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20231101.hi_190090_3
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अपस्फीति
IS/LM मॉडल में (अर्थात आय और बचत का संतुलन/नकदी तरजीह तथा मुद्रा आपूर्ति संतुलन मॉडल), माल और ब्याज के लिए आपूर्ति और मांग वक्र रेखा में परिवर्तन, विशेषकर मांग के स्तर में कुल गिरावट के कारण अपस्फीति आती है। अर्थात् पूरी अर्थव्यवस्था में कितना क्रय करने की इच्छा में कितनी गिरावट आई है और माल की कीमतों में कितनी वृद्धि होने जा रही है। माल की कीमतें गिर रही है इस कारण, उपभोगताओं को खरीदारी में तब तक के लिए विलम्ब का प्रोत्साहन प्राप्त होता है जब तक कि कीमतों में और गिरावट न आए, बदले में यह समग्र आर्थिक गतिविधि को अपस्फीतिकर घुमाव देते हुए कम कर देता है।
0.5
2,024.065776
20231101.hi_190090_4
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अपस्फीति
चूंकि इस निष्क्रिय क्षमता से निवेश में भी गिरावट आती है, फलस्वरूप आगे चलकर भी कुल मांग में कटौती का कारण बन जाती है। यह अपस्फीतिकारक घुमाव है। कुल मांग की गिरावट का प्रत्युत्तर उत्साहवर्धक है या तो मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि के मार्फ़त केंद्रीय बैंक से हों, या फिर राजकोषीय प्राधिकारी के द्वारा मांग में वृद्धि कर निजी कंपनियों के लिए उपलब्ध ब्याज दर पर ऋण लेकर हो।
1
2,024.065776
20231101.hi_190090_5
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अपस्फीति
मुद्रास्फीति का विपरीत प्रभाव पड़ता है और इस प्रकार पहले ही व्यापारिक मंदी आ जाती है। उदाहरण के लिए, इन आवश्यक वस्तुओं की कीमतें 2008 साल की व्यापारिक मंदी से पहले ही आसमान छूने लगीं।
0.5
2,024.065776
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अपस्फीति
हाल फ़िलहाल की आर्थिक विचारधारा में, अपस्फीति जोखिम से जुड़ी हुई है: जहां परिसंपत्तियों पर जोखिम-समायोजित प्रतिलाभ नीचे उतर कर नकारात्मक हो जाते हैं, निवेशक और क्रेता निवेश करने यहां तक कि सबसे ठोस प्रतिभूतियों में भी निवेश करने की बजाय मुद्रा बटोरेंगे और जमा करेंगे। इससे एक ऐसी सैद्धान्तिक परिस्थिति पैदा हो सकती है, जिसपर चल निधि के जालकी व्यावहारिक संभावना पर काफी बहस हो चुकी है। एक केंद्रीय बैंक, सामान्यतया मुद्रा के लिए ऋणात्मक ब्याज धार्य नहीं कर सकता है और यहां तक कि शून्य ब्याज के प्रभाव से अक्सर थोड़े ऊंचे ब्याज दरों की तुलना में कम उत्साहवर्धक प्रभाव पैदा हो जातें हैं। आतंरिक अर्थव्यवथा प्रणाली में ऐसा इसलिए होता है कि शून्य ब्याज धार्य करने का अर्थ सरकारी प्रतिभूतियों पर शून्य रिटर्न पाना होगा, अथवा अल्पावधि की परिपक्वता पर ऋणात्मक रिटर्न. खुली अर्थव्यवस्था में, यह चल व्यापार को जन्म देती है और आयात के लिए ऊंची कीमतें निर्धारित कर निर्यात को उसी दर्जे तक बढ़ावा दिये बिना मुद्रा का अवमूल्यन करती हैं।
0.5
2,024.065776
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अपस्फीति
मुद्रावादी सिद्धांत में, अपस्फीति का संबंध निरंतर घटते हुए मुद्रा वेग अथवा लेनदेन की संख्या से है। इसके लिए मुद्रा की आपूर्ति के नाटकीय संकुचन को जिम्मेदार ठहराया गया है, शायद घटती हुई विनिमय दर के प्रत्युत्तर में, अथवा स्वर्णमानक या अन्य बाह्य मौद्रिक आधारभूत आवश्यकताओं के प्रत्युत्तर में.
0.5
2,024.065776
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अपस्फीति
अपस्फीति को आमतौर पर ऋणात्मक समझा जाता है, क्योंकि इसके कारण उधारकर्ताओं और अर्थसुलभ आस्तियों के धारकों से संपत्ति का हस्तांतरण हो जाता है, जिससे संचयकर्ताओं एवं मुद्रा तथा अर्थसुलभ परिसंपत्तियों के धारकों को लाभ पहुंचता है। इस अर्थ में यह मुद्रास्फीति के ठीक विपरीत है (अथवा चरम, उच्च स्फीति की दशा में), जो मुद्रा धारकों एवं उधारदाताओं (संचयकर्ताओं) के लिए उधारकर्ताओं तथा अल्पावधि खपत के पक्ष में कर लगाने के समान है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में, मांग में गिरावट (जो अक्सर ऊंची ब्याज दर के कारण आती है) के कारण अपस्फीति आती है और यह मंदी से जुड़ी होती है और (शायद ही कभीं) दीर्घकालिक आर्थिक मंदी से जुड़ी हो।
0.5
2,024.065776
20231101.hi_19712_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
चुनार
चुनार किला और नगर के पश्चिम में गंगा, पूर्व में पहाड़ी जरगो नदी उत्तर में ढाब का मैदान तथा दक्षिण में प्राकृतिक सुन्दरता का विस्तार लिए विन्ध्य पर्वत की श्रृंखलाएँ हैं जिसमें अनेक जल प्रपात, गढ़, गुफा और घाटियाँ हैं।
0.5
2,021.694542
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
चुनार
चुनारगढ़ किला उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में वाराणसी से 45 किलोमीटर की दूरी पर चुनार शहर मे स्थित है। चुनारगढ़ फोर्ट 56 ई.पू. में उज्जैन के राजा महाराजा विक्रमादित्य द्वारा निर्मित किया गया है। चुनारगढ़ किला भारत के उन किलो मे से एक है जो आज भी जिवित है। काशी (वाराणसी) और विन्ध्य क्षेत्र के बीच स्थित होने के कारण चुनार क्षेत्र भी ऋषियों-मुनियों,महर्षियों, राजर्षियों, संत-महात्माओं, योगियों-सन्यासियों, साहित्यकारों इत्यादि के लिए आकर्षण के योग्य क्षेत्र रहा है। सोनभद्र सम्मिलित मीरजापुर व चुनार क्षेत्र सभी काशी के ही अभिन्न अंग थे। चुनार प्राचीन काल से आध्यात्मिक, पर्यटन और व्यापारिक केन्द्र के रूप में स्थापित है। गंगा किनारे स्थित होने से इसका सीधा व्यापारिक सम्बन्ध कोलकाता से था और वनों से उत्पादित वस्तुएँ का व्यापार होता था। चुनार किला और नगर के पश्चिम में गंगा, पूर्व में पहाड़ी जरगो नदी उत्तर में ढाब का मैदान तथा दक्षिण में प्राकृतिक सुन्दरता का विस्तार लिए विन्ध्य पर्वत की श्रृंखलाएँ हैं जिसमें अनेक जल प्रपात, गढ़, गुफा और घाटियाँ हैं।
0.5
2,021.694542
20231101.hi_19712_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
चुनार
सतयुग में एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गयी थी, हुआ यह था कि एक प्रतापी, धर्मपरायण, प्रजावत्सल, सेवाभावी, दानवीर, सौम्य, सरल यानी सर्वगुण सम्पन्न राजा बलि हुये। लोग इसके गुण गाने लगे और समाजवादी राज्यवादी होने लगे। राजा बलि का राज्य बहुत अधिक फैल गया। समाजवादियों के समक्ष यानी मानवजाति के समक्ष एक गम्भीर संकट पैदा हो गया कि अगर राज्य की अवधारणा दृढ़ हो गयी तो मनुष्य जाति को सदैव दुःख, दैन्य व दारिद्रय में रहना होगा क्योंकि अपवाद को छोड़कर राजा स्वार्थी होगें, परमुखपेक्षी व पराश्रित होगे। अर्थात अकर्मण्य व यथास्थिति वादी होगे, यह भयंकर स्थिति होगी परन्तु समाजवादी असहाय थे। राजा बलि को मारना संभव न था और उसके रहते समाजवादी विचारधारा का बढ़ना सम्भव न था। ऐसी स्थिति में एक पुरूष कीआत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी। वह राजा बलि से थोड़ी सी भूमि समाज या गणराज्य के लिए माँगा। चूँकि राजा सक्षम और निश्चिंत था कि थोड़ी भूमि में समाजया गणराज्य स्थापित करने से हमारे राज्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए उस पुरूष को राजा ने थोड़ी भूमि दे दी। जिस पर उसने स्वतन्त्र, सुखी, स्वराज आधारित समाज-गणराज्य स्थापित किया और उसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और वह राजा बलि के सुराज्य को भी समाप्त कर दिया और समाज या गणराज्य की स्थापना की गयी। चूँकि यह पुरूष बौना अर्थात् छोटे कद का तथा स्वभावऔर ज्ञान में ब्राह्मण गुणों से युक्त था इसलिए कालान्तर में इसे भगवान विष्णु के पाचवें अवतार वामन अवतार का नाम दिया गया। चूँकि गणराज्य स्थापना का पहला चरण (आदि चरण) का क्षेत्र यह चुनार क्षेत्र ही था इसलिए इसका नाम चरणाद्रि पड़ा जो कालान्तर में चुनार हो गया। पहला चरण जिस भूमि पर पड़ा वह चरण के आकार का है। हमारे प्राचीन भूगोलविज्ञानियों ने अपने सर्वेक्षणों से यह पता लगा लिया कि विन्ध्य की सुरम्य उपत्यका में स्थित यह पर्वत मानव के चरण के आकार का है।
