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हिरण्यगर्भ
भावार्थ : सबकी संरक्षा में खड़े आलोकित द्यावा पृथिवी अंतःकरण में हैं निहारा करते जिसको जिससे उदित होकर सूरज सुशोभित हैआओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
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हिरण्यगर्भ
भावार्थ : अग्नि के उद्घाटक और कारण हिरण्यगर्भ के भी एक वह देव तब प्राणरूप से जिसने की रचना जल में जब सारा संसार ही निमग्न था । आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
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2,283.579246
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जीवरसायन
जीवरसायन विज्ञान या जैवरासायनिकी (अंग्रेज़ी -Biochemistry) रसायन शास्त्र की वह शाखा है जो जीवों के भीतर और उनसे संबंधित रासायनिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करती है जैसे कि पेड़-पौधों और जानवरों और उनके जैविक प्रक्रमों से सम्बन्धित विद्या। इसके अन्तर्गत जीवित कोशिकाओं में विद्यमान अवयव का संगठन और और उनमें घटित होने वाले परिवर्तनों का अध्य्यन किया जाता है।
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जीवरसायन
जैवरासायनिकी, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान दोनों की एक उपविधा है; जैव रसायन को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है: संरचनात्मक जीवविज्ञान, प्रकिण्व विज्ञान(एन्ज़ाइमिकी) और चयापचय । २०वीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक, जैव रसायन इन तीन विषयों के माध्यम से जीवित प्रक्रियाओं को समझाने में सुसफल हो गया है। जीव विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों को, जैवरासायनिक पद्धति और अनुसंधान के माध्यम से उजागर और विकसित किया जा रहा है। जीव रसायनशास्त्र, जीवन की उस रासायनिक आधार को समझने पर ध्यान केंद्रित करता है जो जैविक अणुओं को जीवित कोशिकाओं के भीतर और एक दूसरे कोशिकाओं के बीच होने वाली प्रक्रियाओं को जन्म देने के लायक बनाता है, बदले में जो ऊतकों और अंगों की समझ के साथ-साथ जीव संरचना और क्रिया विज्ञान अध्य्यन से संबंधित है। जीव रसायन, अणुजैविकी से निकटतः संबंधित है, जो जैविक घटना के आणविक तंत्र का अध्ययन है।
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जीवरसायन
अधिकांश जीवरसायन, प्रोटीन, नाभिकीय अम्ल, कार्बोहाइड्रेट और लिपिड जैसे जैविक वृहदणुओं की संरचनाओं, आबंधों, प्रकार्यों और अंतःक्रियाओं से संबंधित है। वे कोशिकाओं की संरचना प्रदान करते हैं और जीवन से जुड़े कई प्रकार्य करते हैं। कोशिका का रसायन भी छोटे अणुओं और आयनों की प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करता है। ये अकार्बनिक हो सकते हैं (उदाहरण के लिए, पानी और धातु आयन) या कार्बनिक (उदाहरण के लिए, अमीनो अल्म, जिसका प्रोटीन-संश्लेषण में उपयोग किया जाता है)। रासायनिक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से कोशिकाओं द्वारा अपने पर्यावरण से ऊर्जा का उपयोग करने के लिए प्रयोग की जाने वाली क्रियाविधि को चयापचय के रूप में जाना जाता है । जैव रसायन के निष्कर्ष मुख्य रूप से चिकित्सा, पोषण विज्ञान और कृषि में अनुप्रयुक्त होते हैं । चिकित्सा में, जैवरसायनविद् रोगों के कारणों और उपचारों की अन्विक्षा करते हैं । पोषणविज्ञान, स्वास्थ्य का अध्ययन करता है और स्वास्थ्य को कैसे बनाए रखा जाए और पोषक तत्वों की कमी के प्रभावों का भी अध्ययन करता है । कृषि में, जैवरसायनविद् मिट्टी और उर्वरक की जांच करते हैं । फसल की खेती में सुधार, फसल भंडारण और कीट नियंत्रण भी इनका लक्ष्य होता है।
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जीवरसायन
जीवन के विवरण में,आणविक स्तर पर, कोशिका के भीतर होने वाले जटिल रूप से व परस्पर संबंधित सभी रासायनिक परिवर्तनों (अभिक्रियाओं) का विवरण शामिल है- यानी,जिन प्रक्रियाओं को मध्यस्थ चयापचय (intermediary metabolism) के रूप में भी जाना जाता है । वृद्धि, प्रजनन और आनुवंशिकता की प्रक्रियाएं,जो जैव रसायनज्ञ की जिज्ञासा के विषय भी हैं, मध्यस्थ चयापचय से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं और इन्हें चपापचय से अलग, स्वतंत्र रूप से नहीं समझा जा सकता है। एक जटिल बहुकोशिकीय जीव द्वारा प्रदर्शित गुणों और क्षमताओं को, उस जीव की अलग-अलग कोशिकाओं के गुणों में विघटित किया जा सकता है, और प्रत्येक व्यक्तिगत कोशिकाओं के व्यवहार को उसकी रासायनिक संरचना और उस कोशिका के भीतर होने वाले रासायनिक परिवर्तनों के संदर्भ में स्वतंत्र रूप से समझा जा सकता है।
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जीवरसायन
इतिहासकहा जा सकता है कि जैव रसायन का इतिहास प्राचीन यूनानियों के साथ शुरू हुआ था, जो जीवन की संरचना और प्रक्रियाओं में रुचि रखते थे, हालांकि एक विशिष्ट वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में जैव रसायन की शुरुआत 19वीं शताब्दी के आसपास हुई थी। [1] कुछ लोगों ने तर्क दिया कि जैव रसायन की शुरुआत 1833 में एंसेलमे पायन द्वारा पहले एंजाइम , डायस्टेस (जिसे आज एमाइलेज कहा जाता है) की खोज हो सकती है , [2] जबकि अन्य ने एडुआर्ड बुचनर को एक जटिल जैव रासायनिक प्रक्रिया का पहला प्रदर्शन माना। सेल-मुक्त अर्क में मादक किण्वन जैव रसायन का जन्म होना।[3] [4] कुछ लोग 1842 से जस्टस वॉन लेबिग के प्रभावशाली कार्य , पशु रसायन, या, शरीर विज्ञान और विकृति विज्ञान के लिए इसके अनुप्रयोगों में कार्बनिक रसायन की ओर इशारा कर सकते हैं , जिसने चयापचय के एक रासायनिक सिद्धांत को प्रस्तुत किया, [1] या इससे भी पहले 18वीं शताब्दी में एंटोनी लैवोजियर द्वारा किण्वन और श्वसन पर अध्ययन । [5] [6]
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जीवरसायन
जैवरसायन शब्द स्वयं संयोजन रूप जैव- , जिसका अर्थ है 'जीवन' और रसायन विज्ञान से लिया गया है । यह शब्द पहली बार 1848 में अंग्रेजी में दर्ज किया गया था, [7] जबकि 1877 में, फेलिक्स होप-सेयलर ने Zeitschrift für Physiologische Chemie (जर्नल ऑफ फिजियोलॉजिकल केमिस्ट्री) के एक पर्याय के रूप में इस शब्द ( जर्मन में बायोकेमी ) का इस्तेमाल किया था। फिजियोलॉजिकल केमिस्ट्री के लिए और इसके अध्ययन के लिए समर्पित संस्थानों की स्थापना के लिए तर्क दिया। [8] [9] फिर भी, कई स्रोत जर्मन रसायनज्ञ कार्ल न्यूबर्ग का हवाला देते हैं जैसा कि 1903 में नए अनुशासन के लिए शब्द गढ़ा गया था, [10] [11] और कुछ इसका श्रेय फ्रांज हॉफमिस्टर को देते हैं । [12]
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जीवरसायन
जैव रसायन में अध्ययन का विषय जीवित जीवों में रासायनिक प्रक्रियाएं हैं, और इसके इतिहास में जीवन के जटिल घटकों की खोज और समझ और जैव रासायनिक प्रक्रियाओं के मार्गों की व्याख्या शामिल है। अधिकांश जैव रसायन प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, न्यूक्लिक एसिड और अन्य जैव अणुओं जैसे सेलुलर घटकों की संरचनाओं और कार्यों से संबंधित है; उनके चयापचय पथ और चयापचय के माध्यम से रासायनिक ऊर्जा का प्रवाह; कैसे जैविक अणु जीवित कोशिकाओं के भीतर होने वाली प्रक्रियाओं को जन्म देते हैं; यह जैव रासायनिक संकेतों के माध्यम से सूचना प्रवाह के नियंत्रण में शामिल जैव रासायनिक प्रक्रियाओं पर भी ध्यान केंद्रित करता है, और वे पूरे जीवों के कामकाज से कैसे संबंधित हैं। पिछले 40 वर्षों में [ के रूप में? ]इस क्षेत्र को जीवित प्रक्रियाओं की व्याख्या करने में इस तरह सफलता मिली है कि अब वनस्पति विज्ञान से लेकर चिकित्सा तक जीवन विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्र जैव रासायनिक अनुसंधान में लगे हुए हैं।
