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20231101.hi_18442_3
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पेरियार
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१९०४ में पेरियार ने एक ब्राह्मण, जिसका कि उनके पिता बहुत आदर करते थे, के भाई को गिरफ़्तार किया जा सके, इस हेतु न्यायालय के अधिकारियों की मदद की। इसके लिए उनके पिता ने उन्हें लोगों के सामने पीटा। इसके कारण कुछ दिनों के लिए पेरियार को घर छोड़ना पड़ा। पेरियार काशी चले गए। वहां निःशुल्क भोज में जाने की इच्छा होने के बाद उन्हें पता चला कि यह सिर्फ ब्राह्मणों के लिए था। ब्राह्मण नहीं होने के कारण उन्हे इस बात का बहुत दुःख हुआ और उन्होने हिन्दुत्व के विरोध की ठान ली। इसके लिए उन्होने किसी और धर्म को नहीं स्वीकारा और वे हमेशा नास्तिक रहे। इसके बाद उन्होने एक मन्दिर के न्यासी का पदभार संभाला तथा जल्द ही वे अपने शहर के नगरपालिका के प्रमुख बन गए। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुरोध पर १९१९ में उन्होने कांग्रेस की सदस्यता ली। इसके कुछ दिनों के भीतर ही वे तमिलनाडु इकाई के प्रमुख भी बन गए। केरल के कांग्रेस नेताओं के निवेदन पर उन्होने वाईकॉम आन्दोलन का नेतृत्व भी स्वीकार किया जो मन्दिरों कि ओर जाने वाली सड़कों पर दलितों के चलने की मनाही को हटाने के लिए संघर्षरत था। उनकी पत्नी तथा दोस्तों ने भी इस आंदोलन में उनका साथ दिया।
| 0.5 | 4,308.877549 |
20231101.hi_18442_4
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पेरियार
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युवाओं के लिए कांग्रेस द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर में एक ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव बरतते देख उनके मन में कांग्रेस के प्रति विरक्ति आ गई। उन्होने कांग्रेस के नेताओं के समक्ष दलितों तथा पीड़ितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भी रखा जिसे मंजूरी नहीं मिल सकी। अंततः उन्होने कांग्रेस छोड़ दिया। दलितों के समर्थन में १९२५ में उन्होने एक आंदोलन भी चलाया। सोवियत रूस के दौरे पर जाने पर उन्हें साम्यवाद की सफलता ने बहुत प्रभावित किया। वापस आकर उन्होने आर्थिक नीति को साम्यवादी बनाने की घोषणा की। पर बाद में अपना विचार बदल लिया।
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पेरियार
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फिर इन्होने जस्टिस पार्टी, जिसकी स्थापना कुछ गैर ब्राह्मणों ने की थी, का नेतृत्व संभाला। १९४४ में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविदर कड़गम कर दिया गया। 1940 के दशक तक, ई वी रामासामी ने एक अलग पाकिस्तान के लिए मुस्लिम लीग के दावे का समर्थन किया, और बदले में इसके समर्थन की अपेक्षा की। मुस्लिम लीग के मुख्य नेता जिन्ना ने मद्रास के गवर्नर के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि भारत को चार क्षेत्रों में विभाजित किया जाना चाहिए: द्रविड़स्तान , हिंदुस्तान, बंगिस्तान
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पेरियार
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और पाकिस्तान; द्रविड़स्तान लगभग मद्रास प्रेसीडेंसी क्षेत्र के अंतर्गत आता है। जिन्ना ने कहा, "मेरे पास हर सहानुभूति है और सभी मदद करने के लिए करेंगे और आप द्रविड़स्तान की स्थापना करेंगे जहां 7 प्रतिशत मुस्लिम आबादी अपनी दोस्ती का हाथ बढ़ाएगी और आपके साथ सुरक्षा, न्याय और निष्पक्षता की तर्ज पर रहेगी।
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पेरियार
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स्वतंत्रता के बाद उन्होने अपने से कोई २० साल छोटी स्त्री से शादी की जिससे उनके समर्थकों में दरार आ गई और इसके फलस्वरूप डी एम के (द्रविड़ मुनेत्र कळगम) पार्टी का उदय हुआ। १९३७ में राजाजी द्वारा तमिलनाडु में आरोपित हिन्दी के अनिवार्य शिक्षण का उन्होने घोर विरोध किया और बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होने अपने को सत्ता की राजनीति से अलग रखा तथा आजीवन दलितों तथा स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए प्रयास किया।
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पेरियार
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अस्पृश्यता की कुप्रथा के विरुद्ध त्रावणकोर (केरल) में यह सत्याग्रह चलाया गया था। इसका उद्देश्य निम्न जाती लोगों एवं अछूतों द्वारा अहिंसक तरीके से त्रावणकोर के हिन्दू मंदिरों में प्रवेश तथा सार्वजनिक सड़कों पर अस्पृश्यों के चलने को लेकर त्रावणकोर के वायकोम नामक ग्राम में यह आंदोलन शुरू हुआ। उस समय अस्पृश्यता की जड़ें काफ़ी गहरी जमीं हुई थीं। यहाँ सवर्णों से निम्न वर्ग को दूरी बनाये रखनी होती थी। निम्न वर्ग के लोगों में एझवा और पुलैया जैसी कई अछूत जातियाँ शामिल थीं। 19वीं सदी के अंत तक केरल में नारायण गुरु, एन॰ कुमारन, टी॰ के॰ माधवन जैसे बुद्धिजीवियों ने छुआछूत के विरुद्ध आवाज उठाई।
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20231101.hi_30387_2
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अहिल्या
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हिन्दू परम्परा में इन्हें, सृष्टि की पवित्रतम पाँच कन्याओं, पंचकन्याओं में से एक गिना जाता है और इन्हें प्रातः स्मरणीय माना जाता है। मान्यता अनुसार प्रातःकाल इन पंचकन्याओं का नाम स्मरण सभी पापों का विनाश करता है।
| 0.5 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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अहल्या शब्द दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:अ (एक निषेधवाचक उपसर्ग, नञ तत्पुरुष) और हल्या, जिसका संस्कृत अर्थ हल, हल जोतने अथवा विरूपता से सम्बंधित है। रामायण के उत्तर काण्ड में ब्रह्मा द्वारा इसका अर्थ बिना किसी असुन्दरता के बताया गया है, जहाँ ब्रह्मा इन्द्र को यह बता रहे हैं कि किस प्रकार सृष्टि की सुन्दरतम रचनाओं से तत्व लेकर उन्होंने अहल्या के अंगों में उनका समावेश करके अहल्या की रचना की।
| 0.5 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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ज्ञानमंडल, वाराणसी प्रकाशित आधुनिक कोश इसी अर्थ को लेकर लिखता है: "अहल्या- हल का अर्थ है कुरूप, अतः कुरूपता न होने के कारण ब्रह्मा ने इन्हें अहिल्या नाम दिया।"
| 0.5 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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चूँकि, कतिपय संस्कृत शब्दकोश अहल्या का अर्थ ऐसी भूमि जिसे जोता न गया हो लिखते हैं, बाद के लेखक इसे पुरुष समागम से जोड़कर देखते हुये, अहल्या को कुमारी अथवा अक्षता के रूप में निरूपित करते हैं। यह उस परम्परा के अनुकूल पड़ता है जिसमें यह माना गया है कि अहल्या एकानेक प्रकार से इन्द्र की लिप्सा से मुक्त और उनकी पहुँच से बाहर रही। हालाँकि, रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861–1941), "अहल्या" का अभिधात्मक अर्थ "जिसे जोता न जा सके" मानते हुए उसे प्रस्तरवत् निरूपित करते हैं जिसे राम के चरणस्पर्श ने ऊर्वर बना दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर भारती झावेरी भील जनजाति की मौखिक परम्परा में मौजूद रामायण के अनुसाररवीन्द्रनाथ क मत का समर्थन करती हैं और इसका अर्थ "जिसे जोता न गया हो ऐसी ज़मीन" के रूप में बताती हैं।
| 0.5 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले तो उन्होंने एक उपवन में एक निर्जन स्थान देखा। राम बोले, "भगवन्! यह स्थान देखने में तो आश्रम जैसा दिखाई देता है किन्तु क्या कारण है कि यहाँ कोई ऋषि या मुनि दिखाई नहीं देते?"