0.5
2,021.694542
20231101.hi_19712_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
चुनार
विन्ध्य पर्वत शृंखला के इस पहाड़ी पर ही हरिद्वार से मैदानी क्षेत्र में बहने वाली गंगा का और विन्ध्य पर्वत की श्रृंखला से पहली बार संगम हुआ है जिस पर चुनार किला स्थित है। अनेक स्थानों पर वर्णन है कि श्रीराम यहीं से गंगा पार करके वनगमन के समय चित्रकूट गये थे। फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रन्थ ”राम कथा: उद्भव और विकास“ के अनुसार कवि वाल्मीकि की तपस्थली चुनार ही है इसलिए कहीं-कहीं इसे चाण्डालगढ़ भी कहा गया है। इसे पत्थरों के कारण पत्थरगढ़, नैना योगिनी के तपस्थली के कारणनैनागढ़, भर्तृहरि के कारण इसे भर्तृहरि की नगरी भी कहा जाता है।
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2,021.694542
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
चुनार
वर्ष 1531 में बाबर के बेटे हुमायूं ने शेरशाह के कब्जे से चयक करने के लिए उत्तर प्रदेश में चुनारगढ़ किले का प्रयास किया। लेकिन वह बुरी तरह से हार गया था। काफी समय बाद 1574 में सम्राट अकबर ऩे चुनारगढ़ किले पर कब्जा कर लिया जब शेर शाह सूरी का निधन हो गया। उत्तर प्रदेश में चुनारगढ़ फोर्ट मुगल सम्राटों के कब्जे के तहत 1772 तक था लेकिन बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मुगलों से उत्तर प्रदेश में चुनारगढ़ किले पर कब्जा कर लिया।
1
2,021.694542
20231101.hi_19712_11
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चुनार
उत्तर प्रदेश में चुनारगढ़ किले के स्थापत्य शैली के ठीक एक मिश्रण को दर्शाता है। चुनारगढ़ किला उत्तर प्रदेश के अंदर प्रभावशाली संरचनाये आ गये है। वहाँ आज मृत धूपघड़ी, शायद राजा विक्रमादित्य के पर्यवेक्षण के अंतर्गत निर्माण किया है। चुनारगढ़ किला गंॱगा नदि के किनारे बसा हूआ है।
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चुनार
चुनार में दो इंटर कालेज, एक डिग्री कालेज तथा एक संस्कृत महाविद्यालय है। यहां पर एक रेलवे स्टेशन भी है।
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2,021.694542
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चुनार
शहर में यातायात का मुख्य साधन इक्का, ताँगा (घोड़ा गाड़ी) था, लेकिन अब इसका स्थान ऑटो रिक्शा ने ले लिया है। सड़क ऊँची नीची होने के कारण साईकिल-रिक्शा यहाँ नहीं चलते।
0.5
2,021.694542
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चुनार
चुनार के आसपास सबसे ज्यादा दर्शनीय स्थानों में से एक यहाँ का प्रसिद्ध माँ दुर्गा खोह मन्दिर है जो कि चुनार बस स्टैण्ड से मात्र दो किलोमीटर शक्तेशगढ़ रोड़ पर विंध पर्वत मालाओं के मध्य स्थित है।
0.5
2,021.694542
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यूनिक्स
AT&T ने यूनिक्स V प्रणली में ताला फ़ाइल के रूप में विभिन्न विशेषताओं जैसे सिस्टम प्रशासन स्ट्रीम्स IPC के नए रूपों, दूरस्थ फाइल व्यवस्था और टीएलआई (TLI) सहित बहुत सी विशेषताओं को जोड़ा. AT एंड T ने सन माइक्रोसिस्टम्स के साथ काम करवाया और 1987 और 1989 के बीच क्सेनिक्स (Xenix), BSD, सनOS, सिस्टम V से विलय सुविधाओं को सिस्टम V रिलीज़ 4 (SVR4) में X/ओपन के स्वतंत्र रूप से मिला दिया। इस नए रिलीज ने पिछली सभी सुविधाओं को एक पैकेज में समेकित कर दिया और प्रतिस्पर्धा संस्करणों के अंत की शुरुआत हुई। इससे लाइसेंस फीस की भी वृद्धि हुई।
0.5
2,015.882123
20231101.hi_8905_22
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यूनिक्स
इस समय के दौरान कई विक्रेता डिजिटल उपकरण, सूर्य, अदामक्स(addamax) और अन्य ने यूनिक्स के विश्वसनीय संस्करणों का निर्माण शुरू कर दिया उच्च सुरक्षा आवेदनों के लिए, जिनमें ज्यादातर नमूने सेना और कानून प्रवर्तन आवेदनों के थे।
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यूनिक्स
1990 में ओपन सॉफ्ट वेअर फाउंडेशन ने ओएसऍफ़/1 (OSF/1) जारी किया मेक और BSD पर आधारित उनका मानक यूनिक्स कार्यान्वयन. फाउंडेशन 1988 में शुरू हुआ और कई यूनिक्स संबंधित कम्पनियों द्वारा पोषित किया गया जो एसवीआर4 (SVR4) पर AT एंड T और सन के सहयोग का विरोध करते थे। बाद में, AT&T और अन्य लाइसेंसधारियों के समूह ने OSF का विरोध करने के उद्देश्य से एक ग्रुप बनाया "यूनिक्स इंटरनेशनल". विक्रेताओं की प्रतिस्पर्धा के बीच संघर्ष ने फिर से इस वाक्यांश "यूनिक्स युद्ध" को वृद्धि दी।
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यूनिक्स
1991 में, BSD विकासक के एक समूह डोन सिले, माइक करेल्स, बिल जोलित्ज़ और ट्रेंट हेन ने बर्कले सॉफ्टवेयर डिजाइन, इंक की स्थापना करने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय छोड़ दिया। BSDI यूनिक्स की एक पूरी तरह कार्यात्मक सस्ती और सर्वव्यापी इंटेल मंच है, जिसने उत्पादन की गणना के लिये कम खर्चीली हार्डवेयर का उपयोग करने के लिए; दिलचस्पी की एक लहर शुरू की। इसके स्थापित होने के कुछ ही समय बाद, बिल जोलिट्ज़ ने 386BSD वितरण का पीछा करने के लिये BSD को छोड़ दिया, फ्री BSD, ओपन BSD और नेट BSD का मुफ्त सॉफ्ट वेअर पूर्वज.
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यूनिक्स
1993 तक सबसे वाणिज्यिक विक्रेताओं ने यूनिक्स के अपने संस्करण को बदल दिया था, सिस्टम V पर आधारित कई BSD सुविधाओं के साथ शीर्ष पर जोड़ कर. कोस (COSE) के निर्माण के प्रस्ताव से उस साल यूनिक्स के प्रमुख खिलाडियों द्वारा युद्ध के सबसे कुख्यात चरण का अंत हो गया और उसके बाद 1994 में युआई (UI) और ओएसऍफ़ (OFS) का विलय हो गया। नई संयुक्त इकाई, जिसका नाम ओएसऍफ़ (OSF) रखा गया उस साल ओएसऍफ़/1 (OSF/1) पर काम करना बंद कर दिया। उस समय केवल डिजिटल विक्रेता इसेका उपयोग कर रहे थे जिन्होंने अपना विकास जारी रखा, जल्दी 1995 में अपना उत्पाद डिजिटल यूनिक्स पुन:चिन्हित किया।
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यूनिक्स
कुछ ही समय बाद यूनिक्स प्रणाली V रिलीज4 का उत्पादन हुआ, AT&T ने अपने सभी अधिकार यूनिक्स से नोवेल को बेच दिए। डेनिस ने इसकी उपमा बाइबल की कहानी एसाव के साथ की अपना जन्मसिद्ध अधिकार कहावत "मेस ऑफ़ पोटेज" के लिए बेचने के लिए। नोवेल ने अपना संस्करण, "यूनिक्सवेअर" का विकास इसके नेटवेअर को यूनिक्स प्रणाली रिलीस 4 के साथ विलय करते हुए किया। नोवेल ने इसे विंडोस NT के खिलाफ लड़ाई के लिए इसका उपयोग करने का प्रयतन किया, लेकिन उनको मुख्य बाजारों में काफी कष्ट का सामना करना पड़ा.
