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20231101.hi_9445_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
उच्चारण
यद्यपि संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण में समानता का अंश अधिक पाया जाता है, तथापि साथ ही प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कुछ विशेषताएँ भी मिलती हैं, जैसे भारतीय भाषाओं की मूर्धन्य ध्वनियाँ ट् ठ्‌ ड् आदि, फारसी अरबी की अनेक संघर्षी ध्वनियाँ जेसे ख़ ग़्ा ज़ आदि, हिंदी की बोलियों में ठेठ ब्रजभाषा के उच्चारण में अर्धविवृत स्वर ऐं, ओं, भोजपुरी में शब्दों के उच्चारण में अंत्य स्वराघात।
0.5
3,597.963916
20231101.hi_9445_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
उच्चारण
भाषाओं के बोले जानेवाले रूप अर्थात्‌ उच्चारण को लिपिचिह्नों के द्वारा लिखित रूप दिया जाता है, तथापि इस रूप में उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो पाता है। वर्णमालाओं का आविष्कार प्राचीनकाल में किसी एक भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए हुआ था, किंतु आज प्रत्येक वर्णमाला अनेक संबद्ध अथवा असंबद्ध भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त होने लगी है जिनमें अनेक प्राचीन ध्वनियाँ लुप्त और नवीन ध्वनियाँ विकसित हो गई हैं। फिर, प्राय: वर्णमालाओं में ह्रस्व, दीर्घ, बलात्मक स्वराघात, गीतात्मक स्वराघात आदि को चिह्नित नहीं किया जाता। इस प्रकार भाषाओं के लिखित रूप से उनकी उच्चारण संबंधी समस्त विशेषताओं पर प्रकाश नहीं पड़ता।
0.5
3,597.963916
20231101.hi_9445_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
उच्चारण
प्रचलित वर्णमालाओं के उपर्युक्त दोष के परिहार के लिए भाषाविज्ञान के ग्रंथों में रोमन लिपि के आधार पर बनी हुई अंतरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि (इंटरनैशनल फ़ोनेटिक स्क्रिप्ट) का प्राय: प्रयोग किया जाने लगा है। किंतु इस लिपि में भी उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो सका है। इनका अध्ययन तो भाषा के "टेप रिकार्ड' या "लिंग्वाफोन' की सहायता से ही संभव होता है।
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20231101.hi_9445_7
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उच्चारण
भाषा के लिखित रूप का प्रभाव कभी-कभी भाषा के उच्चारण पर भी पड़ता है, विशेषतया ऐसे वर्ग के उच्चारण पर जो भाषा को लिखित रूप के माध्यम से सीखता है; जैसे हिंदीभाषी "वह' को प्राय: "वो' बोलते हैं, यद्यपि लिखते "वह' हैं। लिखित रूप के प्रभाव के कारण अहिंदीभाषी सदा "वह' बोलते हैं।
0.5
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20231101.hi_9445_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
उच्चारण
प्रत्येक भाषा के संबंध में आदर्श उच्चारण की भावना सदा वर्तमान रही है। साधारणतया प्रत्येक भाषाप्रदेश के प्रधान राजनीतिक अथवा साहित्यिक केंद्र के शिष्ट नागरिक वर्ग का उच्चारण आदर्श माना जाता है। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि इसका सफल अनुकरण निरंतर हो सके। यही कारण है कि प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कम या अधिक मात्रा में अनेकरूपता रहती ही है।
0.5
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20231101.hi_9445_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
उच्चारण
किसी भाषा के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन करने या कराने के लिए ध्वनिविज्ञान की जानकारी आवश्यक है। प्रयोगात्मक ध्वनिविज्ञान की सहायता से उच्चारण की विशेषताओं का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण संभव हो गया है। किंतु उच्चारण के इस वैज्ञानिक विश्लेषण के कुछ ही अंशों का व्यावहारिक उपयोग संभव हो पाता है।
0.5
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20231101.hi_9445_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
उच्चारण
Sounds Familiar? — Listen to examples of regional accents and dialects from across the UK on the British Library's 'Sounds Familiar' website
0.5
3,597.963916
20231101.hi_188415_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
व्यंजक (1) (x) का बहुपद है और (2) x, y z, का तथा उसमें (a) अचर (constant) है। यदि (x) के स्थान में सर्वत्र कोई अन्य व्यंजक मान लें, log x रख दिया जाए, तो नया व्यंजक log x का व्यंजक कहलाएगा। पदों के घातों में से महत्तम को बहुपद का घात (डिग्री) कहते हैं। यदि एक से अधिक चर राशियाँ हों, तो विभिन्न पदों में चर राशियों के घातों के योगफलों में से महत्तम को बहुपद का घात कहते हैं। इस प्रकार बहुपद (1) का घात 4 है और (2) का 7। ऐसा भी कहा जाता है कि बहुपद (2) (x) में छठे घात का और (y) में द्वितीय घात का है।
0.5
3,594.617216
20231101.hi_188415_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
दो बहुपदों का योगफल, अंतर और गुणनफल बहुपद ही होता है, किंतु उनका भागफल बहुपद नहीं होता। दो बहुपदों के भागफल को, जिनमें एक संख्या मात्र भी हो सकता है, परिमेय फलन (rational function) कहते हैं। चर (x) में घात (m) का व्यापक बहुपद यह है :
0.5
3,594.617216
20231101.hi_188415_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
बीजगणित का एक मौलिक प्रमेय यह है कि यदि f (x) चर राशि x में घात m का बहुपद है, तो बहुपद समीकरण f(x) = 0 के सदा m मूल होते हैं। ये मूल संमिश्र (complex) भी हो सकते हैं और संपाती (coincident) भी।
0.5
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20231101.hi_188415_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
यदि f(x) = 0 का कोई मूल p1 है तो बहुपद f(x) में (x-p1) का भाग पूरा-पूरा चला जाता है और भागफल में घात m-1 वाला एक बहुपद f1(x) प्राप्त होता है। अब बहुपद समीकरण f1(x) = 0 के m-1 मूल होंगे और यदि इसका एक मूल (x-p2) है (यह भी संभव है कि p2=p1), तो फिर f1(x) में (x-p2) का भाग पूरा चला जाएगा। यह एक महत्वपूर्ण प्रमेय है कि f(x) का गुणनखंडन अद्वितीय होता है।
0.5
3,594.617216
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
यदि हम f(x) के गुणांकों और गुणनखंडों में प्रयुक्त संख्याओं पर यह प्रतिबंध लगा दें कि वे किसी अमुक क्षेत्र की होंगी, तो मूलों का अस्तित्व अवश्यंभावी नहीं रहता। इतना अवश्य है कि यदि बहुपद का गुणनखंडन हो सकेगा, तो गुणनखंड अद्वितीय होंगे।
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20231101.hi_188415_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
त्रिकोणमिति का एक महत्वपूर्ण प्रमेय यह है कि यदि म कोई धनात्मक पूर्णांक है, तो कोज्या mx की अभिव्यक्ति कोज्या x के m घातवाले बहुपद के रूप में की जा सकती है, यथा
0.5
3,594.617216
20231101.hi_188415_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
ज्या mx के बारे में प्रमेय यह है कि यदि m विषम है तो ज्या mx की अभिव्यक्ति ज्या x के m वें घात के बहुपद के रूप में की जा सकती है और यदि m सम है तो ज्या mx / कोज्या x की अभिव्यक्ति ज्या x के m-1 वें घात के बहुपद के रूप में होगी, यथा
0.5
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20231101.hi_188415_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
वैश्लेषिक ज्योमिति में वक्रों का अध्ययन उन्हें दो चरों के बहुपद समीकरण द्वारा निरूपित कर किया जाता है। इसी प्रकार तलों के अध्ययन के लिए तीन चरवाले बहुपद समीकरणों की सहायता ली जाती है। स्वेच्छ घात के बहुपद समीकरणों से निरूपित वक्रों और तलों का अध्ययन बीजीय ज्यामिति में किया जाता है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%A6
बहुपद
दो या अधिक चरों के ऐसे बहुपद को, जिसके प्रत्येक पद में चरों के घातों का योगफल समान हो, समघात बहुपद, या केवल समघात, कहते हैं; आधुनिक बीजगणित में इन समघातों के रूपांतरण का और इन रूपातंरणों से संबंधित निश्चर (invariant) और सहपरिवर्त (covariant) के सिद्धातों का प्रमुख स्थान है और इनके अनेक उपयोग हैं।
0.5
3,594.617216
20231101.hi_63647_13
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A5%80
सीतामढ़ी
2011 की जनगणना के अनुसार इस जिले में पुरुष और महिला आबादी क्रमश: 1803252 और 1620322 तथा कुल आबादी 3423574 है, जबकि वर्ष 2001 की जनगणना में, पुरुषों की संख्या 1417611 और महिलाओं की संख्या 1,265,109 थी, जबकि कुल आबादी 2682720 थी। एक अनुमान के मुताबिक सीतामढ़ी जिले की आबादी महाराष्ट्र की कुल आबादी का 3.29 प्रतिशत माना गया है। जबकि 2001 की जनगणना में, सीतामढ़ी जिले का यह आंकड़ा महाराष्ट्र की आबादी का 3.23 प्रतिशत पर था।
0.5
3,590.942606
20231101.hi_63647_14
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सीतामढ़ी
