यूनोन (oxymethylantheraquinone) एवं खनिज लवण भी पाये जाते हैं। इन सब में ओलियोरेसिन कार्यिकी रूप से सक्रिय होता है तथा औषधि के शामक (sedative) कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होता है।
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4,040.64699
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सर्पगन्धा
सर्पगंधा की जड़े तिक्त पौष्टिक, ज्वरहर, निद्राकर, शामक, गर्भाशय उत्तेजक तथा विषहर होती हैं। भारत में प्राचीन काल में सर्पगंधा की जड़ों का उपयोग प्रभावी विषनाशक के रूप में सर्पदंश तथा कीटदंश के उपचार में होता था। मलेशिया तथा इण्डोनेशिया के उष्ण-कटिबंधीय घने वनों में निवास करने वाली जनजातियां आज भी सर्पगंधा का उपयोग कीटदंश, सर्पदंश तथा बिच्छूदंश के उपचार में करती हैं। पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में सर्पगंधा की जड़ों का उपयोग उच्च-रक्तचाप, ज्वर, वातातिसार, अतिसार, अनिद्रा, उदरशूल, हैजा आदि के उपचार में होता है। इसका उपयोग वातातिसार एवं हैजा में ईश्वर मूल के साथ, उदरशूल में जंगली अरण्ड के साथ, अतिसार में कुटज के साथ तथा
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सर्पगन्धा
जड़ का रस अथवा अर्क उच्च-रक्तचाप की बहुमूल्य औषधि है। जड़ों के अर्क का उपयोग फोड़े-फुन्सियों (pimples & boils) के उपचार में भी होता है। जड़ों का अर्क प्रसव पीड़ा के दौरान बच्चे के जन्म को सुलभ बनाने हेतु (बच्चेदानी के संकुचन को बढ़ाने के लिए) दिया जाता है। जड़ों के अर्क का प्रयोग हिस्टीरीया (hysteria) तथा मिर्गी (epilepsy) के उपचार में भी होता है। इसके अतिरिक्त, घबराहट तथा पागलपन (insanity) के उपचार में भी सर्पगंधा की जड़ों का प्रयोग किया जाता है।
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4,040.64699
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सर्पगन्धा
सर्पगंधा की पत्तियों का रस नेत्र ज्योति बढ़ाने हेतु प्रयोग किया जाता है। सर्पगंधा का प्रयोग त्वचा बिमारियां जैसे सोरेसिस (psoriasis) तथा खुजली (itching) के उपचार में भी किया जाता है। परंपरागत रूप से औरतें सर्पगंधा का प्रयोग रोते हुए बच्चों को सुलाने हेतु भी करती हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलोपैथ) में जड़ों से निर्मित औषधियों का उपयोग उच्च-रक्तचाप को कम करने तथा स्वापक के रूप में अनिद्रा के उपचार में किया जाता है।
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सर्पगन्धा
इसके अतिरिक्त अतिचिन्ता रोग (hypochondria) तथा अन्य प्रकार के मानसिक विकारों के उपचार में भी किया जाता है। सर्पगंधा से निर्मित औषधियों का प्रयोग एलोपैथ में तन्त्रिकामनोरोग neuropsychiatrics) वृद्धावस्था से संबद्धरोग (बिषैली कंठमाला, एंजाइना पेक्टोरिस तथा तीव्र अथवा अनियमित हृदय कार्रवाई), मासिकधर्म मोलिनिमिया (menstrual molinimia) एवं रजनोवृत्ति सिण्ड्रोम (menopausal syndrome) के उपचार में किया जाता है।
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4,040.64699
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सर्पगन्धा
सर्पगंधा की घटती जनसंख्या के बहुत से कारण है जिनमें अतिशोषण, कमजोर पुनर्जनन क्षमता, बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार, वनविनाश, कीटनाशकों तथा खर-पतवारनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग तथा शहरीकरण प्रमुख हैं। औषधीय तथा वाणिज्यिक उपयोग हेतु अतिशोषण सर्पगंधा की घटती जनसंख्या का प्रमुख कारण है। चूंकि सर्पगंधा के औषधीय गुण जड़ों में मौजूद होते हैं इसलिए जड़ों की प्राप्ति हेतु सम्पूर्ण पौधे को नष्ट करना पड़ता है क्योंकि पौधे को बगैर नष्ट किए जड़ों की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। यही कमजोरी सर्पगंधा की निरन्तर गिरती जनसंख्या का एक प्रमुख कारण है।
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सर्पगन्धा
बढ़ती मानव जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार के फलस्वरुप सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास नष्ट हो कर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित हो गये हैं। इसी प्रकार शहरीकरण के परिणामस्वरुप भी सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास को क्षति पहुँची है जिसके कारण इस औषधीय महत्व के पौधे की जनसंख्या में गिरावट आयी है। आधुनिक कृषि में खर-पतवारनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण वांछित खर-पतवारों के साथ-साथ सर्पगंधा के भी पौधे नष्ट हो जाते हैं।
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4,040.64699
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भरतपुर
भरतपुर राजस्थान का एक प्रमुख शहर होने के साथ-साथ देश का सबसे प्रसिद्ध पक्षी उद्यान भी है। 29 वर्ग कि॰मी॰ में फैला यह उद्यान पक्षी प्रेमियों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है। विश्‍व धरोहर सूची में शामिल यह स्थान प्रवासी पक्षियों का भी बसेरा है। और यह अपने समय में जाटों का गढ़ हुआ करता था। यहाँ के मंदिर, महल व किले जाटों के कला कौशल की गवाही देते हैं। राष्ट्रीय उद्यान के अलावा भी देखने के लिए यहाँ अनेक जगह हैं
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4,038.542012
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0
भरतपुर
इसका नामकरण राम के भाई भरत के नाम पर किया गया है। लक्ष्मण इस राज परिवार के कुलदेव माने गये हैं। इसके पूर्व यह जगह सोगडिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था जिसको महाराजा सूरजमल ने जीता और 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली
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भरतपुर
भरतपुर नाम से यह एक स्वतंत्र राज्य भी था जिसकी नींव महाराजा सूरजमल ने डाली। महाराजा सूरजमल के समय भरतपुर राज्य की सीमा आगरा,अलवर,धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, फर्रुखनगर, मेवात, रेवाड़ी,पलवल, गुरुग्राम (गुड़गाँव), तथा मथुरा तक के विस्तृत भू-भाग पर फैली हुई थी।
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4,038.542012
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भरतपुर
महाराजा विश्वेन्द्र सिंह, वर्तमान महाराजाcabinet minister of rajasthsan(dismissed from position in 2020)
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भरतपुर
भरतपुर राष्ट्रीय उद्यान केवलादेव घना के नाम से भी जाना जाता है। केवलादेव नाम भगवान शिव को समर्पित मंदिर से लिया गया है जो इस उद्यान के बीच में स्थित है। घना नाम घने वनों की ओर संकेत करता है जो एक समय इस उद्यान को घेरे हुए था। यहाँ करीब ३७५ प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं जिनमें यहाँ रहने वाले और प्रवासी पक्षी शामिल हैं। यहाँ भारत के अन्य भागों से तो पक्षी आते ही हैं साथ ही यूरोप, साइबेरिया, चीन, तिब्बत आदि जगहों से भी प्रवासी पक्षी आते हैं। पक्षियों के अलावा साम्भर, चीतल, नीलगाय आदि पशु भी यहाँ पाये जाते हैं।
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4,038.542012
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भरतपुर
