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चंपू
चंपू काव्य का प्रथम निदर्शन त्रिविक्रम भट्ट का नलचंपू है जिसमें चंपू का वैशिष्ट्य स्फुटतया उद्भासित होता है। दक्षिण के राष्ट्रकूटवंशी राजा कृष्ण (द्वितीय) के पौत्र, राजा जगतुग और लक्ष्मी के पुत्र, इंद्रराज (तृतीय) के आश्रय में रहकर त्रिविक्रम ने इस रुचिर चंपू की रचना की थी। इंद्रराज का राज्याभिषेक वि॰सं॰ 972 (915 ई.) में हुआ था और उनके आश्रित होने से कवि का भी वही समय है दशम शती का पूर्वार्ध। इस चंपू के सात उच्छ्वासों में नल तथा दमयंती की विख्यात प्रणयकथा का बड़ा ही चमत्कारी वर्णन किया गया है। काव्य में सर्वत्र शुभग संभग श्लेष का प्रसाद लक्षित होता है।
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1,963.511745
20231101.hi_190158_5
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चंपू
जैन कवि सोमप्रभसूरि का "यशस्तिलक चंपू" दशम शती के मध्यकाल की कृति है (रचनाकाल 959 ई.)। ग्रंथकार राष्ट्रकूटनरेश कृष्ण के सामंत चालुक्य अरिकेश्री (तृतीय) के पुत्र का सभाकवि था। इस चंपू में जैन पुराणों में प्रख्यात राजा यशोधर का चरित्र विस्तार के साथ वर्णित है। चंपू के अंतिम तीन उच्छ्रवासों में जैनधर्म के सिद्धातों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर कवि ने इन सिद्धांतों का पर्याप्त प्रचार प्रस्तार किया है। ग्रंथ में उस युग के नानाविध धार्मिक, आर्थिक तथा सामाजिक विषयों का विवरण सोमप्रभसूरि की व्यापक तथा बहुमुखी वंदुषी का परिचायक है।
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चंपू
राम तथा कृष्ण के चरित का अवलंबन कर अनेक प्रतिभाशाली कवियों ने अपनी प्रतिभा का रुचिर प्रदर्शन किया है। ऐसे चंपू काव्यों में भोजराज (11वीं शती) का रामायण चंपू, अनंतभट्ट का "भारत चंपू", शेष श्रीकृष्ण (16वीं शती) का "पारिजातहरण चंपू" काफी प्रसिद्ध हैं।
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चंपू
भोजराज ने रामायण चंपू की रचना किष्किंधा कांड तक ही की थी, जिसकी पूर्ति लक्ष्मण भट्ट ने "युद्धकांड" की तथा वेंकटराज ने "उत्तर कांड" की रचना कर की थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A5%82
चंपू
जैन कवियों के समान चैतन्य मतावलंबी वैष्णव कवियों न अपने सिद्धांतों के पसर के लिये इस ललित काव्यमाध्यम को बड़ी सफलता से अपनाया। भगवान श्रीकृष्ण की ललाम लीलाओं का प्रसंग ऐसा ही सुंदर अवसर है जब इन कवियों ने अपनी अलोकसामान्य प्रतिभा का प्रसाद अपने चंपू काव्यों के द्वारा भक्त पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। कवि कर्णपूर (16वीं शती) का आनंदवृंदावन चंपू, तथा जीव गोस्वामी (17वीं शती) का गोपालचंपू सरस काव्य की दृष्टि से नितांत सफल काव्य हैं। इनमें से प्रथम काव्य कृष्ण की बाललीलाओं का विस्तृत तथा विशद वर्णन करता है, द्वितीय काव्य कृष्ण के समग्र चरित का मार्मिक विवरण है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80
बिरयानी
बिरयानी शब्द मूल रूप से फ़ारसी भाषा से लिया गया है जो माध्यमिक काल मे भारत के विभिन्न भागों मे मध्य एशिया से आए हुए मुगल, अफ़ग़ान ओरब तुर्क शासकों के दरबार की अधिकारिक भाषा थी। इसके बारे मे एक परिकल्पना यह भी है कि इसकी उत्पत्ति चावल के लिए प्रयुक्त फ़ारसी शब्द 'ब्रिंज़' से हुई है. एक दूसरे विचार के अनुसार इसका नामकरण फ़ारसी शब्द "बिरयन" अथवा "बेरियँ" से हुआ है जिसका अर्थ होता है भुनना अथवा सेकना.
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बिरयानी
इसकी मूल उत्पत्ति का स्थान अभी भी अनिश्चित है. उत्तरी भारत के विभिन्न शहरों जैसे कि दिल्ली (मुगल व्यंजन), लखनऊ (अवध व्यंजन) और अन्य छोटे-छोटे राजघरानों मे इसके कई प्रकार विकसित हुए हैं. दक्षिण भारत मे, जहाँ चावल खाने का प्रमुख अंग होता है, तेलंगाना,केरल,तमिलनाडु और कर्नाटक मे इसके कई विशिष्ट प्रकारों का विकास हुआ है. आंध्र , दक्षिण भारत का एक मात्र राज्य है जिसमे बिरयानी के किसी स्थानीय प्रकार का विकास नही हुआ.
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बिरयानी
लिज़्ज़ी कोल्लिंघम का कहना है कि शाही मुगल बावरची खानों मे बिरयानी को फ़ारसी व्यंजन पिलाफ और भारत के स्थानीय मसालेदार चावल से बने व्यंजनों के एक संगम के रूप मे विकसित किया गया था। पर एक विचार यह भी है कि बाबर के भारत आगमन से पूर्व ही बिरयानी एक व्यंजन के रूप मे लोकप्रिय जो चुकी थी। १६ वीं सदी मे लिखा गया मुगल दस्तावेज़ आइन-ए-अकबरी बिरयानी और पुलाव मे कोई अंतर नही पाता है और इसके अनुसार बिरयानी शब्द भारत मे पहले से ही प्रचलित था। इसी प्रकार का एक और विचार कि बिरयानी भारत मे तैमूरलंग के आक्रमण के साथ आई भी तथ्यों पर आधारित नही है क्योंकि उसके अपने मूल स्थान मे उसके दौर मे इस व्यंजन का कोई प्रमाण नही मिलता.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80
बिरयानी
प्रतिभा कर्ण के अनुसार बिरयानी दक्षिण भारतीय मूल का व्यंजन है जो अरब व्यापारियों के द्वारा लाए गये पिलाफ के विभिन्न प्रकारों पर आधारित है. उनका मानना है कि पुलाव एक फ़ौजी व्यंजन है. फौज के पास हमेशा विविधता वाले व्यंजन पकाने के लिए बर्तनो का अभाव रहता था अतः वे चावल के साथ माँस और सभी प्रकार अन्य अवयवों को एक ही बर्तन के रख कर पका देते थे. समय के साथ पकाने के विभिन्न तरीकों के आधार पर बिरयानी के कई प्रकार विकसित होते गये और पुलाव तथा बिरयानी के बीच का अंतर मनमाना ही है.
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बिरयानी
बिरयानी रेस्तराँ की एक प्रसिद्ध शृंखला के मालिक विश्वनाथ शेनॉय के अनुसार बिरयानी की एक शाखा (उत्तर भारत वाली) तो मुगलो के साथ भारत आई और दूसरी अरब व्यापारियों के द्वारा दक्षिण भारत के कालीकट (कोज़िकोडे) के लाई गयी थी।
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बिरयानी
बिरयानी के प्रमुख अवयवों मे आम तौर पर देशी घी, जायफल, जावित्री, काली मिर्च, लौंग, दालचीनी बड़ी और छोटी इलायची, तेजपत्ता, धनिया और पुदीना के पत्ते, अदरक, लहसुन और प्याज शामिल होते हैं. इसके विशिष्ट प्रकार के व्यंजन मे केसर भी प्रयोग किया जाता है. माँसाहारी प्रकार की बिरयानी मे मसालों के साथ आम तौर पर बकरी का माँस (मटन) और मुर्गे का माँस (चिकन) प्रयोग किया जाता है. गोमांस, सुअर के माँस और समुद्री खाद्य पदार्थों (शी फुड) से बनी बिरयानी भी बनाई जाने लगी है. इस व्यंजन को दही चट्नी अथवा रायता, कॉरमा, करी, उबले हुए अंडे और सलाद के साथ परोसा जाता है. बिरयानी को हमेशा बासमती चावल से बनाना चाहिए क्योंकि बासमती चावल से खुशबूदार और लजीज बिरयानी तैयार होती हैं|
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बिरयानी
बिरयानी दो प्रकार से बनाई जाती है - पक्की बिरयानी और कच्ची बिरयानी. पक्की बिरयानी को बनाने के दौरान पके हुए चावल और माँस की परतें एक के उपर एक करके डाली जाती हैं. कच्ची बिरयानी मे कच्चे चावल और कच्चे तेल मसाले आदि के मिश्रण में लपेटे हुए माँस को एक के उपर एक रख के पकाया जाता है. यह आम तौर पर चिकन और मटन के साथ पकाया जाता है और कभी-कभो ही झींगे (प्रॉन) और मछली का उपयोग किया जाता है. बनाते समय मसाले वाले माँस को दही मे लपेट कर हाँडी के निचले भाग मे रख दिया जाता है और इसके उपर चावल (आम तौर पर बासमती) रख कर पकाया जाता है. चावल की परत डालने से पहले अक्सर आलू भी रख दिए जाते हैं. हाँडी को गूँधे हुए आटे से सील कर दिया जाता है ताकि वे अपनी ही भाप से पक सके और व्यंजन को परोसे जाते समय ही यह सील हटाई जाती है.