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जीवरसायन
विभिन्न जैव-अणुओं की विशाल संख्या के बीच, कई जटिल और बड़े अणु (जिन्हें पॉलिमर कहा जाता है) होते हैं, जो समान दोहराई जाने वाली सबयूनिट्स (जिन्हें मोनोमर्स कहा जाता है) से बने होते हैं। पॉलिमरिक बायोमोलेक्यूल के प्रत्येक वर्ग में सबयूनिट प्रकारों का एक अलग सेट होता है। उदाहरण के लिए, एक प्रोटीन एक बहुलक है जिसकी उपइकाइयां बीस या अधिक अमीनो एसिड के सेट से चुनी जाती हैं, कार्बोहाइड्रेट मोनोसेकेराइड, ओलिगोसेकेराइड और पॉलीसेकेराइड नामक शर्करा से बनते हैं, लिपिड फैटी एसिड और ग्लिसरॉल से बनते हैं, और न्यूक्लिक एसिड बनते हैं। न्यूक्लियोटाइड्स से। जैव रसायन महत्वपूर्ण जैविक अणुओं, जैसे प्रोटीन, और विशेष रूप से एंजाइम-उत्प्रेरित प्रतिक्रियाओं के रसायन विज्ञान के रासायनिक गुणों का अध्ययन करता है। कोशिका चयापचय और अंतःस्रावी तंत्र की जैव रसायन का व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। जैव रसायन के अन्य क्षेत्रों में शामिल हैंआनुवंशिक कोड (डीएनए, आरएनए), प्रोटीन संश्लेषण , कोशिका झिल्ली परिवहन और सिग्नल ट्रांसडक्शन ।
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जीवरसायन
जीवन के रसायनिक तत्वकहा जा सकता है कि जैव रसायन का इतिहास प्राचीन यूनानियों के साथ शुरू हुआ था, जो जीवन की संरचना और प्रक्रियाओं में रुचि रखते थे, हालांकि एक विशिष्ट वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में जैव रसायन की शुरुआत 19वीं शताब्दी के आसपास हुई थी। [1] कुछ लोगों ने तर्क दिया कि जैव रसायन की शुरुआत 1833 में एंसेलमे पायन द्वारा पहले एंजाइम , डायस्टेस (जिसे आज एमाइलेज कहा जाता है) की खोज हो सकती है , [2] जबकि अन्य ने एडुआर्ड बुचनर को एक जटिल जैव रासायनिक प्रक्रिया का पहला प्रदर्शन माना। सेल-मुक्त अर्क में मादक किण्वन जैव रसायन का जन्म होना।[3] [4] कुछ लोग 1842 से जस्टस वॉन लेबिग के प्रभावशाली कार्य , पशु रसायन, या, शरीर विज्ञान और विकृति विज्ञान के लिए इसके अनुप्रयोगों में कार्बनिक रसायन की ओर इशारा कर सकते हैं , जिसने चयापचय के एक रासायनिक सिद्धांत को प्रस्तुत किया, [1] या इससे भी पहले 18वीं शताब्दी में एंटोनी लैवोजियर द्वारा किण्वन और श्वसन पर अध्ययन । [5] [6]
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सन्धिपाद
इनका शरीर खंडयुक्त (Segmented), त्रिस्तरीय (Triploblastic) तथा द्विपार्श्विक सममित (Bilaterally symmetrical) होता है।
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सन्धिपाद
शरीर सिर (Head), वक्ष (Thorex), और उदर (Abdomen) में विभाजित होता है। कभी-कभी सिर और वक्ष जुड़कर सिरोवक्ष (Cephalothorex) का निर्माण करते हैं।
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सन्धिपाद
बाह्यकंकाल एक मोटी काइटिन की बनी उपचर्म (Cuticle) का बना होता है। खंडों के बीच यह बहुत पतला होता है।
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सन्धिपाद
खंडों में प्रायः संधित उपांगों (Joined appendages) के जोड़े लगे रहतें हैं, इसलिए इसे आर्थोपोडा (Arthropoda) कहा जाता है।
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सन्धिपाद
देहगुहा एक रुधिरगुहा (Haemocoel) होती है, जो रक्तवाहिननियों (Blood vessels) के मिलने से बनी होती है।
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सन्धिपाद
आहारनाल पूर्ण होती है। मुख के चारों ओर मुखांग (Mouthparents) होते हैं, जो जंतु के आवश्यकता अनुसार छेदने, चूसने या चबाने के लिए अनुकूलित (Adapted) होते हैं।
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सन्धिपाद
इनमें खुला रुधिर संवहन तंत्र (Open blood vascular system) होता है। रुधिर में हीमोसायनिन (Haemocyanin) वर्णक) होते हैं।
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सन्धिपाद
श्वसन क्रिया शरीर की सतह द्वारा, जलीय जीवों में क्लोम (Gills) द्वारा और स्थलीय प्राणियों में श्वासनलिका (Tracheae) या बुकलंग (Book lungs) द्वारा होती है।
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सन्धिपाद
उत्सर्जन क्रिया मैलपीघियन नलिकाओं (Malpighian tubules) द्वारा या हरित ग्रंथियों (Green glands) द्वारा होती है।
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स्वनविज्ञान
स्वानिकी का अध्ययन प्राचीन भारत मे लगभग २५०० वर्ष पहले से किया जाता था, इसका प्रमाण हमें पाणिनि द्वारा ५०० ई पू में रचित उनके संस्कृत के व्याकरण संबंधी ग्रंथ अष्टाध्यायी मे मिलता है, जिसमे व्यंजनों के उचारण के स्थान तथा उच्चारण की विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है। आज की अधिकतर भारतीय लिपियों मे व्यंजनों का स्थान पाणिनि के वर्गीकरण पर आधारित है।
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स्वनविज्ञान
आधुनिक काल में स्वानिकी का अध्ययन जोशुआ स्टील (१७७९) तथा अलेक्जेण्डर बेल (१८६७) आदि के प्रयासों से आरम्भ हुआ।
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स्वनविज्ञान
भाषा की लघुत्तम इकाई 'स्वन' है। इसे ध्वनि नाम भी दिया जाता है। ध्वनि के अभाव में भाषा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भाषाविज्ञान में स्वन के अध्ययन संदर्भ को ‘स्वनविज्ञान’ की संज्ञा दी जाती है। ध्वनि शब्द ध्वन् धातु में इण् (इ) प्रत्यय के योग से बना है। भाषा विज्ञान के गंभीर अध्ययन में ध्वनिविज्ञान एक महत्त्वपूर्ण शाखा बन गई है। इसके लिए ध्वनिशास्त्र, ध्वन्यालोचन, स्वनविज्ञान, स्वनिति आदि नाम दिए गए हैं। अंग्रेजी में उसके लिए 'फोनेटिक्स' (phonetics) और 'फोनोलॉजी' (phonology) शब्दों का प्रयोग होता है। इन दोनों शब्दों की निर्मिति ग्रीक के 'फोन' (phone) से है।
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स्वनविज्ञान
स्वन उत्पन्न करनेवाले व्यक्ति या वक्ता को स्वनउत्पादक की संज्ञा देते है। संग्राहक या ग्रहणकर्ता श्रोता होता है, जो ध्वनि को ग्रहण करता है। संवाहक या संवहन करनेवाला माध्यम जो मुख्यतः वायु की तरंगों के रूप में होता है। स्वन प्रक्रिया में तीनों अंगों की अनिवार्यता स्वतः सिद्ध है। जब मुख के विभिन्न अंगों में से किन्हीं दो या दों से अधिक अव्यवयों के सहयोग से ध्वनि उन्पन्न होगी तभी स्वन (ध्वनि) का अस्तित्व सम्भव है। ध्वनि-उत्पादक अवयवों की भूमिका के अभाव में स्वन का अस्तित्व असंभव है।
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स्वनविज्ञान
ध्वनि-उत्पादक अवयवों की उपयोगी भूमिका के बाद यदि संवाहक या संवहन माध्यम का अभाव होगा, तो स्वन का आभास असम्भव है। माना एक व्यक्ति एक वायु-अवरोधी (airtight) कक्ष में बैठ कर ध्वनि करता है, तो वायु तरंग कक्ष से बाहर नहीं आ पाती और बाहर का व्यक्ति ध्वनि-ग्रहण नहीं कर सकता है। इस प्रकार स्वन प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है।
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स्वनविज्ञान
