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20231101.hi_3426_5
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भाषा-परिवार
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इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है।
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भाषा-परिवार
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३ ध्वनिसाम्य- प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती है और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की क, ख, फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है। अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक कर देती हैं। आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं।
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20231101.hi_3426_7
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भाषा-परिवार
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४ व्याकरणगत समानता- भाषा के वर्गीकरण का व्याकरणिक आधार सबसे अधिक प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण, शब्दों से पदों की रचना प्रक्रिया तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है।
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20231101.hi_3426_8
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भाषा-परिवार
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यह साम्य-वैषम्य भी सापेक्षिक होता है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं।
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भाषा-परिवार
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वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं। फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं। अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक आदि की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और रचना-पद्धति में काफी समानता है। अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है। परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है। भारोपीय परिवार में शतम् और केन्टुम ऐसे ही वर्ग हैं। वर्गों का विभाजन शाखाओं में हुआ है। शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ प्रमुख शाखाएँ हैं। शाखाओं को उपशाखा में बाँटा गया है। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को भीतरी और बाहरी उपशाखा में विभक्त किया है। अंत में उपशाखाएँ भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं। इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है। इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता।
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20231101.hi_3426_10
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भाषा-परिवार
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उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की ओर आकृष्ट हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है। इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर फेडरिख मूलर इन परिवारों की संख्या 100 तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर राइस विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं।
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भाषा-परिवार
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दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का ज़िक्र नीचे है :
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20231101.hi_66692_0
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ब्रह्मचर्य
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ब्रह्मचर्य योग के आधारभूत स्तंभों में से एक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है सात्विक जीवन बिताना, शुभ विचारों से अपने वीर्य का रक्षण करना, भगवान का ध्यान करना और विद्या ग्रहण करना। यह वैदिक धर्म वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार यह ०-२५ वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है।
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ब्रह्मचर्य
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क्यों महत्वपूर्ण है ब्रह्मचर्य- हमारी जिंदगी मे जितना जरुरी वायु ग्रहण करना है उतना ही जरुरी ब्रह्मचर्य है। वेद का उपदेश है - ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर कन्या युवा पति को प्राप्त करे । आज से पहले हजारों वर्ष से हमारे ऋषि मुनि ब्रह्मचर्य का तप करते आए हैं क्योंकि इसका पालन करने से हम इस संसार के सर्वसुखो की प्राप्ति कर सकते हैं।
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ब्रह्मचर्य
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स्मरणं कीर्तनं केलि प्रेक्षणं गुह्य भाषणं । संकल्पो अध्यवसायश्च क्रिया निवृतिरेवच ।। अर्थात् शारीरिक और मानसिक क्षीणता करने वाले ये अष्ट मैथुन हैं - (१) स्त्री का ध्यान करना , स्त्री के बारे में सोचते रहना कल्पना करते रहना । (२) कोई श्रृंगारिक , कामुक कथा का पढ़ना , सुनना । (३) अंगों का स्पर्श , स्त्री पुरुषों के द्वारा एक दूसरे के अंगों का स्पर्श करना । (४) श्रृंगारिक क्रीडाएँ करना । (५) आलिंगन करना । (६) दर्शन अर्थात नग्न चित्र या चलचित्र का दर्शन करना । (७) एकांतवास अर्थात अकेले में पड़े रहना । (८) समागम करना अर्थात यौन सम्बन्ध स्थापित करना । जो इन सभी मैथुनों को त्याग देता है वही ब्रह्मचारी है ।
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ब्रह्मचर्य
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योग में ब्रह्मचर्य का अर्थ अधिकतर यौन संयम समझा जाता है। यौन-संयम का अर्थ अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग समझा जाता है, जैसे विवाहितों का एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान रहना, या आध्यात्मिक आकांक्षी के लिये पूर्ण ब्रह्मचर्य।
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ब्रह्मचर्य
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योगसुत्र (२/३८) के अनुसार - ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । अर्थात् ब्रह्मचर्य के धारण करने से वीर्य यानि बल की प्राप्ति होती है। अष्टांग योग का पहला अंग यम है। इस में अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम बताए गए हैं ।
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20231101.hi_66692_5
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ब्रह्मचर्य
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योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं - यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ अर्थात् वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं ; रागरहित यत्नशील जिसमें प्रवेश करते हैं ; जिसकी इच्छा से ( साधक गण ) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उस पद ( लक्ष्य ) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप बताया है - ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। (श्रीमद्भागवतगीता १७/१४)
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ब्रह्मचर्य
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ब्रह्मचर्य, जैन धर्म में पवित्र रहने का गुण है, यह जैन मुनि और श्रावक के पांच मुख्य व्रतों में से एक है (अन्य है सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह )| जैन मुनि और आर्यिका दीक्षा लेने के लिए मन, वचन और काय से ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। जैन श्रावक के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता। यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण के अभ्यास के लिए हैं। जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है।
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ब्रह्मचर्य
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सुश्रुत में तो स्त्रियों को पुरूष रोगी के पास फटकने का भी निषेध किया है , क्योंकि इनके दर्शन से यदि रोगी में वीर्य नाश हो जाय , तो बहुत हानि करता है । महर्षि सुश्रुत कहते हैं - रक्तं ततो मांस मांसान्मेदः प्रजायते । मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्रसम्भवः ॥ अर्थात् - मनुष्य जो कुछ भोजन करता है वह पहिले पेट में जाकर पचने लगता है फिर उसका रस बनता है , उस रस का पाँच दिन तक पाचन होकर उससे रक्त पैदा होता है । रक्त का भी पाँच दिन पाचन होकर उससे मांस बनता है । इस प्रकार पाँच - पाँच दिनके पश्चात् मांस से मेद , मेद से हड्डी , हड्डी से मज्जा और अन्त में मज्जा से सप्तम सार पदार्थ वीर्य बनता है । यही वीर्य फिर ' ओजस् ' रूपमें सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर चमकता रहता है । स्त्री के इस सप्तम अति शुद्ध सार पदार्थ को रज कहते हैं ।
| 0.5 | 4,385.349421 |
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ब्रह्मचर्य
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भगवान धन्वन्तरि कहते हैं - मृत्युव्याधिजरानाशी पीयूष परमौषधम् । ब्रह्मचर्य महदरतन सत्यमय वदाम्यहम् ॥ अर्थात् अर्थात सभी रोगों , वृद्धावस्था और मृत्यु को नष्ट करने के लिए केवल ब्रह्मचर्य ही महान औषधि है । मैं सच बोल रहा हूँ । यदि आप शांति , सौंदर्य , स्मृति , ज्ञान , स्वास्थ्य और अच्छे बच्चे चाहते हैं , तो आपको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ।
| 0.5 | 4,385.349421 |
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कम्बोडिया
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सूर्यवर्मन् प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन् ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन् से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही।
| 0.5 | 4,382.22793 |
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कम्बोडिया
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जयवर्मन् सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन् ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन् सप्तम की गणना कंबोज के महान् राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंक उसमे समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनीचरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन् सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक् एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।
| 0.5 | 4,382.22793 |