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बिरयानी
हालाँकि यह मूल रूप से मुस्लिम त्योहारों पर बनने वाला एक माँसाहारी व्यंजन है पर भारत मे बड़ी संख्या मे रहने वाले शाकाहारी लोगो के कारण शाकाहारी बिरयानी भी खूब बनती है. शाकाहारी बिरयानी मे आलू, गोभी, गाजर और मटर का प्रयोग किया जाता है. अंडा बिरयानी भी एक नये प्रकार का प्रयोग है.
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बिरयानी
स्थान और अवयवों के प्रयोग के अनुसार बिरयानी के प्रमुख प्रकार हैं :- सिंधी बिरयानी, हैदराबादी बिरयानी, तलशसेरी बिरयानी, कलकता बिरयानी, अंबुर/वानियमबदी बिरयानी, मेमोनी बिरयानी, डिंडीगुल बिरयानी, कल्याणी बिरयानी, चिकन बिरयानी.
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नारनौल
नारनौल के इतिहास और नामकरण को लेकर कोई प्रमाणीक तथ्य नही मिलते, इसलिए विद्वान एकमत नही है। लेकिन यह एक एतहासिक नगर है, इस बात से सभी इतफाक रखते है। इसकी स्थापना और नामकरण को लेकर अनेक किवदंतयां और गाथाएं प्रचत है। यहाँ के प्राचीन सूयानारायण मंदिर मे मिले एक शिलालेख मे इसका नामोलेख नंदिग्राम् के रूप मे किया गया है। भागवत पुराण मे भी नंदिग्राम् का जिक्र है। इसलिए इस नगर को द्वापर-कालीन कहा जाता है। पौराणीक गाथाओं के अनुसार नारनौल नगर महाभारत काल नरराश्ट्र् के रूप मे जाना जाता था। यह भी प्रचलित है कि यह इलाका पहले भारजंगल से ढका हुआ था और शेरो का ठिकाना था| जंगल साफ़ करके यहाँ नगर बसाया गया इसलिए इसका नाम नाहर नौल रखा गया जो कालांतर मे नारनौल हो गया।
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नारनौल
एक मान्यता यह भी है कि करीब एक हजार वषपूर्व दिल्ली के शासक अनंगपाल तंवर के रिस्तेदार राजा नूनकरण ने इस नगर को आबाद किया। राजा नूनकरण के समय नारनौल एक व्यापारिक केन्द्र् के रूप मे जाना जाता था। मुग़ल बादशाह बाबर ने अपनी पुतक 'तुज़क-ए-बाबरी' मे यहाँ कपास मंडी होने का उल्लेख किया है, जिससे यह जाहिर होता है कि यहाँ कपास कि खेती होती थी। बाबर ने यहाँ के बाजारों का चर्चा "गुदड़ी" के नाम से किया है। बारहवीं शताब्दी के पहले दो दशक तक यहाँ राजपूतों का शासन रहा 12वीं शताब्दी के तीसरे दशक मे मुस्लिम संत हजरत तुर्कमान यहाँ आया और उसके साथ ही मुसलमानो का यहाँ प्रभाव बढ़ने लगा, और नारनौल मुस्लिम के आधिपत्य मे आ गया।
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नारनौल
पंद्रहवीं शताब्दी के नारनौल मुगलो के हाथो से निकल कर सूर अफगानो के नियंत्रण मे आ गया। सबसे पहले शेरशाह सूरी के दादा इब्राहिम खान यहाँ आये उन्हे फिरोज़-ए-हिसार के शासक ने नारनौल और इसके आसपास का क्षेत्र दिया था। इब्राहिम सूर का मकबरा आज भी नारनौल मे मौजूद है, और नारनौल के सभी स्मारको से बेहतर स्थिति में है। इब्राहिम सूर की मौत के बाद उसका बेटा और शेरशाह सूर का पिता हसनखान नारनौल का जागीरदार बना। इतहासकार वी.स्मिथ के अनुसार शेरशाह का जन्म भी नारनौल मे हुआ था।
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नारनौल
पानीपत की दूसरी लड़ाई के बाद यह इलाका अकबर के नियंत्रण में था। उसने सम्राट हेमू को गिरफ्तार करने के इनाम के तौर पर इसे शाह कुल खान को दे दिया। इस प्रकार शाह कुली खान यहाँ का जागीरदार बना, जिसने नारनौल में जलमहल का निर्माण करवाया। अकबर के शासनकाल मे यहाँ राय बालमुकुन्द के छत्ते का निर्माण हुआ, जिसे बीरबल का छत्ता के नाम से जाना जाता है। अकबर के ज़माने मे नारनौल मे सिक्के बनाने की टकसाल भी स्थापित की गई थी, जिसका कामकाज देखने के लिए राजा टोडरमल भी यहाँ आते-जाते थे।
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नारनौल
औरंगजेब के शासन तक यहाँ अमन और शान्ति थी, किन्तु औरंगजेब के शासन मे यहाँ कि हिन्दू प्रजा पर मुस्लिम जागीरदारों ने ज्यादतियां करनी शुरु कर दी, तो यहाँ के सतनामियों ने बगावत कर दी। शीघ्र ही यहाँ की जनता हिन्दू-मुस्लिम दो खेमो मे बंट गई और यहाँ के मुस्लिम फौजदार ताहिर बेग को विद्रोहियो ने मारकर नगर पर कब्जा कर लिया। मुगलकाल के दौरान नारनौल में हुए सतनामी विद्रोह ने औरंगजेब शासन को इस कदर हिला दिया था कि उसके बाद उसने अपने गवर्नरों को उनके प्रांतों में सभी महत्वपूर्ण मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दे दिया था। जन भागीदारी से हुए इस आंदोलन का असर इतना अधिक हुआ कि विद्रोह के तीन दशकों पश्चात ही मुगल साम्राज्य भरभराकर गिरने लगा, किंतु इतिहासकारों ने नारनौल के सतनामियों के संघर्ष और बलिदान को भारतीय इतिहास में वह स्थान नहीं दिया, जो उन्हें मिलना चाहिए।
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नारनौल
इतिहास बताता है कि नारनौल तथा इसके आसपास के क्षेत्रों में मुगलकाल में सतनामी पंथ के अनुयायी बहुतायत में बसते थे। यह लोग सत्य पर चलने वाले तथा शांतिप्रिय थे। औरंगजेब ने दिल्ली से शाही सेना को भेजा जिसे सतनामियों ने नाथ पंथ के अनुयायियों की सहायता से परास्त करके भगा दिया। इस प्रकार कई बार शाही सेना को खदेड़ा गया तथा सतनामियों ने धौला कुआं तक के क्षेत्र पर अधिकार करने के साथ ही कर संग्रहण की चौकियां स्थापित करते हुए अपना प्रशासन नियुक्त कर दिया। पूरा क्षेत्र 6 महीने तक सतनामियों के अधिकार में रहा जिसका संचालन सतनामियों के गुरु वीरभान ने किया। औरंगजेब ने एक बार फिर भारी शाही सेना भेजी, जिसने आराम करते हुए सतनामियों पर भारी हमला करके उन्हें मार डाला और क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। इसके बाद बहुत सारे सतनामी मौत के घाट उतार दिए और जो बचे वह सभी गुरु वीरभान के साथ मध्य भारत में पलायन कर गए। इतने वर्षों बाद भी सतनामी अपने मूल स्थान नारनौल को नहीं भूले हैं तथा वह आज भी अपने गीतों के माध्यम से नारनौल, ढोसी तीर्थ तथा इसके आसपास के क्षेत्रों को याद करते हैं।
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नारनौल
हरियाणा के दक्षिण में नारनौल नाम का एक कस्बा है। आज यह महेंद्रगढ़ जिले में पड़ता है। इसके पास ही बीजासर नाम का गांव है। 16वीं सदी में इस गांव में बीरभान नाम का आदमी रहता था। वह किसान परिवार से था। वह बहुत सच्चा और भला आदमी था। भक्ति में उसकी बड़ी रुचि थी। लोग उसके भजन और उपदेश सुनने आते थे। धीरे-धीरे बीरभान भक्त कहलाने लगे। लोगों ने उन्हें गुरु मान लिया। बस बढऩे लगा उसके भक्तों का परिवार। जल्दी ही खड़ा हो गया एक सम्प्रदाय। इसे सतनामी सम्प्रदाय कहा गया। यह सन् 1657 में पैदा हुआ माना जाता है। सतनामी ईश्वर के नाम को ही सच मानते थे और उसी का ध्यान करते थे। ये लोग फकीरों की तरह रहते थे। इसीलिए ये साधु कहलाते थे। सतनामी आंदोलन का संबंध भक्ति आंदोलन के महान संत रैदास से था। रैदास का एक चेला उधा था। उधा का इस क्षेत्र में बड़ा प्रभाव था। यही बीरभान के गुरु थे
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नारनौल