यह मंदिर शहर का सबसे सुंदर मंदिर है। वास्तुकला की राजपूत, मुगल और दक्षिण भारतीय शैली का खूबसूरत मिश्रण गंगा महारानी मंदिर का निर्माण भरतपुर के शासक महाराजा बलवंत सिंह ने करवाया था। मंदिर की दीवारों और खम्भों पर की गयी बारीक और सुंदर नक्काशी दर्शनीय है। मंदिर को पूरा होने में 91 वर्ष समय लगा। यहाँ पूरे देश तथा विदेशों से हजारों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। केवल श्रद्धा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि अपने अद्भुत वास्तुशिल्प के कारण भी यह मंदिर लोगों को आकर्षित करता है। देवी गंगा की मूर्ति के अलावा भरतपुर के इस मंदिर में मगरमच्छ की एक विशाल मूर्ति है जिन्हें देवी गंगा का वाहन भी माना जाता है। हर साल भक्त हरिद्वार से गंगाजल लाकर देवी के चरणों के पास रखे विशाल रजत पात्र में डालते हैं। माना जाता है कि जब देवी गंगा अपना दिव्य आशीर्वाद इस जल में डालती है तब यह जल भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में बाँट दिया जाता है।
0.5
4,038.542012
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भरतपुर
बाँके बिहारी मंदिर भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। माना जाता है कि यहाँ भगवान कृष्ण भक्तों की सभी आकांक्षाओं को पूरा करते हैं। भरतपुर का बाँके बिहारी मंदिर भारत के उन मंदिरों में से एक है जहाँ हमेशा सैकड़ों लोगों की भीड़ लगी रहती है। आरती से पहले भगवान की प्रतिमा को वस्त्र और आभूषणों से सजाया जाता है। मुख्य कक्ष के बाहर बरामदे की दीवारों पर भगवान कृष्ण के बचपन को दर्शाते चित्र देखे जा सकते हैं। मंदिर की दीवारों और छतों पर अनेक देवी-देवताओं की सुंदर तस्वीरें बनायी गयी हैं।
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भरतपुर
लक्ष्मण मंदिर का निर्माण महाराजा बलवंत सिंह ने 1870 में करवाया था। उनके पिता महाराजा बलदेव सिंह श्री संत दास के सम्पर्क में आये और तब उन्होंने इस मंदिर की नींव रखी। श्री संत दास लक्ष्मण जी के भक्त थे और जीवनपर्यंत उनके प्रति समर्पित रहे। इस मंदिर की नींव रखने के बाद महाराजा बलदेव सिंह ने बलवंत सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। मंदिर को पूरा कराने का श्रेय महाराजा बलवंत सिंह को जाता है।
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भरतपुर
मंदिर के मुख्य गर्भगृह में लक्ष्मण जी और उर्मिला जी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं, इनके अलावा राम, भरत, शत्रुघ्न तथा हनुमान जी की छोटी मूर्तियाँ भी यहाँ देखे जा सकते हैं। ये सभी प्रतिमाएँ अष्टधातु से बनी हैं। यह मंदिर पत्थरों पर की गयी खूबसूरत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
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टेरिडोफाइटा
1. साइलोफ़िटैलीज़ (Psilophytales) के फॉसिल मध्य और अध-डिवोनीयुग की चट्टानों में मिलते हैं। इस वर्ग के पौधों में होर्निया (Hornea), रीमिया (Rhymia) तथा ऐस्टेरोजाइलोन (Asteroxylon) में पत्तियों के समान कुछ बनावटें होती हैं, जिनमें स्टोमैटा (stomata) भी होते थे।
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टेरिडोफाइटा
2. साइलोटैलीज़' (Psylotales) और मेसिप्टेरिस (Tmesipteris) ज्ञात हैं। साइलोटम उष्ण कटिबंध, उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र और तदाई टापुओं में पाया जाता है। यह 20 से लेकर 100 सेंमी0 तक ऊँचा होता है ओर नम, या सूखे स्थानों में, छाया में उगता है। मेसिप्टेरिस आस्ट्रेलिया, पूर्व इंडीज और फिलिपाइन के उत्तरी भाग में पाया जाता है। यह पाँच से लेकर 25 सेंमी0 तक ऊँचा होता है और बहुधा पेड़ों की शाखाओं पर उगता है। इसमें जड़ें नहीं होतीं, पर पत्तियों के आकार की बनावट शाखाओं पर लगी रहती है। जमीन के अंदर प्रकंद में मूलांग निकलते हैं। तने के ऊपरी भाग में बीजाणुधानी होती है, जिसमें बीजाणु (spores) पैदा होते हैं।
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टेरिडोफाइटा
3. लाइकोपोडिएलीज (Lycopodiales) को क्लब मॉस कहते हैं। इनके केवल दो वंश, एक लाइकोपोडियम (Lycopodium) और सेलाजिनेला (Selaginella) तथा दूसरा फाइलोग्लोसम (Phylloglossum) और आइसोएटीज (Isoetes) हैं। लाइकोपोडियम की 100 जातियाँ मालूम हैं। ये उष्ण कटिबंध तथा उपोष्ण कटिबंध प्रदेशों में पाई जाती हैं। सूखे स्थानों में यह नहीं होता। फाइलोग्लोसम की केवल एक जाति ही आस्ट्रेलिया के कुछ भागों में पाई जाती है। ये जमीन पर फैलनेवाले कम ऊँचाई के पौधे हैं। इनकी पत्तियाँ सरल होती हैं और शाखाएँ नहीं होतीं। तने या पत्तियों पर बीजाणुधानियाँ होती हैं।
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4. सेलाजिनेलेलीज (Selaginellales) को छोटे क्लब मॉस कहते हैं। इसमें केवल एक वंश सेलाजिनेला है, जिसकी 500 जातियाँ समस्त संसार में फैली हुई हैं। ये उष्णकटिबंध प्रदेशों में छाएदार नम स्थानों पर पाई जाती हैं। ठंडे या सूखे स्थानों पर कम जातियाँ पाई गई हैं। ये देखने में सुंदर और कई रंगों में होते हैं तथा पादपगृहों (green houses) की शोभा बढ़ाती हैं। इनमें दो प्रकार की बीजाणुघानियाँ होती हैं।
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5. लेपिडोडेंड्रैलीज (Lepidodendrales) के केवल फॉसिल मिले हैं। पुराजीवकल्प (Paleozoic cra) में इनका बाहुल्य था। संभवत: ये नीचे, गीले स्थानों पर होते थे और इनकी जड़ें पानी में डूबी रहती थीं। ये नौ से लेकर 12 मीटर तक ऊँचे और एक से लेकर दो मीटर व्यास तक के होते थे। बड़े पेड़ों के अतिरिक्त इनके छोटे छोटे पौधे भी होते थे। इनके अनेक पौधों का अब तक अध्ययन किया गया है।
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6. प्ल्यूरोमिएलीज (Pleuromealis) ट्राइऐसिक काल (Triassic) में यूरोप और पूर्व एशिया का पौधा था। यह एक मीटर ऊँचा, 10 सेमी. चौड़ा और बिना शाखावाला होता था। तने का निचला भाग चार या आठ भागों में विभाजित होकर जड़ों का काम करता था। यह हेटेरोस्पोरस (heterosporus) होता था। पत्तियों के निचले भाग पर, या उसके बराबर में, बीजाणुधानी होती थी।
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टेरिडोफाइटा
7. आइसोएटेलीज (Isoetales) के पौधे शाकीय होते हैं और पानी में ठंडे जलवायुवाले स्थानों में अधिकता से उगते हैं। कुछ जमीन पर भी उगते हैं। इस श्रेणी के आइसोएटीज की 100 जातियाँ मालूम हैं, जिनमें 50 जातियों में गुच्छे होते हैं। बीजाणुधानी हेटेरोस्पोरस होती है।
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8. हिएनिएलीज (Hyeniales) जाति के पौधे डिवोनी युग में होते थे। इनके तने पर युग्मभुजी उपबंध (dichotomous appendages) पत्तियों के समान लगे रहते थे।
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9. फिलिकेलीज (Filicales) या फर्न आज भी पाए जाते हैं। इनके फॉसिल भी पुराजीवकल्प से पाए जाते हैं। इनकी पत्तियाँ तने से बड़ी होती हैं। पत्तियों का अपेक्षया बड़ा होना और अकेले या समूह में पत्तियों पर अनेक बीजाणुधानियों का होना, इनकी विशेषता है। फर्न के लगभग 150 वंश और 6,000 जातियाँ मालूम हैं। कुछ छोटे होते हैं और कुछ पेड़ सदृश हो जाते हैं, पर बहुत बड़े नहीं होते। केवल इनके फॉसिल से ही बड़े पेड़ होने का पता लगता है। कुछ फर्न उत्तरी ध्रुवीय प्रदेशों में पाए जाते हैं, पर जैसे जैसे उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों की ओर बढ़ते है, इनकी संख्या बढ़ती जाती है। अधिकांश छाया में उपजते हैं। कुछ जलीय होते हैं, पर कुछ सूखेपन को भी सहन कर सकते हैं। ये समवीजाणु (homosporous) पौधे हैं। कहा जाता है, ये पौधे पुराजीवकल्प के थे। पर कुछ ऐसे फॉसिल मिले हैं जिनसे पता चलता है कि ऐसे बीजवाले भी पौधे थे जो अब लुप्त हो गए हैं।
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मानवतावाद
दर्शन और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में कई तरह के दृष्टिकोण जो 'मानव स्वभाव' के कुछ भावों की पुष्टि करता है (मानवतावाद-विरोध के विपरीत).
