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20231101.hi_32218_2
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बलिया
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इस शहर की पूर्वी सीमा गंगा और सरयू के संगम द्वारा बनायी जाती है। यह शहर वाराणसी से 140 किलोमीटर, लखनऊ से 390 किलोमीटर, गोरखपुर से 165 किलोमीटर और देश की राजधानी नई दिल्ली से 900 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। भोजपुरी यहाँ की प्राथमिक स्थानीय भाषा है। यह क्षेत्र गंगा और घाघरा के बीच के जलोढ़ मैदानों में स्थित है। अक्सर बाढ़ग्रस्त रहने वाले इस उपजाऊ क्षेत्र में चावल, जौ, मटर, ज्वार-बाजरा, दालें, तिलहन और गन्ना उगाया जाता है। शहर की पूर्वी सीमा गंगा और घाघरा के संगम में निहित है। वहाँ पर एक बहुत प्रसिद्ध भगवती जी का मन्दिर है जो रेवती के बगल में एक छोटे गाँव सोभनाथपुर में स्थित है।
| 0.5 | 2,514.726853 |
20231101.hi_32218_3
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बलिया
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बलिया एक प्राचीन शहर है। भारत के कई महान संत और साधु जैसे जमदग्नि, वाल्मीकि, भृगु, दुर्वासा आदि के आश्रम बलिया में थे। बलिया प्राचीन समय में कोसल साम्राज्य का एक भाग था। यह भी कुछ समय के लिए बौद्ध प्रभाव में आया था। पहले यह् गाजीपुर जिले का एक हिस्सा था, लेकिन बाद में यह जिला हो गया। यह राजा बलि की धरती मानी जाती हैं। उन्ही के नाम पर इसका नाम बलिया पड़ा।
| 0.5 | 2,514.726853 |
20231101.hi_32218_4
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बलिया
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1942 के अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन के वक़्त बलिया के क्रांतिकारियों ने चित्तू पाण्डे के नेतृत्व में बलिया को आजाद करा लिया गया था।चित्तू पाण्डे के नेतृत्व में स्वतंत्र सरकार की स्थापना कर ली गई थी।
| 1 | 2,514.726853 |
20231101.hi_32218_5
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बलिया
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चित्तू पाण्डे (10 मई 1865 - 1946) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे। उन्हें 'बलिया का शेर' के नाम से जाना जाता है। उन्होने १९४२ में बलिया में भारत छोड़ो आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। १९ अगस्त १९४२ को एक 'राष्ट्रीय सरकार' की घोषणा करके वे उसके अध्यक्ष बने जो कुछ दिन चलने के बाद अंग्रेजों द्वारा दबा दी गई। यह सरकार बलिया के कलेक्टर को सत्ता त्यागने एवं सभी गिरफ्तार कांग्रेसियों को रिहा कराने में सफल हुई थी। वे अपने आप को गांधीवादी मानते थे।
| 0.5 | 2,514.726853 |
20231101.hi_32218_6
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बलिया
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2001 की भारतीय जनगणना में, बलिया की आबादी 102,226 थी। जनसंख्या में पुरुषों और महिलाओं का प्रतिशत 46% एव 54% है। यहाँ 55% महिलाओं एव 65% पुरुष साक्षरता के साथ 77% की औसत साक्षरता दर जो 75.5% के राष्ट्रीय औसत से अधिक था। जनसंख्या के ग्यारह प्रतिशत उम्र के छह वर्षों के तहत किया गया।
| 0.5 | 2,514.726853 |
20231101.hi_32218_7
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बलिया
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बलिया में जननायक चन्द्रशेखर विश्वविद्यालय स्थित है, जिसकी स्थापना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 2016 में कई गयी थी। विश्वविद्यालय से बलिया तथा आस-पास के क्षेत्रों के 122 कॉलेज सम्बद्ध हैं। बलिया जिला उत्तर प्रदेश राज्य का सबसे पूर्वी भाग है और बिहार राज्य की सीमाएँ हैं। इसमें एक अनियमित आकार का मार्ग शामिल है जो गंगा और घाघरा के संगम से पश्चिम की ओर फैला हुआ है, पूर्व इसे दक्षिण में बिहार से अलग करता है और बाद में क्रमशः उत्तर और पूर्व में देवरिया और बिहार से अलग करता है। बलिया और बिहार के बीच की सीमा इन दोनों नदियों की गहरी धाराओं से निर्धारित होती है। यह पश्चिम में मऊ, उत्तर में देवरिया, उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व में बिहार और दक्षिण-पश्चिम में गाजीपुर से घिरा है। यह जिला 25º33' और 26º11' उत्तरी अक्षांशों और 83º38' और 84º39' पूर्वी देशांतरों के बीच स्थित है। बलिया भारत के सबसे कम वन आच्छादित जिलों में से एक है। भारत की जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार, भारत के उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में 2361 गाँव हैं। ये गांव बैरिया, बलिया, बांसडीह, बेल्थरा रोड, रसरा और सिकंदरपुर तहसील में स्थित हैं। और बलिया में कई प्रसिद्ध गाँव / क्षेत्र हैं जैसे नवानगर, हुसैनपुर, जाजोली, रसड़ा, मालदह आदि। इस जगह के कुछ प्रसिद्ध शिक्षक श्री के.पी सिंह (गाँव हड़सर), श्री देवनाथ सिंह (गाँव हुसैनपुर), श्री भुवाल सिंह (गाँव चाड़ि ) का अनुसरण करते हैं। ), श्री हीरालाल गुप्ता (ग्राम नवानगर), स्वर्गीय श्री अभय शंकर सिंह (ग्राम हुसैनपुर), श्री पारसनाथ वर्मा (ग्राम कठौड़ा)। इन सभी ने शिक्षा के लिए बहुत अच्छा काम किया। ये सभी "जनता इंटर कॉलेज, नवानगर, बलिया" से संबंधित हैं। और इस स्कूल का उद्घाटन "पूर्व प्रधान मंत्री चंद्र शेखर जी" ने किया था। बलिया को उनके "ददरी मेला" के लिए भी जाना जाता है जो पशु मेले के साथ-साथ एक मेला भी है। यह मेला "भीरगुनाथ बाबा" की स्मृति में आयोजित किया जाता है।
| 0.5 | 2,514.726853 |
20231101.hi_32218_8
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बलिया
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एक वार्षिक मेले के ददरी मेला, एक मैदान पर शहर की पूर्वी सीमा पर गंगा और सरयू नदियों के संगम पर मनाया जाता है। मऊ, आजमगढ़, देवरिया, गाजीपुर और वाराणसी के रूप में पास के जिलों के साथ नियमित संपर्क में रेल और सड़क के माध्यम से मौजूद है। रसड़ा यहाँ से ३५ किलोमीटर पश्चिम में स्थित एक क़स्बा है। यहाँ नाथ बाबा का मंदिर है जो स्थानीय सेंगर राजपूतों के देवता हैं। इसके अलावा यहाँ दरगाह हज़रत रोशन शाह बाबा, दरगाह हज़रत सैयद बाबा और लखनेसर डीह के प्राचीन अवशेष दर्शनीय स्थल हैं। नरही थाना क्षेत्र में बाबू राय बाबा का मंदिर है। जो कि नरही वाशियों की लोकप्रिय देवताओं में से एक माने जाते हैं
| 0.5 | 2,514.726853 |
20231101.hi_12708_0
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आरती
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आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।
| 0.5 | 2,512.810487 |
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आरती
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सामान्यतः पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।
| 0.5 | 2,512.810487 |
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आरती
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आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है।
| 0.5 | 2,512.810487 |
20231101.hi_12708_3
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आरती
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आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे ३, ५ या ७) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात् शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।
| 0.5 | 2,512.810487 |
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आरती
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आरती की थाली या दीपक (या सहस्र दीप) को ईष्ट देव की मूर्ति के समक्ष ऊपर से नीचे, गोलाकार घुमाया जाता है। इसे घुमाने की एक निश्चित संख्या भी हो सकती है, व गोले के व्यास भी कई हो सकते हैं। इसके साथ आरती गान भी समूह द्वारा गाय़ा जाता है जिसको संगीत आदि की संगत भी दी जाती है। आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मानयता अनुसा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रका एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता है।