सतनामी साधु भक्ति आंदोलन के मुख्य सिद्धांतों को मानते थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है। वही सत्य है। इसलिए वे ईश्वर को सतनाम कहकर पुकारते थे। इसी से उनका नाम सतनामी पड़ा। वे अपने सारे बाल मुंडवाते थे। यहां तक कि भौहें भी साफ करवा डालते थे। बोलचाल की भाषा में लोग उन्हें मुंडिया भी कहते थे। उत्तर भारत में यह पंथ कई जगह फैल गया, परन्तु 17वीं सदी में नारनौल सतनामियों का गढ़ बन गया। यह कस्बा दिल्ली के दक्षिण पश्चिम में 75 मील दूर स्थित है। गुरु बीरभान अंधश्विास और रूढि़वाद का खंडन करते थे। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे और जाति प्रथा का विरोध करते थे। शरीर और मन की शुद्धि पर उनका खास जोर था। वे सच और सदाचार को जीवन के लिए जरूरी मानते थे। धन और सम्पति से दूर रहने का उपदेश देते थे। वे सारे संसार को अपना घर और दुनियाभर के लोगों को अपना परिवार मानते थे। वे बड़े सरल स्वभाव के थे और साफ कहते थे कि धार्मिक कर्मकांड की बजाए अच्छे व्यवहार में ही धर्म का मर्म है। सतनामी अपने काम-धंधों से लोभ, मोह और अहंकार को दूर रखते थे। पसीने की कमाई से गुजर-बसर करना उनका सिद्धांत था। वे हिन्दू और मुसलमाना में फर्क नहीं करते थे। वे मानते थे कि ईश्वर की कृपा से ही दुखों से छुटकारा पाया जा सकता है। इसलिए वे मनुष्य को धीरज रखने का उपदेश देते थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%8C%E0%A4%B2
नारनौल
सतनामी सम्प्रदाय में जाट, चमार, खाती आदि जातियों के लोग शामिल थे। परन्तु उन्होंने अपने जातिगत भेद मिटा दिए थे। वे सादा भोजन करते और फकीरों जैसा बाना पहनते थे। सतनामी हर प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ थे। इसलिए अपने साथ हथियार लेकर चलते थे। दौलतमंदों की गुलामी करना उन्हें बुरा लगता था। उनका उपदेश था कि गरीब को मत सताओ। जालिम बादशाह और बेईमान साहूकार से दूर रहो। दान लेना अच्छा नहीं। ईश्वर के सामने सब बराबर हैं। इन विचारों पर आधारित सिद्धांत बड़ा शक्तिशाली था। इससे कमजोर तबकों में आत्मसम्मान और हिम्मत जागी। उनमें जागीरदारों के उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस पैदा हुआ। दूसरी कई जगहों की तरह हरियाणा के नारनौल क्षेत्र में भी 17वीं सदी के सतनामियों ने एक शक्तिशाली विद्रोह किया। प्रशासन के उत्पीडऩ के खिलाफ पैदा हुए आंदोलन ने मुगल हुकूमत को हिलाकर रख दिया।
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1,948.57114
20231101.hi_509161_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%96
पंख
वास्तव में पर पक्षी की त्वचा का एक विशिष्ट प्रकार का श्रृगांकार (keratinous) उद्वर्ध (outgrowth) है, जो पक्षी के हवाई जीवन (aerial life) की आवश्यकता की पूर्ति करता है। इसके कारण शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकलती और भार में भी कमी रहती है।
0.5
1,946.7854
20231101.hi_509161_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%96
पंख
सामान्य वयस्क पर (Adult Feather) में एक शुंडाकार अक्षीय पिच्छाक्ष (tapering axial rachis) होता है, जिसके दोनों ओर बहुत से छोटे छोटे समांतर पिच्छक (barb) होते हैं। हर एक पिच्छक में बहुत सी शाखाएँ होती हैं, जिन्हें पिच्छिकाएँ (barbules) कहते हैं। निकटवर्ती पिच्छिका के पिच्छक सूक्ष्म अंकुशीय पिच्छिकाप्रवर्ध (barbicels) के द्वारा अंतर्ग्रथित होते हैं, जिसके फलस्वरूप झिल्लीमय (membranous) परफलक (vane) बनता है। पिच्छक ढँके हुए निचले भाग में संबद्ध नहीं होते हैं और उनकी बनावट अंसगठित होती है। पर के आधार को, जो त्वचा के कूप (follicle) में जुड़ा रहता है, परनाड़ी (Calamus) कहते हैं। परनाड़ी में पिच्छिका नहीं होती। परनाड़ी का वह छिद्र जो त्वचा के कूप में जुड़ा रहता है निम्न पिच्छछिद्र (Inferior umbilicus) कहलाता है। परनाड़ी के ऊर्ध्व पिच्छछिद्र (Superior umbilicus) से, जो परनाड़ी और पिच्छक के जोड़ पर होता है, पिच्छक का छोटा गुच्छा, या एक संपूर्ण पश्चात्पर (After-feather) निकलता है। पश्चात्पर की उत्पत्ति केवल विभिन्न पक्षियों में ही भिन्न नहीं होती, प्रत्युत एक ही पक्षी के विभिन्न अंगों में, जैसे एमू (emu) और कैसोवरी (cassowary) में, पश्चात्पर भी वास्तविक पर के बराबर होता है।
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पंख
वयस्क पक्षी के पर (plumage) तीन प्रकार के होते हैं : देहपिच्छ (contour), रोमपिच्छ (filoplume) और कोमलपिच्छ (down-feather)* देहपिच्छ से अल्पवयस्क और वयस्क पक्षी का अधिकांश ढका होता है। देहपिच्छ बाहर से दिखाई पड़ते हैं और शरीर के आकार को भी बनाते हैं। इनमें पक्ष (wing) और पूँछ भी शामिल होती है। पक्ष के बड़े पर, पक्षपिच्छ (remiges), और पूँछ के बड़े पर, पुच्छपिच्छ (retrices), शरीर के सामान्य आच्छादन से विशेष रूप से अलग हैं। देहपिच्छ शरीर के एक भाग से निकलते हैं, जिसे पिच्छक्षेत्र (Pteryla) कहते हैं। पिच्छक्षेत्र एक दूसरे से अपिच्छक्षेत्र (apteria) के द्वारा विभाजित रहते हैं। केवल पेंग्विन (penguin) में ही पिच्छक्षेत्र सब जगह पाया जाता है। रोमपिच्छ केश की भाँति होता है, जिसके सिरे पर कुछ पिच्छिकाएँ होती हैं। रोमपिच्छ देहपिच्छ की जड़ में होता है। कोमलपिच्छ बहुत कम होता है और पिच्छक्षेत्र तथा अपिच्छक्षेत्र में भी पाया जाता है। इसकी पिच्छिकाएँ संगठित फलक नहीं बनातीं, किंतु लंबी और मुलायम होती हैं। इनमें पिच्छाक्ष नहीं होता।
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पंख
अंडा फूटने के बाद जो पक्षी निकलता है, उसके शरीर के विभिन्न भागों में साधारणत: नीड़-शावक-पिच्छ (nestling down) होते हैं। नीड़-शावक-पिच्छ बहुत छोटे और प्रारंभिक पर होते हैं, जिनमें एक छोटी सी परनाड़ी में जुड़े कुछ पिच्छक होते हैं। इनकी पिच्छिकाएँ अत्यंत छोटी और सूत्राकर होती हैं।
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पंख
पर की उत्पत्ति भ्रूणावस्था (embryonic life) में त्वचा के अंकुरक (papillae) से होती है। त्वचा के अंकुरक में एक चर्भीय आंतरक (dermal core) होता है, जो अधिचर्म (epidermis) की सतह से ढका रहता है। चर्म की तेज वृद्धि से अधिचर्म गोल गुबंद की तरह हो जाता है, जिसे परमूल (feather germ) कहते हैं। जब परमूल कुछ लंबा हो जाता है ता अधिचर्म की दीवार कई समांतर कटकों (ridges) में बँट जाती है, जो पिच्छिका और पिच्छक के आद्यांग (rudiments) हाते हैं। पर अपने निर्माण के समय एक आवरण (sheath) से ढँक जाता है, जो अंडा फूटने के बाद जब त्वचा सूखती है तब फट जाता है। कोमलपिच्छ बन जान के बाद बहुत सी चमीर्य कोशिकाएँ अधिचर्मीय कोशिकाओं की एक सतह से ढकी हुई, परमूल की पेंदी में स्थायी रूप से पड़ी रहती हैं, जिन्हें परपैपिला (feather papillae) कहते हैं। सभी परवर्ती पर इसी परपैपिला से बनते हैं। अंडा फूट जाने के बाद नए पैपिला नहीं बनते। देहपिच्छ का पहला दल नीड़-शावक-पिच्छ का परित्याग होने के पहले बन जाता है, लेकिन उसके बाद कोई नया पर तब तक नहीं बनता जब तक किसी पर का निर्मोचन (moulting) न हो, या वह तोड़ न दिया जाय।
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पंख
सभी पक्षियों में प्राकृतिक रूप से हर साल परों का परित्याग (shedding) और पुन:स्थापन (replacing) होता है, जिसे निर्मोचन कहते हैं। पर, बाल की तरह ही मरी हुई संरचना (structure) है। हर साल जनन (breeding) ऋतु के बाद जो निर्मोचन होता है उसे पश्चकायद (post-nuptial) निर्मोचन कहते हैं। इसके अलावा बहुत से नर पक्षियों में प्रजनन ऋतु में विशिष्ट सजावटी पर उत्पन्न होते हैं। यह आंशिक (partial) निर्मोचन कहलाता है। निर्मोचन धीरे धीरे और क्रमबद्ध होता है। पेंग्विहन (penguin) पक्षी एक ही बार में सभी पंखों का परित्याग कर देता है। पक्षियों की जीवनी शक्ति को निर्मोचन के लिये बहुत आयास करना पड़ता है, क्योंकि हजारों नए परों के परिवर्धन में काफी रक्त की आवश्यकता होती है।