सीतामढ़ी जिले में एक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र और उसके अंतर्गत आठ विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र क्रमश: सीतामढ़ी, रुन्नी सैदपुर, बाजपट्टी, रीगा, बथनाहा, बेलसंड, परिहार एवं सुरसंड हैं। जन प्रतिनिधियों का विवरण इसप्रकार है:
0.5
3,590.942606
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सीतामढ़ी
जानकी स्थान मंदिर: सीतामढी रेलवे स्टेशन से 2 किलोमीटर की दूरी पर बने जानकी मंदिर में स्थापित भगवान श्रीराम, देवी सीता और लक्ष्मण की मूर्तियाँ है। यह सीतामढ़ी नगर के पश्चिमी छोर पर अवस्थित है। जानकी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध यह पूजा स्थल हिंदू धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए अति पवित्र है। जानकी स्थान के महन्थ के प्रथम पूर्वज विरक्त महात्मा और सिद्ध पुरुष थे। उन्होने "वृहद विष्णु पुराण" के वर्णनानुसार जनकपुर नेपाल से मापकर वर्तमान जानकी स्थान वाली जगह को ही राजा जनक की हल-कर्षण-भूमि बताई। पीछे उन्होने उसी पावन स्थान पर एक बृक्ष के नीचे लक्षमना नदी के तट पर तपश्चर्या के हेतु अपना आसन लगाया। पश्चात काल में भक्तों ने वहाँ एक मठ का निर्माण किया, जो गुरु परंपरा के अनुसार उस कल के क्रमागत शिष्यों के अधीन आद्यपर्यंत चला आ रहा है। यह सीतामढ़ी का मुख्य पर्यटन स्थल है।
0.5
3,590.942606
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सीतामढ़ी
बाबा परिहार ठाकुुुर : सीतामढ़ी जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर प्रखंड परिहार में परिहार दक्षिणी में में स्थित है बाबा परिहार ठाकुर का मंदिर। यहां की मान्यता है कि जो भी बाबा परिहार ठाकुर के मंदिर में आता है वह खाली हाथ वापस नहीं लौटता ।
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3,590.942606
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सीतामढ़ी
उर्बीजा कुंड:सीतामढ़ी नगर के पश्चिमी छोर पर उर्बीजा कुंड है। सीतामढी रेलवे स्टेशन से डेढ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह स्थल हिंदू धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए अति पवित्र है। ऐसा कहा जाता है कि उक्त कुंड के जीर्णोद्धार के समय, आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व उसके अंदर उर्बीजा सीता की एक प्रतिमा प्राप्त हुयी थी, जिसकी स्थापना जानकी स्थान के मंदिर में की गयी। कुछ लोगों का कहना है कि वर्तमान जानकी स्थान के मंदिर में स्थापित जानकी जी की मूर्ति वही है, जो कुंड की खुदाई के समय उसके अंदर से निकली थी।
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3,590.942606
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सीतामढ़ी
पुनौरा और जानकी कुंड :यह स्थान पौराणिक काल में पुंडरिक ऋषि के आश्रम के रूप में विख्यात था। कुछ लोगों का यह भी मत है कि सीतामढी से ५ किलोमीटर पश्चिम स्थित पुनौरा में हीं देवी सीता का जन्म हुआ था। मिथिला नरेश जनक ने इंद्र देव को खुश करने के लिए अपने हाथों से यहाँ हल चलाया था। इसी दौरान एक मृदापात्र में देवी सीता बालिका रूप में उन्हें मिली। मंदिर के अलावे यहाँ पवित्र कुंड है।
0.5
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सीतामढ़ी
हलेश्वर स्थान:सीतामढी से ३ किलोमीटर उत्तर पूरव में इस स्थान पर राजा जनक ने पुत्रेष्टि यज्ञ के पश्चात भगवान शिव का मंदिर बनवाया था जो हलेश्वर स्थान के नाम से प्रसिद्ध है।
0.5
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सीतामढ़ी
पंथ पाकड़:सीतामढी से ८ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में बहुत पुराना पाकड़ का एक पेड़ है जिसे रामायण काल का माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी सीता को जनकपुर से अयोध्या ले जाने के समय उन्हें पालकी से उतार कर इस वृक्ष के नीचे विश्राम कराया गया था।
0.5
3,590.942606
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सीतामढ़ी
बगही मठ:सीतामढी से ७ किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित बगही मठ में १०८ कमरे बने हैं। पूजा तथा यज्ञ के लिए इस स्थान की बहुत प्रसिद्धि है।
0.5
3,590.942606
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%91%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8
ऑक्सीटॉसिन
ऑक्सीटॉसिन की परिधीय (हार्मोन संबंधी) क्रियाएं होती हैं और इसकी मस्तिष्क में भी क्रियाएं होती हैं। ऑक्सीटॉसिन की क्रियाओं की मध्यस्थता विशिष्ट, उच्च आकर्षण वाले अभिग्राहक करते हैं। ऑक्सीटॉसिन अभिग्राहक एक G-प्रोटीन-युग्मित अभिग्राहक होता है जिसके लिए Mg2+ और कलेस्ट्रॉल की आवश्यकता होती है। यह G-प्रोटीन-युग्मित अभिग्राहकों के रोडॉप्सिन-प्रकार (वर्ग I) वाले समूह से संबंधित होता है।
0.5
3,563.948154
20231101.hi_191369_3
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ऑक्सीटॉसिन
ऑक्सीटॉसिन के परिधीय कार्य मुख्य रूप से पीयूष (पिट्यूटरी) ग्रंथि से होने वाले स्राव को दर्शाते हैं। (इसकी क्रियाओं के संबंध में अधिक विवरण के लिए ऑक्सीटॉक्सिन अभिग्राहक का अवलोकन करें। )
0.5
3,563.948154
20231101.hi_191369_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%91%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8
ऑक्सीटॉसिन
लेटडाउन रिफ्लेक्स (स्तन पान के दौरान दूध के प्रवाह को नीचे करने की अनैच्छिक प्रतिवर्ती क्रिया) - दूध पिलाने वाली (स्तनपान कराने वाली) माताओं में, ऑक्सीटॉसिन स्तन ग्रंथियों के रूप के रूप में कार्य करता है, जो दूध को स्तन परिवेश के नीचे साइनसों (शिरानालों) में नीचे की और स्वतन्त्र रूप से प्रवाहित होने देता है, जहां से यह स्तनाग्र (निपल) के माध्यम से उत्सर्जित हो सकता है। निपल को शिशु के द्वारा चुसना रीढ़ संबंधी नसों के द्वारा अध् :श्चेतक (हाइपोथैलेमस) को आगे भेजा जाता है। उत्तेजना तंत्रिका कोशिका (न्यूरॉन्स) उत्पन्न करता है जो ऑक्सीटॉसिन को बीच-बीच में होने वाले बौछारों में क्रिया संबंधी क्षमता बाहर निकालने के लिए उत्तेजित करता है। इन बौछारों के परिणामस्वरूप पियुषिका ग्रंथि के तंत्रिका स्रावी नस के टर्मिनलों से ऑक्सीटॉसिन के नाड़ी-स्पंद का स्राव होता है।
0.5
3,563.948154
20231101.hi_191369_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%91%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8
ऑक्सीटॉसिन
गर्भाशय संबंधी संकुचन - जन्म (प्रसव) के पूर्व ग्रीवा संबंधी फैलाव के लिए महत्वपूर्ण होता है और प्रसव-काल के दूसरे और तीसरे चरणों के दौरान संकुचन उत्पन्न करता है। स्तनपान के दौरान ऑक्सीटॉसिन का स्राव हल्का किन्तु स्तनपान के पहले कुछ सप्ताहों के दौरान अक्सर कष्टदायक गर्भाशय संकुचन उत्पन्न करता है। यह अपरा (प्लेसेंटा) संबंधी प्रसवोत्तर संयोजन बिंदु का थक्का बनाने में गर्भाशय की सहायता करने का भी कार्य करता है। हालांकि, अचेत कर देने वाले प्रहार वाले चूहे में जिसमें ऑक्सीटॉसिन अभिग्राहक का अभाव होता है, प्रजनन संबंधी व्यवहार और प्रसव सामान्य होता है।
0.5
3,563.948154
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%91%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8
ऑक्सीटॉसिन
ऑक्सीटॉसिन और मानव संबंधी यौन प्रतिक्रिया के बीच संबंध स्पष्ट नहीं है। कम से कम दो गैर-नियंत्रित अध्ययनों ने कामोन्माद के दौरान प्लाज्मा ऑक्सीटॉसिन को बढ़ा हुआ पाया - स्त्रियों और पुरुषों दोनों में. स्वत: प्रेरित कामोन्माद के समय के आस-पास प्लाज्मा ऑक्सीटॉसिन के स्तर विशेष रूप से बढ़े हुए होते हैं और वे अब भी आधार-रेखा से अधिक होते हैं जब स्वत: उत्तेजना के 5 मिनटों के बाद उनका मापन होता है। इन अध्ययनों के लेखकों में से एक ने यह अनुमान लगाया कि मांशपेशी की संकुचनशीलता पर ऑक्सीटॉसिन का प्रभाव शुक्राणु और अंडाणु के परिवहन को सहज कर सकता है। एक अध्ययन में, जिसमें यौन उत्तेजना के पूर्व और बाद में स्त्रियों में सीरम के स्तरों की माप की गई, लेखक यह सुझाव देता है कि यौन उत्तेजना में ऑक्सीटॉसिन एक प्रमुख भूमिका निभाता है। इस अध्ययन में यह पाया गया कि जननांग मार्ग की उत्तेजना के परिणामस्वरूप कामोन्माद के शीघ्र बाद ऑक्सीटॉसिन बढ़ा हुआ था। एक अन्य अध्ययन जो यौन उत्तेजना के दौरान ऑक्सीटॉसिन की वृद्धि को सूचित करता है यह बताता है कि जैसा कि अन्य स्तनधारियों में सत्यापित हो चुका है यह निपल/स्तन परिवेश, जननांग और/या जननांग मार्ग की उत्तेजना के प्रतिक्रया स्वरूप हो सकता है। मर्फी एट अल. (1987), ने पुरुषों का अध्ययन करते हुए पाया कि संपूर्ण यौन उत्तेजना के दौरान ऑक्सीटॉसिन के स्तर में वृद्धि हो गई थी और कामोन्माद के समय कोई तीव्र वृद्धि नहीं हुई थी। पुरुषों के एक अधिक हाल के अध्ययन में यौन उत्तेजना के शीघ्र बाद प्लाज्मा ऑक्सीटॉसिन में वृद्धि पाया गया, लेकिन यह केवल उनके नमूने के एक हिस्से में पाया गया जिसे कोई सांख्यिकीय महत्त्व प्राप्त नहीं हो सका। लेखकों ने यह ध्यान दिया कि ये परिवर्तन " केवल प्रजनन संबंधी ऊतक के संकुचनशील गुणों को दर्शा सकते हैं".
