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पाबूजी
पाबूजी की कथा का संकलन और इसे अंग्रेज़ी में लिपिबद्ध करने का प्रयास जॉन डी. स्मिथ द्वारा दि एपिक ऑफ़ पाबूजी के नाम से किया गया। यह 1991 में कैंब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ। इसका एक संक्षिप्त वर्शन वर्ष 2005 में छपा जो वर्तमान में प्राप्य है। उक्त कथा का एक विस्तृत विवेचन ए. हिल्टबेटल द्वारा किया गया है।
0.5
3,939.502948
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गर्भस्राव
अल्ट्रासाउंड परीक्षा के दौरान या ह्यूमन कोरियोनिक गोनाडोट्रोपिन एचसीजी (HCG) के परीक्षण के माध्यम से भी गर्भस्राव का पता लगाया जा सकता है। एआरटी (ART) तरीकों से गर्भवती हुई महिलाओं और जिनका गर्भस्राव हो चुका हो ऐसी महिलाओं की एक साथ निगरानी करके उनके गर्भस्राव के बारे में जल्दी पता लगाया जा सकता है, जबकि जिनकी निगरानी नहीं की जा रही हो उनके बारे में पता लगाना मुश्किल हो सकता है।
0.5
3,936.795761
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गर्भस्राव
अव्यवहार्य गर्भावस्था, जिन्हें स्वाभाविक रूप से निष्कासित नहीं किया गया है के प्रबंधन के लिए कई चिकित्सा विकल्प मौजूद हैं।
0.5
3,936.795761
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गर्भस्राव
हालांकि इसके बाद महिला शारीरिक रूप से जल्दी ठीक हो जाती है लेकिन आमतौर पर अभिभावकों को मनोवैज्ञानिक तौर पर इससे उबरने में काफी लंबा समय लग सकता है। इस मामले में लोगों में बहुत भिन्नता पायी जाती है: कुछ लोग कुछ ही महीने में इससे उबरने में सक्षम हो जाते हैं लेकिन दूसरों को एक साल से अधिक का समय भी लग जाता है। कुछ लोगों को राहत मिल सकती है तो कुछ अन्य नकारात्मक भावनाएं महसूस कर सकते हैं। गर्भस्राव झेल चुकी महिलाओं पर आधारित प्रश्नावली (GHQ-12 जनरल हेल्थ क्वेश्चनेर) के अध्ययन से पता लगा है कि गर्भस्राव के बाद तकरीबन आधी (55%) महिलाएं तुरंत, 25% 3 महीने तक, 18% 6 महीनों तक और 11% 1 वर्ष तक मनोवैज्ञानिक संकट से गुजरती हैं।
0.5
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गर्भस्राव
जो लोग शोक के दौर से गुजरते हैं, उन्हें लगता है जैसे उनके बच्चे ने जन्म लिया था लेकिन उसकी मौत हो गयी। गर्भ में वह भ्रूण भले ही कम समय के लिए ठहरा हो लेकिन इस बात से उनका दर्द कम नहीं हो पाता है। गर्भावस्था का पता लगने के बाद से अभिभावक भ्रूण या गर्भस्थ शिशु के साथ जुड़ना शुरू कर देते हैं। जब गर्भावस्था की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती है तब सारे सपने, कल्पनाएं और भविष्य की योजनाएं बुरी तरह से प्रभावित हो जाती हैं।
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गर्भस्राव
इस नुकसान के बाद दूसरों का भावनात्मक समर्थन बहुत महत्वपूर्ण होता है। जिन लोगों ने गर्भस्राव का अनुभव नहीं किया है, उन लोगों के लिए यह समझना बेहद मुश्किल है कि ऐसे दौर में इंसान क्या महसूस करता है और उन पर क्या गुजरती है और सहानुभूति प्रकट करना बहुत मुश्किल होता है। यह अभिभावक के उबरने की अवास्तविक उम्मीदों को जन्म दे सकता है। किसी भी बातचीत में वे शायद ही अब गर्भावस्था और गर्भस्राव का उल्लेख करते हैं क्योंकि यह मुद्दा बहुत दर्दनाक होता है। इसकी वजह से महिला खुद को विशेष रूप से कटा हुआ महसूस कर सकती है। चिकित्सकों द्वारा अनुपयुक्त या असंवेदनशील प्रतिक्रियाओं की वजह से उनका दुख और आघात और बढ़ सकता है, इस वजह से अधिकतर मामलों में एक मानक कोड इस्तेमाल करने की प्रक्रिया शुरू की गयी है।
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गर्भस्राव
ऐसे अभिभावकों के लिए जिन्होंने गर्भस्राव का अनुभव किया हो, उनके लिए गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों से मिलना अक्सर दर्दनाक साबित होता है। कभी-कभी दोस्तों, परिचितों और परिवार के साथ भेंट-मुलाकात में इसकी वजह से काफी मुश्किलें पैदा होती हैं।
0.5
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गर्भस्राव
गर्भस्राव कई कारणों से हो सकता है, जिनमें से सभी को पहचाना नहीं जा सकता है। इन कारणों में आनुवंशिक, गर्भाशय या हार्मोनल असामान्यताएं, प्रजनन पथ के संक्रमण और ऊतक अस्वीकृति शामिल हैं।
0.5
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गर्भस्राव
नैदानिक तौर पर सबसे स्पष्ट गर्भस्राव (विभिन्न अध्ययनों में दो तिहाई से तीन तिमाहियों के बीच) पहली तिमाही के दौरान होते हैं।
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गर्भस्राव
पहले 13 सप्ताह में हुए गर्भस्राव में आधे से ज्यादा भ्रूणों में गुणसूत्र असामान्यताएं पायी जाती हैं। आनुवंशिक समस्या वाली गर्भावस्था में गर्भस्राव होने की 95% आशंका होती है। अधिकतर गुणसूत्र समस्याएं संयोग से होती हैं। इनका माता पिता के साथ कोई लेना-देना नहीं होता है और पुनरावृत्ति की संभावना भी नहीं होती. हालांकि, अभिभावक के जीन की वजह से गुणसूत्र समस्याओं के होने की संभावना रहती है। यह गर्भस्राव की पुनरावृत्ति होने की प्रमुख वजह हो सकती है या फिर अगर अभिभावक में से किसी एक का बच्चा या अन्य रिश्तेदार को जन्म-दोष हो. आनुवांशिक समस्याएं अधिकतर उम्रदराज अभिभावकों को होती हैं, उम्रदराज महिलाओं में गर्भस्राव की दर अधिक होने का यह प्रमुख कारण हो सकता है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE
सत्ता
स्टीवन ल्यूक्स ने सत्ता के तीन आयामों की चर्चा करके उसके कई पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। उनके अनुसार सत्ता का मतलब है निर्णय लेने का अधिकार अपनी मुट्ठी में रखने की क्षमता, सत्ता का मतलब है राजनीतिक एजेंडे को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए निर्णयों के सार को बदल देने की क्षमता और सत्ता का मतलब है लोगों की समझ और प्राथमिकताओं से खेलते हुए उनके विचारों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की क्षमता।
0.5
3,923.267405
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE
सत्ता
रॉबर्ट डाह्ल यह नहीं मानते कि निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता किसी सुपरिभाषित ‘शासक अभिजन’ या रूलिंग क्लास की मुट्ठी में रहती है। 1963 में प्रकाशित अपनी रचना हू गवर्न्स? में डाह्ल ने अमेरिका के न्यू हैविंस, कनेक्टीकट का अध्ययन पेश किया। इसमें उन्होंने पहले अपने लिहाज़ से निर्णय के तीन प्रमुख क्षेत्रों (शहरी नवीकरण, सार्वजनिक शिक्षा और राजनीतिक उम्मीदवारों का चयन) को छाँटा, निर्णय-प्रक्रिया में शामिल लोगों और उनकी प्राथमिकताओं की शिनाख्त की और फिर उन लोगों द्वारा किये गये फ़ैसलों का उनकी प्राथमिकताओं से मिलान किया। डाह्ल ने यह तो पाया कि आर्थिक और राजनीतिक रूप से ताकतवर लोगों की आम लोगों के मुकाबले फ़ैसलों में ज़्यादा चलती है, पर उन्हें अभिजनों के किसी स्थाई समूह द्वारा फ़ैसले करने या उन्हें प्रभावित करने के सबूत नहीं मिले। वे इस नतीजे पर पहुँचे कि निर्णयों को प्रभावित करने में सत्ता की भूमिका तो होती है, पर सत्ता एक नहीं बल्कि कई केंद्रों में होती हैं। दाह्म की मान्यता है कि अगर इसी तरह से सत्ता के स्थानीय रूपों के अध्ययन कर लिए जाएँ तो उसके राष्ट्रीय स्वरूप के बारे में नतीजे निकाले जा सकते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE
सत्ता
राजनीतिक एजेंडा अपने हिसाब से बनवाने में सत्ता के इस्तेमाल की शिनाख्त करना थोड़ा मुश्किल है। इस प्रक्रिया में ज़ोर फ़ैसले करने पर कम और दूसरों को फ़ैसलों में शामिल होने से रोकने या किसी ख़ास मत को व्यक्त होने से रोकने पर ज़्यादा रहता है। सत्ता की इस भूमिका को समझने के लिए आवश्यक है कि स्थापित मूल्यों, राजनीतिक मिथकों, चलन और संस्थाओं के काम करने के तरीकों पर ध्यान दिया जाए। इनके ज़रिये किसी एक समूह का निहित स्वार्थ दूसरे समूहों पर हावी हो जाता है और कई मामलों में उन समूहों को अपनी बात कहने या निर्णय-प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका भी नहीं मिल पाता। अक्सर यथास्थिति के पैरोकार परिवर्तन की वकालत करने वालों को इन्हीं तरीकों से हाशिये पर धकेलते रहते हैं। उदार-लोकतांत्रिक राजनीति की प्रक्रियाओं को अभिजनवादियों द्वारा ऐसे फ़िल्टरों की तरह देखा जाता है जिनके ज़रिये रैडिकल प्रवृत्तियाँ छँटती चली जाती हैं।