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कम्बोडिया
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जयवर्मन् सप्तम के पश्चात् कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहासलेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट् कुबले खाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 1296 ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है जिसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 1902 ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया। 19वीं सदी में फ्रांसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे, वे 16वीं सदी में ही इस प्रायद्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1854 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1858-1904) ने 11 अगस्त 1863 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले 80 वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा। (कंबोडिया, फ्रेंच cambodge का रूपांतर है। फ्रेंच नाम, कंबोज या कंबुजिय से बना है।) 1904-41 में स्याम और फ्रांसीसियों के बीच होनेवाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् 1945 ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस ने कंबोडिया को एक नया संविधान प्रदान किया (मई 6, 1947)। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्रप्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 1949 ई. (8 नवंबर) में फ्रांसीसियों को एक नए समणैते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधान मंत्री चुने गए।
| 0.5 | 4,382.22793 |
20231101.hi_9925_8
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कम्बोडिया
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कंबोज वास्तविक अर्थ में भारतीय उपनिवेश था। वहाँ के निवासियों का धर्म, उनकी संस्कृति एवं सभ्यता, साहित्यिक परंपराएँ, वास्तुकला और भाषा-सभी पर भारतीयता की अमिट छाप थी जिसके दर्शन आज भी कंबोज के दर्शक को अनायास ही हो जाते हैं। हिंदू धर्म और वैष्णव संप्रदाय और तत्पश्चात् (1000 ई. के बाद) बौद्ध धर्म कंबोज के राजधर्म थे और यहाँ के अनेक संस्कृत अभिलेखों को उनकी धार्मिक तथा पौराणिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारतीय अभिलेखों से अलग करना कठिन ही जान पड़ेगा। उदाहरण के लिए राजेन्द्रवर्मन् के एक विशाल अभिलेख का केवल एक अंश यहाँ प्रस्तुत है जिसमें शिव की वन्दना की गई है :
| 0.5 | 4,382.22793 |
20231101.hi_9925_9
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कम्बोडिया
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पुराने अरब पर्यटकों ने कंबोज को हिंदू देश के नाम से ठीक ही अभिहित किया। कंबुज की राजभाषा प्राचीन काल में संस्कृत थी, उसका स्थान धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण पाली ने ले लिया और आज भी यह धार्मिक क्षेत्र में यहाँ की मुख्य भाषा बनी हुई है। कंबुज भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द अपने कंबुजी या ख्मेर रूप में आज भी पाए जाते हैं (जैसे-तेप्दा = देवता, शात्स = शासन, सुओर = स्वर्ग, फीमेअन = विमान)। ख्मेर लिपि दक्षिणी भारत की पल्लव और पूर्वी चालुक्य लिपियों के मेल से बनी है। कंबोज की वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। अंग्कोरथोम का बेयोन मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है। इसके शिखर में भी भारतीय मंदिरों के शिखरों की स्पष्ट झलक मिलती है। इस मंदिर और ऐलोरा के कैलास मंदिर के कलातत्व, विशेषत: मूर्तिकारी तथा आलेख्य विषयों और दृश्यों में अद्भुत साम्य है।
| 1 | 4,382.22793 |
20231101.hi_9925_10
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कम्बोडिया
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विद्वानों को यहाँ पंकि (पंडित), भिक्षुओं को शू-कू (भिक्षु) और ब्राह्मणों को पा-शो-वेई (पाशुपत) कहा जाता है। पंडित अपने कंठ में श्वेत धागा (यज्ञोपवीत) डाले रहते हैं, जिसे वे कभी नहीं हटाते। भिक्षु लोग सिर मुड़ाते और पीत वस्त्र पहनते हैं। वे मांस मछली खाते हैं पर मद्य नहीं पीते। उनकी पुस्तकें तालपत्रों पर लिखी जाती हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ यहाँ नहीं है। पाशुपत अपने केशों को लाल या सफेद वस्त्रों से ढके रहते हैं। कंबोज के सामान्य जन श्याम रंग के तथा हृष्टपुष्ट हैं। राजपरिवार की स्त्रियाँ गौर वर्ण हैं। सभी लोग कटि तक शरीर विवस्त्र रखते हैं और नंगे पाँव घूमते हैं। राजा पटरानी के साथ झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देता है।
| 0.5 | 4,382.22793 |
20231101.hi_9925_11
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कम्बोडिया
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लिखने के लिए कृष्ण मृग काचमड़ा भी काम में आता है। लोग स्नान के बहुत प्रेमी हैं। यहाँ स्त्रियाँ व्यापार का काम भी करती हैं। गेहूँ, हल्दी, चीनी, रेशम के कपड़े, राँगा, चीनी बर्तन कागज आदि यहाँ व्यापार की मुख्य वस्तुएँ हैं।गाँवों में प्रबंध करने के लिए एक मुखिया या मयिची रहता है। सड़कों पर यात्रियों के विश्राम करने के लिए आवास बने हुए हैं।''
| 0.5 | 4,382.22793 |
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कम्बोडिया
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कंबोडिया - कंबोज का अर्वाचीन (आधुनिक) नाम है। यह हिंद चीन प्रायद्वीप का एक देश है जो सन् 1955 ई. में फ्रांसीसी आधिपत्य से मुक्त हुआ है। 19वीं शताब्दी के पूर्व यह प्रदेश ख़्मेर राज्य का अंग था किंतु 1863 ई. में फ्रांसीसियों के आधिपत्य में आ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में कंबोडिया पर जापान का अधिकार था।
| 0.5 | 4,382.22793 |
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कम्बोडिया
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कंबोडिया का क्षेत्रफल 1,81,000 वर्ग मील है। इसकी पश्चिमी और उत्तरी सीमा पर स्याम तथा लाओ और पूर्वी सीमा पर दक्षिणी वियतनाम देश हैं। दक्षिण-पश्चिम भाग स्याम की खाड़ी का तट है। कंबोडिया तश्तरी के आकर की एक घाटी है जिसे चारों ओर से पर्वत घेरे हुए हैं। घाटी में उत्तर से दक्षिण की ओर मीकांग नदी बहती है। घाटी के पश्चिमी भाग में तांगले नामक एक छिछली और विस्तृत झील है जो उदाँग नदी द्वारा मीकांग से जुड़ी हुई है।
| 0.5 | 4,382.22793 |
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पेनिसिलिन
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अन्य β-लेक्टम एंटीबायोटिक्स की तरह, पेनिसिलिन न केवल सायनोबैक्टीरिया के भाग को अवरुद्ध करती है, वल्कि साइनेल के भाग, ग्लाउकोफाइट्स के प्रकाश-संश्लेषक कोशिकांग, तथा ब्रायोफाइट्स के क्लोरोप्लास्ट के भाग को भी अवरुद्ध कर देती है। इसके विपरीत, अति विकसित संवहनी पौधों पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता है। यह जमीन के पौधों में प्लास्टाइड भाग के विकास के एंडोसिम्बायोटक सिद्धान्त का समर्थन करता है।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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आमतौर पर "पेनिसिलिन" शब्द का प्रयोग विशेषकर, बेंजिलपेनिसिलिन (पेनिसिलिन जी) में किसी एक संकीर्ण स्पेक्ट्रम की पेनिसिलिन को बताने के लिए किया जाता है।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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पेनिसिलिन के प्रयोग से संबंधित दवा की आम प्रतिकूल प्रतिक्रिया (≥ 1% रोगी) में दस्त, अतिसंवेदनशीलता, मतली, ददोरे, न्यूरोटॉक्सिटी, पित्ती और अत्यधिक संक्रमण (केंडिडिआसिस सहित) शामिल हैं। असामान्य प्रतिकूल प्रभावों (0.1-1% रोगी) में बुखार, उलटी, त्वचा लाल होना, त्वचा शोथ, एंजिओडेमा, अचेत होना (विशेषकर मिरगी में) तथा कृत्रिम झिल्ली का बड़ा आंत्रशोथ शामिल हैं।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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पेनिसिलिन, पेनिसिलियम कवक का गौण मेटाबोलिक है जोकि दबाव से कवक के विकास को रोके जाने पर पैदा होता है। यह सक्रिय विकास के दौरान पैदा नहीं होता है। पेनिसिलिन के संश्लेषण मार्ग में प्रतिक्रिया के द्वारा भी उत्पादन सीमित होता है।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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उपोत्पाद एल-लाइसिन, होमोसाइट्रेट का उत्पादन रोकता है, इसलिए पेनिसिलिन उत्पादन में बहिर्जनित लाइसिन की मौजूदगी को टालना चाहिए।
| 1 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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पेनिसिलियम कोशिकाएं, फेड-बैच संवर्धन कही जाने वाली तकनीक का प्रयोग करके विकसित होती हैं, जिसमें कोशिकाएं लगातार दबाव में रहती हैं और काफी पेनिसिलिन पैदा करती हैं। उपलब्ध कार्बन स्रोत भी महत्वपूर्ण होते हैं: ग्लूकोज पेनिसिलिन को रोकता है, जबकि लैक्टोज ऐसा नहीं करता है। PH और नाइट्रोजन का स्तर, लाइसिन, फॉस्फेट और बैच की ऑक्सीजन स्वतः नियंत्रित किया होना चाहिए।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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पेनिसिलीन का उत्पादन द्वितीय विश्व युद्ध के सीधे परिणाम स्वरूप एक उद्योग के रूप में उभरा. युद्ध के दौरान, घरेलू मोर्चे पर अमेरिका में बहुतायत में रोजगार उपलब्ध थे। रोजगार देने और उत्पादन पर निगरानी रखने के लिए, युद्ध के उत्पादन बोर्ड की स्थापना की गयी थी। युद्ध के दौरान पेनिसिलिन का भारी मात्रा में उत्पादन किया गया और उद्योग समृद्ध हुआ। जुलाई 1943 में, युद्ध के उत्पादन बोर्ड को यूरोप में लड़ रहीं मित्र देशों की सेनाओं के लिए पेनिसिलिन के स्टॉक को बड़े पैमाने पर वितरित करने के लिए एक योजना बनाई। इस योजना के समय, प्रति वर्ष 425 मिलियन इकाइयों का उत्पादन किया जा रहा था। युद्ध और युद्ध के उत्पादन बोर्ड के सीधे परिणाम के कारण जून 1945 तक 646 अरब इकाइयां प्रति वर्ष की दर से उत्पादित की जा रही थीं।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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हाल के वर्षों में, पेनिसिलियम के उपभेदों में बड़ी संख्या में परिवर्तन करके उत्पादन के लिए निर्दिष्ट विकास की जैव तकनीक को लागू किया गया है। इन निर्दिष्ट -विकास तकनीकों में त्रुटि-प्रवृत पीसीआर, डीएनए की उथल-पुथल, खुजलाहट, तथा तंतुओं का पीसीआर लांघना शामिल है।
| 0.5 | 4,371.755888 |
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पेनिसिलिन
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डोरोथी हॉकिन एट अल. के द्वारा पेनिसिलिन की संरचना का मॉडल, विज्ञान के इतिहास का संग्रहालय, ऑक्सफोर्ड.
