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सीवान
व्यवसायिक शिक्षा:- इंजिनियरिंग कॉलेज, आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज, होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेजअ,आई टी आई कालेज
0.5
2,315.546233
20231101.hi_2228_15
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सीवान
दोन स्तूप (दरौली): दरौली प्रखंड के दोन गाँव में यह एक महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल है। दरौली नाम मुगल शासक शाहजहाँ के बेटे दारा शिकोह के नाम पर पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि दोन में भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार हुआ था। हिंदू लोग यह मानते हैं कि यहाँ किले का अवशेष महाभारत काल का है, जिसे गुरु द्रोणाचार्य ने बनवाया था। उपलब्ध साक्ष्यों को देखने से इस मान्यता को बल नहीं मिलता। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में इस स्थान पर एक पुराना स्तूप होने का जिक्र किया है। स्तूप के अवशेष स्थल पर तारा मंदिर बना है, जिसमें नवीं सदी में बनी एक मूर्ति स्थापित है।
0.5
2,315.546233
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सीवान
अमरपुर: दरौली से ३ किलोमीटर पश्चिम में घाघरा नदी के तट पर स्थित इस गाँव में मुगल शाहजहाँ के शासनकाल (1626-1658) में यहाँ के नायब अमरसिंह द्वारा एक मस्जिद का निर्माण शुरू कराया गया, जो अधूरा रहा। लाल पत्थरों से बनी अधूरी मस्जिद को यहाँ देखा जा सकता है।
0.5
2,315.546233
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गीताप्रेस
गीता प्रेस के प्रोडक्शन मैनेजर लालमणि तिवारी कहते हैं, हम हर रोज 50,000 से ज्यादा किताबें बेचते हैं। दुनिया में किसी भी पब्लिशिंग हाउस की इतनी पुस्तकें नहीं बिकती हैं। धार्मिक पुस्तकों में वर्तमान समय में सबसे अधिक माँग रामचरित मानस की है। गोयन्दका ने कहा कि हमारे कुल कारोबार में 35 प्रतिशत योगदान रामचरित मानस का है। इसके बाद 20 से 25 प्रतिशत का योगदान भगवद्गीता की बिक्री का है।
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2,311.992858
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गीताप्रेस
गीता प्रेस की पुस्तकों की लोकप्रियता का कारण यह है कि इनकी पुस्तकें काफी सस्ती हैं। साथ ही इनकी प्रिटिंग काफी साफसुथरी होती है और फोंट का आकार भी बड़ा होता है। गीताप्रेस का उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं है। यहाँ सद्प्रचार के लिए पुस्तकें छपती हैं। गीता प्रेस की पुस्तकों में हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा और शिव चालीसा की कीमत एक रुपये से शुरू होती है।
0.5
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गीताप्रेस
गीता प्रेस के कुल प्रकाशनों की संख्या 1,600 है। इनमें से 780 प्रकाशन हिन्दी और संस्कृत में हैं। शेष प्रकाशन गुजराती, मराठी, तेलुगू, बांग्ला, उड़िया, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। रामचरित मानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है।
0.5
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गीताप्रेस
तमाम प्रकाशनों के बावजूद गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्याण की लोकप्रियता कुछ अलग ही है। माना जाता है कि रामायण के अखंड पाठ की शुरुआत कल्याण के विशेषांक में इसके बारे में छपने के बाद ही हुई थी। कल्याण की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती अंक में इसकी 1,600 प्रतियाँ छापी गयी थीं, जो आज बढ़कर 2.30 लाख पर पहुँच गयी हैं। गरुड पुराण, कूर्म पुराण, वामन पुराण और विष्णु पुराण आदि पुराणों का पहली बार हिन्दी अनुवाद कल्याण में ही प्रकाशित हुआ था।
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गीताप्रेस
गीताप्रेस द्वारा मुख्य रूपसे हिन्दी तथा संस्कृत भाषा में गीताप्रेस का साहित्य प्रकाशित होता है, किन्तु अहिन्दी भाषी लोगों की असुविधा को देखते हुए अब तमिल, तेलुगु, मराठी, कन्नड़, बँगला, गुजराती तथा ओड़िआ आदि प्रान्तीय भाषाओंमें भी पुस्तकें प्रकाशित की जा रही हैं और इस योजना से लोगों को लाभ भी हुआ है। अंग्रेजी भाषा में भी कुछ पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। अब न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी यहाँ का प्रकाशन बड़े मनोयोग एवं श्रद्धा से पढ़ा जाता है। प्रवासी भारतीय भी गीता प्रेस का साहित्य पढ़ने के लिये उत्कण्ठित रहते हैं।
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गीताप्रेस
92 वर्ष के इतिहास में मार्च, 2014 तक गीता प्रेस से 58 करोड़, 25 लाख पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें गीता 11 करोड़, 42 लाख। रामायण 9 करोड़, 22 लाख। पुराण, उपनिषद् आदि 2 करोड़, 27 लाख। बालकों और महिलाओं से सम्बंधित पुस्तकें 10 करोड़, 55 लाख। भक्त चरित्र और भजन सम्बंधी 12 करोड़, 44 लाख और अन्य 12 करोड़, 35 लाख।
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गीताप्रेस
मूल गीता तथा उसकी टीकाओं की 100 से अधिक पुस्तकों की 11 करोड़, 50 लाख से भी अधिक प्रतियां प्रकाशित हुई हैं। इनमें से कई पुस्तकों के 80-80 संस्करण छपेे हैं।
0.5
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गीताप्रेस
यहां कुल 15 भाषाओं (हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मराठी, बंगला, उडि़या, असमिया, गुरुमुखी, नेपाली और उर्दू) में पुस्तकें प्रकाशित होेती हैं।
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गीताप्रेस
गीता प्रेस अपनी पुस्तकों में किसी भी जीवित व्यक्ति का चित्र नहीं छापती है और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित होता है।
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नेत्ररोग
पलकों में बिलनी निकल आती है। जिसे अन्जनी भी कहते हैं। पलकों (eyelashes) के वसामय ग्रंथियों (Sebaceous glands) में एक जीवाणु संक्रमण है।
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नेत्ररोग
नेत्र में चोट लगना खतरनाक होता है। साधारण खरोंच शीघ्र अच्छी हो जाती है। भेदक घाव भयंकर होते हैं। इनमें सांद्र द्रव के बाहर निकल आने, लेंस के विस्थापन, उपसर्ग आदि का खतरा होता है। भोथरे हथियार की चोट में अंत:क्षति होती हैं, यथा दृष्टिपटल का विलगन, लेंस विस्थापन आदि। नेत्र में बाहरी चीज का गिरना एक आम घटना है। मुख्य बात यह है कि किरकिरी अगर कार्निया पर है तो उसे नेत्र चिकित्सक को ही निकालने दें।
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नेत्ररोग