तृतीय अंग संग्राहक या श्रोता के अभाव में ध्वनि-उत्पादन का अस्तित्व स्वतः ही शून्य हो जाता है। इस प्रकार स्वन प्रक्रिया में वक्ता (उत्पादक), माध्यम (संग्राहक) तीनों का होना अनिवार्य होता है।
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20231101.hi_166956_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8
स्वनविज्ञान
ध्वनि के सार्थक और निरर्थक दो स्वरूप हैं। भाषा विज्ञान में केवल सार्थक ध्वनियों का अध्ययन किया जाता है। ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया में वायु मुख या नाक दोनों ही भागों से निकलती है। इस प्रकार ध्वनि को अनुनासिक तथा निरनुनासिक दो वर्गो में विभक्त कर सकते हैं। ध्वनियों के उच्चारण में वायु मुख-विवर के साथ नासिका-विवर से भी निकलती है। उसे अनुनासिक ध्वनि कहते हैं। जिन ध्वनियों के उच्चारण में वायु केवल मुख-विवर से निकले उसे निरनुनासिक या मौखिक ध्वनि कहते हैं। ध्वनि की तीव्रता और मंदता के आधार पर उसे नाद, श्वास तथा जपित, तीन वर्गो में विभक्त कर सकते हैं। जब ध्वनि उत्पादन में स्वर तंत्रियाँ एक दूसरे से मिली होती हैं, तो वायु उन्हें धक्का देकर बीच से बाहर आती है, ऐसी ध्वनि को नाद ध्वनि कहते हैं, यथा-ग्, घ्, ज् आदि। इसे सघोष ध्वनि भी कहते हैं। जब स्वर तंत्रियाँ एक दूसरे से दूर होती हैं तो निश्वास की वायु बिना घर्षण के सरलता से बाहर आती है। ऐसी ध्वनि को ‘श्वास’ या अघोष कहते हैं; यथा क्, त्, प् आदि। जब बहुत मंद ध्वनि होती है तो दोनों स्वर तंत्रियों के किसी कोने से वायु बाहर आती है। ऐसी ध्वनि को जपित ध्वनि कहते हैं।
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स्वनविज्ञान
भाषा-अध्ययन में स्वनविज्ञान का विशेष महत्त्व है क्योंकि अन्य वृहत्तर इकाइयों का ज्ञान इसके ही आधार पर होता है। इसके ही अन्तर्गत विभिन्न ध्वनि उत्पादक अवयवों का अध्ययन किया जाता है। स्वनों के शुद्ध ज्ञान के पश्चात शुद्ध लेखन को सबल आधार मिल जाता है। उच्चारण में होनेवाले विविध संदर्भों के परिवर्तनों का ज्ञान भी सम्भव होता है।
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स्वनविज्ञान
स्वनविज्ञान में विभिन्न ध्वनियों के अध्ययन के साथ उनके उत्पादन की प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। इसी अध्ययन क्रम में ध्वनि उत्पादक विभिन्न अंगों की रचना और उनकी भूमिका का भी अध्ययन किया जाता है। ध्वनिगुण और उसकी सार्थकता का निरूपण भी किया जाता है। स्वन के साथ ‘स्वनिम’ का भी विवेचन-विश्लेषण किया जाता है। भाषा की उच्चारणात्मक लघुत्तम इकाई अक्षर के स्वरूप और उनके वर्गीकरण पर भी विचार किया जाता है। समय, परिस्थिति और प्रयोगानुसार विभिन्न ध्वनियों में परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि-परिवर्तन के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने कुछ ध्वनि नियम निर्धारित किए हैं। इन नियमों के अध्ययन के साथ ध्वनि-परिवर्तन की दिशाओं और ध्वनि-परिवर्तन के कारणों पर विचार किया जाता है।
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कन्फ़्यूशियस
जिस समय भारत में भगवान महावीर और बुद्ध धर्म के संबध में नए विचार रख रहें थे, चीन में भी एक विचारक का जन्म हुआ, जिसका नाम कन्फ़्यूशियस था। उस समय झोऊ राजवंश का बसंत और शरद काल चल रहा था। समय के साथ झोऊ राजवंश की शक्ति शिथिल पड़ने के कारण चीन में बहुत से राज्य कायम हो गये, जो सदा आपस में लड़ते रहते थे, जिसे झगड़ते राज्यों का काल कहा जाने लगा। अतः चीन की प्रजा बहुत ही कष्ट झेल रही थी। ऐसे समय में चीन वासियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने हेतु दार्शनिक कन्फ्यूशियस का आविर्भाव हुआ।
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कन्फ़्यूशियस
इनका जन्म ईसा मसीह के जन्म से करीब ५५० वर्ष पहले चीन के शानदोंग प्रदेश में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई। उनके ज्ञान की आकांक्षा असीम थी। बहुत अधिक कष्ट करके उन्हें ज्ञान अर्जन करना पड़ा था। १७ वर्ष की उम्र में उन्हें एक सरकारी नौकरी मिली। कुछ ही वर्षों के बाद सरकारी नौकरी छोड़कर वे शिक्षण कार्य में लग गये। घर में ही एक विद्यालय खोलकर उन्होंने विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रारंभ किया। वे मौखिक रूप से विद्यार्थियों  को इतिहास, काव्य और नीतिशास्त्र की शिक्षा देते थे। उन्होंने काव्य, इतिहास, संगीत और नीतिशास्त्र पर कई पुस्तकों की रचना की।
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कन्फ़्यूशियस
53 वर्ष की उम्र में लू राज्य में एक शहर के वे शासनकर्ता तथा बाद में वे मंत्री पद पर नियुक्त हुए। मंत्री होने के नाते इन्होंने दंड के बदले मनुष्य के चरित्र सुधार पर बल दिया। कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों को सत्य, प्रेम और न्याय का संदेश दिया। वे सदाचार पर अधिक बल देते थे। वे लोगों को विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने की प्रेरणा देते थे. वे बड़ों एंव पूर्वजों को आदर-सम्मान करने के लिए कहते थे. वे कहते थे कि दूसरों के साथ वैसा वर्ताव न करो जैसा तुम स्वंय अपने साथ नहीं करना चाहते हो।
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कन्फ़्यूशियस
कन्फ्यूशियस एक सुधारक थे, धर्म प्रचारक नहीं। उन्होने ईश्वर के बारे में कोई उपदेश नहीं दिया, परन्तु फिर भी बाद में लोग उन्हें धार्मिक गुरू मानने लगे। इनकी मृत्यु 480 ई. पू. में हो गई थी। कन्फ्यूशियस के समाज सुधारक उपदेशों के कारण चीनी समाज में एक स्थिरता आयी। कन्फ्यूशियस का दर्शन शास्त्र आज भी चीनी शिक्षा के लिए पथ प्रदर्शक बना हुआ है।
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कन्फ़्यूशियस
कनफ़ूशस् ने कभी भी अपने विचारों को लिखित रूप देना आवश्यक नहीं समझा। उसका मत था कि वह विचारों का वाहक हो सकता है, उनका स्रष्टा नहीं। वह पुरातत्व का उपासक था, कयोंकि उसका विचार था कि उसी के माध्यम से यथार्थ ज्ञान प्राप्त प्राप्त हो सकता है। उसका कहना था कि मनुष्य को उसके समस्त कार्यकलापों के लिए नियम अपने अंदर ही प्राप्त हो सकते हैं। न केवल व्यक्ति के लिए वरन् संपूर्ण समाज के सुधार और सही विकास के नियम और स्वरूप प्राचीन महात्माओं के शब्दों एवं कार्यशैलियों में प्राप्त हो सकते हैं। कनफ़ूशस् ने कोई ऐसा लेख नहीं छोड़ा जिसमें उसके द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों का निरूपण हो। किन्तु उसके पौत्र त्जे स्जे द्वारा लिखित 'औसत का सिद्धांत' (अंग्रेजी अनुवाद, डाक्ट्रिन ऑव द मीन) और उसके शिष्य त्साँग सिन द्वारा लिखित 'महान् शिक्षा' (अंग्रेजी अनुवाद, द ग्रेट लर्निंग) नामक पुस्तकों में तत्संबंधी समस्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। 'बसंत और पतझड़' (अंग्रेजी अनुवाद, स्प्रिंग ऐंड आटम) नामक एक ग्रंथ, जिसे लू का इतिवृत्त भी कहते हैं, कनफ़ूशस् का लिखा हुआ बताया जाता है। यह समूची कृति प्राप्त है और यद्यपि बहुत छोटी है तथापि चीन के संक्षिप्त इतिहासों के लिए आदर्श मानी जाती है।
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कन्फ़्यूशियस