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ऑक्सीटॉसिन
यह ध्यान देना भी महत्वपूर्ण है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में यौन उत्तेजना का परीक्षण करने के लिए अधिक अध्ययन किये गए हैं। स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक लंबे समय तक कामोन्माद का अनुभव करती हैं और उनमें स्पष्ट रूप से निर्धारित चक्रों जैसे कि मासिक धर्म, स्तनपान, रजोनिवृत्ति और गर्भावस्था के साथ एक अधिक जटिल प्रजनन संबंधी अंत:स्रावी प्रणाली होती है। यह और अधिक अवसरों का मापन और यौन उत्तेजना से संबंधित हार्मोनों का परीक्षण करने की अनुमति प्रदान करता है।
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ऑक्सीटॉसिन
ऑक्सीटॉसिन संतोष की भावनाओं, चिंता में कमी, साथी के प्रति शांति और सुरक्षा की भावनाओं को ताजा करता है। पूर्ण कामोन्माद तक पहुंचने के लिए, यह आवश्यक है कि मस्तिष्क प्रदेश व्यवहारवादी नियंत्रण से जुड़े हुए हों, भय और चिंता निष्क्रिय हो जाएं; जो व्यक्तियों को यौन उत्तेजना के दौरान भय और चिंता भूल जाने देता है। कई अध्ययनों ने पहले ही सामाजिक बंधन के साथ ऑक्सीटॉसिन के सहसंबंध, विश्वास में वृद्धि और भय में कमी को दर्शाया है। एक अध्ययन ने यह पुष्टि की है कि ऑक्सीटॉसिन प्लाज्मा स्तरों और वयस्क प्रेमावेशपूर्ण (रोमांटिक) आसक्ति की माप करने वाले एक चिंता संबंधी पैमाने के बीच एक सकारात्मक सहसंबंध था। यह सुझाव देता है कि व्यवहारवादी नियंत्रण, भय और चिंता से जुड़े हुए मस्तिष्क प्रदेशों के अवरोधन के लिए ऑक्सीटॉसिन महत्वपूर्ण हो सकता है, इस प्रकार कामोन्माद उत्पन्न होने देता है।
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ऑक्सीटॉसिन
वैसोप्रेसिन के साथ इसकी समानता के कारण, यह कुछ हद तक मूत्र उत्सर्जन को कम कर सकता है। कई प्रजातियों में, ऑक्सीटॉसिन गुर्दों से सोडियम उत्सर्जन (मूत्र में सोडियम का अधिक उत्सर्जन) को प्रेरित कर सकते हैं और मानवों में, ऑक्सीटॉसिन की उच्च खुराकों के परिणामस्वरूप रक्त में सोडियम के स्तर में कमी हो सकती है।
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ऑक्सीटॉसिन
कुछ कृन्तक प्राणियों के ह्रदय में भी ऑक्सीटॉसिन और ऑक्सीटॉसिन अभिग्राहक पाये जाते हैं और ह्रदय की मांशपेशी संबंधी विभिन्नता को बढ़ावा देकर हार्मोन ह्रदय के भ्रूण संबंधी विकास में भूमिका निभा सकता है। हालांकि, अचेत कर देने वाले प्रहार वाले चूहे में ऑक्सीटॉसिन या या इसके अभिग्राहक की अनुपस्थिति से ह्रदय संबंधी अपर्याप्तताएं उत्पन्न होने की सूचना नहीं मिली है।
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ग्रंथसूची
यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य प्रत्येक ग्रंथ का विवरण देना मात्र है तो सभी ग्रंथ लेखकों के नाम से अकारादि क्रम से रखना उपयुक्त होगा। यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य किसी विषय के इतिहास का विकास बतलाना या किसी प्रसिद्ध लेखक के साहित्यविकास का परिचय देना है तो सभी ग्रंथ कालक्रम (क्रोनोलॉजिकल) अरेंजमेंट से रखे जाने चाहिए। यदि पाठकों को उपयोगी एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों के संबंध में दिशप्रदर्शन करना हो तो ग्रंथसूची के अंत में अकारादि क्रम में विषय अनुक्रमणी (सब्जेक्ट इंडेक्स) देकर ऐसा किया जा सकता है और यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य केवल यह बतलाना है कि विषय पर अब तक कौन कौन से ग्रंथ लिखे जा चुके हैं तथा किस अंग की अभी तक कमी है तो किसी वर्गीकरण पद्धति (क्लासीफिकेशन सिस्टम) के आधार पर संपूर्ण साहित्य को वर्गीकृत क्रम (क्लासफाइड अरेंजमेंट) में रखा जा सकता है। इसी प्रकार यदि ग्रंथसूची में शामिल किए जानेवाले ग्रंथों का महत्व किसी स्थान या भौगोलिक क्षेत्र के कारण है तो सभी साहित्य भौगोलिक क्रम में रखा जा सकता है।
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ग्रंथसूची
ग्रंथसूची के सामान यह अर्थ भी सीमित क्षेत्र में प्रयुक्त होता है। यह अर्थ वस्तुत: मशीन युग से पूर्व तथा मशीन युग के आरंभ में प्रकाशित ग्रंथों के लिये ही मुख्य रूप से प्रयुक्त होता है। आधुनिक काल में वैज्ञानिक यंत्रों का इतना अधिक विकास हो चुका है, तथा मुद्रणकला के क्षेत्र में भी इतनी अधिक प्रगति हो चुकी है कि किसी एक ग्रंथ की लाखों करोड़ों प्रतियाँ बिना किसी शारीरिक श्रम के मुद्रित की जा सकती हैं, साथ ही इस बात की जरा भी संभावना नहीं रहती कि इन प्रतियों में आपस में किसी प्रकार का अंतर होगा। अत: आधुनिक काल में मुद्रित ग्रंथों के 'वर्णन' का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ग्रंथवर्णन से तात्पर्य ग्रंथ के विषयवर्णन से नहीं वरन्‌ ग्रंथ के बाह्य रूप, उसके निर्माण एवं अस्तित्व में आने की विविध क्रियाओं से है।
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ग्रंथसूची
मशीन युग से पूर्व जब ग्रंथ हाथ से लिखे जाते थे, इस बात की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी कि एक ही ग्रंथ की कोई भी दो प्रतियाँ प्रत्येक प्रकार से समान होगी। और तो और, उनका कागज भी एक सा नहीं हो सकता था, फिर लिखावट, चित्रकारी, पैराग्राफ, 'प्रूफ' की अशुद्धियाँ, हाशिया, आदि में तो और भी ज्यादा असमानता रहती थी। मुद्रणकला के आविष्कार के लगभग 100 वर्षों या इससे कुछ अधिक समय बाद तक भी मुद्रणकला का विकास अच्छी तरह नहीं हो पाया था। इस समय भी मुद्रणसंबंधी अधिकांश कार्य मानव शक्ति (हाथ या पैर) द्वारा होते थे। अत: यह स्वाभाविक था कि एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों में कुछ न कुछ अंतर हो। उस काल के छपे ग्रंथों को देखने पर पता चलता है कि एक ही समय और एक ही साथ छपी एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों में कंपोजिंग, मेकअप, प्रूफ, फार्मों की सजावट आदि में आश्चर्यजनक असमानता है।
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ग्रंथसूची
आधुनिक काल में, जबकि प्राचीन काल के हस्तलिखित ग्रंथों और मुद्रणकला के आविष्कार के प्रांरभिक वर्षों में मुद्रित ग्रंथों के संग्रह की ओर कलापारखियों एवं साहित्यिक संस्थाओं का ध्यान आकृष्ट हुआ है तथा हस्तलिखित ग्रंथों के संग्राहक ऊँची ऊँची कीमतों पर प्रसिद्ध लेखकों की पांडुलिपियाँ और उनकी पुस्तकों के प्रारंभिक संस्करण एकत्रित करने लगे हैं, उनकी सुविधा के लिये यह आवश्यक हो गया है कि ऐसी ग्रंथसूचीयाँ तैयार की जायँ जिनमें मूल वर्णन हो। इस वर्णन को देखकर असली और नकली प्रति का भेद आसानी से किया जा सके तथा कलाप्रेमी संग्राहक धोखेबाजों एवं जालसाजों द्वारा ठगे न जा सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि पाश्चात्य देशों में अनेक धोखेबाजों ने प्रसिद्ध लेखकों की पांडुलिपियों की हूबहू नकल कर तथा उनके ग्रंथों के 'जाली प्रथम संस्करण' तैयार कर लाखों-करोड़ों रुपए कमाए हैं। बाद में वस्तुस्थिति की जानकारी होने पर संग्राहकों को हाथ मलकर रह जाना पड़ा है।
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ग्रंथसूची
कलाप्रेमियों एवं संग्राहकों को जालसाजों से बचाने के लिये ग्रंथसूची में जो वर्णन दिया जाता है वह अपने आपमें पूर्ण तथा किसी ग्रंथ की पहचान के लिये पर्याप्त होता है। पाश्चात्य ग्रंथों के वर्णन के लिये वहाँ के विद्वानों ने ग्रंथवर्णन की कुछ विशेष विधियाँ मान्य की हैं। ग्रंथवर्णन वस्तुत: एक प्रकार की सांकेतिक भाषा (कोड) है जिसे केवल अनुभवी ही समझ सकता है।
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ग्रंथसूची
हस्तलिखित ग्रंथों तथा मुद्रित ग्रंथों के लिये अलग अलग विधियाँ तथा नियम हैं। इसी प्रकार ग्रंथसूची के उद्देश्य के अनुसार ग्रंथवर्णन भी कम या अधिक दिया जाता है। यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य मात्र एक 'सूची' ही तैयार करना है तो सूची में शामिल किए जानेवाले ग्रंथों का आवश्यक संक्षिप्त विवरण दिया जाता है, पर यदि ग्रंथसूची का उद्देश्य ग्रंथों का विशद परिचय (विषयपरिचय नहीं) देना होता है तो ग्रंथ के प्रथम पृष्ठ (कवर या जिल्द) से लेकर अंतिम पृष्ठ तक का पूरा विवरण, चित्रों का पूरा विवरण, प्रत्येक पृष्ठ की मुख्य मुख्य विशेषताएँ यदि हों, हाशिया का क्रम, पैराग्राफों का क्रम, कंपोजिंग का क्रम (मुद्रित ग्रंथ में) प्रत्येक पृष्ठ में कितनी पंक्तियाँ हैं, यदि किसी पृष्ठ में कम या अधिक पंक्तियाँ हैं तो इसकी सूचना, कोई पंक्ति यदि किसी विशेष स्थान से प्रारंभ होती हो तो उसका विवरण, आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रत्येक बात का वर्णन, 'ग्रंथ वर्णन' के अंतर्गत आता है। यदि किसी प्राचीन ग्रंथ की दो प्रतियाँ (एक ही स्थान पर या दो अलग अलग स्थानों पर) उपलब्ध हों तो उनकी भौतिक बनावट की आपस में तुलना की जाती है और यदि उनमें कोई अंतर हो तोइस तथ्य का उल्लेख 'ग्रंथवर्णन' में कर इस ओर संग्राहकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। किसी एक ग्रंथ की दो प्रतियों में कोई अंतर होने का अर्थ यह कदापि नहीं कि दोनों में से एक प्रति जाली है। दोनों प्रतियों में अंतर होने पर भी दोनों ही प्रतियाँ असली हो सकती हैं, क्योंकि उनमें अंतर होने के अनेक संभावित कारण हो सकते हैं। ग्रंथवर्णन के प्रसंग में इन कारणों पर विस्तृत रूप से विचार कर किसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना होता है।
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ग्रंथसूची
ग्रंथ की सूची में इस प्रकार का जो विस्तृत ग्रंथवर्णन दिया जाता हैं उससे कलाप्रेमियों, संग्राहकों एवं पुस्तकालयाध्यक्षों को तो सुविधा होती ही है पर उसका उपयोग यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता। साहित्यिक दृष्टि से भी ग्रंथवर्णन का कुछ महत्व रहता है।
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ग्रंथसूची
ग्रंथ तथा इसी प्रकार की अन्य सामग्री, जिसके द्वारा विचारों को व्यक्त किया जाता है, प्राय: रचयिता (लेखक) के विचारों का सही प्रतिरूप नहीं होती। कभी कभी ऐसा होता है कि लेखक अपने विचारों को ठीक-ठीक व्यक्त करने के लिये उपयुक्त शब्द नहीं खोज पाता तथा कभी कभी वह ऐसे शब्दों का भी प्रयोग करता है जिसका अर्थ पाठक या श्रोता की दृष्टि में कुछ और ही होता है। इस संबंध में एक अन्य तथ्य की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।
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ग्रंथसूची