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सत्ता
सत्ता का तीसरा चेहरा यानी लोगों के विचारों को नियंत्रित करके अपनी बात मनवाने की प्रक्रिया लोगों की आवश्यकताओं को अपने हिसाब से तय करने की करामात पर निर्भर है। हरबर्ट मारक्यूज़ ने अपनी विख्यात रचना वन- डायमेंशनल मैन (1964) में विश्लेषण किया है कि क्यों विकसित औद्योगिक समाजों को भी सर्वसत्तावादी की श्रेणी में रखना चाहिए। मारक्यूज़ के अनुसार हिटलर के नाज़ी जर्मनी में या स्टालिन के रूस में सत्ता के आतंक का प्रयोग करके सर्वसत्तावादी राज्य कायम किया गया था, पर औद्योगिक समाजों में यही काम आधुनिक प्रौद्योगिकी के ज़रिये बिना किसी प्रत्यक्ष क्रूरता के लोगों की आवश्यकताओं को बदल कर किया जाता है। ऐसे समाजों में टकराव ऊपर से नहीं दिखता, पर इसका मतलब सत्ता के व्यापक वितरण में नहीं निकाला जा सकता। जिस समाज में विपक्ष और प्रतिरोध नहीं है, वहाँ माना जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक नियंत्रण और जकड़बंदी के बारीक हथकण्डों का इस्तेमाल हो रहा है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE
सत्ता
सत्ता की अवधारणा पर विचार करने के लिए ज़रूरी है कि उसके मार्क्सवादी, उत्तर-आधुनिक, नारीवादी आयामों और हान्ना अरेंड्ट द्वारा प्रतिपादित सत्ता की वैकल्पिक धारणा पर भी ग़ौर कर लिया जाए।
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सत्ता
मार्क्सवादी विद्वान मानते हैं कि वर्गों में बँटे समाज में (जैसे कि पूँजीवादी समाज) शासक वर्ग का उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा होता है और वह मज़दूर वर्ग पर अपनी सत्ता थोपता है। पूँजीवादी वर्ग की सत्ता न केवल विचारधारात्मक, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक भी होती है। मार्क्स का विचार था कि किसी भी समाज में विचारों, मूल्यों और आस्थाओं के प्रधान रूप शासक वर्ग के अनुकूल होते हैं। मज़दूर वर्ग के मानस पर उन्हीं की छाप होती है जिसका नतीजा श्रमिकों की ‘भ्रांत चेतना’ में निकलता है। चेतना के इसी रूप के कारण मज़दूर अपने शोषण की असलियत को पहचान नहीं पाते। इसीलिए उनके ‘वास्तविक’ हित यानी पूँजीवादी के उन्मूलन और उनके ‘अनुभूत’ हित में अंतर बना रहता है। लेनिन की मान्यता थी कि पूँजीवादी विचारधारा की सत्ता के कारण मेहनतकश वर्ग ज़्यादा से ज़्यादा केवल ‘ट्रेड यूनियन चेतना’ ही प्राप्त कर सकता है। अर्थात् वह पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर अपनी जीवन-स्थितियाँ सुधारने से परे नहीं जा पाता। मिशेल फ़ूको ने अपने विमर्श में सत्ता और विचार-प्रणालियों के बीच सूत्र की तरफ़ ध्यान खींचा है। फ़ूको विमर्श को सामाजिक संबंधों और आचरणों की ऐसी प्रणाली के रूप में देखते हैं जो अपने दायरे में रहने वाले लोगों को अपने हिसाब से तात्पर्य थमाती रहती है। चाहे मनोचिकित्सा हो, औषधि हो, न्याय प्रणाली हो, या कारागार, अकादमीय अनुशासन या राजनीतिक विचारधाराएँ हों, फ़ूको की निगाह में ये सभी विमर्श की प्रणालियाँ हैं और इस नाते सत्ता के रूप हैं। फ़ूको के मुताबिक आधुनिक युग में सत्ता किसी को कुछ करने से नहीं रोकती, बल्कि अस्मिताओं और आत्मपरकताओं की रचना करती है। सत्ता का राज्य या शासक वर्ग जैसे कोई एक केंद्र नहीं होता, बल्कि वह उसी तरह पूरी व्यवस्था में प्रवाहित होती रहती है जिस तरह शरीर में धमनियों द्वारा रक्त प्रवाहित होता है। इस प्रक्रिया का नियंत्रण ‘शासकीयता’ के ज़रिये किया जाता है। एक विशाल नौकरशाही तंत्र द्वारा अननिगनत तरीके अपना कर लोगों का वर्गीकरण किया जाता है। समाज को उत्तरोत्तर संगठित और समरूपीकृत करते हुए उन पर निगरानी के विभिन्न रूप (आइडेंटिटी कार्ड्स, पासपोर्ट आदि) थोपे जाते हैं। इस प्रक्रिया में लोग तरह-तरह की आत्मपरकताएँ (हिंदू-मुसलमान, भारतीय-पाकिस्तानी, शिक्षित-निरक्षर, स्वस्थ- रोगी, स्त्री-पुरुष) जज़्ब कर लेते हैं। इसी आत्मसातीकरण के माध्यम से व्यक्ति सत्ता को ‘नॉर्मल’ ढंग से स्वीकार करता रहता है। शासकीयता इसी ‘नार्मलाइज़ेशन’ के माध्यम से व्यक्ति को ‘सब्जेक्ट’ में बदलती है। सब्जेक्ट एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसका एक अर्थ है स्वतंत्र कर्त्ता और दूसरा है शासित प्रजा का सदस्य। फ़ूको का मतलब यह है कि विमर्श के ज़रिये सब्जेक्ट में बदलते ही व्यक्ति शासकीयता की कारगुज़ारियों की मातहती में चला जाता है।
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सत्ता
नारीवादी विद्वान सत्ता को पितृसत्ता की अवधारणा की रोशनी में परखते हैं। पितृसत्ता प्रभुत्व की एक ऐसी सर्वव्यापी संरचना है जो हर स्तर पर काम करती है। पितृसत्ता के तहत कोई स्त्री व्यक्तिगत स्तर पर सत्तावान भी हो सकती है। लेकिन उसे पितृसत्तात्मक शासन द्वारा तय की गयी सीमाओं में ही काम करना होगा। मसलन, घर के दायरे में स्त्री सास के रूप में तो एक हद तक सत्ताधारी हो सकती है, पर बेटी, बहू, पत्नी या बहिन के रूप में नहीं। हर जगह उसकी स्थिति पुरुष के सापेक्ष और उसके साथ संबंध के तहत ही परिभाषित होने के लिए मजबूर है। अकेली और पृथक् कोई अस्मिता न होने के कारण वह अदृश्य और सत्ता से वंचित होने के लिए अभिशप्त है।
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सत्ता
नारीवादियों के मुताबिक पितृसत्ता की कोई ऐसी समरूप संरचना नहीं होती जो हर जगह एक ही रूप में मिलती हो।  इतिहास, भूगोल और संस्कृति के मुताबिक उसके भिन्न-भिन्न रूप मिलते हैं। इसके अलावा पितृसत्ता शोषण और प्रभुत्व के अन्य रूपों (वर्ग, जाति, साम्राज्यवाद, नस्ल आदि) के साथ परस्परव्यापी भी है। हर जगह उसके प्रभाव अलग-अलग निकलते हैं। एक अमेरिकी श्वेत स्त्री और भारतीय दलित स्त्री को पितृसत्ता का उत्पीड़न अलग-अलग ढंग से झेलना पड़ता है।
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सत्ता
हान्ना एरेंत सत्ता को केवल प्रभुत्व की संरचना के तौर पर देखने के लिए तैयार नहीं हैं। अपनी रचना ‘व्हाट इज़ अथॉरिटी?’ में वे सत्ता को एक बढ़ी हुई क्षमता के रूप में व्याख्यायित करती हैं जो सामूहिक कार्रवाई के ज़रिये हासिल की जाती है। लोग जब आपस में संवाद स्थापित करते हैं और मिल-जुल कर एक साझा उद्यम की ख़ातिर कदम उठाते हैं तो उस प्रक्रिया में सत्ता उद्भूत होती है। सत्ता का यह रूप वह आधार मुहैया कराता है जिस पर खड़े हो कर व्यक्ति नैतिक उत्तरदायित्व का वहन करते हुए सक्रिय होता है।
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दादूदयाल
वर्तमान में भी प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल अष्टमी पर नरेना धाम में भव्य मेले का आयोजन होता है तथा इस अवसर पर एक माह के लिए भारत सरकार के आदेश अनुसार वहां से गुजरने वाली प्रत्येक रेलगाड़ी का नराणा स्टेशन पर ठहराव रहता है।
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दादूदयाल
उनके उपदेशों को उनके शिष्य रज्जब जी ने “दादू अनुभव वाणी” के रूप में समाहित किया, जिसमे लगभग 5000 दोहे शामिल हैं। संतप्रवर श्री दादू दयालजी महाराज को निर्गुण संतो गुरु नानक के समकक्ष माना जाता है तथा उनके उपदेश व दोहे आज भी समाज को सही राह दिखाते आ रहे हैं।
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दादूदयाल
दादूदयाल का उद्देश्य पंथ स्थापना नहीं था , परन्तु वे इतना अवश्य चाहते थे की विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सहिष्णुता व समन्वय की भावना पैदा करने वाली बातों का निरूपण किया जाए और सभी के लिए एक उत्कृष्ट जीवन-पद्धति का निर्माण किया जाए।इस तरह व्यक्तिगत व सामुहिक कल्याण की भावना के परिणाम स्वरुप 'दादूपंथ' का उदय हुआ।सुंदरदास ने गुरु सम्प्रदाय नामक अपने ग्रन्थ में इसे'परब्रह्म सम्प्रदाय'कहा है। परशुराम चतुर्वेदी इस सम्प्रदाय का स्थापना काल 1573 ई. में सांभर में मानते हैं।परब्रह्म सम्प्रदाय का पूर्व नाम ब्रह्म सम्प्रदाय भी है, लेकिन सर्वाधिक लोकप्रिय नाम दादूपंथ ही है।
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दादूदयाल