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पंख
वर्णकों (pigments) और पर के निम्न भागों पर पड़नेवाले प्रकाशीय प्रभाव (optical effect) के मेल से पर के विभिन्न और चमकदार रंग बनते हैं। वर्णकों के कारण पर के काले, भूरे, धूसर और अन्य रंग बनते हैं। वर्णक दानेदार (granular) होता है। पक्षी अपने भोजन से लाल, नारंगी और पीले रंग पाते हैं, जो चर्बी में घुलकर पंखों में पहुँच जाते हैं। संरचनात्मक रंग (structural colour) देहपिच्छ के पिच्छक और पिच्छिका की कोशिकाओं में विशेष परिवर्तन के कारण बनता है। नीला रंग पिच्छिका के बक्सनुमा रंगहीन कोशिकाओं की सतह से निकलता है, जो एक पतली, पारदर्शक, रंगहीन उपत्वचा के नीचे होती है। यह उपत्वचा केवल नीला रंग परावर्तित (reflect) करती है, शेष रंग नीचे की कोशिकाओं के काले रंग से अवशोषित (absorb) हो जाते हैं। पिच्छिका की रंगहीन सतह से जो प्रकाशतरंग परावर्तित होती है उसी के व्यतिकरण (interference) से कबूतर, मोर और दूसरे पक्षियों का बहुवर्णभासी (iridescent) रंग बनता है।
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पंख
हँस और समवर्गी, जलीय पक्षियों की मुलायम, हलके और लचीले पर गद्दी बनाने में काम आते हैं। राजहंस, बतख और घरेलू मुर्गी के परों की भी गद्दी बनती है।
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पंख
छठी से उन्नीसवीं शताब्दी तक हंस, राजहंस, चील, कौए और उल्लू के पर अधिकतर लेखन के लिये कलम के काम में आते थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
तमिल ग्रंथों की व्याख्या करने वाले चट्टंपी स्वामीकल के अनुसार, नायर नाका (नाग या सांप) स्वामी थे, जिन्होंने चेरा (चेरा = सांप) साम्राज्य के सामंती शासकों के रूप में शासन किया। इसलिए यह सिद्धांत प्रस्तावित करता है कि नायर ब्राह्मण-पूर्व केरल के शासकों और सामरिक कुलीनों के वंशज हैं। लेकिन सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत सिद्धांत है कि जातीय समूह केरल के मूल निवासी नहीं हैं और केरल के नायर और उसी तरह मातृवंशीय तुलु नाडू के बंट क्षत्रियों के वंशज हैं, जो ब्राह्मणों के साथ दक्षिण पांचाल के अहिछत्र/अहिक्षेत्र से क्रमशः केरल और तुलु नाडू आए. द्वितीय चेरा राजवंश के राजा राम वर्मा कुलशेखर के शासन-काल के दौरान नायरों के बारे में उल्लेख मिलता है, जब चोलों द्वारा चेरा साम्राज्य पर हमला किया गया। नायर चढ़ाई करने वाले बल के खिलाफ़ आत्मघाती दस्ते (चेवर) का गठन कर लड़े. यह स्पष्ट नहीं है कि चेरा ख़ुद नायर थे, या चेराओं ने नायरों को योद्धा वर्ग के रूप में नियुक्त किया था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
17वीं सदी के ब्राह्मण-मलयाली ब्राह्मणों से प्रेरित केरलोलपति और तुलु ब्राह्मणों के पधती, केरल के नायरों और इसी तरह तुलु नाडू के मातृवंशीय बंटों का क्षत्रियों के वंशज के रूप में वर्णन करते हैं, जो क्रमशः उत्तरी पांचाल के अहिछत्र/अहिक्षेत्र से ब्राह्मणों के साथ केरल और तुलु नाडू पहुंचे। इस शहर के अवशेष वर्तमान भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में आओनला तहसिल में बसे रामनगर ग्राम में पाए गए।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
द मैनुअल ऑफ़ मद्रास अडमिनिस्ट्रेशन खंड दो (1885 में मुद्रित) नोट करता है कि कुंदगन्नदा (कन्नड़ भाषा) बोलने वाले नडवा या नाडा बंट और मलयालम बोलने वाले मालाबार के नायर तथा दक्षिणी तुलु नाडू के तुलु बोलने वाले बंट एक जैसे लोग ही हैं:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
तुलु नाडू से नायरों का अस्तित्व ग़ायब हो गया है लेकिन मध्ययुगीन बरकुर में पाए गए शिलालेखों और ग्राम पडती में, जो तुलु नाडू के ब्राह्मण परिवारों का इतिहास देता है, नायरों के बारे में कई संदर्भ हैं। लगता है कि ब्राह्मणों के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे और वे उनके संरक्षकों के रूप में कार्य करते थे, संभवतः वे 8वीं शताब्दी में कदंबा राजाओं द्वारा तुलु नाडू लाए गए थे। कदंब राजा मयूरवर्मा ने, जिन्हें अहिछत्र (उत्तर से) ब्राह्मणों को लाने का श्रेय दिया जाता है, नायरों को तुलु नाडू में बसाया और शिलालेखों में तुलु नाडू में नायरों की उपस्थिति का उल्लेख अलुपा काल (14वीं शताब्दी का प्रारंभिक अंश) के बाद आता है। केरल के राजाओं की तरह तुलु नाडू के बंट राजाओं के पुरखे भी नायर वंश के थे। उदाहरण के लिए, उडुपी जिले के कनजर के अंतिम बंट शासक को नायर हेग्गडे कहा जाता था। उनका महल कनजर दो़ड्डमने हालांकि अंशतः जीर्णावस्था में है, उसकी बहाली की जा रही है। काउडूर (कनजर के समीप) में बंटों का शाही घर नायर बेट्टु कहलाता है। इसके अलावा बंटों में "नायर" उपनाम भी प्रचलित है। ऐसा माना जाता है कि तुलु नाडू में नायरों को बाद में बंट समुदाय के सामाजिक स्तर में समाविष्ट कर लिया गया। यह भी माना जाता है कि मालाबार के नायर मूलतः तुलु नाडू से स्थानांतरित होकर बसे थे[2]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
उल्लेखनीय है कि बहुत हद तक नायरों और बंटों की परंपराएं और संस्कृतियां एकसमान है। संप्रति जो नायर अपने वंश को तुलु नाडू में खोज सकते हैं वे मालाबार क्षेत्र में केंद्रित हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
कुछ दशक पहले तक, नायर कई उपजातियों में विभाजित थे और उनके बीच अंतर-भोजन और अंतर-विवाह व्यावहारिक रूप से विद्यमान नहीं था। अंग्रेज़ों द्वारा संपन्न 1891 भारत की जनगणना में मालाबार क्षेत्र में कुल 138, त्रावणकोर क्षेत्र में 44 और कोचीन क्षेत्र में कुल 55 नायर उपजातियां सूचिबद्ध हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
अधिकांश नायरों के नामों के साथ उनका मातृक तरवाडु जुड़ा हुआ है। उसके साथ, वंश की आगे पहचान के लिए नामों के साथ उपनाम जोड़े जाते हैं। नायरों के बीच कई उपनाम पाए गए हैं। कुछ उपनाम उनके वीरतापूर्ण कार्य और सेवाओं के लिए राजाओं द्वारा प्रदत्त हैं। कोचीन के राजाओं ने नायरों को अचन, कर्ता, कैमाल और मन्नडियार जैसे श्रेष्ठता के खिताब प्रदान किए. मालाबार और कोचीन क्षेत्र के नायरों द्वारा मेनन खिताब का प्रयोग किया जाता है। वेनाड के दक्षिणी साम्राज्य (बाद में त्रावणकोर के रूप में विस्तारित), कायमाकुलम, तेक्कुमकुर और वेदक्कुमकुर ने प्रतिष्ठित नायर परिवारों को पिल्लै, तंपी, उन्निदन और वलियदन जैसे खिताबों से सम्मानित किया। कलरी जैसे सामरिक विद्यालयों को चलाने वाले नायरों के खिताब थे पणिक्कर और कुरुप. नांबियार, नयनार, किटवु और मिनोकी जैसे उपनाम केवल उत्तर केरल में देखे जा सकते हैं, जहां "नायर" उपनाम है जो पूरे केरल में सर्वव्यापी है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
मध्यम युगीन दक्षिण भारतीय इतिहास, इतिहासकार और विदेशी यात्रियों ने नायरों का उल्लेख सम्मानजनक सामरिक सामंतों के रूप में किया। नायरों के बारे में प्रारंभिक संदर्भ यूनानी राजदूत मेगस्थनीस का मिलता है। प्राचीन भारत के उनके वृत्तांतों में, वे "मालाबार के नायरों" और "चेरा साम्राज्य" का उल्लेख करते हैं।.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B0
