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20231101.hi_145205_15
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आदित्यहृदयम्
23 ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।
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1,483.925178
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आदित्यहृदयम्
24 देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।
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आदित्यहृदयम्
25 राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।
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आदित्यहृदयम्
26 इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो। इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।
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आदित्यहृदयम्
28, 29, 30 उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की और देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की और देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढे। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।
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नरसिंहपुर
यह आश्रम परमहंसी गंगा आश्रम के नाम से भी जाना जाता है। नरसिंहपुर का यह लोकप्रिय आध्यात्मिक केन्द्र संत जगतगुरू शंकराचार्य जोतेश और द्वारकाधीश पीठाधेश्‍वर सरस्वती महाराज से संबंधित है। कहा जाता है कि उन्होंने काफी लंबे समय तक ध्यान लगाया था। सुनहरा राजाराजेश्‍वरी त्रिपुर सुंदरी मंदिर यहां का मुख्य आकर्षण है। जोटेश्‍वर मंदिर, लोधेश्‍वर मंदिर, हनुमान टेकरी और शिवलिंग यहां के अन्य पूज्यनीय स्थल हैं। बसंत पंचमी के मौके पर यहां सात दिन तक समारोह आयोजित किया जाता है।
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नरसिंहपुर
झोतेश्वर से तीन किलोमीटर पास एवं गोटेगाव से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।इस पावन गांव मे भगवान जगन्नाथ का प्राचीन मंदिर है।एव भगवान् शिव का भी अति प्राचीन मंदिर है जिसे नदिया पहले पार के नाम से जाना जाता है।
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नरसिंहपुर
डमरू घाटी नरसिंहपुर का एक पवित्र स्थल है। गाडरवारा रेलवे स्टेशन से यह घाटी ५. किमी. की दूरी पर है। घाटी की मुख्य विशेषता यहा शिव जी की एक विशाल मूर्ती है इसके भीतर एक छोटा शिवलिंग बना हुआ है। हर बर्ष महाशिवरात्रि पर 7 दिन यहाँ मेला लगता है
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नरसिंहपुर
इस प्राचीन नगर की खुदाई से अनेक ऐतिहासिक इमारतों का पता चला है। इतिहास की किताबों और दूसरी शताब्दी की हस्तलिपियों में इस स्थान का उल्लेख मिलता है। बचई के निकट ही बरहाटा एक अन्य ऐतिहासिक स्थल है।
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नरसिंहपुर
प्रारंभ में बालीस्थली के नाम से मशहूर यह नरसिंहपुर का एक छोटा-सा गांव है। यह स्थान महाभारत से भी संबंधित माना जाता है। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास का कुछ समय यहां व्यतीत किया था।
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नरसिंहपुर
स्वामी स्वरूपानंद सरश्वती महाराज ने गोटेगाव का नाम झोतेश्वर धाम के कारण श्रीधाम कर दिया। झोतेश्वर श्रीधाम से 16 k.m. पर है। यह आश्रम परमहंसी गंगा आश्रम के नाम से भी जाना जाता है। नरसिंहपुर का यह लोकप्रिय आध्यात्मिक केन्द्र संत जगतगुरू शंकराचार्य जोतेश और द्वारकाधीश पीठाधेश्‍वर सरस्वती महाराज से संबंधित है। सुनहरा राजराजेश्‍वरी त्रिपुर सुंदरी मंदिर यहां का मुख्य आकर्षण है। बसंत पंचमी के मौके पर यहां सात दिन तक समारोह आयोजित किया जाता है।
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नरसिंहपुर
गोटेगाँव तहसील में जबलपुर रोड पर कंजई गाँव से 3 K.M. अंदर पीपरपानी गाँव है वास्तव मे ये पीपरपानी की माता के नाम पर रखा गया है। यहां पर पीपरपानी माता की सर्वकामना सिद्धि मढिया है जहां नवरात्रि के अवसर पर माँ के दर्शन और मनोकामनाये माँगी जाती हैं। माता के परम भक्त स्व.जमना प्रसाद कुशवाहा जी के स्वर्गवास होने के बाद उनके चेले श्री परशराम कुशवाहा जी ने माता की भक्ति की और जन समूह की जड़ी-बूटियो और माता की कृपा से पीड़ितों और जानवरों का इलाज किया करते हैं। इनके अलावा यहां पर बघेण नदी कालांतर में बाघन नदी के नाम से जानी जाती थी इसके किनारे पर दो बड़े टीले है जिसे 1. पीली कगार 2. हथियागढ की कगार कहा जाता है। कहते हैं कि पीली कगार पर भूतो का डेरा है, गाँव वाले भूतो से रूबरू होने का दावा किया करते हैं, पर इसका कोई साक्ष्य नहीं है। और हथियागढ की कगार पर कहा जाता है; कि, बहुत पहले हाथियों का झुंड इस से गिर कर मर गया था। जिसके कारण इसका नाम हथियागढ कहा जाता है। भिरभी दौनो कगार बेहद डरावनी और रोचक है।
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नरसिंहपुर
जबलपुर विमानक्षेत्र यहां का नजदीकी एयरपोर्ट जो नरसिंहपुर से करीब 84 किमी. दूर है। देश के अनेक शहर इस एयरपोर्ट से वायुमार्ग द्वारा जुड़े हैं।
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नरसिंहपुर
नरसिंहपुर रेलवे स्टेशन मुंबई-हावडा रूट का प्रमुख स्टेशन है। इस रूट पर चलने वाली ट्रेनें नरसिंहपुर को देश के अन्य शहरों से जोड़ती हैं।जिले में रेल्वे ट्रेक की लम्बाई लगभग 105 किमी हैं। कुल स्टेशनों की संख्या 11 हैं जिसमें 3 मुख्य स्टेशन हैं जहाँ सुपर फास्ट ट्रेनों के स्टॉपेज हैं 5 ऐसे स्टेशन हैं जहाँ सिर्फ पैसेन्जर ट्रेनों के स्टॉपेज हैं और ऐसे 3 से स्टेशन हैं जहाँ सिर्फ एक्सप्रेस वपैसेन्जर ट्रेनों के स्टॉपेज है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
यूटोपिया
यूटोपिक एकल लिंग संसार या एकल सेक्स समाज लम्बें समय से लिंग और लिंग-अंतर को तलाशने का प्राथमिक तरीका है। महिला-मात्र विश्व के सृजन की कल्पना, ऐसी बिमारी के माध्यम से की गई है जो पुरुषों का सफाया कर देती है, जिसके साथ-साथ एक ऐसी प्रौद्योगिकी या रहस्यमय पद्धति का विकास होता है जो महिला स्वजात प्रजनन को संभव बनाती है। नारीवादी लेखिकाओं द्वारा अक्सर परिणामी समाज यूटोपियन होना दिखाया गया है। 1970 के दशक में कई प्रभावशाली नारीवादियों द्वारा यूटोपिया को इस तरह से लिखा गया था,Gaetan ब्रुलोट & जॉन फिलिप्स, एनसाइक्लोपीडिया ऑफ एरोटिक', "साइंस फिक्शन एण्ड सोसायटी", p.1189, CRC प्रेस, 2006, ISBN 1-57958-441-1 इसका सबसे बड़ा उदाहरणों में जोना रस के द फिमेल मैन और सूज़ी मैककी चार्नास की वाल्क टू द एंड ऑफ द वर्ल्ड और मदरलाइन्स शामिल हैं।[22]पुरुष लेखकों द्वारा यूटोपिया की कल्पनाओं में आम तौर पर भिन्नता की बजाए लिंगों के बीच समानता शामिल है। ऐसी दुनिया का सबसे अधिक वर्णन समलैंगिक लेखकों या नारीवादी लेखिकाओं द्वारा किया गया है; उनका केवल-स्त्री संसार स्त्रियों की स्तंत्रता और पितृसत्ता से आजादी की खोज करने की अनुमति प्रदान करता है। समाज का समलैंगिक या केवल यौन होना आवश्यक नहीं हो सकता है - चर्लोटे पर्किंस गिलमैन द्वारा हरलैंड (1915) एक प्रसिद्ध पूर्व यौनरहित उदाहरण है। चार्लेन बॉल महिला अध्ययन विश्वकोश में लिखती हैं कि यूरोप और अन्य देशों की तुलना में अमेरिका में भविष्य समाज में लिंग भूमिका की खोज में काल्पित कल्पना का प्रयोग काफी साधारण है .
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यूटोपिया
कई संस्कृतियों, समाजों, धर्मों और विश्वोत्पत्ति में कुछ मिथक या आदिम स्मृति होती है जब मानव जाति आदिम और सरल स्थिति में रहता था, लेकिन साथ ही साथ वह समय उत्कृष्ठ आनंद और पूर्णतः का था। उन दिनों में, विभिन्न मिथक है हमें बताते हैं कि उस समय प्रकृति और मानव के बीच सहज सामंजस्य था। मानव की जरूरतें बहुत कम थी और उनकी इच्छाएं सीमित थे। प्रकृति से जो भी मिला उससे दोनों काफी संतुष्ट थे। तदनुसार, वहां युद्ध या उत्पीड़न के लिए कोई मंशा नहीं थी। न ही मुश्किल और दर्दनाक कार्य के लिए कोई आवश्यकता थी। मनुष्य पवित्र और सरल थे और अपने को देवताओं के करीब महसूस करते थे। मानवशास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार एक, शिकारी-तपका समाज का सबसे संपन्न हुआ करता था।
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1,479.852471
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यूटोपिया
ये पौराणिक या धार्मिक आदर्श सभी संस्कृतियों में विद्यमान है और जब लोगों के मुश्किलों और महत्वपूर्ण समय में यह विशेष उत्साह के साथ पुनर्जीवित हो जाते हैं। हालांकि, मिथक का प्रक्षेपण सुदूर अतीत इलाकों पर नहीं होती, लेकिन या तो भविष्य की ओर या दूरी और काल्पनिक स्थानों की ओर, यह कल्पना करती है कि भविष्य के कुछ समय, स्थान के कुछ बिन्दु या मौत से परे आनंदित जीवन की संभावना अवश्य मौजूद है।
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यूटोपिया
ईसा पूर्व 8 वीं शताब्दी के आस-पास ग्रीक कवि हेसियड पौराणिक परंपरा की अपनी कविता संकलन में (वर्क्स एण्ड डेज कविता) कहा है कि वर्तमान समय से पहले अन्य चार उत्कृष्ठ उत्तरोत्तर युग थे, उनमें से सबसे पुराना युग को स्वर्ण युग कहा जाता है।
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यूटोपिया
प्रथम शताब्दी के ग्रीक इतिहासकार और जीवनी लेखक प्लुटार्क ने मानवता के आनंदमय और पौराणिक अतीत की व्याख्या की है।
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यूटोपिया
आर्केडिया जैसे, सर फिलिप सिडनी के गद्य रोमांस द ओल्ड आर्केडिया में (1580) है। मूलतः पेलोपोन्नेसस के एक क्षेत्र में अर्काडिया किसी ग्रामीण इलाके का समानार्थी बन गया जो एक लोकस अमोनस के रूप में पुरोहिताई संबंधी काम करता है। ("रमणीय जगह"):
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यूटोपिया
"और लौर्ड गौड ने ईडन में पूर्व की ओर एक बगीचा लगाया; और वहां उस मनुष्य को रखा जिसकी रचना उन्होंने की थी।
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यूटोपिया
और मैदान के बाहर लगे सभी वृक्ष काफी मनोहर लग रहे थे और भोजन के लिए भी अच्छे थे; बगीचे के बीच में जीवन वृक्ष और अच्छे और बुरे ज्ञान वृक्ष भी थे। [...]