पलकों में बिलनी निकल आती है। अश्रुवाहिनी और अश्रुकोश के प्रदाह में आँखों से पानी अधिक आता है। कंज़ंक्टाइवा में कई प्रकार के प्रदाह होते हैं। इनमें विषाणु जन्य रोहा भारत में अंधेपन का मुख्य कारण है। सौभाग्य से अब 'रोहे' का निराकरण संभव है। सूजाकजन्य प्रदाह भयंकर होता है। कॉर्निया में उपदंश और तपेदिक के कारण प्रदाह होते हैं। पिलक्टेनुलर प्रदाह में कॉर्निया के किनारे पीले दाने निकल आते हैं। यह क्षय रोग या एलर्जी के कारण होता है। फालिक्यूलर प्रदाह में सफेदी पर लाल दाने निकलते हैं। जीवाणुओं से 'आँख आने' की बीमारी होती है। कॉर्निया के घाव खतरनाक होते हैं, क्योंकि अच्छे होने पर उस स्थान पर सफेदी आ जाती है, जिसे जाला, माड़ा आदि कहते हैं। इस प्रकार की अंधता दूर करना संभव नहीं था, पर अब नेत्रदाता से स्वस्थ कॉर्निया लेकर विकृत कॉर्निया के स्थान पर रोपित किया जा सकता है। नेत्र बैंक आज विशेष चर्चा के विषय हैं।
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नेत्ररोग
आइरिस और रोमक पिंड के प्रदाह, आइराइडो साइक्लाइटिस, कष्टकारक होते हैं और बहुधा उपदंश, क्षय या एलर्जी के कारण होते हैं।
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नेत्ररोग
लेंस में कोई भी रोग होने पर वह अपारदर्शी हो जाता है। वृद्धावस्था में सामान्य रूप से भी लेंस निकाल दिया जाता है और उसी की शक्ति का चश्मा पहनने से पुन: दृष्टि आ जाती है। सुश्रुत ने मोतियाबिंद निकालने की चर्चा की है। वर्तमान यग में प्रथम बार फ्रांस के जैक्यूस डेवियल ने यह शल्यक्रिया आरंभ की। यद्यपि आज उन्नत रूप में यह ऑपरेशन सभी को सुलभ है, फिर भी लोग अनाड़ी साथियों से इलाज कराते हैं। ये लोग सूजे से कोंचकार लेंस को पश्च भाग में ठेल देते हैं, जिसे तुरंत दृष्टि आ जाती है, किंतु बाद में विघटन के फलस्वरूप सदा के लिए नेत्र ज्योतिहीन हो जाते हैं।
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2,311.803747
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नेत्ररोग
दृष्टिपटल में प्रदाह, विलगन, रक्तस्त्राव आदि प्रमुख रोग हैं। शरीर के रोगों का नेत्र पर प्रभाव होता है, यथा केंद्रीय तंत्रिका के रोग मधुमेह, विटामिन हीनता, उपदंश, क्षय, गुर्दे के रोग और कैंसर आदि। नेत्र में साधु और दुर्दम्य अर्बुद भी होते हैं। नेत्रोद का चाप बढ़ने से 'ग्लॉकोमा' होता है। यह अचानक आरंभ हो सकता है, या फिर शनै: शनै: होता है। इससे तीव्र नेत्र पीड़ा, सिरदर्द, वमन, प्रकाश के चारों ओर रंगीन चक्कर, दृष्टि का धुंधलापन, थकान आदि लक्षण् होते हैं और अंत में नेत्रज्योति चली जाती है। इसकी चिकित्सा शीघ्र करानी चाहिए। इसमें औषधियाँ (जैसे एसरीन, डायमाक्स आदि) और शल्यचिकित्सा संभव हैं। ग्लॉकोमा का एक व्यापक कारण है, बेरी बेरी। खनिकों में अक्षिदोलन रोग होता है, जिसमें आँख की पुतली स्थिर नहीं रहती। कान के रोगों से भी यह लक्षण प्रकट हो सकता है। बहुधा यह स्वाभाविक जन्मजात, अथवा जानबूझ कर पैदा किया, हो सकता है।
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नेत्ररोग
नेत्रपरीक्षा में प्रमुख यंत्र है नेत्रदर्शी (ऑफ्थैल्मॉस्कोप), जिससे दृष्टिपटल देख सकते हैं। स्लिट लैंप से नेत्र की सूक्ष्म परीक्षा करते हैं। सामान्य परीक्षा के लिए पेन टॉर्च, कॉर्नियल लुप और रैटिनॉस्कोप का उपयोग होता है। पैरीमीटर, वर्णांधता परीक्षा के यंत्र तथा स्टीरियॉस्कोप का पहले उल्लेख हो चुका है।
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नेत्ररोग
भारतीय कवियों ने यही कामना की है कि हम स्वस्थ नेत्रों से देखते हुए सौ शरद् जिएँ। नेत्रस्वास्थ्य सामान्य स्वाथ्य से विलग नहीं है। आहार-विहार के नियमों का पालन करने से नेत्र भी स्वस्थ रहेंगे। नेत्र के लिए विटामिन ए और विटामिन बी का विशेष महत्व है। आँख की रक्षा लाइसोज़ाइम करते हैं, अतएव शौकिया दवाओं से नेत्र धोना ठीक नहीं है।
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नेत्ररोग
सामान्य कार्य के लिए 5 फुट-कैंडिल रोशनी पर्याप्त है। पीत प्रकाश सबसे अच्छा होता है। चमक से बचना चाहिए। प्रकाश वैषम्य से भी दूर रहें। पढ़ते समय रोशनी पीछे या बाएँ से आनी चाहिए। अच्छी स्याही, अच्छे आकार के अक्षर तथा पंक्तियों की सही दूर पढ़ने में सहायक होते हैं। किस काम में कितनी रोशनी चाहिए, यह संलग्न चार्ट में दिया गया है। नेत्र की रक्षा करें, क्योंकि नेत्रज्योति के बिना जीवन सूना हो जाता है।
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बारहसिंगा
बारहसिंगा का सबसे विलक्षण अंग है उसके सींग। वयस्क नर में इसकी सींग की १०-१४ शाखाएँ होती हैं, हालांकि कुछ की तो २० तक की शाखाएँ पायी गई हैं। इसका नाम इन्ही शाखाओं की वजह से पड़ा है जिसका अर्थ होता है बारह सींग वाला। मध्य भारत में इसे गोइंजक (नर) या गाओनी (मादा) कहते हैं।
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बारहसिंगा
वयस्क नर कन्धे तक १३२ से.मी. तक हो सकता है और इसका वज़न १७०-१८० कि. तक हो सकता है। औसतन सींग की लंबाई घुमाव के साथ ७५ से.मी. और सींगों के बीच की परिधि १३ से.मी. तक होती है। सींगों की रिकॉर्ड लंबाई १०४.१ से.मी. देखी गई है।
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बारहसिंगा
बारहसिंगा गंगा के मैदान में बहुतायत में पाया जाता था। वह मध्य भारत में भी गोदावरी नदी तक पाया जाता था। गुजरात में इसके १,००० वर्ष पूर्व के अवशेष मिले हैं। आज यह अपने आवासीय क्षेत्र के पश्चिमी परिधि से विलुप्त हो गया है। सन् २००८ ई. में इसकी जंगली आबादी ३,५०० से ५,१०० आंकी गई है, जिनमें से बहुत प्राणी सुरक्षित क्षेत्रों के बाहर असुरक्षित अवस्था में रहते हैं।
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बारहसिंगा
तराई इलाके में यह दलदलीय क्षेत्र में रहता है और मध्य भारत में यह वनों के समीप के घास के मैदानों में रहता है।
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बारहसिंगा
उत्तर पूर्वी भारत में यह असम में पाया जाता है, जहाँ मुख्यतः काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पाया जाता है, हालांकि कुछ आबादी मानस राष्ट्रीय उद्यान में भी पायी जाती है। अरुणाचल प्रदेश में शायद यह विलुप्त हो गया है।
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2,306.920003
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बारहसिंगा
पहले दो भौगोलिक वर्ग पहचाने जाते थे। दुवॉचॅली—जो कि मनोनीत वर्ग है— उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, असम तथा सुन्दरवन के दलदलीय इलाके में रहता है। इस वर्ग के फैले हुये खुर होते हैं और खोपड़ी भी थोड़ी बड़ी होती है। ब्रॅन्डॅरी मध्य भारत, प्रमुखतः मध्य प्रदेश के ठोस मैदानी इलाकों में पाया जाता है। बाद में असम के वर्ग को रंजीतसिंही नाम दिया गया। यही वर्ग सबसे ज़्यादा ख़तरे में है।
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2,306.920003
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बारहसिंगा
मध्य भारत में यह कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के अलावा बाकी सारे क्षेत्र से लुप्त हो गया है। यहाँ पर भी सन् १९५० ई. की ३,००० की आबादी से घट कर केवल एक दशक में यह १०० तक रह गई थी। सन् १९७० ई. में यह सिर्फ़ ६६ रह गई थी।