| 0.5 | 4,371.755888 |
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दत्तात्रेय
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हमारे पुराण देवी-देवताओं की चमत्कारिक घटनाओं से भरे हुए हैं। हिन्दू धर्म में असंख्य देवों का वर्णन है, इसलिए इनसे जुड़ी घटनाओं की संख्या भी बहुत अधिक है। सनातन धर्म विश्व का प्रचीन धर्म है और इसकी कालावधि की गणना लाखों वर्ष मे है।
| 0.5 | 4,365.70938 |
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दत्तात्रेय
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इसी पौराणिक इतिहास में पवित्र और पतिव्रता देवी अनुसूया व उनके पति अत्रि का नाम प्रमुख तौर पर दर्ज है।
| 0.5 | 4,365.70938 |
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दत्तात्रेय
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एक बार की बात है माँ अनुसूया त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे पुत्र की प्राप्ति के लिए कड़े तप में लीन हो गईं, जिससे तीनों देवों की अर्धांगिनियां सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती को जलन होने लगी।
| 0.5 | 4,365.70938 |
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दत्तात्रेय
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तीनों ने अपनी पतियों से कहा कि वे भू लोक जाएं और वहां जाकर देवी अनुसुया की परीक्षा लें। ब्रह्मा, विष्णु और महेश संन्यासियों के वेश में अपनी जीवनसंगिनियों के कहने पर देवी अनुसुया की तप की परीक्षा लेने के लिए पृथ्वी लोक चले गए। अनुसुया के पास जाकर संन्यासी के वेश में गए त्रिदेव ने उन्हें भिक्षा देने को कहा, लेकिन उनकी एक शर्त भी थी। अनुसुया के पतित्व की परीक्षा लेने के लिए त्रिदेव ने उनसे कहा कि वह भिक्षा मांगने आए हैं लेकिन उन्हें भिक्षा उनके सामान्य रूप में नहीं बल्कि अनुसुया की नग्न अवस्था में चाहिए। अर्थात देवी अनुसुया उन्हें तभी भिक्षा दे पाएंगी, जब वह त्रिदेव के समक्ष नग्न अवस्था में उपस्थित हों।त्रिदेव की ये बात सुनकर अनुसुया पहले तो हड़बड़ा गईं लेकिन फिर थोड़ा संभलकर उन्होंने मंत्र का जाप कर अभिमंत्रित जल उन तीनों संन्यासियों पर डाला।पानी की छींटे पड़ते ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ही शिशु रूप में बदल गए। शिशु रूप लेने के बाद अनुसुया ने उन्हें भिक्षा के रूप में स्तनपान करवाया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के स्वर्ग वापस ना लौट पाने की वजह से उनकी पत्नियां चिंतित हो गईं और स्वयं देवी अनुसुया के पास आईं। सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें उनके पति सौंप दें। अनुसुया और उनके पति ने तीनों देवियों की बात मान ली किन्तु अनुसूया ने कहा "कि त्रिदेवों ने मेरा स्तनपान किया है इसलिए किसी ना किसी रूप में इन्हें मेरे पास रहना होगा अनुसुया की बात मानकर त्रिदेवों ने उनके गर्भ में दत्तात्रेय , दुर्वासा और चंद्रमा रूपी अपने अवतारों को स्थापित कर दिया , जिनमें दतात्रेय तीनों देवों के अवतार थे । दत्तात्रेय का शरीर तो एक था लेकिन उनके तीन सिर और छ: भुजाएं थीं। विशेष रूप से दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता है। दतात्रेय की छ: भुजाएँ और तीन शीश इसलिए हैं जिसकी कथा इस प्रकार है
| 0.5 | 4,365.70938 |
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दत्तात्रेय
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एक बार ब्रह्मा ब्रह्मलोक में ध्यान में लीन थे की तभी भगवान शंकर वहां पधारे वे ब्रह्मा का ध्यान टूटने का इंतजार करने लगे किन्तु ब्रह्मदेव ने अपने नेत्र नहीं खोले भगवान शिव की शांति का बांध टूटने लगा उन्होंने अपने डमरू से भी ब्रह्मदेव को जगाने का प्रयास किया किन्तु उनका ध्यान ही नहीं टूटा भगवान ब्रह्मा की जब आखें खुली तब उन्होंने शिवजी से माफ़ी मांगी किन्तु शिवजी को शांत नहीं कर सके उन्होंने भगवान सत्यनारायण का ध्यान किया जिससे भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत किया किन्तु उनका अंश आधे से ज्यादा नष्ट हो चुका था | तब देवी अनुसूया ने जब तीनों में से दो शिशु अर्थात् चंद्रदेव और दुर्वासा को जन्म दिया ( दुर्वासा सबसे बड़े और चंद्रमा दूसरे स्थान के पुत्र थे ) जब तीसरे शिशु ( अर्थात् दतात्रेय ) का जन्म नहीं हुआ किन्तु अनुसूया को प्रसव पीड़ा होती रही तब ब्रह्मा जी और शिवजी को सारी बात समझ आ गई तब उन्होंने अपने कुछ अंश भेजे जिससे दतात्रेय के गर्भ में ही तीन सिर और छ: भुजाएँ हो गई |
| 1 | 4,365.70938 |
20231101.hi_45209_6
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दत्तात्रेय
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दत्तात्रेय के अन्य दो भाई चंद्र देव और ऋषि दुर्वासा थे। चंद्रमा को ब्रह्मा और ऋषि दुर्वासा को शिव का रूप ही माना जाता है।
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दत्तात्रेय
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जिस दिन दत्तात्रेय का जन्म हुआ आज भी उस दिन को हिन्दू धर्म के लोग दत्तात्रेय जयंती के तौर पर मनाते हैं।
| 0.5 | 4,365.70938 |
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दत्तात्रेय
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भगवान दत्तात्रेय से एक बार राजा यदु ने उनके गुरु का नाम पूछा,भगवान दत्तात्रेय ने कहा : "आत्मा ही मेरा गुरु है,तथापि मैंने चौबीस व्यक्तियों से गुरु मानकर शिक्षा ग्रहण की है।"
| 0.5 | 4,365.70938 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF
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दत्तात्रेय
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"जो आदि में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अन्त में सदाशिव है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है। ब्रह्मज्ञान जिनकी मुद्रा है, आकाश और भूतल जिनके वस्त्र है तथा जो साकार प्रज्ञानघन स्वरूप है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है।" (जगद्गुरु श्री आदि शंकराचार्य)
| 0.5 | 4,365.70938 |
20231101.hi_164352_1
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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दुर्भीति की स्थिति में व्यक्ति का ध्यान कुछ एक लक्षणों पर केन्द्रित हो सकता है, जैसे-दिल का जोर-जोर से धड़कना या बेहोशी महसूस होना। इन लक्षणों से जुड़े हुए कुछ डर होते है जैसे-मर जाने का भय, अपने ऊपर नियंत्रण खो देने या पागल हो जाने का डर।
| 0.5 | 4,364.529699 |
20231101.hi_164352_2
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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इस विकार से रोगी अधिकतर लोग अपने विकार पर पर्दा डाले रहते हैं। उन्हें लगता है कि इसकी चर्चा करने से उनकी जग हंसाई होगी। वे उन हालात से बचने की पुरजोर कोशिश करते हैं जिनसे उन्हें फोबिया का दौरा पड़ता है। लेकिन यह पलायन का रवैया जीवन में जहर घोल देता है।
| 0.5 | 4,364.529699 |
20231101.hi_164352_3
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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इसके बाद साइकोथेरेपिस्ट की सहायता से मन में बैठे फोबिया को मिटाने की कोशिश की जा सकती है। इसमें फोबिया-प्रेरक स्थिति से सामना कराते हुए मन में उठने वाली आशंका पर कंट्रोल रखने के उपाय सुझाए जाते हैं। जैसे-जैसे रोगी का आत्मविश्वास लौटता जाता है, वैसे-वैसे उसका भय घटता जाता है। यह डीसेंसीटाइजेशन थैरेपी रोगी में फिर से जीने की ललक पैदा कर देती है। अस्वाभाविक भय की हार और जीवन की जीत होती है।
