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20231101.hi_248997_10
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%88%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%9F
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टैबलेट
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टैबलेट को इतना अधिक मजबूत होना चाहिए कि वे पैकेजिंग, लदान एवं फार्मासिस्ट तथा रोगी द्वारा उठाने-रखने के तनावों को झेल सकें. टैबलेट की यांत्रिक शक्ति का मूल्यांकन (i) साधारण विफलता और कटाव परीक्षण और (ii) अधिक परिष्कृत इंजीनियरिंग परीक्षणों के एक संयोजन का उपयोग कर के किया जाता है। अक्सर अधिक सामान्य परीक्षणों का उपयोग गुणवत्ता नियंत्रण के प्रयोजनों के लिए किया जाता है, जबकि अधिक जटिल परीक्षणों का उपयोग अनुसंधान और विकास चरण में सूत्रीकरण और विनिर्माण प्रक्रिया का डिजाइन तैयार करने के दौरान किया जाता है। टैबलेट के गुणों के मानकों को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय औषधकोश (यूएसपी/एनएफ, ईपी, जेपी आदि) में प्रकाशित किया जाता है।
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_11
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टैबलेट
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स्नेहक अवयवों को एक साथ गुच्छों के रूप में बदलने और टैबलेट के छिद्रों या कैप्सूल भरने की मशीन में चिपकने से रोकते हैं। स्नेहक यह भी सुनिश्चित करते हैं कि टैबलेट का निर्माण एवं उत्क्षेपण ठोस एवं डाई की दीवार के बीच निम्न घर्षण के साथ हो.
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_12
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टैबलेट
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खड़िया या सिलिका जैसे आम खनिज और वसा (उदाहरण, वनस्पति स्टियरिन), मैग्नीशियम स्टियरेट या स्टियरिक अम्ल, टैबलेट या कठोर जिलेटिन कैप्सूल में सर्वाधिक इस्तेमाल किए जाने वाले स्नेहक हैं।
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_13
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टैबलेट
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टैबलेट को संपीड़ित करने की प्रक्रिया में, मुख्य दिशानिर्देश यह सुनिश्चित करना है कि सक्रिय अवयव की उचित मात्रा प्रत्येक टैबलेट में रहे. इसलिए, सभी अवयवों को अच्छी तरह से मिश्रित किया जाना चाहिए. यदि पर्याप्त रूप से समरूप घटकों का मिश्रण सरल सम्मिश्रण प्रक्रियाओं के साथ प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तो अंतिम टैबलेट में सक्रिय यौगिक का समान वितरण सुनिश्चित करने के लिए संपीड़न से पहले अवयवों को दानेदार रूप में बदला जाना चाहिए. टैबलेट के रूप में संपीड़न के लिए पाउडर को दानेदार रूप में बदलने के लिए दो मूलभूत तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है: आद्र कणीकरण (ग्रेंयुलेशन) और शुष्क कणीकरण (ग्रेंयुलेशन) . जिन पाउडरों को अच्छी तरह से मिश्रित किया जा सकता है उन्हें दानेदार रूप में बदलने की जरूरत नहीं होती है और उन्हें प्रयक्ष संपीड़न द्वारा टैबलेट में संपीड़ित किया जा सकता है।
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_14
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टैबलेट
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आद्र कणीकरण पाउडर मिश्रण को हल्के से पिंड रूप में बदलने के लिए एक द्रव बंधक का उपयोग करने की एक प्रक्रिया है। तरल पदार्थ की मात्रा को उचित प्रकार से नियंत्रित किया जाना चाहिए, क्योंकि अत्यधिक गीला होना कणों को बहुत अधिक कठोर बना देगा और कम गीला होना उन्हें अत्यधिक मुलायम और भुरभुरा बना देगा. जलकृत विलयनों का लाभ यह होता है कि वे विलायक आधारित प्रणालियों की तुलना में प्रयोग करने में अधिक सुरक्षित होते हैं लेकिन वे उन औषधियों के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते हैं जो जलीय विश्लेषण द्वारा अपक्षीणित हो जाते हैं।
| 1 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_15
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टैबलेट
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चरण 2: पाउडर के मिश्रण में तरल बंधक-आसंजक को मिलाकर एवं पूरी तरह से मिलाकर आद्र दानेदार पदार्थ तैयार किया जाता है। बंधकों/आसंजकों के उदाहरणों में शामिल हैं मकई के आटा का जलीय मिश्रण, प्राकृतिक गोंद जैसे कि बबूल, सेलूलोज़ उत्पाद जैसे कि मिथाइल सेलूलोज़, जिलेटिन एवं पॉविडोन.
| 0.5 | 3,831.056755 |
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टैबलेट
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चरण 4: दानेदार पदार्थ को सुखाना. एक परंपरागत ट्रे-ड्रायर या द्रव परत युक्त ड्रायर सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाते हैं।
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_17
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टैबलेट
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चरण 5: दानों को सुखाने के बाद, एक समान आकार के दानों का निर्माण करने के लिए उन्हें आद्र पिंड के लिए उपयोग किये गए स्क्रीन की तुलना में अधिक छोटे स्क्रीन से होकर ले जाया जाता है।
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_248997_18
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टैबलेट
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निम्न अपरूपण वाली आद्र कणीकरण प्रक्रियाएं बहुत सामान्य मिश्रक उपकरण का उपयोग करती हैं और समान रूप से मिश्रित अवस्था को प्राप्त करने के लिए काफी समय ले सकती हैं। अपरूपण वाली आद्र कणीकरण प्रक्रियाएं उस उपकरण का उपयोग करती हैं जो पाउडर एवं तरल पदार्थ को बहुत तीव्र गति से मिश्रित करता है और इस प्रकार निर्माण प्रक्रिया की गति को तेज कर देता है। द्रव परत युक्त कणीकरण एक बहु-चरण वाली आद्र कणीकरण प्रक्रिया है जिसे एक ही पात्र में पात्र को पहले से गर्म करने, अवयव को दानेदार रूप में बदलने एवं पाउडरों को सुखाने के लिए किया जाता है। कणीकरण प्रक्रिया के करीबी नियंत्रण की अनुमति प्रदान करने के कारण इसका प्रयोग किया जाता है।
| 0.5 | 3,831.056755 |
20231101.hi_427945_0
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मुद्राराक्षस
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मुद्राराक्षस संस्कृत का ऐतिहासिक नाटक है जिसके रचयिता विशाखदत्त हैं। इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी। इसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य संबंधी ख्यात वृत्त के आधार पर चाणक्य की राजनीतिक सफलताओं का अपूर्व विश्लेषण मिलता है। इस कृति की रचना पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य परंपरा से सर्वथा भिन्न रूप में हुई है- लेखक ने भावुकता, कल्पना आदि के स्थान पर जीवन-संघर्ष के यथार्थ अंकन पर बल दिया है। इस महत्वपूर्ण नाटक को हिंदी में सर्वप्रथम अनूदित करने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को है। यों उनके बाद कुछ अन्य लेखकों ने भी इस कृति का अनुवाद किया, किंतु जो ख्याति भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुवाद को प्राप्त हुई, वह किसी अन्य को नहीं मिल सकी।
| 0.5 | 3,790.143812 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8
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मुद्राराक्षस
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इसमें इतिहास और राजनीति का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया गया है। इसमें नन्दवंश के नाश, चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण, राक्षस के सक्रिय विरोध, चाणक्य की राजनीति विषयक सजगता और अन्ततः राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रभुत्व की स्वीकृति का उल्लेख हुआ है। इसमें साहित्य और राजनीति के तत्त्वों का मणिकांचन योग मिलता है, जिसका कारण सम्भवतः यह है कि विशाखदत्त का जन्म राजकुल में हुआ था। वे सामन्त बटेश्वरदत्त के पौत्र और महाराज पृथु के पुत्र थे। ‘मुद्राराक्षस’ की कुछ प्रतियों के अनुसार वे महाराज भास्करदत्त के पुत्र थे। इस नाटक के रचना-काल के विषय में तीव्र मतभेद हैं, अधिकांश विद्धान इसे चौथी-पाँचवी शती की रचना मानते हैं, किन्तु कुछ ने इसे सातवीं-आठवीं शती की कृति माना है। संस्कृत की भाँति हिन्दी में भी ‘मुद्राराक्षस’ के कथानक को लोकप्रियता प्राप्त हुई है, जिसका श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को है।
| 0.5 | 3,790.143812 |