| 1 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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विश्वामित्र जी ने बताया, "यह स्थान कभी महर्षि गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी के साथ यहाँ रह कर तपस्या करते थे। एक दिन जब गौतम ऋषि आश्रम के बाहर गये हुये थे तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या से प्रणय याचना की। अहिल्या ने इन्द्र को पहचान लिया और प्रणय हेतु अपनी स्वीकृति नहीं दी। जब इन्द्र अपने लोक लौट रहे थे तभी अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ी जो उन्हीं का वेश धारण किये हुये था। उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया। इसके बाद उन्होंने बिना विचार किए क्रोधवश अपनी पत्नी को शाप दिया कि तू हजारों वर्षों तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहाँ राख में पड़ी रहे। जब राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी। यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने लगे।
| 0.5 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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इसलिये विश्वामित्र जी ने कहा "हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहिल्या का उद्धार करो।" विश्वामित्र जी की बात सुनकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। वहाँ तपस्या में निरत अहिल्या कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, केवल उसका तेज सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो रहा था। जब अहिल्या की दृष्टि राम पर पड़ी तो उनके पवित्र दर्शन पाकर एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में दिखाई देने लगी। नारी रूप में अहिल्या को सम्मुख पाकर राम और लक्ष्मण ने श्रद्धापूर्वक उनके चरण स्पर्श किये। उससे उचित आदर सत्कार ग्रहण कर वे मुनिराज के साथ पुनः मिथिला पुरी को लौट आये।
| 0.5 | 4,307.524151 |
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अहिल्या
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अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा और मंदोदरी इनका प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए, महा पापों का नाश करने वाली हैं।
| 0.5 | 4,307.524151 |
20231101.hi_30387_10
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अहिल्या
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परंपरावादी हिन्दू, ख़ास तौर पर हिन्दू पत्नियाँ, पंचकन्याओं का स्मरण प्रातःकालीन प्रार्थना में करती हैं, इन्हें पाँच कुमारियाँ माना जाता है। एक मत के अनुसार ये पाँचों "उदाहरणीय पवित्र नारियाँ" अथवा महारी नृत्य परंपरा अनुसार महासतियाँ हैं, और कतिपय शक्तियों की स्वामिनी भी हैं। इस मत के अनुसार अहल्या इन पाँचो में सबसे प्रमुख हैं जिन्हें छलपूर्वक भ्रष्ट करने का प्रयास किया गया जबकि उनकी अपने पति के प्रति पूर्ण निष्ठा थी। अहल्या को पाँचों में प्रमुख इसलिए भी माना जाता है क्योंकि यह पात्र कालानुक्रम में भी सबसे पहले हैं। देवी भागवत पुराण में अहल्या को एक प्रकार से उन द्वितीय कोटि की देवियों में स्थान दिया गया है, जिन देवियों को शुभ, यशस्विनी और प्रशंसनीय माना गया है; इनमें तारा और मंदोदरी के अलावा पंचसतियों में से अरुन्धती और दमयन्ती इत्यादि भी शामिल की गयी हैं।
| 0.5 | 4,307.524151 |
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मूल्य-निर्धारण
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साझा-लागत प्रभाव खरीदी मूल्य का जितना कम अंश खरीदार को अपने लिए चुकाना पड़े, वे क़ीमतों के प्रति उतना ही कम संवेदनशील होंगे.
| 0.5 | 4,297.30838 |
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मूल्य-निर्धारण
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निष्पक्षता प्रभाव खरीदार किसी उत्पाद की क़ीमत के प्रति उतना ही अधिक संवेदनशील होंगे, जब खरीदी के संदर्भ में मूल्य उनके द्वारा "उचित" या "तर्कसंगत" मानी गई सीमा से अधिक हो.
| 0.5 | 4,297.30838 |
20231101.hi_194878_33
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मूल्य-निर्धारण
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फ्रेमिंग प्रभाव खरीदार क़ीमतों के प्रति उस समय अधिक संवेदनशील हो जाते हैं जब वे क़ीमत को पूर्वनिश्चित लाभ की अपेक्षा हानि मानें और मूल्य संवेदनशीलता अधिक होगी जब क़ीमत बंडल के हिस्से के रूप में नहीं, बल्कि अलग से चुकाई जाए.
| 0.5 | 4,297.30838 |
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मूल्य-निर्धारण
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उद्योग स्तर पर मूल्य-निर्धारण उद्योग के समग्र लाभ पर ध्यान केंद्रित करता है जिसमें शामिल है आपूर्तिकर्ता द्वारा क़ीमतों में परिवर्तन और ग्राहक की मांग में परिवर्तन.
| 0.5 | 4,297.30838 |
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मूल्य-निर्धारण
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बाज़ार स्तर पर मूल्य-निर्धारण, तुलनात्मक प्रतिस्पर्धी उत्पादों के साथ उत्पाद के मूल्य अंतर की तुलना में क़ीमत की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति पर ध्यान केंद्रित करता है।
| 1 | 4,297.30838 |
20231101.hi_194878_36
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मूल्य-निर्धारण
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व्यवहार स्तर पर मूल्य-निर्धारण, संदर्भ, या सूची मूल्य से हटकर, जो बीजक या रसीद पर या उससे परे दोनों तरह के, छूट के कार्यान्वयन प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करता है।
| 0.5 | 4,297.30838 |
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मूल्य-निर्धारण
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व्यष्टि विपणन बाज़ार के अंदर व्यष्टि खंडों की आवश्यकताओं और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अनुकूल उत्पाद, ब्रांड (सूक्ष्मब्रांड) प्रचार की प्रथा है। यह बाजार अनुकूलन का एक प्रकार है जो दुकान या व्यक्तिगत स्तर पर ग्राहक/उत्पाद संयोजन के मूल्य-निर्धारण के साथ व्यवहार करता है।
| 0.5 | 4,297.30838 |
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मूल्य-निर्धारण
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कई कंपनियां आम मूल्य-निर्धारण ग़लतियां करती हैं। बर्नस्टीन का लेख "सप्लायर प्राइसिंग मिस्टेक्स" कई की रूपरेखा देता है, जिनमें शामिल हैं:
| 0.5 | 4,297.30838 |
20231101.hi_194878_39
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3
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मूल्य-निर्धारण
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विलियम पाउंडस्टोन, प्राइज़लेस: द मिथ ऑफ़ फ़ेयर वैल्यू (एंड हाउ टु टेक अडवांटेज ऑफ़ इट) हिल और वैंग, 2010
| 0.5 | 4,297.30838 |
20231101.hi_7913_12
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE
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कोटा
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कोटा से 50 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय चम्बल वन्य जीव अभयारण्य है जो घड़ियालों और पतले मुंह वाले मगरमच्छों के लिए बहुत लोकप्रिय है। यहां चीते, वाइल्डबोर, तेंदुए और हिरन भी पाए जाते हैं। बहुत कम जगह दिखाई देने वाला दुर्लभ कराकल भी यहां देखा जा सकता है।
| 0.5 | 4,291.851058 |
20231101.hi_7913_13
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE
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कोटा
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श्री केशव राय जी हडोती और हाडा के शासकों के इष्टदेव हैं। केशोरईपाटन भगवान श्री केशव का निवास स्थल है। श्री केशव का मध्यकालीन मंदिर चंबल नदी के किनारे स्थित है। नदी की ओर वाली मंदिर की दीवार किले की दीवार के समान है। कार्तिक माह में आयोजित होने वाले मेले में यहां श्रद्धालु बड़ी संख्या में आते हैं। इस अवसर पर भक्तजन चम्बल नदी में डुबकी लगाते हैं और श्री कृष्ण के आशीर्वाद की कामना करते हैं। केशव राय पाटन कोटा से 22 किलोमीटर दूर उत्तर पूर्व में स्थित है।
| 0.5 | 4,291.851058 |
20231101.hi_7913_14
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE
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कोटा
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कोटा से 22 किलोमीटर दूर दक्षिण पश्चिम में शिव को समर्पित गेपरनाथ मंदिर चम्बल नदी के किनारे पर स्थित है। यह मंदिर 1569 ई. में बना था। यह स्थान प्राचीन काल से शिवभक्तों का प्रमुख तीर्थस्थल रहा है। यहां कुछ प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। सन् 2008 में एक बङी ही विस्मयी घटना ने समस्त कोटा वासीयो का दिल दहला दिया। करीब 250 व्यक्ति जो कि शिव मन्दिर में दर्शन करने वास्ते गये थे वो सीढिया टुट जाने बाबत् अन्दर ही फस गये। प्रशासन ने 2 दिन में कङी मेहनत कर उन्हे बाहर निकाला। गेपरनाथ में करीब 470 सीढिया है। करीब 350 मीटर की गहरी खाई है।
| 0.5 | 4,291.851058 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE
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कोटा