| 1 | 2,512.810487 |
20231101.hi_12708_5
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आरती
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आरती का थाल धातु का बना होता है, जो प्रायः पीतल, तांबा, चांदी या सोना का हो सकता है। इसमें एक गुंधे हुए आटे का, धातु का, गीली मिट्टी आदि का दीपक रखा होता है। ये दीपक गोल, या पंचमुखी, सप्त मुखी, अधिक विषम संख्या मुखी हो सकता है। इसे तेल या शुद्ध घी द्वारा रुई की बत्ती से जलाया गया होता है। प्रायः तेल का प्रयोग रक्षा दीपकों में किया जाता है, व आरती दीपकों में घी का ही प्रयोग करते हैं। बत्ती के स्थान पर कपूर भी प्रयोग की जा सकती है। इस थाली में दीपक के अलावा पूजा के फ़ूल, धूप-अगरबत्ती आदि भी रखे हो सकते हैं। इसके स्थान पर सामान्य पूजा की थाली भी प्रयोग की जा सकती है। कई स्थानों पर, विशेषकर नदियों की आरती के लिये थाली की जगह आरती दीपक प्रयोग होते हैं। इनमें बत्तियों की संख्या १०१ भी हो सकती है। इन्हें शत दीपक या सहस्रदीप भी कहा जाता है। ये विशेष ध्यानयोग्य बात है, कि आरती कभी सम संख्य़ा दीपकों से नहीं की जाती है।
| 0.5 | 2,512.810487 |
20231101.hi_12708_6
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आरती
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आरती के समय कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। पूजा में न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार भी हैं।
| 0.5 | 2,512.810487 |
20231101.hi_12708_7
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आरती
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कलश: कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। मान्यतानुसा इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त शिव से एकाकार हो रहे हैं। समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
| 0.5 | 2,512.810487 |
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आरती
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जल: जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल को शुद्ध तत्त्व माना जाता है, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
| 0.5 | 2,512.810487 |
20231101.hi_32873_0
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इटावा
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इटावा (Etawah) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के इटावा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_1
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इटावा
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इटावा एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। यह क्षेत्र दिल्ली-कलकत्ता राष्ट्रीय राजमार्ग २ पर स्थित है। इटावा शहर, पश्चिमी मध्य उत्तर-प्रदेश राज्य के उत्तरी भारत में स्थित है। इटावा आगरा के दक्षिण-पूर्व में यमुना (जमुना) नदी के तट पर स्थित है। इस शहर में कई खड्ड हैं। जिनमें से एक पुराने शहर (दक्षिण) को शहर (उत्तर) से अलग करता है। पुल और तटबंध, दोनों हिस्सों को जोड़ते हैं।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_2
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इटावा
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इटावा में 16वीं शताब्दी में निर्मित जामी मस्जिद है, जिसका निर्माण एक ऊँचे आधार पर पुराने हिन्दू भवनों के अवशेषों से किया गया है। यहाँ हिन्दू मंदिरों से घिरे 15वीं शताब्दी के एक क़िले का अवशेष भी है। इटावा का पुराना नाम इष्टिकापुर कहा जाता है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि देव, इटावा निवासी थे। उन्होंने स्वयं ही लिखा है- 'द्यौसरिया कविदेव को नगर इटावी वास।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_3
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इटावा
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इटावा रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त इटावा ज़िले में अन्य 6 रेलवे स्टेशन सराय भूपत (8 किलोमीटर), जसवंतनगर (16 किलोमीटर), बलराय (26 किलोमीटर), एकदिल (10 किलोमीटर), समहो (28 किलोमीटर) और भरथना (19 किलोमीटर) स्थित है।
| 0.5 | 2,512.200418 |
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इटावा
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भारत के कई प्रमुख शहरों से इटावा सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। इटावा ज़िला ग्वालियर, आगरा, फर्रूखाबाद, मैनपुरी, कानपुर और जालौन आदि से सड़क मार्ग द्वारा पूरी तरह से जुड़ा हुआ है।
| 1 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_5
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इटावा
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इस शहर में कपास और रेशम बुनाई के महत्त्वपूर्ण उद्योग व तिलहन मिलें हैं। जिले में धान मिलें भी बहुत बड़ी संख्या में हैं। इटावा घी का वितरण केंद्र भी है।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_6
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इटावा
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इटावा यमुना और इसकी सहायक नदियों द्वारा अपवाहित जलोढ़ भूभाग पर स्थित है और इस क्षेत्र की सिंचाई गंगा नहर प्रणाली की एक नहर द्वारा होती है। यहाँ की फ़सलों में गेहूँ, मकई, जौ और मोटा अनाज शामिल हैं। विशालकाय खड्डों के इस क्षेत्र में नदियों के किनारे मिट्टी के अपरदन की समस्या भी रहती है। पुनर्ग्रहण और कर लगाने संबंधी परियोजनाओं से कुछ भूमि वापस पाने में सहायता मिली है।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_7
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इटावा
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इटावा के शिक्षण संस्थानों में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, एच.एम.एस.इस्लामिया इंटर कॉलेज, कर्म क्षेत्र पी॰जी॰ कालेज, जनता कालेज बकेवर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर कृषि अभियांत्रिकी एवं प्रोद्योगिकी महाविद्यालय शामिल हैं।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_32873_8
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE
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इटावा
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सुमेर सिंह का किला, चम्बल, जुगरामऊ गांव, टैक्सी मंदिर, बाबरपुर, बकेवर, चकरनगर, जसौहारन, अहीरपुर, प्रताप नगर और सरसईनावर आदि यहाँ के प्रमुख पर्यटन स्थल है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इटावा काफ़ी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इटावा की जामा मसजिद प्राचीन बौद्ध या हिंदू मंदिर के खंडहरों पर बनाई गई मालूम होती है। भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी रुकमणी का मायका कुन्दनपुर जो की वर्तमान में कुदरकोट के नाम से जाना जाता है इसी जिले में है।
| 0.5 | 2,512.200418 |
20231101.hi_7019_2
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%B0
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मुंगेर
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महाभारत काल का 'मुद्गलपुरी' , ९वीं - १२वीं सदी मुद्गलगिरी के नाम से जाना जाता है। आइन ए अकबरी मे झ्से 'मुंग गिरी' कहा गया है। मुंगेर बंगाल के अंतिम नवाब मीर कासिम की राजधानी भी था। यहीं पर मीरकासिम ने गंगा नदी के किनारे एक भव्य किले का निर्माण कराया जो 1934 में आए भीषण भूकम्प से क्षतिग्रस्त हो गया था, लेकिन इसका अवशेष अभी भी शेष है। (इस किले के संबंध में कहा जाता है कि यह महाभारत काल का ही है) यहीं पर स्थित कष्टहरिणी घाट हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए पवित्र माना जाता है। प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार गंगा नदी के घाट पर स्नान करने से एक व्यक्ति का सभी कष्ट दूर हो गया था, उसी वक्त से इस घाट को कष्टहरिणी घाट' के नाम से जाना जाता है। इस पवित्र घाट के समीप ही नदी के बीच में माता सीताचरण का मंदिर स्थित है। यहां जाने के लिए नावों का सहारा लिया जाता है।