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मुद्राराक्षस
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विशाखदत्त अथवा विशाखदेव का काल-निर्णय अभी नहीं हो पाया है। वैसे, वे भास, कालिदास, हर्ष और भवभूति के परवर्ती नाटककार थे और प्रस्तुत नाटक की रचना अनुमानतः छठी से नवीं शताब्दी के मध्य हुई थी। सामन्त वटेश्वरदत्त के पौत्र और महाराज पृथु अथवा भास्करदत्त के पुत्र होने के नाते उनका राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध था, फलतः ‘मुद्राराक्षस’ का राजनीतिप्रधान नाटक होना आकस्मिक संयोग नहीं है, वरन् इसमें लेखक की रूचि भी प्रतिफलित है। विशाखदत्त की दो अन्य रचनाओं- देवी चन्द्रगुप्तम्, तथा राघवानन्द नाटकम् - का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार ‘मुद्राराक्षस’ ही है।
| 0.5 | 3,790.143812 |
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मुद्राराक्षस
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‘देवी चन्द्रगुप्तम्’ का उल्लेख रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने ‘नाट्यदर्पण’ में, भोज ने ‘शृंगारप्रकाश’ में और अभिनवगुप्त ने ‘नाटकशास्त्र’ की टीका में किया है। यह नाटक ध्रुवदेवी और चन्द्रगुप्त द्वितीय के ऐतिहासिक वृत्त पर आधारित है, किन्तु अभी इसके कुछ अंश ही प्राप्त हुए हैं। ‘राघवानन्द नाटकम्’ की रचना राम-चरित्र को लेकर की गई होगी, किन्तु इसके भी एक-दो स्फुट छन्द ही प्राप्त हुए हैं।
| 0.5 | 3,790.143812 |
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मुद्राराक्षस
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‘मुद्राराक्षस’ की रचना पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्यपरम्परा से सर्वथा भिन्न रूप में हुई है। वैसे, विशाखदत्त भारतीय नाटयशास्त्र से सुपरिचित थे और इसी कारण उन्हें ‘मुद्राराक्षस’ में ‘कार्य’ की एकता का निर्वाह करने में अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है, यद्यपि घटना-कम की व्यापकता को देखते हुए यह उपलब्धि सन्दिग्ध हो सकती थी। किन्तु पूर्ववर्ती लेखकों द्वारा निर्धारित प्रतिमानों का यथावत् अनुकरण भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। इसीलिए उन्होंने भावुकता, कल्पना आदि के आश्रय द्वारा कथानक को अतिरिक्त जीवन-संघर्ष में प्राप्त होने वाली सफलता-असफलता का यथार्थमूलक चित्रण किया है। उन्होंने कथानक को शुद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रदान की है, स्वच्छन्दतावादी तत्वों पर उनका बल नहीं रहा है। आभिजात्यवादी दृष्टिकोण न केवल कथा-संयोजन और चरित्र-चत्रिण में दृष्टिगत होता है, अपितु उनकी सुस्पष्ट तथा सशक्त पद-रचना भी इसी प्रवृत्ति की देन है। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार मल्लिनाथ की व्याख्याओं के अभाव में कालिदास के कृतित्व का अनुशीलन अपूर्ण होगा, उसी प्रकार ‘मुद्राराक्षस’ पर ढुंढिराज की टीका भी प्रसिद्ध है।
| 1 | 3,790.143812 |
20231101.hi_427945_5
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मुद्राराक्षस
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‘मुद्राराक्षस’ की कथावस्तु प्रख्यात है। इस नाटक के नामकरण का आधार यह घटना है - अपनी मुद्रा को अपने ही विरूद्ध प्रयुक्त होते हुए देखकर राक्षस का स्तब्ध अथवा विवश हो जाना। इसमें चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के उपरान्त चाणक्य द्वारा राक्षस की राजनीतिक चालों को विफल कर देने की कथा को सात अंकों में सुचारू रूप में व्यक्त किया गया है। नाटककार ने चाणक्य औऱ राक्षस की योजना-प्रतियोजनाओं को पूर्ण राजनीतिक वैदग्ध्य के साथ उपस्थापित किया है। उन्होंने नाटकगत घटनाकम के आयोजन में स्वाभाविकता, जिज्ञासा और रोचकता की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। तत्कालीन राजनीतिज्ञों द्वारा राजतंत्र के संचालन के लिए किस प्रकार के उपायों का आश्रय लिया जाता था, इसका नाटक में रोचक विवरण मिलता है। चाणक्य के सहायकों ने रूचि-अरूचि अथवा स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति की चिन्ता न करते हुए अपने लिए निर्दिष्ट कार्यों का जिस तत्परता से निर्वाह किया, वह कार्य सम्बन्धी एकता का उत्तम उदाहरण है। घटनाओं की धारावाहिकता इस नाटक का प्रशंसनीय गुण है, क्योंकि षड्यन्त्र-प्रतिषड्यंत्रों की योजना में कहीं भी व्याघात लक्षित नहीं होता। यद्यपि चाणक्य की कुटिल चालों का वर्णन होने से इसका कथानक जटिल है, किन्तु नाटककार ने इसे पूर्वापर क्रम-समन्वित रखने में अद्भुत सफलता प्राप्त की है। इसमें कार्यावस्थाओं, अर्थ-प्रकृतियों सन्धियों और वृत्तियों का नाटयशास्त्रविहित प्रयोग हुआ है।
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मुद्राराक्षस
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भारतीय आचार्यों ने नाटक ने कथा-विकास की पांच अवस्थाएँ मानी हैं - प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति, फलागम। नाटक का आरम्भ रूचिर और सुनियोजित होना चाहिए, क्योंकि नाटक की परवर्ती घटनाओं की सफलता इसी पर निर्भर करती है। ‘मुद्राराक्षस’ में निपुणक द्वारा चाणक्य को राक्षस की मुद्रा देने तक की कथा ‘प्रारम्भ’ के अन्तर्गत आएगी। ‘प्रयत्न’ अवस्था के अन्तर्गत इन घटनाओं का समावेश किया जा सकता है - चाणक्य द्वारा राक्षस और मलयकेतु में विग्रह कराने की चेष्टा, शकटदास को सूली देने का मिथ्या आयोजन, सिद्धार्थक द्वारा राक्षस का विश्वासपात्र बनकर उसे धोखा देना आदि। ’प्राप्त्याशा’ की योजना के लिए नाटककार ने चन्द्रगुप्त और चाणक्य के छदम विरोध, राक्षस द्वारा कुसुमपुर पर आक्रमण की योजना आदि घटनाओं द्वारा राक्षस का उत्कर्ष वर्णित किया है, किन्तु साथ ही कूटनीतिज्ञ चाणक्य की योजनाओं का भी वर्णन हुआ है। चाणक्य द्वारा राक्षस और मलयकेतु में विग्रह करा देने और राक्षस की योजनाओं को विफल कर देने की घटनाएँ ‘नियताप्ति’ के अन्तर्गत आती है। छठे-सातवें अंकों में ‘फलागम’ की सिद्धि के लिए राक्षस के आत्म- समर्पण की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हुए उसके द्वारा चन्द्रगुप्त के अमात्य-पद की स्वीकृति का उल्लेख हुआ है। उक्त अवस्थाओं का निरूपण नाटकार ने जितनी और स्वच्छता से किया है, वह प्रशंसनीय है।
| 0.5 | 3,790.143812 |
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मुद्राराक्षस
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कथानक के सम्यक विकास के लिए भारतीय आचार्यों ने कार्यावस्थाओं की भाँति पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ भी निर्धारित की हैं - बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी, कार्य। इनमें से 'पताका’ के अन्तर्गत मुख्य प्रासंगिक कथा को प्रस्तुत किया जाता है और ‘प्रकरी’ से अभिप्राय गौण प्रासंगिक कथाओं के समावेश से है। किन्तु, कथानक के सम्यक् विकास के लिए प्रासंगिक कथाओं और आधिकारिक कथा का सन्तुलित निर्वाह आवश्यक है। ‘मुद्राराक्षस’ में चाणक्य द्वारा राक्षस को अपने पक्ष में मिलाने का निश्चय कथावस्तु की ’बीज’ है। जिसकी अभिव्यक्ति प्रथम अंक में चाणक्य की उक्ति में हुई हैः ‘‘जब तक राक्षस नहीं पकड़ा जाता तब तक नन्दों के मारने से क्या और चन्द्रगुप्त को राज्य मिलने से ही क्या ?.... इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरूद्यम रहना अच्छा नहीं।’’ चाणक्य आदि का मलयकेतु के आश्रम में चले जाना बीजन्यास’ अथवा बीज का आरम्भ है। बिन्दु’ के अन्तर्गत इन घटनाओँ की गणना की जा सकती है- निपुणक द्वारा चाणक्य को राक्षस की मुद्रा देना, शकटदास से पत्र लिखवाना, चाणक्य द्वारा चन्दनदास को बन्दी बनाने की आज्ञा देना। नाटक की फल-सिद्धि में सिद्धार्थक और भागुरायण द्वारा किए गए प्रयन्त ‘पताका’ के अन्तर्गत गण्य हैं। ’प्रकरी’ का आयोजन ’मुद्राराक्षस’ के तृतीय अंक के अन्त और चतुर्थ अंक के प्रारम्भ में किया गया है-चाणक्य और चन्द्रगुप्त में मिथ्या कलह और राक्षस तक इसकी सूचना पहुंचना इसका उदाहरण है। राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त का मंत्रित्व स्वीकार करके आत्मसमर्पण कर देना ‘कार्य’ नाम्नी अर्थ-प्रकृति हैः अवस्थाओं के अन्तर्गत इसी को फलागम की संज्ञा दी जाती है।
| 0.5 | 3,790.143812 |
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मुद्राराक्षस