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2,015.882123
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यूनिक्स
1993 में नोवेल ने यूनिक्स के ट्रेडमार्क और प्रमाणिकता का अधिकार एक्स ओपन (X/open) संघ को हस्तांतरित करने का फैसला किया। 1996 में, एक्स ओपन (X/open) ओपन समूह बनाते हुए OSF के साथ विलय हो गया। ओपन समूह में अब विभिन्न मानक यह परिभाषित करते थे कि यूनिक्स परिचालन तंत्र क्या है और क्या नहीं, विशेषकर 1998 के बाद, एकल यूनिक्स विशिष्टता.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8
यूनिक्स
1995 में प्रशासन और मौजूदा यूनिक्स लाइसेस का समर्थन करते हुए साथ ही सिस्टम वी कोड आधार को आगे विकसित करने का अधिकार नोवेल द्वारा सांताक्रूज़ ऑपरेशन को बेच दिया गया। क्या नोवेल ने भी नक़ल का अधिकार (कॉपीराईट) बेचा यह वर्तमान में मुकद्दमे का विषय है (नीचे देखें).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8
यूनिक्स
1997 में, एपल कम्प्यूटर्स ने मेकिन्तोस परिचालन तंत्र के लिए एक नई नीव की मांग की और नेक्स्ट द्वारा विकसित एक परिचालन तंत्र नेक्स्ट स्टेप (NEXTSTEP) को चुना। यह मूल परिचालन तंत्र BSD और मेक कर्नेल पर आधारित था और एपल के अधिग्रहण के बाद इसका नाम डार्विन रख दिया गया। मैक OS X में डारविन के परिनियोजन से ऐसा हुआ। युसेनिक्स (USENIX) सम्मेलन में एक एपल कर्मचारी द्वारा दिए गये बयान के अनुसार डेस्कटॉप कम्प्यूटर बाज़ार में सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली यूनिक्स आधारित प्रणाली.
0.5
2,015.882123
20231101.hi_214956_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A8
इंद्रायन
पापड़, पिंदा आदि नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में कॉलोसिंथ या 'बिटर ऐपल' तथा लैटिन में 'सिट्रलस कॉलोसिंथस' (Citrullus colocynthis) कहते हैं। अन्य दो वनस्पतियों को भी इंद्रायन कहते हैं।
0.5
2,011.512904
20231101.hi_214956_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A8
इंद्रायन
इसके फल के गूदे को सुखाकर ओषधि के काम में लाते हैं। आयुर्वेद में इसे शीतल, रेचक और गुल्म, पित्त, उदररोग, कफ, कुष्ठ तथा ज्वर को दूर करनेवाला कहा गया है। यह जलोदर, पीलिया और मूत्र संबंधी व्याधियों में विशेष लाभकारी तथा धवलरोग (श्वेतकुष्ठ), खाँसी, मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, रक्ताल्पता और श्लीपद में भी उपयोगी कहा गया है।
0.5
2,011.512904
20231101.hi_214956_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A8
इंद्रायन
यूनानी मतानुसार यह सूजन को उतारनेवाला, वायुनाशक तथा स्नायु संबंधी रोगों में, जैसे लकवा, मिर्गी, अधकपारी, विस्मृति इत्यादि में लाभदायक है। यह तीव्र विरेचक तथा मरोड़ उत्पन्न करनेवाला है, इसलिए दुर्बल व्यक्ति को इसे न देना चाहिए। इसकी मात्रा डेढ़ से ढाई माशे तक की होती है। इसका चूर्ण तीन माशे तक बबूल की गोंद, खुरासानी अजवायन के सत्व इत्यादि के साथ, जो इसकी त्व्रीाता को घटा देते हैं, गोलियों के रूप में दिया जाता हैं।
0.5
2,011.512904
20231101.hi_214956_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A8
इंद्रायन
रासायनिक विश्लेषण से इसमें कुछ उपक्षार (ऐल्कलॉड) तथा कॉलोसिंथिन नामक एक ग्लूकोसाइड, जो इस ओषधि का मुख्य तत्त्व है, पाए गए हैं। ब्रिटिश मटेरिया मेडिका के अनुसार इससे ज्वर उतरता है। इसका उपयोग त्व्रीा कोष्ठबद्धता, जलोदर, ऋतुस्राव तथा गर्भस्राव में भी किया जा सकता है।
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इंद्रायन
लाल इंद्रायन का लैटिन नाम ट्रिकोसेंथन पामाटा है। इसे संस्कृत तथा बँगला में महाकाल कहते हैं। इसकी बेल बहुत लबी तथा पत्ते दो से छह इंच के व्यास के, त्रिकोण से सप्तकोण तक होते हैं। फूल नर और मादा तथा श्वेत रंग के, फल कच्ची अवस्था में नारंगी रंग के, किंतु पकने पर लाल तथा १० नांरगी धारियोंवाले होते हैं। फल का गूदा हरापन लिए काला होता है तथा फल में बहुत से बीज होते हैं। इस पौधे की जड़ बहुत गहराई तक जाती है और इसमें गाँठें होती हैं।
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2,011.512904
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इंद्रायन
रासायनिक विश्लेषण से इसके फल के गूदे में कॉलोसिंथिन से मिलता जुलता ट्रिकोसैंथिन नामक पदार्थ पाया गया है। लाल इंद्रायन भी त्व्रीा विरेचक है। आयुर्वेद में इसे श्वास और फुफ्फुस के रोगों में लाभदायक कहा गया है।
0.5
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इंद्रायन
जंगली या छोटी इंद्रायन को लैटिन में क्यूक्युमिस ट्रिगोनस कहते हैं। इसकी बेल और फल पूर्वोक्त दोनों इंद्रायनों से छोटे होते हैं।
0.5
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इंद्रायन
इसके फल में भी कॉलोसिंथिन से मिलते जुलते तत्त्व होते हैं। इसका हरा फल स्वाद में कड़वा, अग्निवर्धक, स्वाद को सुधारनेवाला तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करनेवाला बताया गया है।
0.5
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इंद्रायन
"Evaluation of Citrullus colocynthis, a desert plant native in Israel, as a potential source of edible oil"
0.5
2,011.512904
20231101.hi_12957_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
पानी की गैसीय अवस्था या जलवाष्प को भाप (steam) कहते हैं। शुष्क भाप अदृश्य होती है, परंतु जब भाप में जल की छोटी-छोटी बूँदें मिली होती हैं तब उसका रंग सफेद होता है, जैसा रेल के इंजन से निकलती भाप में स्पष्ट दिखाई देता है। जब भाप में जल की बूँदे उपस्थित होती हैं, तो इसे 'आर्द्र भाप' (wet steam) कहते हैं। यदि जल की बूँदों का सर्वथा अभाव हो तो यह 'शुष्क भाप' (dry steam) कहलाती है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
पानी गरम करने से इसका आयतन थोड़ा बढ़ता है। साधारण दाब पर पानी का महत्तम ताप 100 डिग्री सें. तक पहुँचता है। यदि इसे और अधिक गरम किया जाए तो जल की मात्रा धीरे-धीरे वाष्प में परिवर्तित होने लगती है। भाप का आयतन बराबर मात्रा के जल के आयतन की अपेक्षा बहुत अधिक होता है। जिस ताप पर जल उबलता है, वह जल का क्वथनांक होता है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
मानक दाब पर जल क्वथनांक 100 सें. है। पर दाब के घटने बढ़ने से क्वथनांक भी घटता-बढ़ता है। पहाड़ों पर वायुमंडल की दाब कम होती है। अत: वहाँ पानी निम्न ताप पर उबलने लगता है। प्रत्येक निश्चित दाब के लिए क्वथन एक निश्चित ताप पर होता है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
जल को भाप में बदलने के लिए जो ऊष्मा आवश्यक होती है उसे भाप की गुप्त ऊष्मा (Latent heat) कहते हैं। संख्यात्मक रूप से, ऊष्मा का वह मान जो एक ग्राम जल के ताप को 1 सें. बढ़ाने के लिए आवश्यक होता है, जल की गुप्त उष्मा कहलाता है। एक ग्राम जल को, जिसका ताप 100 सें. है, पूर्णतया वाष्पित करने में 536 कैलोरी उष्मा की आवश्यकता होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
जब भापइंजन में भाप का बहुत अधिक व्यावहारिक उपयोग होने लगा, तब भी इसके गुणों का सैद्धांतिक अध्ययन नहीं हुआ था। अतएव इसके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं प्राप्त थी। भाप का अध्ययन 19वीं सदी में जॉन डाल्टन, जेम्स वाट, रेनो इत्यादि ने किया था। भाप के गुणों के बारे में आधुनिकतम समीक्षा जोसेफ एच. कीनान (Joseph H. Keenan) की मानी जाती है, जो 1936 ई. में प्रकाशित हुई थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
भाप के गुणों का अध्ययन करने के लिए पूर्ण ऊष्मा (enthalpy) का उपयोग किया जाता है। पूर्ण ऊष्मा की मात्रा निम्नलिखित समीकरण से प्राप्त होती है :
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
यहाँ u आंतरिक ऊर्जा, p दाब, v आयतन और A गुणांक है, जो कार्य के एकक को ऊष्मा के एकक में परिणत करता है। विभिन्न दाब और ताप पर पूर्ण ऊष्मा का मान इसका गुण व्यक्त करता है। कीनान की समीक्षा में विभिन्न दाब और ताप पर पूर्ण ऊष्मा का मान सारणी के रूप में दिया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
यदि गरम वाष्प को ठंडा किया जाए तो इसका ताप घटते हुए 100 सें. तक आता है और उसके बाद द्रवण आरंभ हो जाता है। द्रवण के लिए छोटे-छोटे कणों की आवश्यकता होती है, जिनपर वाष्प जमता है। यदि वाष्प इस प्रकार के कणों से सर्वथा रहित हो उसे शीघ्रता से ठंडा किया जाए, तो वाष्प का ताप 100 सें. से भी नीचे आ सकता है। इस अवस्था को अतिशीतित भाप (Supercooled steam) कहते हैं। यह अवस्था अस्थायी होती है और शीघ्र ही वाष्प द्रवित होने लगती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%AA
भाप
