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20231101.hi_29521_12
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राष्ट्रकुल
राष्ट्रमंडल सचिवालय, राष्ट्रमंडल की मुख्य अंतर सरकारी एजेंसी और केंद्रीय कार्यकारी संस्थान है। यह सदस्य देशों के बीच सहयोग की सुविधा के लिए जिम्मेदार है; राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक सहित अन्य बैठकों का आयोजन; नीति विकास पर सहायता और सलाह देना; तथा राष्ट्रमंडल के निर्णयों और नीतियों को लागू करने में सदस्य देशों को सहायता प्रदान करना इसकी ज़िम्मेदारियाँ हैं।
1
3,435.646959
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राष्ट्रकुल
राष्ट्रमंडल सचिवालय को संयुक्त राष्ट्र महासभा में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है। सचिवालय का मुख्य कार्यालय लंदन, यूनाइटेड किंगडम के मार्लबोरो हाउस में स्थित है, जो ब्रिटिश संप्रभु का पूर्व शाही निवास था, जिसे राष्ट्रमंडल के प्रमुख के नाते, महारानी एलिजाबेथ द्वितीय द्वारा सचिवालय को दिया गया था।
0.5
3,435.646959
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राष्ट्रकुल
राष्ट्रमंडल सचिवालय के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी होते हैं इसके राष्ट्रमंडल के महासचिव, जो राष्ट्रमंडकल के तमाम कार्यों और सचिवालय की ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए ज़िम्मेरदार हैं। महासचिव को राश्रमण्डल शासनप्रमुखों द्वारा चुना जाता है, तथा अधिकतम दो चार-वर्षीय कार्यकालों के लिए नियुक्त किया जाता है। महासचिव के अंतर्गत दो डिप्टी महासचिव सचिवालय के विभागों को निर्देशित करते हैं।
0.5
3,435.646959
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राष्ट्रकुल
राष्ट्रमंडल के सदस्य देशों के बीच राजनयिक मिशनों को दूतावास नहीं कहकर उच्चायोग कहा जाता है, क्योंकि राष्ट्रमंडल देश के बीच एक विशेष राजनयिक संबंध होता है जिसके वजह से आम तौरपर यह उम्मीद की जाती है कि किसी गैर-राष्ट्रमंडल देश में किसी भी राष्ट्रमंडल देश का दूतावास सभी अन्य राष्ट्रमंडल देशों के नागरिकों को राजनयिक सेवाएं प्रदान करने की पूरी कोशिश करेगा, भले ही उस व्यक्ति के देश का दूतावास वहां नहीं हो। इस लिहाज़ से कनाडा-ऑस्ट्रेलिया कॉन्सुलर सर्विसेज शेयरिंग एग्रीमेंट में उल्लिखित कनाडाई और ऑस्ट्रेलियाई नागरिक अपनी संबंधित कांसुलर सेवाओं के बीच और भी अधिक सहयोग का आनंद ले सकते हैं।
0.5
3,435.646959
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राष्ट्रकुल
चूंकि सोलह राष्ट्रमंडल देशों (जिन्हें राष्ट्रमंडल प्रजाभूमि के रूप में जाना जाता है) में एक ही राष्ट्रप्रमुख होता है (वर्तमान में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय), अतः इन देशों के बीच राजनयिक संबंध परंपरागत रूप से सरकारी स्तर पर ही होते हैं, नकी राजकीय स्तर पर। हालाँकि उच्चायुक्त को किसी राजदूत के पद और भूमिका के बराबर माना जाता है।
0.5
3,435.646959
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बेरीबेरी
(2) सममित बहुतंत्रिका शोथ, विशेषकर पैरों में, जो आगे चलकर अपक्षयी पक्षाघात, संवेदनहीनता और चाल में गतिभंगता लाता है (शुष्क बेरीबेरी)
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
विटामिन वर्ग में बी1 तंत्रिकाशोथ अवरोधी होता है और यह उसना चावल, कुटे और पालिश किए चावल में कम पाया जाता है। मशीन से पॉलिश करने में भूसी के साथ चावल के दाने का परिस्तर और अंकुर भी निकल जाता है और इसी भाग में बी1 प्रचुर मात्रा में होता है। पालिश किया चावल, सफेद आटा और चीनी में विटामिन बी1 नहीं होता। मारमाइट खमीर, अंकुरित दालों, सूखे मेवों और बीजों में बी1 बहुत मिलता है। अब संश्लिष्ट बी1 भी प्राप्य है। बी1 से शरीर में को-कार्बोक्सिलेज बनता है, जो कार्बोहाइड्रेट के चयापचय में उत्पन्न पाइरूविक अम्ल को ऑक्सीकरण द्वारा हटाता है। रक्त तथा ऊतियों में पाइरूविक अम्ल की मात्रा बढ़ने पर बेरीबेरी उत्पन्न होता है। यह बात रक्त में इस अम्ल की मात्रा जाँचने से स्पष्ट हो जाती है। इसकी सामान्य मात्रा 0.4 से 0.6 मिलीग्राम प्रतिशत है, जबकि बेरी बेरी में यह मात्रा बढ़कर 1 से 7 मिलिग्राम प्रतिशत तक हो जाती है। इस दशा में यदि पाँच मिलीग्राम बी1 दे दिया जाए, तो 10 से 15 घंटे में अम्ल की मात्रा घटकर समान्य स्तर पर आ जाती है। बी1 का अवशोषण शीघ्र होता है और सीमित मात्रा में यकृत, हृदय तथा वृक्क में इसका संचय होता है। इसी कारण कमी के कुछ ही सप्ताह बाद रोग उत्पन्न होता है।
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
एशिया में जहाँ पालिश किया हुआ सफेद चावल (छिलके के नीचे का पतला, लाल छिलका हटाया हुआ चावल) खाने की प्रथा थी वहाँ यह रोग आमतौर पर मौजूद रहता था। सन् १८८४ में ब्रितानी जलसेना में प्रशिक्षित तकाकी कानेहिरो नामक एक जापानी डाक्टर ने यह पाया कि जो लोग चावल खाते हैं उन्हें यह रोग अधिक था जबकि पश्चिम के देशों के नाविकों (जो चावल के बजाय अन्य चीजें खाते थे) को यह बहुत कम होता था।
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
आर्द्र बेरीबेरी में ग्रहणी और आमाशय के निम्न भाग की श्लैश्मिक कला में तीव्र रक्तसंकुलता होती है और कभी-कभी इससे छोटे-छोटे रक्तस्त्राव भी होते हैं। परिधितंत्रिकाओं में अपकर्ष होता है। हृदय की मांसपेशियों में अपकर्षी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, विशेषकर दाईं ओर जहाँ वसीय अपकर्ष होता है। अपकर्ष के कारण यकृत का रूप जायफल सा हो जाता है। कोमल ऊतकों में शोथ तथा सीरस गुहाओं में निस्सरण होता है।
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
विटामिन बी1 की क्षीणता आरंभ होने के दो तीन मास बाद बेरी बेरी के लक्षण प्रकट होते हैं : बहुतंत्रिकाशोथ, धड़कन के दौरे, दु:श्वास तथा दुर्बलता। रोग जिस तंत्रिका को पकड़ता है उसी के अनुसार अन्य लक्षण प्रकट होते हैं। बेरीबेरी बार-बार हो सकती है।
1
3,429.487536
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बेरीबेरी
(1) सूक्ष्म (ऐंबुलेटरी) : इसमें रोगी सचल रहता है। पैर सुन्न होना, विभिन्न स्थलों का संवेदनाशून्य होना तथा जानु झटके में कमी इसके लक्षण हैं और आहार में बी1 युक्त भोजन का समावेश होने से रोग गायब हो जाता है।