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यूटोपिया
और लौड गौड मनुष्य को ले गए और पोशाक पहनाने और उसमें रखने के लिए उसे ईडन के बगीचे में छोड़ दिया. और लौड गौड ने मनुष्य को आज्ञा दी और कहा कि, तूम बगीचे के किसी भी पेड़ से आजादी से भोजन कर सकते हो: लेकिन अच्छे और बुरे ज्ञान के वृक्ष को नहीं खा सकते: जिस दिन तुम इसे खाओगे निश्चित रूप से तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी. [...]
0.5
1,479.852471
20231101.hi_193140_0
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
पण्डारी
पेंढारी किंवा पिंडारी या भारतात अठराव्या-एकोणिसाव्या शतकांत रयतेची लूटमार व वाटमार करणाऱ्या संघटित टोळ्या होत्या, ज्यात हिंदू आणि मुस्लिम या दोन्ही समाजाचे लोक होते. यांपैकी पेंढाऱ्यांच्या सशस्त्र संघटित टोळ्या राजकीय सत्ताधाऱ्यांच्या आश्रयाने उदयास आल्या. ठगांची संघटना ही एक प्रकारे धार्मिक हिंसाचारी गुप्त संघटना होती.
0.5
1,474.306596
20231101.hi_193140_1
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
पण्डारी
पेंढारी : भारतात अठराव्या-एकोणिसाव्या शतकांत रयतेची लूटमार व वाटमार करणाऱ्या संघटित टोळ्या. यांपैकी पेंढाऱ्यांच्या सशस्त्र संघटित टोळ्या राजकीय सत्ताधाऱ्यांच्या आश्रयाने उदयास आल्या. ठगांची संघटना ही एक प्रकारे धार्मिक हिंसाचारी गुप्त संघटना होती. पेंढारी : मोगल साम्राज्याच्या पडत्या काळात व विशेषत: उत्तर पेशवाईत लुटालूट करून उदरनिर्वाह करणाऱ्या टोळ्यांस ही संज्ञा अठराव्या शतकात रूढ झाली. या शब्दाच्या व्युत्पत्तीबद्दल तज्ञांत मतभेद आहेत. काहींच्या मते ‘पेंढारी’ हा शब्द मराठी असून पेंढ व हारी या दोन शब्दांपासून झाला आहे व त्याचा अर्थ गवताची पेंढी किंवा मूठ पळविणारा असा होतो. उत्तरेत पिंडारी अशीही संज्ञा रूढ आहे. पिंड म्हणजे अन्नाचा घास. तो पळविणारा म्हणजे पिंडारी. भारतातील पेंढाऱ्यांप्रमाणेच लूटमार करणाऱ्या संघटित टोळ्या पश्चिमी देशांच्या इतिहासकाळातही उदयास आल्याचे दिसते. उदा., ब्रिगांड, फ्रीबूटर, बँडिट, फ्रीलान्स, डकॉइट इत्यादी. अशा प्रकारच्या संघटनांच्या उदयाची कारणे पुढीलप्रमाणे : (१) केंद्रीय राजसत्ता अस्थिर किंवा दुर्बल झाली, की सुभेदार-जहागीरदार व मांडलिक राजे यांच्यात सत्ता संपादनार्थ यादवी युद्धे सुरू होतात व अशा संघटनांना वाव मिळतो. (२) सत्तातंर झाले की पराभूत सत्ताधाऱ्यांचे सैनिक बेरोजगार होऊन लूटमारीस उद्युक्त होतात. (३) गरजू राजे व सरदार इत्यादींच्या आश्रयाने वा उत्तेजनाने दुसऱ्याच्या प्रदेशात लूटमार करण्यासाठी धंदेवाईक संघटना उभ्या राहतात. पेंढाऱ्यांच्या संख्येबद्दल व एकूण कारवायांबद्दल अनेक अतिरंजित कथा रूढ आहेत. कॅ. सीडनॅम याच्या मते माळव्यात त्यांच्या घोडेस्वारांची संख्या ३०,००० होती तर कर्नल जेम्स टॉडच्या मतानुसार ती संख्या ४१,००० होती. १८१४ मध्ये त्यांची संख्या साधारणत: २५,००० ते ३०,००० च्या दरम्यान असावी आणि त्यांपैकी निम्म्याहून कमी लोक शस्त्रधारी असावेत, असे बहुतेक इंग्रज इतिहासकारांचे मत आहे. प्रथम ते मराठी सरदारांबरोबर बाजारबुणगे म्हणून आढळात येऊ लागले. पुढे माळवा, राजस्थान, गुजरात, मुंबई इलाखा, मध्य प्रदेश वगैरे प्रदेशांत त्यांचा प्रभाव वाढला. त्यांची कुटुंबे विंध्य पर्वताच्या जंगलात, पर्वतश्रेणींत व नर्मदा नदीच्या खोऱ्यात असत. सुरुवातीला पेंढाऱ्यांमध्ये पठाण लोकांचा अधिक भरणा होता पण पुढे पुढे सर्व जातिजमातीमधील लोक त्यांत सामील झाले. पुष्कळदा रयतेकडून खंड वसूल करण्याचे काम त्यांच्याकडे सोपविले जाई. त्यातील काही भाग त्यांना मिळे. त्यांना नियमित वेतन नसे. खंडणी वसुलीसाठी ते मारहाण, दहशत, लुटालूट वगैरे मार्ग अवलंबित. त्यामुळे रयतेत त्यांच्याविषयी दहशत असे.
0.5
1,474.306596
20231101.hi_193140_2
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
पण्डारी
घोडा, लांब भाला (सु. ३.५ मी.) व तलवार हा त्यांचा मुख्य संरजाम असे. मोडकी पिस्तुले व बंदुकाही काहीजण वापरीत. दिवसाकाठी ५० ते ६० किमी. पर्यंत ते मजल मारीत. मुक्कामासाठी त्यांच्याजवळ तंबू, राहुट्या, पाले इ. सामान नसे. शत्रूवर पद्धतशीर हल्ला करण्याइतके ते खचितच शूर नव्हते पण सैन्य जाऊ शकणार नाही, अशा दुर्गम मार्गाने ते जात व अचानक हल्ले करून लूटमार करीत व धनधान्य नेत आणि जे पदार्थ नेता येत नसत, त्यांचा नाश करीत. त्यांच्या टोळ्यांना दुर्रे म्हणत. पेंढाऱ्यांच्या लहान टोळ्या लुटीला सोयीच्या असत. लूट, जाळपोळ, अनन्वित अत्याचार यांबद्दल त्यांची कुप्रसिद्धी होती. कित्येकदा एखाद्या गावास पूर्वसूचना देऊन ते खंड वसूल करीत व खंड न दिल्यास ते गाव जाळून टाकत. उत्तर पेशवाईत पेंढारी हे मराठी सैन्याचा एक भाग बनू लागले. त्यांत मुसलमान-हिंदू अशा दोन्ही धर्मांचे लोक होते पण दक्षिणी मुसलमान अधिक होते. त्यांच्या बायका सामान्यत: हिंदू ग्रामदेवतांची उपासना करीत. स्वारीहून परतल्यावर पुष्कळजण शेतीही करीत. चिंगोळी व हुलस्वार हे पेंढारी-पुढारी आपल्या अनुयायांसह पानिपतच्या युद्धात मराठी सैन्यात होते. इंग्रजी अमंलात पदच्युत झालेले संस्थानिक त्यांचे साहाय्य घेत. शिंदे-होळकरांकडील पेंढारी शिंदेशाही व होळकरशाही म्हणून ओळखले जात. टिपू व फ्रेंच यांचा पराभव झाल्यावर त्यांच्या विसर्जित सैन्यातून काही पेंढारी पथके बनली. एकोणिसाव्या शतकात काही संस्थाने खालसा होऊन इंग्रजी राज्य जसजसे दृढ होऊ लागले, तसतसे पेंढाऱ्यांचे आश्रयस्थान हळूहळू नाहीसे झाले. तेव्हा त्यांनी आपली स्वतंत्र पथके बनविली. हेरा व बुरन हे त्यांचे पुढारी होते. दोस्त मुहम्मद व चीतू नावाचे पुढारी पुढे प्रसिद्धीस आले. करीमखान हा पुढारी खानदानी मुसलमान कुटुंबातील होता. तो तरुणपणी प्रथम होळकरांकडे व नंतर शिंद्यांकडे गेला. शिंदे, भोसले व भोपाळचे नबाब यांच्याकडून तो पैसे घेई व लूट मिळवी. त्याच्या ताब्यात अनेक किल्ले होते. पुढे तो शिंद्यांनाही वरचढ झाल्यामुळे त्यांनी चीतूमार्फत त्याचा पराभव घडवून आणला. पुढे तो अमीरखानाकडे गेला. अमीरखान यशवंतराव होळकरांचा उजवा हात होता. वासिल मुहम्मद, नामदारखान, मीरखान इ. पेंढारी पुढारीही प्रसिद्ध होते. चीतूजवळ काही हजार घोडेस्वार, थोडे पायदळ व वीस मोडक्या तोफा होत्या. कादरबक्ष साहिबखान, शेखदुल्ला हे दुय्यम नेते होते. कोकणपासून ओरिसापर्यंतच्या प्रदेशांत त्यांनी धुमाकूळ घातला. मराठ्यांच्या साहचर्यातील पेंढाऱ्यांच्या लुटारूपणामुळे मराठेही लुटारू म्हणून बदनाम झाले. पेंढाऱ्यांचा कायमचा बंदोबस्त लॉर्ड फ्रान्सिस रॉडन हेस्टिंग्जने केला (१८१८). त्याने अमीरखान व करीमखान यांना जहागिरी देऊन फोडले व इतर पेंढाऱ्यांचा बीमोड केला. यातूनच पुढे टोंक संस्थान उदयास आले. काही पेंढारी युद्धात मारले गेले, तर काही कायमचे अज्ञातवासात गेले. त्यामुळे उरलेल्यांनी लुटीचा व्यवसाय सोडला आणि ते मध्य प्रदेशात स्थायिक शेती करू लागले.