महान संत दादूदयाल जी के प्रथम शिष्य बड़े सुन्दरदास जी के शिष्य प्रह्लाददास जी ने घाटड़ा में अपनी गद्दी स्थापित की थी, उनकी पांचवीं पीढ़ी मे संत हृदयराम जी महंत बने थे ये महान राजर्षि संत थे।
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दादूदयाल
उस समय देश मे मुसलमानो और अंग्रेजों का शासन था इनके अत्याचारों से हिन्दुओं की बड़ी दुर्दशा थी! ऐसे कठिन समय में हृदयराम जी ने आवश्यकता समझी कि देश एवं धर्म रक्षार्थ संतो को शस्त्र धारण करने चाहिये, उन्होने सर्वप्रथम अपने शिष्यों को शस्त्र चालन सिखाकर वि० सं० १८१२ में दादूपंथी संतों की नागा सेना स्थापित की।
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दादूदयाल
ये संत सैनिक बड़े शूरवीर तो थे ही, विद्वान और तपस्वी भी होते थे, उस समय पूरे देश मे दादूपंथियों जैसी सशक्त सेना किसी सम्प्रदाय मे नहीं थी यह सुनकर गुरु गोविंदसिंह जी भी धर्मयुद्ध मे सहयोग मांगने हेतू नरैना पधारे थे। संतसेना ने २०० वर्षों में ३३ बड़े युद्ध लड़े और एक भी नहीं हारे थे। इन्होने अपने स्वार्थ के लिये एक भी युद्ध नहीं किया कभी किसी को सताया नहीं कमजोरों का साथ देते थे, राजाओं का युद्ध में सहयोग करते थे अत: राजाओं ने संतसेना के निर्वाह हेतू जागीरें एवं सम्पत्तियां दी, वि० सं० १८२८ तक तो जयपुर दरबार से प्रतिमाह २४०० रू खर्चे हेतू गंगाराम जी को मिलते थे।
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दादूदयाल
वि० सं० १८३६ में एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई थी, जयपुर राज्य पर रींगस खाटू की तरफ से तुर्कों ने भीषण हमला किया एवं खाटू मे लूटमार मचानी शुरु की, उस समय जमात के महंत महायोद्धा संत मंगलदास जी थे। जयपुर महाराजा सवाई प्रतापसिंह जी के अत्यंत निवेदन पर मंगलदास जी संतसेना लेकर धर्मयुद्ध करने खाटू पहुँचे मंगलदास जी ने युद्ध से पहले अपने हाथों अपना शीश उतार कर एक तरफ रख दिया फिर भीषण युद्ध हुआ! इस युद्ध में हमारे सात सौ संत वीरगति को प्राप्त हुये एवं तीन हजार पांच सौ तुर्क मारे गये बाकी के विधर्मी जान बचाकर भाग गये! राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा हुई!
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दादूदयाल
तत्त्पश्चात् उनके शिष्य संतोषदास जी ने खाटू में जहां शीश रखा था वहां पर शीशमन्दिर बनवाया जो आज खाटूश्यामजी के नाम से प्रसिद्ध है और रणक्षेत्र में जहां धड़ गिरा वहां समाधी बनवाकर चरण स्थापित किये, वर्तमान समय में दोनों स्थान अच्छी स्थिति मे है।
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दादूदयाल
खाटू युद्ध के बाद दादूपंथ की पूरे देश में प्रतिष्ठा बढ़ गई थी, जयपुर महाराजा पूरी नागा सेना को जयपुर ले आये, वि० सं० १८४३ में महंत संतोषदास जी ने रामगंज बाजार मे अपनी गद्दी स्थापित की, वर्तमान में जो शासन सचिवालय का भवन है इसमें नागासेना को रक्खा गया, यहां हमारे ४००० संत सैनिक रहते थे!
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ज्ञानमीमांसा
आधुनिक काल में देकार्त (1596-1650 ई) को ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वतःसिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक सन्देह से आरम्भ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता : संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है। इस नींव पर उसने, अपने विचार में, परमात्मा और सृष्टि के अस्तित्व को सिद्ध किया। देकार्त की विवेचन-विधि नई थी, परन्तु पूर्वजों की तरह उसका अनुराग भी तत्वज्ञान में ही था।
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ज्ञानमीमांसा
जॉन लॉक (1632-1704 ई) ने अपने लिये नया मार्ग चुना। सदियों से सत्य के विषय में विवाद होता रहा है। पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हमारे ज्ञान की पहुँच कहाँ तक है। इसी से ये प्रश्न भी जुड़े थे कि ज्ञान क्या है और कैसे प्राप्त होता है। यूरोप महाद्वीप के दार्शनिकों ने दर्शन को गणित का प्रतिरूप देना चाहा था, लॉक ने अपना ध्यान मनोविज्ञान की ओर फेरा और "मानव बुद्धि पर निबंध" की रचना की। यह युगान्तकारी पुस्तक सिद्ध हुई। इसे अनुभववाद (Empiricism) का मूलाधार समझा जाता है। जार्ज बर्कली (1684-1753) ने लॉक की आलोचना में "मानवज्ञान के नियम" लिखकर अनुभववाद को आगे बढ़ाया और डेविड ह्यूम (1711-1776 ईदृ) ने "मानव प्रकृति" में इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। ह्यूम के विचारों का विशेष महत्व यह है कि उन्होंने कांट (1724-1804 ई) के "आलोचनवाद" के लिये मार्ग खोल दिया। कांट ने ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र का केंद्रीय प्रश्न बना दिया।
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ज्ञानमीमांसा
किन्तु पश्चिम में ज्ञानमीमांसा को उचित पद प्रप्त करने में बड़ी देर लगी। भारत में कभी इसकी उपेक्षा हुई ही नहीं। गौतम के न्यायसूत्रों में पहले सूत्र में ही 16 विचारविषयों का वर्णन हुआ है, जिसके यथार्थ ज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। इनमें प्रथम दो विषय "प्रमाण" और "प्रमेय" हैं। ये दोनों ज्ञानमीमांसा और ज्ञेय तत्व ही हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों में भी प्रथम स्थान "प्रमाण" को दिया गया है।
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ज्ञानमीमांसा
ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है। देकार्त ने अपने अनुभव के विश्लेषण से आरम्भ किया, परन्तु मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसका अनुभव शून्य में नहीं विकसित होता। दर्शनशास्त्र का इतिहास वादविवाद की कथा है। प्लेटो ने अपना मत संवादों में व्यक्त किया। संवाद में एक से अधिक चेतनाओं का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। ज्ञानमीमांसा में विवेचन का विषय वैयक्तिक चेतना नहीं, अपितु सामाजिक चेतना बन जाती है। ज्ञान का अपना अस्तित्व तो असंदिग्ध है परन्तु इसमें निम्नलिखित स्वीकृतियाँ भी निहित होती हैं-
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ज्ञानमीमांसा
प्रत्येक धारणा सत्य होने का दावा करती है। परन्तु मीमांसा इस दावे को उचित जाँच के बिना स्वीकार नहीं कर सकता। हम अभी इन धारणाओं की परीक्षा करेंगे, परन्तु पहले ज्ञान के स्वरूप पर कुछ कहना आवश्यक है।
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ज्ञानमीमांसा
जब हम किसी धारणा को सुनते हैं या उसका चिंतन करते हैं तो उस सबंध में हमारी वृत्ति इस प्रकार की होती है -
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ज्ञानमीमांसा
(ख) सत्य और असत्य में निश्चय न कर सकें, तो स्वीकृति अस्वीकृति दोनों को विराम में रखते हैं। यह संदेह की वृत्ति है।
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ज्ञानमीमांसा
(ग) उपन्यास पढ़ते हुए हम अपने आपको कल्पना के जगत् में पाते हैं और जो कुछ कहा जाता है उसे हम उस समय के लिये तथ्य मान लेते हैं। यह "काल्पनिक स्वीकृति" है।
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ज्ञानमीमांसा
स्वीकृति के कई स्तर होते हैं। अधम स्तर पर सामयिक स्वीकृति है, इसे सम्मति कहते हैं। यह स्वीकृति प्रमाणित नहीं होती, इसे त्यागना पड़े तो हमें कोई विरक्ति नहीं होती। सम्मति के साथ तेज और सजीवता प्रबल होती है। धार्मिक विश्वासों पर जमें रहने के लिये मनुष्य हर प्रकार का कष्ट सहन कर लेता है। विश्वास और सम्मति दोनों वैयक्तिक कृतियाँ हैं, ज्ञान में यह परिसीमन नहीं होता। मैं यह नहीं कहता कि मेरी संमति में दो और दो चार होते हैं, न यह कहता हूँ कि मेरे विश्वास के अनुसार, यदि क और ख दोनों ग के बराबर हैं तो एक दूसरे के भी बराबर हैं। ये तो ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें प्रत्येक बुद्धिवंत प्राणी को अवश्य मानना होता है संमतियो में भेद होता है ज्ञान सबके लिये एक है। ज्ञान में संमति की आत्मपरकता का स्थान वस्तुपरकता ले लेती है।
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वस्त्र
आद्यवस्त्र निर्माण करता म्हणून वेदमूर्ती भगवान श्री जिव्हेश्वर यांना ओळखले जाते. भगवान श्री जिव्हेश्वर यांचा जन्म भगवानशिव (महादेव) यांच्या जिव्हा/जीभेतून (Toung) झाला. भगवान जिव्हेश्वर अंखंड साळी समाजाचे (भारत) दैवत आहे.