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मानवतावाद
एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा जो नैतिकता और निर्णय लेने की क्षमता के एक आधार के रूप में विशेष रूप से अलौकिक और धार्मिक हठधर्मिता को अस्वीकार करते हुए हित, नैतिकता और न्याय का पक्ष लेता है।
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मानवतावाद
बाद की व्याख्या में धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद को एक विशिष्ट मानववादी जीवन के उद्देश्य के रूप में जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसलिए इस शब्द के आधुनिक अर्थों को अलौकिक या किसी उच्चस्तरीय सत्ता के प्रति आग्रहों की अस्वीकृति के साथ जोड़ा जाता है। यह व्याख्या पारंपरिक धार्मिक क्षेत्रों में इस शब्द के अन्य प्रमुख उपयोगों के साथ प्रत्यक्षतः विपरीत हो सकती है। इस पहलू का मानववाद ज्ञानोदय के प्रकृतिवाद और आस्तिकता-विरोध (एंटी-क्लैरिकलिज़्म) के एक विस्तारित क्षेत्र से उत्पन्न हुआ है, जो 19वीं सदी के विभिन्न धर्मनिरपेक्ष आंदोलनों (जैसे कि प्रत्यक्षवाद) और वैज्ञानिक परियोजनाओं का व्यापक विस्तार है।
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मानवतावाद
मानवतावादी (ह्युमनिस्ट), मानवतावाद (ह्यूमनिज्म) और मानवतावाद संबंधी (ह्युमनिस्टिक) का संबंध सीधे तौर पर और सहज रूप से साहित्यिक संस्कृति से है।
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मानवतावाद
"मानवतावाद (ह्यूमनिज्म)" शब्द के अनेक अर्थ हैं। 1806 के आसपास जर्मन स्कूलों द्वारा पेश किये गए पारंपरिक पाठ्यक्रमों की व्याख्या के लिए ह्युमानिस्मस का इस्तेमाल किया गया था और 1836 में "ह्यूमनिज्म " को इस अर्थ में अंग्रेजी को प्रदान किया गया था। 1856 में महान जर्मन इतिहासकार और भाषाविद जॉर्ज वोइट ने ह्यूमनिज्म का इस्तेमाल पुनर्जागरण संबंधी मानवतावाद की व्याख्या के लिए किया था, यह आंदोलन पारंपरिक शिक्षा को पुनर्जीवित करने के लिए इतालवी पुनर्जागरण के दौरान खूब फला-फूला था, जिसमें इसके इस्तेमाल को कई देशों, विशेषकर इटली में इतिहासकारों के बीच व्यापक स्वीकृति मिली थी। "ह्युमनिस्ट" शब्द का ऐतिहासिक और साहित्यिक प्रयोग 15वीं सदी के इतालवी शब्द युमनिस्ता से निकला है जिसका अर्थ पारंपरिक ग्रीक और इतालवी साहित्य का एक शिक्षक या विद्वान और इसके पीछे का नैतिक दर्शन है।
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मानवतावाद
लेकिन 18वीं सदी के मध्य में इस शब्द का एक अलग तरह का उपयोग होना शुरू हो गया था। 1765 में एक फ्रेंच एनलाइटमेंट पत्रिका में छपे एक गुमनाम आलेख में कहा गया था "मानवतावाद के प्रति एक सामान्य प्रेम... एक सदाचार जो अभी तक हमारे बीच बेनाम है और एक ऐसी सुंदर और आवश्यक चीज के लिए एक शब्द तैयार करने का समय आ गया है, जिसे हम "ह्यूमनिज्म" कहना पसंद करेंगे। " 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी की शुरुआत में मानव भलाई और ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित (कुछ ईसाई, कुछ नहीं) अनेकों जमीनी "परोपकारी" और उदार समाजों का निर्माण होता देखा गया। फ्रांस की क्रांति के बाद यह विचार कि मानव सदाचार का निर्माण परंपरागत धार्मिक संस्थानों से अलग स्वतंत्र रूप से केवल मानवीय हितों के जरिये किया जा सकता है, ज्ञानोदय के सिद्धांत की क्रांति के विरोध के लिए जिम्मेदार रूसो जैसे इंसान को देवता के सामान या मूर्ति के रूप में माने जाने पर एडमंड बर्क और जोसेफ डी मैस्ट्रे जैसे प्रभावशाली धार्मिक और राजनीतिक परंपरावादियों द्वारा हिंसक हमले किये गए। मानवतावाद के लिए एक नकारात्मक अर्थ के अधिग्रहण शुरू किया। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में "ह्यूमनिज्म" शब्द का इस्तेमाल 1812 में एक अंग्रेज पादरी द्वारा उन लोगों के बारे में बताने के लिए दर्ज है जो ईसा मसीह (क्राइस्ट) "सिर्फ मानवता" (ईश्वरीय प्रकृति के विपरीत) में विश्वास करते हैं यानी एकेश्वरवादी और प्रकृतिवादी. इस ध्रुवीकृत माहौल में जहाँ सुव्यवस्थित चर्च संबंधी निकायों ने वैगनों को घेरने की कोशिश की और राजनीतिक एवं सामाजिक सुधारों का विरोध करने के लिए बाध्य किया जैसे कि फ्रैंचाइजी, सार्वभौमिक शिक्षा और इसी तरह की चीजों का विस्तार करना, इस तरह उदार सुधारकों और प्रजातंत्रवादियों ने मानवतावाद के विचार को मानवता के एक वैकल्पिक धर्म के रूप में अपना लिया। अराजकतावादी प्रौढ़ों (जिन्हें इस घोषणा के लिए जाना जाता है कि "संपत्ति का मतलब है चोरी") ने "ह्युमानिस्म" शब्द का इस्तेमाल एक "कल्ट, डाइफिकेशन डी ला'ह्युमेनाइट " ("सम्प्रदाय, मानवता का ईश्वरवाद") की व्याख्या के लिए किया और ला'अवेनिर डी ला साइंस: पेन्सीज डी 1848 ("द फ्यूचर ऑफ नॉलेज: थॉट्स ऑन 1848 ")(1848-49) में अर्नेस्ट रेनान कहते हैं: "इसमें मेरी गहरी आस्था है कि विशुद्ध मानवतावाद भविष्य का धर्म होगा जो मनुष्य के जीवन भर में, पवित्रिकृत और नैतिक मूल्य के स्तर तक उन्नत की गयी हर चीज का एक संप्रदाय है।"
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मानवतावाद
तकरीबन उसी दौरान "मानवतावाद (ह्यूमनिज्म)" शब्द मानव मात्र के आसपास (संस्थागत धर्म के खिलाफ) एक दर्शन के रूप में केंद्रित हुआ जिसका इस्तेमाल जर्मनी में तथाकथित लेफ्ट हेजेलियंस, अर्नोल्ड रयूज और कार्ल मार्क्स द्वारा भी किया जा रहा था जो दमनकारी जर्मन सरकार में चर्च की नजदीकी भागीदारी के आलोचक थे। इन शब्दों के कई उपयोगों के बीच लगातार एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है: दार्शनिक मानवतावादी यूनानी दार्शनिकों और पुनर्जागरण संबंधी इतिहास के महान शख्सियतों में से मानव-केन्द्रित पूर्ववर्तियों की और अक्सर कुछ हद तक यह मानते हुए देखते हैं कि प्रसिद्ध ऐतिहासिक मानवतावादियों और मानवीय हितों के चैम्पियनों ने अपने -विरोधी रुख को समान रूप से साझा किया था।