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यहां 9 वीं और 12 वीं शताब्दी के बीच बने अनेक प्राचीन मंदिर है। यह स्थान कदम, आम, जामुन और पीपल के पेड़ों से घिरा हिन्दुओं का पवित्र धार्मिक स्थल है। घाटेश्वर यहां का मुख्य मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर के सभा मंडप विशेषकर स्तम्भों में आकर्षक नक्काशियां की गई हैं। महिषासुरमर्दिनी और त्रिदेव मंदिर अन्य दो प्रमुख मंदिर है। इन मंदिरों की कुछ प्रतिमाएं कोटा के सरकारी संग्रहालय में रखी गई हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE
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कोटा
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कोटा की ख़ास पहचान यहां के कोचिंग संस्थान हैं। कोटा को भारत की "कोचिंग राजधानी" भी कहा जाता है। हर साल इस शहर में लाखों विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों के लिए आते हैं। पिछले कुछ सालों में कोटा एक प्रसिद्ध कोचिंग नगरी के रूप में उभरा है। शहर का शैक्षणिक क्षेत्र यहां की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। यहां कई कोचिंग संस्थान है जो विद्यार्थियों को प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे कि IIT और NEET की तैयारी करवाते हैं।
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कोटा
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पिछले कुछ वर्षों में, शहर में छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें बढ़ी हैं। रिपोर्टों के अनुसार, छात्रों को तनाव महसूस होता है और अपने लक्षित प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक करने के लिए उन पर दबाव पड़ता है। २०१४ के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, शहर में छात्रों के ४५ आत्महत्या के मामले सामने आए। साल २०१५ में इस तरह के १७ मामले पाए गए थे। इसी कारण से, कई कोचिंग सेंटरों ने काउंसलर भी नियुक्त किए हैं और छात्रों की मदद के लिए मनोरंजक गतिविधियों का आयोजन कर रहे हैं।
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कोटा
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नजदीकी एयरपोर्ट जयपुर का सांगानेर विमानक्षेत्र है जो कोटा से 240 किलोमीटर दूर है। भारत के महानगरों से संगनेर के लिए प्रतिदिन उड़ानों की व्यवस्था है। वैसे कोटा में भी हवाईअड़ा है, किंतु वहां हाल में ही जयपुर के लिए उड़ानें उपलब्ध हैं। कोटा से जयपुर के लिए नियमित उड़ाने शुरू हो चुकी है।
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कोटा
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कोटा जंक्शन भारतीय रेलवे की पश्चिम मध्य रेलवे इकाई के कोटा संभाग का संभागीय मुख्यालय है। कोटा सेन्ट्रल रेलवे हे निजामुद्दीन-उदयपुर एक्सप्रेस, जनशताब्दी एक्सप्रेस समेत कई ट्रेनों के माध्यम से दिल्ली से जुड़ा हुआ है। मुम्बई अगस्त क्रान्ति और त्रिवेन्द्रम राजधानी सुपरफास्ट ट्रेनों से भी कोटा पहुंचा जा सकता है। जयपुर से जयपुर-कोटा फास्ट पेसेन्जर और जयपुर- बॉम्बे सेन्ट्रल सुपरफास्ट ट्रैनों से कोटा जाया जा सकता है। कोटा ट्रेन रूट से दो रेलवे लाइन निकलती हे। चितौड़ के लिए एक भोपाल जबलपुर के लिए।
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कोटा
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जयपुर से राष्ट्रीय राजमार्ग 12 से टोंक, देवली और बूंदी होते हुए कोटा पहुंचा जा सकता है। मुम्बई से राष्ट्रीय राजमार्ग 8 और 76 से चित्तौड़गढ़, भातेश्वर, भदौरा, बिचोर और बिलोजियां होते हुए कोटा पहुंचा जा सकता है।
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वराहावतार
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कश्यप जब सन्ध्यावन्दन आदि से निवृत हुये तो उन्होंने अपनी पत्नी को अपनी सन्तान के हित के लिये प्रार्थना करते हुए और थर थर काँपती हुई देखा तो वे बोले, "हे दिति! तुमने मेरी बात नहीं मानी। तुम्हारा चित्त काम वासना में लिप्त था। तुमने असमय में भोग किया है। तुम्हारे कोख से महाभयंकर अमंगलकारी दो अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। सम्पूर्ण लोकों के निरपराध प्राणियों को अपने अत्याचारों से कष्ट देंगे। धर्म का नाश करेंगे। साधू और स्त्रियों को सतायेंगे। उनके पापों का घड़ा भर जाने पर भगवान कुपित हो कर उनका वध करेंगे।"
| 0.5 | 4,282.047334 |
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वराहावतार
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दिति ने कहा, "हे भगवन्! मेरी भी यही इच्छा है कि मेरे पुत्रों का वध भगवान के हाथ से ही हो। ब्राह्मण के शाप से न हो क्योंकि ब्राह्मण के शाप के द्वारा प्राणी नरक में जाकर जन्म धारण करता है।" तब कश्यप जी बोले, "हे देवि! तुम्हें अपने कर्म का अति पश्चाताप है इस लिये तुम्हारा नाती भगवान का बहुत बड़ा भक्त होगा और तुम्हारे यश को उज्वल करेगा। वह बालक साधुजनों की सेवा करेगा और काल को जीत कर भगवान का पार्षद बनेगा।"
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वराहावतार
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कश्यप जी के मुख से भगवद्भक्त पौत्र के उत्पन्न होने की बात सुन कर दिति को अति प्रसन्नता हुई और अपने पुत्रों का वध साक्षात् भगवान से सुन कर उस का सारा खेद समाप्त हो गया।
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वराहावतार
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उसके दो पुत्र हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ और विधि के विधानों के हिसाब से ये दुष्टता की राह पर चल पड़े। ये प्रभु की इच्छा से इनके कुल में प्रहलाद और बलि जैसे महापुरुषों का जन्म भी हुआ।
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वराहावतार
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एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार (ये चारों सनकादि ऋषि कहलाते हैं और देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं) सम्पूर्ण लोकों से विरक्त होकर चित्त की शान्ति के लिये भगवान विष्णु के दर्शन करने हेतु उनके बैकुण्ठ लोक में गये। बैकुण्ठ के द्वार पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दिया करते थे। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और बैकुण्ठ लोक के भीतर जाने से मना करने लगे।
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वराहावतार
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उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने कहा, "अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।" ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा, "भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग पापयोनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।" उनके इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे।
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वराहावतार
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यह जान कर कि सनकादिक ऋषिगण भेंट करने आये हैं भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, "हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन अनुचरों ने ब्रह्मणों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।"
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वराहावतार
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भगवान के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तत्काल शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति अनन्दित हुये और बोले, "आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही ब्राह्मणों को इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।"
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वराहावतार
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भगवान विष्णु ने कहा, "हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। ये तीन जन्म असुर योनि को प्राप्त करेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जाएंगे। तब जय विजय का पहला जन्म सतयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ और वराहावतार और नरसिंह अवतार में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का संहार हुआ , त्रेता युग में रावण कुंभकर्ण के रूप में हुआ जिनका संहार श्रीराम द्वारा हुआ अंत में तीसरे जन्म में शिशुपाल दन्तवक्र के रूप में हुआ और श्रीकृष्ण के द्वारा इनका संहार हुआ और ये श्रीविष्णु के निवास बैकुंठ धाम में वापिस आ गए | "
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पेचिश
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यह रोग एक विशेष प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु एंटामीबा हिस्टॉलिटिका (Entamoeba histolytica) नामक उपसर्ग से उत्पन्न होता है, जो दो रूपों में शरीर की वृहत् आंत्र में विद्यमान रहता है। इन रूपों को पुटी (cyst) और अंडाणु (ova) कहते हैं। मनुष्य खाद्य एवं पेय पदार्थो द्वारा इस जीवाणु को पुटी रूप में शरीर के अंदर ग्रहण करता है और यह पुटी कभी कभी बृहत् आंत्र में पहुँचकर अडाणु का रूप ग्रहण कर लेती है और मल के साथ निष्कासित होती है तथा कभी कभी पुटी के रूप में ही मल के साथ निकलती है। मक्खियाँ इस रोग के प्रसार में अत्यधिक सहायक होती हैं। पेचिश के मुख्य लक्षणों में रोगी को तीव्र स्वरूप के उदरशूल के साथ अतिसार होता है तथा गुदा के पास के भाग में तीव्र ऐंठन होती है।