| 0.5 | 4,364.529699 |
20231101.hi_164352_4
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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सोशल फोबिया जैसे सभा में बोलने के भय से छुटकारा पाने के लिए भीतरी दुश्चिंता और तनाव पर विजय पाकर स्थिति वश में की जा सकती है। बीटा-ब्लॉकर दवाएँ जैसे प्रोप्रेनोलॉल और एटेनोलॉल और चिंतानिवारक दवाएँ जैसे एलप्रेजोलॉम भी सोशल फोबिया से उबारने में प्रभावी साबित होती हैं।
| 0.5 | 4,364.529699 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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फोबिया की बीमारी अन्य डरों से किस प्रकार अलग है? इसकी सबसे बड़ी विशेषता है व्यक्ति की चिन्ता, घबराहट और परेशानी यह जानकर भी कम नहीं होती कि दूसरे लोगो के लिए वही परिस्थिति खतरनाक नहीं है। यह डर सामने दिखने वाले खतरे से बहुत ज्यादा होते हैं। व्यक्ति को यह पता रहता है कि उसके डर का कोई तार्किक आधार नहीं है फिर भी वह उसे नियंत्रित नही कर पाता। इस कारण उसकी परेशानी और बढ़ जाती है।
| 1 | 4,364.529699 |
20231101.hi_164352_6
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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इस डर के कारण व्यक्ति उन चीजों, व्यक्तियों तथा परिस्थितियों से भागने का प्रयास करता है जिससे उस भयावह स्थिति का सामना न करना पड़े। धीरे-धीरे यह डर इतना बढ़ जाता है कि व्यक्ति हर समय उसी के बारे में सोचता रहता है और डरता है कि कहीं उसका सामना न हो जाए। इस कारण उसके काम-काज और सामान्य जीवन में बहुत परेशानी होती है।
| 0.5 | 4,364.529699 |
20231101.hi_164352_7
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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अगोराफोबिया से पीड़ित व्यक्ति को घर से बाहर जाने में, दुकानों या सिनेमाघरों में घुमने, भीड़-भाड़ में जाने, ट्रेन में अकेले सफर करने, या सार्वजनिक जगहों में जाने, में घबराहट होती है। यानि ऐसी जगह से जहाँ से निकलना आसान न हो, व्यक्ति को घबराहट होती है और उससे बचने का प्रयास करता है।
| 0.5 | 4,364.529699 |
20231101.hi_164352_8
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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फोबिया
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सामाजिक दुर्भीति में किसी सामाजिक परिस्थिति जैसे-लोगों के सामने बोलना या लिखना, स्टेज पर भाषण देना, टेलीफोन सुनना, किसी उँचे पद पर आसीन लोगों से बातें करने में परेशानी होती है। विशेष फोबिया में किसी खास चीज या स्थिति में डर लगता है। उँचाई से डर, पानी से डर, तेलचट्टा, बिल्ली, कुत्ते, कीड़े से डर आदि।
| 0.5 | 4,364.529699 |
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फोबिया
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विशिष्ट फोबिया (Specific Phobia) जैसे ट्रिपैनोफोबिया (सुई/इंजेक्शन का डर) इसमें सुई और इंजेक्शन सहित चिकित्सा प्रक्रियाओं का डर शामिल है। सुइयों, रक्त के खींचने, या इंजेक्शन के डर को ट्रिपैनोफोबिया कहा जाता है और अक्सर इसे सुई का भय कहा जाता है। आमतौर पर, लोग इंजेक्शन लेने से थोड़ा डरते हैं, लेकिन ट्रिपैनोफोबिया के मामले में, व्यक्ति का डर एक भयानक फोबिया में इस हद तक बदल जाता है कि वे एक इंजेक्शन से बचने के लिए अपने जीवन को भी खतरे में डाल सकते हैं
| 0.5 | 4,364.529699 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE
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श्यानता
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धारारेखी गति के लिए, न्यूटन के श्यान प्रवाह (Viscous flow) के नियम के अनुसार, द्रव की समानांतर परतों के बीच स्पर्शरेखीय श्यान बल F को नीचे दिए गए संबंध द्वारा दिखलाया जाता है :
| 0.5 | 4,347.474614 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE
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श्यानता
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जहाँ A = समांतार परतों का क्षेत्रफल, dz = परतों के बीच की दूरी, dv = परतों की सापेक्ष गति, dv/dz = वेग प्रवणता (velocity gradient) तथा h एक स्थिरांक (constant) है, जिसे "द्रव की श्यानता का गुणांक" कहा जाता है। यह, अथवा इसका मान, द्रव की प्रकृति तथा भौतिक दशाओं (physical conditions) पर निर्भर करता है। यदि हम ऊपर दर्शाए गए संबंध (1) में A = 1, dv/dz = 1 रखें, तो F = -h होगा। अतएव किसी द्रव की "श्यानता के गुणांक" की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है :
| 0.5 | 4,347.474614 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE
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श्यानता
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"किसी द्रव के दो समांतर तलों के बीच इकाई वेग प्रवणता रखने के लिए जो स्पर्शरेखीय बल प्रति इकाई क्षेत्रफल के लिए आवश्यक होता है, उसे उस द्रव की श्यानता का गुणांक कहते हैं।"
| 0.5 | 4,347.474614 |
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श्यानता
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यद्यपि ऊपर दो पट्टिकाओं तथा उनके बीच द्रव की उपस्थिति जैसी व्यवस्था की कल्पना कर, आसानी से "श्यानता के गुणांक" की परिभाषा की गई है, तथापि प्रयोगात्मक रूप में ऐसी व्यवस्था को पाना संभव नहीं है। पहले पहल पानी जैसी तरल वस्तुओं का "श्यानता के गुणांक" पानी के बहाव को, केशिका नलिकाओं से गुजरने के बाद, मापकर निकाला गया और आजकल भी यह तरीका विशद रूप से प्रयोग में लाया जाता है।
| 0.5 | 4,347.474614 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE
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श्यानता
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मान लीजिए कि, कोई द्रव, जैसे पानी, किसी वृत्तीय छेद की संकीर्ण नली से होकर गुजर रहा है। यदि पानी धारारेखी गति से संकीर्ण नली से होकर प्रवाहित हो रहा है तथा नली के किसी अनुप्रस्थ परिच्छेद के ऊपर दबाव एक समान हो और द्रव की वह परत जो नली की गोलीय दीवार के संपर्क में हो एवं प्रयोगात्मक रूप से स्थिर हो, तो पानी का श्यानतागुणांक नीचे दिए हुए संबंध द्वारा निकाला जा सकता है :
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श्यानता
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जहाँ Q = पानी का वह आयतन जो प्रति सेकंड नली से होकर गुजरता है, r = सँकरी नली का अर्धव्यास = दबाव का अंतर जो नली के दोनों सिरों के बीच होता है, l = संकीर्ण नली की लंबाई तथा = श्यानता का गुणांक है।
| 0.5 | 4,347.474614 |
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श्यानता