| 0.5 | 2,506.913526 |
20231101.hi_7019_3
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%B0
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मुंगेर
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इसके अलावा स्वर्गीय बाबू देवकी मंडल मुंगेर के सबसे बड़े जमींदार में से एक थे । जो की धानुक जमींदार थे।
| 0.5 | 2,506.913526 |
20231101.hi_7019_4
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%B0
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मुंगेर
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मुंगेर का किला ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जाना जाता है। बंगाल के अंतिम नवाब मीरकासिम का प्रसिद्ध किला यहीं पर स्थित है। यह किला गंगा नदी के किनारे बना हुआ है। नदी इस किले को पश्चिम और आंशिक रूप से उत्तर दिशा से सुरक्षित करता है। इस किला में चार द्वार हैं, जिसमें उत्तरी द्वार को लाल दरवाजा के नाम से जाना जाता है। यह विशाल दरवाजा नक्काशीदार पत्थरों से हिन्दू और बौद्ध शैली में बना हुआ है। किले में स्थित गुप्त सुरंग पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण का केंद्र है। 1934 में आए भीषण भूकंप से इस सुरंग को काफी क्षति पहुंचा है।
| 0.5 | 2,506.913526 |
20231101.hi_7019_5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%B0
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मुंगेर
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पीर शाह नूफा का गुंबद- पीर शाह नूफा का गुंबद किला के दक्षिणी द्वार के सामने एक टीले पर स्थित है। यह जगह बुद्धिष्ठ ढ़ांचे की अंतिम निशानी से भी पर्यटकों को रूबरू कराता है। इस गुंबद में एक बड़ा सा प्रार्थना कक्ष है जिससे एक कमरा भी जुड़ा हुआ है। गुंबद के अंदर नक्काशी किया हुआ कुछ पत्थर भी देखने को मिलता है। यह गुंबद हिंदू और मुस्लिम दोनों संप्रदायों के लिए समान रूप से पूज्यनीय है। इसके अलावा मुल्ला मोहम्मद सईद का मकबरा
| 0.5 | 2,506.913526 |
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मुंगेर
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शाह शुजा का महल - शाह शुजा का महल मुंगेर के खूबसूरत स्थानों में से एक है। आजकल इसको एक जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। जेलर के ऑफिस के पश्चिम में तुर्की शैली में बना (खुले छत) एक बड़ा सा स्नानागार है। महल के बाहर एक बड़ा सा कुंआ है जो एक गेट के माध्यम से गंगा नदी से जुड़ा हुआ है। हालांकि अब इसको ढ़ंक दिया गया है, अन्यथा पर्यटकों के लिए यह काफी दिलचस्प था।
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मुंगेर
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मुंगेर से 6 कि॰मी॰ पूर्व में स्थित सीता कुंड मुंगेर आनेवाले पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। इस कुंड का नाम पुरुषोत्तम राम की धर्मपत्नी सीता के नाम पर रखा गया है। कहा जाता है कि जब राम सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाकर लाए थे तो उनको अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। धर्मशास्त्रों के अनुसार अग्नि परीक्षा के बाद सीता माता ने जिस कुंड में स्नान किया था यह वही कुंड है। इस कुंड को बिहार राज्य पर्यटन मंत्रालय ने एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया है। इसके पास ही एक डैम का निर्माण भी कराया गया है। यहां खासकर माघ मास के पूर्णिमा (फरवरी) में स्नान करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। इस कुंड का पानी कभी-कभी 138° फॉरेनहाइट तक गर्म हो जाता है।
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मुंगेर
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खड़गपुर की पहाडि़यों पर स्थित यह तीर्थस्थल काफी मशहूर है। यह मुंगेर से २३कि॰मी॰ दक्षिण-पुर्व में नौवागढ़ी-पाटम-लोहची पथ में पहाड़पुर वनवर्षा के समीप स्थित है। इस स्थान का नाम प्रसिद्ध ऋषि श्रृंग के नाम पर रखा गया है। यहां मलमास के शुभ अवसर पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। पर्यटकों के बीच यहां का गर्म झरना आकर्षण के केंद्र बिंदू में रहता है। ठंड के मौसम में इस झरने का पानी हल्का गर्म हो जाता है जिसमें स्नान करने के लिए दूर दराज से पर्यटक आते हैं। यहीं पर एक डैम का निर्माण भी किया गया है जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाता है। यहां स्थित कुंड जिसको लोग ऋषिकुंड के नाम से जानते हैं, के बारे में कहा जाता है कि व्यक्ति चाहे लंबा हो या छोटा पानी उसके कमर के आसपास तक ही होता है। यहीं भगवान शिव को समर्पित एक बहुत प्राचीन मंदिर है जो भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय है।
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मुंगेर
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इसके अलावा खड़गपुर झील, रामेश्वर कुंड, पीर पहाड़, हा-हा पंच कुमारी, उरेन, बहादूरीया-भूर, भीमबांध आदि-आदि भी देखने लायक जगह है।
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मुंगेर
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काली पहाड़ी एक प्रसिद्ध चोटी है जिसका निर्माण देवी काली की पूजा करने के लिए किया गया था। किवदंती के अनुसार यह पहाड़ी दिव्य शक्ति का प्रतीक है। यह पिकनिक के लिए भी अच्छा स्थान है।
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जुताई
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भूमि के उपरी परत को चीरकर, पलटकर या जोतकर उसे बुवाई या पौधा-रोपण के योग्य बनाना जुताई, भू-परिष्करण या कर्षण (tillage) कहलाती है। इस कृषिकार्य में भूमि को कुछ इंचों की गहराई तक खोदकर मिट्टी को पलट दिया जाता है, जिससे नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है और वायु, पाला, वर्षा और सूर्य के प्रकाश तथा उष्मा आदि प्राकृतिक शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर भुरभुरी हो जाती है।
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जुताई
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एकदम नई भूमि को जोतने के पहले पेड़ पौधे काटकर भूमि स्वच्छ कर ली जाती है। तत्पश्चात् किसी भी भारी यंत्र से जुताई करते हैं जिससे मिट्टी कटती है और पलट भी जाती है। इस प्रकार कई बार जुताई करने से एक निश्चित गहराई तक मिट्टी फसल उपजाने योग्य बन जाती है। ऐसी उपजाऊ मिट्टी की गहराई साधारणत: एक फुट तक होती है। उसके नीचे की भूमि, जिसे गर्भतल कहते हैं, अनुपजाऊ रह जाती है। इस गर्भतल को भी गहरी जुताई करनेवाले यंत्र से जोतकर मिट्टी को उपजाऊ बना सकते हैं। यदि यह गर्भतल जोता न जाए और हल सर्वदा एक निश्चित गहराई तक कार्य करता रहे तो उस गहराई पर स्थित गर्भतल की ऊपरी सतह अत्यंत कठोर हो जाती है। इस कठोर तह को अंग्रेजी में प्लाऊ पैन (Plough pan) कहते हैं। यह कठोर तह कृषि के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होती है, क्योंकि वर्षा या सिंचाई से खेत में अधिक जल हो जाने पर वह इस कठोर तह को भेदकर नीचे नहीं जा पाता। अत: मिट्टी में अधिक समय तक जल भरा रहता है और अनेक प्रकार की हानियाँ उत्पन्न हो जाती हें। उन हानियों से बचने के लिए उस कठोर तह (प्लाऊ पैन) को प्रत्येक वर्ष तोड़ना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। मिट्टी के कणों के परिमाण पर मिट्टी की बनावट (texturc) और उनके क्रम पर मिट्टी का विन्यास (structure) निर्भर है। जुताई से बनावट तथा विन्यास में परिवर्तन करके हम मिट्टी को इच्छानुसार शस्य उत्पन्न करने योग्य बना सकते हैं।
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जुताई