वाष्प को यांत्रिक ऊर्जा के लिए उपयोग करने का प्रथम श्रेय ऐलेग्जैंड्रिया के "हीरो" (Hero) नामक व्यक्ति का है। इन्होंने भाप की सहायता से छोटे खिलौने चलाने की व्यवस्था की और छोटे-मोटे आश्चर्य दिखाए। बड़े पैमाने पर वाष्प का उपयोग 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के आरंभ में हुआ था। जेम्स वाट ने अपने आविष्कार से इसका उपयोग बहुत बढ़ाया। भाप का अधिकांश उपयोग ऊष्मा को यांत्रिक ऊर्जा के रूप में परिवर्तित करने में होता है। कोयले इत्यादि को जलाकर जो ऊष्मा प्राप्त होती है, उससे जल का क्वथन होता है। इस भाप को ऊँचे ताप और दाब पर करके उससे इंजन चलाए जाते हैं। इंजन आदि के लिए अतितप्त भाप का उपयोग अधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि इससे इंजन की दक्षता अधिक होती है। इसके अतिरिक्त भाप अतितप्त होने से इंजन के पुर्जों का अपरदन (erosion) कम होता है तथा ऊष्मा की हानि भी कम होती है।
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2,010.288682
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE
ज़फ़रनामा
भारत के गौरवमयी इतिहास में दो पत्र विश्वविख्यात हुए। पहला पत्र छत्रपति शिवाजी महाराज के द्वारा राजा जयसिंह को लिखा गया तथा दूसरा पत्र गुरु गोविन्द सिंह जी के द्वारा शासक औरंगज़ेब को लिखा गया, जिसे ज़फ़रनामा अर्थात 'विजय पत्र' कहते हैं। नि:संदेह गुरु गोविंद सिंह का यह पत्र आध्यात्मिकता, कूटनीति तथा शौर्य की अद्भुत त्रिवेणी है।
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2,009.156236
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE
ज़फ़रनामा
गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय प्रतीक थे।
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2,009.156236
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ज़फ़रनामा
अपने पिता गुरु तेग बहादुर और अपने चारों पुत्रों के बलिदान के पश्चात १७०६ ई. में खिदराना की लड़ाई के पश्चात गुरु गोविंद सिंह ने भाई दया सिंह को एक पत्र (जफरनामा) देकर मुगल सम्राट औरंगजेब के पास भेजा। उन दिनों औरंगजेब दक्षिण भारत के अहमदनगर में अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रहा था। भाई दया सिंह दिल्ली, आगरा होते हुए लम्बा मार्ग तय करके अहमदनगर पहुंचे। गुरु गोविंद सिंह के इस पत्र से औरंगजेब को उत्तर भारत, विशेषकर पंजाब की वास्तविक स्थिति का पता चला। वह समझ गया कि पंजाब के मुगल सूबेदार के गलत समाचारों से वह भ्रमित हुआ था, साथ ही उसे गुरु गोविंद सिंह की वीरता तथा प्रतिष्ठा का भी अनुभव हुआ। औरंगजेब ने जबरदार और मुहम्मद यार मनसबदार को एक शाही फरमान देकर दिल्ली भेजा, जिसमें गुरु गोविंद सिंह को किसी भी प्रकार का कष्ट न देने तथा सम्मानपूर्वक लाने का आदेश था। परन्तु गुरु गोविंद सिंह को काफी समय तक यह ज्ञात नहीं हुआ कि भाई दया सिंह अहमदनगर में औरंगजेब को जफरनामा देने में सफल हुए या नहीं। अत: वे स्वयं ही अहमदनगर की ओर चल पड़े। अक्तूबर, १७०६ ई. में उन्होंने दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने मारवाड़ के मार्ग से दक्षिण जाने का विचार किया। मार्ग में राजस्थान के अनेक राजाओं ने उनका स्वागत किया। बापौर नामक स्थान पर उनकी भाई दया सिंह से भेंट हुई, जो वापस पंजाब लौट रहे थे। गुरु गोविंद सिंह को सभी समाचारों की जानकारी हुई। यात्रा के बीच में ही २० फ़रवरी १७०७ को उन्हें अहमदनगर में औरंगजेब की मौत का समाचार मिला, अत: उनकी औरंगजेब से भेंट न हो सकी।
0.5
2,009.156236
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ज़फ़रनामा
४२ वर्षीय एक आध्यात्मिक तथा वीरत्व के धनी महापुरुष की ९० वर्षीय मतान्ध तथा बर्बर औरंगजेब से भेंट होती तो क्या होता, कहना कठिन है। एक विद्वान ने लिखा है कि 'विश्वास, अविश्वास से मिलने चला था, किंतु उसके पहुंचने से पूर्व ही अविश्वास दम तोड़ चुका था।' जून, १७०७ ई. में जाजू नामक स्थान पर शहजादा मुअज्जम को 'बहादुरशाह' के नाम से सम्राट बनाया गया, जिसने गुरु गोविंद सिंह का राजकीय सम्मान किया।
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2,009.156236
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ज़फ़रनामा
ज़फ़रनामा का शाब्दिक अर्थ है 'जीत की चिट्ठी'। गुरु गोविंद सिंह ने इसे मूलत: फ़ारसी में लिखा है। इसमें मामूली परिवर्तन भी हुए हैं। अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद किये गये हैं। हिन्दी में इसका अनुवाद बालकृष्ण मुंजतर (कुरुक्षेत्र, १९९०) तथा जनजीवन जोत सिंह आनंद (देहरादून, २००६) ने किया। महेन्द्र सिंह ने गुरुमुखी में तथा सुरेन्द्र जीत सिंह ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया है। कुछ समय पूर्व नवतेज सिंह सरन ने भी इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। इस पत्र में फारसी में कुल १११ काव्यमय पद (शेर) हैं। जफरनामा में गुरु गोविंद सिंह ने वीरता तथा शौर्य से पूर्ण अपनी लड़ाइयों तथा क्रियाकलापों का रोमांचकारी वर्णन किया है। इस काव्यमय पत्र में एक-एक लड़ाई का वर्णन किसी में भी नवजीवन का संचार करने के लिए पर्याप्त है। इसमें खालसा पंथ की स्थापना, आनंदपुर साहिब छोड़ना, फ़तेहगढ़ की घटना, चालीस सिखों की शहीदी, दो गुरु पुत्रों का दीवार में चुनवाया जाना तथा चमकौर के संघर्ष का वर्णन है। इसमें मराठों तथा राजपूतों द्वारा औरंगजेब की करारी हार का वृत्तांत भी शामिल किया गया है। साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने औरंगजेब को यह चेतावनी भी दी है कि उन्होंने पंजाब में उसकी (औरंगजेब की) पराजय की पूरी व्यवस्था कर ली है।
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2,009.156236
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ज़फ़रनामा
गुरु गोविंद सिंह के ज़फ़रनामा में वर्णित मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ प्रमुख पदों का यहां भावार्थ देना उपयुक्त होगा। गुरु गोविंद सिंह ने जफरनामा का प्रारंभ ईश्वर के स्मरण से किया है। उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि 'मैंने खुदा की कसम खाई है, जो तलवार, तीर-कमान, बरछी और कटार का खुदा है और युद्धस्थल में तूफान जैसे तेज दौड़ने वाले घोड़ों का खुदा है।' उन्होंने औरंगज़ेब को सम्बोधित करते हुए लिखा, 'उसका (ईश्वर का) नाम लेकर, जिसने तुम्हें बादशाहत दी और मुझे धर्म की रक्षा की दौलत दी है, मुझे वह शक्ति दी है कि मैं धर्म की रक्षा करूं और सच्चाई का झंडा ऊंचा हो।' गुरु गोविंद सिंह ने इस पत्र में औरंगज़ेब को 'धूर्त', 'फरेबी' और 'मक्कार' बताया। साथ ही उसकी इबादत को 'ढोंग' कहा तथा उसे अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा भी बताया।
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ज़फ़रनामा
गुरु गोविंद सिंह ने अपने स्वाभिमान तथा वीरभाव का परिचय देते हुए लिखा, व्मैं ऐसी आग तेरे पांव के नीचे रखूंगा कि पंजाब में उसे बुझाने तथा तुझे पीने को पानी तक नहीं मिलेगा। व् गुरु गोविंद सिंह ने औरंगजेब को चुनौती देते हुए लिखा, 'मैं इस युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तुम दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना।' फिर लिखा, व्क्या हुआ (परवाह नहीं) अगर मेरे चार बच्चे (अजीत सिंह, जुझार सिंह, फतेह सिंह, जोरावर सिंह) मारे गये, पर कुंडली मारे डंसने वाला नाग अभी बाकी है।'
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ज़फ़रनामा
गुरु गोविंद सिंह ने औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखा, 'सिकंदर और शेरशाह कहां हैं? आज तैमूर कहां है, बाबर कहां है, हुमायूं कहां है, अकबर कहां है?' उन्होंने पुन: औरंगज़ेब को ललकारते हुए लिखा, 'अगर (तू) कमजोरों पर जुल्म करता है, उन्हें सताता है, तो कसम है कि एक दिन आरे से चिरवा दूंगा।' इसके साथ ही गुरु गोविंद सिंह ने युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हुए लिखा, 'जब सभी प्रयास किये गये हों, न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना सही है तथा युद्ध करना उचित है।' और अंत के पद में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा, 'शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे, पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है, उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।'
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ज़फ़रनामा
वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर का काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं का द्योतक है। अतीत से वर्तमान तक न जाने कितने ही देशभक्तों ने उनके इस पत्र से प्रेरणा ली है। गुरु गोविंद सिंह के व्यक्तित्व तथा कृतित्व की झलक उनके ज़फ़रनामा से प्रकट होती है। उनका यह पत्र संधि नहीं, युद्ध का आह्वान है। साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है। उनका यह पत्र पीड़ित, हताश, निराश तथा चेतनाशून्य समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला है। यह पत्र औरंगज़ेब के कुकृत्यों पर नैतिक तथा आध्यात्मिक विजय का परिचायक है।
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2,009.156236
20231101.hi_228460_25
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%81
कलरीपायट्टु
मेईपयाट्टू लचीलेपन पर केंद्रित है। ये भी 18 चरणों में विभाजित है, यह अभ्यासकर्ता को आक्रामक बनाता है और उसकी युद्ध की जागरूकता को बढाता है। इस कसरत का अभ्यास गति और चपलता के साथ किया जाना चाहिए.