यदि लेखक स्वयं अपने ग्रंथ को मुद्रित करता या उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करता है तब तो किसी प्रकार के भ्रम या गलत शब्द के प्रयोग की संभावना प्राय: नहीं रहती लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। लेखक की कलम एवं मस्तिष्क से प्रसूत कोई ग्रंथ जब मुद्रित रूप में सामने आता है तो उसके उस रूप के लिये लेखक नहीं वरन्‌ कई अन्य व्यक्ति जिम्मेदार होते हैं। इन लोगों का साहित्यिक ज्ञान प्राय: शून्य रहता है तथा जिस विषय के ग्रंथ को वे तैयार कर रहे होते हैं उस विषय से भी वे प्राय: अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसी स्थिति में लेखक के साथ पूरा पूरा न्याय नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है कि लेखक अपनी मूल प्रति (पांडुलिपि) में जो कुछ लिखता है, उसे मुद्रित रूप में देखने पर उसका अर्थ बदलता हुआ नजर आता है। यदि लेखक स्वयं प्रूफ पढ़ने में काफी सावधानी रखकर उस संभावना को बहुत कुछ कम कर दे तथा इस प्रकार अपने विचारों को व्यक्त करने के माध्यम पर थोड़ा बहुत नियंत्रण कर ले, तो भी यह नियंत्रण संपूर्ण रूप से 'त्रुटिहीन' होने का कोई प्रमाण नहीं। वस्तुस्थिति यह है कि लेखक स्वयं ही सब कुछ नहीं करता। स्वयं प्रूफ पढ़ने के बाद भी उसे बाद की क्रियाओं के लिये दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: 'त्रुटि मानव से होती है', इस सिद्धांत के आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के काफी सावधानी रखने पर भी अन्य व्यक्तियों द्वारा कोई गल्ती हो जाने की संभावना बनी रहती है। कई प्रसिद्ध लेखकों ने स्वीकार किया है कि उनके ग्रंथ भौतिक रूप में ठीक वही नहीं हैं जैसी उन्होंने कल्पना की थी। अत: कल्पना और यथार्थ के अंतर को दूर करने के लिये ग्रंथवर्णन की आवश्यकता होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
मल्हारराव के देहांत के पश्चात् उसकी विधवा पुत्रवधू देवी अहिल्याबाई होलकर ने तीस वर्ष तक बड़ी योग्यता से शासन चलया। सुव्यवस्थित शासन, राजनीतिक सूझबूझ, सहिष्णु धार्मिकता, प्रजा के हितचिंतन, दान पुण्य तथा तीर्थस्थानों में भवननिर्माण के लिए ने विख्यात हैं। उन्होंने महेश्वर को नवीन भवनों से अलंकृत किया। सन् १७९५ में उनके देहांत के पश्चात् तुकोजी राव होलकर ने तीन वर्ष तक शासन किया। तदुपरांत उत्तराधिकार के लिए संघर्ष होने पर, अमीरखाँ तथा पिंडारियों की सहायता से यशवंतराव होलकर इंदौर के शासक बने। पूना पर प्रभाव स्थापित करने की महत्वाकांक्षा के कारण उनके और दोलतराव सिंधिया के बीच प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न हो गई, जिसके भयंकर परिणाम हुए। मालवा की सुरक्षा जाती रही। मराठा संघ निर्बल तथा असंगठित हो गया। अंत में होलकर ने सिंधिया और पेशवा को हराकर पूना पर अधिकार कर लिया। भयभीत होकर बाजीराव द्वितीय ने १८०२ में बेसीन में अंग्रेजों से संधि कर ली जो द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का कारण बनी। प्रारंभ में होलकर ने अंग्रेजों को हराया और परेशान किया पर अंत में परास्त होकर राजपुरघाट में संधि कर ली, जिससे उन्हें विशेष हानि न हुई। १८११ में यशवंतराव होलकर की मृत्यु हो गई।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
अंतिम आंग्ल-मराठा युद्ध में परास्त होकर मल्हारराव द्वितीय को १८१८ में मंदसौर की अपमानजनक संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस संधि से इंदौर राज्य सदा के लिए पंगु बन गया। गदर में तुकोजी द्वितीय अंग्रेजी के प्रति वफादार रहे। उन्होंने तथा उनके उत्तराधिकारियों ने अंग्रेजों की डाक, तार, सड़क, रेल, व्यापारकर आदि योजनाओं को सफल बनाने में पूर्ण सहयोग दिया। १९०२ से अंग्रेजों के सिक्के होलकर राज्य में चलने लगे। १९४८ में अन्य देशी राज्यों की भाँति इंदौर भी स्वतंत्र भारत का अभिन्न अंग बन गया और महाराज होलकर को निजी कोष प्राप्त हुआ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
मल्हारराव होलकर (जन्म १६९४, मृत्यु १७६६) ने इन्दौर मे परिवार के शासन कि स्थापना की। उन्होने १७२० के दशक मे मालवा क्षेत्र में मराठा सेनाओं की संभाली और १७३३ में पेशवा ने इंदौर के आसपास के क्षेत्र में ९ परगना क्षेत्र दिये। इंदौर शहर मुगल साम्राज्य द्वारा मंजूर, 3 मार्च १७१६ दिनांक से कंपेल के नंदलाल मंडलोई द्वारा स्थापित एक स्वतंत्र रियासत के रूप में पहले से ही अस्तित्व में था। वे नंदलाल मंडलोई ही थे जिन्होने इस क्षेत्र में मराठों को आवागमन की अनुमती दी और खान नदी के पार शिविर के लिए अनुमति दी। मल्हार राव ने १७३४ में ही एक शिविर की स्थापना की, जो अब में मल्हारगंज के नाम से जाना जात है। १७४७ मे उन्होने अपने राजमहल, राजवाडा का निर्माण शुरू किया। उनकी मृत्यु के समय वह मालवा के ज्यादातर क्षेत्र मे शासन किया और मराठा महासंघ के लगभग स्वतंत्र पाँच शासकों में से एक के रूप में स्वीकार किया गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
उनके बाद उनकी बहू अहिल्याबाई होलकर (१७६७-१७९५ तक शासन किया) ने शासन की कमान संभाली। उनका जन्म महाराष्ट्र में चौंडी गाँव में हुआ था। उन्होने राजधानी को इंदौर के दक्षिण मे नर्मदा नदी पर स्थित महेश्वर पर स्थानांतरित किया। रानी अहिल्याबाई कई हिंदू मंदिरों की संरक्षक थी। उन्होने अपने राज्य के बाहर पवित्र स्थलों में मंदिरों का निर्माण किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
मल्हार राव होलकर के दत्तक पुत्र तुकोजीराव होलकर (शासन: १७९५-१७९७) ने कुछ समय के लिये रानी अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद शासन संभाला। हालांकि तुकोजी राव ने अहिल्याबाई कए सेनापती के रूप मे मंडलोई द्वरा इंदौर की स्थापना के बाद मार्च १७६७ में अपना अभियान शुरु कर दिया था। होलकर १८१८ से पहले इन्दौर मे नही बसे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र यशवंतराव होलकर (शासन: १७९७-१८११) ने शासन की बागडोर संभाली। उन्होने अंग्रेजों की कैद से दिल्ली के मुगल सम्राट शाह आलम को मुक्त कराने का फैसला किया, लेकिन असफल रहे। अपनी बहादुरी की प्रशंसा में शाह आलम ने उन्हे "महाराजाधिराज राजराजेश्वर आलीजा बहादुर" उपाधि से सम्मानित किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%B0
होलकर
यशवंतराव होलकर ने १८०२ में पुणे के निकट हादसपुर में सिंधिया और पेशवा बाजीराव द्वितीय की संयुक्त सेनाओं को हराया। पेशवा अपनी जान बचाकर पुणे से बेसिन भाग निकले, जहां अंग्रेजों ने सिंहासन के लालच के बदले में सहायक संधि पर हस्ताक्षर की पेशकश की। इस बीच, यशवंतराव ने पुणे में अमृतराव को अगले पेशवा के रूप में स्थापित किया। एक महीने से अधिक के विचार - विमर्श के बाद उनके भाई को पेशवा के रूप मे मान्यता मिलने के खतरे को देखते हुए, बाजीराव द्वितीय ने संधि पर हस्ताक्षर किए और अपनी अवशिष्ट संप्रभुता का आत्मसमर्पण किया और जिससे अंग्रेज उसे पूना में सिंहासन पर पुनः स्थापित करें।
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होलकर
महाराजा यशवंतराव होलकर ने जब देखा कि अन्य राजा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते एकजुट होने के लिए तैयार नहीं थे, तब अंततः २४ दिसम्बर १८०५ को राजघाट नामक स्थान पर अंग्रेजों के साथ संधि (राजघाट संधि) पर हस्ताक्षर कर दिये। वे भारत के एक्मात्र ऐसे राजा थे जिन्हे अंग्रेजों ने शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए संपर्क किया था। उन्होने ऐसी किसी भी शर्त को स्वीकार नही किया जिससे उनका आत्म सम्मान प्रभावित होता। अंग्रेजों ने उन्हे एक संप्रभु राजा के रूप में मान्यता प्रदान की और उसके सभी प्रदेश लौटाए। उन्होने जयपुर, उदयपुर, कोटा, बूंदी और कुछ अन्य राजपूत राजाओं पर उनके प्रभुत्व को भी स्वीकार किया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वे होलकर के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। यशवंतराव होलकर एक प्रतिभाशाली सैन्य नेता था, जिन्होने दूसरे आंग्ला-मराठा युद्ध में अंग्रेजों से लोहा लिया था। कुछ शुरुआती जीतों के बाद, वह उन्होंने के साथ शांति संधि की।
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होलकर
१८११ में, महाराजा मल्हारराव तृतीय, ४ वर्ष की उम्र में शासक बने। महारानी तुलसाबाई होलकर ने प्रशासन का कार्यभाल संभाला। हालांकि, धरम कुंवर और बलराम सेठ ने पठानो और पिंढरियों की मदद से अंग्रेजो के साथ मिलकर तुलसाबाई और मल्हारराव को बंदी बनाने का षढयन्त्र रचा। जब तुलसाबाई को इसके बारे में पता चला तो उन्होने १८१५ में उन दोनों को मौत की सजा दी और तांतिया जोग को नियुक्त किया। इस कारण, गफ़्फूर खान पिंडारी ने चुपके से ९ नवम्बर १८१७ को अंग्रेजो के साथ एक संधि की और १९ दिसम्बर १८१७ को तुलसाबाई की हत्या कर दी। अंग्रेजो ने सर थॉमस हिस्लोप के नेतृत्व में, २० दिसम्बर १८१७ को पर हमला कर माहिदपुर की लड़ाई में ११ वर्ष के महाराजा मल्हारराव तृतीय, २० वर्ष के हरिराव होलकर और २० वर्ष की भीमाबाई होलकर की सेना को परास्त किया। होलकर सेना ने युद्ध लगभग जीत ही लिया था लेकिन अंत समय में नवाब अब्दुल गफ़्फूर खान ने उन्हे धोखा दिया और अपनी सेना के साथ युद्ध का मैदान छोड़ दिया। अंग्रेजो ने उसके इस कृत्य के लिये गफ़्फूर खान को जावरा की जागीर दी। ६ जनवरी १८१८ को मंदसौर में संधि पर हस्ताक्षर किए गए। भीमाबाई होलकर ने इस संधि को नहीं स्वीकार किया और गुरिल्ला विधियों द्वारा अंग्रेजो पर हमला जारी रखा। बाद में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भीमाबाई होलकर से प्रेरणा लेते हुये अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़े। इस तीसरे एंग्लो - मराठा युद्ध के समापन पर, होलकर ने अपने अधिकांशतः क्षेत्रों अंग्रेजों को खो दिए और ब्रिटिश राज मे एक रियासत के तौर पर शामिल हुआ। राजधानी को भानपुरा से इंदौर स्थानांतरित कर दिया गया।
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भवभूति
राजतरंगिणी के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन के सभापंडित थे, जिन्हें ललितादित्य ने पराजित किया था। 'गौड़वाहो' के निर्माता वाक्पतिराज भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है।
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भवभूति
भवभूति, पद्मपुर में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। पद्मपुर महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है।
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भवभूति
अपने बारे में संस्कृत कवियों का मौन एक परम्परा बन चुका है, पर भवभूति ने इस परम्परागत मौन को तोड़ा है और अपने तीनों नाटकों की प्रस्तावना में अपना परिचय प्रस्तुत किया है। ‘महावीरचरित’ का यह उल्लेख—
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%B5%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF
भवभूति
अस्ति दक्षिणापथे पद्मपुर नाम नगरम्। तत्र केचित्तैत्तिरीयाः काश्यपाश्चरणगुरवः पंक्तिपावनाः पंचाग्नयो धृतव्रताः सोमपीथिन उदुम्बरनामानो ब्रह्मवादिनः प्रतिवसन्ति। तदामुष्यायणस्य तत्रभवतो वाजपेययाजिनो महाकवेः पंचमः सुगृहीतनाम्नो भट्टगोपालस्य पौत्रः पवित्रकीर्तेर्नीलकण्ठस्यात्मसम्भवः श्रीकण्डपदलांछनः पदवाक्यप्रमाणज्ञो भवभूतानाम जातुकर्णीपुत्रः।....