कनफ़ूशस् के शिष्यों की संख्या सब मिलाकर प्राय: ३,००० तक पहुँच गई थी, किंतु उनमें से ७५ के लगभग ही उच्च कोटि के प्रतिभाशाली विद्वान् थे। उसके परम प्रिय शिष्य उसके पास ही रहा करते थे। वे उसके आसपास श्रद्धापूर्वक उठते-बैठते थे और उसके आचरण की सूक्ष्म विशेषताओं पर ध्यान दिया करते थे तथा उसके मुख से निकली वाणी के प्रत्येक शब्द को हृदयंगम कर लेते और उसपर मनन करते थे। वे उससे प्राचीन इतिहास, काव्य तथा देश की सामजिक प्रथाओं का अध्ययन करते थे।
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कन्फ़्यूशियस
कनफ़ूशस् का कहना था कि किसी देश में अच्छा शासन और शांति तभी स्थापित हो सकती है जब शासक, मंत्री तथा जनता का प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर उचित कर्तव्यों का पालन करता रहे। शासक को सही अर्थो में शासक होना चाहिए, मंत्री को सही अर्थो में मंत्री होना चाहिए। कनफ़ूशस् से एक बार पूछा गया कि यदि उसे किसी प्रदेश के शासनसूत्र के संचालन का भार सौंपा जाए तो वह सबसे पहला कौन सा महत्वपूर्ण कार्य करेगा। इसके लिए उसका उत्तर था– 'नामों में सुधार'। इसका आशय यह था कि जो जिस नाम के पद पर प्रतिष्ठित हो उसे उस पद से संलग्न सभी कर्तव्यों का विधिवत् पालन करना चाहिए जिससे उसका वह नाम सार्थक हो। उसे उदाहरण और आदर्श की शक्ति में पूर्ण विश्वास था। उसका विश्वास था कि आदर्श व्यक्ति अपने सदाचरण से जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, आम जनता उनके सामने निश्चय ही झुक जाती हे। यदि किसी देश के शासक को इसका भली भाँति ज्ञान करा दिया जाए कि उसे शासन कार्य चलाने में क्या करना चाहिए और किस प्रकार करना चाहिए तो निश्चय ही वह अपना उदाहरण प्रस्तुत करके आम जनता के आचरण में सुधार कर सकता है और अपने राज्य को सुखी, समृद्ध एवं संपन्न बना सकता है। इसी विश्वास के बल पर कनफ़ुशस् ने घोषणा की थी कि यदि कोई शासक १२ महीने के लिए उसे अपना मुख्य परामर्शदाता बना ले तो वह बहुत कुछ करके दिखा सकता है और यदि उसे तीन वर्ष का समय दिया जाए तो वह अपने आदर्शो और आशाओं को मूर्त रूप प्रदान कर सकता है।
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कन्फ़्यूशियस
कनफ़ूशस् ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्तिप्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों, विद्रोह प्रवृत्ति तथा देवी देवताओं का जिक्र कभी नहीं किया। उसका कथन था कि बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदयित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे और देवी देवताओं का आदर करते हुए भी उनसे अलग रहे। उसका मत था कि जो मनुष्य मानव की सेवा नहीं कर सकता वह देवी देवताओं की सेवा क्या करेगा। उसे अपने और दूसरों के सभी कर्तव्यों का पूर्ण ध्यान था, इसीलिए उसने कहा था कि बुरा आदमी कभी भी शासन करने के योग्य नहीं हो सकता, भले ही वह कितना भी शक्तिसंपन्न हो। नियमों का उल्लंघन करनेवालों को तो शासक दंड देता ही है, परंतु उसे कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सदाचरण के आदर्श प्रस्तुत करने की शक्ति से बढ़कर अन्य कोई शक्ति नहीं है।
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कन्फ़्यूशियस
कनफ़ूशस्‌ के दार्शनिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों पर आधारित मत को कनफ़ूशीवाद या कुंगफुत्सीवाद नाम दिया जाता है। कनफ़ूशस्‌ के मतानुसार भलाई मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य को यह स्वाभाविक गुण ईश्वर से प्राप्त हुआ है। अत: इस स्वभाव के अनुसार कार्य करना ईश्वर की इच्छा का आदर करना है और उसके अनुसार कार्य न करना ईश्वर की अवज्ञा करना है।
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2,262.311804
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95%E0%A5%80
रुड़की
रुड़की, भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित एक नगर और नगरपालिका परिषद है। इसे रुड़की छावनी के नाम से भी जाना जाता है और यह देश की सबसे पुरानी छावनियों में से एक है और १८५३ से बंगाल अभियांत्रिकी समूह (बंगाल सैप्पर्स) का मुख्यालय है। इस नगर में hindu जनसंख्या सबसे अधिक है ।
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रुड़की
रूड़की का सर्वप्रथम उल्लेख ब्रिटिश अभिलेखों में मिलता है। ब्रिटिश अभिलेखों के अनुसार 18वीं सदीं में रूड़की सोलानी नदी के पश्चिमी तट पर तालाब की मिट्टी से निर्मित कच्चे मकानों, भवनों का गांव हुआ करता था यहां कोई भी पक्का मकान या भवन नहीं था ।
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2,255.184641
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95%E0%A5%80
रुड़की
उस समय यह गांव प्रशासनिक रूप से तात्कालिक सहारनपुर जिले के पंवार (परमार) गुर्जरों की लंढौरा रियासत जो पूर्व में झबरेड़ा रियासत हुआ करती थी उसका एक भाग था। सन् 1813 ई० में लंढौरा के गुर्जर राजा रामदयाल सिंह पंवार की मृत्यु के बाद उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाते हुए अंग्रेजों ने भू-अभिलेखों में रियासत का बहुत बड़ा हिस्सा खानाखाली दर्शाकर रूड़की सहित कई गांव और हिस्से रियासत से बाहर कर दिए और उन्हें ब्रिटिश शासन में मिला लिया, इस प्रकार 1813 में रूड़की पूरी तरह से ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95%E0%A5%80
रुड़की
एच०आर० नेविल, 1908 में लिखते हैं कि गंगा यमुना का ऊपरी दोआब और विशेषकर सहारनपुर जनपद गूजरों द्वारा शासित होने के कारण इस सदीं (20वीं सदीं) के प्रारंभ तक वास्तव में ही 'गुजरात' के नाम से जाना जाता था। (देखिए- सहारनपुर गजेटियर) ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95%E0%A5%80
रुड़की
1826 के आसपास जनपद  सहारनपुर की ज्वालापुर तहसील का मुख्यालय ज्वालापुर से रूड़की स्थानांतरित  कर दिया गया और ज्वालापुर तहसील समाप्त कर  रूडकी को परगना सहित तहसील बना दिया गया जिसका प्रभार एक ज्वाइंट मजिस्ट्रेट रैंक के अधिकारी को सौंपा गया साथ ही एक कोषागार अधिकारी व तहसीलदार को  नियुक्त किया गया, इसके साथ ही रूड़की में एसडीएम आवास, कोषागार, तहसीलदार आवास का भी निर्माण किया गया।
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रुड़की
अंग्रेजों ने गुर्जरो की गंगा- यमुना के दोआब में लगातार बढ़ती जा रही ताकत को कमजोर करने व साथ ही नजीबाबाद क्षेत्र के रूहेलाओं को अपने नियंत्रण में लाने के उद्देश्य से लंढौरा के निकट 10 किलोमीटर पश्चिम में रूड़की गांव में 1803 ई० में एक छोटी सैन्य छावनी की स्थापना की।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95%E0%A5%80
रुड़की
जिसका उपयोग 1822 से 1824 ई० में गुजरात-सहारनपुर के ताल्लुका व गुर्जर किले कुंजा बहादुरपुर के ताल्लुकेदार चौधरी विजय सिंह जो राजा विजय सिंह के नाम से प्रसिद्ध है, उनके नेतृत्व में लड़े गए पहले स्वतंत्रता संग्राम जो 1824 की 'गुर्जर क्रांति' के रूप में जानी जाती है, जिसे स्थानीय जनता के साथ ही दोआब व हरियाणा की रियासतो व जमीदारों का व्यापक समर्थन हासिल था। जिसके दमन के पश्चात इस घटना को अंग्रेज अधिकारियों ने सरकारी दस्तावेजो व अभिलेखों में 1824 का "गूजर विद्रोह" के नाम से स्थान प्रदान किया एवं 1857 की क्रांति में गुजरात सहारनपुर के गुर्जरों, रांघड़ो व किसानों द्वारा किए गये भयंकर विद्रोहों को कुचलने के लिए किया गया।
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रुड़की