0.5
2,002.724941
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कलरीपायट्टु
अदिथादा, चोट पहुचाने (अदि) और रोक पैदा करने (थाडू) शब्दों से आता है। ऊपर वर्णित अभ्यासों के विपरीत, अदिथादा के लिए दो या अधिक प्रशिक्षुओं की आवश्यकता होती है। जब एक प्रतिपादक हमला करता है, तो दूसरा रोकता है और फिर जवाबी हमला करता है।
0.5
2,002.724941
20231101.hi_228460_27
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कलरीपायट्टु
हमले को रक्षा की तरह कैसे इस्तेमाल करना है ये ओत्तोथारम सिखाता है। जैसा कि अदिथादा के साथ होता है, इसका अभ्यास दो प्रतिपादकों के द्वारा किया जाता है, लेकिन छात्रों के अनुभव के साथ इस संख्या को बढ़ाया जा सकता है।
0.5
2,002.724941
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कलरीपायट्टु
मिथारी ऐठ्नों, मुद्राओं और जटिल उछाल तथा घुमाव वाले कठोर शारीरिक क्रमों वाला प्राम्भिक चरण है। बारह मेईपयाट्टू अभ्यास, शरीर की बुनियादी मुद्राओं का पालन करते हुए तंत्रिका-पेशी समन्वय, संतुलन और लचीलेपन के लिए किये जाते हैं। कलारी पयट आक्रामकता में नहीं बल्कि स्वयं को अनुशासित करने से उत्पन्न होता है। इसलिए प्रशिक्षण की शुरुआत भौतिक शरीर को अनुशासित और मानसिक संतुलन को प्राप्त करने से होती है। यह युद्ध कला सीखने वाले के लिए ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। प्रशिक्षण के पहले चरण में शक्ति, लचीलापन, संतुलन और सहनशक्ति का विकास करने के लिए शारीरिक व्यायाम शामिल है। इसमें कूद, फर्श पर नीचे आसन, चक्करदार क्रम, पैर से चोट करना, आदि शामिल हैं। इसमें शरीर के प्रत्येक अंग को निपुण बनाने का प्रयास किया जाता है। ये अभ्यास दिमाग में सतर्कता लाते हैं और ये सतर्कता आगे के स्तरों में सिखाई जाने वाली आत्मरक्षा के क्रमों की प्रक्रियाओं को समझने में सहायक होते हैं।
0.5
2,002.724941
20231101.hi_228460_29
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%81
कलरीपायट्टु
एक बार छात्र शारीरिक रूप से सक्षम हो जाय तो, उनका परिचय लकड़ी के लम्बे हथियारों के साथ युद्ध के लिए होता हैं। पहले सिखाया जाने वाला हथियार बल्लम केत्तुकारी है, जो आमतौर पर लम्बाई में 5 फिट (1.5 मी) या जमीन से छात्र के माथे जितना लंबा होता है। दूसरा हथियार जो सिखाया जाता है वो चेरुवादी या मुचन है, जो एक तीन बालिश्त, लगभग ढाई फीट या 75 सेमी.लम्बी होती है। तीसरा सिखाया जाने वाला हथियार ओट्टा है, जो हाथी की सूड़ जैसी दिखने वाली एक लकड़ी की मुडी हुई छड़ी होती है। इसका सिरा गोल है और प्रतिद्वंद्वी के शरीर में महत्वपूर्ण स्थानों पर प्रहार करने के लिए इस्तेमाल होती है। इसे प्रमुख हथियार माना जाता है और सहनशक्ति, चपलता, शक्ति तथा कौशल विकसित करने का ये मूलभूत उपकरण है। ओट्टा के प्रशिक्षण में 18 क्रम होते हैं।
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कलरीपायट्टु
एक बार अभ्यास करने वाला लकड़ी के सभी हथियारों में कुशल हो जाता है तो, वह अन्कथारी (शाब्दिक अर्थ "युद्ध प्रशिक्षण") शुरू करता है, जिसकी शुरुआत धातु के हथियारों से होती है, उनकी घातक प्रकृति के कारण जबरदस्त एकाग्रता की आवश्यकता होती है। पहला सिखाया जाने वाला धातु का हथियार कधरा है, जो घुमावदार धार वाली कटार है। इसके बाद तलवार(वैल) और ढाल (परिचा) सिखाई जाती है। बाद के हथियारों में शामिल है भाला कुन्थम, त्रिशूल त्रिसूल और कुल्हाड़ी (वेंमज्हू) . आमतौर पर अंतिम सिखाया जाने वाला हथियार, लचीली तलवार (उरूमि या चुत्तुवल) है, ये एक बेहद खतरनाक हथियार है और सबसे कुशल छात्रों को ही सिखाया जाता है। ऐतिहासिक रूप से, अन्कथारी पूरा होने के बाद छात्र विशेषज्ञ बनने हेतु (जैसे विशेषज्ञ तलवारबाज या छडी योद्धा), अपने लिए एक हथियार का चुनाव करता है।
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कलरीपायट्टु
सभी हथियारों में महारत हासिल करने के बाद, अभ्यासकर्ता को नंगे हाथ से स्वयं की रक्षा करने की तकनीकों को सिखाया जाता है। इसमें शामिल हैं बाजू बांध, जूझना और दबाव बिदुओं पर चोट(मर्मम) . इसे सबसे उन्नत युद्ध कौशल माना जाता है, अतः गुरुक्कल बहुत थोड़े से, भरोसेमंद छात्रों को मर्मम का ज्ञान देते हैं।
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कलरीपायट्टु
यह दावा किया जाता है कि सीखे हुए योद्धा अपने विरोधियों को सिर्फ सही मर्मम (महत्वपूर्ण बिंदु) पर छू कर अक्षम कर सकते हैं या मार सकते हैं। तकनीक के दुरुपयोग को हतोत्साहित करने के लिए, ये केवल सबसे होनहार और शांत-चित्त व्यक्तियों को ही सिखाया जाता है। मर्मशास्त्रम मर्मम के ज्ञान पर जोर देता है और ये मर्म उपचार मर्मचिकित्सा के लिए भी इस्तेमाल होता है। मर्म उपचार की यह प्रणाली सिद्ध वैद्यम के तहत आती है, जिसके लिए ऋषि अगस्त्य और, उनके शिष्यों को श्रेय दिया जाता है। कलारी पयट के आलोचकों ने बताया है कि बाहरी तटस्थ व्यक्तियों पर मर्मम तकनीकों का उपयोग हमेशा सत्यापित परिणाम नहीं देता हैं।
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कलरीपायट्टु
मर्मम का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋगवेद में मिलता है, जहां इन्द्र, वृत्र के मर्मम पर वज्र से प्रहार करके उसे पराजित करता है। अथर्व वेद में भी मर्मम का सन्दर्भ मिलता है। वैदिक और महाकाव्यों में अनेक बिखरे हुए सन्दर्भ सूत्रों के साथ, ये तय हो जाता है कि भारत के प्राचीन योद्धा महत्वपूर्ण बिन्दुओं की जानकारी रखते थे और आक्रमण व रक्षा के लिए इसका उपयोग भी करते थे। सुश्रुत (6ठी शताब्दी ईसा पूर्व) ने सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 महत्वपूर्ण बिंदुओं की पहचान की और उन्हें परिभाषित किया था। इन 107 बिन्दुओं में से 64 को घातक रूप में वर्गीकृत किया गया है, यदि इन पर छड़ी या मुट्ठी से सही प्रहार से किया जाए तो ये खतरनाक हो सकता है। सुश्रुत के कार्य ने चिकित्सा की व्यवस्था आयुर्वेद को आधार प्रदान किया, जिसे विभिन्न भारतीय युद्ध कलाओं के साथ सिखाया जाता था, जिसका महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर जोर था, जैसे वर्म कलाई और मर्म आदि.