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भवभूति
(अनुवाद : ‘दक्षिणापथ में पद्मपुर नाम का नगर है। वहाँ कुछ ब्राह्मज्ञानी ब्राह्मण रहते हैं, जो तैत्तिरीय शाखा से जुड़े हैं, कश्यपगोत्री हैं, अपनी शाखा में श्रेष्ठ, पंक्तिपावन, पंचाग्नि के उपासक, व्रती, सोमयाज्ञिक हैं एवं उदुम्बर उपाधि धारण करते हैं। इसी वंश में वाजपेय यज्ञ करनेवाले प्रसिद्ध महाकवि हुए। उसी परम्परा में पाँचवें भवभूति हैं जो स्वनामधन्य भट्टगोपाल के पौत्र हैं और पवित्र कीर्ति वाले नीलकण्ठ के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम जातुकर्णी है और ये श्रीकण्ठ पदवी प्राप्त, पद, वाक्य और प्रमाण के ज्ञाता हैं।)
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भवभूति
’श्रीकण्ठ पदलांछनः भवभर्तिनाम’ इस उल्लेख से यह प्रकट होता है कि श्रीकण्ठ कवि की उपाधि थी और भवभूति नाम था। किन्तु कुछ टीकाकारों का यह विश्वास है कि कवि का नाम नीलकण्ठ था और भवभूति उपाधि थी, जो उन्हें कुछ विशेष पदों की रचना की प्रशंसा में मिली थी। इस पक्ष की पुष्टि में ‘महावीरचरित’ एवं ‘उत्तररामचरित’ के टीकाकर वीर राघव1 ने इस वाक्य की व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत की है—श्रीकण्ठपदं लांछनं नाम यस्य सः। ‘लांछनो नाम-लक्ष्मणोः’ इति रत्नमाला। पितृकृतनामेदम्...भवभूतिर्नाम ‘साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः।’ इति श्लोकरचना सन्तुष्टेन राज्ञा भवभूतिरिति ख्यापितः।''
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भवभूति
इस व्याख्या के अनुसार 'श्रीकण्ठ', भवभूति का नाम था, क्योंकि ‘लांछन’ शब्द नाम का परिचायक है। ‘साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः’—शिव की भस्म से पवित्र निग्रहवाली माता पार्वती तुम्हें पवित्र करें—इस श्लोक की रचना से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें ‘भवभूति’ पदवी से सम्मानित किया।
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भवभूति
जगद्धर ‘मालती माधव’ की टीका में ‘ नाम्ना श्रीकण्ठः; प्रसिद्धया भवभूतिरित्यर्थः’ तथा त्रिपुरारि ने भी इसी नाटक की टीका में ‘भवभूतिरित व्यवहारे तस्येदं नामान्तरम्’ कहकर इसी मत का प्रतिपादन किया है कि श्रीकण्ठ का नाम था और भवभूति प्रसिद्धि तथा व्यवहार का नाम था।
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भवभूति
‘उत्तररामचरित’ के टीकाकार घनश्याम के शब्द ‘भवात् शिवात् भूतिः भस्म सम्पद् यस्य ईश्वरेणैव जाति द्विजरूपेण विभूतिर्दत्ता’—कि स्वयं भव (शिव) ने कवि को अपनी ‘भूति’ प्रदान की, अतः उसे ‘भवभूति’ पुकारा गया, - इसी मत की पुष्टि करते हैं।
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प्राकृत
दूसरा मत यह है कि वेदों की भाषा बोलनेवाले जातियों में ही स्वयं ध्वन्यात्मक भेद थे, जिनके कुछ प्रमाण वेदों में ही उपस्थित है अनुमानत: वेदों की भाषा उस काल की रूढ़िबद्ध वेदभाषा के क्रमविक से अनुमानत: कई हजार वर्षो में संस्कृत भाषा का विकास हुआ, पर विशेषत: सुशिक्षित पुरोहित वर्ग की अपनी भाषा थी, तथा जिसमें धार्मिक कार्यों मे ही उपयोग किया जाता था। उतने ही काल प्राचीनतम वैदिक भाषा की समकालीन जनसाधारण की लोकभाषा से संस्कृत के साथ साथ ही प्राकृत का भी विकास हुआ, जिसमें प्रदेशभेदानुसार नाना भेद थे। इस संबंध में यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि भारत में आर्यों का प्रवेश एक ही काल में एवं एक धारा में हुआ नहीं कहा जा सकता। यदि आगे पीछे आनेवाली आर्य जातियों के भाषाभेद से प्राकृत भाषाओं के उद्गम और विकास व संबंध हो तो आश्चर्य नहीं। इस संबंध में हॉर्नले और ग्रियर्सन के वह मत भी उल्लेखनीय है जिसके अनुसार भारतीय आर्यभाषाएँ दो वर्गो में विभाजित पाई जाती हैं हृ एक बाह्य और दूसरा आभ्यंतर उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व की भाषाओं के उक्त प्रकार दो वर्ग उत्पन्न हो गए। इसे संक्षेप में समझने के लिये महाराष्ट्र प्रदेश के नामों जैसे गोखले, खेर, परांजपे, पाध्ये, मुंजे गोडवोले, तांबे, तथा लंका में प्रचलित नामों जैसे गुणतिलके सेना नायके, बंदरनायक आदि में जो अकारांत कर्ता एक वचन के रूप से ए प्रत्यय दिखाई देता है, वही पूर्व की मागधी प्राकृत मे अपने नियमित स्थिरता को प्राप्त हुआ पाया जाता है। आदि आर्यभाषा मे वैदिक र् के स्थान पर ल् का उच्चारण भी माना गया है, जैसे कुलउ उ श्रोत्र। उसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप वैदिक वृक् के स्थान पर जर्मन भाषासमूह में वुल्फ़ एवं ग्रीक में पृथु का प्लुतुस् पाया जाता है। यह र् के स्थान पर ल् का उच्चाराण ध्वनि मागधी से सुरक्षित हैं, किंतु उसी काल की बोलियों में उनके समीकृत रूप जैसे ओत्त अत्त, सत्त, भी पाए जाते हैं। बोगाजकुई के भिन्न मितन्नि (मैत्रा यणी ?) आर्यशाखा के जो लगभग 200 ई. पू. के लेख मिले हैं उनमें इंद्र और नासत्य देवताओं के नाम इंदर और नासातीय रूप से अंकित हैं। उनमें स्वरभक्ति द्वारा संयुक्त वर्णो के संयुक्त किए जाने की प्रवृत्ति विद्यमान है। वरुण देवता का नाम "उरुवन" रूप में उल्लिखित है जिसमें स्वर के अग्रागम तथा वर्णव्यत्यय की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। ये प्रवृत्तियाँ प्राकृत के सामान्य लक्षण हैं। पालि में प्रयुक्त इध संस्कृत तथा वैदिक के इह से पूर्वकालीन परंपरा का है इसमें भी किसी को कोई संदेह नहीं है। आदि आर्यभाषा में ए तथा ओ के ह्रस्व रूप थे; ऐ और औ का अभाव था; किंतु अइ, अउ जैसे मिश्र स्वर प्रचलित थे; अनुनासिक स्पर्शों का संकोच था; तीन ऊष्मों में केवल एकमात्र स् ही था। ये ध्वन्यात्मक विशेषताएँ प्रधानत: शौरसेनी प्राकृत में सुरक्षित पाई जाती हैं, इत्यादि। इन लक्षणों के सद्भाव का समाधान समुचित रूप से यही मानकर किया जा सकता है कि प्राकृत भाषाओं में उनका आगमन प्राचीनतम आर्य जातियों की बोलियों से अविच्छिन्न परंपरा द्वारा चला आया है। यथार्थत: संस्कृत हो अथवा वैदिक को ही प्राकृत की प्रकृति मान लेने से उक्त लक्षणों का कोई समाधान नहीं होता।
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प्राकृत
तब प्राकृत के वैयाकरणों ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति क्यों कहा? इसका कारण उन व्याकरणों के रचे जाने के काल और उनके स्वरूप पर ध्यान देने से स्पष्टत: समझ मे आ जाता है। वे व्याकरण उस काल में लिखे गए जब विद्वत्समाज में प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत का अधिक प्रचार और सम्मान था। वे लिखे भी संस्कृत भाषा में गए हैं तथा उनका उद्देश्य भी संस्कृत नाटकों में भी प्राकृतिकता रखने के लिए करना पड़ता था और जिनमें उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ भी निर्मित हो चुकी थीं। अतएव उन वैयाकरणों ने संस्कृत को आदर्श ठहराकर उससे जो विशेषताएँ प्राकृत में थीं उनका विवरण उपस्थित कर दिया और इसकी सार्थकता संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहकर सिद्ध कर दी। तथापि नमिसाधु ने अपना यह मत स्पष्ट प्रकट किया है कि प्रकृति का अर्थ लोक या जनता है और जनसाधारण को भाषा होने से ही वह प्राकृत कहलाई। प्रकृति का अर्थ लोक बहुत प्राचीन है तथा कालिदास ने भी उसका लोक के अर्थ में प्रयोग किया है (राजा प्रकृति रंजनात्, रघु. सर्ग, 4)। प्राकृतों की इस अति प्राचीन परंपरा के प्रकाश में इन भाषाओं को वैदिक और संस्कृत की अपेक्षा उत्तरकालीन व मध्ययुगीन कहने का औचित्य भी विचारणीय हो जाता है। उसकी यदि कोई सार्थकता है तो केवल इतनी कि ये भाषाएँ वैदिक और संस्कृत के पश्चात् ही साहित्य में प्रयुक्त हुईं। उनका प्रथम बार धार्मिक प्रचार के लिये उपयोग ई. पू. छठी शती मे श्रमण महावीर और बुद्ध ने किया। तथा उनकी साहित्यिक रचनाओं में शब्दों तथा शैली की दृष्टि से संस्कृत का बड़ा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
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प्राकृत
भाषा जब तक बोली के रूप में रहती है, उसमें देश और काल की अपेक्षा निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। इसी नियम के अनुसार काल के सापेक्ष प्राकृत के तीन स्तर स्वीकार किए गए हैं -
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प्राकृत