नायर
नायरों की उत्पत्ति की व्याख्या करने वाले विभिन्न सिद्धांतों का लिहाज किए बिना, यह स्पष्ट है कि प्रारंभिक 20वीं सदी तक, नायरों ने मध्ययुगीन केरल समाज पर सामंती अधिपतियों के रूप में अपना प्रभाव जमाए रखा और उनके स्वामित्व में विशाल संपदाएं मौजूद रही हैं। मध्ययुगीन केरल में सामरिक सामंतों के रूप में समाज में नायरों की स्थिति की तुलना मध्ययुगीन जापानी समाज के समुराई के साथ की गई है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
निष्पादन-मूल्यांकन
निष्पादन-मूल्यांकन, कर्मचारी मूल्यांकन के रूप में भी ज्ञात, एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा किसी कर्मचारी के कार्य निष्पादन को मूल्यांकित किया जाता है (साधारणतया गुण, मात्रा, लागत एवं समय के संबंध में). निष्पादन-मूल्यांकन जीवन-वृत्ति विकास का ही एक हिस्सा है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
निष्पादन-मूल्यांकन
वेतन-वृद्धि, पदोन्नति, अनुशासनात्मक कार्रवाई, इत्यादि से संबंधित व्यक्तिगत फैसलों के लिए एक आधार तैयार करना।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
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संघीय समान रोजगार अवसर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए चयन तकनीकों और मानव संसाधन नीतियों को मान्य करना।
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निष्पादन-मूल्यांकन
किसी संख्यासूचक या अदिश श्रेणी पद्धति का प्रयोग करना, निष्पादन को मूल्यांकित करने का एक सामान्य तरीका है जिसमें प्रबंधकों को अनगिनत उद्देश्यों/लक्षणों के आधार पर किसी व्यक्ति विशेष को चिन्हित (स्कोर) करने के लिए कहा जाता है। कुछ कंपनियों में, आत्म-मूल्यांकन का निष्पादन करने पर भी कर्मचारियों को उनके प्रबंधक, समपदस्थ-कर्मचारियों, अधीनस्थ-कर्मचारियों और ग्राहकों से मूल्यांकन प्राप्त होते हैं। इसे 360° मूल्यांकन के रूप में जाना जाता है, जो अच्छी संचार व्यवस्था तैयार करता है।
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निष्पादन-मूल्यांकन
व्यवसायिक संस्थाओं द्वारा आम तौर पर सत्यनिष्ठा और अंतर्विवेकशीलता जैसे कारकों पर आश्रित लक्षण पर आधारित पद्धतियों का भी प्रयोग किया जाता है। इस विषय पर वैज्ञानिक साहित्य यह सबूत प्रदान करता है कि ऐसे कारकों पर कर्मचारियों को मूल्यांकित करने की पद्धति को त्याग देना चाहिए। इसके दोहरे कारण हैं:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
निष्पादन-मूल्यांकन
चूंकि परिभाषा के अनुसार लक्षण पर आधारित पद्धतियां व्यक्तित्व के लक्षणों पर आधारित होती हैं, इसलिए प्रतिपुष्टि प्रदान करने में प्रबंधक को कठिनाई होती है जो कर्मचारी के निष्पादन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है। इसका कारण यही है कि व्यक्तित्व के आयाम अधिकांश रूप से स्थिर होते हैं और जबकि कर्मचारी किसी विशेष व्यवहार को तो परिवर्तित कर सकता है लेकिन अपने व्यक्तित्व को परिवर्तित नहीं कर सकता है। उदाहरणस्वरूप, जिस व्यक्ति में सत्यनिष्ठा का अभाव होता है, वह प्रबंधक के सम्मुख झूठ बोलना बंद कर सकता है क्योंकि उन्हें पकड़ लिया गया है, लेकिन उनमें अभी भी सत्यनिष्ठा की भावना बहुत कम होती है और जब पकड़े जाने का डर चला जाता है तो फिर से झूठ बोलने की संभावना बन जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
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चूंकि लक्षण पर आधारित पद्धतियां अस्पष्ट होती हैं, इसलिए ये बड़ी आसानी से कार्यालय की राजनीति से प्रभावित हो जाती हैं जिसके कारण ये किसी कर्मचारी के सटीक निष्पादन के सूचना-स्त्रोत के रूप में कम विश्वसनीय होती हैं। इन साधनों की अस्पष्टता प्रबंधकों को इस बात की अनुमति प्रदान करता है कि वे जिन्हें चाहते हैं अथवा उन्हें जो उचित लगता हैं कि उनकी उन्नति होनी चाहिए, तो वे इस आधार पर उनका चयन कर सकते हैं जबकि इसकी जगह वे कर्मचारियों के उन विशेष व्यवहारों पर आधारित अंकों के आधार पर भी उनका चयन कर सकते थे जिन व्यवहारों में उन्हें व्यस्त होना/नहीं होना चाहिए। ये पद्धतियां भेदभाव के दावों के लिए किसी कंपनी को खुला छोड़ देने जैसा ही हैं क्योंकि कोई भी प्रबंधक उनके विशेष व्यवहारिक सूचना की सहायता के बिना ही पक्षपातपूर्ण निर्णय ले सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
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PTF रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया कि "यद्यपि मंत्रालयों और विभागों के वार्षिक रिपोर्ट अनिवार्य हैं, लेकिन शायद ही कभी उन्हें तैयार किया जाता है और सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है और जहां वे प्रस्तुत किएय जाते हैं वहां या तो विषय-वस्तु या प्रारूप के संबंध में वे अपर्याप्त होते हैं और शायद ही किसी मानक की पुष्टि करते हैं। सिफ़ारिश यही थी कि मंत्रालयों द्वारा लक्ष्य निर्धारण होना चाहिए जहां ठोस और औसत उपलब्धि का अनुमान लगाया जा सके (PTF रिपोर्ट धारा 10 उपधारा 10.1).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8
निष्पादन-मूल्यांकन
1998, आर्चर नॉर्थ & एसोसिएट्स, निष्पादन-मूल्यांकन का उपक्रम, https://web.archive.org/web/20091218090346/http://www.performance-appraisal.com/intro.htm
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1,941.232342
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%95
विरंजक
सोडियम हाइपोक्लोराइट और मिट्टी की अभिक्रिया के दौरान कार्बन टेट्राक्लोराइड, ट्राइहैलोमेथेन्स (THM, जैसे कि क्लोरोफॉर्म), ट्राइहैलोएसिटिक एसिड (THAA, इस मामले में ट्राइक्लोरोएसिटिक एसिड) सहित, अवशोषण योग्य कार्बनिक हैलाइड्स (AOX) का उच्च स्तर प्राप्त किया जा सकता है। अधिकांश AOX धोने के पानी के साथ सीवर में जाते हैं।
0.5
1,937.567002
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विरंजक
पानी में हाइपोक्लोराइट और क्लोरीन साम्य अवस्था में रहते हैं; साम्य pH पर निर्भर होता है और कम pH (एसिडिक) क्लोरीन का समर्थन करता है।
0.5
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विरंजक
क्लोरीन एक श्वसन उत्तेजक है जो श्लेष्म झिल्ली पर हमला करता है और त्वचा को जला देता है। 3.५३ पीपीएम गंध से पता लगाया जा सकता है और 1000 पीपीएम कुछ गहरी श्वास लेने पर खतरनाक साबित हो सकता है। अमेरिका में OSHA द्वारा क्लोरीन के संपर्क में आने को 0.5 पीपीएम (8-घंटे-वजन भार-38 घंटे साप्ताहिक तक सीमित किया गया है।
0.5
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विरंजक
तापमान, सांद्रता और वे कैसे मिश्रित होते हैं के आधार पर वे कैसे सोडियम हाइपोक्लोराइट और अमोनिया कई उत्पादों को बनाने के लिए अभिक्रिया करते हैं। पहले क्लोरामीन (NH2Cl), फिर डाइक्लोरामीन (NHCl2) और अंततः नाइट्रोजन ट्राइक्लोराइड (NCl3) डालते हुए मुख्य अभिक्रिया अमोनिया का क्लोरीनीकरण है। ये पदार्थ आंखों और फेफड़ों के लिए उत्तेजक हैं और निश्चित सांद्रता के ऊपर हैं जहरीले.