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अराजकतावाद
जर्मनी के निहिलिस्ट (नाशवादी) दार्शनिक मैक्स स्टर्नर को अराजकतावादी व्यक्तिवाद का प्रमुख चिंतक माना जाता है। इस विचार के मुताबिक व्यक्ति और उसकी सम्प्रभुता पूरी तरह से अनुलंघनीय रहनी चाहिए। स्टर्नर कहते हैं कि व्यक्ति को ईश्वर, राज्य या किसी भी नैतिकता की परवाह किये बिना अपनी मर्ज़ी से पहलकदमी ले कर सक्रिय रहने का अधिकार दिया जाना अनिवार्य है। हालाँकि इस किस्म के अराजकतावादी लेन-देन और समझौता (कांट्रेक्ट) के ज़रिये सामाजिक संबंध बनाने की वकालत करते हैं, पर व्यक्ति की निजता की बेतहाशा और अहंवादी पैरोकारी करने के कारण उनके कार्यक्रम की व्यावहारिकता काफ़ी कम हो जाती है। उन्नीसवीं सदी में अमेरिकी अराजकतावादी जोसैया वारेन ने इस तरह के अराजकतावाद के आर्थिक बंदोबस्त का एक खाका पेश करने की कोशिश की। उन्होंने मेहनत के घंटों का भंडार करने वाले ‘टाइम स्टोर्स’ की स्थापना की। उनकी तजवीज़ थी कि श्रम की मुद्रा के ज़रिये लोगों के बीच समतामूलक वाणिज्य हो सकता है। अमेरिकी अराजकतावादियों ने बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था की कड़ी आलोचना की। उन्होंने, विशेषकर लायसेंडर स्पूनर ने अमेरिकी संविधान पर ज़बरदस्त आक्रमण करते हुए उस समझौतापरक सिद्धांत की ख़ामियों को दिखाया जिसे राज्य की संस्था का आधार माना जाता है। व्यक्तिवादी अराजकतावाद की प्रेरणाएँ बीसवीं सदी में पनपे स्वतंत्रतावाद के विचार में ढूँढ़ी जा सकती हैं।
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अराजकतावाद
सामूहिकतावादी अराजकतावाद के प्रमुख चिंतक बकूनिन माने जाते हैं। सामूहिकतावादियों को न तो प्रूधों द्वारा की गयी छोटे किसानों और कारीगरों की तरफ़दारी पसंद थी और न ही वे कार्ल मार्क्स द्वारा प्रवर्तित समाजवादी विचार के समर्थक थे। मार्क्स के कम्युनिज़म को अधिनायकवादी करार देने वाला यह विचार एक ऐसे भविष्य की कल्पना करता है जिसमें मज़दूर संगठित हो कर पूँजी को अपने हाथ में ले लेंगे। संगठित मज़दूरों के हाथ में ही उत्पादन के साधन रहेंगे। सामूहिक फ़ैसले के आधार पर आमदनी का वितरण होगा। जो जितना श्रम करेगा उसका हिस्सा भी उतना ही बड़ा होगा।
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अराजकतावाद
परस्परतावादी अराजकतावाद व्यक्तिवाद और सामूहिकतावाद बीच रास्ता था जिसके सूत्रीकरण का श्रेय प्रूधों को जाता है। प्रूधों ने सम्पत्ति और कम्युनिज़म के बीच तालमेल बैठाते हुए एक ऐसी आर्थिक प्रणाली की वकालत की जिसके तहत व्यक्ति को निजी या सामूहिक तौर पर अपने उत्पादन के साधनों (जैसे औज़ार, ज़मीन आदि) का मालिक होने का अधिकार तो होगा, पर उसे उजरत अपने श्रम के मुताबिक ही मिलेगी ताकि समाज में समानता कायम रखी जा सके। इस अर्थव्यवस्था में विनिमय इस नैतिक मूल्य पर आधारित था कि व्यक्ति केवल उतना ही माँगेगा जितना वह स्वयं देने के लिए तैयार हो। प्रूधों ने उत्पादकों को न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण देने वाले बैंकों की स्थापना का प्रस्ताव भी किया। इसमें कोई शक नहीं कि प्रूधों के आर्थिक प्रयोग कामयाब नहीं हुए, पर उनके फ़्रांसीसी अनुयायियों ने पहले कम्युनिस्ट इंटरनैशनल की शुरुआत पर अपना प्रभाव छोड़ा। बाद में सामूहिकतावादियों ने उन्हें किनारे धकेल दिया।
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अराजकतावाद
साम्यवादी अराजकतावाद यह मान कर चलता है कि कम्युनिज़म की स्थापना के लिए राज्य की संस्था अनावश्यक है। प्रिंस क्रोपाटकिन इस धारा के प्रमुख दार्शनिक थे। उनका कहना था कि मनुष्य परस्पर एकता और सहयोग के नैसर्गिक गुणों सम्पन्न है जिनके प्रभाव में सम्पत्ति संबंधी विभेद अपने-आप ख़त्म होते चले जाएँगे। समाज का हर व्यक्ति शामलाती संसाधनों का इस्तेमाल करेगा। मज़दूरों की स्वयंसेवी एसोसिएशनें आपूर्ति सम्बन्धी ज़रूरतों के हिसाब से उत्पादन-प्रक्रिया का नियोजन करेंगी। कम्यून अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की शिनाख्त करेगा जिससे माँग तय होगी। कम्यूनों का आपसी महासंघ होगा जो सड़कें बनाने, रेलवे प्रणाली और अन्य सम्पर्क-संचार की सुविधाओं की फ़िक्र करेगा। लोगों को काम करने के लिए भौतिक प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं होगी। निजी सम्पत्ति की ग़ैर-मौजूदगी के तहत समाज में अपराधियों से निबटने के लिए अनौपचारिक तौर-तरीके अपनाये जाएँगे और कानून की दमनकारी मशीनरी की जरूरत नहीं पड़ेगी। साम्यवादी अराजकतावादियों का ख़याल था कि जब तक निजी सम्पत्ति पर आधारित विभेदों को ख़त्म करने लायक मानवीय एकता नहीं बन जाती, तब तक सामूहिकतावादी नज़रिया अपनाया जा सकता है।
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अराजकतावाद
उन्नीसवीं शताब्दी का बौद्धिक-राजनीतिक इतिहास मार्क्सवादियों और अराजकतावादियों के बीच बहस से भरा हुआ है। अराजकतावादी चाहते थे कि राज्य की संस्था को फ़ौरन मंसूख करने की तजवीज़ की जानी चाहिए, पर मार्क्सवादी राज्य को ख़त्म करने के पक्षधर होते हुए भी पहले मज़दूरों के राज्य की स्थापना करना चाहते थे। अराजकतावादियों का कहना था कि सर्वहारा का राज्य भी कुल मिला कर विषमता और उत्पीड़न का माध्यम बन जाएगा। बकूनिन तो समाजवादी राज्य को एक फ़ौजी बैरक की संज्ञा देते थे जिसमें लोग नगाड़े की आवाज पर सोएंगे, जागेंगे और श्रम करेंगे। यह एक ऐसा राज्य होगा जिसमें चालाक और शिक्षित लोग सरकारी सुविधाएँ भोगेंगे। 1846 में अपनी रचना दर्शन की दरिद्रता के ज़रिये मार्क्स ने प्रूधों की कड़ी आलोचना की। प्रथम कम्युनिस्ट इंटरनैशनल में जब बकूनिनपंथियों ने प्रूधों के अनुयायियों को पराजित कर दिया तो उन्हें मार्क्स के अनुयायियों से लोहा लेना पड़ा। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप 1872 में इंटरनैशनल टूट गया। राज्य की संस्था की मुख़ालफ़त करने के कारण अराजकतावादी किसी भी तरह के संसदीय विचार के भी ख़िलाफ़ रहते हैं। वे चुनावों भाग नहीं लेते। समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण में विश्वास के कारण ज्यादातर अराजकतावादी सभी तरह के प्राधिकार और आर्थिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ जन-विद्रोह की अपील करने का कार्यक्रम पेश करते हैं। चूँकि उनकी योजना में किसी बड़े प्राधिकार की गुंजाइश नहीं है, इसलिए वे स्वतःस्फूर्त और स्थानीय स्तर की छोटी-छोटी बग़ावतों की रणनीति अपनाने की वकालत करते हैं। साम्यवादी अराजकतावाद ने उन्नीसवीं सदी के आख़िरी सालों में व्यक्तिगत स्तर पर आतंकवादी कार्रवाइयों की मुहिम भी चलाई जिसके तहत राजनेताओं और प्रमुख उद्योगपतियों की हत्याएँ भी की गयीं।
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अराजकतावाद