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बारहसिंगा
मध्य भारत में इनके ८-२० के झुण्ड होते हैं, लेकिन ६० प्राणियों के झुण्ड भी पाये जाते हैं। झुण्डों में मादाओं की संख्या नरों से दुगुनी होती है। प्रजनन काल में यह वयस्कों के बड़े झुण्ड बनाते हैं। प्रजनन काल सितम्बर से अप्रैल तक चलता है और २४०-२५० दिनों के गर्भ काल के पश्चात शावकों का जन्म अगस्त से नवंबर में होता है। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में सितम्बर-अक्टूबर में सबसे ज़्यादा जन्म होते हैं।
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बारहसिंगा
यह सवेरे और शाम को अधिक खाना पसन्द करता है तथा सांभर से कम निशाचर होता है। भयभीत होने पर यह तीखे स्वर में चिल्लाता है।
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2,306.920003
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97
वैक्सिंग
वैक्सिंग के विभिन्न प्रकार उपलब्ध हैं। जिनमें से कुछ लाइसेंस प्राप्त कॉसमेटोलॉजीस्ट या एस्थेटिसियन के द्वारा किया जाना चाहिए। किये जा सकने वाले वैक्सिंग के विभिन्न प्रकार ये हैं:
0.5
2,294.862158
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97
वैक्सिंग
शरीर के अधिकांश भागों पर वैक्सिंग किया जा सकता है, लेकिन उपरोक्त सूची में दर्ज नहीं किए जाने वाले भागों पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। जिन भागों पर व्यक्ति को कभी भी वैक्स नहीं करना चाहिए वे हैं कान और नाक के भीतर का क्षेत्र और साथ ही साथ बरौनी, पलकों, हाथों की हथेलियों और पैरों के तलवों पर. इन भागों की त्वचा संवेदनशील होने के कारण यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है और वैक्स किए जाने पर यह गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।
0.5
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वैक्सिंग
बाल हटाने की अन्य विधियों की तुलना में वैक्सिंग के बहुत से लाभ हैं। यह एक बार में बड़ी मात्रा में बाल हटाने की एक प्रभावी विधि है। यह एक लंबे समय तक प्रभावी रहने वाली विधि है। वैक्स किए हुए भाग में दो से आठ सप्ताह तक बाल वापस नहीं उगेंगे. जब बाल को हजामत द्वारा या एक लोमनाशक क्रीम द्वारा हटाया जाता है, तब वह जड़ों के बजाए त्वचा के ऊपर से हटता है। कुछ दिनों के भीतर ही, बाल सतह पर दिखने लगता है। इन तरीकों के प्रयोग से, बाल उगते समय छोटी दाढ़ी के समान सख्त होते हैं। जिन अंगों पर लम्बे समय से वैक्स किया जाता रहा है उनपर पुनः उगने वाले बाल नरम होते हैं।
0.5
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वैक्सिंग
वैक्सिंग की कई कमियां भी होती हैं। वैक्सिंग पट्टी को त्वचा से खींच कर हटाना दर्दनाक हो सकता है। हालांकि यह दर्द स्थाई नहीं होता, यह विशेष रूप से अधिक संवेदनशील त्वचा पर तीव्र हो सकता है। वैक्सिंग की एक अन्य कमी है उसमें लगने वाला खर्च: वैक्सिंग की प्रक्रिया आम तौर पर लाइसेंस प्राप्त एस्थीटीशियन द्वारा किया जाता है, इसलिए इसको करवाने की कीमत काफी ज्यादा होती है, जो बाल हटाये जाने वाले अंग और कितने उपचार आवश्यक हैं इस के आधार पर कई सौ डॉलर तक हो सकता है। स्वयं करने वाले वैक्सिंग भी मौजूद है, लेकिन शरीर के कुछ भागों पर उसे स्वयं प्रयोग किए जाने में मुश्किल हो सकती है। बाल हटाना स्थाई नहीं होता। यदि इसे बालों के उगने की विपरीत दिशा में हटाया जाए, तो यह मोम पट्टीयां रोम छिद्रों में बाधा डाल सकती हैं, जिसके कारण बाल अलग-अलग दिशा में बढ़ने लगते हैं। इसके कारण बालों का विकास और अधिक नजर आने लगता है और यह बाल हटाने की अन्य विधियों को कठिन बना देता है। सौभाग्य से, सही विधि से किए जाने पर वैक्सिंग में जोखिम नगण्य होता है।
0.5
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वैक्सिंग
वैक्सिंग की एक अन्य कमी यह है कि कुछ लोगों को अंतर्वर्धित बाल, लाल सूजन और ज़रा सी खून निकलने की शिकायत भी हो सकती है। ऐसा घने बाल वाले भागो पर वैक्सिंग करते समय होने की अधिक सम्भावना होती है, विशेष रूप से पहली बार करवाने पर जब रोम छिद्र सख्त होते हैं। जबकि इसे पूरी तरह से खत्म करना असंभव है, अंतर्वर्धित बालों को निम्न त्रिकोण से कम किया जा सकता है जैसे नियमित रूप से अपशल्कित करने से और एक एस्ट्रिंजेंट या एस्ट्रिंजेंट और तेल के एक मिश्रण (आम तौर पर बेबी ऑयेल या अजुलें ऑयेल) को लगाने से.
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वैक्सिंग
सभी सौंदर्य उपचारों की तरह वैक्सिंग में भी उपचार को प्रतिबंधित या बाधित करने के लिए विपरीत संकेत होते हैं।
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वैक्सिंग
पतली या नाजुक त्वचा यह त्वचा को क्षति पहुंचा सकता है और उसे फाड़ सकता है जो संक्रमण का कारण बन सकता है।
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वैक्सिंग
स्टेरॉयड दवाओं का प्रयोग ऐसी स्टेरॉयड क्रीम या दवा का उपयोग करने से त्वचा पतली हो जाती है। ऐसी दवाओं का सेवन करते हुए वैक्सिंग नहीं किया जाना चाहिए, यही नहीं इन दवाओं का सेवन बंद करने के तीन महीने बाद से ही वैक्सिंग कराना चाहिए।
0.5
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वैक्सिंग
रोएक्युटेन भारी मात्रा में हुए मुहांसों के लिए यह उपचार त्वचा को बहुत शुष्क बना देती है जिसके परिणाम स्वरूप त्वचा पतली या नाजुक हो जाती है। इस इलाज की अवधि पूरी होने के कम से कम छः महीने बाद से या त्वचा के नाज़ुक होने की स्थिति में और लंबे समय के बाद वैक्सिंग करवाना चाहिए।
0.5
2,294.862158
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
1 99 4 में जनरल एग्रीमेंट ऑन टारिफ एंड ट्रेड (जीएटीटी) के उरुग्वे दौर के अंत में ट्रिप्स पर बातचीत की गई। इसका समावेश संयुक्त राज्य द्वारा तीव्र लॉबिंग के कार्यक्रम की परिणति थी, जो यूरोपीय संघ, जापान और अन्य विकसित देशों द्वारा समर्थित था। राष्ट्र का। ट्रेड एक्ट की धारा 301 के तहत अधिमान्यता की सामान्य व्यवस्था के तहत एकतरफा आर्थिक प्रोत्साहन के अभियान और प्रतिस्पर्धी नीति पदों को पराजित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो कि विकासशील देशों और ब्राजील के पक्ष में थे, लेकिन थाईलैंड, भारत और कैरिबियन बेसिन राज्यों सहित भी। बदले में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने बौद्धिक संपदा मानकों के लिए व्यापार नीति को जोड़ने की रणनीति को 1 9 80 की शुरुआत में फाइफ़र में वरिष्ठ प्रबंधन के उद्यमशीलता का पता लगाया, जो संयुक्त राज्य में निगमों को जुटाए और बौद्धिक संपदा अधिकारों को अधिकतम संख्या में प्राथमिकता प्रदान करता था संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यापार नीति (ब्रेथवेइट और डारोस, 2000, अध्याय 7)।
0.5
2,294.355007
20231101.hi_6555_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