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भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ (1875 ई०), ‘श्री चन्द्रावली’ (1876), ‘भारत दुर्दशा’ (1876-1880 के मध्य), ‘नीलदेवी’ (1881) आदि मौलिक नाटकों की रचना के अतिरिक्त संस्कृत-नाटकों के अनुवाद की ओर भी ध्यान दिया था। ‘मुद्राराक्षस’ का अनुवाद उन्होंने 1878 ई0 में किया था। इसके पूर्व वे संस्कृत-रचना ‘चौरपंचाशिका’ के बंगला-संस्करण का ‘विद्यासुन्दर’(1868) शीर्षक से, कृष्ण मिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय’ के त़ृतीय अंक का ‘पाखंड विडम्बन’ (1872) शीर्षक से और राजशेखर कृत प्राकृत-कृति ‘सट्टक’ का ‘कर्पूर-मंजरी’ (1875-76) शीर्षक से अनुवाद कर चुके थे। इन अनुवादों में उन्होंने भावानुवाद की पद्धित अपनाई है, फलतः इन्हें नाटयरूपान्तर कहना अधिक उपयुक्त होगा। नाटक के प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि स्थलों को उन्होंने प्रायः मौलिक रूप में प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार शब्दानुवाद की प्रवृत्ति का आश्रय न लेकर चरित्र-व्यंजना में पर्याप्त स्वतन्त्र दृष्टिकोण रखा गया है। यही कारण है कि 'मुद्राराक्षस' में अनुवाद की शुष्कता के स्थान पर मौलिक विचारदृष्टि और भाषा-प्रवाह को प्रायः लक्षित किया जा सकता है। नाटकगत काव्यांश में यह प्रवृत्ति और भी स्पष्ट रूप में लक्षित होती है।
| 0.5 | 3,790.143812 |
20231101.hi_445384_3
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2
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भूजल
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जल चक्र पृथ्वी पर पानी के चक्रण से संबंधित है। इसमें इस बात का निरूपण किया जाता है कि जल अपने ठोस, द्रव और गैसीय (बर्फ़ या हिम, पानी और भाप या वाष्प) रूपों में कैसे एक से दूसरे में बदलता है और कैसे उसका एक स्थान से दूसरे स्थान को परिवहन होता है।
| 0.5 | 3,786.936326 |
20231101.hi_445384_4
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2
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भूजल
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भूजल भी जलचक्र का हिस्सा है और इसमें भी पानी के आगमन और निर्गमन के स्रोत और मार्ग होते हैं। सबसे पहले हम कुछ प्रक्रियाओं से जुड़ी तकनीकी टर्मावलियों को देखते हैं, जैसे निस्यन्दन, अधोप्रवाह इत्यादि।
| 0.5 | 3,786.936326 |
20231101.hi_445384_5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2
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भूजल
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भूजल पुनर्भरण एक जलवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत सतही जल रिसकर और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से खिंच कर भूजल का हिस्सा बन जाता है। इस घटना को रिसाव को या निस्यंदन द्वारा भूजल पुनर्भरण कहते हैं।
| 0.5 | 3,786.936326 |
20231101.hi_445384_6
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2
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भूजल
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भूजल पुनर्भरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसे आजकल कृत्रिम रूप से संवर्धित करने की दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं क्योंकि जिस तेजी से मनुष्य भू जल का दोहन कर रहा है केवल प्राकृतिक प्रक्रिया पुनर्भरण में सक्षम नहीं है।
| 0.5 | 3,786.936326 |
20231101.hi_445384_7
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2
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भूजल
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सामान्यतया भूजल द्रव रूप, अर्थात पानी के रूप, में पाया जाता है। कुछ विशिष्ट जलवायवीय दशाओं वाले क्षेत्रों में यह जम कर बर्फ़ भी बन जाता है जिसे पर्माफ्रास्ट कहते हैं। कुछ ज्वालामुखी क्षेत्रों में अत्यधिक नीचे स्थित भूजल लगातार वाष्प में भी परिवर्तित होता रहता है।
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भूजल
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जलभर(Aquifer) धरातल की सतह के नीचे चट्टानों का एक ऐसा संस्तर है जहाँ भूजल एकत्रित होता है और मनुष्य द्वारा नलकूपों से निकालने योग्य अनुकूल दशाओं में होता है। वैसे तो जल स्तर के नीचे की सारी चट्टानों में पानी उनके रन्ध्राकाश में अवश्य उपस्थित होता है लेकिन यह जरूरी नहीं कि उसे मानव उपयोग के लिये निकाला भी जा सके। जलभरे ऐसी चट्टानों के संस्तर हैं जिनमें रन्ध्राकाश बड़े होते हैं जिससे पानी की ज्यादा मात्रा इकठ्ठा हो सकती है तथा साथ ही इनमें पारगम्यता ज्यादा होती है जिससे पानी का संचरण एक जगह से दूसरी जगह को तेजी से होता है।
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भूजल
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जलभर को दो प्रकारों में बाँटा जाता है - मुक्त जलभर (Unconfined aquifer) और संरोधित जलभर (Confined aquifer)। संरोधित जलभर वे हैं जिनमें ऊपर और नीचे दोनों तरफ जलरोधी संस्तर पाया जाता है और इनके पुनर्भरण क्षेत्र दूसरे ऊँचाई वाले भागों में होते हैं। इन्ही संरोधित जलभरों में उत्स्रुत कूप (Artesian wells) भी पाए जाते हैं।
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भूजल
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चूना पत्थर और डोलोमाइट जैसी चट्टानों वाले क्षेत्रों में भूजल के द्वारा कई स्थालाकृतियों का निर्माण होता है। इनमें प्रमुख हैं:
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भूजल
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भूजल का वैश्विक और स्थानीय वितरण सर्वत्र सामान नहीं पाया जाता। सामान्यतः पथरीली जमीन और आग्नेय चट्टानों वाले क्षेत्रों में भूजल की मात्रा कम पायी जाती है। इसकी सर्वाधिक मात्रा जलोढ़ चट्टानों और बलुआ जलोढ़ चट्टानों में पायी जाती है। इसके अलावा स्थानीय जलवायु का प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि भूजल पुनर्भरण वर्षा की मात्रा और प्रकृति पर निर्भर करता है। पेड़ों की मात्रा और उनकी जड़ों की गहराई भी भूजल पुनर्भरण को प्रभावित करती है।
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शिवालिक
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शिवालिक पहाड़ियाँ (Shivalik Hills) या बाह्य हिमालय (Outer Himalaya) हिमालय की एक बाहरी पर्वतमाला है, जो भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पश्चिम में सिन्धु नदी से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक लगभग तक चलती है। यह लगभग 10–50 किमी (6.2–31.1 मील) चौड़ी है और इसके शिखरों की औसत ऊँचाई 1,500–2,000 मीटर (4,900–6,600 फुट) है। असम में तीस्ता नदी और रायडाक नदी के बीच लगभग का गलियारा है, जहाँ शिखर कम ऊँचाई के हैं। "शिवालिक" का अर्थ "शिव की जटाएँ" है। शिवालिक से उत्तर में उस से ऊँची हिमाचल पर्वतमाला है, जो मध्य हिमालय भी कहलाती है।
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शिवालिक
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शिवालिक श्रेणी को बाह्य हिमालय भी कहा जाता है। हिमालय पर्वत का सबसे दक्षिणी तथा भौगोलिक रूप से युवा भाग है जो पश्चिम से पूरब तक फैला हुआ है। यह हिमायल पर्वत प्रणाली के दक्षिणतम और भूगर्भ शास्त्रीय दृष्टि से, कनिष्ठतम पर्वतमाला कड़ी है। इसकी औसत ऊंचाई 850-1200 मीटर है और इसकी कई उपश्रेणियां भी हैं। यह 1600 कि॰मी॰ तक पूर्व में तीस्ता नदी, सिक्किम से पश्चिमवर्त नेपाल और उत्तराखंड से कश्मीर होते हुए उत्तरी पाकिस्तान तक जाते हैं। शाकंभरी देवी की पहाडियों से सहारनपुर, उत्तर प्रदेश से देहरादून और मसूरी के पर्वतों में जाने हेतु मोहन दर्रा प्रधान मार्ग है। पूर्व में इस श्रेणी को हिमालय से दक्षिणावर्ती नदियों द्वारा, बड़े और चौड़े भागों में काटा जा चुका है। मुख्यत यह हिमालय पर्वत की बाह्यतम, निम्नतम तथा तरुणतम श्रृंखला हैं। उत्तरी भारत में ये पहाड़ियाँ गंगा से लेकर व्यास तक २०० मील की लंबाई में फैली हुई हैं और इनकी सर्वोच्च ऊंचाई लगभग ३,५०० फुट है। गंगा नदी से पूर्व में शिवालिक सदृश संचरना पाटली, पाटकोट तथा कोटह को कालाघुंगी तक हिमालय को बाह्य श्रृंखला से पृथक् करती है। ये पहाड़ियाँ पंजाब में होशियारपुर एवं अंबाला जिलों तथा हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले को पार कर जाती है। इस भाग की शिवालिक श्रृंखला अनेक नदियों द्वारा खंडित हो गई है। इन नदियों में पश्चिम में घग्गर सबसे बड़ी नदी है। घग्गर के पश्चिम में ये पहाड़ियाँ दीवार की तरह चली गई हैं और अंबाला को सिरसा नदी की लंबी एवं तंग घाटी से रोपड़ तक, जहाँ पहाड़ियों को सतलुज काटती है, अलग करती हैं। व्यास नदी की घाटी में ये पहाड़ियाँ तरंगित पहड़ियों के रूप में समाप्त हो जाती हैं। इन पहड़ियों की उत्तरी ढलान की चौरस सतहवाली घाटियों को दून कहते हैं। ये दून सघन, आबाद एवं गहन कृष्ट क्षेत्र हैं। सहारनपुर और देहरादून को जोड़नेवाली सड़क मोहन दर्रे मे शाकंभरी देवी की पहाडियों से होकर जाती है। शिवालिक पर्वत श्रेणियों में बहुत से पर्यटन स्थल हैं जिनमें शिमला, चंडीगढ़, पंचकूला मोरनी पहाड़ियां, नैना देवी,पौंटा साहिब, आदि बद्री यमुनानगर, कलेसर नेशनल पार्क, शाकम्भरी देवी सहारनपुर, त्रिलोकपुर मां बाला सुंदरी मंदिर, हथिनी कुंड बैराज, आनंदपुर साहिब आदि प्रसिद्ध है।