उन्नीसवीं सदी में स्पेन, इटली, बेल्जियम और फ़्रांस में अराजकतावादी काफ़ी सक्रिय थे। अमेरिका में १९०५ में फ़्रांस के अनारको-सिंडिकलिज़म से प्रेरित टे्रड यूनियन आंदोलन भी चला। बीसवीं सदी में साठ और सत्तर के दशक में बौद्धिक हलकों में अराजकतावादी विचार की साख बढ़ती हुई दिखायी दी। पॉल गुडमेन और डेनियल गुइरिन ने शिक्षा और सामुदायिकता के क्षेत्र में अराजकतावादी हस्तक्षेप किये। आजकल अराजकतावादी सिद्धांत का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखायी देता। लेकिन, इस सर्वसत्तावाद, अधिनायकवाद और निरंकुशता के आलोचकों के तर्कों में इस सिद्धांत की आहटें सुनी जा सकतीं हैं। समाजवादी विचार परम्परा में अराजकतावाद किसी न किसी रूप में हमेशा मौजूद रहता है। उदारतावादियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी से संबंधित अपने ढुलमुलपन से मुक्त करने में भी अराजकतावाद की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। शांतिवाद के तहत सभी तरह की हिंसा से मुक्ति के आग्रह में भी इस विचार की प्रेरणाएँ रही हैं। स्वतंत्रतावाद के विचार पर तो अराजकतावाद की छाप स्पष्ट है ही, पर्यावरणवादी आंदोलन ने भी अपने कई आग्रह उससे प्राप्त किये हैं।
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अराजकतावाद
टुटपुंजिया बुर्जुआ सामाजिक-राजनीतिक धारा जो समस्त सत्ता तथा राज्य की शत्रु है, लघु निजी स्वामित्व तथा लघु कृषक अर्थव्यवस्था के हितों को बड़े पैमाने के उत्पादन आधारित समाज की प्रगति के मुक़ाबले रखती है। अधिकांश अराजकतावादी निजी स्वामित्व को समाप्त करना चाहते हैं और उसकी जगह समस्त सम्पत्ति पर सामुदायिक स्वामित्व स्थापित करने का समर्थन करते हैं। सिद्धांततः अराजकतावाद को मुख्यतः आदर्शवादी यूटोपिया तथा वस्तुवादी साम्यवाद के रूप में व्यवहृत किया जाता है।
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अराजकतावाद
यूटोपियाई अराजकतावाद की नींव है व्यक्तिवाद, आत्मवाद तथा संकल्पवाद। इस शाखा के प्रमुख उन्नायकों में श्मिड्ट (श्टिर्नेर), प्रूंदों तथा बाकूनिन का नाम उल्लेखनीय है। यह सिद्धांत १९ वीं सदी के दौरान फ्रांस, इटली तथा स्पेन में व्यापक रूप में प्रचलित था। वह शोषण के विरुद्ध नैतिक शक्ति तथा हृदय परिवर्तन सदृश युक्तियों का प्रतिपादन करता है। किंचित अर्थों में गांधी भी इसी वर्ग के विचारकों में माने जाते हैं।
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अराजकतावाद
मार्क्स-एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित साम्यवादी अराजकतावाद, शोषण के विरुद्ध यूटोपियाई आदर्शवादी युक्तियों से इतर शोषण के भौतिक कारणों की पड़ताल करता है तथा समाजवादी क्रांति संभव करने के प्रेरक बल के रूप में वर्ग संघर्ष की समझ का वैज्ञानिक प्रतिपादन करता है। सर्वहारा वर्ग द्वारा राजनीतिक सत्ता को जीतने की आवश्यकता की अराजकतावादियों द्वारा अस्वीकृति मज़दूर वर्ग को बुर्जुआ राजनीति के मातहत रखने का वस्तुपरक ढंग से हितसाधन करती है। साम्यवादी अराजकतावाद राज्य के तात्कालिक उल्मूलन की माँग करता है। वह क्रांति के लिए सर्वहारा वर्ग को तैयार करने के लिए बुर्जुआ राज्य की संस्थाओं के उपयोग की संभावनाओं को स्वीकार नहीं करते तथा समाज के समाजवादी पुनर्निर्माण में राज्य की भूमिका से इनकार करते हैं।
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साइक्लोट्रॉन
साइक्लोट्रॉन (Cyclotron) एक प्रकार का कण त्वरक है। 1932 ई. में प्रोफेसर ई. ओ. लारेंस (Prof. E.O. Lowrence) ने वर्कले इंस्टिट्यूट, कैलिफोर्निया, में सर्वप्रथम साइक्लोट्रॉन (Cyclotron) का आविष्कार किया। वर्तमान समय में तत्वांतरण (transmutation) तकनीक के लिए यह सबसे प्रबल उपकरण है। साइक्लोट्रॉन के आविष्कार के लिए प्रोफेसर लारेंस को 1939 ई. में "नोबेल पुरस्कार" प्रदान किया गया।
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साइक्लोट्रॉन
साइक्लोट्रॉन के आविष्कारक के पूर्व, आवेशित कणों के त्वरण (acceleration) के लिए काकक्रॉफ्ट वाल्टन की विभवगुणक (वोल्टेज मल्टिप्लायर) मशीन, वान डे ग्राफ स्थिर विद्युत जनित्र, अनुरेख त्वरक (Linear accelerator) आदि उपकरण प्रयुक्त होते थे। परंतु इन सभी उपकरणों के उपयोग में कुछ न कुछ प्रायोगिक कठिनाइयाँ विद्यमान थीं। उदाहरणस्वरूप, अनुरेख त्वरक के उपयोग में निम्न दो असुविधाएँ थीं;
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साइक्लोट्रॉन
(1) असुविधाजनक लंबाई (जितना ही छोटा कण होगा एवं जितने ही अधिक ऊर्जा के कण प्राप्त करना चाहेंगे, उतनी ही अधिक लंबाई की आवश्यकता होगी) तथा
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साइक्लोट्रॉन
(2) आयनित धारा की अल्प तीव्रता। इस तरह की असुविधाओं को प्रोफेसर लारेंस ने साइक्लोट्रॉन के आविष्कार से दूर कर दिया।
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साइक्लोट्रॉन
साइक्लोट्रॉन की उपयोगिताएँ इतनी अधिक है कि उन सबको यहाँ उद्धृत करना संभव नहीं। फिर भी मुख्य उपयोगिताएँ यहाँ पर दी जा रही हैं। उच्च ऊर्जा के ड्यूट्रॉन, प्रोट्रॉन, ऐल्फ़ा कण एवं न्यूट्रॉन की प्राप्ति के लिए यह एक प्रबल साधन है। ये ही उच्च ऊर्जा कण नाभिकीय तत्वांतरण क्रिया के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। उदाहरण स्वरूप साइक्लोट्रॉन से प्राप्त उच्च ऊर्जा के ड्यूट्रॉन बेरिलियम (4Be2) टार्गेट की ओर फेंके जाते हैं जिससे बोरॉन (5B10) नाभिकों एवं न्यूट्रॉनों का निर्माण होता है और साथ ही ऊर्जा (Q) भी प्राप्त होती है। संपूर्ण प्रक्रिया को निम्न रूप से प्रदर्शित कर सकते हैं:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%89%E0%A4%A8
साइक्लोट्रॉन
नाभिकीय तत्वांतरण के अध्ययन के शैक्षिक महत्व के अतिरिक्त यह रेडियो सोडियम, रेडियो फॉस्फोरस, रेडियो आयरन एवं अन्य रेडियोऐक्टिव तत्वों के व्यापारिक निर्माण के लिए उपयोग में लाया गया है। रेडियोऐक्टिव तत्वों की प्राप्ति ने शोधकार्य में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। हर रेडियोऐक्टिव तत्व चिकित्सा, विज्ञान, इंजीनियरी, टेक्नॉलोजी आदि के क्षेत्रों में नए-नए अनुसंधानों को जन्म दे रहा है। ये अनुसंधान निश्चय ही "परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग" के ही अंश हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%89%E0%A4%A8
साइक्लोट्रॉन
साइक्लोट्रोन उच्च आवृत्ति के प्रत्यावर्ती विभवांतर का प्रयोग करके आवेशित कण पुंज को त्वरित करता है। ये आवेशित कण एक वैक्यूम चैम्बर के अंदर "डीज़" नामक दो खोखले "डी" आकार वाले शीट धातु इलेक्ट्रोड के बीच लागू होता है। उनके बीच एक संकीर्ण अंतराल के साथ एक-दूसरे के सामने रखा जाता है, जो कणों को स्थानांतरित करने के लिए उनके भीतर एक बेलनाकार जगह बनाते हैं। कणों को इस जगह के केंद्र में छोड़ दिया जाता है। यह डीज़ एक बड़े विद्युत चुम्बक के छड़ों के बीच स्थित होते हैं जो इलेक्ट्रोड के समधरातल के लिए स्थैतिक चुम्बकीय क्षेत्र बी लूप को लागू करता है। चुंबकीय क्षेत्र, कण के पथ को झुका देता है, क्योंकि कारण लॉरेंज बल गति की दिशा में लंबवत होता है।
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साइक्लोट्रॉन
En dees , D1 aur D2 ke madhya uchh aavrti ka partiyawarti vibhwantar kese radioactive avrti dolit ke sahyta se aaropit keya jata hai.