श्रमण महावीर और बुद्ध ने जिस भाषा या भाषाओं में अपने उपदेश दिए वे प्राकृत के प्राचीन स्तर के उत्कृष्ट रूप रहे होंगे। उनके उपदेशों की भाषा को क्रमश: मागधी एवं अर्धमागधी कहा गया है। किंतु वर्तमान में पालि कही जानेवाली भाषा के ग्रंथों में हमे मागधी का वह स्वरूप नहीं मिलता जैसा पश्चात्कालीन वैयाकरणों ने बतलाया है। तथापि भाषा का जो स्वरूप बौद्ध त्रिपिटक ग्रंथों में पाया जाता है वह प्राकृत के प्राचीन स्तर का ही स्वीकार किया जाता है। इस स्तर प्राकृत का सर्वत: प्रामाणिक स्वरूप अशोक की शिलाओं और स्तंभो पर उत्कीर्ण धर्मलिपियों में उपलबध होता है। इन शिलाओं की संख्या लगभग 30 है। सौभाग्य से इनमें केवल ई. पूर्व तृतीय शती की प्राकृत भाषा का स्वरूप सुरक्षित है, किंतु उन प्रशस्तियों में तत्कालीन भाषा के प्रादेशिक भेद भी हमें प्राप्त होते हैं। पश्चिमोत्तर प्रदेश में शहबाजगढ़ी और मानसेहरा नामक स्थानों की शिलाओं पर जो 14 प्रशस्तियाँ खुदी हुई पाई गई हैं उनमें स्पर्श वर्णों के अतिरिक्त र् और ल् एवं श् ष् स् ये तीनों ऊष्म प्राय: अपने अपने स्थानों पर सुरक्षित हैं। रकार युक्त संयुक्त वर्ण भी दिखाई देते हैं। किंतु ज्ञ और णय के स्थान पर ंञ का प्रयोग पाया जाता है। इस प्रकार यह भाषा वैयाकरणों की पैशाची प्राकृत का पूर्वरूप कही जा सकती है। ये ही 14 प्रशस्तियाँ उस भाषा को शौरसेनी का प्राचीन रूप प्रकट करती हैं। उत्तर प्रदेशवर्ती कालसी, जौगड़ नछौली नामक स्थानों पर भी वे ही 14 प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इनमें हमें र् के स्थान पर ल् तथा अकारांत संज्ञाओं के कर्ता कारक एक वचन की ए विभक्ति प्राप्त होती है। तथापि तीनों ऊष्मों के स्थान पर श् नहीं किंतु स् का अस्तित्व मिलता है। इस प्रकार यहाँ मागधी प्राकृत के तीन लक्षण नहीं। अतएव इसे मागधी की अपेक्षा अर्धमागधी प्राकृत के तीन लक्षणों में से दो प्रचुर रूप से प्राप्त होते हैं, किंतु सकार संबंधी तीसरा लक्षण नहीं। अतएव इसे मागधी की अपेक्षा अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। अशोक की प्रशस्तियाँ उनके भाषात्मक महत्व के अतिरिक्त साहित्यिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। उनमें प्राचीन भारत (ई. पू. 3री शती) के एक ऐसे सम्राट के नीति, धर्म एवं सदाचार संबंधी विचार और उपदेश निहित हैं जिसने न केवल इस विशाल देश के समस्त भागों पर राजनीतिक अधिकार ही प्राप्त किया था, तथा देश के बाहर भी अलेक्जेंड्रिया तक भिन्न भिन्न देशों से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया था और यहाँ अपने धर्मदूत भी भेजे थे। इस सबके बाहर भी अलेक्जेंड्रिया तक भिन्न भिन्न देशों से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया था और वहाँ अपने धर्मदूत भी भेजे थे। इन सब दृष्टियों से यह साहित्य अपने ढंग का अद्वितीय है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4
प्राकृत
प्राचीन स्तर की प्राकृत का दूसरा उदाहरण उड़ीसा की उदयगिरि खंडगिरि की हाथीगुंफा नामक गुहा में उत्कीर्ण कलिंगसम्राट् खारवेल का लेख है जो अनेक बातों में अशोक के शिलालेखों से समता रखता है। किंतु इसकी अपनी विशेषता यह है कि इसमें उस सम्राट् के वर्षो की विजयों तथा लोककल्याण संबंधी कार्यो का विवरण लिखा गया है। इसका काल अनुमानत: ई. पू. द्वितीय शती है। उसकी भाषा अशोक की गिरनार की प्रशस्तियों से मेल खाती है, अतएव वह प्राचीन शौरसेनी कही जा सकती है। इस प्राकृत का ई. पू. तीसरी शताब्दी मं पश्चिम भारत और उसके सौ, डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् जैन षट्खंडागम आदि ग्रंथों एवं कुंदकुंदाचार्य आदि की दक्षिण प्रदेश की रचनाओं में पाया जाना उसकी तत्कालीन दिग्विजय तथा सार्वभौमिकता का प्रमाण है। उस काल में इतना प्रचार और किसी भाषा का नहीं पाया जाता।
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प्राकृत
इसी प्राचीन स्तर की प्राकृत का प्रयोग हमें अश्वघोष कृत सारिपुत्र प्रकरण आदि नाटकों के उपलब्ध खंडों में प्राप्त होता है। इनमें नायकों तथा एक दो अन्य पात्रों को छोड़कर शेष सभी पात्र प्राकृत बोलते हैं, जिसके तीन रूप स्पष्ट दिखाई देते हैं। सारिपुत्र प्रकरण में दुष्ट की भाषा में र् के स्थान पर ल्, तीनों ऊष्मों के स्थान पर श् तथा अकारांत संज्ञाओं के कर्ताकारक एकवचन के रूप में ए विभक्ति, ये तीन लक्षण स्पष्टत: उस भाग को मागधी सिद्ध करते हैं। यहाँ क् त् आदि अघोष वर्ण न तो ग् द् आदि सघोषों में परिवर्तित हुए मिलते, न थ घ् आदि महाप्राण वर्ण ह् में परिवर्तित हुए मिलते, न थ् घ् आदि महाप्राण वर्ण हृ में परिवर्तित हुए और न दंत्य न् के स्थान पर मूर्धन्य ण दिखाई देता। ये अश्वघोष की प्राकृत के लक्षण उसे प्राचीन स्तर की सिद्ध कर रहे हैं। गोर्व नामक पात्र की भाषा की प्राकृत में र् के स्थान पर स् का प्रयोग हुआ है। ये लक्षण उसे अर्धमागधी सिद्ध कर रहे हैं। नायिका, विदूषक तथा अन्य पात्रों की प्राकृत में र् और ल् अपने अपने स्थानों पर हैं। सब ऊष्म स् के रूपमें पाए जाते हैं तथा कर्ताकारक एकवचन ओकारांत पाया जाता है। इनसे यह भाषा स्पष्टत: प्राचीन शौरसेनी कही जा सकती है।
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प्राकृत
इसके पश्चात् प्राकृत भाषाओं के जो भेद प्रभेद हुए उनका विशद वर्णन भरत नाट्यशास्त्र (अध्याय 17) में प्राप्त होता है। उन्होंने वाणी का पाठ दो प्रकार का माना है- संस्कृत और प्राकृत; तथा कहा है कि प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द प्रचलित हैं- समान (तत्सम), विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी। नाटक में भाषाप्रयोग का विवरण उन्होंने इस प्रकार दिया है - उत्तम पात्र संस्कृत बोलें, किंतु यदि वे दरिद्र हो जाएँ तो प्राकृत बोलें; श्रमण, तपस्वी भिक्षु, स्त्री, बालक, आदि अशुद्ध है। तथापि इतना स्पष्ट है कि उन्होंने क, त, द, य और व के लोप, ख, घ आदि महाप्राण वर्णो के स्थान पर ह का आदेश; ट का ड, अनादि त् का अस्पष्ट द कार उच्चारण; ष्ट, ष्ण आदि का खकार, इन परिवर्तनों का उल्लेख किया है। इससे प्रमाणित है कि वे द्वितीय स्तर की प्राकृत का ही वर्णन कर रहे हैं। 32वें अध्याय में उन्होंने ध्रुवा नामक गीतिकाव्य का विस्तार से उदाहरणों सहित वर्णन किया है और स्पष्ट कहा है कि ध्रुवा में शौरसेनी का ही प्रयोग किया जाना चाहिए (भाषा तु शोरसेनी ध्रुवायाँ संप्रयोजयेत्)। यह बात उनके उदाहरणों से भी प्रमाणित है। अत: पश्चात्कालीन धारणा निर्मूल है कि नाटकों के गेय भाग में महाराष्ट्री का प्रयोग किया जाय। भरत के मत से नाटक में शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया जाय या इच्छानुसार किसी भी देशभाषा का। ऐसी देशभाषाएँ सात हैं - मागधी, आवंती, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका और दक्षिणात्या। अंत:पुर निवासियों के लिये मागधी; चेट, राजपुत्र और सेठों के लिये अर्घमागधी; विदूषकादि के लिये प्राच्या; नायिका एवं सखियों के लिये अर्धमागघी; विदूषकादि के लिये प्राच्या; नायिका एवं सखियों के लिये शौरसेनी से अविरुद्ध आवंती; योद्धा, नागरिक तथा जुआरियों के लिये दाक्षिणात्या; तथा उदीच्य, खस, शबर, शक आदि जातियों के लिये वाह्लीका का प्रयोग करें। इनके अतिरिक्त भरत ने शबर, आभीर, चांडाल आदि की हीन भाषाओं को विभाशा कहा है। इस प्रकार भरत के नाटक के पात्रों में जो प्राकृत भावनाओं का बँटवारा किया है उसका संस्कृत के नाटकों में आंशिक रूप से ही पालन किया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4
प्राकृत
संस्कृत नाटकों में सबसे अधिक प्राकृत का उपयोग और वैचित्र्य शूद्रक कृत मृच्छकटिकम् में मिलता है। पिशल, कीथ विद्वानों आदि के मतानुसार तो मृच्छकटिक की रचना का उद्देश्य ही प्राकृत सम्बन्धी नाट्यशास्त्र के नियमों को उदाहृत करना प्रतीत होता है। इस नाटक के टीकाकार पृथ्वीधर के मतानुसार नाटक में चार प्रकार की प्राकृत का ही प्रयोग किया जाता है - शौरसेनी, अवंतिका, प्राच्य और मागधी। प्रस्तुत नाटक में सूत्रधार, नटी, नायिका वसंतसेना, चारुदत्त की ब्राह्मणी स्त्री एवं श्रेष्ठी तथा इनके परिचारक परिचारिकाऐं ऐसे 11 पात्र शौरसेनी बोलते हैं। आवंती भाषा बोलनेवाले केवल दो अप्रधान पात्र हैं। प्राच्य भाषा केवल विदूषक बोलता है; तब कुंज, चेटक, भिक्षु और चारुदत्त का पुत्र कुल छह पात्र मागधी बोलते हैं इनके अतिरिक्त शकारि, चांडाली तथा ढक्की के भी बोलनेवाले एक एक दो दो पात्र हैं। किंतु यदि इन सब पात्रों की भाषा का विश्लेषण किया जाए तो वे सब केवल दो भागों में बाँटी जा सकती हैं - शौरसेनी और मागघी। टीकाकार ने स्वयं कहा है कि आवंती में केवल रकार व लोकोक्तियों का बाहुल्य होता है और प्राच्या में स्वार्थिक ककार का। अन्य बातों में वे शौरसेनी ही हैं। शकारी, चांडाली तथा ढक्की सब मागधी की ही शैलियाँ है। इस प्रकार नामचार का प्राकृत बाहुल्य होने पर भी वस्तुत: मृच्छकटिक में अश्वघोष के नाटकों की अपेक्षा कोई अधिक भाषाभेद नहीं दिखाई देता। प्राकृत का स्वरूप कालगति से विशेष विकसित हो गया है और उसमें कुछ ऐसे लक्षण आ गए हैं जिनके कारण इस प्राकृत को प्राचीन स्तर की अपेक्षा द्वितीय स्तर की कहा जाता है। इसी स्तर की प्राकृत तथा उसके देशभेदों का विवरण हमें उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों में मिलता है और उन्हीं का विपुल साहित्य भी विद्यमान है।
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प्राकृत