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प्रयोगों द्वारा यह पाया गया है कि, काफी हद तक, द्रवों की श्यानता ताप पर निर्भर है। यद्यपि इस क्षेत्र में काफी प्रयोग किए जा चुके हैं, तथापि कोई ऐसा साधारण सूत्र नहीं मिला जो श्यानता तथा ताप के संबंध की उच्च यथार्थता को प्रदर्शित करे। प्राय: यह पाया जाता है कि पूरे क्षेत्र में ताप के बढ़ने के साथ साथ श्यानता घटती चली जाती है, लेकिन श्यानता में यह घटाव प्रति अंश निम्न ताप पर ऊँचे ताप की अपेक्षा ज्याद होता है। श्यानता तथा ताप के संबंध में सर्वप्रथम स्लॉट (Slotte) द्वारा एक मूलानुपाती सूत्र (empirical formula) दिया गया, जो बाद में संशोधित हुआ तथा शुद्ध द्रवों के संबंध में ही लागू होता है। आगे चलकर ऐंड्राडे के सिद्धांत (Andrade's theory) पर एक जटिल श्यानता-ताप-संबंध दिया गया, जो प्रयोगों से काफी संतोषप्रद पाया गया है और वह इस प्रकार है :
| 0.5 | 4,347.474614 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE
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श्यानता
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ताप के बढ़ने के साथ साथ गैसों का श्यानता का गुणांक बढ़ता है। इसके संबंध में सदरलैंड (Sutherland) ने एक सूत्र दिया है, जो इस प्रकार है :
| 0.5 | 4,347.474614 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A4%E0%A4%BE
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श्यानता
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जिन द्रवों की श्यानता ज्यादा होती है, जैसे खनिज तेल की, उनकी श्यानता का गुणांक दबाव के बढ़ने के साथ साथ बढ़ता है। केवल पानी को छोड़कर अन्य सभी द्रवों में करीब करीब ऐसी ही स्थिति पाई गई है। पानी में पहले कई सौ वायु दबाव (few hundred atmospheric pressures) तक श्यानतागुणांक घटता जाता है, तदुपरांत इसका श्यानतागुणाक अन्य द्रवों की तरह दबाव के साथ साथ बढ़ता है।
| 0.5 | 4,347.474614 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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नौकरी का अर्थ है किसी दूसरे की मजदूरी अथवा वेतन के बदले में कार्य करना। यदि किसी को कार्यालय सहायक के पद पर नियुक्त किया जाता है तो वह उस कार्य को करेगा जो उसका पर्यवेक्षक उसे सौंपता है। अपने कार्य के बदले में प्रतिमास उसे वेतन मिलेगा। इस प्रकार का रोजगार रोजगारदाता एवं कर्मचारी के बीच अनुबंध पर आधारित होता है। कर्मचारी अपने मालिक के लिए कार्य करता है। वह उस कार्य को करता है जो उसका मालिक उसे करने के लिए देता है। इसके बदले में उसे उसका प्रतिफल मिलता है। कार्यकाल की अवधि में वह मालिक की देख-रेख और नियंत्रण में कार्य करता है। दूसरी ओर स्वरोजगार का अर्थ है अपनी जीविका कमाने के लिए स्वयं किसी आर्थिक क्रिया को करना। आइए, पहले नौकरी के विभिन्न अवसरों के बारे में संक्षेप में जानें।
| 0.5 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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सवेतन व्यवसाय अथवा सवेतन नौकरी के अवसर सरकारी कार्यालयों में पाये जाते हैं। सरकारी विभागों में रेलवे, बैंक, व्यापारिक कम्पनियां, स्कूल एवं अस्पतालों में विभिन्न प्रकार का कार्य होता है। इसी प्रकार से औद्योगिक इकाइयों एवं ट्रांसपोर्ट कम्पनियों के कार्यों की प्रकृति में अंतर होता है। इसलिए इनमें कार्यरत तकनीकी कर्मचारियों के कार्य में भी भिन्नता होती है।
| 0.5 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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जिन लोगों ने माध्यमिक परीक्षा पास की है उन लोगों के लिए लिपिक अथवा विद्यालयों में प्रयोगशाला सहायक के पद पर नियुक्ति के अवसर होते हैं, क्योंकि इन पदों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता माध्यमिक कक्षा उत्तीर्ण है। वैसे इनके लिए आई। टी.आई। पॉलीटैक्निक, राज्य सचिव एवं वाणिज्यिक संस्थानों में प्रशिक्षण की विशेष सुविधाएं उपलब्ध हैं। जो व्यक्ति तकनीकी अथवा कार्यालय सचिवालयों के पाठ्यक्रम में उतीर्ण हो जाता है उसे किसी कार्यशाला में तकनीकी कर्मचारी अथवा कार्यालय सहायक अथवा लेखालिपिक के पद पर नियुक्ति मिल सकती है। यदि वह कम्प्यूटर प्रचालन में निपुण है तो उसे कम्प्यूटर प्रचालक के रूप में नियुक्ति मिल सकती है।
| 0.5 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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जब आप कोई रोजगार अपनाते हैं तो आप वह कार्य करते हैं जो आपका रोजगारदाता आपको सौंपता है तथा बदले में आपको मजदूरी अथवा वेतन के रूप में एक निश्चित राशि प्राप्त होती है। लेकिन कोई काम/नौकरी के स्थान पर अपना कोई कार्य कर सकते हैं तथा अपनी आजीविका कमा सकते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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आप एक दवाइयों की दुकान चला सकते हैं या फिर एक दर्जी का काम कर सकते हैं। यदि एक व्यक्ति कोई आर्थिक क्रिया करता है तथा स्वयं ही इसका प्रबंधन करता है तो इसे स्वरोजगार कहते हैं। हर इलाके में आप छोटे-छोटे स्टोर, मरम्मत करने वाली दुकानें अथवा सेवा प्रदान करने वाली इकाइयां देखते हैं। इन प्रतिष्ठानों का एक ही व्यक्ति स्वामी होता है तथा वही उनका प्रबंधन करता है। कभी-कभी एक या दो व्यक्तियों को वह अपने सहायक के रूप में रख लेता है। किराना भंडार, स्टेशनरी की दुकान, किताब की दुकान, दवा घर, दर्जी की दुकान, नाई की दुकान, टेलीफोन बूथ, ब्यूटी पार्लर, बिजली, साइकिल आदि की मरम्मत की दुकानें स्वरोजगार आधारित क्रियाओं के उदाहरण हैं। इन भंडारों अथवा दुकानों के स्वामी प्रबन्ध्क क्रय-विक्रय क्रियाओं अथवा सेवा कार्यों से आय अर्जित करते हैं जो उनकी जीविका का साधन है। यदि उनकी आय व्यय से कम होती है तो उन्हें हानि होती है, जिसे उन्हें ही वहन करना होता है।
| 1 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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नौकरी या सवेतन रोजगार में व्यक्ति कर्मचारी होता है, जबकि स्वरोजगार में वह स्वयं नियोक्ता की तरह होता है।
| 0.5 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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नौकरी में आमदनी नियोक्ता पर निर्भर करती है कि वह कितना वेतन देता है, जबकि स्वरोजगार में उस व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है जो स्वरोजगार में लगा हुआ है।
| 0.5 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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नौकरी में व्यक्ति दूसरों के लाभ के लिए कार्य करता है जबकि स्वरोजगार में व्यक्ति अपने ही लाभ के लिए कार्य करता है।
| 0.5 | 4,333.91826 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
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आजीविका
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नौकरी में आय सीमित होती है, जो पहले से ही नियोक्ता द्वारा तय कर ली जाती है। जबकि स्वरोजगार में स्वरोजगार में लगे हुए व्यक्ति की लगन व योग्यता पर निर्भर करती है।
| 0.5 | 4,333.91826 |
20231101.hi_9888_20
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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अनेक रोग, जैसे मधुमेह, बृक्कशोथ, स्थूलता, जठरब्रण इत्यादि आहार से संबंध रखते हैं। इनका निवारण खाद्यों एवं पेयों के नियंत्रण से किया जा सकता है।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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चिकित्सा