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
(2) तीव्र विस्फोटक बेरी बेरी : यह सहसा आरंभ होती है। भूख बंद हो जाती है, उदर के ऊपरी भाग में कष्ट, मिचली, वमन, पैरों के सामने के हिस्से में संवेदनशून्यता और विकृत संवेदन, संकुलताजन्य हृदय विफलता, पक्षाघात और तीव्र हृदयविफलता के कारण कुछ घंटों से लेकर कुछ ही दिनों तक के अंदर मृत्यु।
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
(3) उपतीव्र या आर्द्र बेरी बेरी : इसमें विकृत संवेदन, हाथ में भारीपन, जानु झटके में आरंभ में तेजी और तब शिथिलता या पूर्ण रूप से अभाव। पिंडली में स्पर्शासह्यता, संवेदना का कुंद होना, अतिसंवेदन या संवेदनशून्यता, दुर्बलता, उठकर खड़े होने की असमर्थता, पैरों पर शोथ, दु:श्वास, श्वासाल्पता, धड़कन आदि लक्षण होते हैं।
0.5
3,429.487536
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बेरीबेरी
(4) जीर्ण या शुष्क बेरी बेरी : इसमें शोथ नहीं होता, पाचन की गड़बड़ी भी नहीं मिलती, पर मांसपेशियाँ दुर्बल होकर सूखने लगती हैं। हृदय में क्षुब्धता, हाथ पैर में शून्यता, पिंडली में ऐंठन और पैर बर्फ से ठंढे रहते हैं। बैठने पर उठकर खड़ा होना कठिन होता है। वैसे पैर की एंडी झूला जा सकती है, या बड़े ऊँचे डग की चाल हो जाती है।
0.5
3,429.487536
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बाँध
चंबल कमांड क्षेत्र में राजस्थान कृषि ड्रेनेज अनुसंधान परियोजना कनाडा की अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी के सहयोग से चलाई जा रही है
0.5
3,426.365037
20231101.hi_495213_12
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बाँध
इस बांध की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सभी मोरिया खोलने पर एक बूंद पानी भी बांध में नहीं रुकता है।
0.5
3,426.365037
20231101.hi_495213_13
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%A7
बाँध
बीसलपुर बांध का निर्माण टोंक जिले में टोडारायसिंह से 13 किलोमीटर दूर बीसलपुर गांव में बनास तथा डाई नदी के संगम पर बांध बनाकर 1987 में करवाया गया।
0.5
3,426.365037
20231101.hi_495213_14
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बाँध
इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य टोंक अजमेर ब्यावर किशनगढ़ नसीराबाद केकड़ी सरवाड़ जयपुर को पेयजल की आपूर्ति करना है।
0.5
3,426.365037
20231101.hi_495213_15
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बाँध
एशियन विकास बैंक की सहायता से RVIDP  द्वारा परियोजना के ट्रांसमिशन भाग का कार्य प्रारंभ किया गया। यह राजस्थान की सबसे बड़ी पेयजल परियोजना है।
1
3,426.365037
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बाँध
इस बांध का निर्माण करौली जिले की गुडला गांव के पास पांच नदियों (भद्रावती, अटा, माची, बरखेड़ा तथा भैंसावर) के संगम पर मिट्टी से किया गया है।
0.5
3,426.365037
20231101.hi_495213_17
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बाँध
भीम सागर परियोजना झालावाड़ जिले की है भीम सागर परियोजना के अंतर्गत उजाड़ नदी पर झालावाड़ में बांध बनाया गया है।
0.5
3,426.365037
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बाँध
इस परियोजना का निर्माण बूंदी जिले की किशोरा राय पाटन तहसील के गुड़ा गांव के पास चौकना नदी पर बांध बनाकर किया गया।
0.5
3,426.365037
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%A7
बाँध
हरसोर बांध का निर्माण नागौर जिले में किया गया है हरसोर बांध का निर्माण नागौर की डेगाना तहसील में 1959 में किया गया था इस बांध से हरसोर तथा लूणासर नहर विकसित की गई
0.5
3,426.365037
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शक्‍ति-संतुलन
(क) प्रत्येक राष्ट्र अपनी उपलब्ध शक्ति एवं साधनों के द्वारा, जिनमें युद्ध भी शामिल है, अपने मार्मिक हितों -राष्ट्रीय स्वतन्त्राता, क्षेत्राय अखण्डता, राष्ट्रीय सुरक्षा, घरेलू राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की रक्षा आदि के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
0.5
3,406.713025
20231101.hi_649895_8
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शक्‍ति-संतुलन
(ख) राज्य के मार्मिक हितों को या तो खतरा होता है या खतरे की सम्भावना बनी रहती है। अतः राज्यों के लिए प्रतिदिन परिवर्तनशील शक्ति संबंधों से परिचित होना आवश्यक हो जाता है।
0.5
3,406.713025
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शक्‍ति-संतुलन
(ग) शक्ति संतुलन के द्वारा राज्यों के मार्मिक हितों की रक्षा होती है। शक्ति संतुलन के कारण या तो अधिक शक्तिशाली राज्य का आक्रमण करने का साहस ही नहीं होता और यदि वह ऐसा करने का दुस्साहस भी करे तो आक्रमण के शिकार राज्य को हार का मुंह नहीं देखना पड़ता।
0.5
3,406.713025
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शक्‍ति-संतुलन
(घ) राज्यों की सापेक्षिक शक्ति को निश्चित तौर पर आंका जा सकता है। यद्यपि शक्ति का आंकलन एक कठिन समस्या है, परन्तु इसके अतिरिक्त राज्यों के पास कोई ऐसा आधार भी नहीं है जिसके सहारे वे सैनिक तैयारी पर अपने खर्च का अनुपात तय कर सके।
0.5
3,406.713025
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शक्‍ति-संतुलन
(ङ) शक्ति सम्बन्धित तथ्यों की बुद्धिपूर्ण सूक्ष्म विवेचना के द्वारा ही राजनीतिक विदेश नीति संबंधी निर्णय लेते हैं अथवा ले सकते हैं।
1
3,406.713025
20231101.hi_649895_12
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शक्‍ति-संतुलन
(१) सामान्य रूप से यह यथास्थिति बनाए रखने की नीति है, परन्तु वास्तव में यह हमेशा गतिशील व परिवर्तनीय होती है।
0.5
3,406.713025
20231101.hi_649895_13
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शक्‍ति-संतुलन
(३) यह व्यक्तिपरक व वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार से परिभाषित होता है। इतिहासकार हमेशा इसका वस्तुनिष्ठ आकलन करते हैं जबकि राजनयिक हमेशा इसकी व्यक्तिपरक विवेचना करते हैं।
0.5
3,406.713025
20231101.hi_649895_14
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शक्‍ति-संतुलन