द्वितीय स्तर की प्राकृत का सर्वप्राचीन व्याकरण चंडकृत प्राकृत लक्षण या आर्ष प्राकृत व्याकरण है। यह अति संक्षिप्त है और केवल 99 सूत्रों में प्राकृत की विधियों का निरूपण कर दिया गया है। इस स्तर की विशेषता बतलाने वाले सूत्र ध्यान देने योग्य हैं। सूत्र 76 के अनुसार वर्गो के प्रथम क् च् ट् त् आदि वर्णों के स्थान पर तृतीय का आदेश होता है, जैसे, पिशाची -- बिसाजी, जटा -- डटा, कृतं -- कदं, प्रतिसिद्ध -- पदिसिद्धं। सूत्र 77 के अनुसार ख् घ् च् और भ के स्थान में हकार का आदेश जैसे- मुखं -- मुहं, मेघ: -- नेहो, माधव: -- माहवो, वृषभ: -- वसहो। सूत्र 97 के अनुसार क् तथा वर्गों के तृतीय वर्णो (ग् ज् आदि) का स्वर के परे लोप होता है, जैसे - कोकिल: -- कोहली, भौगिक: -- भोइओ, राजा -- राया, नदी -- नई। सूत्र 98 के अनुसार लुप्त व्यंजन के परे अ होने पर य होता है, जैसे - काकाऊ कायाऊ, नानाऊ नाया, राजाऊ राया। अंतिम 99वें सूत्र में कहा गया है कि प्राकृत की शेष व्यवस्था शिष्ट प्रयोगों से जाननी चाहिए। इनसे आगे के चार सूत्रों में अपभ्रंश का लक्षण, संयुक्त वर्ण से लकार का लोप न होना, पेशाची का र् और ण् के स्थान पर ल् और न का आदेश, मागधिका का र् और स् के स्थान पर ल् और श् का आदेश, तथा शौरसेनी का त् के स्थान में विकल्प से द् का आदेश बतलाया गया है। भाषाशास्त्रियों का मत है कि द्वितीय स्तर के आदि मे क आदि अबोध वर्णों के स्थान पर ग् आदि सघोष वर्णो का उच्चारण होने लगा। फिर इनकी अल्पतर ध्वनि शेष रही और फिर सर्वथा लोप हो गया, तथा महाप्राण ध्वनियों के स्थान पर केवल एक शुद्ध ऊष्म ध्वनि ह् अवशिष्ट रह गई। ये प्रवृत्तियाँ तथा उक्त आर्ष व्याकरण में निर्दिष्ट य श्रुति विकल्प से समस्त जैन प्राकृत है। किंतु पश्चात्कालीन 16वीं, 17वीं शती के प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृतों के निरूपण में जो भ्रांतियाँ उत्पन्न की हैं, उनके आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य की प्राकृतों को उक्त विकल्पों के सद्भाव के कारण जैन शौरसेनी तथा जैन महाराष्ट्री नामों द्वारा पृथक् निर्दिष्ट करना आवश्यक समझा, यह ऐतिहासिक दृष्टि से वास्तविक नहीं है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%95
जलोढ़क
जलोढ़क से भरी मिट्टी को जलोढ़ मृदा या जलोढ़ मिट्टी कहा जाता है। जलोढ़ मिट्टी प्रायः विभिन्न प्रकार के पदार्थों से मिलकर बनी होती है जिसमें गाद (सिल्ट) तथा मृत्तिका के महीन कण तथा बालू तथा बजरी के अपेक्षाकृत बड़े कण भी होते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%95
जलोढ़क
जलोढ़ का गठन धारा के साथ गतिशील जल प्रवाह के निरंतर संपर्क के परिणामस्वरूप होता है: काटने (तल और पार्श्व क्षरण) और तलछट का संग्रह पानी की धारा की कार्रवाई के तहत। धारा लगातार तीन प्रकार के विरूपण के दौर से गुज़रती है :
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%95
जलोढ़क
क्षैतिज (पार्श्व क्षरण के प्रभाव के तहत योजना में नदी का परिवर्तन-तट के क्षरण, नदी घाटी के विस्तार और बाढ़ के मैदान का निर्माण होता है )
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%95
जलोढ़क
अनुदैर्ध्य (चैनल जमाओं का प्रवास असमानताओं के निर्माण की ओर जाता है-चट्टानों, घाटियों, द्वीपों आदि)।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%95
जलोढ़क
जलोढ़ जमाओं के गठन में प्रमुख कारक जल धाराओं की द्रवगतिकी है। पानी का वजन और प्रवाह वेग गतिज ऊर्जा और परिवहन प्रवाह क्षमता निर्धारित करते हैं। नदी के पानी में भारित और ड्रैगिंग तलछट के रूप में नाजुक सामग्री बहती है। भारित (ओवरस्टेटेड) राज्य कणों में व्यास में 0.2 मिमी से भी कम दूरी पर पहुंचाया जाता है, बड़ा-नीचे के साथ ड्राइंग करके। तल में मोटे-शाफ्ट सामग्री के आंदोलन की विधि को वाहक माध्यम की कार्रवाई के तहत सामग्री के अनाज के घोल- भ्रष्ट आंदोलन कहा जाता है। इस प्रकार, तल प्रवाह 0.16 एम/एस की गति के लिए, नीचे ठीक रेत, 0.22 मीटर / एस - मोटे हुए रेत, और 1 एम/छोटी बजरी के लिए परिवहन किया जाता है।
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जलोढ़क
कॉन्टिनेंटल जलोढ़ जमा एक नदी के बिस्तर, बाढ़ के मैदान और नदी के घाटियों के छतों हैं। अधिकांश महाद्वीपीय तलछटी संरचनाओं की भूवैज्ञानिक संरचना में ऑल्युवियम महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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जलोढ़क
प्रवाह के दौरान बाढ़ या बाढ़ जब तटीय परे नदी ताक और मिट्टी, गाद और महीन रेत पूरी सतह पर जमा फ्लडप्लेन के (फ्लडप्लेन गठन मुखाकृति)
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जलोढ़क
नदियों द्वारा प्रवाहित सूक्ष्म कंकड़ों वाली ठोस सामग्री(ठोस ढेर) की संख्या अत्यंत ऊंचे अंकों तक पहुँच जाता है, इस मामले में मिसिसिपी का अनुमानित वार्षिक ठोस प्रवाह 406 मिलियन टन, है। पीली नदी का 796 मिलियन टन, अमू दरिया-94 करोड़ टी मीटर डेन्यूब- 82; कुरा-36; वोल्गा और अमूर- 25, ओब और लीना- 15, कुबान - 8, डॉन- 6 नीसतर- 4.9; नेवा- 0.4 मिलियन टन। तदनुसार, मिसिसिपी जैसी नदियों के डेल्टा में जलोढ़ जमा की क्षमता, नील नदी, अमेज़न, कांगो, हुआंगहे, वोल्गा और अन्य। सैकड़ों और हजारों मीटर और वॉल्यूम - दसियों और सैकड़ों किलोमीटर 3 भूकंपी सामग्री है कुल मिलाकर, सभी नदियों फर्म की वार्षिक प्रवाह के बारे में 17 अरब टन है, जो बहुत अधिक है महाद्वीपीय से हटा से है हिमनद या पवन। इस मात्रा का लगभग 96% डेल्टा और महाद्वीपीय शेल्फ पर जमा किया गया है।
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जलोढ़क
भारत में, उत्तर के विस्तृत मैदान तथा प्रायद्वीपीय भारत के तटीय मैदानों में मिलती है। यह अत्यंत ऊपजाऊ है इसे जलोढ़ या कछारीय मिट्टी भी कहा जाता है यह भारत के 43% भाग में पाई जाती है| यह मिट्टी सतलुज, गंगा, यमुना, घाघरा,गंडक, ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों द्वारा लाई जाती है| इस मिट्टी में कंकड़ नही पाए जाते हैं। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और वनस्पति अंशों की कमी पाई जाती है| खादर में ये तत्व भांभर की तुलना में अधिक मात्रा में विद्यमान हैं, इसलिए खादर अधिक उपजाऊ है। भांभर में कम वर्षा के क्षेत्रों में, कहीं कहीं खारी मिट्टी ऊसर अथवा बंजर होती है। भांभर और तराई क्षेत्रों में पुरातन जलोढ़, डेल्टाई भागों नवीनतम जलोढ़, मध्य घाटी में नवीन जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है। पुरातन जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र को भांभर और नवीन जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र को खादर कहा जाता है।
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इंफोसिस
इन्फोसिस लिमिटेड (, ) एक बहुराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सेवा कम्पनी मुख्यालय है जो बेंगलुरु, भारत में स्थित है। यह एक भारत की सबसे बड़ी आईटी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 जून 2008 को (सहायकों सहित) 94,379 से अधिक पेशेवर हैं। इसके भारत में 9 विकास केन्द्र हैं और दुनिया भर में 30 से अधिक कार्यालय हैं। वित्तीय वर्ष|वित्तीय वर्ष २००७-२००८ के लिए इसका वार्षिक राजस्व US$4 बिलियन से अधिक है, इसकी बाजार पूंजी US$30 बिलियन से अधिक है। 24 अगस्त 2021 को, इंफोसिस बाजार पूंजीकरण में $100 बिलियन तक पहुंचने वाली चौथी भारतीय कंपनी बन गई।
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इंफोसिस
इन्फोसिस की स्थापना २ जुलाई, १९८१ को पुणे में एन आर नारायण मूर्ति के द्वारा की गई। इनके साथ और छह अन्य लोग थे: नंदन निलेकानी, एनएसराघवन, क्रिस गोपालकृष्णन, एस डी.शिबुलाल, के दिनेश और अशोक अरोड़ा, राघवन के साथ आधिकारिक तौर पर कंपनी के पहले कर्मचारी.मूर्ति ने अपनी पत्नी सुधा मूर्ति (Sudha Murthy) से 10,000 आई एन आर लेकर कम्पनी की शुरुआत की। कम्पनी की शुरुआत उत्तर मध्य मुंबई में माटुंगा में राघवन के घर में "इन्फोसिस कंसल्टेंट्स प्रा लि" के रूप में हुई जो एक पंजीकृत कार्यालय था।
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इंफोसिस
2001 में इसे बिजनेस टुडे के द्वारा "भारत के सर्वश्रेष्ठ नियोक्ता " की श्रेणी में रखा गया। इन्फोसिस ने वर्ष 2003, 2004 और 2005, के लिए ग्लोबल मेक (सर्वाधिक प्रशंसित ज्ञान एंटरप्राइजेज) पुरस्कार जीता। यह पुरस्कार जीतने वाली यह एकमात्र कम्पनी बन गई और इसके लिए इसे ग्लोबल हॉल ऑफ फेम में प्रोत्साहित किया गया।
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इंफोसिस
2002 में, पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के (University of Pennsylvania) व्हार्टन बिजनेस स्कूल (Wharton Business School) और इन्फोसिस ने व्हार्टन इन्फोसिस व्यवसाय रूपांतरण पुरस्कार (Wharton Infosys Business Transformation Award) की शुरुआत की। यह तकनीकी पुरस्कार उन व्यक्तियों और एंटरप्राइजेज को मान्यता देता है जिन्होंने अपने व्यापार और समाज की सूचना प्रौद्योगिकी को रूपांतरित कर दिया है। पिछले विजेताओं में शामिल हैं सैमसंग (Samsung), Amazon.com (Amazon.com), केपिटल वन (Capital One), आरबीएस (RBS) और ING प्रत्यक्ष (ING Direct).