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मानवतावाद
छठी शताब्दी बीसीई के सुकरात के पूर्ववर्ती यूनानी दार्शनिक मिलेटस के थेल्स और कालफ़न के जेनोफेन्स दुनिया की व्याख्या मिथक और परंपरा के बजाय मानव हितों के संदर्भ में करने की कोशिश करने वाले पहले दार्शनिक थे, इसलिए उन्हें पहले यूनानी मानवतावादी कहा जा सकता है। थेल्स ने मानवरूपी देवताओं की धारणा पर सवाल खड़े किये और जेनोफेन्स ने अपने समय के देवताओं को मानने से इनकार कर दिया और ईश्वर को ब्रह्मांड में एकता के सिद्धांत के रूप में आरक्षित कर लिया। आयानियन यूनानी यह मानने वाले पहले विचारक थे कि प्रकृति अलौकिक क्षेत्र से अलग कर अध्ययन किये जाने के लिए उपलब्ध है। एनाक्सागोरस दर्शन और तर्कसंगत सवाल करने की भावना को आयनिया से एथेंस लेकर आये। एथेंस के नेता, पेरिक्लीज अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रसिद्धि के दौरान एनाक्सागोरस के प्रशंसक थे। अन्य प्रभावशाली सुकरात के पूर्ववर्तियों या तर्कसंगत दार्शनिकों में शामिल हैं प्रोटागोरस (पेरिक्लीज के एक दोस्त एनाक्सागोरस की तरह) जो अपनी प्रसिद्ध उक्ति "मनुष्य हर चीज का एक उपाय है" के लिए जाने जाते हैं और डेमोक्रिटस जिन्होंने यह प्रस्तावित किया कि चीजें परमाणुओं से बनी हैं। इन प्रारंभिक दार्शनिकों की लिखित रचनाओं में से बहुत ही कम अस्तित्व में हैं और इन्हें दूसरे लेखकों, मुख्यतः प्लेटो और अरस्तू के वाक्यांशों या उक्तियों से जाना जाता है। इतिहासकार थुसीडाइड्स, जो इतिहास के प्रति अपने विख्यात वैज्ञानिक और तर्कसंगत दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं, बाद के मानवतावादियों ने उनकी भी बड़ी प्रशंसा की है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में एपिक्यूरस को शैतान की समस्या, जीवनोपरांत की बातों में विश्वास की कमी और सुख की प्राप्ति के प्रति मानव-केंद्रित दृष्टिकोणों के लिए उनके संक्षिप्त मुहावरों के लिए जाना गया। वे महिलाओं को नियमपूर्वक अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करने वाले पहले यूनानी दार्शनिक भी थे।
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मानवतावाद
अलौकिक सत्ता को अस्वीकार करने वाले मानव-केंद्रित दर्शन को 1000 ई.पू. तक के भारतीय दर्शन की लोकायत प्रणाली में पाया जा सकता है। इसके अलावा छठी-शताब्दी ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध ने अपने पाली साहित्य में अलौकिक सत्ता की ओर एक संशयपूर्ण प्रवृत्ति दिखाई:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
यहाँ इस बात का बयान हो रहा है कि अल्लाह तआला ने एक ख़ास इल्म के ज़रिये आदम अलैहिस्सलाम को फ़रिश्तों पर फ़ज़ीलत दी। यह वाक़िया फ़रिश्तों के सजदा करने के बाद का है। अल्लाह तआला ने फिर इन चीज़ों को फ़रिश्तों के सामने पेश किया और फ़रमाया अगर तुम अपने क़ौल में सच्चे हो तो इन चीज़ों के नाम बताओ। फ़रिश्तों ने यह सुनते ही अल्लाह तआला की बड़ाई, पाकीज़गी और अपने इल्म की कमी बयान की और कहा की हमें तो ऐ खुदावंद! इतना ही इल्म है जितना तूने हमें दिया। तमाम चीज़ो को जानने वाला तो परवरदिगार तू ही है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
फिर अल्लाह तआला आदम अलैहिस्सलाम की तरफ़ मुतवज्जा हुआ और फ़रमाया इन चीज़ो के नाम बता दो। आपने तमाम चीज़ो के नाम सही-सही बता दिये। इस तरह आदम अलैहिस्सलाम की बरतरी फ़रिश्तों पर ज़ाहिर हो गई तो अल्लाह तआला ने फ़रमाया ”देखो में ने तुम से पहले ही कहा था कि हर खुले और छिपे का जानने वाला मैं ही हूँ। मतलब यह कि इब्लीस के दिल में छिपे तक्कुब्बर और ग़ुरूर को मैं ही जानता हूँ और फ़रिश्तों ने जान लिया कि आदम अलैहिस्सलाम को इल्म व फ़ज़्ल के ज़रिये हम पर फ़ज़ीलत और बरतरी दी गई है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
जब फ़रिश्तों के सामने इब्लीस का घमण्ड ज़ाहिर हो गया और उस ने घमण्ड और सरकशी पर कमर बांध ली तो अल्लाह तआला ने उस पर लानत फ़रमाई आसमान और ज़मीन की हुकूमत उससे छीन ली और जन्नत की पहरेदारी से भी हटा दिया और फ़रमाया- “तू मरदूद है जन्नत से निकल जा अब क़यामत तक के लिए तुझ पर लानत है।”
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
इस के बाद अल्लाह ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को जन्नत में रहने का हुक्म फ़रमाया और इन पर ऊँघ डाल दी यानि उन पर नींद तारी हो गई। फिर इन की बायीं पसली में से एक पसली लेकर हव्वा अलैहिस्सलाम को पैदा फ़रमाया। आदम अलैहिस्सलाम जब सोकर उठे तो अपने सिरहाने एक औरत को खड़ा देखा। उन्होंने पूछा- “तुम कौन हो”…. कहा- “एक औरत” ……. फिर पूछा – “किस लिए पैदा की गई हो” ……वो कहने लगीं- “ताकि तुम मुझ से सकून हासिल कर सको।”
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
जब फ़रिश्तों को ख़बर हुई तो वो इस औरत को देखने आये और कहा ऐ आदम! इसका नाम क्या है? आदम अलैहिस्सलाम ने जवाब दिया- “हव्वा” इन्होंने फिर पूछा- “ये नाम क्यों रखा? कहा- "इसलिए की यह “हइ” यानि ज़िंदा इन्सान से पैदा की गई।”
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
“तुम और तुम्हारी बीवी जन्नत में रहो और जहाँ से चाहो ख़ूब दिल खोल कर खाओ लेकिन इस दरख़्त के पास मत जाना कि हद से बढ़ने वालों में हो जाओगे”
0.5
4,029.030169
20231101.hi_832348_36
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
अल्लाह तआला ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और हव्वा अलैहिस्सलाम को जन्नत में ठिकाना अता फ़रमाया और उन्हें हर तरह की आज़ादी अता फ़रमाई सिवाय एक दरख़्त यानी वृक्ष के पास जाने के। उन्होंने अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ उस दरख़्त के पास जाने से ख़ुद को रोके रखा फिर इनके दिल में शैतान ने वसवसा डाला और आख़िर कार दोनों से वो खता(गलती) हो गई जिस से अल्लाह तआला ने उन्हें मना फ़रमाया था।