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वस्त्र
भगवान जिव्हेश्वर हे भगवान शंकराचे (महादेव) चे अवतार आहे. सर्व देवांनी भगवान जिव्हेश्वर यांना पृथ्वी तलावर वस्त्र (कापड) निर्माण करण्यासाठी भगवान जिव्हेश्वर यांना जन्माला घातले, त्यामुळे यांना आद्यवस्त्र निर्माण करता म्हणुन ओळखतात.
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वस्त्र
Vedamurti Lord Sri Jiveshwar is known as the creator of Cloth (Adyavastra). Lord Shri Jiveshwar was born from the tongue of Lord Shiva (Mahadeva). Lord Jiveshwar is the deity of the Ankhand Sali community (India). Lord Jiveshwar is an incarnation of Lord Shankara (Mahadev). All the Gods gave birth to Lord Jiveshwara to create Cloth on Earth , Called as Vastr In indian Launguage, hence he is known as the Creator of Cloth On the Earth 🌍 (Adhyavastra).
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वस्त्र
वस्त्र या कपड़ा एक मानव-निर्मित चीज है जो प्राकृतिक या कृत्रिम तंतुओं के नेटवर्क से निर्मित होती है। इन तंतुओं को सूत या धागा कहते हैं। धागे का निर्माण कच्चे ऊन, कपास (रूई) या किसी अन्य पदार्थ को करघे की सहायता से ऐंठकर किया जाता है।
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वस्त्र
एक फ्लेक्सिबल सामग्री है जिसमें कृत्रिम फायबर धागे का समावेश रहता है। लंबे धागे का उत्पादन करने के लिए ऊन, फ्लेक्स, सूती अथवा अन्य कच्चे तंतु कपाट्या से तैयार किए जाते हैं। कपडे बुनना, क्रॉसिंग, गाठना, बुनाई, टॅटिंग, फेलिंग, ब्रेडिंग करके कपडा तैयार किया जाता है।
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वस्त्र
फॅब्रिक, कापड आणि साहित्य टेक्सटाईल समसामयिक व्यवसायात (जसे टेलरिंग आणि ड्रेसमेकिंग) वस्त्रोद्योग समानार्थी म्हणून वापरले जातात. फॅब्रिक हे विणकाम, बुद्धिमत्ता, प्रसार, क्रॉसिंग किंवा बंधनाद्वारे तयार केलेली सामग्री आहे जी उत्पादनासाठी वापरली जाऊ शकते.
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वस्त्र
जैसे कि यह बहुत नरम और बहुत चिकना दिखता है और आपको लगता है कि यह कपड़ा अन्य सभी कपड़ों से अलग है। तो आप उन कपड़ों पर ज्यादा ध्यान देते है।
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वस्त्र
और आपको यह भी जानना होगा कि जब आप टी-शर्ट या अन्य कोय कपड़े खरीदने जाते हैं, तो आपको कुछ मदद मिलेगी, क्यों कपड़े में जीएसएम शब्द का उपयोग किया जाता है। और GSM शब्द का पूरा नाम क्या है?
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वस्त्र
वस्त्रों पर कोई आवर्ती पैटर्न छापने को प्रिन्ट करना कहते हैं। ऐतिहासिक रूप से वस्त्रों पर छपाई दो हजार ईसा पूर्व से हो रही है। छपाई का आरम्भ भारत से हुआ।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
विद्यानिधि मेरी जिह्वाकी रक्षा करें, कंठकी भरत-वंदित, कंधोंकी दिव्यायुध और भुजाओंकी महादेवजीका धनुष तोडनेवाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
मेरे हाथोंकी सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदयकी जमदग्नि ऋषिके पुत्रको (परशुराम) जीतनेवाले, मध्य भागकी खरके (नामक राक्षस) वधकर्ता और नाभिकी जांबवानके आश्रयदाता रक्षा करें।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
मेरे कमरकी सुग्रीवके स्वामी, हडियोंकी हनुमानके प्रभु और रानोंकी राक्षस कुलका विनाश करनेवाले रघुकुलश्रेष्ठ रक्षा करें।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
मेरे जानुओंकी सेतुकृत, जंघाओकी दशानन वधकर्ता, चरणोंकी विभीषणको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण शरीरकी श्रीराम रक्षा करें।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
शुभ कार्य करनेवाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धाके साथ रामबलसे संयुक्त होकर इस स्तोत्रका पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाशमें विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेशमें घूमते रहते हैं , वे राम नामोंसे सुरक्षित मनुष्यको देख भी नहीं पाते ।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामोंका स्मरण करनेवाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता, इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
जो संसारपर विजय करनेवाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
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श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवचका स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञाका कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगलकी ही प्राप्ति होती हैं।
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3,883.950985
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वाई-फ़ाई
वाई-फाई या वाईफाई () रेडियो तरंगों की मदद से नेटवर्क और इंटरनेट तक पहुँचने की एक युक्ति है। यह वाई-फाई एक्सेस प्वाइंट के इर्द-गिर्द मौजूद मोबाइल फोनों को वायरलैस इंटरनेट उपलब्ध कराने का काम करता है। इस तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी गति (स्पीड) सामान्य सेवा प्रदाताओं की ओर से दी जाने वाली गति से काफी तेज होती है, जो  इसके आईo ईo ईo ईo(इंस्टिट्यूट ऑफ़ इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजिनीयर्स) मानकों पर निर्भर करती है जो 802.11 प्रोटोकॉल कहलाते हैं।  इन प्रोटोकोलों की श्रृंखला में सबसे नया प्रोटोकॉल 802.11ag है जो  2018 में जारी किया गया है। यह तकनीक आजकल के नए स्मार्टफोन, लैपटॉप और कंप्यूटर में आसानी से पाई जाती है। एक वायरलेस (बेतार) नेटवर्क बनाने के लिए, एक वायरलेस राउटर की जरूरत पड़ती है।
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वाई-फ़ाई
वाई-फाई हाय-फाई शब्द का यमक है। यह वाई - फाई एलायंस द्वारा स्वामित्व एक ब्रांड है। एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर तक जानकारी भेजने के लिए वाई-फाई आई॰ई॰ई॰ई 802.11 मानक का प्रयोग करता है।
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वाई-फ़ाई
IEEE 802 प्रोटोकॉल परिवार के कई हिस्सों का उपयोग करता है और इसकी वायर्ड बहन प्रोटोकॉल ईथरनेट के साथ मूल रूप से हस्तक्षेप करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। वाई-फाई तकनीकों का उपयोग करने वाले उपकरणों में डेस्कटॉप और लैपटॉप, स्मार्टफोन और टैबलेट, स्मार्ट टीवी, प्रिंटर, डिजिटल ऑडियो प्लेयर, डिजिटल कैमरा, कार और ड्रोन शामिल हैं। संगत डिवाइस वायरलेस एक्सेस प्वाइंट के साथ-साथ कनेक्ट किए गए ईथरनेट उपकरणों के माध्यम से वाई-फाई पर एक दूसरे से कनेक्ट हो सकते हैं और इंटरनेट तक पहुंचने के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं। इस तरह के एक एक्सेस प्वाइंट (या हॉटस्पॉट) में लगभग 20 मीटर (66 फीट) घर के अंदर और बाहर की ओर अधिक रेंज होती है। हॉटस्पॉट कवरेज रेडियो तरंगों को ब्लॉक करने वाली दीवारों के साथ एक कमरे के रूप में छोटा हो सकता है, या कई अतिव्यापी पहुंच बिंदुओं का उपयोग करके प्राप्त कई वर्ग किलोमीटर के रूप में बड़ा हो सकता है।
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वाई-फ़ाई
दस्तावेज़ को प्रिंट करने के लिए, किसी अन्य डिवाइस पर वायरलेस तरीके से सूचना भेजने वाला उपकरण, दोनों स्थानीय नेटवर्क से जुड़ा हुआ है
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वाई-फ़ाई