(७) यह साम्यावस्था के आधार पर शक्तियों का समान वितरण करता है। परन्तु यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि ऐसा समय कभी नहीं रहा।
0.5
3,406.713025
20231101.hi_649895_15
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शक्‍ति-संतुलन
(८) शक्ति संतुलन की व्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शायद ही दष्ष्टिगोचर हो, क्योंकि शक्ति तत्व का मापना व स्थिर कर पाना सम्भव नहीं है।www.ncert.com
0.5
3,406.713025
20231101.hi_100189_13
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
रंगीन बत्ती अथवा बत्तियाँ लगने तक लोम ठंढी हो जाती है, इसलिये वह फिर "सिकाई" भट्ठी पर पहुँचाई जाती है। लोम इधर उधर उठाकर पहुँचानेवाले मजदूर सधारण अनुभवी होते हैं। पर उनकी सिंकाई करनेवाले मजदूर प्रशिक्षित होते हैं। सिंकाई कारनेवाले कारीगर को यह ध्यान रख्ना पड़ता है कि लोम को सर्वत्र समान आँच लगे। बहुरगी चूड़ो बनाने की स्थिति में लोम भट्ठी तली पर जाएगी। एक रंगी चूड़ी के लिये वह सीधी सिंकाई भट्ठी पर आएगी।
0.5
3,395.848213
20231101.hi_100189_14
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
सिंकाई होने के पश्चात् लोम तार बनने योग्य हो जाती है। फलत: लोम लेनेवाला मजदूर सिंकाई भट्ठी से उसे लेकर "तार" लगानेवाले को देता है। तार लगानेवाला 25 रु. से 40 रु. प्रति दिन तक मजदूरी पानेवाला कारीगर है। चूड़ी बनानेवाले कारीगरों में सबसे अधिक वेतन पानेवाला यही व्यक्ति है। यही काच की चूड़ी को प्रांरभिक रूप प्रदान करता है। तार लगानेवाले के अतिरिक्त यहाँ दूसरा कारीगर बेलन चलानेवाला होता है। इसे "बिलनियाँ" कहते हैं। बेलन लोहे का हाता है जिसमें बच में चूड़ियों के खाने बने होते हैं, एक बेलनियाँ बेलन को एक ही निरंतर चाल से दो घंटे तक चलाता है। फिरते हुए बेलन पर तार लगानेवाला चूड़ी का तार खींचता है। तार खींचने की विशेषता यह हेती है कि उसकी मोटाई और गोलाई में समानता रहनी चाहिए। यह सब काम भी एक भट्ठी पर होता है जो बहुरंगी चूड़ी बनाने के क्रम में चौथी ओर एकरंगी चूड़ी के क्रम में तीसरी है।
0.5
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20231101.hi_100189_15
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
घूमते हुए बेलन पर चूड़ियों का स्पिं्रग के आकार का लंबा "मुट्ठा" तैयार होता है जिसे एक कारीगर चलते हुए बेलन से ही उतारकर ठंढा होने के लिये लाहे के तसलों में इकट्ठा करता जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
यहाँ तक आते आते काँच और चूड़ी में यथेष्ट "टूट फूट" होती है। चूड़ी में कई स्थानों पर "टूट फूट" "भंगार" कहलाती है, जिसे साधारण मजदूर इकट्ठी करते और अलग रखते हैं। भंगार बीनना भी इस उद्योग का एक प्रमुख अंग है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
चूड़ी के ठंढे "मुट्ठे", जिनमें 400-500 चूड़ियाँ होती हैं, हीरे की कनी अथवा मसाले से बने पत्थर से, जिसे "कुरंड" कहते हैं, काटे जाते हैं। एक आदमी "मुट्ठे" से काटकर चूड़ियाँ अलग करता जाता है, दूसरा उन्हें साथ साथ एक रस्सी में पिरोकर बाँधता जाता है और तीसरा गिन गिनकर 12-12 दर्जन संभालता जाता है। एक दर्जन में 24 चूड़ियाँ गिनी जाती हैं। 12 दर्जन अथवा 288 चूड़ियों का एक गट्ठा या एक तोड़ा कहलाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
चूड़ियों के तोड़े बाँध दिए गए परंतु चूड़ियों अभी बीच में कटी और टेढ़ी हैं। जोड़ने से पहिले उनको काटव के सामने थोड़ी गरमी देकर सीधा किया जाता है। गरमी पाते ही चूड़ियाँ सीधी हो जाती है और दोनों ओर की नोके एक सीध मे आ जाती हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
सीधी की हुई चूड़ियाँ जुड़ाई के लिये दी जाती हैं। चूड़ियों के टूटे हुए दोनों नोकों को, जो एक सीध में आ चुकी होती हैं मिट्ठी के तेल की लैंप की लौ पर गरम कर जोड़ दिया जाता है। यह भट्ठी जिसमें लैंपों के ऊपर जुड़ाई की जाती है "जुड़ाई भट्ठी" कहलाती है। लैंप की लौ को एक पंखे की सहायता से हवा दी जाती है जिससे उससे गैस बनने लगती है। चूड़ी को जोड़नेवाले "जुड़ैया" कहलाते हैं। जुड़ाई होने के पश्चात् चूड़ी पहनने योग्य तो हो जाती है परंतु उसको अंतिम रूप कुछ आगे चलकर ही मिलता है। यह जुड़ाई आदि का काम व्यक्तिगत रूप से घरों में होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
चूड़ी की जुड़ाई तक का उत्तरदायित्व कारखानेवाले का है। कारखाने से चूड़ी सौदागर के हाथ में पहुँचती है। सौदागर भारत के जिस प्रांत में अपनी चूड़ी भेजता है वहाँ की पसंद और फैशन का बहुत ध्यान रखता है। सौदागर के हाथ में आने के पश्चात् नाप के अनुसार चूड़ी की छँटाई की जाती है। नाप के अनुसार चूड़ी छाँटनेवाले "छँटैया" कहलाते हैं। साथ ही यह भी परीक्षा की जाती है कि कोई चूड़ी भूल से जुड़ने से तो नहीं रह गई है। इस देखभाल को "टूट" बजाना कहते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80
चूड़ी
छाँट के पश्चात् चूड़ी पर अनेक प्रकार की डिजाइन काटने का कम होता है। यह कटाई गोल शान पत्थर के द्वारा होती है जो मशीन के द्वारा घूमता रहता है। यहाँ यह कटाई होती है उसे कटाई का कारखाना कहते हैं। डिजाइन काटनेवाला कारीगर "कटैया" कहलाता है। चूड़ी यहाँ काफी टूटती है। यहाँ की भँगार इकट्ठी कर भँगार बीननेवाले अपने घर ले जाते हैं जहाँ उनके स्त्री, बच्चे रंग के अनुसार चूड़ियों के टुकड़ों को अलग अलग करते हैं। यह भँगार सैकड़ों मन तक इकट्ठी हो जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
खराश : यदि आवाज बैठी हुई है या गले में खराश है, तो सुबह उठते समय और रात को सोते समय छोटी इलायची चबा-चबाकर खाएँ तथा गुनगुना पानी पीएँ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
खाँसी : सर्दी-खाँसी और छींक होने पर एक छोटी इलायची, एक टुकड़ा अदरक, लौंग तथा पाँच तुलसी के पत्ते एक साथ पान में रखकर खाएँ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
उल्टी : बड़ी इलायची पाँच ग्राम लेकर आधा लीटर पानी में उबाल लें। जब पानी एक-चौथाई रह जाए, तो उतार लें। यह पानी पीने से उल्टियाँ बंद हो जाती हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
छाले : मुँह में छाले हो जाने पर बड़ी इलायची को महीन पीसकर उसमें पिसी हुई मिश्री मिलाकर जबान पर रखें। तुरंत लाभ होगा।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