07 नवंबर,1853 में यहां बंगाल सैपर्स एंड माइनर्स की स्थापना की गई। जिसने क्रांति के दौरान इस क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाये रखने में अपनी काबिलियत व महत्वता सिद्ध की। इसके साथ ही रूड़की छावनी में सेना की इंफैन्टरी रेजीमेंट लंबे समय तक तैनात रही जिसके स्थान पर बाद में सेना के तोपखाना "रॉयल गैरीसन आर्टिलरी" की दो कंपनियो (हैवी बैट्रीज़ ऑफ आर्टिलरी) की तैनाती छावनी में कर दी गई ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95%E0%A5%80
रुड़की
क्षेत्र की जनता व किसानों द्वारा आजादी के लिए किए गए विद्रोहों व संघर्षों से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता व अशांति को पूरी तरह नियंत्रित करने के पश्चात रूड़की के महत्व को देखते हुए इसके ढांचागत विकास के प्रयास प्रारंभ हुए जिनमें ऐतिहासिक गंगानहर का निर्माण व रूड़की इंजीनियरिंग कालेज की स्थापना प्रमुख थी।
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पेशीतन्त्र
पेशीतंत्र (मस्क्युलर सिस्टम) में केवल ऐच्छिक पेशियों की गणना की जाती है, जो अस्थियों पर लगी हुई हैं तथा जिनके संकुचन से अंगों की गति होती है और शरीर हिल-डुल तथा चल सकता है। पेशी एक अस्थि से निकलती है, जो उसका मूलबंध कहलाता है और दूसरी अस्थि पर कंडरा द्वारा लगती है, जो उसका चेष्टाबिंदु होता है। कुछ ऐसी भी पेशियाँ हैं, जो कलावितान (aponeurosis) में लगती है। दोनों के बीच में लंगे लंबे मांससूत्र रहते हें, जिनकी संख्या बीच के भाग में अधिक होती है। जब पेशी संकुचन करती है तब खिंचाव होता है और जिस अस्थि पर उसका चेष्टाबिंदु होता है वह खिच कर दूसरी अस्थि के पास या उससे दूर चली जाती है। यह पेशी की स्थिति पर निर्भर करता है, किंतु संकुचन का रूप, अर्थात्‌ पेशीसूत्रों में होनेवाले रासायनिक तथा विद्युत्परिवर्तनों या क्रियाओं का रूप, एक समान होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
पेशीतन्त्र
शरीर की सभी अस्थियाँ (करोटि की आभ्यंतर अस्थियों को छोड़कर) ऐच्छिक पेशियों से छाई हुई हैं। इन पेशियों के समूह बन गए हैं। प्रत्येक क्रिया एक समूह के संकुचन का परिणाम होती है। केवल एक पेशी संकुचन नहीं करती। छोटी से छोटी क्रिया में एक या कई समूह काम करते हैं। ये क्रियाएँ विस्तार (extension), आकुंचन (flexion), अभिवर्तन (adduction), अपवर्तन (abduction) और घूर्णन (rotation) होती है। पर्यावर्तन (circumduction) गति इन क्रियाओं का सामूहिक फल होता है। उत्तानन (supination) और अवतानन (pronation) क्रिया करनेवाली पेशियाँ केवल अग्रबाहु में स्थित हैं। शरीर की पेशियों का नीचे संक्षेप में वर्णन किया जाता है।
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पेशीतन्त्र
१. ललाट (frontalis) २. नासा (nasal), ३. उत्तर ओष्ठ चतुरस्रा (quadratus labii superioris) ५. सृक्कोत्कर्षणी (zygomaticus), ६. कैनाइनस (Caninus), ७. गलपार्श्वच्छदा (platysma myoides), ९. टैंगुलैरिस (tr.iangularis), १०. निम्न ओष्ठ चतुरस्रा, ११. अधर उन्नमनी (mentaiis), १२. वक्त्रमंडलिका (orbicularis oris), की निम्न ओष्ठ कृंतक पेशी (incisivus labii inferioris), १३. कपोल संपीडनी (buccinator), १४. चर्वणी (masseter), १५. वक्त्र मंडलिका, १६. कपोल संपीडनी, १७. कैनाइनस, १८. नासापट अवनमनी (depressor septi), १९. नासा, २०. कपाल पेशी (temporal) तथा २१. भ्रूनमनी (procerus)।
0.5
2,248.707257
20231101.hi_217745_3
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पेशीतन्त्र
सिर का ऊपरी भाग कपाल एक कलावितान से आच्छादित है, जिसके अगले भाग में ललाटिका और पिछले भाग में पश्चकपालिका पेशियाँ लगी हुई हैं। इन दोनों को एक ही पेशी, ललाट अनुकपालिका (frontooccipitalis), के दो भाग माना जाता है। भ्रू के खिचने से ललाट में जो सिकुड़नें पड़ जाती हैं वे इसी पेशी के संकुचन का फल होती है। ललाट के नीचे के भाग में नेत्र की पलकों को घेरे हुए नेत्रमंडलिका (orbicularis oculi) है, जो नेत्रों को बंद करती है, यद्यपि उसके भिन्न भिन्न भाग स्वत: संकुचन करके मुख पर कई प्रकार के भाव उत्पन्न कर सकते हैं। नासा संबंधित, नासासंपीडनो (compressor nasi), नासाविस्फारणी (dilator nasi), नासावनमनी (depressor) और नासोष्ठकर्षणी (levator labii et nasi) का एक भाग, ये पेशियाँ हैं जिनकी क्रिया उनके नाम से स्पष्ट है। ओष्ठकर्षणी (levator labii) और सृक्क उन्नयनी (levator anguli) ऊर्ध्वोष्ठ को ऊपर की ओर खींचती हैं। सृक्कोत्कर्षणी (zygomaticus) मुख के कोण को बाहर की ओर खींचती है। वक्त्र मंडलिका (orbicularis oris) मुख के छिद्र को एक मंडल की भाँति घेरे हुए हैं। उसके संकुचन करने पर मुख का छिद्र बंद हो जाता है। निचले ओष्ठ को नीच को खींचनेवाली अधरोष्ठवनमनी (depressor labii inferioris) और सृक्कावनमनी (depressor anguli oris) पेशियाँ हैं। कपोल संपीडनी (buccinator) पेशी दोनों ऊर्ध्व और अधोहन्वस्थियों से निकलकर, आगे को जाकर, वक्त्रमंडलिका में मिल जाती है।
0.5
2,248.707257
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पेशीतन्त्र
ये सब भावप्रदर्शक पेशी कही जाती है। इनमें आननतंत्रिका (facial nerve) अथवा ७ वीं कपालीतंत्रिका की शाखाएँ आती हैं।
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2,248.707257
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पेशीतन्त्र
ये कपालपेशी (temporalis), चवर्णी (masseter) और अंत: और बहि: पक्षाभिका (interal and external pterygoideus) हैं। कपालपेशी कपालफलक के बहिपृष्ठ से एक पंखे के आकार में निकलती है और नीचे जाकर अधोहन्वस्थि की प्रशाखा (ramus) पर लगती है। चर्वण पेशी ऊर्ध्व हन्वास्थि के एक प्रवर्धन और गंडचाप (zygomatic arch) की निचली धारा से निकलकर अधोहन्वस्थि को ऊपर उठाती है। शंख पेशी की भी यही क्रिया होती है। इस प्रकार यह ग्रास को ऊपर और नीचे के दाँतों के बीच में लाकर चबाने की क्रिया करवाती है और मुँह को बंद करती है। बहि: पक्षाभिका जबड़े के अस्थिकंद (condyle) को बंद करती है। बहि: पक्षाभिका जबड़े के अस्थिकंद (condyle) को आगे को खींच कर मुँह को खोलती है। दोनों ओर की अंत:-पक्षाभिका पेशियों की बारी बारी से क्रिया होने से जबड़ा दाहिने बाए खिंचता है। वह जबड़े को ऊपर को उठाकर मुँह बंद होने में भी सहायता देती है।
0.5
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पेशीतन्त्र
सामने की त्वचा के नीचे बारीक पतली पेशी अधोहन्वस्थि से जत्रुक (clavicle) तक फैली हुई है। मनुष्य में इस पेशी का ह्रास हो गया है। बहुत से चौपायों में यह पेशी विस्तृत और क्रियाशील होती है जिससे वे गले की त्वचा को चला सकते हैं। कुछ मनुष्यों में भी ऐसी शक्ति होती है। यह गलपार्श्वच्छदा (platysma) कहलाती है। इसको हटा देने से, ग्रीवा की मध्य रेखा के दोनों ओर समान रचनाएँ स्थित हैं। इस कारण एक ओर को रचनाओं का यहाँ वर्णन किया गया है। दूसरी ओर भी वैसा ही समझना चाहिए।
0.5
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पेशीतन्त्र
१. उरोस्थिंकठिका (sternohyoid), २. अंसकंठिका (omohyoid) का ऊर्ध्व मध्यांश, ३. अवटुकंठिका (thyrohyoid), ४. द्वितुंदी (digastric) का अग्र मध्यांश, ५. चिबुककंठिया (mylohyoid), ६. कठिका जिह्विका (hyoglossus), ७. शरकंठिका (stylohyoid), ८. चर्वणी (masseter), ९. द्वितुंदी का पश्च मध्यांश, १०. पट्टिका-शिरस्या (splenius capitis), ११. उर: कर्णमूलिका (sternocleidomastoid), १२. अंसफलक उन्नायक (levator scapulae), १३. पश्च विषमा (scalenus posterior), १४. मध्य विषमा (medius), १५. पूर्व विषमा (anterior), १६. पृष्ठच्छदा (trapezins), १७. अंसकंठिका का निम्न मध्यांश तथा, १८. उर: कर्णमूलिका।