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पण्डारी
राजेमहाराजे-संस्थानिक, जमीनदार-सावकार आणि कष्टकरी-शेतकरी यांना आपल्या अधिपत्याखाली घेतल्यानंतर इंग्रजांची नजर जंगल संपदेवर होती. जंगलातील कच्चा माल इंग्रज बाहेर नेत. ब्रिटिशांनी सगळ्या आधुनिक कल्पना या आपल्या वसाहतीचे शोषण करण्यासाठी मॉडिफाय करून घेतल्या होत्या, त्यातलीच एक म्हणजे मुख्यभूमीवर तयार होणार कच्चा माल. उदा. नीळ, अफू, ताग, कापूस बंदरापर्यंत पोचवणे,त्याच्यासाठी  प्रवासी अन् व्यापारी राज्यमार्ग सुलभ सुकर आणि  सुरक्षित करणे. हा मार्ग अर्थातच जंगलातून किंवा त्याच्या आजूबाजूने जात होता. पण यात मुख्य अडसर लढाऊ आदिवासींचा होता. लढवय्या आदिवासींसमोर इंग्रजांना काही केल्या वर्चस्व गाजवता येत नव्हते. वास्तविक आदिवासी चळवळींचा इतिहास पार चौदाव्या शतकापर्यंत जातो. वेळोवेळी महंमद तुघलक, बिदरचा राजा, बहामनी सरदार यांच्याविरुद्ध एकजूट करून आदिवासींनी आपल्या ताब्यात असलेल्या जमिनी, किल्ले यांचे रक्षण केले होते. त्यामुळे इंग्रजांच्या काळातही त्यांना अनेक वेळा लढावे लागले. त्या काळात इंग्रज अधिकाऱ्यांना आदिवासींच्या जमिनी हडप करण्यासाठी स्थानिक जमीनदार आणि धनिक मदत करीत. १७८८ ते १७९५ या काळात छोटा नागपूर येथे तमाड जमातीने, १८१२ मध्ये राजस्थानात भिल्ल जमातीने, तसेच १८१८ ते १८३० ईशान्यपूर्व भारतात नागा, मिझो, लुशाई, मिशिपी, दफम्त इत्यादी जमातींनी, बिहारमध्ये मुंडा, कोल, खैरनार जमातींनी, १८३२ मध्ये संथालांनी इंग्रजांच्या कारवायांना कडाडून विरोध केला होता.
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पण्डारी
दुसऱ्या बाजूला सततची धुमश्चक्री, संस्थानिकांच्या कारभाराला लागलेली घरघर, जनतेकडून आकारण्यात येणारे विविध कर, सततचे पारतंत्र्य याने गांजलेल्या आणि भुकेकंगाल लोकांपैकी काहींनी मग सगळ्यात सोपा मार्ग निवडला, तो म्हणजे लुटमारीचा. अवध ते दख्खन या मध्य भारतातून जाणाऱ्या अनेक मार्गांवर व्यापारी, सावकार आणि काशी-बनारसला जाणाऱ्या यात्रेकरूंना लुटण्याच्या घटना वाढू लागल्या होत्या. कायदा-व्यवस्था पुरती ढासळली  होती. या टोळीची दहशत इतकी भयानक होती, की तीर्थयात्रेला निघालेला माणूस निघताना घरदारावर तुळशीपत्र ठेऊन बायकापोरांना कवेत घेऊन ओक्साबोक्शी रडत असे. ‘काठीच्या टोकावर सोन्याजडजवाहिरांचे गाठोडे बांधून काशीला निर्धास्त जावे’ इतका विश्वास त्याकाळात राहिला नव्हता. या लुटमार करणाऱ्या टोळ्या एका विशिष्ट जातीपुरत्या मर्यादित नव्हत्या, त्यात अठरापगड जातीची माणसे होती. आणि महत्वाचे म्हणजे समाजातल्या सगळ्यात खालच्या स्तरावरची ही मााणसं होती. जंगलाच्या मार्गावरून जाणाऱ्यांना लुटणारे जसे आदिवासी होते, हिंदू होते तसेच मुस्लिमही होते. अनेक संस्थानिकसुद्धा असे पेंढारी व लुटारू पदरी बाळगून त्यांच्याकडून पुंडगिरी करवून त्यांच्या मिळकतीवर जगत असत.
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पण्डारी
पेंढारींच्या बाबतीतही (पिंडारी) त्याकाळी अशाच आख्यायिका पसरवल्या गेल्या होत्या. असे म्हणतात की युद्धात अतिशय तरबेज असणारे पेंढारी सैन्य सबंध गाव लुटून न्यायचे. पेंढारींचा हल्ला होणार याची पुसटशी जरी शंका आली तर गावकरी स्वत:च आपले घरदार जाळून तिथून पोबारा करायचे. वास्तविक पेंढारी हा खरं म्हणजे स्वतंत्र लेखाचा विषय आहे. मात्र पेंढारी सैन्याने मोघल, राजपूत आणि पेशव्यांना अनेक युद्धांमध्ये मदत केल्याचे इतिहासात दाखले सापडतात. पेंढारी सैन्याचा उपयोग त्याकाळचे राजे-महाराजे हे आताच्या भाषेत सांगायचे झाले तर "आउटसोर्स' पद्धतीने करायचे. संस्थानिकांच्या कारभारला घरघर लागल्यानंतर मोठ्या प्रमाणात सैन्य दल सांभाळणे आर्थिकदृष्ट्या शक्य होत नव्हते, त्यामुळे युद्धप्रसंगी बाहेरून पेंढारी सैन्याची मदत घेतली जायची. पहिल्या बाजीराव पेशव्याशी तर पेंढारीचे खुपच सलोख्याचे नाते होते. पेंढारींविरुद्ध ब्रिटिशांनी मोर्चेबांधणी केल्यानंतर या टोळीमध्य़े मोठ्या प्रमाणात फाटाफुट झाली आणि अनेक पेंढारी लुटमार करणाऱ्यांच्या टोळीमध्ये सहभागी झाले.
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पण्डारी
ठग : हे काली देवीचे उपासक असून देवीची कृपा संपादन करण्यासाठी आपल्या संघटित टोळ्यांतर्फे रक्त न सांडता नरबळी देण्याची त्यांची प्रथा होती. ठगांच्या टोळ्यांत हिंदू व मुसलमान या दोहोंचाही समावेश होता. कपटी किंवा धूर्त या अर्थाच्या संस्कृत ‘स्थग’ या शब्दापासून ठग किंवा ठक हे शब्द बनले आहेत. अचानकपणे व मनुष्य बेसावध असताना त्यास गळफास लावून ठार करण्याच्या कृत्याला ठगी म्हणतात. ठग व ठगीची उत्पत्ती कशी झाली, हे ठगाची जबानीवरून कळू शकते. रक्तबीजासुराशी कालीने युद्ध सुरू केले पण त्याच्या रक्ताच्या प्रत्येक थेंबातून असुर निर्माण होत व त्यांच्याही रक्तापासून असुर उत्पन्न होत. तेव्हा देवीने स्वतःच्या घामातून दोन पुरुष निर्माण केले. त्यांना स्वतःच्या पिवळ्या वस्त्राचा एक पट्टा दिला. त्या पट्ट्याने त्या पुरुषांनी असुरांना गळफास लावून ठार मारले. देवी प्रसन्न झाली आणि तिने मनुष्यांना फास लावून ठार मारण्याची व त्यांची संपत्ती घेण्याची आज्ञा त्या दोन पुरुषांना दिली. ठग हे त्या दोन पुरुषांचे वारस होत. या दंतकथेचे मूळ सप्तशतीत सापडते.