| 0.5 | 4,275.358646 |
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पेचिश
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ऐसे रोगियों की परीक्षा करने पर अंधनाल (caecum) तथा वाम श्रोणीय क्षेत्र (left iliac region) में छूने से दाब वेदना (tenderness) होती है तथा कुछ ज्वरांश भी रहता है। दिन में 12 से लेकर 24 तथा उससे भी अधिक बार टट्टी होती है तथा मल में अधिकांश भाग श्लेष्मा (mucus), पूय (pus) तथा गाढ़ा रक्त रहता है।
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पेचिश
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कभी-कभी यह अमीबा जब निर्वाहिका शिरा (portal vein) में पहुँच जाता है तथा यकृतशोथ (epatitis) तथा यकृत विद्रधि (abscess) फोड़ा उत्पन्न करता है। यह तीव्र स्वरूप का घातक रोग है। जब यकृत विद्रधि फटती है, तो उपद्रव स्वरूप इसका पूय फुफ्फुस, आमाशय, बृहत् आंत्र, उदर कला (peritoneum) तथा हृदयावरण (pericardium) में पहुँचकर अनेक घातक विकार उत्पन्न करता है।
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पेचिश
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यकृत विद्रधि के मुख्य लक्षणों के अंतर्गत रोगी के यकृत भाग में तीव्र शूल होता है, जो कभी कभी दाहिने कंधे की ओर प्रसारित होता है। इसके अतिरिक्त शिर शूल, कंपन तथा ज्वर भी अपनी चरम सीमा पर रहता है। यकृत के भाग को छूने मात्र से रोगी को घोर कष्ट एवं वेदना होती है तथा उसके ऊपर की त्वचा शोधयुक्त हो जाती है।
| 0.5 | 4,275.358646 |
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पेचिश
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यकृत विद्रधि के अतिरिक्त इस रोग से उत्पन्न होनेवाले अन्य उपद्रवों में आंत्रछिद्रण (intestinal perforation) तथा अवरोध (obstruction), कोथ (gangrene), मूत्राशयशोथ हैं। इस रोग से बचने के लिये समस्त खाद्य एवं पेय पदार्थो को मक्खियों से दूर रखना चाहिए। जिस व्यक्ति के मल से इस रोग की पुटिया निकलती है, उस व्यक्ति को रसोइए का कार्य नहीं करना चाहिए जब तक मल के द्वारा रक्त एवं श्लेष्मा का निकलना बंद न हो जाय। रोगी को बार्ली का सेवन कराना चाहिए। जब श्लेष्मा का निकलना बंद हो जाय तब उसे पतला साबूदाना, अरारोट, चावल, दही इत्यादि का सेवन करा सकते हैं। इसके अतिरिक्त ऐल्बुमिन जल भी देते हैं।
| 1 | 4,275.358646 |
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पेचिश
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इसकी मुख्य ओषधियों में डाइहाइड्रॉक्सि क्विनोलीन (Diydroxy quinoline) के योग, क्लोरोक्वीन (chloroquine) के योग तथा इमेटीन (emetine) की सुई योग्य चिकित्सक से मात्रा निर्धारित करके उपयोग करने पर आशातीत लाभ होता है।
| 0.5 | 4,275.358646 |
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पेचिश
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यह एक विशेष प्रकार के दंडाणुओं (bacilli) से उत्पन्न होती है। इसके अंतर्गत रक्त और श्लेष्मा से युक्त अनेक बार मलत्याग हुआ करता है। यह रोग समशीतोष्ण जलवायु के स्थानों में अधिक होता है। भारत में यह रोग अधिकतर वर्षा ऋतु में हुआ करता है। स्त्री, पुरुष तथा समस्त आयुवाले व्यक्तियों को यह रोग समान रूप से होता है। इस रोग के दंडाणु बृहत् आंत्र की श्लैष्मिक कला तथा क्षुद्र आंत्र के अंतिम भाग की श्लैष्मिक कला को आक्रांत करके उनमें शोध पैदा कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप आगे चलकर उन स्थानों में व्रण उत्पन्न हो जाते हैं, जो गला गलाकर आँत के विकृत भाग को मल द्वारा निकालते हैं।
| 0.5 | 4,275.358646 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%B6
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पेचिश
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इस रोग के आक्रांत व्यक्ति एकाएक तीव्र उदरशूल और अतिसार का शिकार हो जाता है। शरीर कृश होकर उसको अत्यधिक कमजोरी आ जाती है तथा ज्वरांश होने लगता है। इसकी तीव्रावस्था में रोगी में मलत्याग की प्रवृत्ति अनेक बार होती है, परंतु प्रत्येक बार बहुत कम मल निकलता है। मलत्याग के साथ साथ वमन भी होता है तथा रोगी को अत्यधिक प्यास मालूम पड़ती है। ऐसे रोगियों की परीक्षा करने तथा रोगी के उदर के किसी भाग को छूने से दर्द होता है तथा वहाँ की मांसपेशियाँ कड़ी एवं संकुचित दिखाई देती हें। जिह्वा शुष्क हो जाती है, शरीर में जलीय अंश के नितांत अभाव एवं विषाक्तता के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। श्लेष्मा एवं रक्त का अंश अधिक रहता है। मूत की मात्रा बहुत कम हो जाती है। इसके अमीबा का पेचिश से भेद करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि दंडाणुज पेचिश का आक्रमण अत्यंत तीव्र स्वरूप का होता है, इसमें उच्च ताप हुआ करता है तथा स्तब्धता के लक्षण शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। विशेष प्रकार के भेद मल परीक्षा के द्वारा जाने जाते हैं। अमीबा पेचिश के रोगी के मल में एंटामीबा हिस्टालिटिका मिलते हैं और दंडाणुज पेचिश की मलपरीक्षा में दंडाणु मिलते हैं।
| 0.5 | 4,275.358646 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%B6
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पेचिश
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इस रोग के प्रतिषेधात्मक उपचार में भी मक्खियों से खाद्य एवं पेय पदार्थो को बचाना अत्यंत आवश्यक है। मल का त्याग निश्चित स्थान पर करना चाहिए तथा उक्त स्थान पर फिनाइल का निरंतर प्रयोग अत्यंत आवश्यक है। जिन व्यक्तियों का इस रोग की शिकायत हो, उनको घर कार्यो से वंचित रखना चाहिए तथा उनके द्वारा छुए हुए खाद्य एवं पेय पदार्थो का व्यवहार नहीं करना चाहिए। इस रोग से आक्रांत व्यक्ति को बिस्तर पर गरम रखना चाहिए। उदर पर तारपीन का सेंक करना श्रेयस्कार है। प्रथम 24 घंटे तक केवल उबले पानी का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके उपरांत ऐल्ब्यूमिन जल, डेक्स्ट्रोज जल, पतला अरारोट तथा बार्ली का सेवन करना चाहिए, जिससे पर्याप्त मात्रा में पेशाब को। इसके लिये 24 घंटे में कम से कम 2 पाइंट पानी पिलाना चाहिए। अन्य उपचार [अमीबा पेचिश] के समान हैं।
| 0.5 | 4,275.358646 |
20231101.hi_194802_13
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%98%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2
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मेघवाल
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उनके प्रधान भोजन में चावल, गेहूं और मक्का शामिल है और दालों में मूंग, उड़द और चना. वे शाकाहारी नहीं हैं। जम्मू में एक मेघ धार्मिक नेता भगता साध (केरन वाले) के नेतृत्व में एक बहुत बड़ा मेघ समूह शाकाहारी बना।
| 0.5 | 4,268.946942 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%98%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2
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मेघवाल
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पारंपरिक मेघवाल समाज में महिलाओं का दर्जा कमतर है। परिवारों के बीच बातचीत के माध्यम से यौवन से पहले ही विवाह तय कर दिए जाते हैं। शादी के बाद पत्नी पति के घर में आ जाती है। प्रसव के समय वह मायके में जाती है। पिता द्वारा बच्चों का उत्तर दायित्व लेने और पत्नी को मुआवजा देने के बाद तलाक की अनुमति देने की परंपरा है। किसी बात के लिए नापसन्द व्यक्ति का हुक्का-पानी बंद करने की एक सामाजिक बुराई मेघों में है। इसे तुच्छ मामलों में भी इस्तेमाल किया जाता है। इससे मेघ महिलाओं के लिए सामाजिक कठिनाइयाँ बढ़ी हैं।
| 0.5 | 4,268.946942 |
20231101.hi_194802_15
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%98%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2
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मेघवाल
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मेघवालों के प्रारम्भिक इतिहास या उनके धर्म के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। संकेत मिलते हैं कि मेघ शिव और नाग (ड्रैगन के उपासक थे). मेघवाल राजा बली को भगवान के रूप में मानते हैं और उनकी वापसी के लिए प्रार्थना करते हैं। कई सदियों से केरल में यही प्रार्थना ओणम त्योहार का वृहद् रूप धारण कर चुकी है। वे एक नास्तिक और समतावादी ऋषि चार्वाक के भी मानने वाले थे। आर्य चार्वाक के विरोधी थे। दबाव जारी रहा और चार्वाक धर्म का पूरा साहित्य जला दिया गया। इस बात का प्रमाण मिलता है कि 13वीं शताब्दी में कई मेघवाल इस्लाम की शिया निज़ारी शाखा के अनुयायी बन गए और कि निज़ारी विश्वास के संकेत उनके अनुष्ठानों और मिथकों में मिलते हैं। अधिकांश मेगवाल हिंदू है, हालांकि कुछ इस्लाम या ईसाई धर्म जैसे अन्य धर्मों के भी अनुयायी हैं।
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मेघवाल