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शिवालिक
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भूवैज्ञानिक दृष्टि से शिवालिक पहाड़ियाँ मध्य-अल्प-नूतन से लेकर निम्न-अत्यंत-नूतन युग के बीच में, सुदूर उत्तर में, हिमालय के उत्थान के समय पृथ्वी की हलचल द्वारा दृढ़ीभूत, वलित एवं भ्रंशित हुई हैं। ये मुख्यत: संगुटिकाश्म तथा बलुआ पत्थर से निर्मित है और इनमें स्तनी वर्ग के प्राणियों के प्रचुर जीवाश्म मिले हैं हिमाद्री हिमालय का उत्तरी भाग में स्तिथ है और दक्षिण में सिबालिक स्थित है।
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शिवालिक
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शिवालिक के गिरी पद अथवा हिमालय क्षेत्र के पश्चिम में सिंधु से पूरब और तीस्ता के बीच फैला क्षेत्र फल भाबर का मैदान कहलाता है ।
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शिवालिक
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शिवालिक पर्वत प्रायः बलुआ पत्थर और कॉन्ग्लोमरेट निर्माणों द्वारा निर्मित है। यह कच्चे पत्थरों का समूह है। यह दक्षिण में एक मेन फ़्रंटल थ्रस्ट नामक एक दोष प्रणाली से ग्रस्त हैं। उस ओर इनकी दुस्सह ढालें हैं। शिवापिथेकस (पूर्वनाम रामापिथेकस) नामक वनमानुष/ आदिमानव के जीवाष्म शिवालिक में मिले कई जीवाश्मों में से एक हैं।
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शिवालिक
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जलोढ़ी या कछारी (एल्यूवियल) भूमि के भभ्भर क्षेत्रों की दक्षिणी तीच्र ढालों को लगभग समतल में बदल देते हैं। ग्रीष्मकालीन वर्षाएं तराई क्षेत्रों की उत्तरी छोर पर झरने और दलदल पैदा करती है। यह नमीयुक्त मंडल अत्यधिक मलेरिया वर्ती था, जब तक की डी.डी.टी का प्रयोग मच्छरों को रोकने के लिये आरम्भ नहीं हुआ। यह क्षेत्र नेपाल नरेश की आज्ञानुसार जंगल रूप में रक्षित रखा गया। इसे रक्षा उद्देश्य से रखा गया था और चार कोस झाड़ी कहा जता था।
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शिवालिक
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शिवालिक पट्टी के उत्तर में 1500-3000 मीटर तक का महाभारत लेख क्षेत्र है, जिसे छोटा हिमालय, या लैस्सर हिमालय भी कहा जाता है। कई स्थानों पर यह दोनों मालाएं एकदम निकटवर्ती हैं और कई स्थानों पर 10-20 की। मी. चौड़ी हैं। इन घाटियों को ब्न्हारत में दून कहा जाता है। (उदा० दून घाटी जिसमें देहरादून भी पतली दून एवं कोठरी दून के साथ (दोनों उत्तराखंड के कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में,) तथा हिमाचल प्रदेश में पिंजौर दून भी आते हैं। नेपाल में इन्हें आंतरिक तराई भी कहा जाता है, जिसमें चितवन, डांग-देउखुरी और सेरखेत आते हैं।
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शिवालिक
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शिवालिक की प्रसरणशील कणों की अविकसित मिट्टी जल संचय नहीं करती है, अतएव खेती के लिये अनुपयुक्त है। यह कुछ समूह, जैसे वन गुज्जर, जो कि पशु-पालन से अपनी जीविका चलाते हैं, उनसे वासित है। ये वनगूजर अधिकतर उत्तराखण्ड के दक्षिण भाग मे तथा सहारनपुर जिले के उत्तर की और पहाडियों मे रहते हैं श्री शाकम्भरी देवी रेंज और सहंश्रा ठाकुर खोल के अलावा बडकला, रेंज और मोहंड रेंज के आसपास अधिक वासित है
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शिवालिक
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शिवालिक एवं महाभारत श्रेणी की दक्षिणी तीव्र ढालों में कम जनसंख्या घनत्व एवं इसके तराई क्षेत्रों में विषमय मलेरिया ही उत्तर भारतीय समतल क्षेत्रों एवं घनी आबादी वाले कई पर्वतीय क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक, भाषा आधारित और राजनैतिक दूरियों का मुख्य कारण रहे हैं। इस ही कारण दोनों क्षेत्र विभिन्न तरीकों से उभरे हैं।
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सूअर
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हियरफोर्ड (Hereford) - यह प्रकार भी अमरीका में निकाली गई है। ये लाल रंग के सूअर हैं जिनका सिर, कान, दुम का सिरा और शरीर का निचला हिस्सा सफेद रहता है। ये कद में अन्य सूअरों की अपेक्षा छोटे होते हैं और जल्द ही प्रौढ़ हो जाते हैं।
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सूअर
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लैंडरेस (Landrace) - इस प्रकार के सूअर डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, जर्मनी और नीदरलैंड में फैले हुए हैं। ये सफेद रंग के सूअर हैं जिनका शरीर लंबा और चिकना रहता है।
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सूअर
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लार्ज ब्लैक (Large Black) - इस प्रकार के सूअर काले होते हैं जिनके कान बड़े और आँखों के ऊपर तक झुके रहते हैं। यह प्रकार इंग्लैंड में निकाली गई और ये वहीं ज्यादातर दिखाई पड़ते हैं।
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सूअर
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मैंगालिट्जा (Mangalitza) - यह प्रकार बाल्कन स्टेट में निकाली गई है और इस प्रकार के सूअर हंगरी, रूमानियाँ और यूगोस्लाविया आदि देशों में फैले हुए हैं। ये या तो घुर सफेद होते या इनके शरीर का ऊपरी भाग भूरापन लिए काला और नीचे का सफेद रहता है। इनको प्रौढ़ होने में लगभग दो वर्ष लग जाते हैं और इनकी मादा कम बच्चे जनती है।
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सूअर
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पोलैंड चाइना (Poland China) - यह प्रकार अमर को ओहायो (Ohio) प्रदेश की बट्लर और वारेन (Butler and Warren) काउंटी में निकाली गई है। ड्यूराक प्रकार की तरह यह सूअर भी अमरीका में काफी संख्या में फैले हुए हैं। ये काले रंग के सूअर हैं जिनकी टाँगें, चेहरा और दुम का सिरा सफेद रहता है। ये भारी कद के सूअर हैं जिनका वजन 12-13 मन तक पहुँच जाता है। इनकी छोटी, मझोली और बड़ी तीन प्रकारयाँ पाई जाती हैं।
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सूअर
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स्पाटेड पोलैंड चाइना (Spotted Poland China) - यह प्रकार भी अमरीका में निकाली गई है और इस प्रकार के सूअर पोलैंड चाइना के अनुरूप ही होते हैं। अंतर सिर्फ यही रहता है कि इन सूअरों का शरीर सफेद चित्तियों से भरा रहता है।
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सूअर
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टैम वर्थ (Tam Worth) - यह प्रकार इंग्लैंड में निकाली गई जो शायद इस देश की सबसे पुरानी प्रकार है। इस प्रकार के सूअरों का रंग लाल रहता है। इसका सिर पतला और लंबोतरा, थूथन लंबे और कान खड़े और आगे की ओर झुके रहते हैं। इस प्रकार के सूअर इंग्लैंड के अलावा कैनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स में फैले हुए हैं।
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सूअर
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वैसेक्स सैडल बैक (Wessex Saddle Back) - यह प्रकार भी इंग्लैंड में निकाली गई हैं। इस प्रकार के सूअरों का रंग काला होता है और उनकी पीठ का कुछ भाग और अगली टाँगें सफेद रहती हैं। ये अमरीका के हैंपशायर सूअरों से बहुत कुछ मिलते-जुलते और मझोले कद के होते हैं।
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सूअर
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यार्कशायर (Yorkshire) - यह प्रसिद्ध प्रकार वैसे तो इंग्लैंड में निकाली गई है लेकिन इस प्रकार के सूअर सारे यूरोप, कैनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स में फैल गए हैं। ये सफेद रंग के बहुत प्रसिद्ध सूअर हैं जिनकी मादा काफी बच्चे जनती है। इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है।
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किरातार्जुनीयम्