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विरंजक
बनाई गई हाइड्राज़ीन आगे ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया में मोनोक्लोरामीन के साथ अभिक्रिया करके हाइड्राज़ीन बनाती है:
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विरंजक
औद्योगिक विरंजन एजेंट भी चिंता का विषय हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, लकड़ी की लुगदी का विरंजन में तात्विक क्लोरीन का उपयोग, डाइऑक्सीन सहित ऑर्गैनोक्लोरीन और चिरस्थाई कार्बनिक प्रदूषक बनाता है। किसी औद्योगिक समूह के अनुसार, ढूंढी जा सकने वाले स्तर तक इन प्रक्रियाओं में क्लोरीन डाइऑक्साइड का उपयोग डाइऑक्सीन का निर्माण कर दिया गया है। हालांकि, क्लोरीन से श्वसन जोखिम और उच्च विषाक्त क्लोरीनीकृत गौण उत्पाद अभी भी मौजूद हैं।
0.5
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विरंजक
एक हाल की यूरोपीय अध्ययन में संकेत दिया गया कि सोडियम हाइपोक्लोराइट और कार्बनिक रसायन (जैसे, सर्फैक्टेंट्स और खूशबू) कई घरेलू सफाई उत्पादों के साथ अभिक्रिया करके क्लोरीनीकृत वाष्पशील कार्बनिक कंपाउंड (VOC) बना सकते हैं। ये क्लोरीनीकृत कंपाउंड सफाई के दौराम निकलते हैं, यौगिकों chlorinated आवेदनों की सफाई के दौरान उत्सर्जित कर रहे हैं, जिनमें से कुछ कर रहे हैं एस विषैले और संभावित मानव कैसरजन अध्ययन ने बताया कि विरंजन वाले उत्पादों के इस्तेमाल होने पर, घर के अंदर की हवा सांद्रता महत्वपूर्ण रूप से बढ़ती है (क्लोरोफॉर्म के लिए 8-52 गुणा और कार्बन टेट्राक्लोराइड के लिए 1-1170 गुणा, घर में आधार रेखा से ऊपर मात्रा). क्लोरीनीकृत वाष्पशील कार्बनिक उत्पाद सांद्रता में वृद्धि, सादे विरंजन के लिए न्यूनतम और "मोटे तरल और जेल" वाले उत्पादों के लिए अधिकतम था। घर के अंदर की हवा सांद्रता में क्लोरीनीकृत VOC (विशेष रूप से कार्बन कार्बन टेट्राक्लोराइड और क्लोरोफॉर्म) की महत्वपूर्ण बढ़त इंगित करती है कि विरंजक का उपयोग एक स्रोत हो सकता है, जो इन कंपाइंड के संपर्क में श्वास लेने के महत्वपूर्ण हो सकता है। जबकि लेखकों ने सुझाव दिया कि इन सफाई उत्पादों का उपयोग कैंसर जोखिम काफी हद तक बढ़ा सकता है, यह निष्कर्ष काल्पनिक प्रतीत होता है:
0.5
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विरंजक
कार्बन टेट्राक्लोराइड (सर्वोच्च चिंता का विषय प्रतीत होता है) के उच्चतम स्तर वाले स्थान 459 मोइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर, 0.073 पीपीएम (प्रति मिलियन भाग) में अनुदित, या 73 पीपीबी (प्रति अरब भाग) है। OSHA-स्कावीर्य की औसत सांद्रता आठ-घंटे की समय तुला पर 10 पीपीएम है, लगभग 140 गुणा अधिक;
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विरंजक
OSHA द्वारा स्वीकृत उच्चतम सांद्रता (4 घंटे की अवधि में 5 मिनट का संपर्क) 200 पीपीएम है, दो बार के लिए और अधिक उच्च स्तर (विरंजक के साथ डिटर्जेंट के किसी नमूने बोतल के मुखस्थान से) रिपोर्ट किया गया है।
0.5
1,937.567002
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जीवाश्मविज्ञान
मोटे तौर पर जीवाश्म विज्ञान के अधार पर निम्नलिखि चार मुख्य प्राणी तथा पादप जातीय महाकल्प स्थापित किए जा सकते हैं :
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1,931.511153
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जीवाश्मविज्ञान
(1) पूर्व पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत कैंब्रियन (cambrian), ऑर्डोविशन (ordovician) और सिल्यूरियन (silurian) कल्प आते हैं।
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जीवाश्मविज्ञान
(2) उत्तर पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत डियोनी (devonian), कार्बनी (carboniferous) और परमियन कल्प आतें हैं।
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जीवाश्मविज्ञान
प्राय: सब प्रमुख अकशेरुकी प्राणियों के प्रतिनिधि जीवाश्म कैंब्रिन स्तरों में पाए जाते हैं और उनमें से ट्राइलोबाइट जैसे कुछ प्राणी आदिक्रैंब्रियन काल में ही अपेक्षया अधिक विकसित हो चुके थे। अत: यह धारण कि कैंब्रियन स्तरों में पाए जानेवाले सब वर्गों के पूर्वज कैंब्रियन पूर्व काल में पाए जाते थे, बिलकुल उचित है, यद्यपि उनके अवशेष कैंब्रियन पूर्व शैलों में नहीं मिलते। यह कल्पना की जा सकती है कि कैंब्रियनपूर्व समुद्रों में सब प्रकार के प्राणी रहते थे, परंतु वे सब कोमलांगी पूर्वज थे, जिन्होंने अपने अस्तित्व के विषय में किसी भी प्रकार के चिह्र नहीं छोडें हैं। चूँकि सब प्रकार के प्राणी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं और पौधों में ही केवल अकार्बनिक खाद्य पदार्थ के परिपाचन की शक्ति होती है, अत: यह भी धारणा उचित प्रतीत होती है कि कैंब्रियन पूर्व काल में पौधे अस्तित्व में थे। परंतु यह आश्चर्य की बात है कि पौधों के अवशेष पुराजीवी महाकल्प के स्तरों में नहीं पाए गए हैं।
0.5
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जीवाश्मविज्ञान
आर्थोपोडा - इसमें टाइलोबाइट की अति प्रचुरता थी। अधिकांशत: ये उथले जलवासी थे और उनका उपयोग क्षेत्रीय जीवाश्म के रूप में किया जाता है। इनमें से कुछ गहरे जल के वासी थे, जो या तो बड़ी बड़ी आँखोंवाले थे, अथवा नेत्रहीन थे। क्रस्टेशिया (crustacia) विरल थे, किंतु यूरिप्टेरिडा (eurypterida) का सिल्यूरियन कल्प में बाहुल्य हो गया था।
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जीवाश्मविज्ञान
मोलस्का (Mollusca) - इसमें गैस्ट्रोपोडा का बाहुल्य था, किंतु लैम्लीब्रैंकिया प्रारंभिक प्ररूप में थे। सेफेलोपोडा का नॉटिलाइट के रूप में बाहुल्य था।
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जीवाश्मविज्ञान
ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) - इनका कैंब्रियन एवं सिल्यूरियन कल्प में बाहुल्य था। फॉस्फेटी कवचवाले प्राणी कैल्सियमी कवचवाले प्राणियों की अपेक्षा अधिक थे।
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जीवाश्मविज्ञान
सीलेनूटरेटा (Coelenterata) - ग्रैपटोलाइटीज़ (Graptolites) अति महत्व के थे। वे अधिकांशत: गहरे और शांत जल के वासी थे।
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जीवाश्मविज्ञान
प्रोटोज़ोआ (Protozoa) - यद्यपि रेडियोलेरिया और फोरैमिनीफेरा अति सरल आकार के थे, तथाप वे पूर्व पुराजीव महाकल्प में महत्व के नहीं थे।
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कोरबा
कोरबा का अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी है यहाँ ४५ प्रतिशत उद्द्योग से और ५० प्रतिशत कृषि और ५ प्रतिशत अन्य साधनों से आय प्राप्त होती है यहाँ पर कृषि के लिए जल संसाधन अच्छी स्रोत है इसके साथ ही सिंचाई के लिए नहरे निकली गयी है
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कोरबा
कोरबा शहर लगभग कालोनियों से भरा हुआ है यहाँ एन टी पी सी बालको एच टी पी पी एस ई सी एल की कालोनियों से बसा हुआ है साथ ही कालोनियों का परस्पर प्रेम सदभाव वाले माहौल देखने को भी मिलता है
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
चैतुरगढ़ को लाफागढ़ के नाम से भी जाना जाता है। कोरबा जिला मुख्यालय से 70 कि॰मी॰ दूर पाली के पास 3060 मी. ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। इसका निर्माण राजा पृथ्वी देव ने कराया था। यह एक किले जैसा लगता है। इसमें तीन प्रवेश द्वार हैं। इन प्रवेश द्वारों के नाम मेनका, हुमकारा और सिम्हाद्वार हैं।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
चैतुरगढ़ का क्षेत्रफल 5 वर्ग कि॰मी॰ है और इसमें पांच तालाब हैं। इन पांच तालाबों में तीन तालाब सदाबहार हैं, जो पूरे वर्ष जल से भरे होते हैं। चैतुरगढ़ में महिषासुर मर्दिनी मन्दिर है। मन्दिर के गर्भ में महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा स्थापित की गई है, जिसके बारह हाथ हैं। नवरात्रों में यहां पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। स्थानीय निवासी इस पूजा में बड़ी श्रद्धा से भाग लेते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