बदहजमी : यदि केले अधिक मात्रा में खा लिए हों, तो तत्काल एक इलायची खा लें। केले पच जाएँगे और आपको हल्कापन महसूस होगा।
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इलायची
जी मिचलाना : बहुतों को यात्रा के दौरान बस में बैठने पर चक्कर आते हैं या जी घबराता है। इससे निजात पाने के लिए एक छोटी इलायची मुँह में रख लें।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
Mabberley, D.J. The Plant-book: A Portable Dictionary of the Higher Plants. Cambridge University Press, 1996.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
Buckingham, J.S. & Petheram, R.J. 2004, Cardamom cultivation and forest biodiversity in northwest Vietnam, Agricultural Research and Extension Network, Overseas Development Institute, London UK.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9A%E0%A5%80
इलायची
Aubertine, C. 2004, Cardamom (Amomum spp.) in Lao PDR: the hazardous future of an agroforest system product, in 'Forest products, livelihoods and conservation: case studies of non-timber forest products systems vol. 1-Asia, Center for International Forest Research. Jakarta, Indonesia.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
(२) गोनट- इसमें प्राकृतिक रूप से गोल आकार का मोती तैयार होता है। मोती चमकदार व सुंदर होता है। एक मोती की कीमत आकार व चमक के अनुसार 1 हजार से 50 हजार तक होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
(३) मेंटलटीसू- इसमें सीप के अंदर सीप की बॉडी का हिस्सा ही डाला जाता है। इस मोती का उपयोग खाने के पदार्थों जैसे मोती भस्म, च्यवनप्राश व टॉनिक बनाने में होता है। बाजार में इसकी सबसे ज्यादा मांग है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
घोंघा नाम का एक जन्तु, जिसे मॉलस्क कहते हैं, अपने शरीर से निकलने वाले एक चिकने तरल पदार्थ द्वारा अपने घर का निर्माण करता है। घोंघे के घर को सीपी कहते हैं। इसके अन्दर वह अपने शत्रुओं से भी सुरक्षित रहता है। घोंघों की हजारों किस्में हैं और उनके शेल भी विभिन्न रंगों जैसे गुलाबी, लाल, पीले, नारंगी, भूरे तथा अन्य और भी रंगों के होते हैं तथा ये अति आकर्षक भी होते हैं। घोंघों की मोती बनाने वाली किस्म बाइवाल्वज कहलाती है इसमें से भी ओएस्टर घोंघा सर्वाधिक मोती बनाता है। मोती बनाना भी एक मजेदार प्रक्रिया है। वायु, जल व भोजन की आवश्यकता पूर्ति के लिए कभी-कभी घोंघे जब अपने शेल के द्वार खोलते हैं तो कुछ विजातीय पदार्थ जैसे रेत कण कीड़े-मकोड़े आदि उस खुले मुंह में प्रवेश कर जाते हैं। घोंघा अपनी त्वचा से निकलने वाले चिकने तरल पदार्थ द्वारा उस विजातीय पदार्थ पर परतें चढ़ाने लगता है।
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मोती
सबसे मूल्यवान मोती जंगल में खुद-ब-खुद ही उत्पन्न होते हैं लेकिन यह अत्यंत दुर्लभ होते हैं। इन जंगली मोतियों को प्राकृतिक मोती कहा जाता है। मोती सीप और मीठे पानी के शंबुक से संवर्धित या फार्मी मोती ही वर्तमान में सबसे अधिक बेचे जाते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
भारत समेत अनेक देशों में मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनका उत्पादन घटता जा रहा है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। मेरे देश की धरती , सोना उगले, उगले हीरे-मोती। वास्तव में हमारे देश में विशाल समुन्द्रिय तटों के साथ ढेरों सदानीरा नदियां, झरने और तालाब मौजूद है। इनमें मछली पालन अलावा हमारे बेरोजगार युवा एवं किसान अब मोती पालन कर अच्छा मुनाफा कमा सकते है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
मोती की खेती के लिए सबसे अनुकूल मौसम शरद ऋतु यानी अक्टूबर से दिसंबर तक का समय माना जाता है। कम से कम 10 गुणा 10 फीट या बड़े आकार के तालाब में मोतियों की खेती की जा सकती है। मोती संवर्धन के लिए 0.4 हेक्टेयर जैसे छोटे तालाब में अधिकतम 25000 सीप से मोती उत्पादन किया जा सकता है। खेती शुरू करने के लिए किसान को पहले तालाब, नदी आदि से सीपों को इकट्ठा करना होता है या फिर इन्हे खरीदा भी जा सकता है। इसके बाद प्रत्येक सीप में छोटी-सी शल्य क्रिया के उपरान्त इसके भीतर 4 से 6 मिली मीटर व्यास वाले साधारण या डिजायनदार बीड जैसे गणेश, बुद्ध, पुष्प आकृति आदि डाले जाते है। फिर सीप को बंद किया जाता है। इन सीपों को नायलॉन बैग में 10 दिनों तक एंटी-बायोटिक और प्राकृतिक चारे पर रखा जाता है। रोजाना इनका निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों को हटा लिया जाता है। अब इन सीपों को तालाबों में डाल दिया जाता है। इसके लिए इन्हें नायलॉन बैगों में रखकर (दो सीप प्रति बैग) बाँस या पीवीसी की पाइप से लटका दिया जाता है और तालाब में एक मीटर की गहराई पर छोड़ दिया जाता है। प्रति हेक्टेरयर 20 हजार से 30 हजार सीप की दर से इनका पालन किया जा सकता है। अन्दर से निकलने वाला पदार्थ नाभिक के चारों ओर जमने लगता है जो अन्त में मोती का रूप लेता है। लगभग 8-10 माह बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
एक सीप लगभग 8 से 12 रुपए की आती है। बाजार में 1 मिमी से 20 मिमी सीप के मोती का दाम करीब 300 रूपये से लेकर 1500 रूपये होता है। आजकल डिजायनर मोतियों को खासा पसन्द किया जा रहा है जिनकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। भारतीय बाजार की अपेक्षा विदेशी बाजार में मोतिओ का निर्यात कर काफी अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। तथा सीप से मोती निकाल लेने के बाद सीप को भी बाजार में बेंचा जा सकता है। सीप द्वारा कई सजावटी सामान तैयार किये जाते है। जैसे कि सिलिंग झूमर, आर्कषक झालर, गुलदस्ते आदि वही वर्तमान समय में सीपों से कन्नौज में इत्र का तेल निकालने का काम भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। जिससे सीप को भी स्थानीय बाजार में तत्काल बेचा जा सकता है। सीपों से नदीं और तालाबों के जल का शुद्धिकरण भी होता रहता है जिससे जल प्रदूषण की समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
मोती पालन एक ऐसा  व्यवसाय है  जो आपको  अन्य  लोगो से अलग करता  है .वही  लोग इस व्यवसाय को कर सकते है। .जिनकी  सोच कुछ अलग करने की हो। .