उरुग्वे दौर के बाद, जीएटीटी विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के लिए आधार बन गया। ट्रिप्स का अनुसमर्थन विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है, क्योंकि किसी भी देश को विश्व व्यापार संगठन द्वारा खोले जाने वाले कई अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कठोर पहुंच प्राप्त करने की मांग करना चाहिए, ट्रिप्स द्वारा अनिवार्य बौद्धिक संपदा कानूनों को लागू करना चाहिए। इस कारण से, ट्रिप्स बौद्धिक संपदा कानूनों के वैश्वीकरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण बहुपक्षीय साधन है। रूस और चीन जैसे राज्यों [4] जो बर्न कन्वेंशन में शामिल होने की संभावना नहीं रखते थे, ने विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता की संभावना को एक शक्तिशाली प्रलोभन पाया है।
0.5
2,294.355007
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
इसके अलावा, बौद्धिक संपदा पर अन्य समझौतों के विपरीत, ट्रिप्स में एक शक्तिशाली प्रवर्तन तंत्र है विश्व व्यापार संगठन के विवाद निपटान तंत्र के माध्यम से राज्यों को अनुशासित किया जा सकता है।
0.5
2,294.355007
20231101.hi_6555_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
ट्रिप्स को सदस्य राज्यों को बौद्धिक संपदा अधिकारों के लिए मजबूत सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है उदाहरण के लिए, ट्रिप्स के तहत:
0.5
2,294.355007
20231101.hi_6555_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
कॉपीराइट शर्तों को कम से कम 50 वर्षों तक विस्तारित करना चाहिए, जब तक कि लेखक के जीवन पर आधारित न हो। (कला 12 और 14)
1
2,294.355007
20231101.hi_6555_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
कॉपीराइट को स्वचालित रूप से प्रदान किया जाना चाहिए, और किसी भी "औपचारिकता" पर आधारित नहीं, जैसे कि पंजीकरण, जैसा कि बर्न कन्वेंशन में निर्दिष्ट किया गया है (कला 9)
0.5
2,294.355007
20231101.hi_6555_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
कंप्यूटर प्रोग्राम को कॉपीराइट कानून के तहत "साहित्यिक कार्य" के रूप में माना जाना चाहिए और सुरक्षा की समान शर्तों को प्राप्त करना चाहिए।
0.5
2,294.355007
20231101.hi_6555_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
कॉपीराइट के राष्ट्रीय अपवाद (जैसे कि संयुक्त राज्य में "निष्पक्ष उपयोग") बर्न के तीन-चरण परीक्षण से विवश हैं
0.5
2,294.355007
20231101.hi_6555_11
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B8
ट्रिप्स
पेटेंटों को "प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों" में "आविष्कार" के लिए प्रदान किया जाना चाहिए, बशर्ते वे अन्य सभी पेटेंट योग्यता आवश्यकताओं (हालांकि कुछ सार्वजनिक हितों के लिए अपवादों की अनुमति है (कला 27.2 और 27.3) और कम से कम 20 वर्षों के लिए लागू होना आवश्यक है (कला 33)।
0.5
2,294.355007
20231101.hi_8988_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AF
आर्यभटीय
आर्यभटीय के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है एवं दूसरे में संख्याओं को अक्षरों से सूचित करने का ढंग। इन दो श्लोकों में कोई क्रमसंख्या नहीं है, क्योंकि ये प्रस्तावना के रूप में हैं। इसके बाद के श्लोक की क्रमसंख्या 1 है जिसमें सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध के महायुगीय भगणों की संख्याएं बताई गई हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि आर्यभट ने एक महायुग में पृथ्वी के घूर्णन की संख्या भी दी है, क्योंकि उन्होंने पृथ्वी का दैनिक घूर्णन माना है। इस बात के लिए परवर्ती आचार्य ब्रह्मगुप्त ने इनकी निंदा की है। अगले श्लोक में ग्रहों के उच्च और पात के महायुगीय भगणों की संख्या बताई गई है। तीसरे श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मा के एक दिन (अर्थात एक कल्प) में कितने मन्वंतर और युग होते हैं और वर्तमान कल्प के आरंभ से लेकर महाभारत युद्ध की समाप्तिवाले दिन तक कितने युग और युगपाद बीत चुके थे। आगे के सात श्लोकों में राशि, अंश, कला आदि का संबंध, आकाशकक्षा का विस्तार, पृथ्वी के व्यास तथा सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों के बिंबों के व्यास के परिमाण, ग्रहों की क्रांति और विक्षेप, उनके पातों और मंदोच्चों के स्थान, उनकी मंदपरिधियों और शीघ्रपरिधियों के परिमाण तथा 3 अंश 45 कलाओं के अंतर पर ज्याखंडों के मानों की सारणी (sine table) है। अंतिम श्लोक में पहले कही हुई बातों के जानने का फल बताया गया है। इस प्रकार प्रकट है कि आर्यभट ने अपनी नवीन संख्या-लेखन-पद्धति से ज्योतिष और त्रिकोणमिति की कितनी ही बातें 13 श्लोकों में भर दी हैं।
0.5
2,292.01482
20231101.hi_8988_7
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आर्यभटीय
गणितपाद में 33 श्लोक हैं, जिनमें आर्यभट ने अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित संबंधी कुछ सूत्रों का समावेश किया है। पहले श्लोक में अपना नाम बताया है और लिखा है कि जिस ग्रंथ पर उनका ग्रंथ आधारित है वह (गुप्तसाम्राज्य की राजधानी) कुसुमपुर में मान्य था। दूसरे श्लोक में संख्या लिखने की दशमलवपद्धति की इकाइयों के नाम हैं। इसके आगे के श्लोकों में वर्गक्षेत्र, घन, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, समलंब चतुर्भुज क्षेत्र के कर्णों के संपात से समांतर भुजाओं की दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्रों की मध्यम लंबाई और चौड़ाई जानकर क्षेत्रफल बताने के साधारण नियम दिए गए हैं। एक जगह बताया गया है कि परिधि के छठे भाग को ज्या उसकी त्रिज्या के समान होती है। श्लोक में बताया गया है कि यदि वृत्त का व्यास 20,000 हो तो उसकी परिधि 62,832 होती है। इससे परिधि और व्यास का संबंध चौथे दशमलव स्थान तक शुद्ध आ जाता है। दो श्लोकों में ज्याखंडों के जानने की विधि बताई गई है, जिससे ज्ञात होता है कि ज्याखंडों की सारणी (टेबुल ऑव साइनडिफ़रेंसेज़) आर्यभट ने कैसे बनाई थी। आगे वृत्त, त्रिभुज और चतुर्भुज खींचने की रीति, समतल धरातल के परखने की रीति, ऊर्ध्वाधर के परखने की रीत, शंकु और छाया से छायाकर्ण जानने की रीति, किसी ऊँचे स्थान पर रखे हुए दीपक के प्रकाश के कारण बनी हुई शकु की छाया की लंबाई जानने की रीति, एक ही रेखा पर स्थित दीपक और दो शंकुओं के संबंध के प्रश्न की गणना करने की रीति, समकोण त्रिभुज के कर्ण और अन्य दो भुजाओं के वर्गों का संबंध (जिसे पाइथागोरस का नियम कहते हैं, परंतु जो शुल्वसूत्र में पाइथागोरस से बहुत पहले लिखा गया था), वृत्त की जीवा और शरों का संबंध, दो श्लोकों में श्रेणी गणित के कई नियम, एक श्लोक में एक-एक बढती हुई संख्याओं के वर्गों और घनों का योगफल जानने का नियम, (क + ख)2 - (क2 + ख2) = 2 क ख ; दो राशियों का गुणनफल और अंतर जानकर राशियों को अलग-अलग करने की रीति, ब्याज की दर जानने का एक नियम जो वर्गसमीकरण का उदाहरण है, त्रैराशिक का नियम, भिन्नों को एकहर करने की रीति, बीजगणित के सरल समीकरण और एक विशेष प्रकार के युगपत् समीकरणों पर आधारित प्रश्नों को हल करने के नियम, दो ग्रहों का युतिकाल जानने का नियम और कुट्टक नियम (सोल्यूशन ऑव इनडिटर्मिनेट इक्वेशन ऑव द फ़स्ट डिग्री) बताए गए हैं।