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जब युधिष्ठिर कौरवों के साथ संपन्न द्यूतक्रीड़ा में सब कुछ हार गये तो उन्हें अपने भाइयों एवं द्रौपदी के साथ 13 वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा। उनका अधिकांश समय द्वैतवन में बीता। वनवास के कष्टों से खिन्न होकर और कौरवों द्वारा की गयी साजिश को याद करके द्रौपदी युधिष्ठिर को अक्सर प्रेरित करती थीं कि वे युद्ध की तैयारी करें और युद्ध के माध्यम से कौरवों से अपना राजपाठ वापस लें। भीम भी द्रौपदी की बातों का पक्ष लेते हैं।
| 0.5 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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गुप्तचर के रूप में हस्तिनापुर भेजे गए एक वनेचर (वनवासी) से सूचना मिलती है कि दुर्योधन अपने सम्मिलित राज्य के सर्वांगीण विकास और सुदृढ़ीकरण में दत्तचित्त है, क्योंकि कपट-द्यूत से हस्तगत किए गए आधे राज्य के लिए उसे पांडवों से आशंका है। पांडवों को भी लगता है कि वनवास की अवधि समाप्त होने पर उनका आधा राज्य बिना युद्ध के वापस नहीं मिलेगा। द्रौपदी और भीम युधिष्ठिर को वनवास की अवधि समाप्त होने की प्रतीक्षा न कर दुर्योधन पर तुरंत आक्रमण के लिए उकसाते हैं, लेकिन आदर्शवादी, क्षमाशील युधिष्ठिर व्यवहार की मर्यादा लाँघने को तैयार नहीं।
| 0.5 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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उधर आ निकले व्यास सलाह देते हैं कि भविष्य के युद्ध के लिए पांडवों को अभी से शक्ति-संवर्धन करना चाहिए। उन्हीं के द्वारा बताए गए उपाय के अनुसार अर्जुन शस्त्रास्त्र के लिए इन्द्र (अपने औरस पिता) को तप से प्रसन्न करने के लिए एक यक्ष के मार्गदर्शन में हिमालय-स्थित इन्द्रकील पर्वत की ओर चल पड़ते हैं। वहां एक आश्रम बनाकर की गई तपस्या के फलस्वरूप अप्सराओं आदि को भेजकर परीक्षा लेने के बाद इंद्र एक वृद्ध मुनि के वेष में उपस्थित होते हैं और तपस्या के नाशवान लौकिक लक्ष्य को निःसार बताते हुए परमार्थ की महत्ता का निदर्शन करते हैं। अर्जुन इसकी काट में कौरवों द्वारा किए गए छल एवं अन्याय का लेखा-जोखा प्रस्तुतकर शत्रु से प्रतिशोध लेने की अनिवार्यता, सामाजिक कर्तव्य-पालन तथा अन्याय के प्रतिकार का तर्क देकर इंद्र को संतुष्ट कर देते हैं। फलस्वरूप इंद्र अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अर्जुन को मनोरथ-पूर्ति के लिए शिव की तपस्या करने की सलाह देते हैं।
| 0.5 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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अर्जुन फिर से घोर, निराहार तपस्या में लीन हो जाते हैं। अर्जुन इंद्रकील के लिए एक अजनबी तपस्वी है, जटा, वल्कल और मृगचर्म तो उसके पास हैं लेकिन साथ ही शरीर में कवच भी है, यज्ञोपवीत की जगह प्रत्यंचा-समेत गांडीव धनुष है, दो विशाल तरकस हैं और एक उत्तम खड्ग भी। उसे मुनिधर्म-विरोधी समझकर वहाँ के अन्य तपस्वी आतंकित हैं और शंकर के पास निवेदन के लिये पहुँच जाते हैं।उसके क्रम में शिव जी किरातों की स्थानीय जनजाति के सेनापति का वेश धारणकर किरातवेशधारी अपने गणों की सेना लेकर अर्जुन के पास पहुँच जाते हैं। तभी 'मूक' नाम का एक दानव अर्जुन की तपस्या को देवताओं का कार्य समझकर, विशाल शूकर का शरीर धारणकर, उसको मारने के लिए झपटता है। शिव और अर्जुन दोनों द्वारा एक साथ चलाए गए एक-जैसे बाण से उस सूअर की जीवनलीला समाप्त हो जाती है। शिव का बाण तो उसके शरीर को बेधता हुआ धरती में धँस जाता है और अर्जुन जब अपना बाण उसके शरीर से निकालने जाते हैं तो शिव अपने एक गण को भेजकर विवाद खड़ा करा देते हैं। परिणामतः दोनों के बीच युद्ध आरम्भ हो जाता है। अर्जुन गणों की सेना को तो बाण-वर्षा से भागने को मजबूर कर देते हैं पर शिव के साथ हुए युद्ध में परास्त हो जाते हैं। पराजय से हताश अर्जुन किरात-सेनापति के वेश में शिव को पहचानकर समर्पण कर देते हैं, जिससे प्रसन्न होकर शिव प्रकट होते हैं और पाशुपतास्त्र प्रदानकर उसका प्रशिक्षण देते हैं। इस तरह अर्जुन का मंतव्य पूरा होने के साथ महाकाव्य-विधा के भी सारे मंतव्य सिद्ध हो जाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D
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किरातार्जुनीयम्
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किरात वेशधारी शिव के इस लोकोत्तर मिथक से इतर इस प्रसंग की अपनी एक विशिष्ट जनजातीय अभिव्यंजना भी है, जो इस काव्य को वर्तमान भावबोध के करीब लाती है। युधिष्ठिर और गुप्तचर बने वनेचर के बीच घटित संवाद में वनेचर की जो अटूट स्वामिभक्ति, अदम्य निर्भीकता और उच्च राजनीतिक समझ सामने आती है, वह वनवासियों के प्रति भारवि की पक्षभरता में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। वनेचर शुरू में ही स्पष्ट कर देता है—
| 1 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः॥ 1.4॥स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः।
| 0.5 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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(किसी कार्य के लिए नियुक्त कर्मचारी द्वारा स्वामी को धोखा नहीं दिया जाना चाहिए। अस्तु, मैं प्रिय या अप्रिय आपको जो भी बताऊँ, उसके लिए क्षमा करेंगे। वस्तुतः ऐसी वाणी, जो हितकारी भी हो और मनोहर भी लगे, दुर्लभ है। वह मंत्री कैसा जो उचित (किन्तु अप्रिय लगनेवाली) सलाह न दे, और वह राजा कैसा जो हितकारी (किन्तु कठोर) बात न सुन सके। राजा और मंत्री में परस्पर अनुकूलता (पूर्ण विश्वास) होने पर ही राज्य के प्रति सभी प्रकार की समृद्धियां अनुरक्त होती हैं।)
| 0.5 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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इस पूरे प्रकरण के आरम्भ में द्रौपदी की बातों के समर्थन में भीम द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कुछएक नीतिवचन कहे गये हैं। उन्हीं में से एक नीचे उद्धृत है:
| 0.5 | 3,747.1656 |
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किरातार्जुनीयम्
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(किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास नहीं करना चाहिए। विवेकहीनता आपदाओं का परम आश्रय है। गुणों की लोभी संपदाएं अच्छी प्रकार से विचार करने वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, अर्थात् उसके पास स्वयं चली आती हैं।)
| 0.5 | 3,747.1656 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस शहर में प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक है। नोएडा प्राधिकरण देश के सबसे अमीर नागरिक निकायों में से एक है। जनगणना भारत की अनंतिम रिपोर्ट 2011 के मुताबिक नोएडा की आबादी 6,37,272 है; जिनमें से पुरुष और महिला आबादी क्रमशः 3,49,397 और 2,87,875 हैं। नोएडा में सड़कें पेड़ों से आच्छादित हैं और इसे भारत का सबसे ज्यादा हरियाली से युक्त शहर माना जाता है, जिसका लगभग पचास फीसदी हिस्सा हरियाली आच्छादित है, जो कि भारत के किसी भी शहर के मुकाबले सबसे अधिक है।
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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नोएडा उत्तर प्रदेश राज्य के गौतम बुद्ध नगर जिले में स्थित है। जिले के प्रशासनिक मुख्यालय पास के ग्रेटर नोएडा शहर में हैं। हालांकि इस जिले के जिलाधिकारी का आधिकारिक छावनी कार्यालय
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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और निवास सेक्टर-27 में है। शहर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र गौतमबुद्ध नगर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का एक हिस्सा है। वर्तमान में महेश शर्मा नोएडा के सांसद हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता पंकज सिंह यहां के स्थानीय विधायक हैं।
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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नोएडा को एपीपी समाचार द्वारा वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ शहर का खिताब दिया गया। नोएडा में कई बड़ी कंपनियों ने अपने कारोबार की स्थापना की है। यह आईटी, आईटीईएस, बीपीओ, बीटीओ और केपीओ सेवाओं की पेशकश करने वाले बैंकिंग, वित्तीय सेवाओं, बीमा, फार्मा, ऑटो, फास्ट-मूविंग उपभोक्ता वस्तुओं और विनिर्माण जैसे विभिन्न उद्योगों में कंपनियों की पसंदीदा जगह बन रही है। एसोचैम के एक अध्ययन के मुताबिक यह शहर बेहतर बिजली-आपूर्ति, सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के लिए उपयुक्त वातावरण और कुशल मानव संसाधन क्षमता से लैस शहर है।