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%80
मोती
(5) यदि महिला वर्ग  इस व्यवसाय  में आते है तो ज्यादा  फायदे है क्योकि मोती के आभूषण  के साथ साथ मदर ऑफ़ पर्ल (Shell jewellery) का भी फायदा ले सकते है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AA
ट्यूलिप
फूलों में गंध का सर्वथा अभाव रहता है। मनमोहक, विशुद्ध और मिश्रित लाल, सुनहरे और बैगनी रंगों में इन फूलों का रूपरंग दर्शकों को मोहित कर लेता है। फूलों की पंखुड़ियाँ एकदली और बहुदली दोनों प्रकार की होती हैं। पौधे छोटे ही होते हैं, परंतु उनके भूमिगत कंदों के बीच में से निकले हुए फूलदार डंठल की ऊँचाई 760 मिमी0 तक होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AA
ट्यूलिप
1. ट्यूलिपा कौफमैनियाना रिगेल (Tulipa Kaufmanniana Regel) - यह जल्दी फूलना शुरू कर देता है। फूलों को रंग लाली लिए पीला रहता है।
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ट्यूलिप
2. ट्यूलिया क्लुसियाना वेंट (Tulipa Clusiana Vent) - ये फूल सबसे अधिक सुंदर ओर आकर्षक होते है। फूलों का रंग मोती की तरह सफेद और पंखुड़ियों के बाहरी ओर गुलाबी बैगनी रंग की धारियाँ बनी रहती हैं।
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ट्यूलिप
3. ट्यूलिपा आइक्लेरी रिगेल (Tulipa Eichleri Regel.) - ये गहरे लाल रंग के आकार में बड़े और बहुत सुंदर होते हैं।
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4. ट्यूलिपा ग्रैगि रिगेल (Tulipa Greigii Regel.) - इसका फूल भी गहरे लाल रंग का और कटोरे के आकार का होता है।
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ट्यूलिप
5. ट्यूलिपा स्टेल्लैटा हुक (Tulipa Stellata Hook.) - यह भारत के उत्तर-पश्चिमी हिमालय के क्षेत्रों और विशेषतया कश्मीर से कुमाऊँ तक 1,500 से लेकर 2,500 मीटर तक की ऊँचाई पर पाया जाता है।
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ट्यूलिप
बगीचों में लगाने के लिये पौधों के कंद को वर्षा के पश्चात् और सर्दी से पूर्व (लगभग दीपावली के निकट) भूमि में छोड़ देना चाहिए। रेतीली मिट्टी, जो पानी सोख सके और जिसमें अच्छी गहराई तक गोबरपत्ती की पक्की खाद मिली हो, सर्वोत्तम पाई गई है। नई और कच्ची खाद इन कंदों के पास कभी नहीं रहनी चाहिए। यदि क्यारियों में पानी एकत्र होने की संभावना हो तो उनको आसपास की जमीन से ऊँचा उठाकर बनाना चाहिए। कंदों को मिट्टी में 100 से लेकर 150 मिमी0 की एक जैसे गहराई पर और लगभग 150 मिमी0 के अंतर पर रखना चाहिए। अलग अलग गहराई पर कंद लगाने से उनमें फूल भी विविध समयों पर लगेगे। अत्याधिक सर्दी और पाले से पौधों को पत्तों से ढककर बचाना चाहिए।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AA
ट्यूलिप
गमलों में लगाने के लिये अच्छी मिट्टी के साथ गाय के गोबर की दो वर्ष पुरानी खाद और थोड़ा सा बालू मिला देने से ट्यूलिप के पौधे खूब पनपते हैं। चार छ: सप्ताह तक कंदों को गमलों में दवाऐ दखने से इनकी जड़ें जम जाती हैं। गमलों को भी सर्दी और पाले से बचाने की आवश्यकता पड़ती है। इन गमलों को फिर किसी उपयुक्त खुले स्थान पर रखकर हल्की सी धूप और कभी पानी देते रहना चाहिए। फूल निकल आने पर धूप और अधिक पानी से बचाव जरूरी है। गृह की सजावट के लिये सदा फूलदार गमलों की जरूरत रहती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AA
ट्यूलिप
ट्यूलिप के पौधों के विस्तार के लिये पुराने कंदों से संलग्न नवजात कंदों स ही सहायता ली जाती है। इस विधि से सफलता प्राप्त करने के लिये विशेष अनुभव की आवश्यकता होती है।
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20231101.hi_54491_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%81
अष्टधातु
सुश्रुतसंहिता में केवल प्रथम सात धातुओं का ही निर्देश देखकर आपातत: प्रतीत होता है कि सुश्रुत पारा (पारद, रस) को धातु मानने के पक्ष में नहीं हैं, पर यह कल्पना ठीक नहीं। उन्होंने अन्यत्र रस को भी धातु माना है (ततो रस इति प्रोक्त: स च धातुरपि स्मृत:)। अष्टधातु का उपयोग प्रतिमा के निर्माण के लिए भी किया जाता था। तब रस के स्थान पर पीतल का ग्रहण समझना चाहिए; भविष्यपुराण के एक वचन के आधार पर हेमाद्रि का ऐसा निर्णय है।
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अष्टधातु
शास्त्रों के अनुसार असली अष्टधातु आठ धातुओं (पारद, सोना, चांदी, तांबा, सीसा, जस्ता, टिन और लोहा ) को मिलाकर ही बनta hai
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अष्टधातु
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हर धातु में निहित ऊर्जा होती है, धातु अगर सही समय में और ग्रहों की सही स्थिति को देखकर धारण किये जाएं तो इनका सकारात्मक प्रभाव प्राप्त होता है अन्यथा धातु विपरीत प्रभाव भी देता हैं | अष्टधातु हिन्दुओं के लिए एकअत्यंत शुभ धातु है। प्राचीन काल से ही अष्टधातु का उपयोग प्रतिमा निर्माण में भी होता रहा है। अष्टधातु का उपयोग प्रतिमा के निर्माण के लिए भी किया जाता था | इसके अलावा अष्टधातु का प्रयोग रत्न को धारण करने के लिए भी होता था यदि आपकी कुंडली में राहु अशुभ स्थिति में हो तो विशेष कष्टदायक होता है उसमे भी राहु की महा दशा और अंतर्दशा में अत्यन्त ही कष्टकारक दुष्प्रभाव दे सकता है ऐसी स्थिति में दाहिने हाथ में अष्टधातु का कड़ा धारण करने से अवश्य ही लाभ प्राप्त होता है साथ ही किसी योग्य ज्योतिष के परामर्श से राहु का जप और दान भी कर सकते हैं यह उपाय अवश्य ही राहत प्रदान करता है।
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अष्टधातु
अष्टधातु का मुनष्य के स्वास्थ्य से गहरा सम्बंध है यह हृदय को भी बल देता है एवं मनुष्य की अनेक प्रकार की बीमारियों को निवारण करता है |
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अष्टधातु