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बीज बोने के लिए उच्च कोटि की मिट्टी प्राप्त करने के निमित्त सर्वप्रथम मिट्टी पलटनेवाले किसी भारी हल का उपयोग किया जाता है। तत्पश्चात् हलके हल से जुताई की जाती है जिसमें बड़े ढेले न रह जाएँ और मिट्टी भुरभुरी हो जाए। यदि बड़े-बड़े ढेले हों तो बेलन (रोलर) या पाटा का उपयोग किया जाता है, जिससे ढेले फूट जाते हैं। जुताई के किसी यंत्र का उपयोग मुख्यत: मिट्टी की प्रकृति तथा ऋतु की दशा पर निर्भर है। बीज बोने के पहले अंतिम जुताई अत्यंत सावधानी से करनी चाहिए, क्योंकि मिट्टी में आर्द्रता का संरक्षण इसी अंतिम जुताई पर निर्भर है और बीज के जमने की सफलता इसी आर्द्रता पर निर्भर है। यह आर्द्रता मिट्टी की केशिका नलियों द्वारा ऊपरी तह तक पहुँचती है। ये केशिका नलियाँ कणांतरिक छिद्रों से बनती हैं। ये छिद्र जितने छोटे होंगे, केशिका नलियाँ उतनी ही पतली और सँकरी होंगी और कणांतरिक जल मिट्टी में उतना ही ऊपर तक चढ़ेगा। इन छिद्रों और इसलिए केशिका नलियों के आकर का उपयुक्त या अनुपयुक्त होना जुताई पर निर्भर है।
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जुताई
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हल से खेत को जोतना ही जुताई नहीं कही जा सकती। हल चलाने के अतिरिक्त गुड़ाई, निराई, फावड़े से खोदना, पाटा या बेलन (रोलर) चलाना इत्यादि कार्य जुताई मे सम्मिलित हैं। इन सब क्रियाओं का मुख्य अभिप्राय यही है कि मिट्टी भुरभुरी और नरम हो जाए तथा पौधे के सफल जीवन के लिए मिट्टी में उपयुक्त परिस्थिति प्रस्तुत हो जाए। पौधों के लिए जल, वायु, उचित ताप, भाज्य पदार्थ, हानिकारक वस्तुओं की अनुपस्थिति तथा जड़ों के लिए सहायक आधार की आवश्यकता पड़ती है। ये सारी वस्तुएँ कर्षण द्वारा प्राप्त की जाती हैं और शस्य की सफलता इसी बात पर निर्भर रहती हैं कि ये उपयुक्त दशाएँ किस सीमा तक मिट्टी में संरक्षित की जा सकती हैं। अस्तु, कर्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88
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जुताई
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(2) मिट्टी भुरभुरी हो जाए जिससे उसमें जल, वायु, ताप और प्रकाश का आवागमन और संचालन सफलतापूर्वक हो सके।
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जुताई
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(6) विलाय (घोलक) शक्तियाँ अपना कार्य भली प्रकार कर सकें जिससे पौधों को प्राप्त होने योग्य विलेय तत्व अधिक मात्रा में उपलब्ध हों।
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जुताई
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जल, वायु और ताप में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। यदि मिट्टी मिट्टी में जल की मात्रा अधिक होगी तो वायु की मात्रा कम हो जाएगी, तदनुसार ताप कम हो जाएगा। इसके विपरीत यदि मिट्टी अधिक शुष्क है तो ताप अधिक हो जाएगा। ये तीनों आवश्यक दशाएँ मिट्टी की जोत (टिल्थ, द्यत्थ्द्यण्) पर निर्भर हैं। यदि जोत उत्तम है, तो मिट्टी में जल, वायु तथा ताप भी उचित रूप में हैं। यदि मिट्टी में जल अधिक या न्यून मात्रा में हो, तो उत्तम जोत प्राप्त नहीं हो सकती। अधिक जल के कारण मिट्टी चिपकने लगती है और ऐसी मिट्टी की जुताई करने से जोत नष्ट हो जाती है। जब मिट्टी सूखने लगती है तब एक ऐसी अवस्था आ जाती है कि यदि उस समय जुताई की जाए तो उत्तम जोत प्राप्त होती है। मटियार मिट्टी जब सूख जाती है तब उसमें ढेले बन जाते हैं जिनकों तोड़ना कठिन हो जाता है।
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जुताई
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जुताई कई प्रकार की होती है, जैसे गहरी जुताई, छिछली जुताई, अधिक समय तक जुताई, ग्रीष्म ऋतु की जुताई, हलाई या हराई की जुताई, मध्य से बाहर की ओर या किनारे से मध्य की ओर तथा एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर जुताई। हर प्रकार की जुताई में कुछ न कुछ विशेषता होती है। गहरी जुताई से मिट्टी अधिक गहराई तक उपजाऊ हो जाती है और यह गहरी जानेवाली जड़ों के लिए अत्यंत उपयुक्त होती है। छिछली जुताई झकड़ा जड़वाले और कम गहरी जानेवाली जड़ के पौधों के लिए उत्तम होती है। अधिक समय तक तथा ग्रीष्म ऋतु की जुताई से मिट्टी में प्रस्तुत हानिकारक कीड़े तथा उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार भी समूह नष्ट हो जाते हैं और मिट्टी की जलशोषण या जलधारण शक्ति अधिक हो जाती है। यदि खेत बहुत बड़ा है तो उसे हलाई या हराई नियम से कई भागों में बाँटकर जुताई करते हैं (हराई उतने भाग को कहते हैं जितना एक बार में सुगमता से जोता जा सकता है)। खेत यदि समतल न हो और मध्य भाग नीचा हो, तो मध्य से बाहर की ओर और यदि मध्य ऊँचा ढालुआ हो तो नीचे की ओर से ढाल के लंबवत् जुताई आरंभ करके ऊँचाई की ओर समाप्त करना चाहिए। ऐसा करने से खेत धीरे-धीरे समतल हो जाता है तथा मिट्टी भी भली प्रकार जुत जाती है। परंतु यह कार्य देशी हल से नहीं किया जा सता। इसके लिए मिट्टी पलटनेवाला हल होना चाहिए। इसमें मिट्टी पलटने के लिए पंख लगा रहता है। यही कारण है कि देशी हल को वास्तव में हल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हल की परिभाषा है वह यंत्र जो मिट्टी को काटे और उसे खोदकर पलट दे। देशी हल से मिट्टी कटती है, परंतु पलटती नहीं। इसको हल की अल्टिवेटर (Cultivater) कहना उचित है।
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जुताई
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जुताई के कुछ सिद्धांत हैं जिनका उपरिलिखित नियमों की अपेक्षा प्रत्येक दशा में पालन करना कृषक का कर्तव्य है। उपयोग से पले हल का भली भाँति निरीक्षण कर लेना चाहिए। उसका कोई भाग ढीला न हो। जूए में उसको आवश्यक ऊँचाई पर लगाएँ। यह ऊँचाई बैलों की ऊँचाई पर निर्भर है। जुताई करते समय हल की मुठिया दृढ़तापूर्वक पकड़नी चाहिए ताकि हल सीधा और आवश्यक गहराई तक जाए। कूँड़ों (हल रेखाओं) को सीधी और पास-पास काटना चाहिए अन्यथा कूँड़ों के बीच बिना जुती भूमि (अँतरा) छूँट जाती है। देशी हल से जुताई करने में अँतरा अवश्य छूटता है, जिसको समाप्त करने के लिए कई बार खेत जोतना पड़ता है। खेत की मिट्टी अधिक गीली या सूखी न हो। अधिक गीली मिट्टी से कई टुकड़े कड़े-कड़े ढोंके के हो जाते हैं और सूखी मिट्टी पर हल मिट्टी को काट नहीं पाता। उसमें इतनी आर्द्रता हो कि वह भुरभुरी हो जाए। हल चलाते समय कटी हुई मिट्टी भली भाँति उलटती जाए और पास का, पहले बना, खुला हुआ कूँड़ उस मिट्टी से भरता जाए। जोतने के पश्चात् खेत समतल दिखाई पड़े और खरपतवार नष्ट हो जाएँ। जुताई करते समय हल का फार मिट्टी के ऊपर न आए। पहली जुताई के बाद प्रत्येक बार खेत को इस प्रकार जोतना चाहिए कि दूसरी जुताई द्वारा कूँड़ लंबवत् कटे। सफल कर्षण के लिए इन सिद्धांतों का पालन आवश्यक है।
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गान्तोक
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यह गंगटोक के प्रमुख आकर्षणों में एक है। इसे सिक्किम का सबसे महत्वपूर्ण स्तूप माना जाता है। इसकी स्थापना त्रुलुसी रिमपोचे ने 1945 ई. में की थी। त्रुलुसी तिब्बतियन बौद्ध धर्म के नियंगमा सम्प्रदाय के प्रमुख थे। इस मठ का शिखर सोने का बना हुआ है। इस मठ में 108 प्रार्थना चक्र है। इस मठ में गुरु रिमपोचे की दो प्रतिमाएं स्थापित है।
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गान्तोक
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इनहेंची का शाब्दिक अर्थ होता है निर्जन। जिस समय इस मठ का निर्माण हो रहा था। उस समय इस पूरे क्षेत्र में सिर्फ यही एक भवन था। इस मठ का मुख्य आकर्षण जनवरी महीने में यहां होने वाला विशेष नृत्य है। इस नृत्य को चाम कहा जाता है। मूल रूप से इस मठ की स्थापना 200 वर्ष पहले हुई थी। वर्तमान में जो मठ है वह 1909 ई. में बना था। यह मठ द्रुपटोब कारपो को समर्पित है। कारपो को जादुई शक्ित के लिए याद किया जाता है।
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गान्तोक
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इस अभ्यारण्य में ऑर्किड का सुंदर संग्रह है। यहां सिक्किम में पाए जाने वाले 454 किस्म के ऑर्किडों को रखा गया है। प्राकृतिक सुंदरता को पसंद करने वाले व्यक्तियों को यह अवश्य देखना चाहिए।
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गान्तोक