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पण्डारी
संघटित वाटमारीची प्रथा फार पूर्वीपासून चालत आलेली आहे. मध्ययुगीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी याने जलालुद्दीन खल्जीच्या कारकीर्दीत (१२९०-९६) एक हजार वाटमाऱ्यांच्या टोळीचा निर्देश केला आहे. बंगालमध्ये या वाटमाऱ्यांना हद्दपार करण्यापूर्वी त्यांतील प्रत्येकाच्या पाठीवर ओळख पटावी म्हणून डाग देण्यात आले. औरंगजेबाच्या काळात आलेला एक यूरोपीय प्रवासी जॉन फ्रायर याने वाटमारी करणाऱ्या टोळ्यांचा उल्लेख केला आहे. सतराव्या शतकातील झां बातीस्त ताव्हेर्न्ये (१६०५-८९) या फ्रेंच प्रवाशाला ठगीची पुसट माहिती असावी, असे दिसते. वाटमारी करणारे सर्व ठगच होते, असे म्हणणे कठीण आहे. ठगांचा खरा उपद्रव अठराव्या शतकाच्या उत्तरार्धात व एकोणिसाव्या शतकाच्या पूर्वार्धात मोठ्या प्रमाणात वाढला. पेंढारी व इतर लुटारू जनतेची लूटमार करीत. तत्कालीन संस्थानिक व त्यांचे अधिकारी लुटारूंना वचकून असत. तसेच आर्थिक लाभासाठी अशा लुटारूंना ते पुष्कळदा आश्रयही देत. हिंदुस्थानात अठराव्या शतकाच्या अखेरीस इंग्रजी सत्ता स्थिर होऊ लागली होती. १७९९ च्या सुमारास इंग्रज-टिपू युद्धसमयी इंग्रजांना प्रथम ठगीचा सुगावा लागला. पेंढारी, ठग, डाकू यांचा उदय व इंग्रजी सत्तेचा विस्तार यांचा अन्योन्य संबंध दिसतो. वाढत्या इंग्रजी सत्तेमुळे देशातील विस्थापित राजांचे सैनिक बेरोजगार झाले. त्यांपैकी बरेच जण डाकूगिरीकडे वळले. इंग्रजी सत्तेच्या स्थापनेपासून जी पिळवणूक झाली, त्यातून बंगाल-बिहारमध्ये १७७० मध्ये पडलेल्या दुष्काळात कोट्यावधी लोक मरण पावले वा परागंदा झाले. तेव्हा लूटमारीबरोबर धार्मिक प्रथेचा आधार घेऊन बरेचजण ठगीकडे वळले असण्याचा संभव आहे. ठगी व डाकूगिरीच्या नायनाटासाठी एकोणिसाव्या शतकात डकॉइटी व ठगी नावाचे एक खाते ब्रिटिशांनी उघडले. तत्पूर्वी महादजी शिंदे, हैदर अली, म्हैसूरचा दिवाण इत्यादींनी ठगींचा नायनाट करण्याचे अनेक प्रयत्न केले परंतु ते अयशस्वी झाले. गर्व्हनर जनलर ⇨लॉर्ड विल्यम बेंटिंगने १८२९ च्या सुमारास ठगीच्या निर्मूलनाची मोहीम हाती घेतली. बंगाल सेनेचा एक अधिकारी कॅप्टन विल्यम श्लीमान याने प्रत्यक्ष कामगिरी बजावली. त्याच्या व त्याचा सहकारी विल्यम थॉर्नटन याच्या अहवालानुसार ठगांविषयी पुढीलप्रमाणे माहिती मिळते : मध्य हिंदुस्थान, म्हैसूर व अर्काट या प्रदेशांत ठगीचा सुळसुळाट होता. ३०० ठगांची एक टोळी असे परंतु बळी घेण्याच्या कामगिरीसाठी ते छोटे गट करीत व सावज हेरल्यावर ते गट एकत्र येत. यात्रेकरूच्या मिषाने ते नि:शस्त्र हिंडत. साधारणपणे पावसाळा सोडून ठगीचा उद्योग चालत असे. सावज हेरल्यावर त्याच्याशी मैत्री करत. पुढाऱ्याचा इशारा मिळताच बेसावध असलेल्या सावजावर हल्ला करून एका टोकाला गाठ असलेल्या पिवळ्या पट्ट्याने त्यांना फास देऊन, पायाला झटका देत व त्यांची मान मोडून (पण रक्त न सांडता) त्याचा बळी घेत. गळफासाला ‘नागपाश’ म्हणत. आधीच उकरलेल्या खड्ड्यात बळीला पुरून टाकत. जंगल व त्यातील वाटा, कोरडे ओढे-नाले, वाळवंटी जमीन अशा जागी बळी घेतला जाई. श्लीमानला आधी उकरून ठेवलेले २५४ खड्डे सापडले होते. कधी कधी हाती लागलेल्या मुलांना आपल्या पंथात घेऊन ठगीची दीक्षा देत. ठगीचा धंदा गुप्त ठेवला जाई व कित्येकदा घरातील बायकांनाही त्याची कल्पना नसे. गळफास देण्यात पटाईत व ज्याच्या घराण्यात परंपरागत ठगी आहे, अशा व्यक्तीस टोळीचा जमादार वा सुभेदार नेमत. त्यांची सांकेतिक भाषा होती. बळी देण्यापूर्वी शकुन (कालपाश योग) पहिला जाई. खड्डे उकरण्याच्या कुदळीला पूज्य मानले जाई. हातातून कुदळ पडणे हा मोठा अपशकुन मानला जाई. जमीनदार, अंमलदार यांच्यात तसेच देवीच्या पूजेसाठी ठगांच्या कुटुंबकल्याणासाठी आणि टोळीच्या सुभेदारास फास घालणारा व इतर ठग यांच्यात ठराविक प्रमाणात लूट वाटली जाई.  ठगांच्या बंदोबस्तासाठी श्लीमानने दोन उपाय योजिले होते : एक, ठगांच्या टोळ्यात सामील होणाऱ्यास जन्मठेप देण्याचा कायदा व दुसरा, ज्या ठगाचा गुन्हा पूर्णपणे सिद्ध झाला होता, त्यास माफीचा साक्षीदार बनवून त्याच्याकडून इतर ठगांची माहिती मिळविणे. अशा उपायांनी १८३१ ते १८३७ या सात वर्षांत ३,००० ठगांना शिक्षा करण्यात आली व अनेकांना फाशी देण्यात आले. श्लीमानचा रिपोर्टं ऑन द ठग गँग्ज (१८४०) हा अहवाल प्रसिद्ध झाला. थॉर्नटनने इलस्ट्रेशन्स ऑफ द हिस्टरी अँड प्रॅक्टिसिस ऑफ द ठग (१८३७) हा ग्रंथ प्रसिद्ध केला. १८४० सालापूर्वीच्या तीनशे वर्षांच्या काळात सु. ४० हजार माणसे ठगांच्या गळफासाला बळी पडली असावी, असा अंदाज केला जातो, कॅप्टन श्लीमानचा नातू जेम्स श्लीमानच्या म्हणण्याप्रमाणे रमजान नावाच्या ठगाने सु. १,७५० व रामबक्ष याने सु. ७०० व्यक्तींचे बळी घेतले.
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पण्डारी
छोटी मोठी खेडेगावात राहणारी काही अनेक समाजाचे लोक, त्यांच्या कडून रागाच्या भरात घरघुती वादविवाद होत असे. व त्यांच्या कडून खून, किंवा बलात्कार अनेक विविध घटना हातून घडत असत. गावातील मुख्य लोक त्यांना शिक्षा म्हणून त्यांना दोषींना किंवा त्यांच्या परिवाराला गावातून हाकलून लावत असे आणि त्यांना समाजातून जातीतून बहिष्कार करून त्या व्यक्तीस किंवा त्या व्यक्तीच्या संपूर्ण परिवारास बाहेर काढून टाकस असत. व गावातील मुख्य लोक किंवा पंच सरपंच लोक आजू-बाजूच्या गावात सूचना देत असत कि अनोळखी अमुक-अमुक राहायला येईल त्यां गुन्हेगार प्रवृत्ती लोकांना तुम्ही आश्रय देऊ नये. मग ती गुन्हेगार प्रवृत्तीच्या लोक जंगलात आश्रय घेऊ लागलीत व बघता बघता खूप सारी गुन्हेगार प्रवृत्तीचे लोक एका ठिकाणी जमा होऊ लागलेत. व मनात बदला घेण्याची वृत्ती जागृत करत ते समूह एकत्र येऊन गावातील लोकांवरील हल्ला करीत असे व लुटमार करून धन, धान्य, जीवन उपयोगी लागणारे वस्तूची लुटालूट करीत असे. त्यांना ठार मारत असे. बलात्कार करून जिवंत मारून संपूर्ण गाव जाळून टाकत असे. असे करताना ते जात धर्म पाहत नसे. त्यांची शास्त्रे म्हणून तलवार, ढाल, भाला, घोडे. बारूद जवळ बाळगळत असे. व पुढे आयुष्य जगण्यासाठी विविध गावात जाऊन हल्ले, लुटमार करीत जे मिळेल ते घ्यायचे व पुढचे गाव लुटायची योजना आखायचे. युद्धप्रसंगी राजा/संस्थानिकांसाठी लढाया करत. त्याच्या मोबदल्यात राजाकडून एखादे गाव लुटायची परवानगी मागत. त्यांची गाव लुटायची कार्यपद्धती अतिशय भयानक असे. धन, सोने व इतर मौल्यवान वस्तू कुठे आहे, हे सांगावे म्हणून गावकऱ्यांच्या तोंडात गरम कोळसे-राख भरणे, महिलांवर बलात्कार करणे, अंगाला चटके देणे, लहान मुलांना मारून त्यांना भाल्याच्या टोकावर नाचवणे, असे भयानक प्रकार असत.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
हिन्दू धर्मग्रन्थों के सन्दर्भ में कुबेर के कोष (खजाना) का नाम निधि है जिसमें नौ प्रकार की निधियाँ हैं। 1. पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि।
0.5
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।
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1,471.993291
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है, तो उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है। सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ऐसे व्यक्ति सोने-चांदी रत्नों से संपन्न होते हैं और उदारता से दान भी करते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है और 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
नील निधि में सत्व और रज गुण दोनों ही मिश्रित होते हैं। ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। यह निधि एक पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी तारीफ से खुश होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति का राजा और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और युद्ध के लिए तैयार रहता है। इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF
निधि
कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। ऐसे व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर पाता है।
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कैनोला
कैनोला को पारंपरिक पौध प्रजनन (प्लांट ब्रीडिंग) के जरिये रेपसीड से विकसित किया गया था जो प्राचीन सभ्यता में पहले से ही इस्तेमाल किया जा रहा एक तिलहन पौधा था। रेपसीड में "रेप" शब्द लैटिन भाषा के शब्द "रैपम " से आया है जिसका मतलब है शलजम. शलजम, रूटाबागा, पत्तागोभी, ब्रुसेल्स स्प्राउट्स, सरसों और कई अन्य सब्जियाँ कैनोला की आम तौर पर उपजाई जाने वाली दो किस्मों से संबंधित हैं जो ब्रैसिका नैपस और ब्रैसिका रापा की फसलें हैं। "रेप" होमोफ़ोन के कारण नकारात्मक संबंधों के परिणामस्वरूप मार्केटिंग के लिए कहीं अधिक अनुकूल नाम "कैनोला" का सृजन हुआ था। इसके नाम में बदलाव इसे आम रेपसीड ऑयल से अलग करने में भी मदद करता है, जिसमें इरुसिक एसिड की मात्रा कहीं अधिक होती है।
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कैनोला
सैकड़ों साल पहले एशियाई और यूरोपीय लोगों ने लैम्पों में रेपसीड ऑयल का इस्तेमाल किया था। चीनी और भारतीय कैनोला ऑयल की एक ऐसी किस्म का इस्तेमाल करते थे जो अपरिष्कृत (प्राकृतिक) था। समय बीतने के साथ-साथ लोगों ने इसका प्रयोग खाना पकाने के तेल के रूप में किया और इसे भोजन सामग्रियों में शामिल किया। भाप शक्ति के विकास तक इसका उपयोग सीमित था जब मशीन चालकों ने अन्य चिकनाई वाली चीजों (ल्युब्रिकैंट्स) की तुलना में रेपसीड ऑयल को पानी या भाप से धोये गए धातु की सतहों से बेहतर चिपकने वाला पाया। द्वितीय विश्व युद्ध में नौसेना और व्यापारी जहाजों में भाप के इंजन की तेजी से बढ़ती संख्या के लिए एक स्नेहक (चिकनाई) के रूप में इस तेल की मांग काफी बढ़ गयी थी। जब युद्ध ने रेपसीड तेल के यूरोपीय और एशियाई स्रोतों को अवरुद्ध कर दिया तो इसकी एक भारी कमी उत्पन्न हो गयी और तब कनाडा ने अपने सीमित रेपसीड उत्पादन का विस्तार करना शुरू कर दिया.