0.5
4,029.030169
20231101.hi_832348_37
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
“तो शैतान ने इन्हें इस दरख़्त के ज़रिये फुसलाया और जहाँ वो रहते थे वहाँ से उन्हें अलग कर दिया और हमने फ़रमाया तुम सब नीचे उतरो।”
0.5
4,029.030169
20231101.hi_832348_38
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE
आदम
अभी फल खाना ही शुरू ही किया था कि जन्नती लिबास उतर गया और वह दोनों, पत्तों से अपना सतर ढाँपने और शर्मिन्दा होकर इधर उधर भागने लगे। अल्लाह तआला ने फ़रमाया, "ऐ आदम! क्या मुझ से भागते हो आदम ने अर्ज़(बोले) किया- “’नहीं” … “ऐ मेरे रब! बल्कि तुझ से हया करता हूँ। अल्लाह का अताब नाज़िल हुआ कि ऐ आदम! क्या मैंने तुमसे उस दरख़्त के पास जाने से मना नहीं किया था? क्या मैने तुम्हें ख़बरदार नहीं किया था कि शैतान तुम्हारा खुला दुश्मन है? हज़रत आदम अलैहिस्सलाम फ़ौरन अपनी ग़लती का अहसास करते हुए सजदे में गिर गए और नदामत से अर्ज़ करने लगे-
0.5
4,029.030169
20231101.hi_73143_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ निश्चित कथानक रूढ़ियों और शैलियों में ढली लोककथाओं के अनेक संस्करण, उसके नित्य नई प्रवृत्तियों और चरितों से युक्त होकर विकसित होने के प्रमाण है। एक ही कथा विभिन्न संदर्भों और अंचलों में बदलकर अनेक रूप ग्रहण करती हैं।
0.5
4,020.366815
20231101.hi_73143_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ भी हमें मानव की परंपरागत वसीयत के रूप में प्राप्त हैं। दादी अथवा नानी के पास बैठकर बचपन में जो कहानियाँ सुनी जाती है, चौपालों में इनका निर्माण कब, कहाँ कैसे और किसके द्वारा हुआ, यह बताना असंभव है।
0.5
4,020.366815
20231101.hi_73143_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
कथाओं की प्राचीनता को ढूँढते हुए अंत में अन्वेषक ऋग्वेद के उन सूक्तों तक पहुँचकर रुक गए हैं जिनमें कथोपकथन के माध्यम से "संवाद-सूक्त" कहे गए हैं। पीछे ब्राह्मण ग्रंथों में भी उनकी परंपरा विद्यमान है। यही क्रम उपनिषदों में भी मिलता है किंतु इन सबसे पूर्व कोई कथा कहानी थी ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रश्न उठता है जो प्रथाएँ उन सब में आई हैं उनका उद्गम कहाँ है? जहाँ उनका उद्गम होगा लोककथाओं का भी वही आरंभिक स्थान माना जाना चाहिए। पंचतंत्र की बहुत सी कथाएँ लोक-कथाओं के रूप में जनजीवन में प्रचलित हैं। किंतु यह भी सही है कि जितनी कथाएँ (पंचतंत्र के प्रकार की) लोकजीवन में मिल जाती हैं उतनी पंचतंत्र में भी नहीं मिलतीं। यदि यह कहा जाए कि विष्णु शर्मा ने लोकजीवन में प्रचलित कथाओं से लाभ उठाया होगा तो कोई, अनुपयुक्त बात नहीं होगी। हितोपदेश, बृहदश्लोक संग्रह, बृहत्कथा मंजरी, कथा बेताल पंचविंशति आदि का मूल लोकजीवन है। जातक कथाओं को अत्यधिक प्राचीन माना जाता है। इनकी संख्या ५५० के लगभग है किंतु लोककथाओं की कोई निर्धारित संख्या नहीं है। प्राकृत भाषा में भी अनेक कथाग्रंथ हैं। मूल पैशाची में लिखित "बहुकहा" कथा सरित्सागर, बृहत्कथा आदि का उपजीव्य बनी। संस्कृत में उसकी कुछ कथाएँ रूपांतरित हुई। अपभ्रंश के "पउम चरिअ" और "भविशयत्त कहा" भी इस क्रम में आती हैं। इस तरह लिखित रूप में वैदिक संवाद सूक्तों से प्रवाहित कथाधारा निरंतर प्रवाहित है किंतु इन सबका योग भी लोकजीवन में प्रचलित कहानियों की बराबरी तक नहीं पहुँच सकता।
0.5
4,020.366815
20231101.hi_73143_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
हिंदी लोककथाओं के अध्ययन से इनकी कुछ अपनी विशेषताओं का पता चलता हैं। मनुष्य आदिकाल से सुखों की खोज में लगा हुआ है। सुख लौकिक एंव पारलौकिक दोनों प्रकार के हैं। भारतीय परंपरा में पारलौकिक को लौकिक से अधिक ऊँचा स्थान दिया जाता है "अंत भला तो सब भला" के अनुसार हमारी लोककथाएँ भी सुखांत हुआ करती है। शायद ही ऐसी कोई कथा हो जो दु:खांत हो। चिर प्राचीन काल से ही भारतीय लोककथाओं की यही मुख्य प्रवृत्ति रही। इसलिए लोककथाओं के पात्र अनेक साहसिक एवं रोमांचकारी घटनाओं से होकर अंत में सुख की प्राप्ति करते हैं। संस्कृत के नाटकों की भाँति इनका भी अंत संयोग में ही होता है। ये कथाएँ मूल रूप में मंगलकामना की भावनाएँ लेकर आई। इसीलिए लोककथा कहनेवाले प्राय: कथाओं के अंत में कुछ मंगल वचन भी कहा करते हैं। जैसे - "जिस प्रकार उनके (कथा के प्रमुख पात्र के), दिन फिरे, वैसे ही सात दुश्मन (बहुत बड़े शत्रु) के भी दिन फिरे।"
0.5
4,020.366815
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
विभिन्न प्रकार के दैविक एवं प्राकृतिक प्रकोपों का भय दिखाकर श्रोताओं को धर्म तथा कर्तव्यपालन के पथ पर ले आना भी बहुत सी लोककथाओं का लक्ष्य होता है। सारी सृष्टि उस समय एक धरातल पर उतर आती है जब सभी जीव-जंतुओ की भाषा एक हो जाती है। कहीं मनुष्य पशु से बात करता है तो कहीं पशु पक्षी से। सब एक दूसरे के दु:ख-सुख में समीप दिखाई पड़ते हैं। लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ भी किसी सीमा को स्वीकार नहीं करतीं। अंचलों की बात तो जाने दीजिए ये कथाएँ देशों और महाद्वीपों की सीमाएँ भी पार कर गई हैं। इन कथाओं की विशेषता यह भी है कि ये मानव जीवन के सभी पहलुओं से संपर्क रखती हैं। इधर लोककथाओं के जो संग्रह हुए हैं उनमें तो बहुत ही थोड़ी कथाएँ आ पाई हैं। भले ही हम उनके संरक्षण की बात करें परंतु अपनी विशेषताओं के कारण ही श्रुति एवं स्मृति के आधार पर जीवन प्राप्त करनेवाली ये कथाएँ युगों से चली आ रही हैं। ये कथाएँ मुख्य रूप से तीन शैलियों में कही जाती हैं। प्रथम गद्य शैली; इस प्रकार में पूरी कथा सरल एवं आंचलिक बोली में गद्य में कही जाती है। द्वितीय गद्य पद्य मय कथाएँ - इन्हें चंपू शैली की कथा कहा जा सकता है। ऐसी कथाओं में प्राय: मार्मिक स्थलों पर पद्य रचना मिलती हैं। तीसरे प्रकार की कथाओं में पद्य गद्य के स्थान पर एक प्रवाह सा होता है। यह प्रवाह श्रोताओं पर अच्छा असर डालता है किंतु इस में द्वितीय प्रकार की कथाओं के पद्यों की भाँति गेयता नहीं होती, जैसे :