0.5
2,248.707257
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पेशीतन्त्र
गले के पार्श्व में एक बड़ी पेशी कान के पीछे कर्णमूल से उरोस्थि (sternum) तक जाती दीख रही है, जो उरोस्थि ओर जत्रु के पास के भाग से उदय होकर, ऊपर जाकर, कर्णमूल पर लग जाती है। यह उर:कर्णमूलिका (sternocleidomastoid) पेशी है। एक ओर की इस पेशी के संकुचन से सिर दूसरी ओर को घूम जाता है। दोनों ओर की पेशियों के साथ संकुचन करने पर सिर नीचे को झुक जाता है। यह एक विशेष पेशी है, जो चतुष्कोणकार गलपार्श्व को अग्र और पश्च दो (anterior and posterior) त्रिकोणों में विभक्त कर देती है। पूर्व त्रिकोण का शिखर नीचे उदोस्थि पर है। एक भुजा गले की मध्य रेखा और दूसरी इस पेशी पूर्व या अंत: धारा बनाती है। इस त्रिकोण में बड़े महत्व की कितनी ही रचनाएँ हैं, जो ऊपर से नीच को, या नीचे से ऊपर को जाती है। पश्च त्रिकोण का शिखर ऊपर कर्णमूल के नीचे और आधार नीचे जत्रुक पर है तथा अंत: भजा उर कर्णमूलिका की बहि:धरा और बहि: या पार्श्व भुजा (trapezius) पेशी की बहि:धारा से बनती है। गले की मध्य रेखा में कठिका (hyiod), अबटुउपास्थि (thyroid cartilage) ओर उरोस्थि की ऊर्ध्व धारा शल्यचिकित्सक के लिये विशेष पेशियाँ ये हैं : चिबुककंठिका (mylohyoid), (जो मुखगुहा कीह भूमि बनाती है, अधोहन्वस्थि के एक ओर के कोण से दूसरी ओर के कोण तक फैली हुई है और पीछे की ओर कठिका पर लग जाती है), कंठिका जिह्वका (hyoglossus), अवटकंठिका (thyrohyoid), उरोस्थि कंठिका (sternohyoid) तथा अंसकंठिका (omohyoid)। इन पेशियों की स्थिति का विस्तार इनके नाम से प्रकट है। अंसकंठिका एक लंबी पेशी है, जो अंसफलंक से निकलकर, दोनों त्रिकोणों को पार करके, कठिकास्थि पर जाकर लगती है। इसके बीच के भाग में एक कंडरा है, जो प्रावरणी के एक भाग द्वारा प्रथम पर्शुका पर लगी हुई है। शरग्रसिनिका (stylopharyngeus) और शरकंठिका (stylohyoideus) कपालास्थि के शर प्रवर्ध से निकलती हैं। उर:कर्णमूलिका में ११वीं कपाली (मेरु सहायिका) तंत्रिका जाती है। इस त्रिकोण की जिह्वा में जानेवाली पेशियों में अधोजिह्विका (hypoglossal) तंत्रिका जाती है। कंठिका से नीचे की पेशियों में ऊपरी ३ या ४ मेरुतंत्रिकाओं के सूत्र जाते हैं।
0.5
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अपमार्जक
अपमार्जक ऐसे पृष्‍ठ संक्रियक पदार्थ हैं जिनके तनु विलयन में सफाई करने की क्षमता होती है। ये प्रायः एल्किलबेंजीनसल्फोनेट होते हैं जो साबुन के समान ही होते हैं किन्तु कठोर जल में साबुन से अधिक विलेय होते हैं। अपमार्जक जो कठोर जल में धुलाई का कार्य करता है
0.5
2,248.682534
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अपमार्जक
डिटर्जेंट एक सर्फेक्टेंट या जलमिश्रित घोल में सफाई गुणों के साथ सर्फेक्टेंट का मिश्रण होता है। ये पदार्थ आमतौर पर एल्किलबेंजीन सल्फोनेट, यौगिकों का एक परिवार जो साबुन के समान होता है लेकिन भारी पानी में अधिक घुलनशील होता है, क्योंकि पोलर सल्फोनेट (डिटर्जेंट का) पोलर कार्बोक्जिलेट (साबुन के) की तुलना में भारी पानी में पाए जाते कैल्शियम और अन्य आयनों से बंधने की संभावना कम होती है।
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अपमार्जक
प्रथम विश्व युद्ध में साबुन बनाने के लिए आवश्यक तेल और वसा की कमी थी। साबुन के विकल्प के रूप में रसायनज्ञों द्वारा सबसे पहले जर्मनी में सिंथेटिक डिटर्जेंट बनाए गए थे। १९५० के दशक तक, डिटर्जेंट व्यापक हो गया था, और बड़े पैमाने पर कपड़े धोने के लिए साबुन की जगह ले ली, खासकर विकसित देशों में।
0.5
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अपमार्जक
अब डिटर्जेंट डिशवॉशर टैबलेट, वॉशिंग मशीन डिटर्जेंट, वॉशिंग मशीन के लिए तरल डिटर्जेंट के रूप में उपलब्ध हैं और वे अधिकांश ईकॉमर्स पोर्टल्स पर उपलब्ध हैं।,
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अपमार्जक
विशिष्ट ऋणायनी डिटर्जेंट एल्किलबेंजीन सल्फोनेट हैं। इन ॠणायन का एल्किलबेंजीन भाग लिपोफिलिक है और सल्फोनेट हाइड्रोफिलिक है। दो अलग-अलग किस्मों को लोकप्रिय बनाया गया है, जिनमें शाखित एल्काइल समूह और रैखिक एल्काइल समूह हैं।
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अपमार्जक
धनायनिक डिटर्जेंट एक हाइड्रोफिलिक घटक के साथ, ऋणायनी के समान होते हैं, लेकिन, ऋणायनी सल्फोनेट ग्रुप के बजाय, धनायनिक सर्फेक्टेंट में पोलर एन्ड के रूप में चतुर्धातुक अमोनियम होता है। अमोनियम सल्फेट केंद्र पॉजिटिव चार्ज्ड होता है।
0.5
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अपमार्जक
गैर-आयनिक डिटर्जेंट उनके अचार्ज्ड, हाइड्रोफिलिक हेडग्रुप द्वारा वर्णित किए जाते हैं। विशिष्ट गैर-आयनिक डिटर्जेंट पॉलीऑक्सीथिलीन या ग्लाइकोसाइड पर आधारित होते हैं।
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अपमार्जक
डिटर्जेंट के सबसे बड़े अनुप्रयोगों में से एक डिश धोने और कपड़े धोने सहित घरेलू और दुकान की सफाई के लिए है। फॉर्मूलेशन जटिल हैं, जो उपयोग की विविध मांगों और अत्यधिक प्रतिस्पर्धी उपभोक्ता बाजार को दर्शाते हैं। तेजी से औद्योगीकरण और बढ़ती डिस्पोजेबल आय के कारण एशिया-प्रशांत क्षेत्र बाजार पर हावी है। चीन को मैन्युफैक्चरिंग हब माना जाता है और "मेक इन इंडिया" पहल के कारण भारत का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर बढ़ रहा है। यह उम्मीद की जाती है कि मैन्युफैक्चरिंग सुविधाओं की संख्या में वृद्धि होगी, जिससे फर्श स्क्रबर की मांग में वृद्धि होगी।
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अपमार्जक
अनेक पादप तथा जन्तु ऊतकों में पाये जाने वाले फॉस्फेटीडिल्कोलीन (Phosphatidylcholine) प्राकृतिक पृष्ठ संक्रियक है। कृत्रिम रूप से निर्मित कुछ पृष्ठ संक्रियकों के उदाहरण ये हैं-
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श्रावस्ती
श्रावस्ती कौशल का एक प्रमुख नगर था। भगवान बुद्ध के जीवन काल में यह कौशल देश की राजधानी थी। इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों, चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कोशाम्बी और वाराणसी में से एक माना जाता था। इसके नाम की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में कई मत प्रतिपादित है।
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श्रावस्ती
सावत्थी, संस्कृत श्रावस्ती का पालि और अर्द्धमागधी रूप है। बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
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श्रावस्ती
पाणिनि (लगभग 500 ई.पूर्व) ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' में साफ़ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे।
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श्रावस्ती
महाभारत के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुए जो कि पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामाणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चलकर कौशल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गयी थी और यही नगर कौशल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