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कैनोला
युद्ध के बाद इसकी मांग में तेजी से गिरावट आई और किसानों ने इस पौधे और इसके उत्पादों के अन्य उपयोगों की ओर देखना शुरू कर दिया. खाद्य रेपसीड तेल के तत्वों को 1956-1957 में पहली बार बाजार में उतारा गया लेकिन इन्हें कई अस्वीकार्य गुणों की समस्या का सामना करना पड़ा. रेपसीड तेल में एक विशिष्ट प्रकार का स्वाद था और क्लोरोफिल की उपस्थिति के कारण इसमें एक अप्रिय हरा रंग मौजूद था। इसमें इरुसिक एसिड की एक उच्च सांद्रता भी मौजूद थी। जानवरों पर किये गए प्रयोगों ने इस संभावना पर ध्यान दिलाया कि बड़ी मात्रा में इरुसिक एसिड के सेवन से हृदय को नुकसान पहुँच सकता है, हालांकि भारतीय शोधकर्ताओं ने इन निष्कर्षों तथा यह आशय कि सरसों या रेपसीड तेल का उपभोग खतरनाक है, इनपर सवालिया निशाना लगाने वाली अपनी खोजों को प्रकाशित किया है। रेपसीड के पौधे से प्राप्त चारे को ग्लूकोसाइनोलेट्स नामक तीव्र-स्वाद वाले पदार्थों की उच्च मात्रा के कारण मवेशियों के लिए अच्छा नहीं समझा जाता है।
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कैनोला
कनाडा के पौध प्रजनकों (प्लांट ब्रीडर्स) ने, जहाँ 1936 से रेपसीड उगाई जाती है (मुख्य रूप से सस्कतचेवन में), पौधे की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए काफी प्रयास किया। 1968 में मैनिटोबा विश्वविद्यालय के डॉ॰ बाल्डर स्टीफेंसन ने इरुसिक एसिड की कम मात्रा वाली रेपसीड की एक किस्म विकसित करने के लिए चयनात्मक प्रजनन विधि का इस्तेमाल किया। 1974 में एक और किस्म विकसित की गयी जिसमें इरुसिक एसिड और ग्लूकोसाइनोलेट्स दोनों की मात्रा कम थी; इसका नाम कैने डियन ऑ यल, लो ए सिड से कैनोला दिया गया।
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कैनोला
1998 में विकसित एक प्रकार को कैनोला की अब तक विकसित सबसे अधिक रोग- और सूखा-प्रतिरोधी किस्म माना जाता है। इसे और हाल की अन्य किस्मों का उत्पादन जैव प्रौद्योगिकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) का उपयोग कर किया गया है।
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कैनोला
ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के एक शोधकर्ता ने यह निर्धारित किया है कि संकर बीज के लिए सर्दियों में कैनोला का उगाया जाना संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य ओरेगन में संभव प्रतीत होता है। कैनोला उच्चतम-उत्पादन वाली तिलहन की फसल है लेकिन राज्य में इसे डेस्चयूट्स, जेफरसन और क्रूक काउंटियों में इसे उगाये जाने से रोका जाता है क्योंकि यह विशिष्ट बीज फसलों (सीड क्रॉप्स) जैसे कि गाजर से मधुमक्खियों को आकर्षित कर सकता है, जिसके परागन के लिए मधुमक्खियों की आवश्यकता होती है।
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कैनोला
कैनोला मूलतः एक ट्रेडमार्क था लेकिन अब तेल की इस किस्म के लिए एक सामान्य शब्द है। कनाडा में कैनोला की एक सरकारी परिभाषा कनाडा के कानून में संहिताबद्ध की गयी है।
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कैनोला
कैनोला तेल एक प्रोसेसिंग संयंत्र में रेपसीड की पिसाई कर तैयार किया जाता है। इसके बीज का लगभग 42% हिस्सा तेल होता है। इसके बाद जो बचता है वह रेपसीड मील होता है जो एक उच्च गुणवत्ता वाला पशु चारा है। 22.68 किलोग्राम (50 पाउंड) रेपसीड से लगभग 10 लीटर (2.64 यूएस गैलन) कैनोला तेल तैयार होता है।
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कैनोला
हमारे कई खाद्य पदार्थों में कैनोला एक प्रमुख घटक है। एक स्वस्थ तेल के रूप में इसकी ख्याति ने दुनिया भर के बाजारों में इसकी भारी मांग पैदा कर दी है। कैनोला तेल के कई गैर-खाद्य उपयोग भी हैं और यह अक्सर मोमबत्तियाँ, लिपस्टिक, अखबार की स्याही, औद्योगिक चिकनाई और जैव ईंधन (बायो फ्यूल) सहित कई उत्पादों में गैर-नवीकरणीय संसाधनों की जगह लेता है।
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कौसानी
कौसानी (Kausani) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर ज़िले की गरुड़ तहसील में स्थित एक गाँव है।
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कौसानी
पर्वतीय पर्यटक स्‍थल कौसानी उत्तराखण्ड के अल्‍मोड़ा जिले से 53 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। यह बागेश्वर जिला में आता है। हिमालय की खूबसूरती के दर्शन कराता कौसानी पिंगनाथ चोटी पर बसा है। यहां से बर्फ से ढ़के नंदा देवी पर्वत की चोटी का नजारा बडा भव्‍य दिखाई देता हैं। कोसी और गोमती नदियों के बीच बसा कौसानी भारत का स्विट्जरलैंड कहलाता है। यहां के खूबसूरत प्राकृतिक नजारे, खेल और धार्मिक स्‍थल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
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कौसानी
इसे गांधी आश्रम भी कहा जाता है। इस आश्रम का निर्माण महात्‍मा गांधी को श्रद्धांजली देने के उद्देश्‍य से किया गया था। कौसानी की सुंदरता और शांति ने गांधी जी को बहुत प्रभावित किया था। यहीं पर उन्‍होंने अनासक्ति योग नामक लेख लिखा था। इस आश्रम में एक अध्‍ययन कक्ष और पुस्‍तकालय, प्रार्थना कक्ष (यहां गांधी जी के जीवन से संबंधित चित्र लगे हैं) और किताबों की एक छोटी दुकान है। यहां रहने वालों को यहां होने वाली प्रार्थना सभाओं में भाग लेना होता है। यह पर्यटक लॉज नहीं है। इस आश्रम से बर्फ से ढके हिमालय को देखा जा सकता है। यहां से चौखंबा, नीलकंठ, नंदा घुंटी, त्रिशूल, नंदा देवी, नंदा खाट, नंदा कोट और पंचचुली शिखर दिखाई देते हैं।
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कौसानी
यह आश्रम सरला आश्रम के नाम से भी प्रसिद्ध है। सरलाबेन ने 1948 में इस आश्रम की स्‍थापना की थी। सरलाबेन का असली नाम कैथरीन हिलमेन था और बाद में वे गांधी जी की अनुयायी बन गई थी। यहां करीब 70 अनाथ और गरीब लड़कियां रहती है और पढ़ती हैं। ये लड़कियां पढ़ने के साथ-साथ स‍ब्‍जी उगाना, जानवर पालना, खाना बनाना और अन्‍य काम भी सीखती हैं। यहां एक वर्कशॉप है जहां ये लड़कियां स्‍वेटर, दस्‍ताने, बैग और छोटी चटाइयां आदि बनाती हैं।
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कौसानी
हिन्‍दी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्‍म कौसानी में हुआ था। बस स्‍टैंड से थोड़ी दूरी पर उन्‍हीं को समर्पित पंत संग्रहालय स्थित है। जिस घर में उन्‍होंने अपना बचपन गुजारा था, उसी घर को संग्रहालय में बदल दिया गया है। यहां उनके दैनिक जीवन से संबंधित वस्‍तुएं, कविताओं का संग्रह, पत्र, पुरस्‍कार आदि‍ को रखा गया है।
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कौसानी
बढि़या किस्‍म की गिरियाज उत्तरांचल चाय 208 हेक्‍टेयर में फैले चाय बागानों में उगाई जाती है। ये चाय बागान कौसानी के पास ही स्थित हैं। यहां बागानों में घूमकर और चाय फैक्‍टरी में जाकर चाय उत्‍पादन के बारे में जानकारी प्राप्‍त की जा सकती है। यहां आने वाले पर्यटक यहां से चाय खरीदना नहीं भूलते। यहां की चाय का जर्मनी, ऑस्‍ट्रेलिया, कोरिया और अमेरिका में निर्यात किया जाता है।
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कौसानी
ज्यादातर लोग यात्रा के दौरान खरीदारी करना पसंद करते हैं और कौसानी में खरीदारी की अत्यधिक अनुशंसा की जाती है। कौसानी हाथ से बुने हुए ऊनी शॉल, स्वेटर, दस्ताने, टोपियों के लिए लोकप्रिय है जिन्हें आप खरीद सकते हैं। साथ ही कुछ पारंपरिक व्यंजन भी आज़मा सकते हैं।
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कौसानी
स्टारगेट वेधशाला एक निजी वेधशाला है जो कौसानी मुख्य बाजार से पैदल दूरी पर स्थित है। यह उन लोगों के लिए एक आदर्श स्थान है जिन्हें ब्रह्मांड को जानने में गहरी रुचि है। यहां आप चंद्रमा, ग्रहों, आकाशगंगाओं आदि का पता लगा सकते हैं। यह एस्ट्रोफोटोग्राफी और तारों के निशानों को कैद करने के लिए भी एक बेहतरीन जगह है।
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कौसानी
तेहलीहाट का कोट ब्रह्मरी मंदिर देवी दुर्गा के भ्रमर अवतार को समर्पित है जो उन्‍होंने अरुण नामक दैत्‍य के वध के लिए लिया था। पर्वत पर विराजमान देवी का मुख्‍ा उत्तर की ओर है। अगस्‍त में यहां मेला लगता है। तीन दिनों तक चलने वाले इस मेले में भक्‍तों की भारी भीड़ होती है।
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थियोडोलाइट