वाई-फाई के विभिन्न संस्करणों को विभिन्न IEEE 802.11 प्रोटोकॉल मानकों द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है, जिसमें विभिन्न रेडियो प्रौद्योगिकियां रेंज, रेडियो बैंड और गति को निर्धारित करती हैं। वाई-फाई सबसे अधिक 2.4 गीगाहर्ट्ज़ (12 सेमी) यूएचएफ और 5 गीगाहर्ट्ज़ (6 सेमी) एसएचएफ आईएसएम रेडियो बैंड का उपयोग करता है; ये बैंड कई चैनलों में विभाजित हैं। प्रत्येक चैनल को कई नेटवर्क द्वारा समय-साझा किया जा सकता है। ये तरंग दैर्ध्य लाइन-ऑफ़-विज़न के लिए सबसे अच्छा काम करते हैं। कई सामान्य सामग्रियां उन्हें अवशोषित या प्रतिबिंबित करती हैं, जो आगे सीमा को सीमित करती हैं, लेकिन भीड़ भरे वातावरण में विभिन्न नेटवर्क के बीच हस्तक्षेप को कम करने में मदद कर सकती हैं। करीब सीमा पर, उपयुक्त हार्डवेयर पर चलने वाले वाई-फाई के कुछ संस्करण, 1 से अधिक Gbit/s (प्रति सेकंड गीगाबिट) की गति प्राप्त कर सकते हैं।
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वाई-फ़ाई
वाई-फाई वायर्ड नेटवर्क की तुलना में संभावित रूप से हमला करने के लिए अधिक असुरक्षित है क्योंकि वायरलेस नेटवर्क इंटरफ़ेस नियंत्रक के साथ नेटवर्क की सीमा के भीतर कोई भी एक्सेस का प्रयास कर सकता है। वाई-फाई प्रोटेक्टेड एक्सेस (डब्ल्यूपीए) वाई-फाई नेटवर्क पर चलती जानकारी की सुरक्षा के लिए बनाई गई तकनीकों का एक परिवार है और इसमें व्यक्तिगत और उद्यम नेटवर्क के समाधान शामिल हैं। WPA की सुरक्षा विशेषताओं में मजबूत सुरक्षा और नए सुरक्षा अभ्यास शामिल हैं क्योंकि समय के साथ सुरक्षा परिदृश्य बदल गया है।
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वाई-फ़ाई
वायरलेस राउटर आमतौर पर घरों में पाए जाते हैं। वे हार्डवेयर डिवाइस हैं जिनका उपयोग इंटरनेट सेवा प्रदाता आपको अपने केबल या xDSL इंटरनेट नेटवर्क से जोड़ने के लिए करते हैं। एक वायरलेस राउटर को कभी-कभी एक वायरलेस लोकल एरिया नेटवर्क (WLAN) डिवाइस के रूप में जाना जाता है। एक वायरलेस नेटवर्क को वाई-फाई नेटवर्क भी कहा जाता है। एक वायरलेस राउटर एक वायरलेस एक्सेस प्वाइंट और एक राउटर के नेटवर्किंग कार्यों को जोड़ता है।
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वाई-फ़ाई
एक मोबाइल हॉटस्पॉट, दोनों टेथर और अनएथर्ड कनेक्शन वाले स्मार्टफ़ोन पर एक सामान्य सुविधा है। जब आप अपने फ़ोन के मोबाइल हॉटस्पॉट को चालू करते हैं, तो आप अपने वायरलेस नेटवर्क कनेक्शन को अन्य उपकरणों के साथ साझा करते हैं जो तब इंटरनेट का उपयोग कर सकते हैं।
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वाई-फ़ाई
वायरलेस सुरक्षा का अर्थ वायरलेस नेटवर्क से जुड़े हुए कम्प्यूटर्स के डाटा तथा गोपनीयता की अनधिकृत प्रयोग/ पहुँच से  सुरक्षा है। सबसे सामान्य वायरलेस सुरक्षा के प्रकार डब्ल्यूo  ईo  पीo  (वायरड इक्वीवेलेंट प्राइवेसी) व डब्ल्यूo एo पीo ( वाईo फाईo प्रोटेक्टेड एक्सेस ) हैं।  इनमे डब्ल्यूo  ईo  पीo बहुत ही कमजोर सुरक्षा उपाय है, जिन्हे कंप्यूटर व कुछ सॉफ्टवेयरों की मदद से आसानी से बहुत ही कम समय में तोड़ा जा सकता है। उपयोगकर्ता के हस्तक्षेप की आवश्यकता के बिना खुले नेटवर्क में उपयोगकर्ताओं को डेटा सुरक्षा प्रदान करता है|
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डायोड
द्विअग्र या द्वयाग्र या डायोड (diode) यह एक ऐसी वैद्युत युक्ति है जिसमे विधुत धारा एक दिशा मे बहती है। अधिकांशत: डायोड दो सिरों (अग्र) वाले होते हैं किन्तु ताप-आयनिक डायोड में दो अतिरिक्त सिरे भी होते हैं जिनसे हीटर जुड़ा होता है।
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डायोड
डायोड कई तरह के होते हैं किन्तु इन सबकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक दिशा में धारा को बहुत कम प्रतिरोध के साथ बहने देते हैं जबकि दूसरी दिशा में धारा के विरुद्ध बहुत प्रतिरोध लगाते हैं। इनकी इसी विशेषता के कारण ये अन्य कार्यों के अलावा प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा के रूप में बदलने के लिये दिष्टकारी परिपथों में प्रयोग किये जाते हैं। आजकल के परिपथों में अर्धचालक डायोड, अन्य डायोडों की तुलना में बहुत अधिक प्रयोग किये जाते हैं।
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डायोड
जब तक निर्वात नलिकाओं का युग था, वाल्व डायोडों का उपयोग लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक कार्यों (जैसे रेडियो, टेलीविजन, ध्वनि प्रणालियाँ, और इन्स्ट्रुमेन्टेशन आदि) में होता रहा। १९४० के दशक के अन्तिम काल में सेलेनियम डायोड के आ जाने से इनका बाजार कम होने लगा। इसके बाद १९६० के दशक में जब अर्धचालक डायोड की प्रौद्योगिकी बाजार में आ गयी, तब वाल्व डायोड का चलन और भी कम हो गया। आज भी वाल्व डायोड प्रयुक्त होते हैं किन्तु बहुत कम। इनका उपयोग आजकल वहाँ होता है जहाँ बहुत अधिक वोल्टेज और बहुत अधिक धारा की आवश्यकता हो।
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डायोड
1874 में जर्मन वैज्ञानिक कार्ल फर्डिनान्द ब्राउन ने पाया कि किसी धातु और खनिज की सन्धि (जङ्क्शन) केवल एक ही दिशा में धारा प्रवाहित करने देती है। भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने १८९४ में सबसे पहले क्रिस्टल का उपयोग करके रेडियो तरंगों को डिटेक्ट किया।
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डायोड
1930 के दशक के मध्य में बेल प्रयोगशाला के शोधकर्ताओं ने पाया कि क्रिस्टल डिटेक्टर का उपयोग माइक्रोवेव प्रौद्योगिकी में किया जा सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बिन्दु-सम्पर्क डायोड (point-contact diodes या crystal rectifiers or crystal diodes) का विकास हुआ जिसका उपयोग राडार में हुआ। १९५० के दशक के आरम्भ में जंक्शन डायोड का विकास हुआ।
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डायोड
वर्तमान समय में अनेक प्रकार के अर्धचालक डायोड प्रयुक्त होते हैं, जैसे बिन्दु-सम्पर्क डायोड, पी-एन डायोड, शॉट्की डायोड आदि। इनमें पी-एन जंक्शन डायोड सर्वाधिक प्रचलित और उपयोगी है।
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डायोड
बिन्दु सम्पर्क डायोड (Point Contact Diode) का विकास १९३० के दशक से आरम्भ हुआ। आजकल इसका उपयोग प्रायः ३ जीगाहर्ट्स से लेकर ३० जीगाहर्ट्स पर होता है। बिन्दु सम्पर्क डायोड में एक कम व्यास का धातु का तार एक अर्धचालक क्रिस्टल के सम्पर्क में होता है। दे दो तरह के होते हैं- वेल्ड किए गए सम्पर्क बिन्दु वाले या बिना वेल्ड सम्पर्क बिन्दु वाले।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A1
डायोड
पी-एन डायोड किसी अर्धचालक पदार्थ (जैसे सिलिकन, जर्मेनियम, गैलियम आर्सेनाइड आदि) के क्रिस्टल से बनाए जाते हैं। इसमें अन्य पदार्थ की अशुद्धि डालकर एक ही क्रिस्टल के दो भाग बना दिए जाते हैं जो एक सन्धि (जंक्शन) पर मिलते हैं। इस सन्धि के एक तरफ इलेक्ट्रॉनों की अधिकता होती है, जिससे इस भाग को n-टाइप अर्धचालक कहा जाता है। सन्धि के दूसरी तरफ धनात्मक आवेश वाहक (holes) होते हैं, इसलिए इस भाग को p-टाइप अर्धचालक कहते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A1
डायोड
शॉट्की डायोड में भी एक सन्धि होती है जो धातु और अर्धचालक की सन्धि होती है, न कि पी टाइप और एन टाइप अर्धचालकों की सन्धि। धातु और अर्धचालक की सन्धि की विशेषता उस सन्धि की धारिता (capacitance) का अत्यन्त कम होना है। कम सन्धि-धारिता के कारण शॉट्की डायोड का उपयोग अत्यधि गति से स्विचिंग (ऑन-ऑफ करने) के लिए किया जाता है।
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किंगफिशर