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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इस शहर के सेक्टर 62 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल्स, इंडियन एकेडमी ऑफ हाइवे इंजीनियरिंग, आईसीएआई, आईएमएस, आईआईएम लखनऊ का नोएडा कैंपस, जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और कई और अधिक प्रतिष्ठित स्थानीय विश्वविद्यालय हैं। यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रतिष्ठित संस्थानों का केंद्र है, जिनमें एमएएफ एकेडमी, सिंबायोसिस लॉ स्कूल शामिल है। बैंक ऑफ इंडिया का स्टाफ प्रशिक्षण कॉलेज के साथ-साथ फादर एग्नेल और कार्ल ह्यूबर जैसे कुछ प्रसिद्ध स्कूल भी इस शहर में मौजूद हैं।
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नोएडा
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नोएडा आईटी सेवाओं को आउटसोर्स करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक प्रमुख केंद्र है। पाइनलैब्स, सैमसंग, बार्कलेज शेयर्ड सर्विसेज, सीआरएमएनएक्सटी, हेडस्ट्रॉन्ग, आईबीएम, मिर्चकल, स्टेलर आईटी पार्क, यूनिटेक इंफोस्पेस और बहुत सारी कंपनियों के दफ्तर इस शहर के सेक्टर 62 में हैं। कई बड़ी सॉफ़्टवेयर और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनियां के भी इस शहर में अपने कार्यालय हैं। इस शहर में लगभग सभी प्रमुख भारतीय बैंकों की शाखाएं मौजूद हैं।
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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1985 में स्थापित नोएडा विशेष आर्थिक क्षेत्र 310 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है। यह रत्न और आभूषण और इलेक्ट्रॉनिक्स / सॉफ्टवेयर जैसे निर्यात के जोर क्षेत्रों के लिए उत्कृष्ट बुनियादी ढाँचा, सहायक सेवाएँ और क्षेत्र विशेष सुविधाएँ प्रदान करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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एनएसईजेड में अलग-अलग आकार के 202 भूखंड हैं, इसके अलावा 13 मानक डिजाइन फैक्ट्री (एसडीएफ) ब्लॉक हैं, जिनमें 208 यूनिट्स हैं, जिसमें ट्रेडिंग सेवा इकाइयों के लिए एक विशेष ब्लॉक भी शामिल है। भावी उद्यमियों को समायोजित करने के लिए 16 इकाइयों का एक और एसडीएफ ब्लॉक निर्माणाधीन है।
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%8F%E0%A4%A1%E0%A4%BE
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नोएडा
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एनएसईजेड वैश्विक दूरसंचार नेटवर्क, निर्बाध बिजली आपूर्ति और कुशल स्थानीय परिवहन प्रणाली तक पहुंच प्रदान करता है। जोन में BSNL द्वारा एक उच्च क्षमता वाला टेलीफोन एक्सचेंज स्थापित किया गया है। भारती, एयरटेल, रिलायंस, वीएसएनएल आदि जैसे प्रमुख दूरसंचार खिलाड़ी भी क्षेत्र में डेटा संचार सुविधा जैसी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। निर्बाध बिजली आपूर्ति के लिए एक स्वतंत्र फीडर लाइन प्रदान की गई है। सीमा शुल्क विंग शीघ्र और निर्यात / आयात खेपों की स्पष्टता सुनिश्चित करता है। इसके अलावा, इन-हाउस पोस्ट और टेलीग्राफ कार्यालय, उप-विदेशी डाकघर, एटीएम सुविधा, कूरियर सेवा सुविधाएं, औद्योगिक कैंटीन और कार्यकारी रेस्तरां और यात्रा / सीमा शुल्क अग्रेषण एजेंसियों सहित बीमा और बैंकिंग प्रदान किए गए हैं। केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क जमा करने के लिए पंजाब नेशनल बैंक का एक विस्तार काउंटर भी चालू है। निर्यातकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रसंस्करण क्षेत्र में एक अपतटीय बैंकिंग इकाई भी स्थापित की गई है। उपरोक्त के अलावा, बैंक, सीएचएएस, ईटरीज, कम्युनिकेशन सर्विस प्रोवाइडर आदि जैसे विभिन्न सुविधाकर्ता जो NSEZ इकाइयों की आवश्यकताओं के लिए सफलतापूर्वक खानपान कर रहे हैं, को NSEZ के भीतर सुविधा केंद्र में समायोजित किया गया है।
| 0.5 | 3,744.83998 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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प्रत्येक जहाज के ढाँचे की अभिकल्पना (design) इस प्रकार से की जाती है कि उसके इंजनों, प्रणोदित्रों अथवा पैडल व्हीलों, सहायक यंत्रों तथा पंचों आदि के चलने के कारण और विशेषकर समुद्री लहरों के कारण जो विकृतियाँ तथा प्रतिबल पड़ें, उन्हें वह सह ले। जहाजों के चलते समय जब सामने की हवा का मुकाबिला करना होता है। उस समय यदि जहाज की चौड़ाई के बराबर लंबी लहरें उठने लगती हैं, तो कई बेर कोई एक ही बड़ी लहर बीच में जहाज को अधर में उठा ले सकती है। तब जहाज के आगे और पीछे क सिरे ठीक उसी प्रकर से लटकते रहेंगे जैसे कि किसी लदी हुई शहतीर को बीच में से सहारा देकर उठा लिया हो। जहाज का इस दशा को उत्तलन (ऊपर को उठा लिया जाना, hogging) कहते हैं। कभी कभी ऐसा भी होता है कि जहाज का आगे और पीछे का सिरा तो लहरों पर टिक जाता है और बीच का स्थान खाली हो जाता है, ठीक वैसा ही जैसे कोई लदी हुई शहतीर दोनों सिरों पर टिकी हो। इस परिस्थिति में जहाज के ढाँचे पर पड़नेवाले प्रतिबलों को अवतलन (sagging) कहते है। कभी कभी इन दोनों परिस्थितियों का मिश्रण भी हो जाता है, जिसमें पड़नेवाले प्रतिबल कर्तन (shear stress) कहलाते हैं। जब हवा तिरछी चलती है तब कभी कभी जहाज के ढाँचे में मरोड़ प्रतिबल (twisting strains) पड़ते हैं। जब बगली हवा चलती है तब पार्श्वीय विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त पानी में डूबे रहनेवाले भाग पर समुद्री पानी का भी अत्यधिक दाब पड़कर ढाँचे को चिपकाने की प्रवृत्ति दिखाता है। सबसे अधिक तथा विकट प्रकार की विकृतियाँ तो आगे और पीछे के सिरों पर उस समय पैदा होती हैं जब जहाज में माल के विषम लदान और लहरों के प्रभाव तथा पानी के उत्प्लावक बल के कारण जगह जगह पर नमन घूर्ण (bending moments) पैदा होने लगते हैं।
| 0.5 | 3,729.499452 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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लहरों द्वारा पड़नेवाली विकृतियों की गणना करते समय मान लिया जाता है कि प्रत्येक लहर की लंबाई जहाज की चौड़ाई के बराबर और उनकी ऊँचाई लंबाई के वें भाग के उराबर है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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जहाज के ढाँचे की अभिकल्पना करते समय उसके प्रत्येक अवयव (जो ढले इस्पात का होता है अथवा मुलायम इस्पात की छड़ों, एंगल आयरनों, चैनलों, गर्डरों और प्लेटों आदि को आपस में रिबटों द्वारा बैठाकर अथवा विभिन्न प्रकार के जोड़ों द्वारा कसकर बनाया जाता है) की रचना ऐसी करते हैं कि उसपर जो भी प्रतिबल पड़े, सब में समविभाजित होकर इस प्रकार से समस्त ढाँचे में फैल जाए कि प्रत्येक अवयव पर आनेवाले झटकों को अवयव मिलकर सह लें।
| 0.5 | 3,729.499452 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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जहाज का पठाण (नौतल, keel) सबसे नीचे रहनेवाला बुनियादी अवयव है, जिसके सहारे समस्त ढाँचा खड़ा किया जाता है। इसे लोहे या ढले इस्पात द्वारा तीन प्रकार से बनाया जाता है- इकहरी मोटी छड़ों, चपटी पट्टियों अथवा प्लेटों द्वारा।
| 0.5 | 3,729.499452 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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मरिया (Keelson) एक से अधिक तथा विभिन्न आकार के बनाए जाते हैं। इनमें से जो प्रमुख होता है वह जहाज के पेंदे की मध्य रेखा पर खड़ा लगया जाता है। सब मिलकर समस्त पेंदे को सहारा देते हैं। पठाण के आगे के सिरे मल्लजोड़ (Scarph) द्वारा।
| 1 | 3,729.499452 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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ऊपर को उठा हुआ जो अवयव ढले हुए इस्पात का बनाकर जोड़ा जाता है वह दुंबाल (Stern) कहलाता है। इसी में खाँचे बनाकर बीचवाला मरिया और बाहरी खोल के प्लेट बैठाकर जड़ दिए जाते हैं। पीछे की तरफ ढले इस्पात का जो खड़ा अवयव इसी प्रकार जोड़ा जाता है वह दुंबाल स्तंभ या कुदास (Sternpost) कहलाता है। रडर को सहारा देने के लिये और यदि एक या तीन प्रणोदित्र (propeller) युक्त जहाज हों तो मध्यवर्ती प्रणोदित्र के घूमने के लिये भी इसी में जगह बनाई जाती है।
| 0.5 | 3,729.499452 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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जहाज के समस्त ढाँचे की रचना पंजरनुमा होती है। पंजर के समस्त अंग एंगल, आयरन और पट्टियों द्वारा ही बनाए जाते हैं। ये पंजर दोहरे होते हैं, एक भीतरी और दूसरा बाहरी। जिन स्थानों पर जहाज का निचला फर्श टिकता है, वे बाहरी और भीतरी पंजरों के बीच में खड़े लगाए जाते हैं इन्हें मरिया अथवा फ्लोर्स भी कहते हैं। इनके कारण पेंदा बहुत ही दृढ़ हो जाता है। जहाज की दोनों बगलियों के पंजरों को दृढ़ता प्रदान करने के लिये, उनके बीच में लंब पट्टियाँ तथा आड़ी स्थूणाएँ (धरनें) लगा दी जाती हैं। लंब पट्टियाँ जहाज के पंजर से ऐंगल प्लेटों के साथ रिवेटों द्वारा जड़ दी जाती हैं। संपूर्ण जहाज का पंजर कई खंडों में बनाकर प्रत्येक पंजर के ऊपरी सिरे पर भी एक एक धरन लगा दी जाती है, जो ऊपरी डेक के प्लेट को सहारा देती है।