1
4,020.366815
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
कहानी कहनेवाला व्यक्ति कथा के प्रमुख पात्र (नायक) को पहले वाक्य में ही प्रस्तुत कर देता है; जैसे - "एक रहे राजा" या "एक रहा दानव" आदि। इस विशेषता के कारण लोककथाओं का श्रोता विशेष उलझन में नहीं पड़ता। लोकजीवन में कथा कहने के साथ ही उसे सुनने की शैली भी निर्धारित कर दी गई है। सुननेवालों में से कोई व्यक्ति, जब तक हुंकारी नहीं भरता तब तक कथा कहने वाले को आनंद ही नहीं आता। हुंकारी सुनने से कहनेवाला अँधेरे में भी समझता रहता है कि श्रोता कहानी को ध्यानपूर्वक सुन रहा है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
हिंदी की अनेक छोटी बड़ी कथाओं में मानव कल्याण के लिए विभिन्न प्रकार के उपदेश भरे पड़े हैं। ऐसी कथाएँ प्राय: अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा देती हैं। इसलिए ऐसा आभास नहीं होता कि उनका निर्माण उपदेश के लिए ही किया गया होगा। इनके माध्यम से गृहकलह एवं सामाजिक बुराइयों से बचने के लिए प्रेरणाएँ मिलती हैं। ऐसी बहुत सी कथाएँ हैं जिनमें कर्कशा नारियों के कारण परिवार को विभिन्न प्रकार के कष्टों का भाजन होना पड़ा है। इनमें विमाताओं तथा सौतों की कथाएँ प्रधान होती हैं। इनके अतिरिक्त ऐसी भी कथाएँ मिलती हैं जिनमें मायावी स्त्रियाँ पर पुरुषों पर डोरे डालती हैं या जादू टोना किया करती हैं जिससे कथा के नायक को तथा उससे संबंध रखनेवालों को विभिन्न संघर्षों का शिकार होना पड़ता है। पुत्र द्वारा पिता की आज्ञा न मानने पर कष्ट उठाने से संबद्ध भी अनेक कथाएँ हैं किंतु, जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये सभी कथाएँ अंत में सुख एवं संयोग में समाप्त होती हैं। जब तक कथा समाप्त नहीं होती तब तक पात्रों और मुख्य रूप से नायकों को इतनी भयानक घटनाओं में फँसा देखा जाता है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। कुछ श्रोता तो वहीं कथा कहनेवाले तथ अन्य श्रोताओं की परवाह किए बिना नायक को कष्ट देनेवाले के नाते अपशब्द भी कहने लगते हैं। उन्हें ये सारी घटनाएँ सही मालूम पड़ती हैं।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
इनमें विभिन्न प्रकार की बुराइयों से उत्पन्न घटनाओं का समावेश होता है। इनमें विशेष कर गृहकलह (सास-बहू एवं ननद भावज के झगड़े) एवं दुश्चरित्र और लंपट साधु संतों की करनी तथा अयोग्य नरेश के कारण प्रजा का दुखी होना दिखाया जाता है। बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहु विवाह, विजातीय विवाह तथा दहेज आदि की निंदा भी इन कथाओं में मिलती हैं। योग्य या निरपराध व्यक्ति अयोग्य दुष्ट व्यक्ति के चंगुल में फँसकर परेशान होते दिखाई पड़ते हैं। सामाजिक कहानियों में वे कथाएँ अपना विशेष स्थान रखती हैं जिनमें नायिका मुख्य रूप से और नायक गौण रूप से भयानक परीक्षाएँ देते हैं। ऐसी परीक्षाओं में प्राय: सामाजिक एवं व्यक्तिगत चरित्र को प्रधानता दी जाती है। जिन नायक नायिकाओं के चरित्र ठीक होते हैं वे ऐसी कठोर परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते दिखाई पड़ते हैं। जैसे सच्चरित्र नारी जब तप्त तैल के कड़ाहे में हाथ डालकर अपने सतीत्व की परीक्षा देती है तो कड़ाहे का तप्त तेल शीतल होता है। पतिव्रता स्त्री सूर्य के रथ को भी रोक देती है। उसके भय से बड़े बड़े दैत्य दानव तथा डाइनें भूतप्रेत पास नहीं फटकते। इसी तरह चरित्रवान् नायक भी विकट परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
0.5
4,020.366815
20231101.hi_73143_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
लोककथा
इनमें जप तप, व्रत-उपवास एवं उनसे प्राप्त उपलब्धियाँ संजोई गई हैं। सुखों की कामना के लिए कही गई इन व्रत कथाओं से उपदेश ग्रहण कर संबद्ध पर्वों के अवसरों पर स्त्रियाँ व्रतों का पालन किया करती हैं। पति, पुत्र एव भाइयों की कुशलता तथा संपत्तिप्राप्ति इनका लक्ष्य होता है। ऐसी लोक कथाओं में "बहुरा" (बहुला), जिउतिया (जीवित्पुत्रिका), करवा चौथ, अहाई, गनगौर और पिड़िया की कथाएँ मुख्य स्थान रखती हैं। पिड़िया का व्रत कुमारी बालिकाओं द्वारा भाइयों की कुशलता के लिए किया जाता है। यह व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अगहन शुक्ल प्रतिपदा तक चलता हैं। इसे गोधन व्रत कथा की संज्ञा भी दी जाती है। जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत पुत्र की प्राप्ति तथा उसे दीर्घ जीवन के लिए किया जाता है। इस अवसर पर भी कई लोककथाएँ कही जाती है। किंतु चील्ह तथा स्यारिन दोनों ने ही इस पर्व पर किसी समय व्रत किया था परंतु भूख की ज्वाला न सह सकने के कारण स्यारिन ने चुपके से खाद्य ग्रहण कर लिया। परिणाम यह हुआ कि उसके सभी बच्चे मर गए और व्रत निभानेवाली चील्ह के सभी बच्चे दीर्घ जीवन को प्राप्त हुए। इस पर्व के व्रतविश्वास से जब पुत्र की प्राप्ति होती है तो लोककथाओं में दिए गए संकेत के अनुसार उसका नाम "जीउत" रखा जाता है। ऐसा लगता है कि पुराणों में जीवत्पुत्रिका व्रत की कथा के साथ जो जीमूत वाहन की कथा संबद्ध है वह लोककथाओं के आधार पर ही है, क्योंकि पौराणिक जीमूत वाहन ने नार्गों की रक्षा के लिए अपनी देह का त्याग किया था। जिउतिया की कथा का भी उद्देश्य परोपकार के लिए आत्मोत्सर्ग कर देना ही है। करवा चौथ के व्रत में मुख्य रूप से उस राजा और रानी की कहानी कही जाती हैं जो दूसरों के बालकों से घृणा किया करते थे। इसीलिए उन्हें पुत्र नहीं हुआ। अंत में सूर्य की उपासना करने पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।