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श्रावस्ती
ब्राह्मण साहित्य, महाकाव्यों एवं पुराणों के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
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श्रावस्ती
महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी।
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श्रावस्ती
मत्स्य एवं ब्रह्मपुराणों में इस नगर के संस्थापक का नाम श्रावस्तक के स्थान पर श्रावस्त मिलता है। बाद में चलकर कौशल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गयी थी और यही नगर कौशल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
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श्रावस्ती
एक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोशल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवार भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाज़े बने हुए थे। हमारी प्राचीन कला में श्रावस्ती के दरवाज़ों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कौशल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़े हाथियों की पीठ पर कसे हुए चाँदी या सोने के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे।
0.5
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20231101.hi_30318_14
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80
श्रावस्ती
चीनी यात्री फाहियान और हुयेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाज़ों का उल्लेख किया है। श्रावस्ती एक समृद्ध, जनाकीर्ण और व्यापारिक महत्त्व वाली नगरी थी। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभ थीं, अत: इसे सावत्थी कहा जाता था।
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2,237.802471
20231101.hi_632002_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AC-%E0%A4%89%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6
किताब-उल-हिन्द
तीसरा परिच्छेद -- बुद्धि द्वारा तथा इन्द्रियों द्वारा ज्ञातव्य दोनों प्रकार के पदार्थों के विषय में हिन्दुओं के विश्वास पर ।
0.5
2,236.051662
20231101.hi_632002_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AC-%E0%A4%89%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6
किताब-उल-हिन्द
दसवाँ परिच्छेद -- उनके धार्मिक तथा सामाजिक नियमों का मूल; भविष्यद्वक्ता; और साधारण धार्मिक नियमों का लोप हो सकता है या नहीं - इस विषय पर ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AC-%E0%A4%89%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6
किताब-उल-हिन्द
पन्द्रहवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं की परिमाण-विद्या पर टीका, जिससे तात्पर्य्य यह है कि इस पुस्तक में वर्णित सब प्रकार के मानों को समझने में सुविधा हो जाय।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AC-%E0%A4%89%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6
किताब-उल-हिन्द
सोलहवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं की लिपियों पर, उनके गणित तथा तत्सम्बन्धी विषयों पर, और उनकी कई एक विचित्र रीति-रिवाजों पर टीका-टिप्पणी।
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किताब-उल-हिन्द
अठारहवाँ परिच्छेद -- उनके देश, उनके नदी नालों, और उनके महासागर पर और उनके भिन्न-भिन्न प्रान्तों तथा उनके देश की सीमाओं के बीच की दूरियों पर विविध टिप्पणियाँ।
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किताब-उल-हिन्द
उन्नीसवाँ परिच्छेद -- ग्रहों, राशिचक्र की राशियों, चान्द्र स्थानों, और उससे सम्बन्धित वस्तुओं के नामों पर।
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इक्कीसवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं के धार्मिक विचारानुसार आकाश और पृथ्वी का वर्णन, जिसका आधार उनका पौराणिक साहित्य है।
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सत्ताईसवाँ परिच्छेद -- पृथिवी की प्रथम दो गतियों ( एक तो प्राचीन ज्योतिषियों के मतानुसार पूर्व से पश्चिम को, और दूसरी विषुवों का अयन चलन ) पर हिन्दू ज्योतिषियों तथा पुराणकारों दोनों के मतानुसार ।
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किताब-उल-हिन्द
बत्तीसवाँ परिच्छेद -- सामान्यतः काल और अवधि ( मुद्दत ) - सम्बन्धी कल्पना पर, और संसार की उत्पत्ति तथा विनाश पर ।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
यह एक ऐतिहासिक किला है। काफी संख्या में पर्यटक यहां घूमने के लिए आते हैं। इस किले का निर्माण बीकानेर के राजा रत्‍नसिंह ने 1820 ई. में करवाया था। यह किला आगरा-बीकानेर मार्ग पर स्थित है। इस जगह के आसपास कई हवेलियां भी है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
यहां रेतीले टीले हवा की दिशा के साथ आकृति और स्थान बदलते रहते हैं। इस शहर में कन्हैया लाल बंगला की हवेली और सुराना हवेली आदि जैसी कई बेहद खूबसूरत हवेलियां हैं, जिनमें हजारों छोटे-छोटे झरोखे एवं खिड़कियाँ हैं। ये राजस्थानी स्थापत्य शैली का अद्भुत नमूना हैं जिनमें भित्तिचित्र एवं सुंदर छतरियों के अलंकरण हैं। नगर के निकट ही नाथ साधुओं का अखाड़ा है, जहां देवताओं की मूर्तियां बनी हैं। इसी नगर में एक धर्म-स्तूप भी बना है जो धार्मिक समानता का प्रतीक है। नगर के केन्द्र में एक दुर्ग है जो लगभग ४०० वर्ष पुराना है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
यह भगवान हनुमान का मंदिर है। यह मंदिर जयपुर-बीकानेर मार्ग पर स्थित है। चूरू भारत के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। माना जाता है कि यहां जो भी मनोकामना मांगी जाए वह पूरी होती है। प्रत्येक वर्ष यहां दो बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है। यह मेले चैत्र (अप्रैल) और अश्विन पूर्णिमा (अक्टूबर) माह में लगते हैं। लाखों की संख्या में भक्तगण देश-विदेश से सालासार बालाजी के दर्शन के लिए यहां आते हैं। यह मंदिर पूरे साल खुला रहता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
यह छ: मंजिला इमारत है। यह काफी बड़ी हवेली है। इस हवेली की खिड़कियों पर काफी खूबसूरत चित्रकारी की गई है। इस हवेली में 1111 खिड़कियां और दरवाजे हैं। इस हवेली का निर्माण 1870 में किया गया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
चूरू की  चन्दन कला भी बहुत मशहूर है ।  मालजी  "कलाकार" जांगिड़ परिवार जो 1950 से इसी कला मे  लगे हुवे है उनके परिवार मे चौथमल, नोरत मल, ओम प्रकाश चौथी पीढ़ी राहुल, व मनीष  सभी बर्षो से ये कला बनाते आ रहे है। इनके अलावा इनके परिवार मे विनोद कुमार, महेश चंद्र,सीताराम, पवन,कमलेश,मोहित, रोहित,गौतम, पंकज, सुभम, सुरेश,रामचंद्र , परमेस्वर  भी करते रहे है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्थान काफी महत्वपूर्ण है। यह स्थान चूरू से 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह गांव अपनी प्राकृतिक सुंदरता और खूबसूरत हवेलियों के प्रसिद्ध है। यहां आकर राजस्थान के असली ग्रामीण परिवेश का अनुभव किया जा सकता है। इसके अलावा यहां ऊंटों की सवारी भी काफी प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक किसान आन्दोलन में भी दूधवा खारा का विशिष्ट स्थान है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