0.5
2,292.01482
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आर्यभटीय
जितनी बातें तैंतीस श्लोकों में बताई गई हैं उनकों यदि आजकल की परिपाटी के अनुसार विस्तारपूर्वक लिखा जाए तो एक बड़ी भारी पुस्तक बन सकती है।
0.5
2,292.01482
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AF
आर्यभटीय
इस अध्याय में 25 श्लोक हैं और यह कालविभाग और काल के आधार पर की गई ज्योतिष संबंधी गणना से संबंध रखता है। पहले दो श्लोकों में काल और कोण की इकाइयों का संबंध बताया गया है। आगे के छह श्लोकों में योग, व्यतीपात, केंद्रभगण और बार्हस्पत्य वर्षों की परिभाषा दी गई है तथा अनेक प्रकार के मासों, वर्षों और युगों का संबंध बताया गया है। नवें श्लोक में बताया गया है कि युग का प्रथमार्ध उत्सर्पिणी और उत्तरार्ध अवसर्पिणी काल है और इनका विचार चंद्रोच्च से किया जाता है। परंतु इसका अर्थ समझ में नहीं आता। किसी टीकाकार ने इसकी संताषजनक व्याख्या नहीं की है। 10वें श्लोक की चर्चा पहले ही आ चुकी है, जिसमें आर्यभट ने अपने जन्म का समय बताया है। इसके आगे बताया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से युग, वर्ष, मास और दिवस की गणना आरंभ होती है। आगे के 20 श्लोकों में ग्रहों की मध्यम और स्पष्ट गति संबंधी नियम हैं।
0.5
2,292.01482
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AF
आर्यभटीय
यह आर्यभटीय का अंतिम अध्याय है। इसमें 50 श्लोक हैं। पहले श्लोक से प्रकट होता है कि क्रांतिवृत्त के जिस बिंदु को आर्यभट ने मेषादि माना है वह वसंत-संपात-बिंदु था, क्योंकि वह कहते हैं, मेष के आदि से कन्या के अंत तक अपमंडल (क्रांतिवृत्त) उत्तर की ओर हटा रहता है और तुला के आदि से मीन के अंत तक दक्षिण की ओर। आगे के दो श्लोकों में बताया गया हे कि ग्रहों के पात और पृथ्वी की छाया का भ्रमण क्रांतिवृत्त पर होता है। चौथे श्लोक में बताया है कि सूर्य से कितने अंतर पर चंद्रमा, मंगल, बुध आदि दृश्य होते हैं। पाँचवाँ श्लोक बताता है कि पृथ्वी, ग्रहों और नक्षत्रों का आधा गोला अपनी ही छाया से प्रकाशित है और आधा सूर्य के संमुख होने से प्रकाशित है। नक्षत्रों के संबंध में यह बात ठीक नहीं है। श्लोक छह सात में पृथ्वी की स्थिति, बनावट और आकार का निर्देश किया गया है। आठवें श्लोक में यह विचित्र बात बताई गई है कि ब्रह्मा के दिन में पृथ्वी की त्रिज्या एक योजन बढ़ जाती है और ब्रह्मा की रात्रि में एक योजन घट जाती है। श्लोक नौ में बताया गया है कि जैसे चलती हुई नाव पर बैठा हुआ मनुष्य किनारे के स्थिर पेड़ों को विपरीत दिशा में चलता हुआ देखता है वैसे ही लंका (पृथ्वी की विषुवत् देखा पर एक कल्पित स्थान) से स्थिर तारे पश्चिम की ओर घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु 10वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो उदय और अस्त करने के बहाने ग्रहयुक्त संपूर्ण नक्षत्रचक्र, प्रवह वायु से प्रेरित होकर, पश्चिम की ओर चल रहा हो। श्लोक 11 में सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव पर स्थित पर्वत) का आकार और श्लोक 12 में सुमेरु और बड़वामुख (दक्षिण ध्रुव) की स्थिति बताई गई है। श्लोक 13 में विषुवत् रेखा पर 90-90 अंश की दूरी पर स्थित चार नगरियों का वर्णन है। श्लोक 14 में लंका से उज्जैन का अंतर बताया गया है। श्लोक 15 में बताया गया है कि भूगोल की मोटाई के कारण खगोल आधे भाग से कितना कम दिखाई पड़ता है। 16वें श्लोक में बताया गया है कि देवताओं और असुरों को खगोल कैसे घूमता हुआ दिखाई पड़ता है। श्लोक 17 में देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्यों के दिन रात का परिमाण है। श्लोक 18 से 23 तक खगोल का वर्णन है। श्लोक 24-33 में त्रिप्रश्नाधिकार के प्रधान सूत्रों का कथन है, जिनसे लग्न, काल आदि जाने जाते हैं। श्लोक 34 में लंबन, 35 में आक्षनदृक्कर्म और 36 में आयनदृक्कर्म का वर्णन है। श्लोक 37 से 47 तक सूर्य और चंद्रमा के ग्रहणों की गणना करने की रीति है। श्लोक 48 में बताया गया है कि पृथ्वी और सूर्य के योग से सूर्य के, सूर्य और चंद्रमा के योग से चंद्रमा तथा ग्रहों के योग से सब ग्रहों के मूलांक जाने गए हैं। श्लोक 49 और 50 में आर्यभटीय की प्रशंसा की गई है।
1
2,292.01482
20231101.hi_8988_11
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AF
आर्यभटीय
आर्यभटीय का प्रचार दक्षिण भारत में विशेष रूप से हुआ। इस ग्रंथ का पठन-पाठन 16वीं 17वीं शताब्दी तक होता रहा, जो इस पर लिखी गई टीकाओं से स्पष्ट है। इस ग्रन्थ की रचना के बाद से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इसके लगभग १२ भाष्य लिखे गये। लगभग सभी प्रमुख गणितज्ञों ने इस पर भाष्य लिखे जिसमें भास्कर प्रथम का आर्यभटतन्त्रभाष्य (या, आर्यभटीयभाष्य) और ब्रह्मगुप्त का भाष्य सम्मिलित है। दक्षिण भारत में इसी के आधार पर बने हुए पंचांग आज भी वैष्णव धर्मवालों को मान्य होते हैं।
0.5
2,292.01482
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AF
आर्यभटीय
संस्कृत में इसकी चार टीकाएँ हैं - भास्कर प्रथम, सूर्यदेव यज्वा, परमेश्वर (या, परमादीश्वर) और नीलकण्ठ की टीकाएं। परमादीश्वर की टीका का नाम 'भटदीपिका' है। सूर्यदेव यज्वा की संस्कृत टीका का नाम 'आर्यभटप्रकाश' है। यह टीका भटदीपिका से बहुत अच्छी है। अंग्रेजी में आर्यभटीय की एक टीका डाक्टर कर्न (Kern) ने भटदीपिका के साथ सन्‌ १८७४ ई० में हालैण्ड से छपायी थी। सन १९०६ में उदयनारायण सिंह ने इसे पुनः प्रिन्ट किया और इसमें आर्यभटीय का हिन्दी अनुवाद भी सम्मिलित किया।
0.5
2,292.01482
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आर्यभटीय
अंग्रेजी में आर्यभटीय के दो अनुवाद हैं, एक श्री प्रबोधचंद्र सेनगुप्त (1927 ई.) का और दूसरा श्री डब्ल्यू.ई. क्लार्क का (1930 ई.)।
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2,292.01482
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आर्यभटीय
आर्यभट के दूसरे ग्रंथ का प्रचार उत्तर भारत में विशेष रूप से हुआ, जो इस बात से स्पष्ट है कि आर्यभट के तीव्र आलोचक ब्रह्मगुप्त को वृद्धावस्था में अपने ग्रंथ खंडखाद्यक में आर्यभट के ग्रंथ का अनुकरण करना पड़ा। परन्तु अब खण्डखाद्यक के व्यापक प्रचार के सामने आर्यभट के ग्रंथ का पठन-पाठन कम हो गया और धीरे-धीरे लुप्त हो गया।
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2,292.01482
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
गोल्डस्टाइन, हरमन और अडेले गोल्डस्टाइन, दी इलेक्ट्रॉनिक न्यूमेरिकल इंटीग्रेटर एंड कंप्यूटर (ENIAC), 1946 (दी ओरिजिन ऑफ़ डिजिटल कम्प्यूटर पुनः प्रिंट किया गया: सीलेकटेड पेपर्स, स्प्रिंगर-वरलाग, न्यूयॉर्क, 1982, पीपी 359-373.)