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ताशी लिंग मुख्य शहर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से कंचनजंघा श्रेणी बहुत सुंदर दिखती है। यह मठ मुख्य रूप से एक पवित्र बर्त्तन ''बूमचू' के लिए प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस बर्त्तन में पवित्र जल रखा हुआ है। यह जल 300 वर्षों से इसमें रखा हुआ है और अभी तक नहीं सुखा है।
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गान्तोक
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यहां बौद्ध धर्म से संबंधित प्राचीन ग्रंथों का सुंदर संग्रह है। यहां का भवन भी काफी सुंदर है। इस भवन की दीवारों पर बुद्ध तथा संबंधित अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं का प्रशंसनीय चित्र है। यह भवन आम लोगों और पर्यटकों के लिए 'लोसार पर्व' के दौरान खोला जाता है। लोसार एक प्रमुख नृत्य त्योहार है।
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गान्तोक
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यह स्थान गंगटोक के पश्िचम में 145 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां कुछ घर तथा अधिक संख्या में होटल हैं। यहां से कंचनजघां का अदभूत दृश्य दिखता है। यहां से पर्वत चोटी बहुत नजदीक लगती है। ऐसा लगता है मानो यह मेरे बगल में है और मैं इसे छू सकता हूं। यहां मौसम बहुत सुहावना होता है।
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गान्तोक
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पिलींग से कुछ ही दूरी पर सिक्किम का दूसरा सबसे पुराना मठ 'सांगो-चोलिंग' है। यह सिक्किम के महत्वपूर्ण मठों में से एक है। इस मठ में एक छोटा सा कब्रिस्तान भी है। इस मठ के दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्रकारी की गई है। पिलींग आने वाले को इस मठ को अवश्य घूमना चाहिए।
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गान्तोक
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यह मठ पिलींग से थोड़ी देर की पैदल दूरी पर स्थित है। ग्यालसिंग से इसकी दूरी 6 किलोमीटर पड़ती है। यह सिक्किम का सबसे महत्वपूर्ण और प्रतिष्िठत मठ है। यहां बौद्ध धर्म की पढ़ाई भी होती है। यहां बौद्ध धर्म की प्राथमिक, सेकेण्डरी तथा उच्च शिक्षा प्रदान की जाती है। यहां 50 बिस्तरों का एक विश्राम गृह भी है। पर्यटक को भी यहां ठहरने की सुविधा प्रदान की जाती है। इस मठ में कई प्राचीन धर्मग्रन्थ तथा अमूल्य प्रतिमाएं सुरक्षित अवस्था में हैं। पेमायनस्ती मठ का विशेष आकर्षण यहां लगने वाला बौद्ध मेला है। यहां हर वर्ष फरवरी महीने में यह मेला लगता है।
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गान्तोक
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शाही पूजा स्थल, जो बौद्धों के लिए पूजा का मुख्य स्थान है। यह एक सुंदर और आकर्षक भवन है, यहां भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं और लकड़ी पर नक्काशी के कार्य का बहुत बड़ा संग्रह है।
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प्रवर्धक
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प्रवर्धक या एम्प्लिफायर (amplifier) ऐसी युक्ति है जो किसी विद्युत संकेत का मान (अम्प्लीच्यूड) बदल दे (प्रायः संकेत का मान बड़ा करने की आवश्यकता अधिक पड़ती है।) विद्युत संकेत विभवान्तर (वोल्टेज) या धारा (करेंट) के रूप में हो सकते है। आजकल सामान्य प्रचलन में प्रवर्धक से आशय किसी 'इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धक' से ही होता है।
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प्रवर्धक
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पहला व्यावहारिक उपकरण जो amplifier है वह त्रिकोणीय वैक्यूम ट्यूब(triode vacuum tube) था, जिसने 1 9 06 में Lee De Forest द्वारा आविष्कार किया था, जिसने 1 9 12 के आसपास के पहले एम्पलीफायरों का नेतृत्व किया था। 1 9 60 के दशक तक जब तक ट्रांजिस्टर का आविष्कार हुआ तो वैक्यूम ट्यूबों का लगभग सभी एम्पलीफायरों में उपयोग किया जाता था। , उन्हें बदल दिया गया। आज, अधिकांश एम्पलीफायर ट्रांजिस्टर का उपयोग करते हैं, लेकिन कुछ अनुप्रयोगों में वैक्यूम ट्यूबों का उपयोग जारी है।
| 0.5 | 2,492.242926 |
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प्रवर्धक
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टेलीफ़ोन के रूप में ऑडियो संचार प्रौद्योगिकी का विकास, जिसे पहली बार 1876 में पेटेंट किया गया था,तेजी से लंबी दूरी पर संकेतों के संचरण को बढ़ाने के लिए विद्युत संकेतों (electrical signals) के आयाम को बढ़ाने की आवश्यकता पैदा की। टेलीग्राफी में, इस समस्या को स्टेशनों पर इंटरमीडिएट उपकरणों के साथ हल किया गया था, जो एक सिग्नल रिकॉर्डर और ट्रांसमीटर को बैक-टू-बैक संचालित करके विलुप्त ऊर्जा (local energy) को भर देता था, जिससे रिले का निर्माण होता था, ताकि प्रत्येक मध्यवर्ती स्टेशन पर एक स्थानीय ऊर्जा स्रोत अगले चरण को संचालित कर सके संचरण। डुप्लेक्स ट्रांसमिशन के लिए, यानी दोनों दिशाओं में भेजने और प्राप्त करने के लिए, द्वि-दिशात्मक रिले रिपियटर्स को टेलीग्राफिक ट्रांसमिशन के लिए C. F. Varley के काम से शुरू किया गया था। टेलीफ़ोनी के लिए डुप्लेक्स ट्रांसमिशन आवश्यक था और 1 9 04 तक समस्या को संतोषजनक ढंग से हल नहीं किया गया था, जब अमेरिकी टेलीफोन और टेलीग्राफ कंपनी के H. E. Shreeve ने एक टेलीफोन पुनरावर्तक (telephone repeater) बनाने में मौजूदा प्रयासों में सुधार किया था जिसमें बैक-टू-बैक कार्बन-ग्रेन्युल ट्रांसमीटर और इलेक्ट्रोडडायनामिक रिसीवर जोड़े (electrodynamic receiver pairs) शामिल थे। श्रीवे रिपेटर (Shreeve repeater) का पहली बार बोस्टन और एम्सबरी, एमए के बीच एक लाइन पर परीक्षण किया गया था, और कुछ परिष्कृत उपकरण कुछ समय के लिए सेवा में बने रहे।
| 0.5 | 2,492.242926 |
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%95
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प्रवर्धक
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अलग-अलग क्षेत्रों में तथा अलग-अलग प्रकार की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रवर्धक भी अनेक प्रकार के होते हैं।
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प्रवर्धक
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माइक्रोफोन द्वारा प्राप्त विद्युत तरंग को वोल्टेज एम्पलीफायर प्रवर्धित करता है, इसे सीधे लाउडस्पीकर को देने पर यह पुन: इन्हे ध्वनि तरंगो मे बदल नही पायेगा। अतः वोल्टेज प्रवर्धक से प्राप्त आउटपुट को एक शक्ति प्रवर्धक को दिया जाता है। जिससे लाउडस्पीकर को संचालित करने योग्य पावर प्राप्त हो जाता है।
| 1 | 2,492.242926 |
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प्रवर्धक
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"वह ट्रांजिस्टर प्रवर्धक जो ऑडियो आवृत्ति (२० हर्ट्ज से २० किलोहर्ट्ज) सिगनलों के पॉवर स्तर को बढ़ाता है, ट्राँजिस्टर आडियो शक्ति प्रवर्धक कहलाता है"। वैसे अन्य प्रकार के शक्ति-प्रवर्धक भी होते हैं, जैसे विडियो शक्ति प्रवर्धक जो विडियो संकेतों को शक्तिशाली बनाने के काम आता है। इसी प्रकार रेडियो आवृत्ति शक्ति प्रवर्धक रेडियो आवृत्ति के संकेतों को शक्ति प्रदान करता है।
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प्रवर्धक
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1. इसमें प्रयुक्त पावर ट्राँजिस्टर का आकार वोल्टेज प्रवर्धक के ट्राँजिस्टर से बड़ा होता है। अर्थात् इसका Vce, Ic या ऊष्मा ह्रास करने की क्षमता (PD) अपेक्षाकृत अधिक होते हैं।
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प्रवर्धक
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वास्तव में कोई पावर प्रवर्धक पावर का प्रवर्धन नहीँ करता है बल्कि यह आउटपुट पर संयोजित d.c. सप्लाई से पावर लेकर उसे a.c. सिगनल पावर में परिवर्तित करता है।
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प्रवर्धक
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चूँकि यह वोल्टेज प्रवर्धक से प्राप्त उच्च वोल्टेज सिगनल का प्रवर्धन करता है अतः इसे लार्ज सिगनल प्रवर्धक कहना उचित होगा।