मन्दिर के पास खूबसूरत शंकर गुफा भी है, जो लगभग 25 फीट लंबी है। गुफा का प्रवेश द्वार बहुत छोटा है। इसलिए पर्यटकों को गुफा में प्रवेश करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। मन्दिर और गुफा देखने के अलावा पर्यटक इसकी प्राकृतिक सुन्दरता की झलकियां भी देख सकते हैं। वह यहां पर पर वन्य पशु-पक्षियों को देख सकते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
कोरबा-कटघोरा रोड पर फुटका पहाड़ की चोटी पर स्थित कोसगाईगढ़ बहुत खूबसूरत है। यह समुद्र तल से 1570 मी. की ऊंचाई पर स्थित है। कोसागाईगढ़ में एक खूबसूरत किला है। इसका प्रवेश द्वार एक गुफा की भांति है और यह इतना संकरा है कि इसमें से एक बार में केवल एक व्यक्ति गुजर सकता है। किले के चारों तरफ घना जंगल है, जिसमें अनेक प्रजाति के वन्य पशु-पक्षियों को देखा जा सकता है। कोसगाईगढ़ में पर्यटक किले के अलावा भी अनेक ऐतिहासिक अवशेषों देख सकते हैं। यहां स्थित माता कोसगाई के मंदिर की अपनी महिमा है, मंदिर में माता की इच्छानुरुप छत नहीं बनाया गया है।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
कोरबा जिला मुख्यालय से 22 कि॰मी॰ की दूर कोरबा-चांपा रोड पर मड़वारानी मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर एक चोटी पर बना हुआ है और मदवरानी देवी को समर्पित है। स्थानीय निवासी के अनुसार सितम्बर-अक्टूबर में नवरात्रों में यहां पर कल्मी के वृक्ष के नीचे ज्वार उगती है। नवरात्रों में यहां पर स्थानीय निवासियों द्वारा भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में स्थानीय निवासियों के साथ पर्यटक भी बड़े उत्साह से भाग लेते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
कोरबा शहर से लगा हुआ दुर्गा देवी को समर्पित सर्वमंगला मन्दिर कोरबा के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। इसका निर्माण कोरबा के जमींदर राजेश्वर दयाल के पूर्वजों ने कराया था। सर्वमंगला मन्दिर के पास त्रिलोकीनाथ मन्दिर, काली मन्दिर और ज्योति कलश भवन हैं। पर्यटक इन मन्दिरों के दर्शन भी कर सकते हैं। इन मन्दिरों के पास एक गुफा भी जो नदी के नीचे से होकर गुजरती है। कहा जाता है कि रानी धनराज कुंवर देवी इस गुफा का प्रयोग मन्दिरों तक जाने के लिए किया करती थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE
कोरबा
कोरबा तक जाने के लिए रेल मार्ग एक बेहतर जरिया हैं। एक्सप्रेस गाड़ियों में कोरबा-यशवंतपुर (वेनगंगा एक्सप्रेस), कोरबा-अमृतसर (छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस), कोरबा (बिलासपुर)-नागपुर (शिवनाथ एक्सप्रेस) और कोरबा-तिरुअनंतपुरम (कोचिन एक्सप्रेस) के अलावा कई लोकल ट्रेने बिलासपुर से कोरबा के लिए चलती हैं। हावड़ा-मुंबई रुट से अलग होने की वजह से कोरबा जाने वाले यात्रियों के लिए हावड़ा-मुंबई रूट पर चलने वाली कई ट्रेनों को निकटस्थ रेलवे स्टेशन चांपा में स्टापेज दिया जाता है।
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1,907.478291
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%88%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%8F%E0%A4%AE
आईबीएम
मई 2002, में आई बी एं और बुट्टरफ्लाई.नेट, इंक ने घोषणा की कि बट्टर फ्लाई ग्रिड (grid), ऑनलाइन विडियो गेमिंग बाज़ार के लिए एक वाणिज्यिक ग्रिड है। मार्च 2006, आई बी एं ने होप्लों इन्फोतैन्मेंट के साथ अलग समझौते की घोषणा की, ऑनलाइन गेम सर्विसेस इन्कोर्पोरातेद (ओजीएसआई) और मांग सामग्री प्रबंधन और ब्लेड सर्वर (blade server) कंप्यूटिंग संसाधनों प्रदान करने के लिए रेंडर रॉकेट का प्रयोग होगा।
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1,905.07222
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%88%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%8F%E0%A4%AE
आईबीएम
आई बी एं ने घोषणा की कि यह एक नया सॉफ्टवेर का शुभारम्भ करेगी जिसका नाम "ओपन क्लाइंट ओफ्फेरिंग" जो माइक्रोसॉफ्ट के विन्डोज़ (Windows), लिनुक्स और एप्पल (Apple) के मसिन्तोश पर चलेगी (Macintosh).कंपनी ने कहा कि इनका नया उत्पाद कारोबार में कर्मचारियों को विण्डोज़ और इसके विकल्पी पर यही सॉफ्टवेर का प्रयोग करने का अनुमति देता है। इसका अर्थ है कि "ओपन क्लाइंट ओफ्फेरिंग" चाहे विण्डोज़ के सम्बन्धी लिनुक्स या एप्पल हो प्रबंधन में लागत कि कमी होगी। कंपनियों के लिए यह जरूरी नहीं कि वे ओपरेशन लाईसेन्स के लिए माइक्रोसॉफ्ट को भुगतान करे जब तक विण्डोज़ पर आधारित सॉफ्टवेर पर ओपरेशन बहुत देर तक नहीं जाती है। माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस का एक विकल्प ओपन दोचुमेंट फॉर्मेट सॉफ्टवेर है जिसका विकास आई बी एं के समर्थन से हुआ है। इसका प्रयोग अनेक कार्यो के लिए होगा जैसे; वर्ड प्रोसेसिंग, प्रस्तुतीकरण, लोतुस नोट्स (Lotus Notes) के सहयोग के साथ, तुंरत संदेश और ब्लॉग उपकरण के साथ साथ इन्टरनेट एक्स्प्लोरर (Internet Explorer) के प्रतियोगी फायरफोक्स वेब ब्राउजर. आई बी एं ओपन क्लाइंट को अपने डेस्कटॉप पीसी में ५ प्रतिशत पर स्थापित करने की योजना बना रही है।
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आईबीएम
UC2(एकीकृत संचार और सहयोग) आई बी एं और सिस्को (Cisco) का संयुक्त परियोजना ग्रहण (Eclipse) और ओसीजीआई (OSGi) पर आधारित है। यह कई ग्रहण अप्लिकेसन डेवेलोपेर्स आसान कार्य का पर्यावरण के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
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आईबीएम
UC2 पर आधारित सॉफ्टवेर बड़े उद्यमों को संचार समाधान के साथ प्रदान करेगा जैसे लोटस पर आधारित सेम टाइम (Sametime). भविष्य में सेम टाइम उपयोगकर्ता अतिरिक्त कार्य से लाभ मिलेगा जैसे क्लिक टू कॉल (click-to-call) और वौइस् मेलिंग (voice mailing).
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आईबीएम
एक्सट्रीम ब्लू (Extreme Blue) कंपनी सबसे पहले अनुभवी आई बी एं इंजीनियरों, प्रतिभावान और उच्च मूल्य प्रौद्योगिकी का विकास के लिए व्यापार प्रबंधकों का प्रयोग करता है। इस परियोजना का डिजाईन उभरते व्यापार की जरूरत और तकनीक जो उसका समाधान कर सकता है का विश्लेषण करता है। इस परियोजना में अधिकतर उच्च प्रोफाइल सॉफ्टवेर और हार्डवेयर परियोजना का रापिड (तेजी) प्रोटो टाइपिंग सम्मिलित है।
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आईबीएम
मई 2007, में बिग ग्रीन परियोजना (Project Big Green) का अनावरण किया-- $1 billion प्रति वर्ष अपने पूरे व्यापार में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने का एक पुनः दिशा.
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आईबीएम
सूचना प्रबंधन सॉफ्टवेर (Information Management Software) — डाटा बेस सर्वर और उपकरण, पाठ विश्लेषिकी, व्यवसाय प्रक्रिया प्रबंधन और व्यापार खुफिया.
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आईबीएम
तर्कसंगत सॉफ्टवेर (Rational Software) — सॉफ्टवेर विकास और अनुप्रयोग जीवन चक्र प्रबंधन.2002 में अर्जित किया गया।
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आईबीएम
आईबीएं का अपने पर्यावरण की समस्याओं से निपटने का एक लंबा इतिहास है। 1971, में इसने वैश्विक पर्यावरण प्रबंधन प्रणाली के सहयोग के साथ पर्यावरण संरक्षण पर संस्था प्रणाली की स्थापना की। आई बी एं के अनुसार इसका कुल खतरनाक कचड़ा पिछले पाँच वर्षों में ४४ प्रतिशत कम हुई है और 1987.से 94.6 प्रतिशत कम हुई है। आई बी एं का कुल कचड़ा गणना निर्माण कार्यों तथा निर्माण ओपेरेसन दोनों को मिलकर शामिल है। निर्माण कार्य ओपेरेसन का अपशिष्ट में, बंद पाश सिस्टम में कचड़ा होता है जहाँ रसायन प्रक्रिया बरामद होते हैं और पुनः प्रयोग किए जाते हैं, बजाये सिर्फ़ दिस्पोसिंग और नए रसायन पदार्थों के प्रयोग शामिल हैं इन वर्षों में आई बी एं तक़रीबन सभी संवृत पाश रीसाइक्लिंग को समाप्त करने के लिए और अब अपनी जगह में और अधिक पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का प्रयोग के लिए फिर से डिजाईन किया है।
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आक्रामकता
शास्त्रीयों द्वारा आक्रामकता का अध्ययन इस लिये किया जाता है क्योंकि इसका संबंध जानवरों पारस्परिक मेल तथा प्राकृतिक पर्यावरण में विकास संबंधित है।
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आक्रामकता
1. बल द्वारा विशेष रूप से उसके क्षेत्रीय अधिकार; दूसरे राज्य, के अधिकारों का उल्लंघन करने में एक राज्य की कार्यवाही एक अकारण आक्रामक, हमला, आक्रमण