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
मौच्ली, जॉन, दी ENIAC (निकोलस, मेट्रोपोलिस, जे. हाव्लेट, जियान-कार्लो रोटा, 1980, ए हिस्ट्री ऑफ़ कम्प्यूटिंग इन दी ट्वेंटीएथ सेंचुरी, एकैडमी प्रेस, न्यूयॉर्क ISBN 0-12-491650-3, पीपी. 541-550, "इन कागजों के मूल संस्करणों को हिस्ट्री ऑफ़ कम्प्यूटिंग पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया, जो लॉस एलामोस वैज्ञानिक प्रयोगशाला में आयोजित किया गया, 10-15 जून 1976.")
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
रोजास, राउल और उल्फ़ हाशाजेन, संपादक, दी फर्स्ट कंप्यूटर: हिस्ट्री एंड आर्किटेक्चर, 2000, MIT प्रेस, ISBN 0-262-18197-5.
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
बर्कले, एडमंड. जाएंट ब्रेन्स ओर मशींस दैट थिंक. जॉन विले & संस, इंक., 1949. अध्याय 7 स्पीड-5000 एडिशंस ए सेकेंड: मूर स्कूल्स ENIAC (इलेक्ट्रॉनिक न्युमेरिकल इंटीग्रेटर एंड कंप्यूटर)
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
हाली, माइक. इलेक्ट्रॉनिक ब्रैन्स: स्टोरीज़ फ्रॉम दी डॉन ऑफ़ दी कंप्यूटर एज, जोसेफ हेनरी प्रेस, 2005. ISBN 0-309-09630-8.
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2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
मेकार्टने, स्कॉट. ENIAC: दी ट्रायम्फ एंड ट्रेजिदीज़ ऑफ़ दी वर्ल्ड्स फर्स्ट कम्प्यूटर. वाकर एंड कंपनी, 1999. ISBN 0-8027-1348-3.
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
मौखिक इतिहास साक्षात्कार जे. प्रेस्पर एकर्ट के साथ, चार्ल्स बैबेज संस्थान, मिनेसोटा विश्वविद्यालय. एकर्ट, ENIAC के एक सह-आविष्कारक, पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के मूर स्कूल ऑफ़ इलैक्ट्रिकल इंजीनीयरिंग में इसके विकास की चर्चा करते हैं; ENIAC के लिए पेटेंट अधिकारों को सुरक्षित करने में पेश आई दिक्कतों का वर्णन करते हैं और जॉन वॉन न्युमान के 1945 में EDVAC, की रिपोर्ट के पहले मसौदे के संचलन से होने वाली कठिनाइयों का भी वर्णन करते हैं, जिसनें ENIAC के आविष्कार को सार्वजनिक अधिकार क्षेत्र में ला कर खड़ा कर दिया। 28 अक्टूबर 1977 को, नैंसी स्टर्न द्वारा साक्षात्कार.
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
कार्ल चेम्बर्स के साथ मौखिक इतिहास साक्षात्कार, चार्ल्स बैबेज संस्थान, मिनेसोटा विश्वविद्यालय. चेम्बर्स ENIAC परियोजना की शुरुआत और प्रगति की चर्चा पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय मूर स्कूल ऑफ़ इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग (1941-1946) में करते हैं। मौखिक इतिहास साक्षात्कार नैन्सी बी. स्टर्न के द्वारा, 30 नवम्बर 1977 को लिया गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%90%E0%A4%95
एनिऐक
इर्वेन ए. ट्रैविस के साथ मौखिक इतिहास साक्षात्कार, चार्ल्स बैबेज संस्थान, मिनेसोटा विश्वविद्यालय. ट्रैविस, ENIAC परियोजना, मुख्य इंजीनियर एकर्ट की तकनीकी और नेतृत्व की क्षमता, जॉन मौच्ली और एकर्ट के बीच काम करने के संबंध, पेटेंट अधिकार पर विवादों और विश्वविद्यालय से उनके इस्तीफे का पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय (1941-1946) में वर्णन करते हैं। मौखिक इतिहास साक्षात्कार नैन्सी बी स्टर्न द्वारा, 21 अक्टूबर 1977 लिया गया।
0.5
2,291.641731
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
नागा () भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं। इनका निवास क्षेत्र भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र व म्यांमार के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में है। भारत में ये नागालैंड राज्य में बहुसंख्यक है। २०१२ में यहाँ पर इनकी संख्या १७ लाख दर्ज की गयी। इसके अलावा ये मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश में भी इनकी अच्छी खासी जनसंख्या है।
0.5
2,291.42158
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
वही म्यांमार में ये जनजाति कुछ क्षेत्रों में बहुसंख्यक है। वहाँ पर इनके इलाकों को स्वायत्त क्षेत्र घोषित किया गया है जहाँ का प्रशासन ये खुद ही सँभालते हैं। इन इलाकों को नागा स्वायत्त क्षेत्र कहा जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
ब्रिटिश काल से पहले तक इनका बाहरी दुनिया से कोई भी सम्पर्क नहीं था। १८२८ तक असम ब्रिटिश शासन के कब्जे में आ गया। परन्तु नागा जनजाति लगातार असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में आक्रमण करती रहती। १८४५ में नागा सरदारों के साथ अंगेजों का समझौता हुआ जिसके तहत नागा आक्रमण बंद करने पर राजी हो गए। लेकिन उसके बाद समझौते का उल्लंघन होता रहा।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
१८५१ में अंगेजों ने इस क्षेत्र (नागालैंड) में अपनी सेना टुकड़ियां तैनात कर दी। परन्तु १८७८ में अंगमी नागाओं ने अंग्रेज़ी कैम्पों पर फिर से छापे मारे। इसका जवाब अंग्रेज़ों ने दृढतापूर्वक दिया और कई नागा गावों में आग लगा दी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
१९ वी शताब्दी के अन्त में यहाँ ईसाई मिशनरियां आई और बहुत से नागाओं का धर्म परिवर्तन किया। अतः इन मिशनरियों ने इनके रहन सहन को प्रभावित किया। अतः मिशनरियों ने इनके सामाजिक और सांस्कृतिक रूप को बदल डाला।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
अंगमी जपू फिजो ने नागाओं के संघर्ष के लिए नागा नैशनल काउंसिल का गठन किया जिसका उद्देश्य अलग नागा राज्य था। जून १९४७ में नागा नैशनल काउंसिल का अंग्रजों से ९ सूत्री समझौता हुआ परन्तु अनेकों नागाओं ने इसका विरोध किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE
नागा
ब्रिटिश राज के अन्तिम दिन १४ अगस्त १९४७ को नागा नैशनल काउंसिल ने नागालैंड की स्वतंत्रता घोषित कर दी। मई १९५१ में नानेका (नागा नैशनल काउंसिल) ने दावा किया कि अलग नागालैंड के लिए उसके द्वारा कराये गए जनमत - संग्रह में ९९% लोग उसके साथ है। पर १९५२ में भारत सरकार ने उसका दावा ख़ारिज कर दिया। नागा अब भारत के ख़िलाफ़ गुरिल्ला मूवमेंट चलाने लगे। परन्तु भारत सरकार ने उसका विद्रोह दबा दिया। बाद में फिजो लन्दन भाग गया और वहाँ से यह अभियान अपनी मृत्यु तक चलाया।
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नागा
इनकी प्रमुख भाषा कुकी-चिन-नागा भाषाएँ है। इसके अलावा इन्होने क्रियोल भाषा का भी विकास किया जिसका ये प्रयोग आपस में बातचीत करने में करते हैं।
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नागा
पारंपरिक रूप से नागा गावों में रहते हैं। इनका मुख्य धंधा शिकार है। ये जंगली जानवरों का शिकार करते हैं। ये अपने घर बास से बनाते हैं। ये योद्धा जनजाति है। इनकी वीरता को ही देख परखकर इनकी शादी होती है।