0.5
4,020.366815
20231101.hi_42538_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
भौतिक विज्ञान की जिस शाखा में ठोस का अध्ययन करते हैं, उसे ठोस-अवस्था भौतिकी कहते हैं। पदार्थ विज्ञान में ठोस पदार्थों के भौतिक और रासायनिक गुणों और उनके अनुप्रयोग का अध्ययन करते हैं। ठोस-अवस्था रसायन में पदार्थों के संश्लेषण, उनकी पहचान और रासायनिक संघटन का अध्ययन किया जाता है।
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
इनके अवयवी कणों (परमाणुओं, अणुओं अथवा आयनों) की स्थितियाँ निश्चित होती हैं और यह कण केवल अपनी माध्य स्थितियों के चारों ओर दोलन कर सकते हैं।
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
ठोसों को उनके अवयवी कणों की व्यवस्था में उपस्थित क्रम की प्रकृति के आधार पर क्रिस्टलीय और अक्रिस्टलीय में वर्गीकृत किया जाता है।
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
क्रिस्टलीय ठोस साधारणतः लघु क्रिस्टलों की अत्यधिक संख्या से बना होता है, उनमें प्रत्येक का निश्चित ज्यामितिय आकार होता है। क्रिस्टल में परमाणुओंं,अणुओं अथवा आयनों का क्रम सुव्यवस्थित होता है। इसमें दीर्घ परासी व्यवस्था होती है अर्थात् कणों की व्यवस्थाका खास पैटर्न होता है जिसकी निस्चित क्रम से पुनरावृत्ति होती है। क्रिस्टलीय ठोसो का गलनांक निश्चित होता है। क्रिस्टलीय ठोस विषमदैशिक प्रकृति के होते हैं अर्थात् उनके कुछ भौतिक गुण जैसे विद्युतीय प्रतिरोधकता और अपवर्तनांक एक ही क्रिस्टल में भिन-भिन दिशाओं में मापने पर भिन-भिन मान प्रदर्शित करते हैं। यह अलग- अलग दिशाओं में कणों की भिन व्यवस्था से उत्पन्न होता है। भिन-भिन दिशाओं में कणों की व्यवस्था अलग होने पर एक ही भौतिक गुण का मान प्रत्येक दिशा में भिन पाया जाता है।
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
अधिकतर ठोस पदार्थ क्रिस्टलीय प्रकृति के होते हैं। उदाहरण के लिए सभी धात्विक तत्व; जैसे- लोहा, ताँबा और चाँदी; अधात्विक तत्व; जैसे-सल्फर, फॉसफोरस और आयोडीन एवं यौगिक जैसे सोडियम क्लोराइड, जिंक सल्पाइड और नेप्थेलीन क्रिस्टलीय ठोस हैं।
1
3,999.114626
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
क्रिस्टलीय ठोसों को उनमें परिचालित अंतराआण्विक बलों की प्रकृति के आधार पर चार संवर्गो में वर्गीकृत किया जा सकता है- आण्विक, आयनिक, धात्विक और सहसंयोजक।
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
1 वह ठोस जिनके के जालक में घटक कणो कि व्यवस्था निश्चित वह नियमित होती है क्रिस्टलीय ठोस कहलाते हैं उदाहरण Nacl,kcl,fe....
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
4 इनके गलनांक उच्च होते हैं व निश्चित होते हैं क्योंकि इनके घटक कणों की व्यवस्था निश्चित वा नियमित होती है, क्रिस्टलीय ठोस को गर्म करने पर एक निश्चित ताप पर ही द्रव में बदलते हैं
0.5
3,999.114626
20231101.hi_42538_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A0%E0%A5%8B%E0%A4%B8
ठोस
5 क्रिस्टलीय ठोस और विषमदैशिकता का का गुण पाया जाता है, क्योंकि क्रिस्टल लिए ठोसो में अनेक भौतिक गुण जैसे चालकता अपवर्तनांक कठोरता आदि का मानप्रत्येक दिशा समान नहीं होते हैं
0.5
3,999.114626
20231101.hi_9051_33
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
निर्माण उद्योग में विविध प्रकार के करियर या भविष्य के लिए कई रास्ते हैं, जो अलग-अलग देशों में अलग-अलग हैं। हालांकि, शैक्षिक पृष्ठभूमि पर करियर के तीन मुख्य स्तर आधारित हैं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आम तौर पर दिख्रते हैं।
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_34
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
अकुशल और अर्द्धकुशल - आम तौर पर निर्माण मजदूर, जिनमें निर्माण कार्य की योग्यता मामूली या नहीं होतीं.
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_35
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
तकनीकी और प्रबंधन - उच्च शैक्षिक योग्यता वाले कर्मी, आमतौर पर स्नातक डिग्री, डिजाइन के लिए प्रशिक्षित और जो निर्माण प्रक्रिया का प्रबंधन और निर्देशन कर सकें.
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_36
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
ब्रिटेन में कुशल नौकरियों में और भी ज्यादा शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होती है, अक्सर वोकेशनल क्षेत्रों में है। ये योग्यताएं अनिवार्य शिक्षा के पूरे होने के बाद सीधे या "काम पर रहने के दौरान" प्रशिक्षण से हासिल की जा सकती हैं। ब्रिटेन में, 2007 में 8500 निर्माण संबंधी प्रशिक्षणशालाएं शुरू की गईं थीं।
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_37
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
तकनीकी और विशेष व्यवसायों में और अधिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, क्योंकि वहां और अधिक तकनीकी ज्ञान की जरूरत होती है। इन व्यवसायों भी और अधिक कानूनी जिम्मेदारी होती है। शैक्षिक आवश्यकताओं की एक रूपरेखा के साथ मुख्य करियर की एक छोटी सूची नीचे दी जा रही हैं:
1
3,991.953122
20231101.hi_9051_38
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
- आर्किटेक्ट आमतौर पर वास्तुकला में कम से कम 4 साल की डिग्री होनी चाहिए. "वास्तुकार" पदवी का उपयोग करने के लिए व्यक्ति के पास अवश्य ही रॉयल इंस्टीच्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स की चार्टर्ड हैसियत होनी चाहिए या आर्किटेक्ट्स पंजीकरण बोर्ड में दर्ज होना चाहिए.