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बेगूसराय
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राष्ट्रीय फलक पर दैदीप्यमान, बेगूसराय की साहित्यिक पहचान "विप्लवी पुस्तकालय", जो बिहार सरकार द्वारा चयनित राज्य का विशिष्ट पुस्तकालय है। यहाँ हर साल 4-5 राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन होता ही है। विप्लवी पुस्तकालय, गोदरगावां, बेगूसराय ही देश में पहली बार अपने ग्रामीण माहौल में लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन का सफल आयोजन किया जिसमें देश विदेश से 350 प्रबुद्ध लेखकों ने हिस्सा लिया। प्रसिद्ध नाटककार मरहूम हबीब तनवीर द्वारा "राजरक्त" नाटक का खुला मंचन किया गया 10हजार से ज्यादा दर्शकदीर्घा में रहे होंगे।
| 0.5 | 2,484.42126 |
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बेगूसराय
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शहर से 7 किलोमीटर दूर गोदरगांवा ग्राम में सन 1931 से स्थित इस पुस्तकालय में तकरीबन ५० हजार पुस्तकें और पत्रिकाएं हैं जिसका लाभ नियमित रूप से अनेक पाठक उठाते हैं। पुस्तकालय के संरक्षक राजेन्द्र राजन जो क्षेत्र के पूर्व विधानसभा सदस्य होने के साथ साथ प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव रहे हैं।
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बेगूसराय
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पुस्तकालय प्रांगण में विद्रोहिणी मीरा कबीर मुन्शी प्रेमचन्द. चन्द्रशेखर आजद शहीद सरदार भगत सिंह महात्मा गांधी तथा डॉ पी गुप्ता की मुर्तियां अपने आप में संस्कृतिक धरोहर के रुप में स्थित है।
| 0.5 | 2,484.42126 |
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बेगूसराय
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पुस्तकालय भवन के ठीक सामने वैदेही सभागार है जिसमें तकरीबन पाँच से लोगों के बैठने की उचित व्यवस्था है।
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बेगूसराय
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बेगूसराय जिले के सभी महाविद्यालय ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा से संबद्ध हैं। यहां के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में गणेश दत्त महाविद्यालय, एसबीएसएस कॉलेज, श्री कृष्ण महिला कॉलेज. चंद्रमा असरफी भागीरथ सिंघ कॉलेज खमहार .एपीएसएम कॉलेज बरौनी. आरसीएस कॉलेज मन्झौल. आदि हैं। अहम विद्यालयों में जे.के. इंटर विधालय. बीएसएस इंटर कॉलेजिएट हाईस्कूल, आर. के. सी. +२ विद्यालय फुलवरिया बरौनी, बीपी हाईस्कूल,श्री सरयू प्रसाद सिंह विद्यालय विनोदपुर , सेंट पाउल्स स्कूल, डीएवी बरौनी, बीआर डीएवी (आईओसी), केवी आईओसी, डीएवी इटवानगर,सुह्रद बाल शिक्षा मंदिर, साइबर स्कूल, जवाहर नवोदय विद्यालय, हमारे यहां बेगूसराय में सिमरिया धाम जो कि आदि कुंभ स्थलीन्यू गोल्डेन इंग्लिश स्कूल,विकास विद्यालय आदि।यहाँ सरकारी नौकरी और टेट,सीटेट,एस्टेट,सीयूईटी और विभिन्न प्रतियोगिता परिक्षा से संबंधित तैयारी के लिए 1994 ईस्वी में स्थापित प्रख्यात संस्थान new Marksman coaching है जो कालीस्थान में अवस्थित है।
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बेगूसराय
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बेगूसराय की संस्कृति मिथिला की सांस्कृतिक विरासत को परिभाषित करती है। बेगूसराय के लोग भी मिथिला पेंटिंग बनाते हैं। बेगूसराय सिमरिया मेले के लिए भी प्रसिद्ध है, जो भारतीय पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक के महीने के दौरान भक्ति महत्व का मेला है। नवंबर).
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बेगूसराय
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बेगूसराय में पुरुष और महिलाएं बहुत धार्मिक हैं और पर्वो के अनुसार वस्त्र पहनते हैं। बेगूसराय की वेशभूषा मिथिला की समृद्ध पारंपरिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। पंजाबी कुर्ता और धोती के साथ मिथिला चित्रकारी से सजा मैरून गमछा कंधे पर रखते हैं जो शोर्य,प्रेम और साहस का प्रतीक है। संग में वे अपनी नाक में सोने की बाली,कंठ में रूद्र माला और कलाई में बल्ला धारण करते हैं जो भगवान विष्णु से प्रेरित समृद्धि और वैभव का प्रतीक है।
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बेगूसराय
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प्राचीन समय में मिथिला में कोई रंग विकल्प नहीं था, इसलिए मैथिल महिलाएं लाल बॉर्डर वाली सफेद या पीली साड़ी पहनती थीं, लेकिन अब उनके पास बहुत सारी विविधता और रंग विकल्प हैं और वे लाल-पारा (पारंपरिक लाल बोर्ड वाली सफेद या पीली साड़ी) कुछ विशेष अवसरों पर पहनती हैं। इसके संग वे हाथ में लहठी के साथ शाखा-पोला भी पहनते हैं जो मिथिला में विवाह के बाद पहनना अनिवार्य है। मिथिला संस्कृति में, यह नई शुरुआत, जुनून और समृद्धि का प्रतिनिधित्व करता है। लाल हिंदू देवी दुर्गा का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो नई शुरुआत और स्त्री शक्ति का प्रतीक है। छइठ के दौरान मिथिला की महिलाएं बिना सिले शुद्ध सूती धोती पहनती हैं जो मिथिला की शुद्ध, पारंपरिक संस्कृति को दर्शाता है। आमतौर पर दैनिक उपयोग के लिए सूती साड़ी और अवसरों के लिए रेशम अथवा बनारसी साड़ी को पहना जाता है। मिथिला की महिलाओं के लिए पारंपरिक पोशाक में जामदानी, बनारसी और भागलपुरी और कई अन्य शामिल हैं। मिथिला में वर्ष भर कई पर्व मनाए जाते हैं। छइठ, दुर्गा पूजा और काली पूजा को मिथिला के सभी उत्सवों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
| 0.5 | 2,484.42126 |
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बेगूसराय
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बेगूसराय जिला गंगा के समतल मैदान में स्थित है। यहां मुख्य नदियां-बूढ़ी गंडक, बलान, बैंती, बाया और चंद्रभागा है। (चंद्रभागा सिर्फ मानचित्रों में बच गई है।) कावर झील एशिया की सबसे बडी मीठे जल की झीलों में से एक है। यह पक्षी अभयारण्य के रूप में प्रसिद्ध है।
| 0.5 | 2,484.42126 |
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सलाउद्दीन
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दास्तान ईमान फ़रोशों की "फ़ातेह बैतुल मुक़द्दस सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी" पुस्तक में उन पर हमले का ज़िक्र:
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सलाउद्दीन
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सलाहउद्दीन अय्यूबी पर उनके मुहाफ़िज़ों की मोजूदगी में उस पर हमला न किया जा सकता था। दो हमले नाकाम हो चुके थे, अब जबके सलाहुद्दीन अय्यूबी को ये तवक़्क़ो (उम्मीद) थी के उनका चचा ज़ाद भाई अल सालेह, अमीर सैफुद्दीन शिकस्त खाकर तौबा कर चुके होंगे उन्होने इन्तक़ाम की एक और ज़ैर ए ज़मीन कोशिश की।
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सलाउद्दीन
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सलाहुद्दीन अय्यूबी ने इस फ़तह का जश्न मनाने की बजाय हमले जारी रखे और तीन क़स्बों को क़ब्ज़े में ले लिया, इनमें ग़ज़ा का मशहूर क़स्बा भी था।उसी क़स्बे के गिर्द ओ निवाह (आस पास)में एक रोज़ सलाहुद्दीन अय्यूबी अमीर जावा अल असदी के खेमें में दोपहर के वक़्त ग़ुनूदगी के आलम में सुस्ता रहे थे। उन्होंने अपनी वो पगड़ी नहीं उतारी थी जो मैदान ए जंग में उनके सर को सहरा के सूरज और दुश्मन की तलवार से महफ़ूज़ रखती थी।
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सलाउद्दीन
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खेमें के बाहर उनके मुहाफ़िज़ों का दस्ता मौजूद और चौकस था। बाडी गार्ड्स के इस दस्ते का कमांडर ज़रा सी देर के लिए वहां से चला गया। एक मुहाफ़िज़ ने सलाहुद्दीन अय्यूबी के खेमें के गिरे हुए पर्दों में से झांका। इस्लाम की अज़मत के पासबान की आंखें बंद थीं, वो पीठ के बल लेटा हुआ था। उस मुहाफ़िज़ ने बाडी गार्ड्स की तरफ देखा, उनमें से तीन चार बाडी गार्ड्स ने उसकी तरफ देखा। मुहाफ़िज़ ने अपनी आंखें बंद करके खोलीं। तीन चार मुहाफ़िज़ उठे और दूसरों को बातों में लगा लिया। मुहाफ़िज़ खेमें में चला गया, कमर बंद से खंजर निकाला दबे पाँव चला और फिर चीते की तरह सोए हुए सलाहुद्दीन अय्यूबी पर जस्त (छलांग) लगाई। ख़ंजर वाला हाथ ऊपर उठा, ठीक उसी वक़्त सलाहुद्दीन अय्यूबी ने करवट बदली। ये नहीं बताया जा सकता कि मुहाफ़िज़ खंजर कहां मारना चाहता था, दिल में या सीने में मगर हुआ यूं के खंजर सलाहुद्दीन अय्यूबी की पगड़ी के बालाई हिस्से में उतर गया और