विकोणमान या थिओडोलाइट (Theodolite) उस यंत्र को कहते हैं जो पृथ्वी की सतह पर स्थित किसी बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित क्षैतिज और उर्ध्व कोण नापने के लिये सर्वेक्षण में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। सर्वेक्षण का आरंभ ही क्षैतिज और ऊर्ध्व कोण पढ़ने से होता है, जिसके लिये थियोडोलाइट ही सबसे अधिक यथार्थ फल देनेवाला यंत्र है। अत: यह सर्वेक्षण क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण यंत्र है।
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थियोडोलाइट
थिओडोलाइट क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों तरह के कोणों को मापने का उपकरण है, जिसका प्रयोग, त्रिकोणमितीय नेटवर्क में किया जाता है। यह सर्वेक्षण और दुर्गम स्थानों पर किये जाने वाले इंजीनियरिंग काम में प्रयुक्त होने वाला एक सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। आजकल विकोणमान को अनुकूलित कर विशिष्ट उद्देश्यों जैसे कि मौसम विज्ञान और रॉकेट प्रक्षेपण प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भी उपयोग मे लाया जा रहा है।
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थियोडोलाइट
एक आधुनिक विकोणमान मे एक सचल दूरदर्शी होता है जो दो लम्बवत अक्षों (एक क्षैतिज और दूसरा ऊर्ध्वाधर अक्ष) के बीच स्थित होता है। इस दूरदर्शी को एक इच्छित वस्तु पर इंगित करके इन दोनो अक्षों के कोणों को अति परिशुद्धता के साथ मापा जा सकता है।
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थियोडोलाइट
19 वीं सदी की शुरुआत में विकसित पारगमन एक विशेष प्रकार का विकोणमान होता था जिसमे दूरदर्शी के लिये कि 'फ्लॉप ओवर' की सुविधा थी जिसके चलते आसानी से पश्च-दृष्टन किया जा सकता था। साथ ही त्रुटि कम करने के लिए कोणों को दोगुना किया जा सकता था। कुछ पारगमन उपकरणों तो सीधे तीस चाप-सेकंड का कोण मापने में सक्षम थे। 20 वीं शताब्दी के मध्य में, पारगमन को एक कम परिशुद्धता के एक साधारण विकोणमान के रूप में जाना जाने लगा था, पर इसमे मापक आवर्धन और यांत्रिक मीटर जैसे सुविधाओं का अभाव था। कॉम्पैक्ट, सटीक इलेक्ट्रॉनिक विकोणमाणों के आने के बाद से पारगमन का महत्व कम हुआ है पर अभी भी निर्माण साइटों पर एक हल्के उपकरण के रूप में इस्तेमाल मे आता है। कुछ पारगमन ऊर्ध्वाधर कोण नहीं माप सकते है।
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थियोडोलाइट
अक्सर एक निर्माण-स्तर को गलती से एक पारगमन मान लिया जाता है, लेकिन वास्तव यह एक तिरछे कोण मापने के यंत्र का एक प्रकार है। यह न तो क्षैतिज और न ही ऊर्ध्वाधर कोण माप सकता है। इसमे एक स्पिरिट-स्तर और एक दूरदर्शी होता है जिसके माध्यम से प्रयोक्ता एक सपाट तल पर एक दृष्य रेखा स्थापित करता है।
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थियोडोलाइट
कोई सैद्धांतिक भिन्नता के न होने पर भी मुख्यत: दो आधारों पर विकोणमानों का वर्गीकरण हुआ है। प्रथम प्रकार के वर्गीकरण का आधार है, दूरबीन ऊर्ध्व समतल में पूरा चक्कर काट सकती है या नहीं।
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थियोडोलाइट
जिनमें वह पूरा चक्कर नहीं काट सकती उन्हें अनूर्ध्वाचल (nontransitting) विकोणमान कहते हैं। प्राविधिक प्रगति के कारण दूसरे प्रकार के यंत्र अब प्रयोग में नहीं आते।
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थियोडोलाइट
वर्गीकरण का दूसरा आधार है, यंत्रों में लगे अंकित वृत्त के विभाजन-अंश पढ़ने की सुविधा, जैसे वर्नियर विकोणमान, जिसमें वृत्त के विभाजन अंश पढ़ने के लिये वर्नियर मापनी का प्रयोग होता है; माइक्रोमीटर विकोणमान, जिनमें अंश पढ़ने के लिये सूक्ष्ममापी पेचों का प्रयोग होता है; काँच-चाप (glass arc) विकोणमान, जिनमें काँच के अंकित वृत्त होते हैं और उनके पढ़े जानेवाले चापों के प्रतिबिंदु को प्रेक्षक के सामने लाने की प्रकाशीय सुविध की व्यवस्था होती है।
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थियोडोलाइट
वर्नियर थियोडोलाइट ही सबसे पुरानी कल्पना है। पुराने विकोणमानों के अंकित वृत्त बड़े व्यास के होते थे, जिससे कुशल कारीगर इनपर भली प्रकार सही विभाजन कर सकें। इसका निर्माण डेढ़ सौ वर्ष से कुछ पहले भारतीय सर्वेक्षण विभाग के महासर्वेक्षक, कर्नल एवरेस्ट (इन्हीं के नाम पर संसार की सबसे ऊँची, पहाड़ की चोटी का नाम पड़ा है) ने कराया था। वह यंत्र आज भी उक्त विभाग के देहरादून स्थित संग्रहालय में रखा है1 इसके क्षैतिज वृत्त का व्यास एक गज है। काचचाप थियोडोलाइट के क्षैतिज वृत्त का व्यास लगभग 2.5 इंच है। पहले पहल वर्नियर को ही व्यास के आधार पर बाँटा जाता रहा है जैसे 12"", 10"", 8"", 6"" एवं 5"" वर्नियर आदि।
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1,457.374168
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97
दायभाग
दायभाग जीमूतवाहनकृत एक प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ है जिसके मत का प्रचार बंगाल में है। 'दायभाग' का शाब्दिक अर्थ है, पैतृक धन का विभाग अर्थात् बाप दादे या संबंधी की संपत्ति के पुत्रों, पौत्रों या संबंधियों में बाँटे जाने की व्यवस्था। बपौती या विरासत की मालिकियत को वारिसों या हकदारों में बाँटने का कायदा कानून।
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1,456.061837
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97
दायभाग
दायभाग हिन्दू धर्मशास्त्र के प्रधान विषयों में से है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसके संबंध में विस्तृत व्यवस्था है। ग्रंथकारों और टीकाकारों के मतभेद से पैतृक धनविभाग के संबंध में भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं। प्रधान पक्ष दो हैं - मिताक्षरा और दायभाग। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है जिसके अनुकूल व्यवस्था पंजाब, काशी, मिथिला आदि से लेकर दक्षिण कन्याकुमारी तक प्रचलति है। 'दायभाग' जीमूतवाहन का एक ग्रंथ है जिसका प्रचार वंग देश में है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97
दायभाग
सबसे पहली बात विचार करने की यह है कि कुटुंबसंपत्ति में किसी प्राणी का पृथक् स्वत्व विभाग करने के बाद होता है अथवा पहले से रहता है। मिताक्षरा के अनुसार विभाग होने पर ही पृथक् या एकदेशीय स्वत्व होता है, विभाग के पहले सारी कुटुंबसंपत्ति पर प्रत्येक संमिलित प्राणी का सामान्य स्वत्व रहता है। दायभाग विभाग के पहले भी अव्यक्त रूप में पृथक् स्वत्व मानता है जो विभाग होने पर व्यंजित होता है। मिताक्षरा पूर्वजों की संपत्ति में पिता और पुत्र का समानाधिकार मानती है अतः पुत्र पिता के जीते हुए भी जब चाहे पैतृक संपत्ति में हिस्सा बँटा सकते हैं और पिता पुत्रों की सम्मति के बिना पैतृक संपत्ति के किसी अंश का दान, विक्रय आदि नहीं कर सकता। पिता के मरने पर पुत्र जो पैतृक संपत्ति का अधिकारी होता है वह हिस्सेदार के रूप में होता है, उत्तराधिकारी के रूप में नहीं। मिताक्षरा पुत्र का उत्तराधिकार केवल पिता की निज की पैदा की हुई संपत्ति में मानती है। दायभाग पूर्वपस्वामी के स्वत्वविनाश (मृत, पतित या संन्यासी होने के कारण) के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है। उसके अनुसार जब तक पिता जीवित है तब तक पैतृक संपत्ति पर उसका पूर अधिकार है; वह उसे जो चाहे सो कर सकता है। पुत्रों के स्वत्व की उत्पत्ति पिता के मरने आदि पर ही होती है। यद्यपि याज्ञवल्क्य के इस श्लोक में
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20231101.hi_502604_3
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दायभाग
पिता पुत्र का समान अधिकार स्पष्ट कहा गया है तथापि जीमूतवाहन ने इस श्लोक से खींच तानकर यह भाव निकाला है कि पुत्रों के स्वत्व की उत्पत्ति उनके जन्मकाल से नहीं, बल्कि पिता के मृत्युकाल से होती है।
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दायभाग
उपर जो क्रम दिया गया है उसे देखने से पता लगेगा कि मिताक्षरा माता का स्वत्व पहले करती है और दायभाग पिता का। याज्ञवल्क्य का श्लोक है:
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दायभाग
इस श्लोक के 'पितरौ' शब्द को लेकर मिताक्षरा कहती है कि 'माता पिती' इस समास में माता शब्द पहले आता है और माता का संबंध भी अधिक घनिष्ठ है, इससे माता का स्वत्व पहले है। जीमूतवाहन कहता है कि 'पितरौ' शब्द ही पिता की प्रधानता का बोधक है इससे पहले पिता का स्वत्व है। मिथिला, काशी और महाराष्ट्र प्रांत में माता का स्वत्व पहले और बंगाल, तमिलनाडु तथा गुजरात में पिता का स्वत्व पहले माना जाता है। मिताक्षरा दायाधिकार में केवल संबंध निमित्त मानती है और दायभाग पिंडोदक क्रिया। मिताक्षरा 'पिंड' शब्द का अर्थ शरीर करके सपिंड से सात पीढ़ियों के भीतर एक ही कुल का प्राणी ग्रहण करती है, पर दायभाग इसका एक ही पिंड से संबद्ध अर्थ करके नाती, नाना, मामा इत्यादि को भी ले लेता है।