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_39
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
सिविल इंजीनियर- आमतौर संबंधित विषय में एक डिग्री धारण किया हुआ होना चाहिए. चार्टर्ड इंजीनियर की योग्यता सिविल इंजीनियर्स इंस्टीट्यूशन द्वारा नियंत्रित होती है। विश्वविद्यालय के एक नए स्नातक को चार्टर्ड होने के लिए मास्टर डिग्री लेनी होती है, बैचलर डिग्रीधारी इनकॉरपोरेटेड इंजीनियर हो सकते हैं।
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_40
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
बिल्डिंग सेवा इंजीनियर- अक्सर इन्हें "एम एंड ई अभियंता" कहा जाता है और ये आम तौर पर इंजीनियरिंग या विद्युतयांत्रिक इंजीनियरिंग की डिग्री धारण किये हुए होते हैं। अभियंता का स्टेसस चार्टर्ड इंस्टीच्यूशन ऑफ बिल्डिंग सर्विसेज इंजीनियर्स द्वारा संचालित होता है।
0.5
3,991.953122
20231101.hi_9051_41
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3
निर्माण
परियोजना प्रबंधक- आमतौर पर इसके पास एक 2 साल या अधिक की उच्च शिक्षा की योग्यता होती है, लेकिन ये अक्सर मात्रा सर्वेक्षक या सिविल अभियांत्रिकी जैसे क्षेत्रों में भी योग्यता रखते हैं।
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बिलीरुबिन
कुल बिलीरुबिन ("टीबीआईएल") दोनों बीयू और बीसी का मापन करता है। कुल और प्रत्यक्ष बिलीरुबिन स्तर की गणना रक्त से की जा सकती है, लेकिन अप्रत्यक्ष बुलीरुबिन की गणना कुल और प्रत्यक्ष बिलीरुबिन से की जाती है।
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बिलीरुबिन
आडकल कुल बिलीरुबिन अक्सर 2,5-डिक्लोरोफेनीलडायज़ोनियम (डीपीडी) विधि द्वारा मापा जाता है और प्रत्यक्ष बिलीरुबिन जेन्डरासिक एण्ड ग्रोफ विधि द्वारा मापा जाता है।
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बिलीरुबिन
बिलीरुबिन का कोई सामान्य स्तर नहीं होता क्केयोंकि यह एक उत्सर्जन उत्पाद है और शरीर में मिलनेवाले स्तर उत्पादन और उत्सर्जन के बीच संतुलन को दर्शाते हैं। विभिन्न स्रोत सन्दर्भ श्रेणियां प्रदान करते हैं जो तत्सम तो हैं लेकिन आदर्श नहीं. वयस्कों के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं (नवजातों के लिए अक्सर अलग श्रेणियों का उपयोग किया जाता है):
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बिलीरुबिन
गिल्बर्ट'स सिंड्रोम - बिलीरुबिन मेटाबॉलिज्म की एक अनुवांशिक विकृती जिसका परिणाम हल्के पीलिया में दिखाई देता है, 5% जनसंख्या में पाया जाता है
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बिलीरुबिन
2 महीने से कम आयु के शिशुओं में सल्‍फ़ोनामाइड निषिद्ध हैं (अपवाद है जब टोक्सोप्लाज़मोसिज़ के उपचार में पैरिमीथामाइन के साथ प्रयुक्त होता है) क्योंकि वे विसंयुग्मित बिलीरुबिन वृद्धि करते हैं जिससे केर्निक्टेरस हो सकता है। (स्रोत: http://www.merck.com/mmpe/sec14/ch170/ch170n.html?qt=kernicterus&alt=sh#sec14-ch170-ch170n-404f)
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बिलीरुबिन
नवजात अतिबिलीरुबिनता, जहां नवजात का जिगर बिलीरुबिन पर प्रक्रिया करने में सक्षम न होने के कारण पीलिया होता है
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बिलीरुबिन
असामान्य रूप से बड़ी पित्त नली अवरुद्धता, जैसे आम पित्त नली में पथरी, आम पित्त नली को निरोध करनेवाला ट्यूमर आदि
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बिलीरुबिन
सिरोसिस के कारण, सिरोसिस की अचूक विशेषताओं के अनुसार सामान्य, मध्यम या उच्च बिलीरुबिन के स्तर हो सकते हैं
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बिलीरुबिन
बिलीरुबिन या पीलिया के स्पष्ट कारणों में से, यह आमतौर अन्य यकृत समारोह परीक्षणों की अपेक्षा सरल है phosphatase नज़र में अन्य (विशेषकर एंजाइमों एलनाइन ट्रांसमिनास, aspartate transaminase, गामा glutamyl transpeptidase, alkaline, रक्त फिल्म परीक्षा (hemolysis, आदि) संक्रामक हैपेटाइटिस (जैसे, हेपेटाइटिस ए, के सबूत या बी, सी, डेल्टा, ई, आदि).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
क्षार एक ऐसा पदार्थ है, जिसको जल में मिलाने से जल का pHमान 7.0 से अधिक हो जाता है। ब्रंस्टेड और लोरी के अनुसार, क्षार एक ऐसा पदार्थ है जो अम्लीय पदार्थों को OH- दान करते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
क्षारक वास्तव में वे पदार्थ हैं जो अम्ल के साथ मिलकर लवण और जल बनाते हैं। उदाहरणत:, जिंक ऑक्साइड सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ मिलकर ज़िंक सल्फेट और जल बनाता है। दाहक सोडा (कॉस्टिक सोडा), सल्फ़्यूरिक अम्ल के साथ मिलकर सोडियम सल्फेट और जल बनाता है। धातुओं के ऑक्साइड सामान्यत: क्षारक हैं। पर इसके अपवाद भी हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
क्षारकों में धातुओं के ऑक्साइड और हाइड्राॅक्साइड हैं, पर सुविधा के लिए तत्वों के कुछ ऐसे समूह भी रखे गए हैं जो अम्लों के साथ मिलकर बिना जल बने ही लवण बनाते हैं। ऐसे क्षारकों में अमोनिया, हाइड्राॅक्सिलएमीन और फाॅस्फीन हैं। द्रव अमोनिया में घुल जाता है पर फिनोल्फथैलीन से कोई रंग नहीं देता। अत: कहाँ तक यह क्षारक कहा जा सकता है, यह बात संदिग्ध है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
यद्यपि ऊपर की क्षारक की परिभाषा बड़ी असंतोषप्रद है, तथापि इससे अच्छी परिभाषा नहीं दी जा सकी है। क्षारक (बेस) और क्षार (ऐल्कैली) पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। सब क्षार क्षारक हैं पर सब क्षारक क्षार नहीं हैं। क्षार-धातुओं के ऑक्साइड, जैसे सोडियम ऑक्साइड, जल में घुलकर हाइड्राॅक्साइड बनाते हैं। ये प्रबल क्षारकीय होते हैं। क्षारीय मृदाधातुओं के आक्साइड, जैसे कैल्सियम ऑक्साइड, जल में अल्प विलेय और अल्प क्षारीय होते हैं। अन्य धातुओं के ऑक्साइड जल में नहीं घुलते और उनके हाइड्राॅक्साइड परोक्ष रीतियों से ही बनाए जाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
धातुओं के ऑक्साइड और हाइड्राॅक्साइड क्षारक होते हैं। क्षार धातुओं के ऑक्साइड जल में शीघ्र घुल जाते हैं। कुछ धातुओं के ऑक्साइड जल में कम विलेय होते हैं और कुछ धातुओं के ऑक्साइड जल में ज़रा भी विलेय नहीं हैं। कुछ अधातुओं के हाइड्राइड, जैसे नाइट्रोजन और फाॅस्फोरस के हाइड्राइड (क्रमश: अमोनिया और फाॅस्फीन) भी भस्म होते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
बहुत से क्षार जल में विलेय हैं। (जैसे- सोडियम हाइडॉक्साइड, अमोनिया आदि) किन्तु कुछ विलेय नहीं हैं (जैसे- एल्युमिनियम हाइडॉक्साइड)।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0
क्षार
सांद्र क्षार जैविक चींजों के लिये दाहक (कॉस्टिक) होते हैं तथा अम्लीय पदार्थों के साथ तेजी से क्रिया करते हैं।
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