तीन परिवारों का वर्गीकरण जटिल है और कहीं अधिक विवादास्पद है। हालांकि आम तौर पर इन्हें कोरासीफोर्म्स वर्ग में रखा जाता है, लेकिन इस स्तर से नीचे भ्रम पैदा होने लगता है।
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किंगफिशर
पारंपरिक रूप से किंगफिशर को तीन उप-परिवारों के साथ एक परिवार, एल्सिडिनिडी माना जाता था, लेकिन पक्षी वर्गीकरण में 1990 के दशक की क्रांति के बाद, पहले तीन उप-परिवारों को अब परिवार के स्तर से कहीं ऊंचा कर दिया गया है। यह परिवर्तन गुणसूत्र और डीएनए संकरण के अध्ययन द्वारा समर्थित था, लेकिन इस आधार पर इसे चुनौती दी गयी कि सभी तीन समूह अन्य कोरासीफोर्म्स के संदर्भ में मोनोफाइलेटिक हैं। यही उन्हें उपवर्ग एल्सिडाइन्स के रूप में वर्गीकृत करने का कारण है।
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किंगफिशर
वृक्षीय किंगफिशर को पहले डेसिलोनिडी का पारिवारिक नाम दिया गया था लेकिन फिर हेल्सियोनिडी को प्राथमिकता दी गयी।
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किंगफिशर
किंगफिशर की विविधता का केंद्र है ऑस्ट्रेलेसियन क्षेत्र, लेकिन ऐसा माना जाता है कि इस परिवार की उत्पत्ति यहाँ नहीं हुई, इसके बजाय ये उत्तरी गोलार्द्ध में विकसित हुए और कई बार ऑस्ट्रेलेसियन क्षेत्र पर आक्रमण किया। जीवाश्म किंगफिशर का उल्लेख 30-40 मिलियन वर्षों पहले, जर्मनी में व्योमिंग और मध्य इयोसीन चट्टानों में निम्न इयोसीन चट्टानों से किया गया मिलता है। और अधिक हाल ही के जीवाश्म किंगफिशर का उल्लेख ऑस्ट्रेलिया के मिओसिन चट्टानों में (5-25 मिलियन वर्षों पहले) किया गया मिलता है। कई जीवाश्म पक्षियों का संबंध ग़लती से किंगफिशर से जोड़ दिया गया है, जिनमें केंट में लोअर इयोसीन चट्टानों के हैल्सियोमिस शामिल हैं जिन्हें एक गल भी समझा जाता है, लेकिन अब इन्हें एक विलुप्त परिवार का एक सदस्य माना जाता है। उनमें किंगफिशर की 85,000 प्रजातियाँ हैं।
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किंगफिशर
तीनों परिवारों में एल्सिडिनिडी अन्य दो परिवारों पर आधारित हैं। अमेरिका में पायी जाने वाली कुछ प्रजातियाँ, जो सभी सेरीलिडी परिवार से हैं, यह बताती हैं कि पश्चिमी गोलार्द्ध में इनकी छिटपुट मौजूदगी केवल दो मूल नयी बस्तियाँ बनाने वाली प्रजातियों के परिणाम स्वरुप है। यह परिवार प्राचीन युग में सबसे अधिक हाल ही में मिओसिन या प्लिओसीन में विविधतापूर्ण तरीके से अपेक्षाकृत हैल्सियोनिडी से विभाजित हुआ है।
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किंगफिशर
किंगफिशर का एक सर्वदेशीय वितरण है जो संसार के समस्त उष्णकटिबंधीय और शीतोष्ण क्षेत्रों में मौजूद है। ये ध्रुवीय क्षेत्रों और विश्व के कुछ अत्यंत शुष्क रेगिस्तानों में नहीं पाए जाते हैं। कई प्रजातियाँ, विशेष रूप से दक्षिण और पूर्व प्रशांत महासागर में पायी जाने वाली प्रजातियाँ द्वीप समूहों में पहुँच गयी हैं। प्राचीन युग के उष्णकटिबंधीय और आस्ट्रेलेशिया इस समूह के लिए महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं। यूरोप और उत्तरी अमेरिका मेक्सिको के उत्तरी भागों में इनकी संख्या बहुत ही कम है जहाँ सिर्फ एक आम किंगफिशर (आम किंगफिशर और पट्टीदार किंगफिशर क्रमशः) और कुछ असामान्य या प्रत्येक बहुत ही स्थानीय प्रजातियाँ रहती हैं: (दक्षिण पश्चिम अमेरिका में चक्रदार किंगफिशर और हरे किंगफिशर, दक्षिण-पूर्व यूरोप में धब्बेदार किंगफिशर और सफ़ेद-गले वाले किंगफिशर). अमेरिका के आसपास पायी जाने वाली छः प्रजातियों में से चार क्लोरोसेराइल जीनस में करीबी संबंध वाले हरे किंगफिशर और दो मेगासेराइल जीनस में बड़े कलगीदार किंगफिशर हैं। यहाँ तक कि उष्णकटिबंधीय दक्षिण अमेरिका में केवल पाँच प्रजातियों के साथ-साथ शीतकालीन पट्टीदार किंगफिशर पाए जाते हैं। इसकी तुलना में, छोटे से अफ्रीकी देश जाम्बिया में इसके 120 x 20 मीटर (192 x 32 किलोमीटर) क्षेत्र में आठ निवासी प्रजातियाँ मौजूद हैं।
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किंगफिशर
व्यक्तिगत प्रजातियों में आम किंगफिशर की तरह व्यापक विस्तार हो सकता है, जो आयरलैंड से समूचे यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और एशिया से ऑस्ट्रेलेशिया में सुदूर सोलोमन द्वीपों तक, या धब्बेदार किंगफिशर जिसका समूचे अफ्रीका और एशिया में व्यापक फैलाव है। अन्य प्रजातियों का बहुत संकीर्ण विस्तार है, विशेष रूप से द्वीपीय प्रजातियाँ जो एक एकल छोटे द्वीप में स्थानिक तौर पर रहते हैं। कोफियाऊ पैराडाइज किंगफिशर न्यू गीनिया के पास एक छोटे से द्वीप कोफियाऊ तक ही सीमित हैं।
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किंगफिशर
किंगफिशर एक विस्तृत रेंज के आवासों में रहते हैं। हालांकि वे अक्सर नदियों और झीलों के साथ जुड़े रहे हैं, दुनिया की आधी से ज्यादा प्रजातियाँ जंगलों और जंगली जल-धाराओं में पायी जाती हैं। ये एक विस्तृत रेंज के अन्य आवासों में भी रहते हैं। ऑस्ट्रेलिया के लाल-पीठ वाले किंगफिशर अत्यंत शुष्क रेगिस्तानों में रहते हैं, हालांकि किंगफिशर सहारा जैसे अन्य शुष्क रेगिस्तान में नहीं पाए जाते हैं। अन्य प्रजातियाँ पहाड़ों में ऊंचे स्थानों पर रहती हैं और कई प्रजातियाँ उष्णकटिबंधीय कोरल प्रवाल द्वीपों में रहती हैं। कई प्रजातियों ने अपने आप को मानव द्वारा रूपांतरित आवासों में रहने के लिए अनुकूलित कर लिया है, विशेष रूप से जो वुडलैंड्स के लिए अनुकूलित हैं और कई प्रजातियों को खेती या कृषि क्षेत्रों के साथ-साथ शहरों और कस्बों के पार्कों एवं बागीचों में पाया जा सकता है।
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किंगफिशर
किंगफिशर की सबसे छोटी प्रजाति अफ्रीकी बौना किंगफिशर (इस्पिडिना लेकोंटी) है, जिसका औसतन वजन 10.4 ग्राम और आकार 10 सेमी (4 इंच) है। कुल मिलाकर सबसे लंबा जायंट किंगफिशर (मेगासेराइल मैक्सिमा) है जिसका औसत वजन 355 ग्राम (13.5 औंस) और आकार 45 सेंटीमीटर (18 इंच है। हालांकि परिचित ऑस्ट्रेलियाई किंगफिशर जिसे लाफिंग कूकाबुरा (डैसेलो नोविगिनी) के रूप में जाना जाता है जो संभवतः सबसे भारी प्रजाति है, क्योंकि 450 ग्राम (1 एलबी) से बड़े व्यक्तिगत किंगफिशर दुर्लभ नहीं हैं।
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कोणार्क
यह विशाल मंदिर मूलत: चौकोर (865न्540 फुट) प्राकार से घिरा था जिसमें तीन ओर ऊँचे प्रवेशद्वार थे। मंदिर का मुख पूर्व में उदीयमान सूर्य की ओर है और इसके तीन प्रधान अंग - देउल (गर्भगृह), जगमोहन (मंडप) और नाटमंडप - एक ही अक्ष पर हैं। सबसे पहले दर्शक नाटमंडप में प्रवेश करता है। यह नाना अलंकरणों और मूर्तियों से विभूषित ऊँची जगती पर अधिष्ठित है जिसकी चारों दिशाओं में सोपान बने हैं। पूर्व दिशा में सोपानमार्ग के दोनों ओर गजशार्दूलों की भयावह और शक्तिशाली मूर्तियाँ बनी हैं। नाटमंडप का शिखर नष्ट हो गया है, पर वह नि:संदेह जगमोहन शिखर के आकार का रहा होगा। उड़ीसा के अन्य विकसित मंदिरों में नाटमंडप और भोगमंदिर भी एक ही अक्ष में बनते थे जिससे इमारत लंबी हो जाती थी। कोणार्क में नाटमंडप समानाक्ष होकर भी पृथक् है और भोगमंदिर अक्ष के दक्षिणपूर्व में है; इससे वास्तुविन्यास में अधिक संतुलन आ गया है।
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कोणार्क