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मध्यकालीन हिंदू पुनर्जागरण, जिसे भक्ति काल भी कहा जाता है, के दौरान राजस्थान के एक मेघवाल कर्ता राम महाराज, मेघवालों के आध्यात्मिक गुरु बने। कहा जाता है कि 19 वीं सदी के दौरान मेघ आम तौर पर कबीरपंथी थे जो संतमत के संस्थापक संत सत्गुरु कबीर (1488 - 1512 ई.) के अनुयायी थे। आज कई मेघवाल संतमत के अनुयायी हैं जो कच्चे रूप से जुड़े धार्मिक नेताओं का समूह है और जिनकी शिक्षाओं की विशेषता एक आंतरिक, एक दिव्य सिद्धांत के प्रति प्रेम भक्ति और समतावाद है, जो हिंदू जाति व्यवस्था पर आधारित गुणात्मक भेद और हिंदू तथा मुसलमानों के बीच गुणात्मक भेद के विरुद्ध है। वर्ष 1910 तक, स्यालकोट के लगभग 36000 मेघ आर्यसमाजी बन गए थे परन्तु चंगुल को पहचानने के बाद सन् 1925 में वे ‘आद धर्म सोसाइटी’ में शामिल हो गए जो ऋषि रविदास, कबीर और नामदेव को अपना आराध्य मानती थी। भारत के एक सुधारवादी फकीर और राधास्वामी मत के एक गुरु बाबा फकीर चंद ने अपनी जगह सत्गुरू के रूप में काम करने के लिए भगत मुंशी राम को मनोनीत किया जो मेघ समुदाय से थे।
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मेघवाल
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राजस्थान में इनके मुख्य आराध्य बाबा रामदेवजी हैं जिनकी वेदवापूनम (अगस्त - सितम्बर) के दौरान पूजा की जाती है। मेघवाल धार्मिक नेता गोकुलदास ने अपनी वर्ष 1982 की पुस्तक ‘मेघवाल इतिहास’, जो मेघवालों के लिए सम्मान और उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार का प्रयास है और जो मेघवाल समुदाय के इतिहास का पुनर्निर्माण करती है, में दावा किया है कि स्वामी रामदेव स्वयं मेघवाल थे। गाँव के मन्दिरों में चामुंडा माता की प्रतिदिन पूजा की जाती है। विवाह के अवसर पर बंकरमाता को पूजा जाता है। डालीबाई एक मेघवाल देवी है जिसकी पूजा रामदेव के साथ-साथ की जाती है। भारत के जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल, हरियाणा राज्यों में पूर्वजपूजा (एक प्रकार का श्राद्ध) की जाती है। जम्मू-कश्मीर में डेरे-डेरियों पर पूर्वजों की वार्षिक पूजा प्रचलित है। कुछ मेघवार पीर पिथोरो की पूजा करते हैं जिसका मन्दिर मीरपुर खास के पास पिथोरो गाँव में है।
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मेघवाल
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केरन के बाबा भगता साध मेघों के धार्मिक नेता और आराध्य पुरुष थे जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में मेघ समुदाय के आध्यात्मिक कल्याण के लिए कार्य किया।
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मेघवाल
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बाबा मनमोहन दास ने बाबा भगता साध के उत्तराधिकारी बाबा जगदीश जी महाराज के निधन के बाद गुरु का स्थान ले लिया।
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मेघवाल
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वील : राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में घर की छोटी - मोटी चीजों को सुरक्षित रखने हेतु बनाई गई मिट्टी की महलनुमा चित्रित आकृति वील ' कहलाती है मेघवाल जाति की महिलाएँ इस कला में निपुण होती हैं ।
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मेघवाल
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राजस्थान में मेघवाल महिलाएँ उनकी सुंदर और विस्तृत वेशभूषा और आभूषणों के लिए प्रसिद्ध हैं। विवाहित महिलाओं को अक्सर सोने की नथिनी, झुमके और कंठहार पहने हुए देखा जा सकता है। यह सब दुल्हन को उसकी होने वाली सास "दुल्हन धन" के रूप में देती है। नथनियाँ और झुमके अक्सर रूबी, नीलम और पन्ना जैसे कीमती पत्थरों से सुसज्जित होते हैं। मेघवाल महिलाओं द्वारा कढ़ाई की गई वस्तुओं की बहुत मांग है। अपने काम में वे प्राथमिक रूप से लाल रंग का प्रयोग करती हैं जो स्थानीय कीड़ों से उत्पादित विशेष रंग से बनता है। सिंध और बलूचिस्तान में थार रेगिस्तान और गुजरात की मेघवाल महिलाओं को पारंपरिक कढ़ाई और रल्ली बनाने का निपुण कारीगर माना जाता है। हाथ से की गई मोहक कशीदाकारी की वस्तुएँ मेघवाल महिलाओं के दहेज का एक हिस्सा होती हैं।
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कैफ़ीन
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हाल के डेटा के अनुसार कैफीन के सेवन से अंतःचाक्षुश दबाव में वृद्धि हो सकती है। जिन्हें खुले कोण का ग्लुकोमा है, उनके लिए यह विशेष ध्यान देने की बात हो सकती है।
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कैफ़ीन
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कैफीनमुक्त कॉफी और कैफीन के उत्पादन के लिए कॉफी से कैफीन का निष्कर्षण, एक महत्वपूर्ण औद्योगिक प्रक्रिया है और यह काम विभिन्न तरह के विलायक (सॉल्वेंट) का उपयोग करके किया जा सकता है। बेंजीन क्लोरोफॉर्म, ट्राइक्लोरेथाइलिन (trichloroethylene) और डिक्लोरोमिथेन (dichloromethane) इन सभी का सालों से प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन सुरक्षा, पर्यावरणीय प्रभाव, लागत और स्वाद के कारणों से इनका निम्नलिखित प्रमुख तरीकों द्वारा अधिक्रमण हो रहा है:
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कैफ़ीन
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कॉफी बीन्स को जल में भिगोया जाता है। जिस जल में कैफीन के अलावा अन्य बहुत तरह के यौगिक होते हैं जो कॉफी के स्वाद को बढ़ाते हैं, उस जल को सक्रिय चारकोल से पारित कराया जाता है, जिससे कैफीन अलग हो जाता है। इसके बाद बगैर कैफीन के कॉफी को इसके मूल स्वाद के साथ निकाल कर उस जल से बीन्स को अलग करके वाष्पायित कर सुखाया जा सकता है। कॉफी निर्माता कैफीन को अलग निकाल लेते हैं और शीतल पेय में इसका इस्तेमाल करने के लिए और बगैर नुस्खा के कैफीन की गोलियों के रूप में फिर से बेच देते हैं।
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कैफ़ीन
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सूक्ष्म कार्बन डाइऑक्साइड कैफीन के लिए उत्कृष्ट गैर-आयोनिक विलायक है और जैविक विलायक, जिसका उपयोग विकल्प के तौर पर किया जाता है, की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षित है। निष्कर्षण की प्रक्रिया सरल है: 31.1 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर हरे कॉफी बीन्स पर CO2 डाला जाता है और 73 एटीएम (atm) का दबाव डाला जाता है। ऐसी स्थिति में, CO2 की अवस्था अत्यंत सूक्ष्मतर हो जाती है: इसमें गैस जैसी विशेषता होती है जो इसे बीन्स में बहुत गहराई तक जाने देता है, लेकिन इसमें तरल की भी विशेषता होती है जो 97-99% कैफीन को घुला लेता है। फिर CO2 वाले कैफीन में से कैफीन निकालने के लिए उच्च दबाव के साथ पानी का छिड़काव किया जाता है। तब कैफीन चारकोल में अधिशोषण (adsorption) द्वारा (जैसे कि ऊपर) या आसवन (distillation) या पुन:क्रिस्टिलीकरण (recrystallization) या विपरीत परासरण (osmosis) द्वारा अलग किया जा सकता है।
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कैफ़ीन
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पहले इस्तेमाल होने वाले क्लोरीनेटेड व एरोमेटिक विलायकों की तुलना में एथिल एसीटेट जैसे कार्बनिक विलायक कम स्वास्थ्य व पर्यावरणीय जोखिम उपस्थित करते हैं। प्रयुक्त कॉफी बागान से प्राप्त ट्राइग्लिसराइड तेल का इस्तेमाल एक अन्य पद्धति है।
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कैफ़ीन
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कुछ पूर्ववर्ती संत (मोरमन्स), सेवेंथ-डे एडवेंटिस्ट, चर्च ऑफ गॉड (रेस्टोरेशन) अनुयायी और ईसाई वैज्ञानिक कैफीन का उपभोग नहीं करते. इन धर्मों के कुछ अनुयायियों का मानना है कि एक गैर-औषधीय, मनोस्फूर्तिदायक पदार्थ का उपभोग नहीं करना चाहिए या उनका विश्वास है कि किसी नशीले पदार्थ का सेवन नहीं करना चाहिए।
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कैफ़ीन
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द चर्च ऑफ़ जीसस क्राइस्ट ऑफ़ लेटर-डे सैंट्स ने कैफीनयुक्त पेय के सेवन के बारे में निम्नलिखित बातें कही है: "कोला पेयों के सन्दर्भ में चर्च ने कभी भी आधिकारिक रूप से इस बारे में कोई कदम नहीं उठाया है, लेकिन चर्च के नेताओं की सलाह है और हम अब विशेष रूप से ऐसे किसी भी पेयों के खिलाफ सलाह देते हैं जिनमें हानिकारक दवाएं शामिल होती है, जिससे परिस्थितिवश आदत लग सकती है। जिस किसी पेय पदार्थ में शरीर के लिए हानिकारक सामग्री होती है, उससे बचा जाना चाहिए."
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कैफ़ीन
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गौड़ीय वैष्णव या चैतन्य वैष्णव भी आम तौर पर कैफीन से दूर रहते हैं, क्योंकि उनका कहना है कि यह मन को दूषित करता है और यह इंद्रियों को अत्यधिक-उत्तेजित करता है। एक गुरु के मातहत आने से पहले किसी व्यक्ति को कम से कम एक साल के लिए कैफीन (शराब, निकोटिन और ड्रग्स सहित) से दूर रहना जरुरी है।
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कैफ़ीन
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इस्लाम में कैफीन के संबंध में मुख्य नियम यह है कि इसके सेवन की अनुमति है, लेकिन यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसका अतियोग्य वर्जित है और यह किसी की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। जहां तक कॉफी में कैफीन का सवाल है, इमाम शिहाब अल-दीन ने कहा: 'इसका सेवन हलाल (वैध) है, क्योंकि सभी चीजें हलाल (वैध) है केवल उन्हें छोड़कर जिसे अल्लाह ने हराम (अवैध) बनाया है'.