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आक्रामकता
आक्रामकता शारीरिक रूप से एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से हो सकती हैं। शारीरिक आनुवंशिक या सहज इरादों और मनोवैज्ञानिक किसी स्थिति में होने के कारण या लिंग भेद होने के कारण हो।
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आक्रामकता
कई लोगों को लगता है कि आक्रामकता मूल प्रवृत्ति है। भले ही शायद लोगों ने फ्रायड की मौत-वृत्ति के विषय में पढ़ा नहीं है। और अगर पढ़ा भी है तो शायद ही मौत-वृत्ति की धारणा को स्वीकार करें। लोकप्रिय स्तर पर आक्रामकता को एक जन्मजात आंतरिक रूप से निर्देशित विनाशकारी प्रवर्ती का एक बाह्य विस्थापना के रूप में इतना नहीं देखा जाता है, बल्कि एक सार्वभौमिक बाह्य र्निदेशित प्रवर्ती, संभवतः एक उत्तरजीविता प्रवृत्ति से जुड़ा एक गुण के रूप, में जो जानवरों को मानव जाति के साथ एकजुट करती है। कई लोगों का मानना है कि मानव आक्रामकता को स्पष्ट समझने के लिए गैर मानव पशु दुनिया का अध्ययन लाभदायक हो सकता है।
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आक्रामकता
कोर्नाड़ लोऱैंज़, जिनकी १९६६ में आक्रामकता पर लिखी किताब ने प्रमुख प्रभाव बनाया। लोऱैंज़ का अध्ययन विभिन्न पशु प्रजातियों, विशेष रूप से मछली और पक्षियों और थोड़ा गैर मनुष्य-सदृश जानवर पर आधारित है। लोऱैंज़ ने इन विभिन्न प्रजातियों में एक प्रवृत्ति देखी, की वह अपनी ही प्रजाति के दूसरे समूहों से अतिक्रमण की कोशिश से क्षेत्र की रक्षा करते हैं, अपनी प्रजाति की मादा को पाने के लिए प्रतिद्वंद्वी को हराना और अपनी प्रजाति के नवजात एवं युवा आयु और रक्षाहीन सदस्यों की रक्षा करना। लोऱैंज़ यह पातें हैं कि ऐसी आक्रामकता उस उपलब्ध पर्यावरण पर उसी प्रजाति के जानवरों में 'संतुलित वितरण' का कार्य करती है। और यह जीन-पूल को लगातार मज़बूती प्रदान करती है ओर लगातार सुधारती है, और नवजात एवं युवा सदस्यों के अतिजीवन की संभावना को बढ़ाती है। इन तीन तरीकों से, आक्रामकता प्रजातियों को नियमित रूप से इसे यह पर्यावरण के लिए अधिक अनुकूल एवं सुधारनें में मदद करती है। लोऱैंज़ इस के अलावा आक्रामकता को, सामाजिक संरचना के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका के लिए भी श्रेय देते हैं।
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आक्रामकता
आक्रामकता एक प्रवृत्ति को मानने वाले भेदक प्रभाव को आक्रामकता की अभिव्यक्ति का कारण मानते हैं। अनुभवजन्य अनुसंधान, हालांकि, इस पर शक डालता है। दुर्भाग्य से भेदक प्रभाव के सिद्धांत को मानने वाले गलत सिद्ध हुऐ। वह दम्पती जो आपस में बहस करतें हैं उन में हिंसक बनने की प्रवृत्ति अधिक होने की संभावना होती है। जो पति अपनी पत्नियों को धक्का देते हैं उन में अपनी पत्नियों को थप्पड़ और मुक्का मारने की सबसे अधिक संभावना रहती हैं। आपराधिक हिंसा के एक व्यक्ति की इस साल हिंसा करने की संभावना का सबसे अच्छा भविष्यवक्ता उसके पिछले साल के आपराधिक हिंसा का इतिहास है। हिंसा से हिंसा पैदा हो रही है बजाय इसके की वह कम हो।
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आक्रामकता
आक्रामकता का दूसरा सिद्धांत जन्मजात पूर्ववृत्ति से हट के बाह्य रूप की उत्तेजनाओं को आक्रामकता के स्रोतों के रूप में मानता है। केंद्रीय कल्पना यह है कि आक्रामकता परिभाषित उत्तेजनाओं, परिभाषित उत्तेजना जिसे हताशा कहते हैं।
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आक्रामकता
शास्त्रीय ग्रंथों में इस विषय में डोलार्ड और उनके सहयोगियों ने शुरू में साहसिक दो भागी अभिकथन की रचना की, जिसमें यह कहा 'आक्रामक व्यवहार की घटना का कारण हमेशा हताशा का होना माना गया', और यह कि ' हताशा का होना हमेशा आक्रामकता को किसी न किसी रूप में जन्म देता है।
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आक्रामकता
"मानव व्यवहार जटिल और बहुआयामी है; कोइ भी उत्तेजना की हमेशा एक विशिष्ट व्यावहारिक प्रतिक्रिया होगी या विशिष्ट व्यावहारिक प्रतिक्रिया से पहले वही खास उत्तेजना घटी यह कल्पना करना असामान्य और साहसी है। और, वास्तव में, डोलार्ड और उनके सहयोगि इस मत पर शुरुआत से आलोचना के लिए तैयार थे।
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ग्रामोफ़ोन
अभिलिखित ध्वनि का प्रथम वास्तविक पुनरुत्पादन टी.ए. एडिसन द्वारा सन् 1876 में संभव हो सका। ऐडिसन ने अपने यंत्र को फोनोग्राफ नाम दिया। इसमें एक पीतल का बेलन था, जिसपर सर्पिल रेखा बनाई जाती थी। बेलन से एक क्षैतिज पेंच लगा होता था। लगभग 2 इंच व्यासवाले पीतल के एक छोटे से बेलन के मुँह पर पार्चमेंट की एक झिल्ली तानी जाती थी। झिल्ली के केंद्र से एक इस्पात की सूई संलग्न होती थी जिसकी नोक छेनीदार होती थी। सूई की नोक के पास इस्पात की एक कठोर कमानी लगाई जाती थी। कमानी का दूसरा सिरा पीतल के बेलन से जुड़ा होता था। अभिलेखी बड़े बेलन पर इस प्रकार रखा जाता था कि बेलन के घूमने पर सूई की पतली धार सर्पिल खाँच (ग्रूव) के बीच में चले। बेलन पर टिन की पन्नी की एक परत होती थ। जब छोटे बेलन में ध्वनि का प्रवेश कराकर झिल्ली को कंपायमान किया जाता था तब दोलनों के दबाबों की विभिन्नता के कारण खाँच के तल में पन्नी पर चिन्हक द्वारा विभिन्न गहराइयों की खुदाई हो जाती थी। यह खुदाई ध्वनि तरंगों के अनुरूप होती थी।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%8B%E0%A4%A8
ग्रामोफ़ोन
ध्वनि के पुनरुत्पादन के लिये खाँच पर एक दूसरा चिन्हक रखा जाता था। चिन्हक खुदाई का अनुसरण करता हुआ क्रम से ऊपर या नीचे जाता था और इस तरह वह झिल्ली को, जिस प्रकार वह अभिलेखन के समय कंपित की गई थी उसी प्रकार, कंपित होने के लिये बाध्य करता था। झिल्ली के कंपन वायु को कंपित करते थे और इस प्रकार पूर्वध्वनि का पुनरुत्पादन होता था।
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ग्रामोफ़ोन
आगे चलकर इसमें बहुत से सुधार किए गए। एडिसन के मोम के बेलनवाले फोनोग्राफ ओर ग्रैहम बेल तथा सी.एस. टेंटर के ग्रामोफोन में रिकार्ड पर ऊपर नीचे खुदाई करके नहीं, वरन् कटाई करके, ध्वनि अभिलेखन किया गया। ध्वनि पुनरुत्पादन विद्युत्-जमाव-प्रक्रिया द्वारा किया गया। फोनोग्राफ की तरह बेलनाकार रिकार्डों का उपयोग करनेवाली मशीनें बहुत दिनों तक जनप्रिय नहीं, परंतु इनमें बहुत सी त्रुटियाँ थीं। इन त्रुटियों में से कुछ को दूरकर एमाइल बर्लिनर (Emile Berliner) ने सन् 1887 में एक यंत्र बनाया, जिसे ग्रामोफोन नाम दिया।
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ग्रामोफ़ोन
उसके पेटेंट विवरण के प्रथम रेखाचित्र में एक बेलनाकार रिकार्ड था, जो काजल से पुते एक कागज के रूप में था। यह कागज एक ढोल पर लिपटा था। काटनेवाली सूई क्षैतिज दिशा में चलती थी और काजल को हटाकर एक सर्पिल रेखा बनाती थी। पुनरुत्पादन के लिये उसने रिकार्ड की नकल यांत्रिक ढंग से, खुदाई या कटाई कर प्रतिरोधी पदार्थ पर की। उसने ताँबा, निकल या अन्य किसी धातु का स्थायी रिकार्ड बनाया, जिसपर सर्पिल गहरी रेखा थी। अभिलिखित ध्वनि को उत्पन्न करने के लिये रिकार्ड एक ड्रम पर लपेटा जाता था और सूई की नोक खाँच में रखी जाती थी तथा ड्रम को घुमाया जाता था।
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ग्रामोफ़ोन
बर्लिनर के दूसरे और संशोधित ग्रामोफोन में रिकार्ड के लिये एक चौरस पट्टिका का उपयोग किया गया। काँच की एक पट्टिका पर स्याही, या रंग की एक परत जमा देते थे। उसपर सूई किनारे से केंद्र की ओर, या केंद्र से किनारे की ओर, सर्पिल रेखा बनाती थी। एक मेज पर रिकार्ड पट्टिका को रखकर मेज को किसी उपयुक्त प्रकार से घुमाया जाता था। पट्टिका पर एक ऐसे पदार्थ की परत जमाई जाती थी जो सूई की गति का बहुत कम प्रतिरोध करता था और अम्लों से प्रभावित नहीं होता था। बेंज़ीन में घुले हुए मधुमक्खी के मोम को उसने उपयुक्त पाया। जब सूई से रिकार्ड पर खाँच बन जाती थी ओर उसके तल पर ठोस खुला रह जाता था, तब अम्ल डालकर खुदाई की जाती थी और स्थायी रिकार्ड बना लिया जाता था। कड़े रबर या अन्य पदार्थों की पट्टिकाओं को दबाकर रिकार्ड की प्रतिलिपियाँ प्राप्त की जाती थीं। पट्टिकानुमा रिकार्डों का निर्माण सन् 1897 में जाकर कहीं व्यापारिक दृष्टि से सफल हो सका।
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