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इसमें ऐसे रसद्रव्यों से चिकित्सा की जाती है जो मनुष्य के लिये विषैले नहीं होते, पर रोगाणुओं के लिये घातक होते हैं।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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इसमें मालिश, कंपन, विविध व्यायाम, स्वीडीय अंगायाम (Swedish movement) इत्यादि द्वारा चिकित्सा होती है।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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इनमें शल्यकर्म, दहन चिकित्सा, विद्युद्वारा चिकित्सा (Electro shock therapy), स्नान चिकित्सा, वायुदाब चिकित्सा (Aerotherapy), सूर्यरश्मि चिकित्सा, (Helio therapy) इत्यादि आती हैं।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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इसमें तात्कालिक या स्थितिक निदान, प्राथमिक उपचार, चिकित्सा-क्षेत्र-निर्धारण, छुतहे रोगियों का पृथक्करण इत्यादि हैं।
| 1 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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इसमें घातक तथा कठिन रोगों के रोगियों को उचित स्थान में रखकर जीवनरक्षा के आवश्यक उपायों के प्रयोग, नियमित पर्यवेक्षण तथा प्रयोग और यंत्रों की सहायता से निदान का प्रबंध किया जाता है। रोगियों का अस्पतालीकरण उनके घर पर भी होता है।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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सभी प्रकार की शल्यक्रियाओं, इंजेक्शनों तथा प्रसव कार्यों के पूर्व चिकित्सकों की त्वचा तथा हाथों को रोगाणुविहीन बनाया जाता है। कटे हुए स्थानों में श्वास तथा स्पर्श से रोगाणुओं की पहुँच रोकने के लिये शल्यकारों का विशेष पहनावा, दस्ताने इत्यादि पहनना आवश्यक होता है। लोकस्वास्थय के हितकारी उपचारों में भी विविध प्रकार के विसंक्रमणों का बहुत महत्व है।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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शीघ्र प्रभाव के लिये विभिन्न स्थितियों में ओषधियों का उचित मात्रा में तथा उचित रीति से सेवन कराया जाता है। सेवन की सात प्रचलित रीतियाँ हैं : आंत्रेतर (Parenteral) इंजेक्शन, मुख, प्राकृतिक गुहाओं, श्वसनमार्ग तथा त्वचा द्वारा और किरणों तथा विकिरण से। यांत्रिक भेषजसेवन छ: प्रकार के होते हैं : अधिचर्मीय, अंत:चर्मीय, अधस्त्वकीय, शिरामार्गीय, मांसमार्गीय तथा अंतरंगगत। इनमें से शिरामार्गीय और अंतरंगगत रीतियाँ बहुत निकट हैं तथा असाधारण स्थितियों में प्रयुक्त होती हैं।
| 0.5 | 4,330.989497 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE
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चिकित्सा
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इनके प्रयोग रुग्ण अंगों को काटकर निकालने अथवा कुरूपता को सुधारने इत्यादि में शल्यकारों द्वारा तथा प्रसवकार्यों में इसके विज्ञों द्वारा किए जाते हैं।
| 0.5 | 4,330.989497 |
20231101.hi_557433_1
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6
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सारांश
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इस तरह कि कहीं प्रश्न हमारे मस्तिष्क में उठ रहे हैं हम उन पर विचार भी करते हैं और फिर अपनी अपनी व्यवस्थाओं के कारण इन अहम मुद्दों पर विचार करना भूल जाते हैं आज इस बात की महती आवश्यकता है कि हम अपने जीवन अपने वर्तमान और अपने साथ साथ भावी पीढ़ी के भविष्य से जुड़े इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करें और अपना थोड़ा समय इस संसार को सुंदर आनंद आए और उत्कृष्ट स्थान बनाने का पावन संकल्प करें और अपने उद्देश्य की प्राप्ति में जुट जाए ध्यान रहे कि किसी भी महान लक्ष्य की प्राप्ति का सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य से होता है हम कितनी भी व्यस्त क्यों ना हो हमें प्रात 2 किलोमीटर दौड़ लगानी चाहिए वही आम के पश्चात सुख एवं स्वास्थ्यवर्धक अल्प आहार लेना चाहिए जिसमें कुछ में एक ग्लास दूध सौ ग्राम अंकुरित अनाज एवं 1या 2 मोसंबी फल शामिल हो
| 0.5 | 4,324.555363 |
20231101.hi_557433_2
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6
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सारांश
|
दही को राई से बिलोने पर उसका तत्त्व भाग ऊपर आ जाता है। यही पृथक् करने पर मक्खन कहलाता है। यह मक्खन दही का सार कहलाता है। जिस प्रकार जमी हुई दही को मथकर मक्खन निकाला जाता है, उसी प्रकार चिंतन की प्रक्रिया से मथ कर किसी भी सामग्री में से सार निकाला जाता है। भाषा के संदर्भ में भी सार यही है।
| 0.5 | 4,324.555363 |
20231101.hi_557433_3
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6
|
सारांश
|
अपनी बात (या कथ्य) को प्रभावी और रोचक बनाने और उसे पाठकों की समझ में आ सकने योग्य बनाने के लिए लेखक अपनी बात को
| 0.5 | 4,324.555363 |
20231101.hi_557433_4
|
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6
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सारांश
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दोहराता है, मुहावरे-लोकोक्तियों का प्रयोग करता है, किसी कथा-प्रसंग से उसे प्रमाणित करता है। विद्वानों की उक्तियों को उधृत करके उसे ठोस बनाता है, अलंकार-युक्त शब्दावली का प्रयोग करता है और कथ्य को विस्तार देता है।
| 0.5 | 4,324.555363 |
20231101.hi_557433_5
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सारांश
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किसी पाठ की सामग्री में भी सार और निस्सार बात में अंतर किया जा सकता है। जो बातें महत्त्व की होती हैं, उन्हें हम स्वीकार कर
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सारांश
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आज का जीवन बहुत भाग-दौड़ वाला है। लोगों के पास समय की कमी है। ज़माना इतनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है कि यदि व्यक्ति उसके साथ कदम-से-कदम मिलाकर न चले, तो वह पिछड़ जाएगा। यही कारण है कि व्यक्ति कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक बातें जान लेना चाहता है। कार्यालय में अधिकारियों के पास इतना समय नहीं होता कि वे फ़ाइलों और पत्रों को पूरी तौर से पढ़ें। वे कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक फाइलों और पत्रों को निपटा देना चाहते हैं। विशेष रूप से वह अधिकारी जिसने हाल ही में कार्यभार सँभाला है। उस व्यक्ति के पास इतना समय नहीं होता कि वह सभी फाइलें विस्तार से पढ़े, अतः वह संबंधित फाइल की सामग्री का सार प्रस्तुत करने का आदेश दे देता है। इस तरह की स्थितियों में सार बहुत मददगार सिद्ध होता है। सार को पढ़कर अधिकारी तुरत-फुरत ढेर सारी फाइलें निपटा देता है। सार को पढ़कर व्यक्ति अपनी रुचि का समाचार, लेख या कहानी चुन लेता है। कुल मिलाकर ’सार‘ पूरी सामग्री के आधार पर तैयार किया गया वह मसौदा है, जो संक्षिप्त होते हुए भी सामग्री की सभी मुख्य बातों को अपने में समेटे होता है, जिसके आधार पर पूरी सामग्री को समझा जा सकता है।
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सारांश
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यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि जब सार-संक्षेपण का इतना महत्त्व है और सारे काम सार के आधार पर ही चल सकते हैं, तो फिर मूल सामग्री की क्या आवश्यकता और महत्ता रहती है अर्थात् फिर मूल विस्तृत सामग्री क्यों पढ़ी जाती है? इससे भी और आगे बढ़कर सब लोग सार ही क्यों नहीं लिखते अपनी बातें विस्तार से क्यों लिखते हैं?