ताल छापर अभयारण्य चुरू जिले में स्थित है। यह जगह मुख्य रूप से काले हिरण के लिए प्रसिद्ध है। इस अभयारण्य में कई अन्य जानवर जैसे-चिंकारा, लोमड़ी, जंगली बिल्ली के साथ-साथ पक्षियों की कई प्रजातियां भी देखी जा सकती है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल 719 वर्ग हेक्टेयर है।तथा यह कुंरजा पक्षीयो ( demoiselle cranes) के लिये भी नामित है।यह चुरू जिले के छापर शहर के पास स्थित है इसे 11 मई 1966 को एक अभयारण्य का दर्जा दिया गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
इस हवेली का निर्माण एक प्रसिद्ध व्यापारी ओसवाल जैन कोठारी ने करवाया था जिसका नाम उन्होंने अपने गोत्र के नाम पर रखा। इस हवेली पर की गई चित्रकारी काफी सुंदर है। कोठारी हवेली में एक बहुत कलात्मक कमरा है, जिसे मालजी का कमरा कहा जाता है। इसका निर्माण उन्होंने सन 1925 में करवाया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%82
चूरू
चूरू में कई आकर्षक गुम्बद है। अधिकतर गुम्बदों का निर्माण धनी व्यापारियों ने करवाया था। ऐसे ही एक गुम्बद-आठ खम्भा छतरी का निर्माण सन 1776 में किया गया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
मौर्य साम्राज्य की पतन के दौरान कलिंग में चेदि-चन्देल राजवंश का उदय हुआ जब महामेघवाहन ने दक्षिण कोसल और कलिंग के मौर्यों को हराया। 1 शताब्दी के चन्देरी अभिलेख और 196 ई. के हाथीगुंफा शिलालेख के अनुसार महामेघवाहन परिवार वस्तुत चेदि राज्य का चेदि-चन्देलवंश था जिसने अपनी राजधानी परिवर्तित कर कलिंगनगर में स्थापित की थी। महामेघवाहन-वर्मन या मेघ-वर्मन का मूल नाम क्षेमराज-वर्मन था। महामेघवाहन विशेषण का अर्थ है 'महान बादलों के भगवान' जो बादलों को अपने वाहन के रूप में उपयोग करते हैं। इसका मतलब यह है कि बादलों के राजा इंद्र के समान शक्तिशाली थे लोगों की नजरो में। महामेघवाहन के उत्तराधिकारीयों ने अपने महान पूर्वज (महामेघवाहनवर्मन चन्देल) की स्मृति में, जिन्होंने मौर्य साम्राज्य को हराया और कलिंग में चन्देलों का स्वंप्रभु शासन स्थापित किया, इस सम्मान के रूप में उनके नाम (महामेघवाहन) को अपने पारिवारिक शीर्षक के रूप में इस्तेमाल किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र वृधराजवर्मन को उनका उत्तराधिकारी बनाया गया। वृधराजवर्मन चन्देल का उत्तराधिकारी उनका पुत्र भिक्षुराजवर्मन चन्देल या खारवेल हुआ। खारवेल कलिंग में चन्देलवंश का तीसरा नरेश था और इसे 'कलिंग चक्रवर्ती' कहा जाता है। इनकी पत्नी का नाम अग्रमहिषी था। इनके पुत्र एवम उत्तराधिकारी का नाम का नाम वक्रदेववर्मन चन्देल था। उदयगिरि में हाथीगुफा के ऊपर एक अभिलेख है जिसमें इसकी प्रशस्ति अंकित है। उस प्रशस्ति के देख इतिहासकारों के अनुसार यह जैन धर्म का अनुयायी था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
हाथीगुमफा, गणेशगुम्फा और चन्देरी के अभिलेखों के अनुसार राजा खारवेल या भिक्षुराजवर्मन चन्देल के पूर्वज चेदि जनपद के चेदी-चन्देल राजवंश के क्षत्रिय राजा थे तथा उसके पिता का नाम चेतिराज वृधराजवर्मन चन्देल था। हाथीगुंफा शिलालेख में यह स्पष्ट नहीं लिखा है कि खारवेल और महामेघवाहन में क्या सम्बन्ध था यानी उन दोनों के बीच में कुल कितने राजा हुए। भगवान लाल ने शिलालेख के आधार पर निम्नलिखित कुलवृक्ष बनाया है:
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2,229.020827
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
शासन के 7वे वर्ष उन्होंने भव्य राजसूय यज्ञ किया और दिग्विजय शुरू की। 8 वर्ष के राजकाल उन्होंने मौर्य साम्राज्य की बराबर पहाड़ी पर स्थित गोरथगिरि दुर्ग को ध्वंस कर राजगृह को घेर लिया। फिर उन्होंने आक्रमण कर शाही सेना पराजित की और किले में घुस गए। महाराज खारवेल ने मगधनरेश बृहद्रथ मौर्य को पराजित कर बंदी बनाया तथा उसे वहां अपमानित किया। हालांकि उन्होंने मौर्य साम्राज्य को अपने अधिकार में नही मिलाया क्योंकि उनका उद्देश केवल मौर्यों को अपमानित कर कलिंग जीन मूर्ति को विजय रूप में वापिस लाना था जिसे इतिहासकार महावीर की प्रतिमा के रूप में समझते है। इस समाचार से ग्रीक यानी यवन राजा डिमेट्रियस प्रथम महाराज खारवेल से इतना भयभीत हुआ कि वह पाटलिपुत्र के पास से भाग खड़ा हुआ। उसने सोचा खारवेल उसका मथुरा तक पीछा नहीं करेंगे लेकिन खारवेल उसका पीछा करते हुए वो मथुरा पहुंच गए जिसे देख डिमेट्रियस डर गया और भागना शुरू किया। खारवेल ने उसका पीछा कश्मीर के बाहर तक किया और उसे खदेड़ वहां तक का राज्य चेदि चन्देल साम्राज्य में मिला भारत की रक्षा की और पुन अपनी राजधानी कलिंग लौट गए। 10वें वर्ष में उसने गंगा की घाटी पर फिर से आक्रमण किया और उसे अपने अधीन कर लिया। 11वें वर्ष में उसकी सेना ने पिथुंड को नष्ट किया और विजय करती हुई वह पांड्य राज्य तक पहुँच गई और तमिल संघ को तोड़ते हुए उन्होंने पांड्या राजवंश को हराकर उसे अपने अधीन कर लिया । 12वें वर्ष उसने उत्तरापथ पर फिर आक्रमण किया और मगध के राजा पुष्यमित्र शुंग (उपनाम बृहस्पतिमित्र शुंग) गंगा के तट पर युद्ध में पराजित किया। जिसके बाद पुष्यमित्र उनके अधीन हो गए और शुंग राजवंश चेदि चन्देल साम्राज्य के जागीरदार राज्य बन गए।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
खारवेल, चेदि-चन्देलवंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, पूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात्‌ भी जो शेष बचता है, उससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेनानायक था और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
उसने और उसकी रानी ने जैन भिक्षुओं के निर्वाह के लिए व्यवस्था की और उनके आवास के लिए गुफाओं का निर्माण कराया। किंतु वह धर्म के विषय में संकुचित दृष्टिकोण का नहीं था। उसने अन्य सभी देवताओं के मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया। वह सभी संप्रदायों का समान आदर करता था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
खारवेल का प्रजा के हित का सदैव ध्यान रहता था और उसके लिए वह व्यय की चिंता नहीं करता था। उसने नगर और गाँवों की प्रजा का प्रिय बनने के लिए उन्हें करमुक्त भी किया था। पहले नंदराज द्वारा बनवाई गई एक नहर की लंबाई उसने बढ़वाई थी। उसे स्वयं संगीत में अभिरुचि थी और जनता के मनोरंजन के लिये वह नृत्य और सगीत के समारोहों का भी आयोजन करता था। खारवेल को भवननिर्माण में भी रुचि थी। उसने एक भव्य 'महाविजय-प्रासाद' नामक राजभवन भी बनवाया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
दिग्विजय शुरू करने से पहले इन्होंने राजसूय यज्ञ किया था। जब भी वह जीत के बाद घर लौटते थे, तो हमेशा ब्राह्मणों और जैन आचार्यों को धन, कीमती रत्न, हाथी और घोड़े जैसे उदार उपहार देकर अपनी जीत का जश्न मनाते थे। उन्होंने हमेशा उनके लिए घर बनाए।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B2
खारवेल
खारवेल के पश्चात्‌ कलिंग के चेदि-चन्देलवंश के संबंध में हमें कोई सुनिश्चित बात नहीं ज्ञात होती। संभवत: उसके उत्तराधिकारी उसके राज्य को स्थिर रखने में भी अयोग्य थे जिससे शीघ्र ही साम्राज्य का अंत हो गया।
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