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सलाउद्दीन
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सर से बाल बराबर दूर रहा। पगड़ी सर से उतर गई। सलाहुद्दीन अय्यूबी बिजली की तेज़ी से उठा। उसे ये समझने में देर न लगी के ये सब क्या है। उस पर इस से पहले ऐसे दो हमले हो चुके थे। उसने इस पर भी हैरत का इज़हार न किया के हमलावर उसके अपने बाडी गार्ड्स के लिबास में था जिसे उसने ख़ुद अपने बाडी गार्ड्स के लिये मुन्तख़ब किया (चुना) था। उसने साँस जितना अरसा (समय) भी ज़ाया न किया। हमलावर उसकी पगड़ी से खंजर खींच रहा था।
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सलाउद्दीन
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अय्यूबी सर से नंगा था, उसने हमलावर की थुड्डी पर पूरी ताक़त से घूंसा मारा, हड्डी टूटने की आवाज़ सुनाई दी। हमलावर का जबड़ा टूट गया था। वो पीछे को गिरा और उसके मुँह से हैबतनाक आवाज़ निकली। उसका खंजर सलाहुद्दीन अय्यूबी की पगड़ी में रह गया था। सलाहुद्दीन अय्यूबी ने अपना खंजर निकाल लिया। इतने में दो मुहाफ़िज़ दौड़ते अंदर आये। उनके हाथों में तलवारें थीं।
| 0.5 | 2,479.265303 |
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सलाउद्दीन
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सलाहुद्दीन अय्यूबी ने उन्हें कहा के इसे ज़िन्दा पकड़ लो मगर ये दोनों मुहाफ़िज़ सलाहुद्दीन अय्यूबी पर टूट पड़े।
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सलाउद्दीन
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क्योंकि तमाम बाडी गार्ड्स अंदर आ गये थे। अय्यूबी ये देख कर हैरान रह गया के उसके बाडी गार्ड्स दो हिस्सो में तक़सीम होकर एक दूसरे को लहु लुहान कर रहे थे।
| 0.5 | 2,479.265303 |
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सलाउद्दीन
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इसे क्योकि मालूम नहीं था कि इनमें इसका दुश्मन कौन और दोस्त कौन है, वो इस मोरके (लड़ाई) में शरीक न हो सका। कुछ देर बाद जब बाडी गार्ड्स में से चंद एक मारे गये, कुछ भाग गये और बाज़ ज़ख़्मी होकर बेहाल हो गये तो इन्केशाफ़ हुआ (राज़ खुला), के इस दस्ते में जो सलाहुद्दीन अय्यूबी की हिफ़ाज़त पर मामूर था, सात मुहाफ़िज़ फ़िदाई थे जो सलाहुद्दीन अय्यूबी को खत्म करना चाहते थे।
| 0.5 | 2,479.265303 |
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निरुक्त
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काशिकावृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है— वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं।
| 0.5 | 2,476.439206 |
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निरुक्त
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वर्तमान उपलब्ध निरुक्त, निघंटु की व्याख्या (commentary) है और वह यास्क रचित है। यास्क का योगदान इतना महान है कि उन्हें निरुक्तकार या निरुक्तकृत ("Maker of Nirukta") एवं निरुक्तवत ("Author of Nirukta") भी कहा जाता है। यास्क ने अपने निरुक्त में पूर्ववर्ती निरुक्तकार के रूप में औपमन्यव, औटुंबरायण, वाष्र्यामणि; गार्ग्य, आग्रायण, शाकपूणि, और्णनाभ, तेटीकि, गालव, स्थौलाष्ठीवि, कौंष्टुकि और कात्थक्य के नाम उद्धृत किए हैं ( तथापि उनके ग्रंथ अब प्राप्त नहीं है)। इससे सिद्ध है कि 12 निरुक्तकारों को यास्क जानते थे। 13वें निरुक्तकार स्वयं यास्क हैं। 14वाँ निरुक्तकार अथर्वपरिशिष्टों में से 48वें परिशिष्ट का रचयिता है। यह परिशिष्ट निरुक्त निघंटु स्वरूप है।
| 0.5 | 2,476.439206 |
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निरुक्त
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इसकी विशेषताओं से आकृष्ट होकर अनेक विद्वानों ने इस पर टीका लिखी है। इस समय उपलब्ध टीकाओं में स्कंदस्वामी की टीका सबसे प्राचीन है। शुक्लयजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण के भाष्य में हरिस्वामी ने स्कंदस्वामी को अपना गुरु कहा है। देवराज यज्वा द्वारा रचित एक व्याख्या का प्रकाशन गुरुमंडल ग्रंथमाला, कलकत्ता से 1952 में हुआ है। ग्रंथ के प्रारंभ में इन्होंने एक विस्तृत भूमिका लिखी है। निरुक्त पर व्याख्या रूप एक वृत्ति दुर्गाचार्य रचित उपलब्ध है। इन्होंने अपनी वृत्ति में निरुक्त के प्राय: सभी शब्दों का विवचन किया है। इसका प्रकाशन आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथमाला, पूना से 1926 में और खेमराज श्रीकृष्णदास, बंबई से 1982 वै., में हुआ है।
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निरुक्त
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सत्यव्रत सामश्रमी ने इस विषय पर लेखनकार्य किया है। इसका प्रकाशन बिब्लओथिका, कलकत्ता से 1911 में हुआ है। प्रो॰ राजवाड़े का इस विषय पर महत्वपूर्ण कार्य निरुक्त का मराठी अनुवाद है जो 1935 में प्रकाशित है। डॉ॰ सिद्धेश्वर वर्मा का यास्क निर्वचन नामक ग्रंथ विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान, होशयारपुर से 1953 में प्रकाशित है। इसपर कुकुंद झा बख्शी की संस्कृत टीका निर्णयसागर प्रेस, बंबई से 1930 में प्रकाशित है। इसपर मिहिरचंद्र पुष्करणा ने एक टीका लिखी है जो पुरुषार्थ पुस्तकमाला कार्यालय, अमृतसर से 1945 में प्रकाशित है।
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निरुक्त
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इसके सिवाय परिशिष्ट के रूप में अंतिम दो अध्याय और भी साथ में संलग्न हैं। इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं। इन अध्यायों में प्रारंभ से द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद पर्यंत उपोद्घात वर्णित है। इसमें निघंटु का लक्षण, पद का प्रकार, भाव का विकार, शब्दों का धातुज सिद्धांत, निरुक्त का प्रयोजन और एतत्संबंधी अन्य आवश्यक नियमों के आधार परि विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। इस समस्त भाग का नैघंटुक कांड कहते हैं। इसी का 'पूर्वषट्क' नामांतर है। चौथे अध्याय में एकपदी आख्यान का सुंदर विवेचन किया गया है। इसे नैगमकांड कहते हैं। अंतिम छह अध्यायों में देवताओं का वर्णन किया गया है। इसे दैवत कांड बतलाया है। इसके अनंतर देवस्तुति के आधार पर आत्मतत्वों का उपदेश किया गया है।
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निरुक्त
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निरुक्त के बारह अध्याय है। प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सूक्ष्म विचार हैं। इतने प्राचीन काल में शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं देखा जाता। शब्दशास्त्र पर अनेक मत प्रचलित थे इसका पता यास्क के निरूक्त से लगता है। कुछ लोगों का मत था कि सभी शब्द धातुमूलक हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं जिनमें प्रत्यय आदि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैँ। इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातुरुप क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अशं' से अश्व माना जाय तो प्रत्य़ेक चलने या आगे बढ़नेवाला पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क ने इसी विरोधी मत का खंडन किया है। यास्क मुनि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करनेवाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता। दूसरे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने-जितने गुण हों उतने ही उसका नाम भी होने चाहिए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गुण या कर्म से एक नाम को धारण करता है। इसी प्रकार और भी समझिए। दूसरे और तीसरे अध्याय में तीन निधंटुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः व्यख्या सहित है। चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघंटु की व्याख्या है। सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघंटु के वैदिक देवताओं की व्याख्या है।