| 0.5 | 3,729.499452 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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जिन जहाजों में एक से अधिक डेक होते हैं, उनमें प्रत्येक डेक को सँभालने के लिये प्रत्येक खंड में एक एक स्थूणा लगाई जाती है। ऊपरी डेक सदैव इस्पात की प्लेटों का बनाया जाता है और उसपर लकड़ी के तख्ते बैठा दिए जाते हैं। नीचे के डेक लकड़ी के तख्तों से ही बनाए जाते हैं। कुछ जहाजों में नीचे के डेक भी इस्पात की प्लेटों से बनाते हैं। यह सब उपयोग पर निर्भर करता है। जहाज के पंजर की आड़ी धरनों के बीच, उन्हें सहारा देने के लिये एक एक खंभा भी इस्पात का लगा दिया जाता है। जिन जहाजों की चौड़ाई अधिक होती है उनके मध्य खंभे के दोनों ओर एक खंभा और लगा दिया जाता है। मालवाहक जहाजों के गोदामों में अधिक खुली जगह की आवश्यकता पड़ा करती है। अत: उनमें खंभे न लगाकर अन्य प्रकार की युक्तियों से काम लिया जाता है।
| 0.5 | 3,729.499452 |
20231101.hi_41431_24
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
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जलयान
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ये जहाज के बाहरी आवरण से बाहर की ओर निकली रहती हैं तथा जहाज की लुंठनगति (rolling) को अवरोधित (डैम्प) करने के उद्देश्य से लगायी जातीं हैं। इनके कारण जहाज के खोल (hull) की लुंठनगति में काफी अवरोध होता है, जिससे लुंठनगति बिलकुल तो नहीं रुकने पाती, परंतु काफी कम हो जाती है।
| 0.5 | 3,729.499452 |
20231101.hi_1912_0
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE
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मिथिला
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मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था। मिथिला वर्तमान में एक सांस्कृतिक क्षेत्र है जिसमे बिहार के तिरहुत, दरभंगा, मुंगेर, कोसी, पूर्णिया और भागलपुर प्रमंडल तथा झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल के साथ साथ नेपाल के तराई क्षेत्र के कुछ भाग भी शामिल हैं। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परम्परा के लिये भारत और भारत के बाहर जानी जाती रही है। इस क्षेत्र की प्रमुख भाषा मैथिली है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका संकेत शतपथ ब्राह्मण में तथा स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में मिलता है। मिथिला का उल्लेख वेदों, महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है।
| 0.5 | 3,701.132701 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE
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मिथिला
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पौराणिक उल्लेखों के अनुसार इस क्षेत्र का सर्वाधिक प्राचीन नाम मिथिला ही प्राप्त होता है; साथ ही विदेह नाम से भी इसे संबोधित किया गया है। तीरभुक्ति (तिरहुत) नाम प्राप्त उल्लेखों के अनुसार अपेक्षाकृत काफी बाद का सिद्ध होता है।
| 0.5 | 3,701.132701 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE
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मिथिला
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विदेह और मिथिला नामकरण का सर्वाधिक प्राचीन संबंध शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित विदेघ माथव से जुड़ता है। मिथिला के बसने के आरंभिक समय का संकेत उक्त कथा में प्राप्त होता है। विदेघ माथव तथा उसके पुरोहित गौतम राहूगण सरस्वती नदी के तीर से पूर्व की ओर चले थे। उनके आगे-आगे अग्नि वैश्वानर नदियों का जल सुखाते हुए चल रहे थे। सदानीरा (गण्डकी) नदी को अग्नि सुखा नहीं सके और विदेघ माथव द्वारा यह पूछे जाने पर कि अब मेरा निवास कहाँ हो, अग्नि ने उत्तर दिया कि इस नदी के पूर्व की ओर तुम्हारा निवास हो। शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट रूपेण उल्लिखित है कि पहले ब्राह्मण लोग इस नदी को पार नहीं करते थे तथा यहाँ की भूमि उपजाऊ नहीं थी। उसमें दलदल बहुत था क्योंकि अग्नि वैश्वानर ने उसका आस्वादन नहीं किया था। परंतु अब यह बहुत उपजाऊ है क्योंकि ब्राह्मणों ने यज्ञ करके उसका आस्वादन अग्नि को करा दिया है। गण्डकी नदी के बारे में यह भी उल्लेख है कि गर्मी के बाद के दिनों में भी, अर्थात् काफी गर्मी के दिनों में भी, यह नदी खूब बहती है। इस विदेघ शब्द से विदेह का तथा माथव शब्द से मिथिला का संबंध प्रतीत होता है। शतपथ में ही गंडकी नदी के बारे में उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूप से विदेह शब्द का भी उल्लेख हुआ है। वहाँ कहा गया है कि अब तक यह नदी कोसल और विदह देशों के बीच की सीमा है; तथा इस भूमि को माथव की संतान (माथवाः) कहा गया है।
| 0.5 | 3,701.132701 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE
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मिथिला
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वाल्मीकीय रामायण तथा विभिन्न पुराणों में मिथिला नाम का संबंध राजा निमि के पुत्र मिथि से जोड़ा गया है। न्यूनाधिक अंतरों के साथ इन ग्रंथों में एक कथा सर्वत्र प्राप्त है कि निमि के मृत शरीर के मंथन से मिथि का जन्म हुआ था। वाल्मीकीय रामायण में मिथि के वंशज के मैथिल कहलाने का उल्लेख हुआ है जबकि पौराणिक ग्रंथों में मिथि के द्वारा ही मिथिला के बसाये जाने की बात स्पष्ट रूप से कही गयी है। शब्दान्तरों से यह बात अनेक ग्रंथों में कही गयी है कि स्वतः जन्म लेने के कारण उनका नाम जनक हुआ, विदेह (देह-रहित) पिता से उत्पन्न होने के कारण वे वैदेह कहलाये तथा मंथन से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम मिथि हुआ। इस प्रकार उन्हीं के नाम से उनके द्वारा शासित प्रदेश का नाम विदेह तथा मिथिला माना गया है। महाभारत में प्रदेश का नाम 'मिथिला' तथा इसके शासकों को 'विदेहवंशीय' (विदेहाः) कहा गया है।
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मिथिला
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वृहद्विष्णुपुराण के मिथिला-माहात्म्य में मिथिला एवं तीरभुक्ति दोनों नाम कहे गये हैं। मिथि के नाम से मिथिला तथा अनेक नदियों के तीर पर स्थित होने से तीरों में भोग (नदी तीरों से पोषित) होने से तीरभुक्ति नाम माने गये हैं। इस ग्रंथ में गंगा से लेकर हिमालय के बीच स्थित मिथिला में मुख्य 15 नदियों की स्थिति मानी गयी है तथा उनके नाम भी गिनाये गये हैं।
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मिथिला
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मिथिला का माहात्म्य बतलाते हुए वृहद्विष्णु पुराण के मिथिला-माहात्म्य खंड में कहा गया है कि गंगा से हिमालय के बीच 15 नदियों से युक्त परम पवित्र तीरभुक्ति (तिरहुत) है। यह तीरभुक्ति मिथिला सीता का निमिकानन है, ज्ञान का क्षेत्र है और कृपा का पीठ है। जानकी कि यह जन्मभूमि मिथिला निष्पापा और निरपेक्षा है। यह राम को आनंद देने वाली तथा मंगलदायिनी है। प्रयाग आदि तीर्थ लोकों में पुण्य देने वाली है परंतु राम की प्राप्ति करवाने में समर्थ नहीं है; परंतु यह मिथिला सब प्रकार से निश्चित रूप से राम को तुष्ट करने वाली होने से विशेष है। जैसे साकेत नगरी संसार के कारण स्वरूप है वैसे ही यह मिथिला समस्त आनंद का कारण स्वरूप है। इसलिए महर्षिगण समस्त परिग्रहों को छोड़कर राम की आराधना के लिए प्रयत्नपूर्वक यहीं निवास करते हैं। श्रीसावित्री तथा श्रीगौरी जैसी देव-शक्तियों ने यही जन्म ग्रहण किया। स्वयं सर्वेश्वरेश्वरी श्रीसीता जी की जन्मभूमि यह मिथिला यत्नपूर्वक वास करने से समस्त सिद्धियों को देने वाली है।
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मिथिला
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महाभारत में मगध के बाद (उत्तर) मिथिला की स्थिति मानी गयी है। श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा भीम की मगध-यात्रा का वर्णन करते हुए पहले सरयू नदी पार करके पूर्वी कौशल प्रदेश तथा फिर महाशोण, गण्डकी तथा सदानीरा को पार करके मिथिला में जाने का उल्लेख हुआ है। पुनः गंगा तथा महाशोण को पार करके मगध में जाने की बात कही गयी है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय मगध के उत्तर में मिथिला की ही स्थिति मानी गयी है। वज्जि प्रदेश (वैशाली राज्य) मिथिला के अंतर्गत ही समाविष्ट था। महाभारत के इस उल्लेख में भी मिथिला के सीमा क्षेत्र के बारे में अन्यत्र उल्लिखित पश्चिम में गंडकी तथा दक्षिण में गंगा तक के क्षेत्र यथावत् संकेतित होते हैं।