अष्टधातु की अंगूठी या कड़ा धारण करने पर यह मानसिक तनाव को दूर कर मन में शान्ति लाता है। यहीं नहीं यह वात पित्त कफ का इस प्रकार सामंजस्य करता हैं कि बीमारियां कम एवं स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव होता है |
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अष्टधातु
अष्टधातु मस्तिष्क पर भी गहरा प्रभाव डालता है | अष्टधातु पहनने से व्यक्ति में तीव्र एवं सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ जाती है। धीरे-धीरे सम्पन्नता में वृद्धि होती है |
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अष्टधातु
व्यापार के विकास और भाग्य जगाने के लिए शुभ मुहूर्त में अष्टधातु की अंगूठी या लॉकेट  में लाजवर्त धारण करें। यह एक बहुत प्रभावशाली उपाय है, सोया भाग्य जगा देता है |
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अष्टधातु
यदि आप अष्टधातु से बनी कोई भी चीज पहनते हैं तो आप सभी नौ ग्रहो से होने वाली पीड़ा को शांत कर सकते हैं और हाँ ये जरूरी नहीं की आप अष्टधातु से बनी से कोई चीज पहने ही आप अपने घर या ऑफिस में रखते हो तो भी इन नौ ग्रहो से होने वाली पीड़ा को शांत करता है |अष्टधातु के दुष्परिणाम'''
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अष्टधातु
आजकल अष्टधातु से बनी कोई भी चीज जैसे कड़ा, अंगूठी कम ही लोग पहनते हैं क्योकि अष्टधातु लेड,पारा, ये भी धातु मिलाकर बनाई जाती है जो की कैंसर रोग का एक मुख्य कारण होता है इसलिए अष्ठधातु का प्रयोग आज के समय में  कम हो गया हैं |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
तेज गति से फायर की गयी सीसे की गोलियों की सतह पिघल सकती है ऐसा पीछे उपस्थित गर्म गैसों और बोर के साथ घर्षण के कारण होता है। क्योंकि तांबे का गलनांक उच्च होता है और विशिष्ट उष्मा और कठोरता का मान भी भी अधिक होता है, कॉपर की जैकेट में उपस्थित गोलियों के कारण थूथन की गति बढ़ जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
वायुगतिकी में आधुनिकीकरण के कारण नुकीली स्पिट्ज़र गोली (spitzer bullet) का विकास हुआ। बीसवीं सदी की शुरुआत तक, दुनिया की अधिकांश सेनाएं स्पिट्ज़र बुलेट की ओर संक्रमित हो गयीं थीं। इन गोलियों को ज्यादा सटीक रूप से अधिक दूरी तक दागा जा सकता था और इनमें अधिक ऊर्जा होती थी। स्पिट्जर बुलेट और मशीन गन के संयोजन ने युद्ध की घातकता को बहुत अधिक बढ़ा दिया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
बुलेट या गोली की आकृति में सबसे आधुनिक नवीनीकरण जो हुआ, वह है नाव जैसी पूंछ, स्पिट्ज़र बुलेट के लिए एक आधाररेखित (streamlined यानि नाव की आकृति का जो आगे और पीछे दोनों तरफ से नुकीला हो) आधार। उच्च जब हवा गोली के अंतिम सिरे पर तेजी से होकर जाती है, तब निर्वात उत्पन्न हो जाता है, जिससे प्रोजेक्टाइल का वेग कम हो जाता है। आधाररेखित नाव जैसी पूंछ का डिजाइन, इसके अंतिम सिरे की सतह पर हवा के प्रवाह की अनुमति देता है, जिससे यह फॉर्म ड्रेग कम हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप वायुगतिकी (aerodynamic) लाभ को वर्तमान में राइफल तकनीक के लिए अनुकूल आकृति के रूप में देखा जाता है। स्पिट्ज़र और नाव जैसी पूंछ वाली गोली के पहले संयोजन को इसके खोजकर्ता (एक लेफ्टिनेंट-कोलोनिअल डेसलेक्स) के नाम पर बेल "डी" (Balle "D") नाम दिया गया है, इसे फ़्रांसिसी लेबल मॉडल 1886 राइफल के लिए, 1901 में मानक सैन्य बारूद के रूप में जारी किया गया।
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गोली
बुलेट के डिजाइन में दो प्राथमिक समस्याओं का समाधान करना है। उनमें पहले बंदूक के बोर के साथ एक सील बनायी जानी चाहिए. अगर एक मजबूत सील नहीं बनायी जाती है, बुलेट के निकल जाने के बाद प्रणोदक चार्ज से गैस लीक होगी, जो इसी दक्षता को कम कर देगी। बुलेट को राइफलिंग की प्रक्रिया में इस तरह से काम करना चाहिए कि बंदूक के बोर को कोई क्षति ना पहुंचे। गोलियों पर एक ऐसी सतह होनी चाहिए जो बहुत ज्यादा घर्षण पैदा किये बिना इस सील का निर्माण करे। बुलेट और बोर के बीच इस अंतर्क्रिया को आंतरिक प्राक्षेपिकी (internal ballistics) कहा जाता है। गोलियों का उत्पादन ऊँचे मानक पर किया जाना चाहिए, क्योंकि सतही विरूपता फायरिंग की सटीकता को प्रभावित कर सकती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
बैरल से निकलने के बाद गोली को प्रभावित करने वाली भौतिकी, बाहरी प्राक्षेपिकी (external ballistics) कहलाती है। उड़ान भर रही एक गोली की वायुगतिकी (aerodynamics) को प्रभावित करने वाले कारक हैं गोली की आकृति और बंदूक की बैरल की राइफलिंग के द्वारा उत्पन्न घूर्णन। घूर्णी बल गोली को वायुगतिक रूप से और गायरोस्कोपिक रूप से स्थिरीकृत करते हैं। गोली या बुलेट में किसी भी प्रकार कि असममिति बड़े पैमाने पर रद्द हो जाती है जब यह स्पिन (तेजी से घूमती) होती है। चिकने बोर की बंदूकों के साथ, एक गोलाकार आकृति अनुकूल थी क्योंकि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह कैसे उन्मुख हुई, इसने एक समतल सामने वाले हिस्से को प्रस्तुत किया। ये अस्थिर गोलियां अनिश्चित रूप से गिर जाती थीं, या अव्यवस्थित रूप से आगे पीछे लुढ़कने लगती थीं और केवल मध्यम सटीकता उपलब्ध कराती थीं, हालाँकि वायुगतिक आकृति में सदियों में बहुत कम परिवर्तन आया। आम तौर पर, गोली की आकृतियां वायुगतिकी, आंतरिक प्राक्षेपिकी जरूरतों और अंतिम प्राक्षेपिकी आवश्यकताओं के बीच एक समझौता थीं। गोली के द्रव्यमान केंद्र के लिए स्थिरीकरण की एक और विधि है आगे उतनी दूरी पर रहना जितना कि व्यवहार में मिनी बॉल या शटलकॉक में होता है। इससे गोली वायुगतिकी के माध्यम से सामने की ओर आगे उड़ान भारती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