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सारांश
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वस्तुतः कथ्य की संवेदनशीलता, भाषा का चमत्कार, अनुभव की ऊष्मा, सार में नहीं आ पाती। सार से काम तो चल जाता है, किंतु रचनात्मकता का उसमें अभाव रहता है। अतः कथ्य को पूरी तरह जानने और समझने के लिए, भाषा के चमत्कार का आनंद लेने के
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सारांश
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वैसे तो हमें अपनी बात कम-से-कम शब्दों में और संक्षेप में कहनी चाहिए तथा अनर्गल बातों से बचना चाहिए, किंतु भावों को पूरी
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20231101.hi_484295_105
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पितृमेध
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शतपथ ब्राह्मण एवं पारस्कर गृह्यसूत्र ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसी प्रकार की जाती है, जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मन्त्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पारस्कर गृह्यसूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहने वाले सम्बन्धी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अँगुली से वाजसनेयी संहिता के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं।
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पितृमेध
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आपस्तम्ब धर्मसूत्र का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के सम्बन्धी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं, तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं सँवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, पानी में डुबकी लगानी चाहिए, मृत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए। इसके पश्चात् गाँव को लौट जाना चाहिए तथा स्त्रियाँ जो कुछ कहें उसे करना चाहिए। याज्ञवल्क्यस्मृति ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप न: शोशुचद् अघम्' के पाठ की व्यवस्था दी है।
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पितृमेध
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गौतमपितृमेधसूत्र के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड लोग जिनमें स्त्रियाँ और विशेषत: कम अवस्था वाली सबसे आगे रहती हैं। चिता पर रखे गये शव पर अपने वस्त्र के अन्तभाग (आँचल) से हवा करते हैं, अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला एक जलपूर्ण घड़ा लेता है और अपने सिर पर दर्भेण्डु रखता है और तीन बार शव की परिक्रमा करता है। पुरोहित घड़े पर एक पत्थर (अश्म) या कुल्हाड़ी से धीमी चोट करता है और 'इमा आप: आदि' का पाठ करता है। जब टूटे घड़े से जल की धार बाहर निकलने लगती है तो मन्त्र के शब्दों में कुछ परिवर्तन हो जाता है, यथा 'अस्मिन् लोके' के स्थान पर 'अन्तरिक्षे आदि'। अन्त्येष्टिकर्ता खड़े रूप में जलपूर्ण घड़े को पीछे फेंक देता है। इसके उपरान्त 'तस्मात् त्वमधिजातोसि......असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा' के पाठ के साथ शव को जलाने के लिए चिता में अग्नि प्रज्वलित करता है। शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि घर के लोग अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं, आँचल से शव पर हवा करते हैं और तीन बार शव की बायें ओर होकर परिक्रमा करते हैं तथा 'अप न: शोशुचदघम्' पढ़ते हैं। इसने आगे कहा है कि शव किसी गाड़ी में या चार पुरुषों के द्वारा ढोया जाता है और ढोते समय चार स्थानों पर रोका जाता है और उन चारों स्थानों पर पृथ्वी खोद दी जाती है और उसमें भात का पिण्ड 'पूषा त्वेत:' एवं 'आयुर्विश्वायु:' मन्त्रों के साथ आहुति के रूप में रख दिया जाता है। वराह पुराण के अनुसार पौराणिक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, अन्त्येष्टिकर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए जहाँ पर सिर रखा रहता है।
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पितृमेध
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शव को ले जाने के विषय में कई प्रकार के नियमों की व्यवस्था है। हमने ऊपर देख लिया है कि शव गाड़ी में ले जाया जाता था या सम्बन्धियों या नौकरों (दासों) द्वारा विशिष्ट प्रकार से बने पलंग या कुर्सी या अरथी द्वारा ले जाया जाता था। इस विषय में कुछ सूत्रों, स्मृतियों, टीकाओं एवं अन्य ग्रन्थों ने बहुत-से नियम प्रतिपादित किये हैं। रामायण में आया है कि दशरथ की मृत्यु पर उनके पुरोहितों द्वारा शव के आगे वैदिक अग्नियाँ ले जायी जा रही थीं, शव एक पालकी (शिबिका) में रखा हुआ था, नौकर ढो रहे थे, सोने के सिक्के एवं वस्त्र अरथी के आगे दरिद्रों के लिए फेंके जा रहे थे। सामान्य नियम यह था कि तीन उच्च वर्णों में शव को मृत व्यक्ति के वर्ण वाले ही ढोते थे और शूद्र उच्च वर्ण का शव तब तक नहीं ढो सकते थे, जब तक उस वर्ण के लोग नहीं पाये जाते थे। उच्च वर्ण के लोग शूद्र के शव को नहीं ढोते थे और इस नियम का पालन करने पर तत्सम्बन्धी अशौच मृत व्यक्ति की जाति से निर्णीत होता था। ब्रह्मचारी को किसी व्यक्ति या अपनी जाति के किसी व्यक्ति के शव को ढोने की आज्ञा नहीं थी, किन्तु वह अपने माता-पिता, गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय के शव को ढो सकता था और ऐसा करने पर उसे कोई कल्मष नहीं लगता था। गुरु, आचार्य और उपाध्याय की परिभाषा याज्ञवल्क्यस्मृति ने दी है। यदि कोई ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य का शव ढोता था, तो उसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित माना जाता था और उसे व्रतलोप का प्रायश्चित करना पड़ता था। मनुस्मृति का कथन है कि जो लोग स्वजातीय व्यक्ति का शव ढोते हैं, उन्हें वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए; नीम की पत्तियाँ दाँत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है।
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पितृमेध
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सपिण्डरहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोने वाले की पराशरमाधवीय ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है, वह प्रत्येक पग पर एक-एक यज्ञ के सम्पादन का फल पाता है ऐसा कहना गलत है मानव जीवन एक समान और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है, वह तीन दिनों के उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यत: आज भी (विशेषत: ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के पश्चात् पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्यकाल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि "यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यह नियम तभी लागू होता है, जब कि शव को ढोने वाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है, तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" कूर्म पुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच) में रहता है और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से 12, 15 एवं 30 दिनों तक अपवित्र रहता है।
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20231101.hi_484295_110
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पितृमेध
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विष्णु पुराण का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शुल्क लेकर शव ढोता है तो वह मृत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत के मत से शव को मार्ग के गाँवों में होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनुस्मृति एवं वृद्ध-हारीत का कथन है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं गरुड़ पुराण का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायेगा। हारलता का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाये तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयुक्त होना चाहिए। स्मृतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी नहीं जलाना चाहिए। उसे वस्त्र से ढँका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पका हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए। ब्रह्म पुराण का कथन है कि शव को श्मशान ले जाते समय वाद्ययंत्रों द्वारा पर्याप्त निनाद किया जाता है।