नाटमंडप से उतरकर दर्शक जगमोहन की ओर बढ़ता है। दोनों के बीच प्रांमण में ऊँचा एकाश्म अरूणस्तंभ था जो अब जगन्नाथपुरी के मंदिर के सामने लगा है। जगमोहन और देउल एक ही जगती पर खड़े हैं और परस्पर संबद्ध हैं। जगती के नीचे गजथर बना है जिसमें विभिन्न मुद्राओं में हाथियों के सजीव दृश्य अंकित हैं। गजथर के ऊपर जगती अनेक घाटों और नाना भाँति की मूर्तियों से अलंकृत है। इसके देवी देवता, किन्नर, गंधर्व, नाग, विद्याधरव्यालों और अप्सराओं के सिवा विभिन्न भावभंगियों में नर नारी तथा कामासक्त नायक नायिकाएँ भी प्रचुरता से अंकित हैं। संसारचक्र की कल्पना पुष्ट करने के लिये जगती की रचना रथ के सदृश की गई है और इसमें चौबीस बृहदाकार (9 फुट 8 इंच व्यास के) चक्के लगे हैं जिनका अंगप्रत्यंग सूक्ष्म अलंकरणों से लदा हुआ है। जगती के अग्र भाग में सोपान-पंक्ति है जिसके एक ओर तीन और दूसरी ओर चार दौड़ते घोड़े बने हैं। ये सप्ताश्व सूर्यदेव की गति और वेग के प्रतीक हैं जिनसे जगत् आलोकित और प्राणन्वित है।
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कोणार्क
देउल का शिखर नष्ट हो गया है और जंघा भी भग्नावस्था में है, पर जगमोहन सुरक्षित है और बाहर से 100 फुट लंबा चौड़ा और इतना ही ऊँचा है। भग्नावशेष से अनुमान है कि देउल का शिखर 200 फुट से भी अधिक ऊँचा और उत्तर भारत का सबसे उत्तुंग शिखर रहा होगा। देउल और जगमोहन दोनों ही पंचरथ और पंचांग है पर प्रत्येक रथ के अनेक उपांग है और तलच्छंद की रेखाएँ शिखर तक चलती है। गर्भगृह (25 फुट वर्ग) के तीनों भद्रों में गहरे देवकोष्ठ बने हैं जिनमें सूर्यदेव की अलौकिक आभामय पुरूषाकृति मूर्तियाँ विराजमान हैं।
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कोणार्क
जगमोहन का अलंकृत अवशाखा द्वार ही भीतर का प्रवेशद्वार है। जगमोहन भीतर से सादा पर बाहर से अलंकरणों से सुसज्जित है। इसका शिखर स्तूपकोणाकार (पीढ़ा देउल) है और तीन तलों में विभक्त है। निचले दोनों तलों में छह छह पीढ़ हैं जिनमें चतुरंग सेना, शोभायात्रा, रत्यगान, पूजापाठ, आखेट इत्यादि के विचित्र दृश्य उत्कीर्ण हैं। उपरले में पाँच सादे पीढ़े हैं। तलों के अंतराल आदमकद स्त्रीमूर्तियों से सुशोभित हैं। ये ललित भंगिमों में खड़ी बाँसुरी, शहनाई, ढोल, मृढंग, झाँझ और मजीरा बजा रही हैं। उपरले तल के ऊपर विशाल घंटा और चोटी पर आमलक रखा है। स्त्रीमूर्तियों के कारण इस शिखर में अद्भुत सौंदर्य के साथ प्राण का भी संचार हुआ है जो इस जगमोहन की विशेषता है। वास्तुतत्वज्ञों की राय में इससे सुघड़ और उपयुक्त शिखर कल्पनातीत है। (कृ. दे। )
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कोणार्क
इस मंदिर का निर्माण गंग वंश के प्रतापी नरेश नरर्सिह देव (प्रथम) (1238-64 ई.) ने अपने एक विजय के स्मारक स्वरूप कराया था। इसके निर्माण में 1200 स्थपति 12 वर्ष तक निरंतर लगे रहे। अबुल फजल ने अपने आइने-अकबरी में लिखा है कि इस मंदिर में उड़ीसा राज्य के बारह वर्ष की समुची आय लगी थी। उनका यह भी कहना है कि यह मंदिर नवीं शती ई. में बना था, उस समय उसे केसरी वंश के किसी नरेश ने निर्माण कराया था। बाद में नरसिंह देव ने उसको नवीन रूप दिया। इस मंदिर के आस पास बहुत दूर तक किसी पर्वत के चिन्ह नहीं हैं, ऐसी अवस्था में इस विशालकाय मंदिर के निर्माण के लिये पत्थर कहाँ से और कैसे लाए गए यह एक अनुत्तरित जिज्ञासा है।
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कोणार्क
इस मंदिर के निर्माण के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है कि संपूर्ण प्रकार के निर्माण हो जाने पर शिखर के निर्माण की एक समस्या उठ खड़ी हुई। कोई भी स्थपति उसे पूरा कर न सका तब मुख्य स्थपति के धर्मपाद नामक 12 वर्षीय पुत्र ने यह साहसपूर्ण कार्य कर दिखाया। उसके बाद उसने यह सोचकर कि उसके इस कार्य से सारे स्थपतियों की अपकीर्ति होगी और राजा उनसे नाराज हो जाएगा, उसने उस शिखर से कूदकर आत्महत्या कर ली। एक अन्य स्थानीय अनुश्रुति है कि मंदिर के शिखर में कुंभर पाथर नामक चुंबकीय शक्ति से युक्त पत्थरलगा था। उसके प्रभाव से इसके निकट से समुद्र में जानेवाले जहाज और नौकाएँ खिंची चली आती थीं और टकराकर नष्ट हो जाती थीं।
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कोणार्क
कहा जाता है कि काला पहाड़ नामक प्रसिद्ध आक्रमणकारी मुसलमान ने इस मंदिर को ध्वस्त किया किंतु कुछ अन्य लोग इसके ध्वंस का कारण भूकंप मानते हैं।
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कोणार्क
इस स्थान के एक पवित्र तीर्थ होने का उल्लेख कपिलसंहिता, ब्रह्मपुराण, भविष्यपुराण, सांबपुराण, वराहपुराण आदि में मिलता है। उनमें इस प्रकार एक कथा दी हुई है। कृष्ण के जांबवती से जन्मे पुत्र सांब अत्यन्त सुंदर थे। कृष्ण की स्त्रियाँ जहाँ स्नान किया करती थीं, वहाँ से नारद जी निकले। उन्होंने देखा कि वहाँ स्त्रियाँ सांब के साथ प्रेमचेष्टा कर रही है। यह देखकर नारद श्रीकृष्ण को वहाँ लिवा लाए। कृष्ण ने जब यह देखा तब उन्होंन उसे कोढ़ी हो जाने का शाप दे दिया। जब सांब ने अपने को इस संबंध में निर्दोष बताया तब कृष्ण ने उन्हें मैत्रये बन (अर्थात् जहाँ कोणार्क है) जाकर सूर्य की आराधना करने को कहा। सांब की आराधना से प्रसन्न होकर सूर्य ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया। दूसरे दिन जब वे चंद्रभागा नदी में स्नान करने गए तो उन्हें नदी में कमल पत्र पर सूर्य की एक मूर्ति दिखाई पड़ी। उस मूर्ति को लाकर सांब ने यथाविधि स्थापना की और उसकी पूजा के लिये अठारह शाकद्वीपी ब्राह्मणों को बुलाकर वहाँ बसाया। पुराणों में इस सूर्य मूर्ति का उल्लेख कोणार्क अथवा कोणादित्य के नाम से किया गया है।
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कोणार्क
कहते है कि रथ सप्तमी को सांब ने चंद्रभागा नदी में स्नानकर उक्त मूर्ति प्राप्त की थी। आज भी उस तिथि को वहाँ लोग स्नान और सूर्य की पूजा करने आते हैं।
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कुमारसंभवम्
बाद के नौ सर्गों में कुमार कार्तिकेय के जन्म बाल्यकाल, युवा होने पर उसके द्वारा देवसेना का नेतृत्व तथा अत्याचारी तारकासुर वध आदि का वृत्तान्त विस्तार से प्रस्तुत किया है। इस प्रकार नौ सर्गों के इस अज्ञात लेखक ने काव्य के नाम को ध्यान रखते हुए कुमार कार्तिकेय के जन्म आदि प्रसंगों की रचना कर अपनी दृष्टि से कालिदास के अपूर्ण काव्य को पूरा करने का प्रयास किया है
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कुमारसंभवम्
कालिदास ने कुमारसम्भव को हिमालय-वर्णन से आरम्भ किया है। प्रथम सर्ग के प्रारम्भिक सत्रह पद्यों में कवि ने हिमालय पर्वत का भव्य व गरिमापूर्ण चित्रण करते हुए इसकी विविध छवियों, प्राकृतिक वैभव इसके निवासियों के कार्य-कलापों तथा पर्वतराज के पुराकथात्मक व्यक्तित्व का उदात्त चित्रण किया है।
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कुमारसंभवम्
(अर्थ: (भारतवर्ष के) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मापने के दण्ड के समान स्थित है। तात्पर्य यह है कि हिमालय का विस्तार ऐसा है कि वह पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के समुद्रों को छू रहा है।)
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कुमारसंभवम्
तत्पश्चात् पार्वती के जन्म, बाल्यकाल, यौवन-प्राप्ति व विलक्षण सौंदर्य का परिचय देते हुए नारद की भविष्यवाणी का उल्लेख किया गया है, जिसके अनुसार पार्वती का विवाह शिव के साथ ही होगा। इस भविष्वाणी में विश्वास कर पिता हिमालय पुत्री को कैलास पर्वत पर तपस्यारत भगवान् शिव की सेवा के लिये भेज देता है।
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कुमारसंभवम्