देखें टर्मिनल प्राक्षेपिकी और/ या गोली का डिजाईन कैसे प्रभावित करता है इसके रोकने की क्षमता का अवलोकन करें, क्या होता है जब एक गोली एक वास्तु को प्रभावित करती है। प्रभाव के परिणाम का निर्धारण लक्ष्य सामग्री के संघटन और घनत्व, आपतन कोण और खुद गोली के वेग और भौतिक गुणों के द्वारा होता है। गोली को आमतौर पर इस प्रकार से डिजाइन किया जाता है कि यह लक्ष्य को भेद सके, उसे विरूपित कर सके और/या उसे तोड़ सके। एक दी गयी सामग्री और गोली के लिए, टकराने का वेग वह प्राथमिक कारक है जो परिणाम का निर्धारण करता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
वास्तव में गोली की कई आकृतियां हैं और ये कई प्रकार की हैं और उनकी एक सारणी को किसी भी रिलोडिंग मेनुअल में प्राप्त किया जा सकता है जो बुलेट माउल्ड को बेचती है। RCBS , कई निर्माताओं में से एक है, जो कई भिन्न डिजाइन पेश करता है, जो बेसिक राउंड बॉल से शुरू होते हैं। एक माउल्ड के साथ, कोई अपने गोले बारूद को रीलोड करने के लिए गोलियों को घर पर भी बना सकता है, जहाँ स्थानीय कानून इस बात की अनुमति देते हैं। हाथ से कास्टिंग, हालाँकि, ठोस सीसे की गोलियों के लिए केवल समय- और लागत- प्रभावी है। कास्ट और जैकेट से युक्त गोलियां भी व्यावसायिक रूप से हाथ लदान के लिए असंख्य निर्माताओं के द्वारा उपलब्ध करायी गयी हैं और ये सीसे की कास्टिंग गोलियों से कहीं अधिक सुविधाजनक हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
थूथन से लोड की जाने वाली बंदूकों या ब्लैक पाउडर के लिए बुलेट्स को शुद्ध सीसे से ढलाई करके बनाया जाता था। यह कम गति की बुलेट्स के लिए अच्छी तरह से काम करती थी, जिन्हें 450 m/s (1475 ft/s) से कम वेग पर दागा जाता था। आधुनिक बंदूकों से फायर की जाने वाली थोड़ी सी ज्यादा गति की गोलियों के लिए, सीसे और टिन का एक अधिक सख्त मिश्रधातु या टाइपसेटर का सीसा (जिसका उपयोग लीनोटाइप को मोल्ड करने के लिए किया जाता है) बेहतर है। और अधिक ज्यादा गति की गोलियों के लिए, जैकेट युक्त बुलेट्स का उपयोग किया जाता है। इन सभी में सामान्य तत्व सीसा है, जिसका उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है क्योंकि इसका घनत्व अधिक होता है और इसलिए यह यह अधिक द्रव्यमान उपलब्ध कराता है- और इस प्रकार से, एक दिए गए आयतन के लिए अधिक गतिज ऊर्जा उत्पन्न करता है। सीसा सस्ता भी होता है, इसे प्राप्त करना आसान है, इस पर काम करना आसान है, यह कम तापमान पर पिघल जाता है, इन्हीं सब कारणों से गोलियां या बुलेट्स बनाने में इनका उपयोग करना आसान है। यह भी कहा जा सकता है कि सीसा विषैला होता है, जिससे यह एक ज्यादा खतरनाक हथियार बन जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80
गोली
सीसा: साधारण ढलवां, एक्सट्रुडेड, स्वेज्ड, या अन्यथा फेब्रिकेटेड सीसा सलग गोलियों के सबसे साधारण रूप हैं। 300 m/s (1000 ft/s) से ज्यादा गति पर (जो हाथ वाली बंदूकों में आम है), सीसे को राफल बोर में हमेशा ज्यादा गति पर लोड किया जाता है। सीसे में कम प्रतिशतता में टिन और/या एन्टिमनी मिलाकर मिश्रधातु बनाने से यह प्रभाव कम हो जाता है, लेकिन यह कम प्रभावी हो जाता है क्योंकि वेग बढ़ जाते हैं। एक सख्त धातु जैसे ताम्बे से बने एक कप को गोली के आधार पर रखा जाता है और यह गैस चेक कहलाता है, जो अक्सर अधिक दाब पर फायर किये जाने पर गोली के रिअर को पिघलने से बचा कर सीसे के डिपोजिट को कम करने के लिए काम में लिया जाता है, परन्तु यह भी ऊँचे वेग पर समस्या का समाधान नहीं करता है।
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20231101.hi_1744_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
स्वतंत्रता आन्दोलन के समय वैशाली के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है। बसावन सिंह, बेचन शर्मा, अक्षयवट राय, सीताराम सिंह, बैकण्ठ शुक्ला, योगेन्द्र शुक्ला जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में महत्त्वपूर्ण हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई के दौरान १९२०, १९२५ तथा १९३४ में महात्मा गाँधी का वैशाली में आगमन हुआ था। वैशाली की नगरवधू आचार्य चतुरसेन के द्वारा लिखी गयी एक रचना है जिसका फिल्मांतरण भी हुआ, जिसमें अजातशत्रु की भूमिका अभिनेता श्री सुनील दत्त द्वारा निभायी गयी है।
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वैशाली
वैशाली की जलवायु मानसूनी प्रकार की है। वास्तव में तत्कालीन वैशाली का विस्तार आजकल के उत्तर प्रदेश स्थित देवरिया एवं कुशीनगर जनपद से लेकर के बिहार के गाजीपुर तक था। इस प्रदेश में पतझड़ वाले वृक्ष पाये जाते हैं। जिनमें आम, महुआ, कटहल, लीची, जामुन, शीशम, बरगद, शहतूत आदि की प्रधानता है। भौगोलिक रूप से यह एक मैदानी प्रदेश है जहाँ अनेक नदियाँ बहती हैं, इसका एक बड़ा हिस्सा तराई प्रदेश में गिना जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
सम्राट अशोक ने वैशाली में हुए महात्‍मा बुद्ध के अन्तिम उपदेश की याद में नगर के समीप सिंह स्‍तम्भ की स्‍थापना की थी। पर्यटकों के बीच यह स्‍थान लोकप्रिय है। दर्शनीय मुख्य परिसर से लगभग ३ किलोमीटर दूर कोल्हुआ यानी बखरा गाँव में हुई खुदाई के बाद निकले अवशेषों को पुरातत्व विभाग ने चारदीवारी बनाकर सहेज रखा है। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिला इँटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ दिखायी दे जाता है। एकाश्म स्‍तम्भ का निर्माण लाल बलुआ पत्‍थर से हुआ है। इस स्‍तम्भ के ऊपर घण्टी के आकार की बनावट है (लगभग १८.३ मीटर ऊँची) जो इसको और आकर्षक बनाता है। अशोक स्तम्भ को स्थानीय लोग इसे भीमसेन की लाठी कहकर पुकारते हैं। यहीं पर एक छोटा-सा कुण्ड है, जिसको रामकुण्ड के नाम से जाना जाता है। पुरातत्व विभाग ने इस कुण्ड की पहचान मर्कक-हद के रूप में की है। कुण्ड के एक ओर बुद्ध का मुख्य स्तूप है और दूसरी ओर कुटागारशाला है। सम्भवत: कभी यह भिक्षुणियों का प्रवास स्थल रहा है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