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सूक्ष्मजैविकी
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सूक्ष्मजीवों के अस्तित्व का अनुमान उनकी खोज से कई शताब्दियों पूर्व लगा लिया गया था। इन पर सबसे पहला सिद्धांत प्राचीन रोमन विद्वान मार्कस टेरेंशियस वैर्रो ने अपनी कृषि पर आधारित एक पुस्तक में दिया था। इसमें उन्होंने चेतावनी दी थी कि दलदल के निकट खेत नहीं बनाए जाने चाहिए। कैनन ऑफ मैडिसिन नामक पुस्तक में, अबु अली इब्न सिना ने कहा है कि शरीर के स्राव, संक्रमित होने से पहले बाहरी सूक्ष्मजीवों द्वारा दूषित किये जाते हैं। उन्होंने क्षय रोग व अन्य संक्रामक बिमारियों के संक्रमक स्वभाव की परिकल्पना की थी, व संगरोध (क्वारन्टाइन) का प्रयोग संक्रामक बिमारियों की रोकथाम हेतु किया था।<ref>डैविड डब्ल्यु. शैन्ज़, MSPH, PhD (अगस्त २००३). "अरब रूट्स ऑफ यूरोपियन मैडिसिन्स ", हार्ट व्यूज़ 4 (2).</ref> चौदहवीं शताब्दी में जब काली मृत्यु (ब्लैक डैथ) व ब्युबोनिक प्लेग अल-अंडैलस में पहुँचा तब इब्न खातिमा ने यह प्राक्कलन किया कि सूक्ष्मजीव मानव शरीर के अंदर पहुँच कर, संक्रामक रोग पैदा करती हैं। १५४६ में जिरोलामो फ्रैकैस्टोरो ने यह प्रस्ताव दिया कि महामारियाँ स्थानांतरणीय बीज जैसे अस्तित्वों द्वारा फैलती हैं। ये वस्तुएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कभी कभी तो बिना सम्पर्क के ही लम्बी दूरी से भी संक्रमित कर सकती हैं। सूक्ष्मजीवों के बारे में ये सभी दावे अनुमान मात्र ही थे क्योंकि ये किसी आंकड़ों या विज्ञान पर आधारित नहीं थे। सत्रहवीं शताब्दी तक सूक्ष्म जीव ना तो सिद्ध ही हुए थे और न ही देखे गये थे। इनको सत्रहवीं शताब्दी में ही सही तौर पर देखा गया तथा वर्णित किया गया। इसका मूल कारण यह था कि सभी पूर्व सूचनाएँ व शोध एक मूलभूत उपकरण के अभाव में किये गये थे, जो सूक्ष्मजैविकी या जीवाणुविज्ञान के अस्तित्व में रहने के लिये अत्यावश्यक था और वह था सूक्ष्मदर्शी यंत्र। एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक प्रथम सूक्ष्मजीववैज्ञानिक थे जिन्होंने पहली बार सूक्ष्मजीवों को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखा था, इसी कारण उन्हें सूक्ष्मजैविकी का जनक कहा जाता है। इन्होंने ही सूक्ष्मदर्शी यंत्र का आविष्कार किया था।
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सूक्ष्मजैविकी
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जीवाणु व सूक्ष्मजीवों को सर्वप्रथम एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक ने १६७६ में स्वनिर्मित एकल-लेंस सूक्ष्मदर्शी से देखा था। ऐसा करके उन्होंने जीव विज्ञान के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व कार्य किया जिसके द्वारा जीवाणु विज्ञान व सूक्ष्मजैविकी का आरम्भ हुआ। बैक्टीरियम शब्द का प्रयोग काफी बाद (१८२८) में एह्रेन्बर्ग द्वारा हुआ। यह यूनानी शब्द βακτηριον'' से निकला है, जिसका अर्थ है - छोटी सी डंडी। हालॉकि ल्यूवेन्हॉक को प्रथम सूक्ष्मजैविज्ञ कहा गया है, किन्तु प्रथम मान्यता प्राप्त सूक्ष्मजैविक रॉबर्ट हूक (१६३५-१७०३) को माना जाता है जिन्होंने मोल्ड के फलन का अवलोकन किया था। जीवाणु विज्ञान (जो बाद में सूक्ष्मजैविकी का एक उप-विभाग बन गया) फर्डिनैंड कोह्न (१८२८–१८९८) द्बारा स्थापित किया गया माना जाता है। ये एक पादपवैज्ञानिक थे, जिनके शैवाल व प्रकाशसंश्लेषित जीवाणु पर किये गए शोध ने उन्हें बैसिलस व बैग्गियैटोआ सहित कई अन्य जीवाणुओं का वर्णन करने को प्रेरित किया था। कोह्न ही जीवाणुओं के वर्गीकरण की योजना को परिभाषित करने वाले प्रथम व्यक्ति थे। लुई पाश्चर (१८२२–१८९५) व रॉबर्ट कोच (१८४३–१९१०) कोह्न के समकालीन थे तथा उनको आयुर्विज्ञान सूक्ष्मजैविकी का संस्थापक माना जाता है। पाश्चर तत्कालीन सहज उत्पादन के सिद्धांत को झुठलाने के लिये अपने द्वारा किये गए श्रेणीबद्ध प्रयोगों के लिये प्रसिद्ध हो चुके थे। इसीसे सूक्ष्मजैविकी का धरातल और ठोस हो गया। पाश्चर ने खाद्य संरक्षण के उपाय खोजे थे (पाश्चराइजेशन) उन्होंने ही ऐन्थ्रैक्स, फाउल कॉलरा एवं रेबीज़ सहित कई रोगों के सुरक्षा टीकों की खोज की थी। कोच अपने रोगों के जीवाणु सिद्धांत के लिये प्रसिद्ध थे, जिसके अनुसार कोई विशिष्ट रोग, किसी विशिष्ट रोगजनक सूक्ष्मजीव के कारण ही होता है। उन्होंने ही कोच्स पॉस्ट्युलेट्स बनाये थे। कोच शुद्ध कल्चर में से जीवाणुओं के पृथकीकरण करने वाले वैज्ञानिकों में से प्रथम रहे हैं। जिसके परिणामस्वरूप कई नवीन जीवाणुओं की खोज व वर्णन किए जा सके, जिनमें माइकोबैक्टीरियम ट्यूबर्क्युलोसिस, क्षय रोग का मूल जीवणु भी रहा।
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सूक्ष्मजैविकी
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पाश्चर एवं कोच प्रायः सूक्ष्मजैविकी के जनक कहे जाते हैं परन्तु उनका कार्य सही ढंग से सूक्ष्मजैविक संसार की वास्तविक विविधता को नहीं दर्शाता है, क्योंकि उनक ध्यान प्रत्यक्ष चिकित्सा संबंधी सन्दर्भों वाले सूक्ष्मजीवों पर ही केन्द्रित रहा। मार्टिनस विलियम बेइजरिंक (१८५१–१९३१) एवं सर्जेई विनोग्रैड्स्की (१८५६–१९५३), जो सामान्य सूक्ष्मजैविकी (एक पुरातन पद, जिसमें सूक्ष्मजैविक शरीरक्रिया विज्ञान, विभेद एवं पारिस्थितिकी आते हैं) के संस्थापक कहे जाते हैं, के कार्यों के उपरांत ही, सूक्ष्मजैविकी की सही-सही परिधि का ज्ञान हुआ।
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सूक्ष्मजैविकी
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बेइजरिंक के सूक्ष्मजैविकी में दो महान योगदान हैं: विषाणुओं की खोज तथा उपजाऊ संवर्धन तकनीक (एन्ररिचमेंट कल्चर टैक्नीक) का विकास। उनके तम्बाकू मोज़ाइक विषाणु पर किये गए अनुसंधान कार्य ने विषाणु विज्ञान के मूलभूत सिद्धांत स्थापित किये थे। यह उनके एनरिच्मेंट कल्चर का विकास था, जिसका तात्क्षणिक प्रभाव सूक्ष्मजैविकी पर पड़ा। इसके द्वारा एक वृहत सूक्ष्मजीवों की शृंखला को संवर्द्धित किया जा सका, जिनकी शारीरिकी विविध प्रकार की थी। विनोग्रैड्स्की ने अकार्बनिक रासायनिक पदार्थों (कीमोलिथोट्रॉफी) पर प्रथम सिद्धांत प्रस्तुत किया था, जिसके साथ ही सूक्ष्मजीवों की भूरासायनिक प्रक्रियाओं में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका उजागर हुई। इन्होंने ही सर्वप्रथम नाइट्रिफाइंग तथा नाइट्रोजन-फिक्सिंग जीवाणु का पृथकीकरण किया था।
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सूक्ष्मजैविकी
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सूक्ष्म जीवी अनेक प्रकार के होते हैं जिनमें जीवाणु प्रमुख हैं। जीवाणु एक एककोशिकीय जीव है। इसका आकार कुछ मिलीमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त-चक्राकार से लेकर छड़ आदि के आकार की हो सकती है। ये प्रोकैरियोटिक, कोशिका भित्तियुक्त, एककोशकीय सरल जीव हैं जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते है। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय गर्म जल-धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, जल में, भू-पपड़ी में, यहाँ तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं। साधारणतः एक ग्राम मिट्टी में ४ करोड़ जीवाणु कोष तथा १ मिलीलीटर जल में १० लाख जीवाणु पाए जाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर अनुमानतः लगभग ५X१०३० जीवाणु पाए जाते हैं। जो संसार के बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग है। ये कई तत्वों के चक्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडल के लिए नाइट्रोजन के स्थिरीकरण में। हाँलाकि बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन भी नहीं हुआ है तथापि लगभग आधों की किसी न किसी जाति को प्रयोगशाला में उगाया जा चुका है। जीवाणुओं का अध्ययन बैक्टिरियोलोजी के अन्तर्गत किया जाता है जो सूक्ष्मजैविकी की ही एक शाखा है।
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सूक्ष्मजैविकी
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मानव शरीर में जितनी मानव कोशिकाएँ हैं, उसके लगभग १० गुना अधिक जीवाणु कोष है। इनमें से अधिकांश जीवाणु त्वचा तथा अहारनाल में पाए जाते हैं। हानिकारक जीवाणु सुरक्षा तंत्र के रक्षक प्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुँचा पाते है। कुछ जीवाणु लाभदायक भी होते हैं। अनेक प्रकार के परजीवी जीवाणु कई रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे - हैजा, मियादी बुखार, निमोनिया, तपेदिक या क्षयरोग, प्लेग इत्यादि। सिर्फ क्षय रोग से प्रतिवर्ष लगभग २० लाख लोग मरते हैं जिनमें से अधिकांश उप-सहारा क्षेत्र के होते हैं। विकसित देशों में जीवाणुओं के संक्रमण का उपचार करने के लिए तथा कृषि कार्यों में प्रतिजैविक प्रयोगों के लिए इनका उपयोग होता है, इसलिए जीवाणुओं में इन प्रतिजैविक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक शक्ति विकसित होती जा रही है। औद्योगिक क्षेत्र में जीवाणुओं की किण्वन क्रिया द्वारा दही, पनीर इत्यादि वस्तुओं का निर्माण होता है। इनका उपयोग प्रतिजैविकी तथा और रसायनों के निर्माण में तथा जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होता है।