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निरुक्त
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निरुक्त की उपादेयता को देखकर अनेक पाश्चात्य विद्वान इस पर मुग्ध हुए हैं। उन्होंने भी इसपर लेखनकार्य किया है। सर्वप्रथम रॉथ ने जर्मन भाषा में निरुक्त की भूमिका का अनुवाद प्रकाशित किया है। जर्मन भाषा में लिखित इस अनुवाद का प्रो॰ मैकीशान ने आंग्ल अनुवाद किया है। यह बंबई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित है। स्कोल्ड ने जर्मन देश में रहकर इस विषय पर अध्ययन किया है और इसी विषय पर प्रबंध लिखकर प्रकाशित किया है।
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निरुक्त
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स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने वैदिक भाष्यों और सत्यार्थ प्रकाश में वैदिक मंत्रों के अर्थ करने के लिए इस ग्रंथ का बहुत सहारा लिया है। महर्षि औरोबिन्दो ने भी वेदों को समझने में निरूक्त की महत्वपूर्ण भूमिका का ज़िक्र किया है।
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निरुक्त
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वैदिक संस्कृत की भाषा समझने के लिए व्याकरण का भी पाठन होता है और अष्टाध्यायी को इसका महत्तम ग्रंथ माना जाता है। निरूक्त में शब्दों के मूल का वर्णन है, यानि किस भावना के कारण घोड़े को अश्व कहा जाता है (आशु यानि तेज गति से जाने के कारण) इसका वर्णन है। जबकि व्याकरण में अश्वारूढ़ (अश्व पर आरोहित, घोड़े पर सवार) के मूल शब्दों से उत्पन्न भावना का वर्णन है। निरूक्त में चूँकि मूलों का वर्णन है, अतः जिन शब्दों का वर्णन है वह छोटे (२-३ वर्ण) हैं, जबकि व्याकरण में लम्बे शब्दों और वाक्यों का भी वर्णन है, क्योंकि व्याकरण सन्धि-समास-अलंकार आदि का विवेचन करता है।
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मोरक्को
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यह अभी भी दो इंक्लेवस और मेलिला के साथ सीमाओं को साझा करता लेकिन सेतु और मेलिला स्पेन का हिस्सा माना जाता है। मोरक्को की स्थलाकृति इसके उत्तरी तट के रूप में भिन्न होती है और आंतरिक क्षेत्र पहाड़ी हैं, जबकि इसके तट में उपजाऊ मैदान हैं जहां देश की अधिकांश कृषि होती है। मोरक्को के पहाड़ी इलाकों के बीच घाटियां भी हैं। मोरक्को में सबसे ऊंचा बिंदु जेबेल टुबकल है जो 13,665 फीट (4,165 मीटर) तक ऊंचा है, जबकि इसका सबसे निचला बिंदु सेबखा ताह है जो समुद्र तल से -180 फीट (-55 मीटर) है।
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मोरक्को
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मोरक्को का वातावरण, इसकी स्थलाकृति की तरह, स्थान के साथ भी भिन्न होता है। तट के साथ, भूमध्यसागरीय गर्म, सूखे ग्रीष्म और हल्के सर्दियों के साथ भूमध्यसागरीय है। दूरदराज के अंतर्देशीय, जलवायु अधिक गरम है और निकटतम सहारा मरुस्थल में आता है, यह अधिक गरम हो जाता है। उदाहरण के लिए मोरक्को की राजधानी, राबत तट पर स्थित है और इसका औसत जनवरी का औसत तापमान 46˚F (8˚C) है और औसत जुलाई उच्च तापमान 82˚F (28˚C) है। इसके विपरीत, मराकेश, जो आगे के अंतर्देशीय स्थित है, में औसतन जुलाई उच्च तापमान 98˚F (37˚C) और जनवरी औसत औसत 43˚F (6˚C) है।
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मोरक्को
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मोरक्को की आबादी लगभग 35,276,786 (2016 अनु.) है। सीआईए के अनुसार, 99% निवासी अरब-बर्बर हैं, शेष 1% में अन्य समूह शामिल हैं। 2014 की मोरक्को जनसंख्या जनगणना के अनुसार, देश में लगभग 84,000 अप्रवासी थे। स्वतंत्रता से पहले, मोरक्को में आधे मिलियन यूरोपीय थे; जो ज्यादातर ईसाई थे। स्वतंत्रता से पहले, मोरक्को 250,000 स्पेनियों का घर भी था। 1948 में यहूदी की जनसंख्या 265,000 अपनी चरम में थी, जो आज घटकर लगभग 2,500 ही रह गई है।
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मोरक्को
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देश में धार्मिक अनुमान 2010 में प्यू फोरम संस्था द्वारा 99% मुस्लिम आबादी के रूप में प्रदर्शित किया गया था जिसमे सुन्नी 67% पर बहुमत बनाते हैं, गैर-सांप्रदायिक मुस्लिम 30% मुसलमानों का दूसरा सबसे बड़ा समूह है जिसमे सिया भी सामिल है मोरक्को में दूसरा धार्मिक समूह 1% है जिसमे ईसाई और अन्य धार्मिक अनुयायी सामिल है।.
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मोरक्को
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मोरक्को की आधिकारिक भाषाएं अरबी और बर्बर हैं। पूरी आबादी का लगभग 89.8% मोरक्कन अरबी में कुछ हद तक संवाद कर सकता है। 2008 में, फ्रेड्रिक देरोसे ने अनुमान लगाया कि 12 मिलियन बर्बर वक्ता थे, जो लगभग 40% आबादी थी।
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मोरक्को
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सरकारी संस्थानों, मीडिया, मध्य-आकार और बड़ी कंपनियों, फ्रांसीसी बोलने वाले देशों के साथ अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य, और अक्सर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में फ्रांसीसी का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। 2004 की जनगणना के अनुसार, 2.19 मिलियन मोरक्कोवासियों द्वारा फ्रांसीसी के अलावा एक अन्य विदेशी भाषा बोली जाती है।
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मोरक्को
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मोरक्को एक समृद्ध संस्कृति और सभ्यता वाला देश है। मोरक्को के इतिहास के माध्यम से, इसने पूर्व (फोनेशियन, यहूदियों और अरबों), दक्षिण (उप-सहारा अफ्रीकी) और उत्तर (रोम, अन्दलुस) से आने वाले कई लोगों की मेजबानी की है। उन सभी सभ्यताओं ने मोरक्को की सामाजिक संरचना को प्रभावित किया है।
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मोरक्को
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सांस्कृतिक रूप से, मोरक्को हमेशा अपने बर्बर, यहूदी और अरबी सांस्कृतिक विरासत को फ्रांसीसी और स्पेनिश जैसे बाहरी प्रभावों और, पिछले दशकों के दौरान, एंग्लो-अमेरिकन जीवन शैली के साथ संयोजन करने में सफल रहा है।
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मोरक्को
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मोरक्को के व्यंजनों को दुनिया में सबसे विविध व्यंजनों में से एक माना जाता है। यह बाहरी दुनिया के साथ मोरक्को की सदियों से चली आ रही पारस्परिक संगम का परिणाम है। मोरक्को का भोजन मुख्य रूप से मूरिश, यूरोपीय और भूमध्यसागरीय व्यंजनों का एक संलयन है।
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लिम्फाडेनोपैथी
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लिम्फ नोड की सूजन को लिम्फाडेनिटिस कहा जाता है। हालांकि दैनिक उपयोग में लिम्फाडेनोपैथी और लिम्फाडेनिटिस के बीच के अंतर को बहुत कम ही प्रकट किया जाता है। (लिम्फ चैनल की सूजन को लिम्फांजाइटिस कहा जाता है।)
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लिम्फाडेनोपैथी
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स्थानीय लिम्फाडेनोपैथी: संक्रमण के स्थान के स्थानीय होने के कारण, उदाहरण के लिए कपाल के एक संक्रमित स्थान के कारण उसी तरफ की गर्दन लिम्फ नोड्स भी सूजन का शिकार हो जाते हैं।
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लिम्फाडेनोपैथी
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बढ़े हुए लिम्फ नोड्स कई संक्रामक और असाध्य बीमारियों का एक आम लक्षण हैं। यह कई बीमारियों का एक मान्यता प्राप्त लक्षण है, जिनमें से कुछ इस प्रकार है:
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Subsets and Splits
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