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मिथिला
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अर्थात् पूर्व में कोसी से आरंभ होकर पश्चिम में गंडकी तक 24 योजन तथा दक्षिण में गंगा नदी से आरंभ होकर उत्तर में हिमालय वन (तराई प्रदेश) तक 16 योजन मिथिला का विस्तार है।
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मिथिला
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महाकवि चन्दा झा ने उपर्युक्त श्लोक का ही मैथिली रूपांतरण करते हुए मिथिला की सीमा बताते हुए लिखा है कि
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मिथेन
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मिथेन (Methane) एक रंगहीन तथा गन्धहीन गैस है जो ईंधन के रूप में उपयोग की जाती है। यह प्राकृतिक गैस का मुख्य घटक है।
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मिथेन
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मिथेन गैस का रासायनिक सूत्र CH4 है। यह अल्केन श्रेणी का प्रथम सदस्य है और सबसे साधारण हाइड्रोकार्बन है।
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मिथेन
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जब यह सतह और वातावरण पहुंचता है, यह वायुमंडलीय मीथेन के रूप में जाना जाता है पृथ्वी के वायुमंडल में मीथेन का घनत्व 1750 के बाद से लगभग 150% की वृद्धि हुई है और यह एक ग्रीन हाउस गैस है। मीथेन गैस की खोज सबसे पहले नवंबर 1776 में इटली और स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिक एलेसान्द्रो वोल्ता ने की थी। उन्होंने मैगिओर झील के दलदल में इस गैस की पहचान haffman ne kiya की थी ।मेथैन कोयला खानों में इकट्ठा हो जाती है जिससे विस्फोट एवं आग लगने की घटनाएँ हो सकती हैं ।
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मिथेन
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यह रंगहीन गैस है । यह जल में अविलेय है । यह वायु से हल्की होती है । यह ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करती है । संपीडित प्राकृतिक गैस (CNG) मुख्यत: मेथैन होती है ।
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मिथेन
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(1) मेथैन, वायु में नीले लौ के साथ जलती है और कार्बन डाइऑक्साइड, जल और बड़ी मात्रा में ऊष्मा (55,000 किलो जूल प्रति किलोग्राम) उत्पत्र करती है ।
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मिथेन
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1. मेथैन का उपयोग घरों एवं उद्योगों दोनों गैसीय ईंधन के रूप में किया जाता है क्योंकि यह जलने पर बडी मात्रा में ऊष्मा उत्पत्र करती है ।
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मिथेन
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2. आजकल इसका व्यापक रूप में उपयोग स्वचालित वाहनों विशेषकर बसों, कारों एवं आटो रिक्यइओं को चलाने के लिए किया जा रहा है ।
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मिथेन
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4. मेथैन का उपयोग बहुत बड़ी संख्या में कार्बनिक यौगिकों के निर्माण में किया जाता है, जिनका उपयोग घरेलू एवं उद्योगों में किया जाता है
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मिथेन
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Gavin Schmidt, Methane: A Scientific Journey from Obscurity to Climate Super-Stardom, NASA Goddard, September 2004
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गीतांजलि
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सिर्फ इतना कहना नाकाफी है कि गीतांजलि के स्वर में सिर्फ रहस्यवाद है। इसमें मध्ययुगीन कवियों का निपटारा भी है। धारदार तरीके से उनके मूल्यबोधों के खिलाफ। हालांकि पूरी गीतांजलि का स्वर यह नहीं है। उसमें समर्पण की भावना प्रमुख विषयवस्तु है। यह रवीन्द्रनाथ का सम्पूर्ण जिज्ञासा से उपजी रहस्योन्मुखकृति है।
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गीतांजलि
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'गीतांजलि' के मूल बाङ्ला क्रम (157 गीत) एवं अंग्रेजी गद्यानुवाद-क्रम (103 गीत, अर्थात् 'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स') दोनों के कुछ देवनागरी लिप्यंतरण एवं अधिकांशतः हिन्दी गद्य एवं पद्य में अनुवाद विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशित होते रहे हैं। मूल बाङ्ला क्रम वाले अनुवादों में तो सीधे-सीधे मूल बाङ्ला गीतों से ही अनुवाद किये ही गये हैं, अंग्रेजी क्रम वाले अनुवादों में भी जो पद्यानुवाद हैं उनमें केवल क्रम अंग्रेजी वाला है परंतु अनुवाद सीधे मूल बाङ्ला गीतों के ही किये गये हैं।
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गीतांजलि
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गीताञ्जलि -1946 (हिन्दी छन्दबद्ध पद्यानुवाद- लालधर त्रिपाठी 'प्रवासी'; प्रथम संस्करण 'काशी पुस्तक भंडार, बनारस' से प्रकाशित; द्वितीय संस्करण 'हिन्दी पुस्तकालय, वाराणसी' से सन् 1951 में प्रकाशित; नवीन संस्करण 'पिलग्रिम्स पब्लिशिंग, वाराणसी' से सन् 2010 में तथा 'सस्ता साहित्य मंडल, नयी दिल्ली' द्वारा सन् 2011 में सजिल्द एवं पेपरबैक दोनों रूपों में प्रकाशित। इसमें गीतों की कुल संख्या 209 है। मूल बाङ्ला संस्करण के क्रमशः 157 गीतों के बाद अंग्रेजी संस्करण में लिये गये भिन्न 50 गीतों के अनुवाद भी संकलित हैं। दो स्वतंत्र गीत तथा डब्ल्यू॰ वी॰ येट्स लिखित भूमिका के अनुवाद भी अंत में दे दिये गये हैं।)
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गीतांजलि
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गीतांजलि -1961 (मूल बाङ्ला गीतों की यति-गति एवं छंदों के अनुरूप पद्यानुवाद- हंसकुमार तिवारी, मानसरोवर प्रकाशन, गया से प्रकाशित; परवर्ती संस्करण सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली से सन् 1974 एवं 2000 ई॰ में प्रकाशित।)
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गीतांजलि
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गीतांजलि - 1986 (हिन्दी पद्यानुवाद- सत्यकाम विद्यालंकार एवं इंदु जैन; विश्वभारती, शांतिनिकेतन के तत्त्वावधान में हिन्द पॉकेट बुक्स प्रा॰ लिमिटेड, शाहदरा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित।)
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गीतांजलि
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मूल गीतांजलि -2002 (देवनागरी लिप्यंतरण एवं हिन्दी गद्यानुवाद सहित; अनुवादिका- प्रतिभा मिश्र, कुसुम प्रकाशन, मुज़फ्फरनगर)
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गीतांजलि
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गीतांजलि -2003 (हिन्दी पद्यानुवाद- पुष्पा गोयल; डायमंड पॉकेट बुक्स, नयी दिल्ली; इसमें कुल गीतों की संख्या 156 है।)
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गीतांजलि
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गीतांजलि -2003 (हिन्दी पद्यानुवाद- डोमन साहु 'समीर', राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली; इसमें केवल 138 गीत संकलित हैं एवं 19 गीत छोड़ दिये गये हैं।)
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गीतांजलि
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गीतांजलि -2006 (हिन्दी पद्यानुवाद- रणजीत साहा; किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली; सन् 2010 में इसका एक और विशिष्ट संस्करण प्रकाशित हुआ जिसमें मूल बांग्ला गीतों का देवनागरी लिप्यंतरण भी सम्मिलित है।)
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ग्रीनहाउस
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कांच के व्यावसायिक ग्रीनहाउस में अक्सर सब्जियों या फूलों के लिए उच्च तकनीक वाली उत्पादन सुविधाएं होती हैं। कांच के ग्रीनहाउस स्क्रीनिंग स्थापना, गर्म करने, ठंडा करने, प्रकाशमान करने जैसे उपकरणों से परिपुर्ण होते हैं और यह एक कंप्यूटर द्वारा स्वचालित रूप से नियंत्रित हो सकता है।
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