दूसरे बौद्ध परिषद् की याद में यहाँ पर दो बौद्ध स्‍तूपों का निर्माण किया गया था। इन स्‍तूपों का पता १९५८ की खुदाई के बाद चला। भगवान बुद्ध के राख पाये जाने से इस स्‍थान का महत्त्‍व काफी बढ़ गया है। यह स्‍थान बौद्ध अनुयायियों के लिए काफी महत्त्‍वपूर्ण है। बुद्ध के पार्थिव अवशेष पर बने आठ मौलिक स्तूपों में से एक है। बौद्ध मान्यता के अनुसार भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात कुशीनगर के मल्ल शासकों प्रमुखत: राजा श्री सस्तिपाल मल्ल जो कि भगवान बुद्ध के रिश्तेदार भी थे के द्वारा उनके शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया तथा अस्थि अवशेष को आठ भागों में बाँटा गया, जिसमें से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था। शेष सात भाग मगध नरेश अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्य, अलकप्प के बुली, रामग्राम के कोलिय, बेटद्वीप के एक ब्राह्मण तथा पावा एवं कुशीनगर के मल्लों को प्राप्त हुए थे। मूलत: यह पाँचवी शती ई॰ पूर्व में निर्मित ८.०७ मीटर व्यास वाला मिट्टी का एक छोटा स्तूप था। मौर्य, शुंग व कुषाण कालों में पकी इँटों से आच्छादित करके चार चरणों में इसका परिवर्तन किया गया, जिससे स्तूप का व्यास बढ़कर लगभग १२ मीटर हो गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
प्राचीन वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पूर्व बनवाया गया पवित्र सरोवर है। ऐसा माना जाता है कि इस गणराज्‍य में जब कोई नया शासक निर्वाचित होता था तो उनको यहीं पर अभिषेक करवाया जाता था। इसी के पवित्र जल से अभिशिक्त हो लिच्छिवियों का अराजक गणतांत्रिक संथागार में बैठता था। राहुल सांकृत्यायन ने अपने उपन्यास "सिंह सेनापति" में इसका उल्लेख किया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
अभिषेक पुष्करणी के नजदीक ही जापान के निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्‍व शान्तिस्‍तूप स्थित है। गोल घुमावदार गुम्बद, अलंकृत सीढियाँ और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह जैसे पहरेदार शान्ति स्तूप की रखवाली कर रहे प्रतीत होते हैं। सीढ़ियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा दिखायी देती है। शान्ति स्तूप के चारों ओर बुद्ध की भिन्न-भिन्न मुद्राओं की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ ओजस्विता की चमक से भरी दिखाई देती हैं।
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वैशाली
यह वास्‍तव में एक छोटा टीला है, जिसकी परिधि एक किलोमीटर है। इसके चारों तरफ दो मीटर ऊँची दीवार है जिसके चारों तरफ ४३ मीटर चौड़ी खाई है। समझा जाता है कि यह प्राचीनतम संसद है। इस संसद में ७,७७७ संघीय सदस्‍य इकट्ठा होकर समस्‍याओं को सुनते थे और उस पर बहस भी किया करते थे। यह भवन आज भी पर्यटकों को भारत के लोकतांत्रिक प्रथा की याद दिलाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
यह जगह भगवान महावीर का जन्‍म स्‍थान होने के कारण काफी लोकप्रिय है। यह स्‍थान जैन धर्मावलम्बियों के लिए काफी पवित्र माना जाता है। वैशाली से इसकी दूरी ४ किलोमीटर है। इसके अलावा वैशाली महोत्‍सव, वैशाली संग्रहालय तथा हाजीपुर के पास की दर्शनीय स्थल एवं सोनपुर मेला आदि भी देखने लायक है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80
वैशाली
पटना, हाजीपुर अथवा मुजफ्फरपुर से यहाँ आने के लिए सड़क मार्ग सबसे उपयुक्‍त है। वाहनों की उपलब्धता सीमित है इसलिए पर्यटक हाजीपुर या मुजफ्फरपुर से निजी वाहन भाड़े पर लेकर भ्रमण करना ज्यादा पसंद करते हैं। वैशाली से पटना समेत उत्तरी बिहार के सभी प्रमुख शहरों के लिए बसें जाती हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4
पोस्त
पोस्त (पॉपी, Poppy) या पोस्ता फूल देने वाला एक पौधा है जो पॉपी कुल का है। पोस्त भूमध्यसागर प्रदेश का देशज माना जाता है। यहाँ से इसका प्रचार सब ओर हुआ। इसकी खेती भारत, चीन, एशिया माइनर, तुर्की आदि देशों में मुख्यत: होती है। भारत में पोस्ते की फसल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में बोई जाती है। पोस्त की खेती एवं व्यापार करने के लिये सरकार के आबकारी विभाग से अनुमति लेना आवश्यक है। पोस्ते के पौधे से अहिफेन यानि अफीम निकलती है, जो नशीली होती है।
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पोस्त
पोस्ते का पौधा लगभग 60 सेंटीमीटर ऊँचा होता है। फूल सफेद, लाल, बैंगनी और पीले, इस प्रकार विभिन्न रंगों के होते हैं।
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पोस्त
अफीमवाले पोस्ते के फूल लाल अथवा बहुत हलके बैंगनी रंग के, या सफेद, होते हैं। फल, जिसे 'डोडा' कहते हैं, चिकना और अंडाकार होता है। पोस्ते की दूसरी जातियों को, जिन्हें फूलों के लिये लगाया जाता है, शर्ली पॉपीज कहते हैं।
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पोस्त
पोस्त मुख्यत: अफीम के लिये बोया जाता है। कच्चे डोडे पर तेज चाकू से धारियाँ बनाने पर, एक प्रकार का दूध निकलता है जो सूखकर गाढ़ा होने पर खुरच लिया जाता है। यही अफीम है। पोस्त के सूखे फल के छिलके को डोडा कहते हैं जिसे पानी में भिगोकर शेष रहे अफीम के निर्यास को घोलकर निकाल लिया जाता है। इसमें से मॉरफीन और कोडीन निकाले जाते हैं, जो दवाइयों में काम आते हैं। अफीम में साधारणत: 8 से 13 प्रतिशत मॉरफीन होता है, अधिक से अधिक 22.8 प्रति शत। एक एकड़ भूमि से लगभग 25 सेर अफीम निकल आती है।
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पोस्त
इसके कई प्रजातियों के फूल आकर्षक होते हैं और व्यापक रूप से वार्षिक या बारहमासी सजावटी पौधों के रूप में खेती की जाती है, इसलिए इस पौधे की व्यावसायिक रूप से खेती की जाती है, क्योंकि इनमें से शर्ली पोस्पी, पापवेर रियास की एक किस्म और अफीम पोस्ता पापावर सोम्निफरम और ओरिएंटल पोस्पी (पापावर ओरिएंटेल) के अर्ध-डबल या डबल (फ्लोर प्लेना) रूप व्यावसायिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं।
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