दूसरे सर्ग में इन्द्र आदि सभी देवता तारकासुर के अत्याचारों से त्रस्त होकर ब्रह्माजी के पास जाकर अपनी कष्ट-कथा सुनाते है तथा प्रार्थना करते हैं कि आप ही तारकासुर का दमन कर सकते हैं। ब्रह्माजी अपनी विविशता प्रकट करते हैं कि मेरे ही वरदान से वह इतना शक्तिशाली हुआ है, मैं स्वयं उसका संहार नहीं कर सकता। वे देवताओं को उपाय बताते हैं कि शिव का यदि पार्वती से विवाह हो जाए तो इस युगल से उत्पन्न पुत्र तारकासुर को नष्ट कर सकता है। शिव का वीर्य धारण करने की क्षमता पार्वती के अतिरिक्त किसी में नहीं है। इसलिए आप लोग कोई ऐसा उपाय करें, जिससे तपस्या में तल्लीन शिव का मन पार्वती में अनुरक्त हो। ब्रह्मा जी के इस परामर्श के पश्चात् इन्द्र कामदेव को स्मरण करते हैं। कामदेव के देवराज इन्द्र के सम्मुख उपस्थित होने के साथ ही सर्ग की समाप्ति होती है।
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कुमारसंभवम्
कामदेव के उपस्थित होने पर देवराज इन्द्र ने उन्हें आदरपूर्वक अपने पास बैठाया। कामदेव इन्द्र से विनम्र होकर उनकी चिन्ता का कारण ज्ञात करने लगे। कामदेव अपनी वीरता की प्रशंसा करते हुए बोले, कि मैं शिवजी तक को अपने वाणों का कौशल दिखा सकता हूँ। देवराज इन्द्र ने कामदेव को उत्साहित करते हुए कहा कि ब्रह्मा जी से ज्ञात हुआ है कि महादेव से उत्पन्न पुत्र देवताओं का सेनापति बनाया जाय तो देवताओं की विजय अवश्य होगी। महादेव का वीर्य धारण करने की क्षमता केवल पर्वतकन्या पार्वती में ही है। पार्वती अपने पिता से आज्ञा प्राप्त करके महादेव की सेवा में लगी हुई हैं। आप अपने मित्र बसन्त के साथ देवताओं का यह कार्य अवश्य करें, इससे आपको यश प्राप्ति होगी। इन्द्र की आज्ञा पाकर कामदेव अपने सखा बसन्त के साथ उस स्थान की ओर गये, जिधर शिव समाधि लगाये बैठे हुए थे। बसन्त ने प्रचण्ड रूप से अपना प्रभाव प्रदर्शित किया। पशु-पक्षी, देव, यक्ष, किन्नर, मानव तथा ऋषि-मुनियों में भी काम विकार उत्पन्न होने लगा। परन्तु महादेव निर्विकार भाव से समाधि में मग्न बैठे रहे। नन्दी द्वारपाल के रूप में पहरा दे रहा था। उसने सभी गणों को सतर्क कर दिया, किन्तु नन्दी की दृष्टि को बचाता हुआ कामदेव उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ शिवजी समाधि लगाये बैठे थे। शिव के तेजस्वी रूप को देखकर कामदेव भयभीत हो गया तथा उसके हाथ से धनुष-वाण छूटकर गिर गये। उसी समय मालिनी और विजया नाम की वन-देवियों के साथ पार्वती पर कामदेव की दृष्टि पड़ी। पार्वती का सौन्दर्यावलोकन के पश्चात् कामदेव के मन में महादेव को जीतने की अभिलाषा पुनः बलवती हो गयी। ठीक उसी क्षण पार्वती महादेव के आश्रम के द्वार पर उपस्थित हो गयीं। ठीक उसी समय महादेव ने भी परमेश्वर की परमज्योति का दर्शन करके अपनी समाधि तोड़ दी। नन्दी ने समाधि खुली होने पर प्रणाम करते हुए पार्वती का परिचय कराया। महादेव ने पार्वती को असाधारण पति प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। पार्वती भक्ति भाव से महादेव के गले में कमल बीजों की माला पहना रही थीं, उसी समय उचित अवसर जानकर कामदेव ने ”सम्मोहन“ नामक अचूक बाण धनुष पर चढ़ा लिया। पार्वती को देखकर शिव के मन में कामविकार उत्पन्न होने लगा। परन्तु महादेव ने अपनी चंचल इन्द्रियों को वश में करते हुए चारों ओर दृष्टिपात किया। जब उन्होंने लक्ष्य साधे हुए कामदेव को देखा, तब अपने तप में बाधक बने कामदेव पर वह अत्यधिक क्रोधित हुए। महादेव ने अपने तृतीय नेत्र की अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया। महादेव ने तप में बाधक स्त्र्यिों का साथ छोड़ देने का निश्चय किया। वे उसी क्षण अपने गणों के साथ अन्तधर्यान हो गये।
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कुमारसंभवम्
इस सर्ग में कामपत्नी रति का करुण विलाप है। रति कामदेव के सहवास काल की स्मृतियों का स्मरण करके विलाप करती है। वह कामदेव के बिना अपने जीवन को अधूरा समझती है। वह अपने पति के मित्र बसन्त से अपनी चिता तैयार करने का आग्रह करती है। उसी समय आकाशवाणी होती है। आकाशवाणी द्वारा रति को सांत्वना दी जाती है कि उसका पति कुछ दिनों बाद उसे अवश्य मिल जायेगा। ब्रह्मा के शापवश कामदेव शिव के तृतीय नेत्र से भस्म हुए हैं। जब पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव उनके साथ विवाह कर लेंगे, तब कामदेव को पूर्ववत् शरीर देने की कृपा करेंगे। आकाशवाणी सुनकर रति ने अपना शरीर त्यागने का विचार छोड़ दिया।
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कुमारसंभवम्
महादेव द्वारा मदनदहन की घटना के उपरान्त पार्वती ने अपने सौन्दर्य की निन्दा करते हुए तप द्वारा महादेव को पतिरूप में प्राप्त करने का निश्चय किया। पार्वती की माँ ने उन्हें तप करने से मना किया, किन्तु वह अपने निश्चय से विचलित नहीं हुई। अपने पिता की आज्ञा से पार्वती ने हिमालय के उस शिखर पर तपस्या आरम्भ कर दी, जिसका कालान्तर में गौरी शंकर नाम पड़ गया। पार्वती की तपस्या ऋषि-मुनियों को भी विस्मित करने वाली थी। तपोरत पार्वती के आश्रम में कुछ दिनों के पश्चात् महादेव गुप्त वेश में उनके निकट गये। ब्रह्मचारी बने हुए महादेव ने पार्वती से तप का कारण पूछा। पार्वती का संकेत पाकर उसकी सखी ने ब्रह्मचारी को बताया, कि मेरी सखी महादेव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए इतना कठोर तप कर रही हैं। ब्रह्मचारी ने अनेक प्रकार से भगवान शिव की आलोचना एवं निन्दा की। अपने आराधय की निन्दा को असहनीय जानकर पार्वती ने अपनी सखी से, ब्रह्मचारी को मौन रहने के लिए कहा। शिव निन्दा श्रवण में अक्षम पार्वती ने अन्यत्र गमन का उपक्रम किया। उसी क्षण महादेव प्रकट रूप में आ गये एवं पार्वती से बोले - हे देवि! मैं आपकी तपस्या से खरीदा हुआ आपका दास हूँ। इसी के साथ पंचम सर्ग का समापन होता है।
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कुमारसंभवम्
पार्वती ने महादेव को अपने ऊपर प्रसन्न देखकर अपनी सखी से कहलाया, कि यदि वे मुझसे विवाह करने के लिए अभिमत हैं तो पिता हिमालय के निकट जाकर अनुमति प्राप्त करें। इतना कहकर पार्वती महादेव की आज्ञा से अपने पिता के घर चली गईं। पार्वती के प्रस्थानान्तर महादेव ने सप्त-ऋषियों को स्मरण किया। सप्तर्षि अरुन्धती के साथ महादेव के सम्मुख उपस्थित होकर स्मरण करने का कारण पूँछते हैं। महादेव सप्तर्षियों से कहते हैं कि देवता मुझसे पुत्र उत्पन्न कराना चाहते हैं। पुत्र उत्पन्न करने हेतु मैं पार्वती से विवाह करना चाहता हूँ। आप लोग पर्वतराज हिमालय से पार्वती की याचना करने मेरी ओर से जायें। आर्या अरुन्धती इस कार्य में विशेष सहयोग कर सकती हैं। आप लोग हिमालय के ओषधिप्रस्थ नगर में जाकर कार्य सफल करने के उपरान्त मुझे महाकोशी नदी के झरने पर मिलने की कृपा करें। सप्तर्षि ओषधिप्रस्थ नगर जाते हैं। कवि ने ओषधि- प्रस्थ नगर का सुन्दर वर्णन किया है। सप्तर्षि पर्वतराज हिमालय के पास जाते हैं। हिमालय ने सप्तर्षियों का विधिपूर्वक आदर सत्कार किया तथा उनके आगमन पर अपने आपको धन्य माना। हिमालय ने सप्तर्षियों से अपने योग्य सेवा कार्य करने के लिए पूँछा, तब अंगिरा ऋषि ने हिमालय से कहा, कि हम लोग महादेव का संदेश लेकर आपके पास आये हैं। महादेव ने अपने विवाह के लिए आपकी पुत्री माँगी है। महादेव संसार के पिता हैं, उनसे अच्छा वर आपकी पुत्री के लिए कोई नहीं हो सकता है। हिमालय ऋषि अंगिरा की बात से सहमत हो गये और अपनी पत्नी मेना से भी सहमति प्राप्त करके महादेव को अपनी पुत्री देने की सहमति प्रदान कर दी। तीन दिन बाद विवाह की तिथि निश्चित हो गयी। हिमालय से विदा लेने के उपरान्त सप्तर्षियों ने महादेव को विवाह की तिथि बतायी और आकाश में उड़ गये।
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