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दायभाग
(१) मिताक्षरा के अनुसार पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के स्वत्वविनाश के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है।
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दायभाग
(२) मिताक्षरा के अनुसार विभाग (बाँट) के पहले प्रत्येक सम्मिलित प्राणी (पिता, पुत्र, भ्राता इत्यादि) का सामान्य स्वत्व सारी संपत्ति पर होता है, चाहे वह अंश बाँट न होने के कारण अव्यक्त या अनिश्चित हो।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97
दायभाग
(३) मिताक्षरा के अनुसार कोई हिस्सेदार कुटुंब संपत्ति को अपने निज के काम के लिये बै या रेहन नहीं कर सकता पर दायभाग के अनुसार वह अपने अनिश्चित अंश को बँटवारे के पहले भी बेच सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
फरवरी 2008 में, इंटेल ने कहा कि म्यूनिख में उसके कार्यालय पर यूरोपीय संघ के नियामकों ने छापा मारा था। इंटेल ने बताया कि यह जांचकर्ताओं के साथ सहयोग कर रहा था। [२ cooper cooper] स्टिफिंग प्रतियोगिता के लिए दोषी पाए जाने पर इंटेल को अपने वार्षिक राजस्व का 10% तक का जुर्माना भरना पड़ा। [278] एएमडी ने बाद में इन आरोपों को बढ़ावा देने वाली एक वेबसाइट शुरू की। [279] [२ website०] जून 2008 में, EU ने इंटेल के खिलाफ नए आरोप दायर किए। [281] मई 2009 में, ईयू ने पाया कि इंटेल ने प्रतिस्पर्धा-रोधी प्रथाओं में लगे हुए थे और बाद में रिकॉर्ड राशि पर इंटेल € 1.06 बिलियन (US $ 1.44 बिलियन) का जुर्माना लगाया। इंटेल को एसर, डेल, एचपी, लेनोवो और एनईसी सहित कई कंपनियों को भुगतान किया गया था, [282] विशेष रूप से अपने उत्पादों में इंटेल चिप्स का उपयोग करने के लिए, और इसलिए एएमडी सहित अन्य कंपनियों को नुकसान पहुँचाया। [२ ]२] [२ ]३] [२ ]४] यूरोपीय आयोग ने कहा कि इंटेल ने कंप्यूटर चिप बाजार से प्रतियोगियों को बाहर रखने के लिए जानबूझकर काम किया है और ऐसा करने पर "यूरोपीय संघ के जनविरोधी नियमों का गंभीर और निरंतर उल्लंघन" किया है। [282] जुर्माने के अलावा, इंटेल ने आयोग को सभी अवैध प्रथाओं को तुरंत समाप्त करने का आदेश दिया था। [२ ,२] इंटेल ने कहा है कि वे आयोग के फैसले के खिलाफ अपील करेंगे। जून 2014 में, जनरल कोर्ट, जो यूरोपीय न्याय न्यायालय के नीचे बैठता है, ने अपील को खारिज कर दिया। [282]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
सितंबर 2007 में, दक्षिण कोरियाई नियामकों ने इंटेल पर अविश्वास कानून तोड़ने का आरोप लगाया। फरवरी 2006 में जांच शुरू हुई, जब अधिकारियों ने इंटेल के दक्षिण कोरियाई कार्यालयों पर छापा मारा। दोषी पाए जाने पर कंपनी ने अपनी वार्षिक बिक्री का 3% तक का जुर्माना लगाया। [285] जून 2008 में, फेयर ट्रेड कमीशन ने इंटेल को एएमडी से उत्पाद न खरीदने की शर्त पर प्रमुख कोरियाई पीसी निर्माताओं को प्रोत्साहन देने की अपनी प्रमुख स्थिति का लाभ उठाने के लिए 25.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर का जुर्माना देने का आदेश दिया। [286]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
न्यूयॉर्क ने जनवरी 2008 में इंटेल की जांच शुरू की थी कि क्या कंपनी ने अपने माइक्रोप्रोसेसरों के मूल्य निर्धारण और बिक्री में एंटीट्रस्ट कानूनों का उल्लंघन किया है। [287] जून 2008 में, संघीय व्यापार आयोग ने मामले की एक अविश्वास जांच शुरू की। [288] दिसंबर 2009 में, एफटीसी ने घोषणा की कि वह सितंबर 2010 में इंटेल के खिलाफ एक प्रशासनिक कार्यवाही शुरू करेगा। [289] [290] [291] [292]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
नवंबर 2009 में, दो साल की जांच के बाद, न्यूयॉर्क के अटॉर्नी जनरल एंड्रयू क्यूमो ने इंटेल पर रिश्वत और ज़बरदस्ती का आरोप लगाते हुए मुकदमा दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि इंटेल ने अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में अपने चिप्स से अधिक चिप्स खरीदने के लिए कंप्यूटर निर्माताओं को रिश्वत दी और उन्हें वापस लेने की धमकी दी। भुगतान अगर कंप्यूटर निर्माताओं को अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ मिलकर काम करने के रूप में माना जाता था। इंटेल ने इन दावों का खंडन किया है। [293]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
22 जुलाई 2010 को, डेल ने अमेरिकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग (एसईसी) के साथ समझौते के परिणामस्वरूप $ 100M का भुगतान करने के लिए सहमति व्यक्त की, जिसके परिणामस्वरूप डेल ने निवेशकों को लेखांकन जानकारी का सही खुलासा नहीं किया। विशेष रूप से, एसईसी ने आरोप लगाया कि 2002 से 2006 तक डेल ने इंटेल के साथ एएमडी द्वारा निर्मित चिप्स का उपयोग नहीं करने के बदले में छूट प्राप्त करने के लिए एक समझौता किया था। इन पर्याप्त छूट का खुलासा निवेशकों के लिए नहीं किया गया था, लेकिन कंपनी के वित्तीय प्रदर्शन के बारे में निवेशकों की उम्मीदों को पूरा करने में मदद करने के लिए इस्तेमाल किया गया था; "ये विशिष्टता भुगतान वित्त वर्ष 2003 में डेल की परिचालन आय के 10 प्रतिशत से बढ़कर वित्त वर्ष 2006 में 38 प्रतिशत हो गया, और वित्त वर्ष 2007 की पहली तिमाही में 76 प्रतिशत पर पहुंच गया।" [294] डेल ने आखिरकार 2006 में एएमडी को माध्यमिक आपूर्तिकर्ता के रूप में अपनाया। , और इंटेल ने बाद में अपनी छूट रोक दी, जिससे डेल का वित्तीय प्रदर्शन गिर गया। [295] [296] [297]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
दूषण परमिट से अधिक में जारी किया गया। एक निवासी ने दावा किया कि 2003 की चौथी तिमाही के दौरान एक एसिड स्क्रबर से 1.4 टन कार्बन टेट्राक्लोराइड की रिहाई को मापा गया था, लेकिन एक उत्सर्जन कारक ने इंटेल को 2003 के सभी के लिए कार्बन टेट्राक्लोराइड उत्सर्जन की रिपोर्ट करने की अनुमति दी। [298]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
एक अन्य निवासी का आरोप है कि इंटेल उनके रियो रैंचो साइट से अन्य VOCs की रिहाई के लिए जिम्मेदार था और क्षेत्र के दो मृतक कुत्तों से फेफड़े के ऊतकों के एक नेक्रोप्स ने टोल्यूनि, हेक्सेन, एथिलबेनज़ीन और ज़ाइलीन आइसोमर्स की ट्रेस मात्रा का संकेत दिया, [299] सभी जिनमें से औद्योगिक सेटिंग्स में उपयोग किए जाने वाले सॉल्वैंट्स हैं लेकिन आमतौर पर गैसोलीन, रिटेल पेंट थिनर और रिटेल सॉल्वैंट्स में भी पाए जाते हैं। न्यू मैक्सिको एनवायरनमेंट इंप्रूवमेंट बोर्ड की एक उप-समिति की बैठक के दौरान, एक निवासी ने दावा किया कि इंटेल की अपनी रिपोर्ट में जून और जुलाई 2006 में VOCs के 1,580 पाउंड (720 किलोग्राम) से अधिक दस्तावेज जारी किए गए थे। [300]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
इंटेल का पर्यावरणीय प्रदर्शन उनकी कॉर्पोरेट जिम्मेदारी रिपोर्ट में प्रतिवर्ष प्रकाशित होता है। [301]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2
इंटेल
संघर्ष इलेक्ट्रॉनिक्स से संबंधित उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों की प्रगति पर अपनी 2012 की रैंकिंग में, एनफ प्रोजेक्ट ने इंटेल को 24 कंपनियों में से सर्वश्रेष्ठ का दर्जा दिया, इसे "प्रगति का पायनियर" कहा। [302] 2014 में, मुख्य कार्यकारी अधिकारी ब्रायन क्रज़निच ने बाकी उद्योग से आग्रह किया कि वे संघर्षशील खनिजों द्वारा इंटेल की अगुवाई करें। [३०]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
पटाया
वहाँ कुछ मीटर के जरिए टैक्सियों रहे हैं और वातानुकूलित वैन कुछ होटल के कार पार्क से निजी भाड़े के लिए कार्य करते हैं। Pattaya में लोकप्रिय उपनाम 'baht-बसों', songthaews सार्वजनिक परिवहन का सबसे लोकप्रिय साधन है। लागत एक नियमित मार्ग पर किसी भी दूरी के लिए 10 baht है, लेकिन बहुत अधिक अगर एक निर्दिष्ट गंतव्य के लिए जाने को कहा. मोटरसाइकिल आम तौर पर शहर और उपनगरों में संचालित टैक्सियों और मुख्य रूप से कम दूरी के लिए स्थानीय लोगों द्वारा इस्तेमाल किया। हालांकि टैक्सी मीटर कानून द्वारा करना चाहिए वे, वास्तव में कर रहे हैं, शायद ही कभी इस्तेमाल किया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
पटाया
Pattaya के बारे में 1 आधा घंटे, या Suvarnabhumi हवाई अड्डा, बैंकॉक अंतरराष्ट्रीय हब से सड़क मार्ग से 120 किमी है। सड़क तक, यह Sukhumvit रोड और बैंकॉक से 7 motorway से पहुँचा है। Pattaya भी U-Tapao अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे जो 45 शहर से मिनट ड्राइव है के माध्यम से कार्य किया है (बहुत सीमित).