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सूक्ष्मजैविकी
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इसके अतिरिक्त विषाणु जो अतीसूक्ष्म जीव हैं। वे शरीर के बाहर तो मृत होते हैं परन्तु शरीर के अंदर जीवित हो जाते हैं। इन्हे क्रिस्टल के रूप में इकट्ठा किया जा सकता है। कवक जो एक प्रकार के पौधे हैं, अपना भोजन सड़े गले म्रृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं और जिनका सबसे बड़ा लाभ संसार में अपमार्जक के रूप में कार्य करना है, प्रोटोज़ोआ जो एक एककोशिकीय जीव है, जिसकी कोशिकायें युकैरियोटिक प्रकार की होती हैं और साधारण सूक्ष्मदर्शी यंत्र से आसानी से देखे जा सकता है, आर्किया या आर्किबैक्टीरिया जो अपने सरल रूप में बैक्टीरिया जैसे ही होते हैं पर उनकी कोशीय संरचना काफ़ी अलग होती है। और शैवाल जो सरल सजीव हैं, पौधों के समान सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वंय बनाते हैं और एक कोशिकीय से लेकर बहु-कोशिकीय अनेक रूपों में हो सकते हैं, परन्तु पौधों के समान इसमें जड़, पत्तियाँ इत्यादि रचनाएँ नहीं पाई जाती हैं भी सूक्ष्मजीवियों की श्रेणी में आते हैं।
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सूक्ष्मजैविकी
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सूक्ष्मजीव जैसे जीवाणु तथा विषाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं परन्तु इनकी संरचना सरल होती हैं। इनके अध्ययन में सूक्ष्मदर्शी यंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी यंत्र के आविष्कार के बाद तो इनका अध्ययन और भी सरल हो गया है। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता साधारण या यौगिक सूक्ष्मदर्शी से हजारों गुणा अधिक है। इससे सूक्ष्मजीवों को वास्तविक आकार से लाखों गुणा बड़ा करके देखा जाता है। जीवाणुओं को अभिरंजित करने की विधियों की खोज होने के बाद इनकी पहचान सरल हो गई है। ग्राम स्टेन की सहायता से जीवाणुओं का वर्गीकरण एवं अध्ययन किया जाता है। प्रयोगशाला में संवर्धन द्वारा जीवाणुओं की कॉलोनी उगाई जाती है। इस प्रकार से उगाई गई जीवाणु-कॉलोनी जीवाणुओं पर शोध करने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई है।
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सूक्ष्मजैविकी
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अध्ययन के लिए सूक्ष्मजैविकी के क्षेत्र को प्रायः कई उप-क्षेत्रों में बांटा जाता है: सूक्ष्मजीव शरीर क्रिया विज्ञान इसमें सूक्ष्मजैविक कोशिकाएँ किस प्रकार जैवरासायनिक क्रियाएँ करतीं हैं, इसका अध्ययन तथा सूक्ष्मजैविक उपज, सूक्ष्मजैविक उपपाचय (मैटाबोलिज़्म) एवं सूक्ष्मजैविक कोशिका संरचना सम्मिलित हैं। सूक्ष्मजैविक अनुवांशिकी इसमें
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मिर्ज़ापुर
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उत्तर प्रदेश के एक जिले मिर्जापुर का एक आधिकारिक जनगणना 2011 विवरण, उत्तर प्रदेश में जनगणना संचालन निदेशालय द्वारा जारी किया गया है। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के जनगणना अधिकारियों ने भी महत्वपूर्ण व्यक्तियों की गणना की। 2011 में, मिर्जापुर की जनसंख्या 2,496, 9 70 थी जिसमें से पुरुष और महिला क्रमशः 1,312,302 और 1,184,668 थी। 2001 की जनगणना में, मिर्जापुर की 2,116,042 आबादी थी, जिसमें पुरुष 1,115,24 9 और शेष 1,000,793 महिलाएं थीं। मिर्जापुर जिला आबादी कुल उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का 1.25 प्रतिशत है। 2001 की जनगणना में, मिर्जापुर जिले के लिए यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश का 1.27 प्रतिशत था। 2001 के अनुसार आबादी की तुलना में आबादी की तुलना में जनसंख्या में 18.00 प्रतिशत का परिवर्तन हुआ था। भारत की पिछली जनगणना में, मिर्जापुर जिला ने 1991 की तुलना में इसकी आबादी में 27.44 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की।
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मिर्ज़ापुर
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सबसे निकटतम हवाई अड्डा बाबतपुर (वाराणसी विमानक्षेत्र) है। मिर्जापुर से वाराणसी 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दिल्ली, आगरा, मुम्बई, चेन्नई, बंगलौर, लखनऊ और काठमांडू आदि से वायुमार्ग द्वारा मिर्जापुर पहुंचा जा सकता है।
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मिर्ज़ापुर
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मिर्जापुर रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। कुछ महत्वपूर्ण ट्रेनें जैसे कालका मेल, पुरूषोतम एक्सप्रेस, मगध एक्सप्रेस, गंगा ताप्ती, त्रिवेणी, महानगरी एक्सप्रेस, हावड़-मुम्बई, संघमित्रा एक्सप्रेस आदि द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।
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मिर्ज़ापुर
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मिर्जापुर सड़कमार्ग द्वारा सम्पूर्ण भारत से जुड़ा हुआ है। लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, दिल्ली और कलकत्ता आदि जगह से सड़कमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता हैं। (जौनपुर से भदोही वाया मीरजापुर) ग्रांड ट्रंक रोड (शेरशाह सूरी रोड) जो वाराणसी से लेकर कन्याकुमारी तक जाती है जिसे मिर्ज़ापुर के बाद रीवां रोड के नाम से भी जानते हैं। मिर्ज़ापुर का दक्षिणी छोर मध्यप्रदेश को भी जोड़ता है।
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मिर्ज़ापुर
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विन्ध्याचल के पूर्व में स्थित तारकेश्वर महादेव का जिक्र पुराण में भी किया गया है। मंदिर के समीप एक कुण्ड स्थित है। माना जाता है कि तराक नामक असुर ने मंदिर के समीप एक कुण्ड खोदा था। भगवान शिव ने ही तारक का वध किया था। इसलिए उन्हें तारकेश्वर महादेव भी कहा जाता है। कुण्ड के समीप काफी सारे शिवलिंग स्थित है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तारकेश्वर के पश्चिम दिशा की ओर एक कुण्ड और भगवान शिव के मंदिर का निर्माण किया था। इसके अतिरिक्त, ऐसा भी कहा जाता है कि तारकेश्वर में देवी लक्ष्मी निवास करती हैं। देवी लक्ष्मी यहां अन्य रूप में देवी सरस्वती के साथ वैष्णवी रूप में रहती है।
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मिर्ज़ापुर
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कहा जाता है कि महा त्रिकोण की परिक्रमा करने से भक्तों की इच्छा पूरी होती है। मंदिर स्थित विन्ध्यावशनी देवी के दर्शन करने के पश्चात् भक्त संकट मोचन मंदिर जाते हैं। इस मंदिर को कालीखोह के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर विन्ध्याचल रेलवे स्टेशन के दक्षिण दिशा की ओर स्थित है। देवी काली और संकट मोचन के दर्शन करने के बाद भक्त अपनी परिक्रमा संत करनागिरी बावली के दर्शन करके पूरी करते हैं। कालीखोह के आस-पास अन्य कई मंदिर जैसे आनन्द भैरव, सिद्धनाथ भैरव, कपाल भैरव और भैरव आदि स्थित है। विन्ध्याचल मंदिर और परिक्रमा पूरी करने के पश्चात् मन को बेहद सुकून प्राप्त होता है। यह पूरी यात्रा महा त्रिकोण के नाम से प्रसिद्ध है।
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मिर्ज़ापुर
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विन्ध्याचल में त्रिकोण यात्रा का काफी महत्त्व है। त्रिकोण का सही क्र्म है- सर्वप्रथम गंगास्नान के पश्चात् तट पर स्थित विन्ध्यवासिनी देवी का दर्शन। तत्पश्चात् कालीगोह स्थित मां काली का दर्शन। वहां से अष्टभुजी की यात्रा, और फिर लौट कर विन्ध्यवासिनी आकर पुनः दर्शन। इस प्रकार लगभग चौहद किलोमीटर की यह यात्रा होती है। ये तीनों स्थल स्पष्ट रूप से त्रिभुज के तीनों कोणों पर अवस्थित हैं। इस यात्रा का अतिशय महत्त्व है। तन्त्र शास्त्रों में इसे बाह्यत्रिकोण की यात्रा के रूप में मान्यता है। इसी पर आधारित अन्तः त्रिकोण की यात्रा भी होती है।
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मिर्ज़ापुर
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पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री राम चन्द्र ने अपने पिता राजा दशरथ का श्राद्ध विन्ध्याचल क्षेत्र में ही किया था। माना जाता है कि भगवान श्री राम भगवान शिव के उपासक थे। इस जगह पर भगवान राम ने पश्चिम दिशा की ओर भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित की थी। इसी कारण यह जगह रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुई और इस जगह को शिवपुर के नाम से जाना जाता है।
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मिर्ज़ापुर
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अष्टभुजा मंदिर के पश्चिम दिशा की ओर सीता जी ने एक कुंड खुदवाया था। उस समय से इस जगह को सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। कुंड के समीप ही सीता जी ने भगवान शिव की स्थापना की थी। जिस कारण यह स्थान सीतेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सीता कुंड के पश्चिम दिशा की तरफ भगवान श्री राम चंद्र ने एक कुंड खोदा था। जिसे राम कुण्ड के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त शिवपुर स्थित लक्ष्मण जी ने रामेश्वर लिंग के समीप शिवलिंग की स्थापना की थी, जो कि लक्ष्मणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है।