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इंफोसिस
अनुसंधान के मामले में इन्फोसिस के द्वारा की गई एक मुख्य पहल यह है कि इसने एक कोर्पोरेट R&D (R&D) विंग का विकास किया है जो सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग तथा प्रौद्योगिकी प्रयोगशाला (SETLabs) कहलाती है। SETLabs की स्थापना 2000 में हुई। इसे प्रक्रिया में विकास के लिए अनुसंधान हेतु, प्रभावी ग्राहक आवश्यकताओं के लिए ढांचों और विधियों हेतु और एक परियोजना के जीवन चक्र के दौरान सामान्य जटिल मुद्दों को सुलझाने के लिए स्थापित किया गया।
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इंफोसिस
इन्फोसिस समान स्तर के समूहों की समीक्षा का त्रैमासिक जर्नल प्रकाशित करती है जो SETLabs Briefings कहलाता है, इसमें SETLabs के शोधकर्ताओं के द्वारा विभिन्न वर्तमान और भविष्य की व्यापार रूपांतरण तकनीक प्रबंधन विषय पर लेख लिखे जाते हैं। इन्फोसिस के पास एक आर एफ आई डी और व्यापक कम्प्यूटिंग प्रौद्योगिकी प्रथा है जो अपने ग्राहकों को आरएफआईडी (RFID) और बेतार सेवाएं उपलब्ध कराती हैं। इन्फोसिस ने मोटोरोला के साथ Paxar के लिए एक आरएफआईडी इंटरैक्टिव बिम्ब का विकास किय है।
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इंफोसिस
SETLabs ने व्यापार मॉडलिंग, प्रौद्योगिकी और उत्पाद नवीनता के क्षेत्रों में पाँच से छः आधारभूत ढांचों का निर्माण किया है।
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इंफोसिस
भारत: बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, चेन्नई, भुवनेश्वर, मेंगलोर, मैसूर, मोहाली (Mohali), तिरुवनंतपुरम, चंडीगढ़, कोलकाता (प्रस्तास्वित और अब सुनिश्चित), विशाखापटनम (Vishakapatnam) (प्रस्तावित)
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इंफोसिस
संयुक्त राज्य अमरीका: अटलांटा (GA), Bellevue (WA) (Bellevue (WA)), Bridgewater (NJ) (Bridgewater (NJ)), चारलोटे (NC) (Charlotte (NC)), साउथ फील्ड (MI) (Southfield (MI)), फ्रेमोंट (CA) (Fremont (CA)), हौस्टन (TX), ग्लेसटोनबरी (CT) (Glastonbury (CT)), लेक फॉरेस्ट (CA) (Lake Forest (CA)), Lisle (IL) (Lisle (IL)), New York, Phoenix (AZ) (Phoenix (AZ)), Plano (TX) (Plano (TX)), Quincy (MA) (Quincy (MA)), Reston (VA) (Reston (VA))
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दुग्धपायन
दुग्धपान या दुग्धस्रवन या लैक्टेशन, स्तन ग्रंथि से दूध निकलने, उस दूध को बच्चे को पिलाने की प्रक्रिया तथा एक माँ द्वारा अपने बच्चे को दूध पिलाने में लगने वाले समय को वर्णित करता है। यह प्रक्रिया सभी मादा स्तनपायी प्राणियों में होती है और मनुष्यों में इसे आम तौर पर स्तनपान या नर्सिंग कहा जाता है। अधिकांश प्रजातियों में माँ के निपल्स से दूध निकलता है; हालाँकि, प्लैटिपस (एक गैर-गर्भनालीय स्तनपायी प्राणी) के पेट की नलिकाओं से दूध निकलता है। स्तनपायी प्राणियों की केवल एक प्रजाति दयाक फ्रूट चमगादड़ में दूध उत्पन्न करना नर का एक सामान्य कार्य है। कुछ अन्य स्तनपायी प्राणियों में हार्मोन के असंतुलन की वजह से नर दूध उत्पन्न कर सकते हैं। इस घटना को नवजात शिशुओं में भी देखा जा सकता है (उदाहरण के लिए डायन का दूध (विचेज मिल्क))।
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दुग्धपायन
गैलक्टोपोइएसिस दूध उत्पादन को बनाये रखने को कहते हैं। इस चरण में प्रोलैक्टिन (पीआरएल) और ऑक्सीटोसिन की जरूरत पड़ती है।
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दुग्धपायन
लैक्टेशन का मुख्य कार्य जन्म के बाद बच्चों को पोषण और प्रतिरक्षा संरक्षण देना है। लगभग सभी स्तनधारियों में, लैक्टेशन बाँझपन की एक अवधि को जन्म देता है जो संतान के जीवित रहने के लिए इष्टतम जन्म अंतराल प्रदान करने का काम करता है।
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दुग्धपायन
गर्भावस्था के चौथे महीने (दूसरी और तीसरी तिमाही) से मादा या महिला का शारीर हार्मोन उत्पन्न करने लगता है जो स्तनों में दुग्ध नलिका तंत्र के विकास को उत्तेजित कर देता है:
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दुग्धपायन
प्रोजेस्टेरोन — यह वायुद्वार और पालि के आकार में होने वाली वृद्धि को प्रभावित करता है। जन्म के बाद प्रोजेस्टेरोन का स्तर गिरने लगता है। यह प्रचुर परिमाण में दूध उत्पादन की शुरुआत में तेजी लाता है।
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दुग्धपायन
ओएस्ट्रोजेन — यह दूध नलिका तंत्र को बढ़ने और विशिष्ट रूप धारण करने में मदद करती है। प्रसव के समय ओएस्ट्रोजेन का स्तर भी गिर जाता है और स्तनपान के पहले कई महीनों तक इसका स्तर नीचे ही रहता है। ऐसा सुझाव दिया जाता है कि स्तनपान कराने वाली माताओं को ओएस्ट्रोजेन आधारित जन्म नियंत्रण विधियों से बचना चाहिए क्योंकि एस्ट्रोजेन के स्तर में क्षणिक परिवर्तन से भी माता की दूध आपूर्ति में गिरावट आ सकती है।
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दुग्धपायन
ऑक्सीटोसिन — यह जन्म के दौरान और उसके बाद और सम्भोग सुख के दौरान गर्भाशय की कोमल मांसपेशियों को सिकोड़ देता है। जन्म के बाद ऑक्सीटोसिन नलिका तंत्र में नवनिर्मित दूध को निचोड़ने के लिए वायुद्वार के चारों तरफ बैंड जैसी कोशिकाओं की कोमल मांसपेशियों की परत को सिकोड़ देता है। ऑक्सीटोसिन दूध निष्कासन प्रतिक्रिया या त्याग के लिए जरूरी है।
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दुग्धपायन
मानव गर्भनालीय लैक्टोजेन (एचपीएल) — गर्भावस्था के दूसरे महीने से गर्भनाल से काफी मात्रा में एचपीएल निकलने लगता है। यह हार्मोन जन्म से पहले स्तन, निपल और एरिओला अर्थात् चूसनी या निपल के आसपास गोल घेरे के विकास में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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दुग्धपायन
गर्भावस्था के पांचवें या छठवें महीने तक स्तन दूध उत्पन्न करने के लिए तैयार हो जाते हैं। गर्भावस्था के बिना भी लैक्टेशन को प्रेरित किया जा सकता है।
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प्रत्यास्थता
यांत्रिकी में प्रत्यास्थता (elasticity) पदार्थों के उस गुण को कहते हैं जिसके कारण उस पर वाह्य बल लगाने पर उसमें विकृति (deformation) आती है परन्तु बल हटाने पर वह अपनी मूल स्थिति में आ जाता है।
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प्रत्यास्थता
यदि वाह्यबल के परिमाण को धीरे-धीरे बढ़ाया जाय तो विकृति समान रूप से बढ़ती जाती है, साथ ही साथ आंतरिक प्रतिरोध भी बढ़ता जाता है। किन्तु किसी पदार्थ पर एक सीमा से अधिक बल लगाया जाय तो उस वाह्य बल को हटा लेने के बाद भी पदार्थ पूर्णत: अपनी मूल अवस्था में नहीं लौट पाता; बल्कि उसमें एक स्थायी विकृति शेष रह जाती है। पदार्थ की इसी सीमा को प्रत्यास्थता सीमा (Limit of elasticity या Elastic limit) कहते हैं। आंकिक रूप से स्थायी परिवर्तन लानेवाला, इकाई क्षेत्र पर लगनेवाला, न्यूनतम बल ही "प्रत्यास्थता सीमा" (Elastic limit) कहलाता है। प्रत्यास्थता की सीमा पार चुके पदार्थ को सुघट्य (Plastic) कहते हैं।
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प्रत्यास्थता
प्रत्यास्थता सीमा के भीतर, विकृति वस्तु में कार्य करनेवाले प्रतिबल की समानुपाती होती है। यह एक प्रायोगिक तथ्य है एवं हुक के नियम (Hooke's law of elasticity) के नाम से विख्यात है।
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