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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एक मछली पकड़ने शहर एक बार, Pattaya पहले वियतनाम युद्ध के दौरान एक आर एंड आर गंतव्य के रूप में boomed और एक परिवार केंद्रित के रूप में विकसित समुद्र तटीय गंतव्य [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]. 2007 में एक पूरे के रूप में थाईलैंड के लिए विदेशी पर्यटन 14500000 आगंतुकों की राशि. [6]
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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क्रियाएँ (21 Pattaya के 1 घंटे के भीतर गोल्फ कोर्स,) जाओ-kart रेसिंग गोल्फ खेल में शामिल हैं और हाथी गांव, जहां प्रशिक्षण के तरीकों और प्राचीन औपचारिक पुनः अधिनियमितियों के प्रदर्शनों दैनिक प्रदर्शन कर रहे हैं के रूप में अलग थीम पार्क और चिड़ियाघर का दौरा. निजी श्री Racha टाइगर चिड़ियाघर बाघ, alligators और दैनिक शो में अन्य जानवरों सुविधाएँ. Vimantaitalay पर्यटक पनडुब्बी 30 मिनट के लिए कोरल और समुद्री जीवन बस कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर अपतटीय देखने के पानी के नीचे यात्राएं प्रदान करता है। Nong Nooch उष्णकटिबंधीय वानस्पतिक उद्यान के दक्षिण Pattaya के बारे में 15 किलोमीटर की दूरी पर एक 500 एकड़ वनस्पति उद्यान का (2.0 km2) साइट और एक आर्किड नर्सरी जहां प्रशिक्षित चिंपांजियों और हाथियों के साथ सांस्कृतिक शो प्रस्तुत कर रहे है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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Pattaya में अन्य आकर्षण लाख स्टोन पार्क, Pattaya मगरमच्छ फार्म, Pattaya पार्क बीच रिज़ॉर्ट पानी पार्क, अजीब भूमि मनोरंजन पार्क, Siriporn आर्किड फार्म, Silverlake वाइनरी, पानी के नीचे विश्व Pattaya (विश्व स्तरीय मछलीघर), थाई Alangkarn थियेटर Pattaya वर्ष शामिल हैं (सांस्कृतिक) दिखाने के लिए, बोतल कला संग्रहालय, Ripley है विश्वास करो या नहीं संग्रहालय और पानी के नीचे विश्व, एक मछलीघर जहां शार्क और stingrays सहित थाईलैंड की खाड़ी में समुद्री प्रजातियों में से एक संग्रह है। Khao Phra Tamnak या Khao Phra चमगादड़ एक छोटे से दक्षिण Pattaya और Jomtien समुद्र तट कि Pattaya के शहर और इसके वर्धमान खाड़ी के एक Panoramic दृश्य प्रदान करता है के बीच स्थित पहाड़ी है। पहाड़ी Wat Khao Phra चमगादड़, एक मंदिर है और Kromluang Chomphonkhetudomsak, जो माना जाता है के स्मारक द्वारा topped है "आधुनिक थाई नौसेना के संस्थापक पिता."
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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सत्य का अभयारण्य एक बड़े लकड़ी Laem Ratchawet में समुद्र, कि सपना है कि मानव सभ्यता हासिल किया गया है और धार्मिक और दार्शनिक सच द्वारा पोषित से कल्पना की थी द्वारा 1981 में निर्मित संरचना है।
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मिनी Siam एक लघु मॉडल गांव जो सबसे प्रसिद्ध स्मारकों की प्रतिकृतियां और Emerald बुद्ध के मंदिर, लोकतंत्र स्मारक, पुल नदी Kwai पर और Prasat हिन Phimai सहित ऐतिहासिक स्थलों के साथ थाईलैंड की विरासत मनाता है। लंदन के टावर ब्रिज, एफिल टॉवर, लिबर्टी और Trevi Fountain की प्रतिमा के मॉडल भी "मिनी दुनिया" कहा जाता है अनुभाग में प्रदर्शित होता है।
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वाट Yanasangwararam Woramahawihan एक Somdet Phra Yanasangwon, वर्तमान सुप्रीम पैट्रिआर्क के लिए 1976 में निर्माण किया और बाद में महामहिम राजा द्वारा समर्थित मंदिर है। मंदिर के परिसर के भीतर बुद्ध के पदचिह्न की एक प्रतिकृति और एक बड़ा Chedi भगवान बुद्ध के अवशेष शामिल हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE
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Pattaya इंटरनेशनल बिस्तर रेस (देर जनवरी से फरवरी के शुरू में भिन्न होता है) एक बहुत बड़ा मज़ा और दान घटना Pattaya सिटी हॉल और Pattaya के रोटरी क्लब द्वारा आयोजित. पिछले घटना उपस्थिति में 30,000 से ज्यादा लोग थे, www.pattayabedrace.com.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
भूराजनीति
भूराजनीति के विकास क्रम में शीत युद्ध के अनेक चरणों का महत्व है, जैसे, क्युबा मिसाइल संकट (१९६२), १५ वर्षों तक चलने वाला वियतनाम युद्ध (१९७५), १० वर्षीय अफग़ानिस्तान गृह युद्ध (१९८९), बर्लिन दीवार व जर्मनी एकीकरण (१९८९) तथा सबसे महत्वपूर्ण सोवियत संघ का विघटन (१९८९)।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
भूराजनीति
भूराजनीति की अवधारणा की प्रबलता का संबंध १९वीं शताब्दी के अंत में साम्राज्यवाद में हो रहे गुणात्मक परिवर्तन से भी है। ब्रिटेन के भारत में अनुभव साम्राज्यवाद के अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों में से एक थे। राजनैतिक शासन की सीमाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। तथा ब्रितानी सूरज अस्ताचल की ओर गतिमान था। इसका दूरगामी प्रभाव अफ्रीकी मुल्कों पर भी पङा, तथा अनेक देशों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता प्राप्त की। भूराजनीति में इसके महत्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है, कि भौगोलिक परिस्थितियों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध चेतना को प्रभावित किया, जैसे कि अफ्रीकी महाद्वीप में रंगभेद औपनिवेशवाद का घटक माना गया, तो दक्षिण एशिया में सांप्रदायिकता को उपनिवेशवाद की उपज माना गया। इस प्रकार महाद्वीपों में राष्ट्रों के निर्माण के बाद उनके महाद्वीपीय संबंध व अंतर-महाद्वीपीय संबंध उनके साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के अनुभवों से प्रभावित दिखे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
भूराजनीति
एक और दृष्टिकोण इस संबंध में उद्धृत करना उचित रहेगा। भूराजनीति औपनिवेशिक शक्तियों के अनुभवों से जुङी विश्व व्यवस्था का दिशाबोध है, अतः इसका चिंतन प्रत्येक राष्ट्र के उपनिवेशकाल के अनुभवों का प्रतिबिंब है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF
भूराजनीति
भूराजनीति की एक अन्य महत्वपूर्ण अवधारणा ग्रेट गेम संकल्पना है। यह १९वीं शताब्दी की दो महान शक्तियों के टकराहट की एक रोचक संकल्पना है। ब्रिटेन का सर्वप्रिय उपनिवेश भारतीय उपमहाद्वीप था, उसके संसाधन को चुनौती को विफल करना उस समय ब्रिटेन की प्राथमिकता थी। यूरोपीय शक्तियों में नेपोलियन के नेतृत्व में फ्रांस एक चुनौती प्रतीत हुआ, परंतु यह अवतरित नहीं हो सकी। तत्पश्चात् रूस एक महाद्वीपीय शक्ति के रूप में प्रकट हुआ। यह उपनिवेशकाल के महत्वपूर्ण चरणों में से एक है, कि विश्व व्यवस्था के दो स्पष्ट आधार दिखाई देने लगे। एक व्यवस्था जो कि महासागरों द्वारा पृथ्वी के संसाधनों को नियंत्रित करने की थी, तो दूसरी व्यवस्था एशिया महाद्वीप में सर्वोच्चता के नवीन संघर्ष की ओर प्रवृत थी।
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भूराजनीति
औपनिवेशवाद एक ऐतिहासिक अनुभव है। परंतु राष्ट्रों के निर्माण की प्रक्रिया एवं उनके मध्य व्यवहार का निर्माण एक वैश्विक व्यवस्था को इंगित करती है। संबंधों की परिभाषा वर्गीय चेतना द्वारा निर्धारित होती है। यूरोपीय समाजों के अनुभव, व अन्य समाजों के अनुभवों में तुलनात्मक रूप से अधिक भिन्नता है।
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