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साइक्लोट्रॉन
"The NSCL at Michigan State University" Home of coupled K500 and K1200 cyclotrons; the K500, being the first superconducting cyclotron and the K1200 currently the most powerful in the world.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
राजधर्म
राजधर्म का अर्थ है - 'राजा का धर्म' या 'राजा का कर्तव्य'। राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही 'राजधर्म' है। राजधर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं।
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राजधर्म
महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्तिपर्व, चाणक्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश में एक पूरा समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। महाभारत में इसी नाम का एक उपपर्व है जिसमें राजधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है।
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राजधर्म
राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है, वे गुण छत्तीस हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें।
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राजधर्म
1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परन्तु जीवन में कटुता न आने दें।
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राजधर्म
9. दुष्ट लोगों के साथ कभी मेल-मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे।
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राजधर्म
16. नीच पुरूषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न लें, अन्यथा देर सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है।
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राजधर्म
31. केवल पिण्ड छुड़ाने के लिए किसी को सांत्वना या भरोसा न दे, अपितु दिये गये विश्वास पर खरा उतरने वाला हो।
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राजधर्म
आगे २१वें अध्याय में भीष्म पितामह युधिष्ठर को यह भी बताते हैं कि तुम लोभी और मूर्ख मनुष्यों को काम और अर्थ के साधनों में मत लगाओ।
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राजधर्म
मनुस्मृति के ७वें अध्याय में राजधर्म की चर्चा की गयी है। मनु ने आदिकाल में मानव जीवन को उन्नत प्रगतिशील और राष्ट्ररक्षा, राजधर्म और मानव धर्म के मापदण्डों के द्वारा राष्ट्र को सुबल और सुव्यवस्थित बनाने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होने अपने ग्रन्थ में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जहाँ संस्कारों का वर्णन किया है वहीं मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए राजधर्म का भी वर्णन किया है। उन्होने इस महान् ग्रन्थ के द्वारा मानव समाज को संगठित वा उन्नत बनाने के लिये अनेक माध्यमों से राजधर्म की व्याख्या कर राजा, मंत्री, सभासद्, प्रजा तथा इन पर प्रयुक्त होने वाले दण्ड विधान, कर व्यवस्था, तथा न्याय व्यवस्था, का बहुत सुन्दर ही वर्णन किया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
कौशल(कोसल) प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था। इसका क्षेत्र आधुनिक गोरखपुर के पास था। इसकी प्रथम राजधानी अयोध्या और द्वितीय राजधानी श्रावस्ती थी। चौथी सदी ईसा पूर्व में मगध ने इस पर अपना अधिकार कर लिया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
कौशल साम्राज्य एक समृद्ध संस्कृति वाला एक प्राचीन भारतीय साम्राज्य था, जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिमी ओड़िशा तक अवध के क्षेत्र के साथ जुड़ा हुआ है। यह उत्तर वैदिक काल के दौरान एक छोटे राज्य के रूप में उभरा, जिसका संबंध पड़ोसी विदेह से था। कौशल उत्तरी ब्लैक पॉलिश्ड वेयर कल्चर (700-300 ईसा पूर्व) से संबंधित थे, और कोसल क्षेत्र ने जैन धर्म और बौद्ध धर्म सहित श्रमण आंदोलनों को जन्म दिया। यह शहरीकरण और लोहे के उपयोग की दिशा में स्वतंत्र विकास के बाद, इसके पश्चिम में कुरु-पांचाल के वैदिक काल की चित्रित ग्रे वेयर संस्कृति से सांस्कृतिक रूप से अलग था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
गोंडा के समीप सेठ-मेठ में आज भी इसके भग्नावशेष(टूटी फूटी वस्तु के टुकड़े) मिलते हैं। कंस भी यहाँ का शासक रहा जिसका संघर्ष निरंतर काशी से होता रहा और अंत में कंस ने काशी को अपने आधीन कर लिया। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में यहाँ का प्रमुख नगर हुवा करता था साकेतनगर अयोध्या जो भगवान राम की जन्मभूमि है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान, कौशल ने शाक्य के क्षेत्र को शामिल किया, जिसमें बुद्ध थे। बौद्ध पाठ अंगुत्तर निकाय और जैन पाठ के अनुसार, भगवती सूत्र, कोसल 6 वीं से 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में सोलसा (सोलह) महाजनपद (शक्तिशाली क्षेत्र) में से एक था, और इसकी सांस्कृतिक और राजनीतिक ताकत ने इसे दर्जा दिया एक महान शक्ति का। यह बाद में पड़ोसी राज्य मगध के साथ युद्धों की एक श्रृंखला से कमजोर हो गया था और, 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, अंततः इसके द्वारा अवशोषित कर लिया गया था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद और कुषाण साम्राज्य के विस्तार से पहले, कौशल पर देव वंश, दत्त वंश और मित्र वंश का शासन था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
प्रारंभिक वैदिक साहित्य में कोसल का उल्लेख नहीं है, लेकिन शतपथ ब्राह्मण (7वीं-6वीं शताब्दी ईसा पूर्व, अंतिम संस्करण 300 ईसा पूर्व) के बाद के वैदिक ग्रंथों में एक क्षेत्र के रूप में प्रकट होता है और कल्पसूत्र (छठी शताब्दी ईसा पूर्व)।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
रामायण, महाभारत और पुराण में कोसल साम्राज्य का शासक परिवार इक्ष्वाकु वंश था, जो राजा इक्ष्वाकु के वंशज थें। पुराण इक्ष्वाकु से प्रसेनजित (पाली: पसेनदी) तक इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की सूची देते हैं। रामायण के अनुसार, राम ने अपनी राजधानी अयोध्या से कोसल साम्राज्य पर शासन किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
महावीर, जैन धर्म का 24वाँ तीर्थंकर कोसल में पढ़ाया जाता है। एक बौद्ध पाठ, मज्जिमा निकाय में बुद्ध को कोसलन के रूप में उल्लेख किया गया है, जो इंगित करता है कि कोसल ने शाक्य को अपने अधीन कर लिया होगा, जिसके बारे में माना जाता है कि बुद्ध परंपरागत रूप से इसी वंश से संबंधित थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
कोशल की श्रावस्ती की पहली राजधानी छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक मुश्किल से बसी थी, लेकिन एक मिट्टी के किले की शुरुआत हुई है। 500 ईसा पूर्व तक, वैदिक लोग कोशल में फैल गए थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%B2
कोशल
5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक राजा महाकोसल के शासनकाल में, पड़ोसी काशी राज्य पर विजय प्राप्त कर ली गई थी। महाकोसल की बेटी मगध के राजा बिम्बिसार की पहली पत्नी थी। दहेज के रूप में, बिंबिसार को एक काशी गाँव मिला, जिसकी आय 100,000 थी। इस विवाह ने अस्थायी रूप से कोशल और मगध के बीच तनाव को कम किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A5%82
चंपू
चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रित् काव्य को चम्पू कहते हैं। गद्य तथा पद्य मिश्रित काव्य को "चंपू" कहते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A5%82
चंपू
काव्य की इस विधा का उल्लेख साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों- भामह, दण्डी, वामन आदि ने नहीं किया है। यों गद्य पद्यमय शैली का प्रयोग वैदिक साहित्य, बौद्ध जातक, जातकमाला आदि अति प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। चम्पूकाव्य परंपरा का प्रारम्भ हमें अथर्व वेद से प्राप्त होता है। चम्पू नाम के प्रकृत काव्य की रचना दसवीं शती के पहले नहीं हुई। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू', जो दसवीं सदी के प्रारम्भ की रचना है, चम्पू का प्रसिद्ध उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सोमदेव सुरि द्वारा रचित यशःतिलक, भोजराज कृत चम्पू रामायण, कवि कर्णपूरि कृत आनन्दवृन्दावन, गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी), नीलकण्ठ चम्पू (नीलकण्ठ दीक्षित) और चम्पू भारत (अनन्त कवि) दसवीं से सत्रहवीं शती तक के उदाहरण हैं। यह काव्य रूप अधिक लोकप्रिय न हो सका और न ही काव्यशास्त्र में उसकी विशेष मान्यता हुई। हिन्दी में यशोधरा (मैथिलीशरण गुप्त) को चम्पू-काव्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A5%82
चंपू
गद्य और पद्य के इस मिश्रण का उचित विभाजन यह प्रतीत होता है कि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य के द्वारा तथा वर्णनात्मक विषयों का विवरण गद्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाय। परन्तु चंपूरचयिताओं ने इस मनोवैज्ञानिक वैशिष्ट्य पर विशेष ध्यान न देकर दोनों के संमिश्रण में अपनी स्वतंत्र इच्छा तथा वैयक्तिक अभिरुचि को ही महत्व दिया है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A5%82
चंपू
गद्य-पद्य का संमिश्रण संस्कृत साहित्य में प्राचीन है, परंतु काव्यशैली में निबद्ध, "चंपू" की संज्ञा का अधिकारी गद्य-पद्य का समंजस मिश्रण उतना प्राचीन नहीं माना जा सकता। गद्य-पद्य की मिश्रित रचना कृष्ण यजुर्वेदीय संहिताओं में उपलब्ध होती है। पालि जातकों में भी गद्य में कथानक तथा पद्य (गाथा) में मूल सूत्रात्मक संकेतों की उपलब्धि अवश्य होती है। परंतु काव्यतत्व से विरहित होने के कारण इन्हें हम "चंपू" का दृष्टांत किसी प्रकार नहीं मान सकते। हरिषेण रचित समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति (समय 350 ई.) तथा बौद्ध कवि आयंशूर (चतुर्थ शती) प्रणीत जातकमाला चंपू के आदिम रूप माने जा सकते हैं, क्योंकि पहले में समुद्रगुप्त की दिग्विजय तथा दूसरे में 34 जातक विशुद्ध काव्यशैली का आश्रय लेकर अलंकृत गद्य पद्य में वर्णित हैं। प्रतीत होता है कि चंपू गद्यकाव्य का ही एक परिबृहित रूप है और इसीलिये गद्यकाव्य के सुवर्णयुग (सप्तम अष्टम शती) के अनंतर नवम शती के आसपास इस काव्यरूप का उदय हुआ।
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