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मणिकर्ण
मणिकर्ण में बर्फ खूब पड़ती है, मगर ठंड के मौसम में भी गुरुद्वारा परिसर के अंदर बनाए विशाल स्नानास्थल में गर्म पानी में आराम से नहाया जा सकता है, जितनी देर चाहें, मगर ध्यान रहे, अधिक देर तक नहाने से चक्कर भी आ सकते हैं। पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग-अलग प्रबंध है। दिलचस्प है कि मणिकर्ण के तंग बाजार में भी गर्म पानी की आपुर्ति की जाती है, जिसके लिए विशेष रूप से पाइप भी बिछाए गए हैं। अनेक रेस्त्राओं और होटलों में यही गर्म पानी उपलब्ध है। बाजार में तिब्बती व्यवसायी छाए हुए हैं, जो तिब्बती कला व संस्कृति से जुडा़ सामान और विदेशी वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं। साथ-साथ विदेशी स्नैक्स व भोजन भी।
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2,290.910811
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मणिकर्ण
इन्हीं गर्म चश्मों में गुरुद्वारे के लंगर के लिए बडे-बडे गोल बर्तनों में चाय बनती है, दाल व चावल पकते हैं। पर्यटकों के लिए सफेद कपड़े की पोटलियों में चावल डालकर धागे से बांधकर बेचे जाते हैं। विशेषकर नवदंपती इकट्ठे धागा पकडकर चावल उबालते देखे जा सकते हैं, उन्हें लगता हैं कि यह उनकी जीवन का पहला खुला रसोईघर है और सचमुच रोमांचक भी। यहां पानी इतना खौलता है कि भूमि पर पांव नहीं टिकते। यहां के गर्म गंधक जल का तापमान हर मौसम में एक सामान ९४ डिग्री सेल्सियस रहता है। कहते हैं कि इस पानी की चाय बनाई जाए तो आम पानी की चाय से आधी चीनी डालकर भी दो गुना मीठी हो जाती है। गुरुद्वारे के विशालकाय किलेनुमा भवन में ठहरने के लिए पर्याप्त स्थान है। छोटे-बड़े होटल व कई निजी अतिथि गृह भी हैं। ठहरने के लिए तीन किलोमीटर पहले कसोल भी एक शानदार विकल्प है।
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मणिकर्ण
मणिकर्ण में बहुत से मंदिर और एक गुरुद्वारा है। सिखों के धार्मिक स्थलों में यह स्थल विशेष स्थान रखता है। गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब गुरु नानकदेव की यहां की यात्रा की स्मृति में बना था। जनम सखी और ज्ञानी ज्ञान सिंह द्वारा लिखी तवारीख गुरु खालसा में इस बात का उल्लेख है कि गुरु नानक ने भाई मरदाना और पंच प्यारों के साथ यहां की यात्रा की थी। इसीलिए पंजाब से बडी़ संख्या में लोग यहां आते हैं। पूरे वर्ष यहां दोनों समय लंगर चलता रहता है।
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2,290.910811
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मणिकर्ण
यहाँ पर भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु और भगवान शिव के मंदिर हैं। हिंदू मान्यताओं में यहां का नाम इस घाटी में शिव के साथ विहार के दौरान पार्वती के कान (कर्ण) की बाली (मणि) खो जाने के कारण पडा़। एक मान्यता यह भी है कि मनु ने यहीं महाप्रलय के विनाश के बाद मानव की रचना की थी। यहां रघुनाथ मंदिर है। कहा जाता है कि कुल्लू के राजा ने अयोध्या से भगवान राम की मू्र्ति लाकर यहां स्थापित की थी। यहां शिवजी का भी एक पुराना मंदिर है। इस स्थान की विशेषता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुल्लू घाटी के अधिकतर देवता समय-समय पर अपनी सवारी के साथ यहां आते रहते हैं।
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मणिकर्ण
मणिकर्ण अन्य कई मनलुभावन पर्यटक स्थलों का आधार स्थल भी है। यहां से आधा किमी दूर ब्रह्म गंगा है जहां पार्वती नदी व ब्रह्म गंगा मिलती हैं। यहां थोडी़ देर रुकना प्रकृति से जी भर मिलना है। डेढ़ किमी दूर नारायणपुरी है, ५ किमी दूर राकसट है, जहां रूप गंगा बहती हैं। यहां रूप का आशय चांदी से है। पार्वती पदी के बांई ओर १६ किलोमीटर दूर और १६०० मीटर की कठिन चढा़ई के बाद आने वाला सुंदर स्थल पुलगा जीवन अनुभवों में शानदार बढोतरी करता है। इसी प्रकार २२ किमी दूर रुद्रनाथ लगभग ८००० फुट की ऊंचाई पर बसा है और पवित्र स्थल माना जाता रहा है। यहां खुल कर बहता पानी हर पर्यटक को नया अनुभव देता है। मणिकर्ण से लगभग २५ किमी दूर, दस हजार फुट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित खीरगंगा भी गर्म जल सोतों के लिए जानी जाती हैं। यहां के पानी में भी औषधीय तत्व हैं। एक स्थल पांडव पुल ४५ किमी दूर है। गर्मी में मणिकर्ण आने वाले रोमांचप्रेमी लगभग ११५ किमी दूर मानतलाई तक जा पहुंचते हैं। मानतलाई के लिए मणिकर्ण से तीन-चार दिन लग जाते हैं। सुनसान रास्ते के कारण खाने-पीने का सामान, दवाएं इत्यादि साथ ले जाना नितांत आवश्यक है। इस दुर्गम रास्ते पर मार्ग की पूरी जानकारी रखने वाले एक सही व्यक्ति को साथ होना बहुत आवश्यक है। संसार से विरला, अपने प्रकार के अनूठे संस्कृति व लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था रखने वाला अद्भुत ग्राम मलाणा का मार्ग भी मणिकर्ण से लगभग १५ किमी पीछे जरी नामक स्थल से होकर जाता है। मलाणा के लिए नग्गर से होकर भी लगभग १५ किलोमीटर पैदल रास्ता है। इस प्रकार यह समूची पार्वती घाटी पर्वतारोहिण के शौकीनों के लिए स्वर्ग के समान है।
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मणिकर्ण
कितने ही पर्यटकों से छूट जाता है कसोल, जो कि मणिकर्ण से तीन किमी पहले आता है। यहां पार्वती नदी के किनारे, पेडों के बीच बसे खुलेपन में पसरी सफेद रेत, जो कि पानी को हरी घास से विलग करती है, यहां की दृश्यावली को विशेष बना देती है। यहां ठहरने के लिए हिमाचल पर्यटन के हट्स भी हैं।
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मणिकर्ण
मणिकर्ण की घुम्मकडी के दौरान आकर्षक पेड पौधों के साथ-साथ अनेक रंगों की मिट्टी के मेल से रची लुभावनी पर्वत श्रृंखलाओं के दृश्य मन में बस जाते हैं। प्रकृति के यहां और भी कई अनूठे रंग हैं। कहीं सुंदर पत्थर, पारदर्शी क्रिस्टल जो देखने में टोपाज जैसे होते है, मिल जाते हैं। तो कहीं चट्टानें अपना अलग ही आकार ले लेती हैं जैसे कि बीच सडक पर टकी ईगल्स नोज जो दूर से बिल्कुल किसी बाज के सिर जैसी लगती है। प्रकृति प्रेमी पर्यटकों को सुंदर ड्रिफ्टवुडस या फिर जंगली फूल-पत्ते मिल जाते हैं, जो उनके अतिथि कक्ष का स्मरणीय अंग बन जाते हैं और मणिकर्ण की रोमांचक स्मृतियों के स्थायी साक्ष्य बने रहते हैं।
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मणिकर्ण
समुद्र तल से १७६० मीटर की ऊंचाई पर स्थित मणिकर्ण कुल्लू से ४५ किलोमीटर दूर है। भुंतर तक राष्ट्रीय राजमार्ग है जो आगे संकरे पहाडी़ रास्ते में परिवर्तित हो जाता है।
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मणिकर्ण