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20231101.hi_780169_21
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%96%E0%A4%B0%E0%A4%A3-2
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पोखरण-2
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कनाडा ने भारत के कार्य पर सख्त आलोचना की। भारत पर जापान द्वारा भी प्रतिबन्ध लगाए गए और जापान ने भारत पर मानवीय सहायता के लिए छोड़कर सभी नए ऋण और अनुदानों को रोक दिया। कुछ अन्य देशों ने भी भारत पर प्रतिबंध लगा दिए, मुख्य रूप से गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट क्रेडिट लाइनों और विदेशी सहायता के निलंबन के रूप में। हालांकि, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस ने भारत की निंदा से परहेज किया।
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पोखरण-2
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12 मई को चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा: "चीनी सरकार गंभीरता से भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण के बारे में चिंतित है," और कहा कि परीक्षण "वर्तमान अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति के लिए और दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता के लिए अनुकूल नहीं हैं।"। अगले दिन चीन के विदेश मंत्रालय के एक बयान ने स्पष्ट रूप से बताते हुए कहा कि "यह हैरानी की बात है और हम इसकी निंदा करेंगे।" और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से एकीकृत स्टैंड अपनाने और भारत के परमाणु हथियारों के विकास पर रोक की मांग की। चीन ने, चीनी खतरे का मुकाबला करने के लिए भारत के कहे तर्क को "पूरी तरह से अनुचित" कहकर खारिज कर दिया।
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पोखरण-2
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इस परीक्षण पर सबसे प्रबल और कड़ी प्रतिक्रिया भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान ने की थी। पाकिस्तान में परीक्षण के खिलाफ बहुत गुस्सा था। पाकिस्तान ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र में परमाणु हथियारों की होड़ को भड़काने के लिए भारत को दोष दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कसम खाई कि उनका देश भारत को इसका उपयुक्त जबाब देगा। भारत के पहले दिन के परीक्षण के बाद, विदेश मंत्री गौहर अयूब खान ने संकेत दिया कि पाकिस्तान परमाणु परीक्षण करने के लिए तैयार है। उन्होंने कहा, "पाकिस्तान भारत की बराबरी के लिए तैयार है। हम में यह क्षमता है.....हम सभी क्षेत्रों में भारत के साथ संतुलन बनाए रखेंगे।" उन्होंने साक्षात्कार में कहा,"हम उपमहाद्वीप मे जारी अनियंत्रित हथियारों की दौड़ में कभी पीछे नहीं रहेंगे।
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पोखरण-2
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13 मई 1998 को, पाकिस्तान ने फूट-फूट कर परीक्षण की निंदा की और विदेश मंत्री गौहर अयूब द्वारा कहा गया कि भारतीय नेतृत्व अनियंत्रित रास्ते पर चल रही है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा कि "हम स्थिति पर नजर रख रहे हैं और हम अपनी सुरक्षा के संबंध में उचित कार्रवाई करेंगे।" शरीफ ने परमाणु प्रसार के लिए भारत की आलोचना और पाकिस्तान को समर्थन के लिए पूरे इस्लामी देशों को जुटाने का प्रयास किया।
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पोखरण-2
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प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और विपक्ष के नेता बेनजीर भुट्टो द्वारा परमाणु परीक्षण के कारण तीव्र दबाव का सामना करना पड़ा था। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने परमाणु परीक्षण कार्यक्रम को अधिकृत किया और पाकिस्तान परमाणु ऊर्जा आयोग (PAEC) ने कोडनेम 'चगाई' के तहत 28 मई 1998 को 'चगाई-1' तथा 30 मई 1998 को 'चगाई-2' परमाणु परीक्षण किए। चगाई और खरं परीक्षण स्थल पर भारत के अंतिम परीक्षण के पंद्रह दिनों बाद छह भूमिगत परमाणु परीक्षण आयोजित किए। परीक्षण का कुल प्रतिफल 40 कि. टन होने की सूचना दी गई थी। (कोडनेम देखें: चगाई-1)
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पोखरण-2
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पाकिस्तान के परीक्षण के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने समान प्रकार की निंदा की। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत के पोखरण-2 परीक्षण की प्रतिक्रिया के रूप में पाकिस्तान के परीक्षण की आलोचना में कहा कि "दो गलत कभी सही नहीं बना सकते हैं।" संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान ने अपनी प्रतिक्रिया पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर व्यक्त की। पाकिस्तान के विज्ञान समुदाय के अनुसार, भारतीय परमाणु परीक्षणों ने ही कोल्ड परीक्षणों के संचालन के 14 साल के बाद पाकिस्तान को परमाणु परीक्षण करने के लिए एक अवसर दिया। (देखे: किराना-१).
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पोखरण-2
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पाकिस्तान के प्रमुख परमाणु भौतिक विज्ञानी और शीर्ष वैज्ञानिकों में से एक डॉ परवेज ने भारत को पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण चगाई के प्रयोगों के लिए जिम्मेदार ठहराया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%96%E0%A4%B0%E0%A4%A3-2
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पोखरण-2
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परीक्षण के तुरंत बाद ही विदेशो से प्रतिक्रियाए शुरु हो गयी। 6 जून को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संकल्प 1172 द्वारा भारत के परमाणु परीक्षण की निंदा की गयी। चीन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से भारत पर परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर और परमाणु शस्त्रागार को समाप्त करने के लिए दबाव डाला। भारत परमाणु हथियार रखने वाले देशों के समूह में शामिल होने के साथ एक नए एशियाई सामरिक ताकत विशेष रूप से दक्षिण एशियाई क्षेत्र में उभरा।
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पोखरण-2
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कुल मिलाकर, भारतीय अर्थव्यवस्था पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का असर न्यूनतम रहा था। तकनीकी प्रगति सीमांत रही। अधिकांश राष्ट्रों ने भारत के खिलाफ निर्यात और आयात के सकल घरेलू उत्पाद पर प्रतिबंध नहीं लगाया। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा लगाए गए महत्वपूर्ण प्रतिबंध को भी कुछ समय बाद हटा लिया गया था। अधिकांश प्रतिबंधों पांच साल के भीतर हटा लिए गये थे।
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मल्टीमीडिया
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मल्टीमीडिया (बहुमाध्यम) अंग्रेजी के मल्टी तथा मीडिया शब्दों से मिलकर बना है। मल्टी का अर्थ होता है 'बहु' या 'विविध' और मीडिया का अर्थ है 'माध्यम'। मल्टीमीडिया एक माध्यम होता है जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार की जानकारियों को विविध प्रकार के माध्यमों जैसे कि टैक्स्ट, आडियो, ग्राफिक्स, एनीमेशन, वीडियो आदि का संयोजन (combine) कर के दर्शकों/श्रोताओं (audience) तक पहुँचाया जाता है।
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मल्टीमीडिया
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आजकल मल्टीमीडिया मीडिया का प्रयोग अनेक क्षेत्रों जैसे कि मल्टीमीडिया प्रस्तुतीकरण (Multimedia Presentation), मल्टीमीडिया गेम्स (Multimedia Games) में बहुतायत के साथ होता है क्योंकि मल्टीमीडिया किसी वस्तु के प्रस्तुतीकरण का सर्वोत्तम साधन है।
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मल्टीमीडिया
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रचनात्मक उद्योगों में - रचनात्मक उद्योग ज्ञान, कला, मनोरंजन, पत्रकारिता आदि के लिये मल्टीमीडिया का प्रयोग करते हैं।
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मल्टीमीडिया
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वाणिज्यिक कलाकारों और ग्राफिक डिजाइनरों द्वारा उपयोग किए जाने वाले अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक पुराने और नए मीडिया मल्टीमीडिया हैं। विज्ञापन में हड़पने और ध्यान रखने के लिए रोमांचक प्रस्तुतियों का उपयोग किया जाता है। बिजनेस टू बिजनेस, और इंटरऑफिस संचार अक्सर विचारों को बेचने या प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए सरल स्लाइड शो से परे उन्नत मल्टीमीडिया प्रस्तुतियों के लिए रचनात्मक सेवा फर्मों द्वारा विकसित किए जाते हैं। वाणिज्यिक मल्टीमीडिया डेवलपर्स को सरकारी सेवाओं और गैर-लाभकारी सेवाओं के अनुप्रयोगों के लिए भी डिजाइन किया जा सकता है।
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