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पितृमेध
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शव को जलाने के उपरान्त, अन्त्येष्टि क्रिया के अंग के रूप में कर्ता को वपन (मुंडन) करवाना पड़ता है और उसके उपरान्त स्नान करना होता है, किन्तु वपन के विषय में कई नियम हैं। स्मृति-वचन यों है-'दाढ़ी-मूँछ बनवाना सात बातों में घोषित है, यथा-गंगातट पर, भास्कर क्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, श्रौताग्नियों की स्थापना पर एवं सोमयज्ञ में।' अन्त्यकर्मदीपक का कथन है कि अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या किसी अन्य कर्ता को सबसे पहले वपन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को किसी पवित्र स्थल पर ले जाना चाहिए तथा वहाँ स्नान कराना चाहिए, या यदि ऐसा स्थान वहाँ न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगा, गया या अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरान्त शव पर घी या तिल के तेल का लेप करके पुन: उसे नहलाना चाहिए, नया वस्त्र पहनाना चाहिए, यज्ञोपवीत, गोपीचन्दन, तुलसी की माला से सजाना चाहिए और सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरी आदि सुंगधित पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। यदि अन्त्येष्टि क्रिया रात्रि में हो तो वपन रात्रि में नहीं होना चाहिए, बल्कि दूसरे दिन होना चाहिए। अन्य स्मृतियों ने दूसरे, तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी दिन भी वपन की व्यवस्था दी है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के मत से मृत व्यक्ति से छोटे सभी सपिण्ड लोगों को वपन कराना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है कि अन्त्येष्टि कर्ता को वपन-कर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर कराना चाहिए, किन्तु शुद्धिप्रकाश ने मिताक्षरा के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि वपन-कर्म का दिन स्थान-विशेष की परम्परा पर निर्भर है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से कर्ता अन्त्येष्टि कर्म के समय वपन कराता है, किन्तु मिथिला सम्प्रदाय के मत से अन्त्येष्टि के समय वपन नहीं होता। गरुड़ पुराण के मत से घोर रुदन शवदाह के समय किया जाना चाहिए, किन्तु दाह-कर्म एवं जल-तर्पण के उपरान्त रुदन-कार्य नहीं होना चाहिए।
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पितृमेध
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सपिण्डों एवं समानोदकों द्वारा मृत के लिए जो उदकक्रिया या जलवान होता है, उसके विषय में मतैक्य नहीं है। आश्वलायन गृह्यसूत्र ने केवल एक बार जल-तर्पण की बात कही है, किन्तु सत्यषाढ श्रौतसूत्र आदि ने व्यवस्था दी है कि तिलमिश्रित जल अंजलि द्वारा मृत्यु के दिन मृत का नाम एवं गौत्र बोलकर तीन बार दिया जाता है और ऐसा ही प्रतिदिन ग्यारहवें दिन तक किया जाता है। गौतम धर्मसूत्र एवं वसिष्ठ धर्मसूत्र ने व्यवस्था दी है कि जलदान सपिण्डों द्वारा प्रथम, तीसरे, सातवें एवं नवें दिन दक्षिणाभिमुख होकर किया जाता है, किन्तु हरदत्त का कथन है कि सब मिलाकर 75 अंजलियाँ देनी चाहिए (प्रथम दिन 3, तीसरे दिन 9, सातवें दिन 30 एवं नवें दिन 33), किन्तु उनके देश में परम्परा यह थी कि प्रथम दिन अंजलि द्वारा तीन बार और आगे के दिनों में एक-एक अंजलि अधिक जल दिया जाता था। विष्णु धर्मसूत्र, प्रचेता एवं पैठिनसि ने व्यवस्था दी है कि मृत को जल एवं पिण्ड दस दिनों तक देते रहना चाहिए।
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पितृमेध
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शुद्धिप्रकाश ने गृह्यपरिशिष्ट के कतिपय वचन उद्धृत कर लिखा है कि कुछ के मत से केवल 10 अंजलियाँ और कुछ के मत से 100 और कुछ के मत से 55 अंजलियाँ दी जाती हैं, अत: इस विषय में लोगों को अपनी वैदिक शाखा के अनुसार परम्परा का पालन करना चाहिए। यही बात आश्वलाय गृह्यसूत्र ने भी कही है। गरुड़ पुराण ने भी 10, 55 या 100 अंजलियों की चर्चा की है। कुछ स्मृतियों ने जाति के आधार पर अंजलियों की संख्या दी है। प्रचेता के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र मृतक के लिए क्रम से 10, 12, 15 एवं 30 अंजलियाँ दी जानी चाहिए। यम (श्लोक 92-94) ने लिखा है कि नाभि तक पानी में खड़े होकर किस प्रकार जल देना चाहिए और कहा है (श्लोक 98) कि देवों एवं पितरों को जल में और जिनका उपनयन संस्कार न हुआ हो, उनके लिए भूमि में खड़े होकर जल तर्पण करना चाहिए। देवयाज्ञिक द्वारा उद्धृत एक स्मृति में आया है कि मृत्यु काल से आगे 6 पिण्ड निम्न रूप में दिये जाने चाहिए; मृत्यु स्थल पर, घर की देहली पर, चौराहे पर, श्मशान के मार्ग पर जहाँ शव यात्री रुकते हैं, चिता पर तथा अस्थियों को एकत्र करते समय। स्मृतियों में ऐसा भी आया है कि लगातार दस दिनों तक तेल का दीपक जलाना चाहिए, जलपूरण मिट्टी का घड़ा भी रखा रहना चाहिए और मृत का नाम-गौत्र कहकर दोपहर के समय एक मुट्ठी भात भूमि पर रखना चाहिए। इसे पाथेय श्राद्ध कहा जाता है, क्योंकि इससे मृत को यमलोक जाने में सहायता मिलती है। कुछ निबन्धों के मत से मृत्यु के दिन सपिण्डों द्वारा वपन, स्नान, ग्राम एवं घर में प्रवेश कर लेने के उपरान्त नग्न-प्रच्छादन नामक श्राद्ध करना चाहिए। नग्न-प्रच्छादन श्राद्ध में एक घड़े में अनाज भरा जाता है, एक पात्र में घृत एवं सामर्थ्य के अनुसार सोने के टुकड़े या सिक्के भरे जाते हैं। अन्नपूर्ण घड़े की गर्दन वस्त्र से बँधी रहती है। विष्णु का नाम लेकर दोनों पात्र किसी कुलीन दरिद्र ब्राह्मण को दे दिये जाते हैं।
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20231101.hi_18442_0
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पेरियार
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इरोड वेंकट रामासामी पेरियार (17 सितम्बर, 1879-24 दिसम्बर, 1973) जिन्हे पेरियार (तमिल में अर्थ -सम्मानित व्यक्ति) नाम से भी जाना जाता था, बीसवीं सदी के तमिलनाडु के एक प्रमुख राजनेता थे जो दलित-शोषित व गरीबों के उत्थान के लिए कार्यरत रहे। इन्होंने जातिवादी व गैर बराबरी वाले हिन्दुत्व का विरोध किया जो इनके अनुसार दलित समाज के उत्थान का एकमात्र विकल्प था।
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पेरियार
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पेरियार अपनी मान्यता का पालन करते हुए मृत्युपर्यंत जाति और हिंदू-धर्म से उत्पन्न असमानता और अन्याय का विरोध करते रहे। ऐसा करते हुए उन्होंने लंबा, सार्थक, सक्रिय और सोद्देश्यपूर्ण जीवन जीया था। पेरियार ऐसे क्रांतिकारी विचारक के रूप में जाने जाते थे जिन्होंने धार्मिक आडंबर और कर्मकांडों पर प्रहार किया था। उन्होंने तमिलनाडु में ब्राह्मणवादी प्रभुत्व और जाति अस्पृश्यता के खिलाफ विद्रोह किया।
| 0.5 | 4,308.877549 |
20231101.hi_18442_2
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पेरियार
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इनका जन्म 17 सितम्बर 1879 को पश्चिमी तमिलनाडु के इरोड में एक सम्पन्न, परम्परावादी हिन्दू धर्म की बलिजा जाति में हुआ था। १८८५ में उन्होंने एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लिया। पर कोई पाँच साल से कम की औपचारिक शिक्षा मिलने के बाद ही उन्हें अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ना पड़ा। उनके घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता ही रहता था। बचपन से ही वे इन उपदशों में कही बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे। हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों की परस्पर विरोधी तथा बाल विवाह, देवदासी प्रथा, विधवा पुनर्विवाह के विरुद्ध अवधारणा, स्त्रियों तथा दलितों के शोषण के पूर्ण विरोधी थे। उन्होंने हिन्दू वर्ण व्यवस्था का भी बहिष्कार किया। १९ वर्ष की उम्र में उनकी शादी नगम्मल नाम की १३ वर्षीया स्त्री से हुई।
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