पठानकोट (२८५ किमी) और चंडीगढ़ (२५८ किमी) सबसे निकट के रेल स्टेशन हैं। दिल्ली से भुंतर के लिए प्रतिदिन उडा़न भी है।
0.5
2,290.910811
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चंद्रयान-3
यह मिशन चंद्रयान-2 की अगली कड़ी है, क्योंकि पिछला मिशन सफलता पूर्वक चाँद की कक्षा में प्रवेश करने के बाद अंतिम समय में मार्गदर्शन सॉफ्टवेयर में गड़बड़ी के कारण उतरने की नियंत्रित प्रकिया में विफल हो गया था, सॉफ्ट लैंडिंग का पुनः सफल प्रयास करने हेतु इस नए चंद्र परियोजना को प्रस्तावित किया गया था।
0.5
2,284.502921
20231101.hi_1058512_2
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चंद्रयान-3
चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र (शार), श्रीहरिकोटा से 14 जुलाई, 2023 शुक्रवार को भारतीय समय अनुसार दोपहर 2:35 बजे हुआ था। यह यान चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास की सतह पर 23 अगस्त 2023 को भारतीय समय अनुसार सायं 06:04 बजे के आसपास सफलतापूर्वक उतर चुका है। इसी के साथ भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक अंतरिक्ष यान उतारने वाला पहला और चंद्रमा पर उतरने वाला चौथा देश बन गया।
0.5
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चंद्रयान-3
चंद्रमा पर उतरने की नियंत्रित प्रक्रिया (सॉफ्ट लैंडिंग) की क्षमता प्रदर्शित करने के लिए चंद्रयान कार्यक्रम के दूसरे चरण में, इसरो ने एक कक्षित्र (ऑर्बिटर), एक लैंडर और एक रोवर से युक्त लॉन्च वाहन मार्क -3 (एलवीएम 3) नामक प्रक्षेपण वाहन पर चंद्रयान-2 को प्रक्षेपित किया। प्रज्ञान रोवर को तैनात करने के लिए लैंडर को सितंबर, 2019 को चंद्र सतह पर उतरना था।
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चंद्रयान-3
इससे पहले चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर एक अभियान की जापान के साथ सहयोग के बारे में खबरें सामने आई थीं, जहां भारत लैंडर प्रदान करता जबकि जापान प्रक्षेपक और रोवर दोनों प्रदान करने वाला था। अभियान में स्थान से नमूने लेना और चंद्रमा पर रात के समय जीवित रहने की तकनीक शामिल करने की भी संभावनाएँ थीं।
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चंद्रयान-3
विक्रम लैंडर की बाद की विफलता के कारण 2025 के लिए जापान के साथ साझेदारी में प्रस्तावित चंद्र ध्रुवीय खोजबीन मिशन (LUPEX) के लिए आवश्यक लैंडिंग क्षमताओं को प्रदर्शित करने के लिए एक और अभियान (चंद्रयान-3) करने का प्रस्ताव दिया गया। मिशन के महत्वपूर्ण फ्लाइट ऑपरेशन के दौरान, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) द्वारा संचालित यूरोपीय अंतरिक्ष ट्रैकिंग (एस्ट्रैक) एक अनुबंध के अंतर्गत इस मिशन को सपोर्ट प्रदान करेगी।
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चंद्रयान-3
चंद्रयान-3 को 14 जुलाई 2023 शुक्रवार को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से दोपहर 2:35 मिनट पर प्रक्षेपित किया गया।
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चंद्रयान-3
चंद्रमा की संरचना को बेहतर ढंग से समझने और उसके विज्ञान को अभ्यास में लाने के लिए चंद्रमा की सतह पर उपलब्ध रासायनिक और प्राकृतिक तत्वों, मिट्टी, पानी आदि पर वैज्ञानिक प्रयोग करना।
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चंद्रयान-3
इसका प्रोपल्शन मॉड्यूल, संचार रिले उपग्रह की तरह व्यवहार करेगा। प्रोपल्शन मॉड्यूल, लैंडर और रोवर युक्त ढांचे को तब तक अंतरिक्ष में धकेलता रहेगा जब तक कि अंतरिक्ष यान 100 किमी ऊंचाई वाली चंद्र कक्षा में न पहुँच जाए। प्रोपल्शन मॉड्यूल, लैंडर के अलावा, चंद्र कक्षा से पृथ्वी के वर्णक्रमीय (स्पेक्ट्रल) और पोलारिमेट्रिक माप का अध्ययन करने के लिए स्पेक्ट्रो-पोलारीमेट्री ऑफ हैबिटेबल प्लानेट अर्थ (SHAPE) नामक एक पेलोड भी ले जा रहा है।
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चंद्रयान-3
चंद्रयान-2 के विक्रम के विपरीत, जिसमें पांच 800 न्यूटन इंजन थे और पांचवां एक निश्चित थ्रस्ट के साथ केंद्रीय रूप से लगाया गया था। चंद्रयान-3 के लैंडर में केवल चार थ्रॉटल-सक्षम इंजन होंगे, इसके अतिरिक्त, चंद्रयान-3 लैंडर लेजर डॉपलर वेलोसीमीटर (एलडीवी) से लैस होगा। चंद्रयान-2 की तुलना में इम्पैक्ट लेग्स को मजबूत बनाया गया है और उपकरण की खराबी का सामना करने के लिए एक से अधिक उपाय किए गए हैं।
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हिरण्यगर्भ
तीसरी अवस्था तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है। यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है। इसे ही ब्रह्मा जी कहा है। मनुष्य की स्वप्नावस्था इसका प्रतिरूप है। यही मनुष्य में जीवात्मा है। यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है। ब्रह्म की चौथी अवस्था वैश्वानर है। मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है।
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हिरण्यगर्भ
इससे यह न समझें कि ब्रह्म या ईश्वर चार प्रकार का होता है, यह एक ब्रह्म की चार अवस्थाएँ है। इसकी छाया मनुष्य की चार अवास्थों में मिलती है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय (स्वरूप स्थिति) जिसे बताया नहीं जा सकता।
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हिरण्यगर्भ
भावार्थ: सृष्टि के आदि में था हिरण्यगर्भ ही केवल जो सभी प्राणियों का प्रकट अधीश्वर था। वही धारण करता था पृथिवी और अंतरिक्ष आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें|
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हिरण्यगर्भ
भावार्थ: आत्मा और देह का प्रदायक है वही जिसके अनुशासन में प्राणी और देवता सभी रहते हैं मृत्यु और अमरता जिसकी छाया प्रतिबिम्ब हैं। आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें |
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हिरण्यगर्भ
भावार्थ: प्राणवान् और पलकधारियों का महिमा से अपनी एक ही है राजा जो संपूर्ण धरती का स्वामी है जो द्विपद और चतुष्पद जीवों का आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से ।
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हिरण्यगर्भ
भावार्थ: हिमाच्छन्न पर्वत ये महिमा बताते हैं जिसकी नदियों सहित सागर भी जिसकी यश-श्लाघा है, जिसकी भुजाओं जैसी हैं दिशायें शोभित आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
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हिरण्यगर्भ
भावार्थ : गतिमान अंतरिक्ष, जिसमें धरती संधारित है आदित्य और देवलोक का जिसने है किया स्तम्भन अंतरिक्ष में जल की जो संरचना करता है,आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
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